1.
फासला
वह मेरे सामने बैठी थी- शॉल लपेटे, गुमसुम-सी, चुपचाप। या शायद मुझे
ही ऐसा लग रहा था। उसका नाम मुझे याद नहीं आ रहा था और यही बात मेरे
अन्दर एक तल्खी पैदा कर रही थी। उसकी बगल में दाहिनी ओर सोफे पर
गुरुद्वारे के तीन नुमांइदे आये बैठे थे। उनके साथ भी दुआ-सलाम से
अधिक कोई बात नहीं हुई थी। थोड़ा-सा संकोच मुझे खुद भी हो रहा था,
क्योंकि दिनभर की थकावट को उतारने की नीयत से मैंने अभी-अभी व्हिस्की
का एक पैग लगाया था। गुरुद्वारे से आये नुमांइदों की समस्या के बारे
में थोड़ी-बहुत जानकारी थी मुझे। अरबन एस्टेट के साथ वाली लेबर कालोनी
के कुछेक पढ़ाकू लड़कों ने गुरुद्वारे में आकर इस बात पर तकरार की थी
कि परीक्षाओं के दिन हैं, इसलिये स्पीकर की आवाज कम की जाएे या इसका
मुँह दूसरी तरफ किया जाएे। तभी से, अफसरनुमा कर्ताधर्ता इधर-उधर घूम
रहे थे। अब भी वे इसीलिये आये थे।
प्रधान प्रदुमन सिंह ने हल्का-सा खाँसते हुए बात शुरू की, ''सरदार
साहिब, आप तो मामला जानते ही हैं। यह तो सरासर गुरु-घर का अपमान है।
मसला और ज्यादा बिगड़ जाने का चांसेज है... आप...।''
अजीब फितरत है मेरी भी। दिमाग में कोई गांठ लग गयी तो तब तक चैन नहीं
मिलता, जब तक वह खुलती नहीं। बात इतनी अहम नहीं, यह मैं जानता हूँ।
इसका नाम अमृत, अमन, अमरजीत... नहीं, नहीं, बात रुक नहीं रही दिमाग
में। वैसे मुझे पता है कि इसका नाम 'अ' से ही शुरू होता है और है भी
चार अक्षर का। शॉल में लिपटा उसका चेहरा मासूम लग रहा है, या मुझे ही
ऐसा प्रतीत हो रहा है।
''आप तो शायद बाद में आये यहाँ। इकहत्तर में बनाया हमने यह
गुरुद्वारा। तन, मन, धन से। इस लेबर कालोनी में से किसी ने फूटी कौड़ी
नहीं दी। हमने कहा, कोई बात नहीं, वो जानें। आप तो जानते ही हो,
गुरुद्वारे की अपनी रवायतें हैं। यहाँ पाठ भी होना है और कीर्तन भी।
कोई उठकर कहने लगे कि गुरुद्वारे को झुका लें... लड़के तो हमारे भी
मूंछों को ताव देते घूम रहे हैं, पर हमने कहा, नहीं। ऐसी कोई बात
नहीं करेंगे जो सिक्ख उसूलों के खिलाफ हो।''
अचानक, मुझे लगा मानो मेरा सिर घूमने लगा हो। यूँ लगा, जैसे अन्दर
धुआँ-सा जमा होने लगा हो। क्या फैसला दूँ मैं? क्या भूमिका निभाऊँ ?
इधर एक छोटा-सा कांटा फँसा पड़ा था दिमाग में। पता नहीं, मुझे वह इतनी
सहज क्यों लग रही थी। गुरुद्वारे के मसले में मेरी रत्ती भर दिलचस्पी
नहीं थी। मैं इधर-उधर देखकर बहादुर को खोजने लगा, जो रसोई की चौखट के
साथ पीठ टिकाये खड़ा था। मैंने उसे इशारा किया, ''जरा इधर आओ।''
''जी साहिब!'' वह करीब आकर बोला।
''पहले पानी ला, फिर चाय।'' अपने छुटकारे के लिए मानो यही राह मुझे
आसान लगी थी।
''नहीं, नहीं, चाय की कोई ज़रूरत नहीं सरदार साहिब...। आप हमें थोड़ा
गाइड करो।'' प्रधान साहिब बोले।
मैं असमंजस में था कि क्या बोलूँ ? लेबर कालोनी के बच्चों की पढ़ाई
ज़रूरी है या 'शबद-कीर्तन' का कानफोड़ू शोर। प्रधान प्रदुमन सिंह की
दर्शनीय दाढ़ी उनके कंधे पर पड़ी सफेद लोई के साथ खूब मैच कर रही है।
सचिव सुखदयाल सिंह की मूंछों के कुंडल उनकी ऊँची शख्सीयत का दम भर
रहे हैं। ये तीसरे शख्स गुरुद्वारे के खजांची हैं। उनसे मेरा ज्यादा
परिचय नहीं। ये जाने-माने व्यक्ति हैं। गुरुद्वारे का मामला वाकई
संगीन है। मुझे बोलने के लिए कोई राह नहीं सूझ रही थी। नशे के
हल्के-से सुरूर के कारण मेरी नज़र भी डोल रही थी। दिमाग का एक हिस्सा
लड़की के नाम की तलाश में मुझे लगातार बेचैन कर रहा है। अजीब स्थिति
है। गुरुद्वारे वाला मसला तो अब किसी भी सूरत में हल होने वाला नहीं।
वैसे भी मन के किसी कोने में से आवाज आ रही है कि यह मसला मेरे स्तर
पर हल होने वाला है ही नहीं। इस बात को शायद ये लोग भी समझते हैं।
मेरी सलाह लेना इनकी कोई मजबूरी भी हो सकती है। एक दिन तड़के पौ फटे
सैर करते समय अपने से आगे जा रहे दो व्यक्तियों की बातचीत मैंने सुनी
थी- 'यह शडयूल्ड कास्ट अफसर हमारे हक में नहीं खड़ा होगा।' मैंने तभी
चाल धीमी कर ली थी। बातें करने वाले वो व्यक्ति ये थे या कोई और, पता
नहीं, पर थे वे इन जैसे ही। अपने स्वभाव के अनुसार मुझे इनके मसले
में बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं। अच्छा हुआ, बहादुर पानी के गिलासों
वाली ट्रे लेकर आ गया। उससे पानी का गिलास लेकर मैंने खुद भी पिया।
फिर, उन सज्जनों की ओर मुखातिब हुआ, ''मेरे विचार में जल्दबाजी ठीक
नहीं। एक मीटिंग रख लो। मुझे खबर कर देना, मैं आ जाऊँगा, इस वक्त तो
ज़रा...।''
वे भी शायद मेरी स्थिति से परिचित हो चुके थे। उन्होंने एक-दूसरे की
ओर देखकर उठने का मन बना लिया।
मैंने कहा, ''बैठो, चाय पीकर जाना।''
''नहीं, नहीं, चाय नहीं सरदार साहब, फिर कभी सही।'' सचिव साहिब बोले,
''पर आप इस मसले का हल निकालें।''
प्रधान साहिब भी उठ खड़े हुए, ''गुरुद्वारे के लिए तो सिंहों ने जानें
अर्पण कर दीं।''
अर्णण! खुल गयी गांठ ! उसने भी एक बार सिर उठाकर उनकी ओर देखा। एकदम
मैंने स्वयं को सुर्खरू महसूस किया। अर्पण था नाम उसका।
''हम इसका गंभीरता के साथ हल निकालेंगे। आप बस अमन-चैन बनाये रखो।''
मैं भी उठकर उनके साथ चल दिया। वह वहीं बैठी रही। ड्राइंग-रूम में से
निकलकर उन्होंने हाथ जोड़ फतह बुलायी और चल गये। मैं दरवाजा भेड़ कर
फिर से अपनी पहली वाली जगह पर आ बैठा। बहादुर ने पास आकर पूछा, ''चाय
साहब?''
