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कबीर
के दोहे राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट । कहैं कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट ॥ 464 ॥ साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय । जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय ॥ 465 ॥ सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय । धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥ 466 ॥ सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज । जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 467 ॥ सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड । तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 468 ॥ सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय । भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय ॥ 469 ॥ सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय । माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥ 470 ॥ जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव । कहै कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव ॥ 471 ॥ मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर । अब देवे को क्या रहा, यों कयि कहहिं कबीर ॥ 472 ॥ सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय । कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय ॥ 473 ॥ जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान । तामें निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान ॥ 474 ॥ कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय । ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय ॥ 475 ॥ बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे । ब्रह्मा-विष्णु, महेश और सकल जिव को गिनै ॥ 476 ॥ केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय । बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ॥ 477 ॥ डूबा औघट न तरै, मोहिं अंदेशा होय । लोभ नदी की धार में, कहा पड़ो नर सोइ ॥ 478 ॥ सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु । मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु ॥ 479 ॥ करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है । होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू ॥ 480 ॥ यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत । करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत ॥ 481 ॥ जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे । गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥ 482 ॥ जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन । अन्धे को अन्धा मिला, राह बतावे कौन ॥ 483 ॥ जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध । अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ॥ 484 ॥ गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव । दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 485 ॥ आगे अंधा कूप में, दूजे लिया बुलाय । दोनों बूडछे बापुरे, निकसे कौन उपाय ॥ 486 ॥ गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं । भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥ 487 ॥ पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख । स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख ॥ 488 ॥ कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल । मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥ 489 ॥ गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव । सोइ गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव ॥ 490 ॥ जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय । सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय ॥ 491 ॥ झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार । द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार ॥ 492 ॥ सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं । दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि ॥ 493 ॥ कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार । पापी का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार ॥ 494 ॥ जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय । शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुँचा जाए ॥ 495 ॥ सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय । चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय ॥ 496 ॥ गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश । मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास ॥ 497 ॥ गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय । बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय ॥ 498 ॥ गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह । कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह ॥ 499 ॥ गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास । अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस ॥ 500 ॥ जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय । कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥ |
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप । |
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