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 भारतेंदु हरिश्चंद्र : एक परिचय
(१८-१९ वीं शताब्दी)

 

 

जन्म : 09 सितंबर 1850, काशी में। मृत्यु: 06 जनवरी, 1885
बाल्यकाल में ही माता-पिता का देहांत हो जाने के कारण उनकी शिक्षा का समुचित प्रबंध नहीं हो सका। वे क्वींस कालेज में दाखिल हुए लेकिन मेधावी होने के बावजूद कालेज की शिक्षा में उन्होंने मन नहीं लगाया और स्वतंत्र रूप से शिक्षार्जन की ओर प्रवृत्त हुए। स्वाध्याय द्वारा ही भारतेंदु ने हिंदी, संस्कृत और अंग्रेज़ी के अलावा मराठी, बंगला, गुजराती, मारवाड़ी, पंजाबी, उर्दू आदि भाषाओं का भी ज्ञान प्राप्त किया और काशी में उन्हें इतनी प्रतिष्ठा अर्जित हो गयी कि बीस वर्ष की अवस्था में ही ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बना दिए गए। चौंतीस साल की अल्पायु में ही में उनका निधन हो गया
भारतेंदु प्रगतिशील विचारों के साहित्यकार थे। भारत के अतीत के प्रति असीम श्रद्धा रखते हुए भी वे विज्ञान के क्षेत्र में अंग्रेज़ों से बहुत कुछ सीखने के पक्षपाती थे।

'निज भाषा उन्नति' की दृष्टि से उन्होंने १८६८ में 'कविवचनसुधा' नामक पत्रिका निकाली, १८७३ 'हरिश्चंद्र मैगज़ीन' और फिर 'बाला-बोधिनी' नामक पत्रिकाएँ। साथ ही उन्होंने अनेक साहित्यिक संस्थाएँ भी खड़ी कीं। वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने 'तदीय समाज' की स्थापना की थी। अपनी देशभक्ति के कारण राजभक्ति प्रकट करते हुए भी उन्हें अंग्रेज़ी हुकूमत का कोपभाजन बनना पड़ा। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने १८८० में उन्हें 'भारतेंदु' की उपाधि प्रदान की थी, जो उनके नाम का पर्याय बन गया।

हिन्दी साहित्य को भारतेंदु की देन भाषा तथा साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में है। भाषा के क्षेत्र में उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया, जो कि उर्दू से भिन्न है और हिंदी क्षेत्र की बोलियों का रस लेकर संवर्धित हुआ है। इसी भाषा में उन्होंने अपने संपूर्ण गद्य-साहित्य की रचना की।
प्रमुख रचनाएँ -
भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी में आधुनिक साहित्य के जन्मदाता और भारतीय पुनर्जागरण के एक स्तंभ के रूप में मान्य हैं।

भारतेंदु ने कविता, नाटक, व्‍यंग्‍य आदि विधाओं में रचनाएँ की हैं। उनके कई नाटक और काव्‍य-कृतियाँ अपने प्रकाशन के तत्‍काल बाद ही प्रसिद्धि के शिखर तक पहुँच गईं और आज भी उन्‍हें हिंदी की महत्‍वपूर्ण कृतियों में शुमार किया जाता है।

भारतेंदु की कुछ प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं :

नाटक -
वैदिक हिंसा हिंसा न भवति (1873)
भारत दुर्दशा (1875)
सत्‍य हरिश्‍चंद्र (1876)
श्री चंद्रावली (1876)
नीलदेवी (1881)
अँधेर नगरी (1881)

काव्‍य-कृतियाँ :
भक्‍त-सर्वस्‍व (1870)
प्रेम-मालिका (1871)
प्रेम-माधुरी (1875)
प्रेम-तरंग (1877)
उत्‍तरार्द्ध-भक्‍तमाल (1876-77)
प्रेम-प्रलाप (1877)
गीत-गोविंदानंद (1877-78)
होली (1879)
मधु-मुकुल (1881)
राग-संग्रह (1880)
वर्षा-विनोद (1880)
विनय प्रेम पचासा (1881)
फूलों का गुच्‍छा (1882)
प्रेम-फुलवारी (1883)
कृष्‍णचरित्र (1883)

कुछ अन्‍य काव्‍य-रचनाएँ, जिनके प्रकाशन का समय ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हैं :
बंदर-सभा (हास्‍य-प्रधान काव्‍य कृति)
बकरी का विलाप (हास्‍य-प्रधान काव्‍य कृति)
दान-लीला (भक्ति-प्रधान काव्‍य कृति)
सतसई श्रृंगार (श्रृंगार-प्रधान काव्‍य कृति)

अनुवाद : बंगला से 'विद्यासुंदर' नाटक, संस्कृत से 'मुद्राराक्षस' नाटक, और प्राकृत से 'कर्पूरमंजरी' नाटक।

निबंध संग्रह : 'भारतेंदु ग्रंथावली' (तीसरा खंड) में संकलित हैं। उनका 'नाटक' शीर्षक से प्रसिद्ध निबंध (१८८५) ग्रंथावली के दूसरे खंड के परिशिष्ट में नाटकों के साथ दिया गया है।
 

 
 

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