उसे उत्तर देने के बदले मैंने अर्पण से पूछा, ''आप चाय लोगे न?''
''नहीं, नहीं, कोई ज़रूरत नहीं इस वक्त।'' वह बोली।
''देखो संकोच करने की कोई बात नहीं। कोई फारमैल्टी नहीं। आपका अपना
घर है...।'' मुझे लगा, बात मैं थोड़ा बड़ी कर गया था। एकदम इतनी छूट
ठीक नहीं। आखिर, मेरा भी कोई स्टेट्स है। पूरी तहसील का मालिक हूँ।
''मुझे लगता है, आपने मुझे पहचाना नहीं सर।'' मेरी बात पर शायद उसने
राहत महसूस की।
बदन पर लपेटे शॉल को उसने ढीला किया और थोड़ा और सहज हो गयी। नशे की
हल्की-सी तार मेरी आँखों में लरजी। उसका चेहरा पहले से कमजोर था।
नयन-नक्श मिच्योर हो गये थे। ढीले हुए शॉल में से मैंने उसकी छातियों
का जायजा लेने की कोशिश की, पर सफल न हो सका। पहले वाली बात तो अब
मेरी भी नहीं रही थी। रसूलपुर की ठठ्ठी के सीलन भरे कोठे में से
निकलकर, निचली जात का लड़का तेजू अर्बन एस्टेट की इस शानदार कोठी में
रह रहा था, आलीशान घराने की कालेज-लेक्चरर पत्नी और कान्वेंट स्कूल
में पढ़ते दो होनहार बच्चों के साथ।
मैंने तेजू के मुँह पर से पर्दा खिसकाया। छठी कक्षा में दाखिला लेने
के लिए जब हाई-स्कूल में गया था, तो मास्टर दर्शन सिंह ने टिप्पणी की
थी, ''आ रे सुरैणे मज्हबी के पढ़ाकू ! बता अफसर बनना है कि लफटैण?''
मैं नज़रें झुकाये खड़ा रहा था। वे शब्द मेरे लिए बेअसर थे। मैं चुपचाप
क्लास में बैठ गया था। फिर, वह दूसरे मास्टरों के साथ अपना दु:ख साझा
कर रहा था, ''देखो तो दुहाई रब की। फीसें माफ, किताबें मुफ्त। तुम
देखना, जट्टों के लड़के भेड़ें चराया करेंगे और अफसर बनेंगे ये लोग।
कोटे, रिजर्वेशन्स...दुर लाहनत।''
''क्यों कुढ़ रहे हो, मास्टर जी ? गुरु साहिब का खंडे-बाटे का अमृत
क्यों भूलते हो ?'' मास्टर संतोख सिंह ने कहा था। ''मानस की जात
बराबर समझने के लिए कहा है गुरुओं ने। फिर आप तो अमृतधारी...।''
''कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली।'' उसकी बात का उत्तर देने के
बजाय वह बुदबुदाया था। बाद में, मास्टर संतोख सिंह ने मुझे राज की एक
बात बतायी, ''पढ़ाई से अधिक कोई शॉर्ट कट नहीं। इन बातों की परवाह न
कर और डटकर पढ़। मैं जानता हूँ, तेरे अन्दर पढ़ने की लगन है। तू देखना,
ये सारे तेरा पानी भरेंगे।''
मुझे लगता था, जैसे मैं इन बातों के बारे में पहले से ही जानता था।
पता था कि मेरी जाति के खिलाफ एक बहुत बड़ी साजिश है। कुछ टीचरों की
आँख में मैं सबसे अधिक चुभता था। कुछ लड़के मुझसे तीखी खार खाते थे।
उन्होंने मेरा एक बिगड़ा हुआ नाम रखा हुआ था। इन सब विरोधों के बीच
मैं अपने आप को बचाकर चलता रहा।
अब गेट पर नेमप्लेट लगी है- तेजवंत सिंह, सब डिवीजन मैजिस्ट्रेट।
बाहर नई चमचमाती सरकारी जिप्सी खड़ी है। तत्पर, ड्राइवर सहित।
अर्पण कुछ बोली थी शायद। उसने 'सर' कहकर सम्बोधित किया था। शायद, कह
रही थी, ''आपने मुझे पहचाना नहीं ?''
मेरी नज़र सहज ही उसके ढीले हुए शॉल के अन्दर चली गयी। उसने मेरी इस
हरकत को ताड़ लिया। वह हल्के-से फुसफुसाई, ''गरमी महसूस हो रही है।''
और शॉल उतार कर तह करने लगी। मुझे लगा, मेरी सुविधा के लिए ही उसने
ऐसा किया है। मुझे अपनी जल्दबाजी पर अफसोस हुआ।
मैंने बहादुर को पुकारा, ''बहादुर !''
