रसखान
1.
मानुस हौं तो वही रसखान बसौं मिलि गोकुल गाँव के
ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
2.
धूरि भरे अति सोभित स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी॥
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।
काग के भाग कहा कहिए, हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी॥
3.
कानन दै अँगुरी रहिहौं, जबही मुरली धुनि मंद बजैहै।
मोहिनि तानन सों रसखान , अटा चड़ि गोधन गैहै पै गैहै॥
टेरि कहाँ सिगरे ब्रजलोगनि, काल्हि कोई कितनो समझैहै।
माई री वा मुख की मुसकान, सम्हारि न जैहै, न जैहै, न जैहै॥
4.
मोरपखा मुरली बनमाल,
लख्यौ हिय मै
हियरा उमह्यो री।
ता दिन तें इन बैरिन कों,
कहि कौन न बोलकुबोल सह्यो री॥
अब
तौ सनेह लग्यौ,
कौउ एक कह्यो कोउ लाख कह्यो
री।
और सो रंग रह्यो न रह्यो,
इक रंग रंगीले सो रंग रह्यो
री।
5.
आवत है बन ते मनमोहन, गाइन संग लसै ब्रज-ग्वाला ।
बेनु बजावत गावत गीत, अभीत इतै करिगौ कछु ख्याला।
हेरत हेरि चकै चहुँ ओर ते झाँकी झरोखन तै ब्रजबाला ।
देखि सुआनन को रसखानि तज्यौ सब द्योस को ताप कसाला ।
6.
कर कानन कुंडल मोरपखा उर पै बनमाल बिराजती है
मुरली कर में अधरा मुस्कान तरंग महाछबि छाजती है
रसखान लखै तन पीतपटा सत दामिनी की दुति लाजती है
वह बाँसुरी की धुनी कानि परे कुलकानि हियो तजि भाजती है
7.
कानन दै अँगुरी रहिहौं,
जबही मुरली धुनि मंद बजैहै।
मोहिनि तानन सों ,
अटा चढ़ि गोधुन गैहै पै गैहै॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि,
काल्हि कोई कितनो समझैहै।
माई री वा मुख की मुसकान,
सम्हारि न जैहै,
न जैहै,
न जैहै॥
8.
कान्ह भये बस बाँसुरी के,
अब कौन सखी हमको चहिहै।
निसि द्यौस रहे यह आस लगी,
यह
सौतिन सांसत को सहिहै।
जिन मोहि लियो मनमोहन को,
'रसखानि'
सु क्यों न हमैं
दहिहै।
मिलि आवो सबै कहुं भाग चलैं,
अब तो ब्रज में बाँसुरी
रहिहै।
9.
गावैं गुनी गनिका गन्धर्व
औ सारद सेस सबै गुण गावैं।
नाम अनन्त गनन्त गनेस जो
ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावैं।।
जोगी जती तपसी अरु सिद्ध
निरन्तर जाहिं समाधि लगावैं।
ताहिं अहीर की छोहरियाँ
छछिया भरि छाछ पे नाच नचावैं।।
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10.
संकर से सुर जाहिं जपैं चतुरानन ध्यानन धर्म बढ़ावैं।
नौक हिये में जो आवत ही जड़ मूढ़ महा रसखन कहावै।।
जा पर देव अदेव भुअंगन वारत प्रानन प्रानन पावैं।
ताहिं अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पे नाच नचावैं।।
11.
सेस गनेस महेस दिनेस,
सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड,
अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रटें,
पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ,
छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
12.
सोहत है चँदवा सिर मोर को, तैसिय सुन्दर पाग कसी है।
तैसिय गोरज भाल बिराजत, तैसी हिये बनमाल लसी है।
'रसखानि' बिलोकत बौरी भई, दृग मूंदि कै ग्वालि पुकार हँसी है।
खोलि री घूंघट, खौलौं कहा, वह मूरति नैनन मांझ बसी है।
13.
जा
दिनतें निरख्यौ
नँद-नंदन, कानि तजी घर
बन्धन छूट्यो॥
चारु बिलोकनिकी निसि मार,
सँभार गयी मन मारने लूट्यो॥
सागरकौं सरिता जिमि धावति
रोकि रहे कुलकौ पुल
टूट्यो।
मत्त भयो मन संग फिरै,
रसखानि सुरूप सुधा-रस घूट्यो॥
14.
नैन लख्यो जब कुंजन तैं, बनि कै निकस्यो मटक्यो री।
सोहत कैसे हरा टटकौ, सिर तैसो किरीट लसै लटक्यो री।
को ‘रसखान’ कहै अटक्यो, हटक्यो ब्रजलोग फिरैं भटक्यो री।
रूप अनूपम वा नट को, हियरे अटक्यो, अटक्यो, अटक्यो री॥
प्रान वही जु रहैं रिझि वापर, रूप वही जिहिं वाहि रिझायो।
सीस वही जिहिं वे परसे पग, अंग वही जिहिं वा परसायो
दूध वही जु दुहायो वही सों, दही सु वही जु वही ढुरकायो।
और कहाँ लौं कहौं ‘रसखान’ री भाव वही जू वही मन भायो॥
15.
बैन वही उनकौ गुन गाइ, औ कान वही उन बैन सों सानी।
हाथ वही उन गात सरैं, अरु पाइ वही जु वही अनुजानी॥
जान वही उन प्रानके संग, औ मान वही जु करै मनमानी।
त्यों रसखानि वही रसखानि, जु है रसखानि, सो है रसखानी॥
16.
मोरपखा मुरली बनमाल, लख्यौ हिय मै हियरा उमग्यो री।
ता दिन तें इन बैरिन कों, कहि कौन न बोलकुबोल सह्यो री॥
अब तौ ‘रसखान’ सनेह लग्यौ, कोउ एक कह्यो कोउ लाख कह्यो री।
और सो रंग रह्यो न रह्यो, इक रंग रंगीले सो रंग रह्यो री।
17.
मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढ़ि पितम्बर लै लकुटी, बन गोधन ग्वारन संग फिरौंगी।।
भावतो मोहि मेरो ‘रसखान’ सो तेरे कहे सब स्वाँग भरौंगी।
या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।
दोहे
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥
कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
अति सूधो टेढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥
काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥
बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥
अति सूक्षम कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं ‘रसखान’॥
भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।
बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥
दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान।
इन है परे बखानिये, सुद्ध प्रेम ‘रसखान’॥
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥
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