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भारतेंदु
हरिश्चंद्र :
एक
परिचय
जन्म : 09 सितंबर 1850, काशी में।
मृत्यु: 06 जनवरी, 1885 'निज भाषा उन्नति' की दृष्टि से उन्होंने १८६८ में 'कविवचनसुधा' नामक पत्रिका निकाली, १८७३ 'हरिश्चंद्र मैगज़ीन' और फिर 'बाला-बोधिनी' नामक पत्रिकाएँ। साथ ही उन्होंने अनेक साहित्यिक संस्थाएँ भी खड़ी कीं। वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने 'तदीय समाज' की स्थापना की थी। अपनी देशभक्ति के कारण राजभक्ति प्रकट करते हुए भी उन्हें अंग्रेज़ी हुकूमत का कोपभाजन बनना पड़ा। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने १८८० में उन्हें 'भारतेंदु' की उपाधि प्रदान की थी, जो उनके नाम का पर्याय बन गया। हिन्दी साहित्य को भारतेंदु की देन भाषा तथा साहित्य
दोनों ही क्षेत्रों में है। भाषा के क्षेत्र में उन्होंने खड़ी बोली के उस
रूप को प्रतिष्ठित किया, जो कि उर्दू से भिन्न है और हिंदी क्षेत्र की
बोलियों का रस लेकर संवर्धित हुआ है। इसी भाषा में उन्होंने अपने संपूर्ण
गद्य-साहित्य की रचना की। भारतेंदु ने कविता, नाटक, व्यंग्य आदि विधाओं में रचनाएँ
की हैं। उनके
कई नाटक और काव्य-कृतियाँ अपने प्रकाशन के तत्काल बाद ही प्रसिद्धि के
शिखर तक पहुँच गईं और आज भी उन्हें हिंदी की महत्वपूर्ण कृतियों में शुमार
किया जाता है। कुछ अन्य काव्य-रचनाएँ, जिनके प्रकाशन का समय ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हैं : अनुवाद : बंगला से 'विद्यासुंदर' नाटक, संस्कृत से 'मुद्राराक्षस' नाटक, और प्राकृत से 'कर्पूरमंजरी' नाटक। निबंध संग्रह : 'भारतेंदु ग्रंथावली' (तीसरा खंड) में संकलित हैं। उनका
'नाटक' शीर्षक से प्रसिद्ध निबंध (१८८५) ग्रंथावली के दूसरे खंड के परिशिष्ट
में नाटकों के साथ दिया गया है। |
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