रसोई में से निकल बहादुर मेरे पास आ खड़ा हुआ, ''जी साहिब।''
''क्या कर रहे हो ?'' मैंने पूछा।
''चाय ला रहा हूँ।'' वह बोला।
''चाय सिर्फ इनके लिए लाओ एक कप, मेरे लिए नहीं। ठीक।''
''जी साहिब।'' कहकर वह चला गया।
अर्पण ने शॉल तह लगाकर सोफे की बाजू पर रख लिया। कह रही थी, मुझे
पहचाना नहीं? अपने गाँव के नम्बरदार सरदार तारा सिंह की अंहकारी बेटी
अर्पण को कैसे नहीं पहचानता? उसका नाम भूल जाने वाली बात तो अचानक हो
गयी, उसकी आवाज तो मैंने फट पहचान ली थी। मेरा बाप तो इनकी बेगारी
करते-करते कुबड़ा हो गया था। शिखर दोपहरी में मैं इनकी गेहूं काटा
करता था और जान निकाल लेने वाले चौमासों में धान की पौध लगाया करता
था। मुझे वे सिल्वर के टेढ़े-मेढ़े बर्तन कैसे भूल सकते हैं, जो मेरे
और मेरे बापू के लिए एक आले में अलग ही पड़े होते थे। उन बर्तनों में
जब मैं दाल-रोटी डलवाने के लिए चौके की तरफ जाता था, तो अर्पण मेरी
ओर कभी देखती तक नहीं थी। वैसे, मेरी क्लास-मेट थी वह, लेकिन कभी कोई
बात मैंने उसके साथ साझी नहीं की थी। ना ही कभी ऐसी कोई इच्छा जागी
थी। किसी भी लड़की में मेरी कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही थी। बस्ती की
एक दो लड़कियाँ, जो मेरे से निचली कक्षा में पढ़ती थीं, कभी-कभार सवाल
पूछने आ जाती थीं। उनके साथ भी मेरी बात सवाल समझाने तक ही सीमित
रहती। अर्पण तो खड़ी ही दूसरे छोर पर थी। बल्ब की मरियल-सी रोशनी में
देर रात तक पढ़ते रहना मेरा नियम था। आठवीं कक्षा में मैरिट में आया
तो मेरा स्कॉलरशिप लग गया। उस वक्त बापू ने मुझे दिहाड़ी पर जाने से
बिलकुल रोक दिया था। काम का सारा बोझ बापू के सिर पर पड़ता देख मैं उस
वक्त अन्दर-ही-अन्दर दुखी हुआ था। घर की डावांडोल हालत को सुधारने का
सामर्थ्य मुझमें नहीं था। लेकिन, पढ़ाई का शॉर्ट कट मुझे हौसला देता,
अपनी मंजिल मुझे करीब दिखाई देती।
अर्पण नए लेडी साइकिल पर स्कूल आती थी। मेरा यह सफ़र पैदल ही तय
होता। वह लड़कियों के संग करीब से गुजरती तो कोई ताना मार जाती। मैं
अनसुनी करके चुपचाप अपनी राह चलता रहता। मैंने हॉकी की टीम में शामिल
होने की कोशिश की, पर मास्टर दर्शन सिंह ने बड़ी चुस्ती के साथ मुझे
टीम के पास नहीं फटकने दिया। सबकुछ जानते-समझते मैंने बात को मन पर
नहीं लगाया था। मास्टर संतोख सिंह ने मेरी पीठ थपथपाई थी। मुझे पता
था, अकेले वही मेरी ओर है, बाकी सब दूसरी ओर।
अर्पण दूसरे धड़े का आखिरी सिरा थी। मुझे देखकर नफ़रत में थूकती थी।
मुझे इस बात का कभी रंज नहीं हुआ था। वह लड़कियों को उत्साहित होकर
बताती थी, तेजू हमारा कामगार है, नौकर है। वह मेरी बड़ी बहन सीतो के
बारे में भी ऊल-जुलूल बोलती थी। मैंने अर्पण को साइंस-रूम में मास्टर
सेवा सिंह के साथ देखा था, अकेले और बिलकुल साथ सटे हुए। उस वक्त
अर्पण ने शर्मिन्दगी महसूस करने के बदले मुझे धमकी दी थी, ''खबरदार,
अगर किसी से कुछ कहा तो। बहुत बुरा करुँगी।''
यह कैसे हो सकता है कि मैं अर्पण को पहचान न सका होऊँ ? यह तो यूँ ही
सोच का बहाव बहाकर ले गया मुझे। जीवन के रास्ते कहाँ इतने लम्बे होते
हैं कि आदमी बेपहचान हो जाएे। यह तो सहज ही जख्म छिल गया। अर्पण भी
उस जख्म की जिम्मेदार है। अब वह मेरे सम्मुख सहज और सीधी बनी बैठी
है। वह किधर से आयी थी, यह मैं अभी तक नहीं जान सका था।
मेरी मनचली नज़र अर्पण के खुले गले में झांकने का प्रयास कर रही है।
अर्पण के बैठने का अंदाज ऐसा है मानो वह मूक स्वीकृति दे रही हो।
दिनभर की थकावट के बावजूद, मैं किसी संभावी मुकाबले के लिए खुद को
तैयार करने लगा। उस ज़ख्म पर कोई फाहा रखने की खातिर।
बहादुर उसके सामने चाय का कप रख गया। मेरे चेहरे पर तनी कशमकश को देख
वह बोली, ''शायद मेरा आना आपको अच्छा नहीं लगा।''
''नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।'' मैंने कहा।
''फिर आप इतना चुप...।'' वह बोली।
''आपको पता ही है शुरू से मेरी आदत। अभी भी वैसा ही हूँ। आप रीलेक्स
होकर बैठो। असल में, व्यस्तता बहुत है। आपने देखा न, वो लोग आये थे,
उनका भी कोई मसला था। उनके साथ भी संक्षेप में बातचीत हुई। आप चाय
लो, ठंडी हो रही है।''
इस गुरुद्वारे वाले मसले ने भी अन्दर का ज़ख्म छील कर रख दिया था।
मैंने स्वयं एक बार गुरुद्वारे में जाकर ऐसी ही विनती की थी, परीक्षा
का हवाला देते हुए स्पीकर की आवाज कम रखने का अनुरोध किया था। लेकिन,
प्रबंधकों ने दुत्कार दिया था, ''तेरी पढ़ाई ऊँची है कि गुरबाणी?''
प्रबंधकों में सबसे आगे अर्पण का बाप ही था। धर्म की इतनी बड़ी दीवार
से टक्कर लेना मेरे वश में नहीं था। मैं चुप हो गया था। मुझे लेबर
कालोनी के लड़कों पर तरस आया। पर सही धड़े के साथ खड़ा होना इस समय मेरे
लिए दुविधा वाला मसला बना हुआ था।
दूसरे धड़े के साथ खड़ी होने वाली अर्पण आज इतनी सहज क्यों है? क्यों
इतनी नरम है? कौन-सी ज़रूरत इसे मेरे पास ले आयी है? बाहर अंधेरा पसर
रहा है, रात उतर रही है। क्यों आयी है वह?
''आपने मन मारकर पढ़ लिया। इतनी मेहनत आप ही कर सकते थे। मेरी ओर
देखो, न आगे, न पीछे।'' चाय में से उठती भाप पर दृष्टि टिकाये वह
बोली।
''ऐसी क्या बात हो गयी ?'' मैंने उत्सुकता जाहिर की।
''शायद आपको नहीं मालूम, पिछले कुछ समय से मैं गाँव में ही रह रही
हूँ। मैं और मेरी बेटी दोनों।''
''आपके हसबैंड ?''
