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कबीर
के दोहे
दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय । |
कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय । ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥ पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप । पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥ बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥ हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध । हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥ राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस । रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥ जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच । वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥ तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार । सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥ सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन । प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥ समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय । मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥ हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय । जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥ कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥ वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल । बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥ कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥ कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥ जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥ साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय । सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥ लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय । मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥ भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय । कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥ घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥ अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार । जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार । तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥ प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥ प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥ सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥ सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥ छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार । हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥ ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग । तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥ जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि । परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥ जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश । मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥ नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय । कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥ आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद । नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥ जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥ जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम । माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥ दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी । कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥ बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात । अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥ जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥ फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त । जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥ दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद । ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥ दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय । सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥ जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय । प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय ॥ 82 ॥ छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय । अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥ जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥ कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय । टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥ |
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