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कबीर के दोहे

सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥


तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥


सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥


अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥


यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥


गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥


आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥


द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥


उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥


कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥


गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥


गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥


यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥


ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥


दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥


शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥


कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥


कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥


सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग ।
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥


गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥


लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥


काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥


दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥


दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥


दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥


भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥


भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥


भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥


भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥


भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥


भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥


भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥
 

कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥


भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥

भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय ।
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥


भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥


गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥


भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥


कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥


कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥


जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय ।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥

देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग ।
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥


आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय ।
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥

 

जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥

पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत ।
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥


निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान ।
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥


तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥


खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर ।
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥


ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय ।
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥

 



 

भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥


भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥


भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥


और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥



विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥


भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥


भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥



कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥


कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥


कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥


कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥


कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥


कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥


कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥


कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय ।
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥


कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ ।
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥


कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव ।
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥


कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल ।
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥


कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥


कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥


कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन ।
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥


कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥


कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन ।
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥


कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए ।
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥


कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय ।
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥


कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार ।
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥


एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥


ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि ।
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥


मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥

 

कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय ।
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥


कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक ।
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥


कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत ।
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥


हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास ।
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥

 

आज काल के बीच में, जंगल होगा वास ।
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥


ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार ।
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥


पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज ।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥


आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत ।
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥
 


आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल ।
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥

कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥


सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग ।
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥


ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय ।
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥


ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥


ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल ।
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥

 

पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय ।
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥


मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन ।
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥


घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत ।
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥


हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार ।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥


पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान ।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥

कबीर -10

 

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