''उसके साथ अब मेरा कोई रिश्ता नहीं। यह मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी
हार है।'' उसके चेहरे पर उदासी तन गयी।
''कोई केस वगैरह ?'' मुझे उसके साथ हमदर्दी जाग गयी।
''केस तक की तो कोई नौबत ही नहीं पड़ी। वह तो मामला ही ठप्प हो गया।''
उसने कहा। फिर, चेहरे पर से उदासी के प्रभाव को हटाकर थोड़ा मुस्कराते
हुए बोली, ''आपके पास एक छोटे से काम से आयी हूँ और वह काम आपके हाथ
में है।''
''बताओ, बताओ।'' मैंने कहा।
''पिछले साल मेरी बेटी ने दसवीं पास की है। मैंने उसे आपके विभाग में
असिसटेंट की पोस्ट के लिए अप्लाई करवाया है। यह काम आपने करना है।''
कहकर उसने चाय का घूंट भरा।
''बस, इतनी सी बात। उसके पर्टीकुलर्स मुझे दे दो। यह कोई बड़ी बात
नहीं।'' मैंने उसे सिर से पांव तक निहारा। उसने मुस्करा कर स्वागत
किया।
''थैंक्यू सर।'' उसने हाथ जोड़े।
''कम से कम आप तो सर न कहो। हम क्लास-फैलो रहे हैं, और फिर एक गाँव
के। एक मुद्दत के बाद मिले हैं। शायद पन्द्रह साल बाद।''
''पन्द्रह नहीं, कम से कम बीस साल बाद। अट्ठारह साल की तो मेरी बेटी
हो गयी। आपके बच्चे ?''
''मेरे दो बच्चे हैं। बेटी आठवीं में है और बेटा छठी कक्षा में। दो
छुट्टियाँ थीं, अपनी मम्मी से कहने लगे- रॉक गार्डन दिखा लाओ। आज ही
दिन में गये हैं।'' मैंने उसके चेहरे पर नज़र गड़ाई तो वह मुस्करा दी।
मेरे अन्दर अजीब-सी हलचल मच गयी। आहिस्ता से उठकर मैं बैड रूम में
गया और अल्मारी में रखी बोतल में से एक पैग बनाकर पी गया। नशे की
मद्धिम पड़ रही तार फिर से तीखी हो उठी।
वापस आया तो वह बोली, ''बाथरूम किधर है ?''
बहादुर से मैंने कहा, ''मैडम को अन्दर वाला बाथरूम दिखा दे बहादुर।''
वह बहादुर के पीछे-पीछे चली गयी। उसकी कमर देखकर मेरे अन्दर गुदगुदी
होने लगी। बाथरूम से लौटकर वह रसोई में जा घुसी और बहादुर से कुछ
पूछती रही। रसोई में से बाहर आयी तो उसके चेहरे पर से संकोच-झिझक के
भाव गायब हो चुके थे। मैंने बैडरूम में जाकर एक पैग और बना लिया। उसे
बुलाने की खातिर पूछा, ''बुरा तो नहीं मानते ?''
''नहीं नहीं, कोई बात नहीं।'' वह बोली।
फिर, थोड़ा-सा और खुलकर मैंने कहा, ''आपने स्टे तो अब यहीं करना है,
चाहो तो चेंज वगैरह कर लो। मेरी पत्नी का कोई सूट पहन लो। फिर बैठते
हैं रीलेक्स होकर।''
''कोई बात नहीं, सोते समय कर लूँगी।'' उसने अपना इरादा स्पष्ट कर
दिया।
दो पैग और पीने के बाद मेरी नज़र डोलने लगी थी। वह मैगजीन होल्डर में
से पत्रिकायें निकाल कर उलटती-पलटती रही। नज़र मिलती तो मुस्करा देती।
डायनिंग टेबल पर खाना खाते समय छोटी-मोटी बातें हुईं। रसोई संभाल कर
बहादुर अपने कमरे में चला गया। ड्राइवर को मैंने यह कहकर भेज दिया कि
सवेरे जल्दी आ जाए। अर्पण ने मेरी पत्नी की मैक्सी पहन ली। मैंने
देखा, उसके शरीर में कशिश बरकरार थी। बेकाबू होती सोच का कांटा बदल
कर मैंने कहा, ''बेटी के फार्म वगैरह मुझे दे दो आप।''
वह टेबल के नीचे से फाइल उठा लाई। एक बार उसकी छातियों को नज़र से
टटोलते हुए मैंने फाइल ले ली।
''अनुरीत कौर...'' मैंने उसके चेहरे की ओर देखा, ''मेरी बेटी का नाम
भी अनुरीत ही है। इधर देखो...।'' मैंने सामने लगी अपनी बेटी की
तस्वीर की ओर इशारा किया। स्कूल में कविता-पाठ के लिए प्रथम पुरस्कार
प्राप्त कर रही थी वह। अर्पण ने तस्वीर के करीब जाकर देखा और बोली,
''बहुत प्यारी है आपकी बेटी। आपके जैसी इंटेलीजेंट होगी।'' वह
मुस्कराई। पता नहीं कैसी मुस्कराहट थी यह ? बिलकुल उसी तरह जिस तरह
मेरे दफ्तर का स्टाफ 'जी हुजूर, ठीक है साहब, आपने ठीक फरमाया सर'
कहकर मुस्कराता है। मेरी गलत बात का भी समर्थन कर देता है। दूसरे धड़े
के अन्तिम सिरे पर खड़ी अर्पण कुछ इसी तरह ही मेरे इतना करीब आ खड़ी
हुई है। मेरी बीवी की मैक्सी पहने, मेरे से इतनी दूर जिसे हम फासला
नहीं कहते। मैं अर्पण के चेहरे की ओर देख रहा था। नशे के स्थान पर
पीड़ा का एक तीखा अहसास मेरे अन्दर जाग रहा था। अर्पण मेरी बड़ी बहन
मीतो का नाम अपने चाचा के साथ जोड़कर मजा लिया करती थी और मुझे ग्लानि
के गहरे खड्ड में धकेल दिया करती थी। उस वक्त, कई बार मन करता था कि
कोई ऐसा हथियार हो, जिससे मैं चीर कर रख दूँ ऐसे लोगों को।
दूसरी दीवार पर मेरे बेटे विकासबीर की तस्वीर थी। कंधे पर बैट रखे,
खिलाड़ियों वाली टोपी पहने। मुझसे कहता है, 'पापा, मुझे क्रिकटर बनना
है।' मेरे जेहन में मास्टर दर्शन सिंह का चेहरा घूम जाता है। मैं
बेटे को उत्साहित करता हूँ, यह जानते हुए भी कि मास्टर दर्शन सिंह
जैसे लोग हर जगह मौजूद हैं।
दारू का असर कम होने लगा है। मैंने फाइल बन्द करके अल्मारी में रख
दी। सामने दारू की आधी बोतल पड़ी थी। मन हुआ, नीट ही पी जाऊँ और दिल
पर पड़ रहे अनचाहे बोझ से मुक्त हो जाऊँ। मैंने हुक्म की प्रतीक्षा
में खड़ी अर्पण की ओर देखा। मेरे एक इशारे पर बिलकुल तैयार थी वह। वह
जो दूसरे धड़े का आखिरी सिरा था, अचानक टूट कर सामने आ गिरा था।
मैंने उसे कहा, ''आओ, आपको बैडरूम दिखा दूँ।''
सामने वाले कमरे तक छोड़कर मैं वापस आ गया और आते ही बैड पर ढह गया।
और दारू पीने का ख्याल छोड़, मैंने स्वयं को पल-पल फैलती जाती सोच के
हवाले कर दिया।
अकेलापन, बेगानी औरत, ज़ख्म का अहसास और कई घंटों तक फैली रात...
मेरे से अर्पण तक सिर्फ तीन कदमों का फासला था, बस... दोनों बैडरूम
के दरवाजे चौपट खुले थे। मेरी चेतना में फंसा कोई कांटा मुझे बेचैन
कर रहा था। तीन कदमों का फासला एकाएक फैलने लगा था। मुझे लग रहा था,
यह फासला मुझसे तय नहीं हो सकेगा। और यह रात... यह रात इसी तरह गुजर
जाने वाली थी।
(शीर्ष पर वापस)
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2. खुशबू
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कान्फ्रेंस के दौरान मुझे किसी ने बताया कि हनीफा बीबी मुझे खोजती
घूम रही है। मैं भी उसे ढूँढ़ रहा था। सोच रहा था कि अब दोपहर के खाने
के समय ही मुलाकात होगी, पर अचानक किसी ने पीछे से आकर मेरे कंधे पर
आहिस्ता से धौल जमाई। मैंने पलट कर देखा तो पैंसठ-छियासठ साल की, कसी
कदकाठी वाली एक औरत मुस्करा रही थी। उसके गोरे चेहरे पर सुनहरे फ्रेम
वाली ऐनक खूब फब रही थी। बोली, ''तू सुरिंदर ही है न?''
मैंने सिर हिलाया, ''आप...?''
''हाँ वही।'' उसने जवाब दिया, ''उठकर बाहर आ जा।''
मैं उठकर उसके पीछे-पीछे बाहर आ गया। ऑडीटोरियम की सीढ़ियों के करीब
खड़े होकर वह बोली, ''आ गले मिल।'' और उसने मुझे अपनी बांहों में कसकर
प्यार दिया। ''चलते वक्त से ख्वाहिश थी मेरी, तुझसे मिलने की। तेरी
चिट्ठियों ने तो मोल ही खरीद लिया मुझे, और तेरा वह लेख...।''
''मैंने भी आपका नावल पढ़ा। उर्दू अक्षरों में पंजाबी पढ़ते समय जोर तो
बहुत लगा, पर एक बार तो हिल गया मैं।''
''इसका मतलब अच्छा लगा तुझे।'' वह बोली।
''बहुत बढ़िया। मुझे लगा, इसकी कहानी आपके निजी जीवन से जुड़ी हुई है,
तभी तो विवरण इतने सजीव हैं।'' मैंने कहा।
''तू बता, अपने असली जीवन से कैसे टूट सकता है बंदा? जिसको जिया,
झेला, भोगा वह...वह हमारी लिखत में तो आएगा ही, कि नहीं?'' वह कह रही
थी और मैं सहमति में सिर हिला रहा था।
''चल, ज़रा भीड़ से दूर हटें। कहीं चाय नहीं मिल सकती बढ़िया सी?''
''मुझे चंडीगढ़ की अधिक जानकारी नहीं। पर आओ नीचे चलें, कोई राह खोजते
हैं...।'' सीढ़ियाँ उतर कर हम नीचे आ गये। वह मेरे साथ ऐसे चलने लगी
मानो बरसों से परिचित थी। मुझे भी लगा जैसे हम पहले अनेक बार मिल
चुके हों। मैंने इधर-उधर देखा, पर कोई मनपसन्द जगह नज़र नहीं आयी।
मेरी उलझन को समझकर वह बोली, ''चल यहाँ से भी निकल, कहीं और चलें।''
चाय के दो कपों के लिए मैंने कई किलोमीटर कार घुमाई। उसका करीब होना
मुझे अच्छा लग रहा था। आसपास की इमारतों को देखती वह कई प्रश्न पूछती
रही, जिनका उत्तर मैं अपनी जानकारी के अनुसार देता रहा।
''मैं आपको दीदी कहकर बुलाऊँ?'' उसके अपनत्व में घिरते हुए मैंने
पूछा।
''अगर बहन जी कहते हुए तुझे जोर पड़ता है तो मौसी-बुआ कुछ भी कह ले,
पर दीदी-शीदी बिलकुल नहीं।'' उसने हँसकर उत्तर दिया।
दोपहर के खाने के वक्त भी वह मेरे करीब रही। अगली बैठक में मेरे पास
बैठी। रात में उसने स्टेज पर से बेहद सोज़भरी आवाज में एक ग़ज़ल सुनाई।
सुनकर मैं दंग रह गया। खूब तालियाँ बजीं।
स्टेज से उतरी तो मैंने मुबारकबाद दी, ''आपकी आवाज में तो जादू है।''
जवाब में वह सिर्फ मुस्करायी।
रात में उसके रहने का इन्तजाम होटल में था। मुझे अपने दोस्त के साथ
जाना था। बिछुड़ते वक्त मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर उसने कहा,
''एक दिन मेरे लिए थोड़ा कष्ट झेल। मुझे अमृतसर दरबार साहिब और मेरा
गाँव अटारी दिखा दे।''
''मुझे कोई उज्र नहीं। मेरे लिए तो यह गर्व की बात है।'' मैंने कहा।
''सवेरे होटल में आ जाना। वहीं से सीधे निकलेंगे और शाम को वापस।''
''ठीक है।''
सवेरे कार अमृतसर के रास्ते पर दौड़ रही थी। एक दिन की मुलाकात ने
मीलों लम्बा सफ़र तय कर लिया था। उसे और कुरेदने के ख्याल से मैंने
पूछा, ''मुझे लगता है, आप अपने नावल 'इन्तहा' की नायिका सरगम खुद ही
हो।''
दूर तक पसरे गेहूँ के खिले हुए खेतों पर नज़र दौड़ाती हनीफा कहीं गुम
हो गयी। कहीं गहरे नीचे उतरती चली गयी वह। उसका चेहरा संजीदगी के
लबादे में लपेटा गया। बोली, ''तुझे कल भी बताया था शायद कि मनुष्य
अपने अतीत से टूट नहीं सकता। उसके संस्कार साथ-साथ चलते हैं। मेरे
साथ भी...।''
''कैसे हुआ था?'' मैंने पूछा।
''उस समय दार जी लायलपुर पोस्टिड थे। वह क़हर मुझे आज भी याद है,
ज्यों का त्यों। आग की लपटें, खून, लाशें... या अल्लाह... हे
वाहेगुरु...।'' उसने दोनों हाथों से कानों को छुआ। मेरा पैर अचानक
रेस पर से उठकर ब्रेक पर आ टिका। रफ्तार धीमी करके मैंने उसके चेहरे
की ओर देखा। 'इन्तहा' की कहानी मेरी स्मृति में खुलने लगी।
वह बोली, ''सरगम मैं ही हूँ। असल में सरगम नहीं, सुरजीत हूँ मैं।''
धीमी रफ्तार देखकर वह बोली, ''चलता चल, बड़ा लम्बा रास्ता है, फिर
वापस भी तो लौटना है।''
मैंने रफ्तार तेज की। वह कहने लगी, ''अच्छा आदमी था वह। मुझे सुरजीत
से हनीफा बनाने में उसने बिलकुल जल्दबाजी नहीं की। मुझे कई दिन घर
में रखा। मेरी रजामंदी पर ही उसने अपनी बेगम बनाया मुझे।''
''अब कभी मन नहीं करता वापस लौटने का?'' मैंने पूछा।
''यह भी ज़िंदगी की हकीकत बन गयी है एक। मेरे मन ने परवान कर लिया है
इसको। अब तेरे जितना मेरा जवान बेटा है। खूबसूरत बहू, दो छोटे बच्चे।
औरत तो दरख्त होती है, जहाँ जा बैठी, वहीं जड़ें पकड़ लीं।''
अपने परिवार के छोटे-छोटे विवरण, शाखाओं-पत्तियों के बारे में बताती
रही वह। उसकी कहानी से एकमेक हुआ मैं अनदेखी राहों पर चलता रहा।
दरबार साहिब की परिक्रमा करके हनीफा आँखें मूंदकर और हाथ जोड़कर शान्त
मुद्रा में काफी देर खड़ी रही। मैं चुपचाप उसके करीब खड़ा रहा। चेतन
हुई तो हम आगे बढ़े। उसे अपने अन्दर उतरने का अवसर देने के विचार से
मैंने कोई बात नहीं छेड़ी। ‘दुख-भंजनी बेरी’ के पास उसने चरनामृत
लिया। फिर बोली, ''कहाँ से गोले चलाये थे भारतीय फौज ने?''
इस प्रश्न की तो मैंने कतई कल्पना नहीं की थी। फिर भी, मैंने इशारा
किया, ''इस रास्ते से टैंक अन्दर आये, उस कोने से फायरिंग की गयी।''
''सन्त कहाँ थे उस समय?''
''वो सामने देखो। वो अकाल तख्त है, वहाँ। यह अब दुबारा बनाया गया
है।'' मैंने बताया।
हनीफा कुछ देर चुप रही। फिर बोली, ''कौन जालिम है और कौन निर्दोष,
कौन कह सकता है।'' मैंने उसके चेहरे की ओर देखा, होंठों में कुछ बोल
रही थी वह। फिर, उसने इक्यावन रुपये का परशाद लिया, अन्दर जाकर चढ़ाया
और कुछ देर कीर्तन सुनने के लिए बैठी रही। आसपास को गौर से निहारती
रही।
वक्त की बंदिश को महसूस करते हुए हम बाहर आये। आसपास के भीड़-भड़क्के
को वह बड़ी दिलचस्पी से देख रही थी।
''यह वो अमृतसर नहीं, जो अब तक मेरे जेहन था। तब तो साधारण-सा शहर था
यह।'' वह बोली।
''अब तो लाहौर भी वो लाहौर नहीं होगा, वह भी बदल गया होगा।'' मैंने
पूछा।
''हाँ।'' उसने कहा, ''पर बंदे की जेहनीयत सदियों तक नहीं बदलती। बहुत
कुछ बासा, सड़ा-गला उठाये घूमता है आदमी अपने साथ।''
''यह भी दुरुस्त है।'' मैंने कहा।
ऊँचे पुल से मैं नीचे की ओर उतरा तो उसने पूछा, ''हम छेहराटे की ओर
नहीं मुड़े?''
''नहीं, अटारी की तरफ मुड़े हैं।'' मैंने हँसते हुए बताया।
''एक ही बात है, या कोई दूसरा रास्ता है यह?'' उसने गौर से इधर-उधर
देखा।
''नहीं, वही है, जी.टी. रोड। पेशावर से कलकत्ता, लाहौर से अमृतसर,
वाहगे से अटारी जाने वाली। सड़क तो सीधी है, सिर्फ फाटक है बीच में।''
मैं भावुकता में बोल उठा।
पुतलीघर चौक, खालसा कालेज, युनिवर्सिटी के पास से गुजरे हम। छेहरटा
चौक से गुजरते हुए उसने पूछा, ''यहीं कहीं नरायण गढ़ होगा। मेरी एक
बुआ रहती थी वहाँ- बचन कौर।''
''यह आगे नरायण गढ़ ही है। फूफा जी का नाम याद है?''
''शायद सरदूल सिंह या सुलक्खन सिंह... याद नहीं ठीक से। और पता नहीं,
उनके बाद कौन होगा? कोई होगा भी या नहीं?''
नरायण गढ़ पीछे रह गया। अब उसकी नज़र आगे टिक गयी थी। ''इस रोड से आगे
थाना आएगा, घरिंडा। उस थाने में सरगम अपने बाप के साथ आती है एक दिन।
किसी मुज़रिम को उसका बाप पीटता है तो चीखें मारती हुई बाहर दौड़ती है
वह।''
मैं मुस्कराया, ''तब सुरजीत के दार जी यहाँ पोस्टिड थे।''
''हाँ, हम अटारी रहते थे। किराये पर। मेरा जन्म अटारी ही हुआ। दो
घरों में हम रहे। वे घर अभी भी मेरे सपनों में आते हैं।
अटारी की सीमा में पहुँचते ही हनीफा का चेहरा खिलने लगा था। भीड़े
बाजार में मैंने कार घुसा ली। एक जगह वह बोली, ''रोक तो कार यहाँ।
शायद यही जगह है वह।'' एक साइड पर कार रोकी तो वह बाहर निकलकर
इधर-उधर देखने लगी, ''बाहर आ, तुझे दिखाऊँ अपना पहला घर।''
मैं बाहर आया और उसके साथ ही ऊपर की ओर देखने लगा। दुकानदार हमें
विशेष नज़रों से देखने लगे। सोचते होंगे, ग्राहक तो लगते नहीं, कुछ
खोजने आए हैं शायद।
''बिलकुल यही है।'' बेहद उत्साहित होकर वह कह रही थी। ''वो खिड़की है
जहाँ खड़ी होकर मैं नीचे देखा करती थी। एक फकीर गुजरा करता था यहाँ
से, उसकी प्रतीक्षा किया करती थी रोज। कोई गीत गाया करता था वह...पता
नहीं क्या था वह। इधर एक गली हुआ करती थी। शायद, यही है, अन्दर मंदिर
है कोई ?''
''पता नहीं।'' मैंने कहा। पर समीप ही आ खड़े हुए एक बुजुर्ग ने हामी
भरी, ''हाँ, है मंदिर।''
''है न बाबा जी?'' हनीफा खुश हो गयी, ''वहाँ रामलीला हुआ करती थी।''
''अभी भी हुआ करती है।'' बुजुर्ग ने बताया।
''कमाल हो गया।'' हनीफा हैरान थी, ''आओ तो देखें ज़रा।''
सामने वाली हलवाई की दुकान वाला मेरे करीब आया, ''कैसे सरदार
जी...?''
''इन बीबी जी के बचपन का गाँव है यह। यहीं जन्मे-पले। कम से कम
सत्तावन साल के बाद आये हैं।'' मैंने बताया। मेरी बात सुनकर बुजुर्ग
ने आँखें चौड़ी कीं, ''कौन था बीबी तुम्हारा बाप?''
''थानेदार भजन सिंह को जानते हो?'' वह बोली।
एक क्षण के लिए बुजुर्ग ने गोता लगाया और अगले क्षण बाहर निकल आया,
''उसकी तो बीबी जी बड़ी धाक थी। चोर-उचक्के उसका नाम सुनकर काँप जाते
थे...। तो तुम उनकी बेटी हो...तेरा नाम जीता तो नहीं?''
''हाँ बाबा जी।'' हनीफा को लगा मानो इस गाँव में उसकी जड़ अभी भी हरी
थी। उसके घर को देखने के लिए हम सीढ़ियाँ चढ़े। घर के कमरों को देखती
वह आनन्द-विभोर हो गयी, ''यह अल्मारी वही है, जहाँ मेरी सहेली ने
मुझे बन्द कर दिया था और खुद बाहर दौड़ गयी थी। मैं चीखती-चिल्लाती
रही थी, पर मेरी कौन सुनता? मर ही जाती अगर माँ आ कर अल्मारी न
खोलती।''
घर का मालिक हैरान हो रहा था। उसकी हैरानगी को भांपते हुए हनीफा
बोली, ''यह मेरा घर है, पर आप अब रहो यहाँ।''
छतों, दीवारों को निहारती हनीफा बाहर निकली। सीढ़ियाँ उतरे और आगे
बढ़े। बुजुर्ग को हमने संग ले लिया। कदम-कदम पर वह रुक जाती और
दरवाजों-झरोखों को देखती बीती यादों में उतर जाती।
''इस ऊँची इमारत के बिलकुल ऊपर से एक लड़की ने छलांग लगाकर खुदकुशी की
थी। इस जगह लाश पड़ी थी उसकी।'' एक जगह रुककर उसने बताया।
मैंने बुजुर्ग की ओर देखा जो दिमाग पर जोर डाल रहा था, ''हाँ, हुआ था
यह वाकया, सच है।''
''क्यों हुआ था?'' मैंने पूछा।
''ऐसी घटनाओं के पीछे एक-से ही कारण होते हैं।'' वह बोली, ''पंडितों
की बेटी थी वह। किसी मुसलमान लड़के से ब्याह करना चाहती थी। जब मज़हबी
तवाज़न न बना तो ऐसा होना ही था।''
''बिलकुल यही बात थी।'' बुजुर्ग ने कहा, ''बीबी तेरी तो बड़ी याददाश्त
है।''
इस बार बुजुर्ग रुका, ''यह है अपना गरीबखाना। आओ, कुछ खा-पीकर चलो।''
उसे 'हाँ-ना' में जवाब देने से पहले हनीफा फिर स्मृतियों में उतर
गयी, ''यहाँ विवाह हुआ था एक। इस चबूतरे पर दुल्हन को बिठाया गया था।
बड़ी सुन्दर थी वह दुल्हन।'' एक पुरानी कुइंया के चबूतरे की ओर देखकर
वह बोली।
बुजुर्ग की आँखें चमकीं, ''मेरा ही हुआ था।''
''वह दुल्हन कहाँ है, सुर्ख लिबास वाली, गोरी-चिट्टी?'' हनीफा खुश हो
गयी।
''घर में ही है। आओ मिलवाऊँ।''
हम अन्दर गये। बुजुर्ग ने अपनी पत्नी को बुलाया और हमसे मिलवाया।
हनीफा ने उसे कसकर गले से लगा लिया। फिर बोली, ''तुम तो बूढ़े हो गये
इतनी जल्दी।''
''समय का रंग है। तुम भी तो हो ही गये हो।'' वह बोली।
पर हनीफा नहीं मानी, ''मैं तो अभी जवान हूँ। बुढ़ापे को करीब नहीं
फटकने देती। फिर आज तो बिलकुल ही नहीं, आज तो मेरी उम्र तेरह साल से
अधिक है ही नहीं।'' उसकी बात ने सभी को हँसा दिया।
वहाँ हमने ठंडा शर्बत पिया। फिर घाटी की ओर मुड़े। अंधी ड्योढ़ी देखकर
तो मैं भी हैरान रह गया। कमाल की कारीगिरी थी। कमाल की ओट थी।
हनीफा ने बताया, ''इस जगह की यह ओट आशिकों के लिए जन्नत जैसी है।
लड़कियाँ-लड़के यहाँ मिला करते थे।''
बुजुर्ग ने कहा, ''अभी भी कौन-सा कम मिलते हैं।''
मैंने वहाँ के कोनों, ओटों और अँधेरों को देखा। आगे खुली जगह थी।
हनीफा बता रही थी, ''यहाँ हम खेला करते थे। वो सामने वाली डाट पर
कबूतरों के झुंड बैठते। सरदारों की बहुएँ घघरे पहने यहाँ से गुजरतीं।
पीछे-पीछे नौकरानियाँ उनके घघरों को उठाकर चलतीं।''
नानक शाही ईंट की बिल्डिंगों के खंडहरों को देखते हम हनीफा की अगवाई
में उसके दूसरे घर की ओर जा रहे थे। इस घर का मालिक एक स्कूल अध्यापक
था, जो संयोग से मेरा परिचित निकल आया। मैंने उसे हनीफा से मिलवाया।
अन्दर घर में घुसे तो वह एक बार फिर यादों की पिटारी खोल बैठी।
पुराने कमरों को खुलवाकर देखा। दरवाजों, शीशों के रंग तक याद थे उसे।
स्कूल अध्यापक अमरजीत पुरी दिलचस्पी से हमारे बीच शामिल हो गया। ऊपर
छत पर जाकर वह सामने चौबारे की ओर देखने लगी। फिर, मेरे करीब होकर
हल्के से फुसफुसाई, ''नावल का एक चैप्टर यहाँ भी खुलता है, याद है?''
''कौन-सा भला?'' मैंने अपनी स्मृति पर जोर मारा।
''जब सरगम को जमींदारों का लड़का चौबारे पर खड़ा होकर देखता है। यहाँ
खड़ी हुआ करती थी मैं और वह, उस सामने वाली छत पर, मेरी ओर देखता।
शिखर दोपहरी, कभी बरसते पानी में। एक दिन मेरे लिए अपनी बहन के हाथ
उसने एक मुंदरी भेजी। मैंने गुस्से में आकर मुंदरी लौटा दी।''
''ज़रा बताओ तो कौन था वह?'' अमरजीत भी हमारे रंग में रंग गया।
''सरूप सिंह नाम था उसका। रूपा-रूपा कहते थे।'' हनीफा ने बताया।
''तो आप सरूप सिंह नंबरदार की बात कर रहे हो।'' अमरजीत बोला।
''हाँ, वही होगा। यह चौबारा पहले उनके पास ही था।'' बुजुर्ग ने तसदीक
की।
वातावरण में बढ़ती रोमांचकता देखकर अमरजीत स्कूटर उठाकर घर से निकल
गया।
''उसकी बहनें मेरी सहेलियाँ थीं। कभी-कभार उधर जाती थी मैं। वह घर
में होता तो मेरे माथे पर बल पड़ जाते, ना होता तो घर खाली लगता। एक
दिन मुझे गली में घेर कर खड़ा हो गया और 'आई लव यू... आई लव यू' कहता
रहा। मैंने डराया-धमकाया कि दार जी को बताऊँगी। मेरे दार जी का बड़ा
दबदबा था। वह डर गया और मेरे पैर छूता रहा। माफियाँ मांगता रहा।''
चौबारे की ओर देखती हनीफा हँस रही थी।
''फिर कब तक चला यह सिलसिला?'' मैंने पूछा।
''बस, एक-डेढ़ साल। छियालीस में दार जी की बदली लायलपुर हो गयी। वहाँ
रहे सालभर। जब हल्ले शुरू हुए, तब दार जी दंगाइयों से निपटते हुए
मारे गये। घर बार छोड़कर मैं और माँ एक काफिले के साथ आ रही थीं कि
हमला हो गया। मुझे बचाते हुए माँ मारी गयी और मैं...।''
हनीफा शून्य को घूरने लगी। अमरजीत की पत्नी चाय ले आयी। चाय खत्म
होने से पहले अमरजीत एक सियाने से व्यक्ति को लेकर आ गया। ऊपर आकर
उसने हनीफा को हाथ जोड़कर ‘सतिश्री अकाल’ कहा। हनीफा बोली, ''पहचानो
तो?''
''तुम जीता, पहचान लिया मैंने।'' सरूप सिंह बोला।
''याद है, तुमने मेरे लिए एक मुंदरी भेजी थी और मैंने लौटा दी थी।
लाओ, दे दो अब। मैं वो मुंदरी लेने आई हूँ।'' उसने हाथ आगे बढ़ाया।
चेहरे पर शर्मिन्दगी का भाव लाकर सरूप सिंह बोला, ''वह तो बचपन की
बातें थीं बहन जी।'' हनीफा ठहाका लगाकर हँसी। फिज़ा तो पहले ही
सुंगधित हुई पड़ी थी। कुछ समय घर-परिवार की बातें होती रहीं। सरूप
सिंह हमें अपने घर ले जाने के लिए जिद्द कर रहा था। लेकिन, हमें वापस
लौटने की जल्दी थी।
अमरजीत के घर से निकल हम उस तरफ बढ़े, जिधर हमारी कार खड़ी थी। सरूप
सिंह ने याचना-सी की, ''अगर घर नहीं चलना तो मेरी ओर से कोई चीज ही
ले जाओ। बताओ क्या लेकर दूँ?''
हनीफा सामने वाली दुकान पर ठक-ठक कर रहे ठठियार की ओर देख रही थी।
बोली, ''चलो, तवा लेकर दो एक।''
''तवा?'' मेरे और अमरजीत के मुँह से एक साथ निकला।
''तुमने मुझसे पूछा, मैंने बता दिया। आगे तुम्हारी इच्छा।'' हनीफा ने
कहा।
सरूप सिंह ने दुकान से तवा लिया, अखबार में लपेटा और हनीफा को दे
दिया। उसने उसे माथे से लगाकर स्वीकार कर लिया।
''दोबारा कभी आना।'' सरूप सिंह भी भावातिरेक में बोला। पर इसका जवाब
किसके पास था? कार आगे खिसकी और अटारी पीछे रह गया। सुनहरी फ्रेम
वाली ऐनक के नीचे से हनीफा ने दुपट्टे से आँसू पोंछे। मैंने ऐसा
प्रदर्शन किया जैसे मैंने कुछ देखा ही न हो।
(समाप्त)
लेखक का संक्षिप्त परिचय
नाम : तलविंदर सिंह
जन्म : 14 फरवरी 1955
शिक्षा : एम.ए.
पुस्तकें : दो उपन्यास -'लौ होण तक' तथा 'यौद्धे',
तीन कहानी संग्रह-'रात चानणी'(1992), 'विचली औरत'(2001), 'नायक दी
मौत'(2006) और 'इस वार'( 2007)।
सम्पर्क : 61, फ्रेण्ड्स कालोनी, मजीठा रोड, अमृतसर, पंजाब।
फोन : 09872178035
ई मेल :
talwinder_kahanikar@yahoo.co.in
अनुवादक संपर्क:
372, टाइप -4
लक्ष्मीबाई नगर, नई दिल्ली-110023
दूरभाष : 09810534373
ई मेल : subhashneerav@gmail.com
(शीर्ष पर वापस)
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