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 श्रीचंद्रावली नाटिका
भारतेंदु हरिश्चंद्र

तीसरा अंक


।। समय तीसरा पहर, गहिरे बादल छाये हुए ।।
।। स्थान तालाब के पास बगीचा ।।
।। झूला पड़ा है, कुछ सखी झूलती कुछ इधर उधर फिरती हैं ।।
(चन्द्रावली, माधवी, काममंजरी, बिलासिनी, इत्यादि एक स्थान पर बैठी हैं, चन्द्रकान्ता वल्लभा, श्यामला, भामा, झूले पर हैं, कामिनी और माधुरी हाथ में हाथ दिये घूमती हैं)
का. : सखी, देख बरसात भी अब की किस धूम धाम से आई है मानों कामदेव ने अबलाओं को निर्बल जान कर इन के जीतने को अपनी सैना भिजवाई है। धूम से चारों ओर घूम-घूम कर बादल परे के परे जमाये बंगपंगति का निशान उड़ाये लपलपाती नंगी तलवार सी बिजली चमकाते गरज गरज कर डराते बान के समान पानी बरखा रहे हैं और इन दुष्टों का जी बढ़ाने को मोर करखासा कुछ अलग पुकार पुकार गा रहे हैं। कुल की मय्र्यादा ही पर इन निगोड़ों की चढ़ाई है। मनोरथों से कलेजा उमगा आता है और काम की उमंग जो अंग अंग में भरी है उनके निकले बिना जी तिलमिलाता है। ऐसे बादलों को देख कर कौन लाज की चद्दर रख सकती है और कैसे पतिव्रत पाल सकती है!
माधु. : विशेषकर वह जो आप कामिनी हो (हंसती है)।
का. : चल तुझे हंसने ही की पड़ी है। देख भूमि चारों ओर हरी-हरी हो रही है। नदी नाले बावली तालाब सब भर गये। पक्षी लोग पर समेटे पत्तों की आड़ में चुपचाप सकपके से होकर बैठे हैं। बीर-बहूटी और जुगुनूं पारी पारी रात और दिन को इधर उधर बहुत दिखाई पड़ती हैं। नदियों के करारे धमाधम टूटकर गिरते हैं। सप्र्प निकल निकल अशरण से इधर-उधर भागें फिरते हैं। मार्ग बन्द हो रहे हैं। परदेसी जो जिस नगर में हैं वहीं पडे़-पड़े पछता रहे हैं आगे बढ़ नहीं सकते। वियोगियों को तो मानो छोटा प्रलय काल ही आया है।
माधु. : छोटा क्यौं, बड़ा प्रलय काल आया है। पानी चारों ओर से उमड़ ही रहा है। लाज के बड़े-बड़े जहाज गारद हो चुके, भया फिर वियोगियों के हिसाब तो संसार डूबाही है तो प्रलय ही ठहरा।
का. : पर तुझ को तो बटे कृष्ण का अवलम्ब है न, फिर तुझे क्या, भांडीर वट के पास उस दिन खड़ी बात कर ही रही थी, गए हम-
माधु. : और चन्द्रावली?
का. : हाँ, चन्द्रावली बिचारी तो आप ही गई बीती है उसमें भी अब तो पहरे में हैं, नजर बन्द रहती है, झलक भी नहीं देखने पाती, अब क्या-
माधु. : जाने दे नित्य का झंखना। देख, फिर पुरवैया झंकारने लगी और वृक्षों से लपटी लताएं फिर से लरजने लगीं। साड़ियों के आंचल और दामन फिर उड़ने लगे और मोर लोगों ने एक साथ फिर शोर किया। देख यह घटा अभी गरज गई थी फिर गरजने लगी।
का. : सखी बसंत का ठंढा पवन और सरद की चांदनी से राम राम करके वियोगियों के प्राण बच भी सकते हैं, पर इन काली काली घटा और पुरवैया के झोंवे तथा पानी के एकतार झमाके से तो कोई भी न बचेगा।
माधु : तिसमें तू तो कामिनी ठहरी तू बचना क्या जानै।
का. : चल ठठोलिन। तेरी आंखों में अभी तक उस दिन की खुमारी भरी है इस से किसी को कुछ नहीं समझती। तेरे सिर बीते तो मालूम पड़े।
माधु. : बीती है मेरे सिर। मैं ऐसी कच्ची नहीं कि थोड़े में बहुत उबल पडूं।
का. : चल तू हुई है क्या कि न उबल पड़ैगी स्त्री की बिसात ही कितनी। बड़े बड़े योगियों के ध्यान इस बरसात में छूट जाते हैं, कोई योगी होने ही पर मन ही मन पछताते हैं कोई जटा पटक कर हाय-हाय चिल्लाते हैं और बहुतेरे तो तूमड़ी तोड़-तोड़ कर योगी से भोगी हो ही जाते हैं।
माधु. : तो तू भी किसी सिद्ध से कान फुंकवा कर तुमड़ी तोड़वा ले।
का. : चल! तू क्या जानै इस पीर को। सखी यही भूमि और यही कदम कुछ दूसरे ही हो रहे हैं और यह दुष्ट बादल मन ही दूसरा किये देते हैं। तुझे प्रेम हो तब सूझै। इस आनन्द की धुनि में संसार ही दूसरा एक विचित्र शोभा वाला और सहज काम जगाने वाला मालूम पड़ता है।
माधु. : कामिनी पर काम का दावा है इसी से हेरफेर उसी को बहुत छेड़ा करता है।
(नेपथ्य में बारम्बार मोर कूकते हैं)
का. : हाय हाय इस कठिन कुलाहल से बचने का उपाय एक विषपान ही है। इन दईमारों का कूकना और पुरवैया का झकोर कर चलना यह दो बात बड़ी कठिन है। धन्य हैं वे जो ऐसे समय में रंग रंग के कपड़े पहिने ऊँची-ऊँची अटारियों पर चढ़ी पीतम के संग घटा और हरियाली देखती हैं वा बगीचों, पहाड़ों और मैदानों में गलबाहीं डाले फिरती हैं। दोनों परस्पर पानी बचाते हैं और रंगीन कपड़े निचोड़ कर चैगुना रंग बढ़ाते हैं झूलते हैं, झुलाते हैं, हंसते हैं, हंसाते हैं, भीगते हैं, भिगाते हैं, गाते हैं, गवाते हैं, और गले लगते हैं, लगाते हैं।
माधु. : और तेरी न कोई पानी बचाने वाला न तुझे कोई निचोड़ने वाला, फिर चैगुने की कौन कहे ड्यौढ़ा सवाया तो तेरा रंग बढ़े ही गा नहीं।
का. : चल लुच्चिन! जाके पायं न भई बिवाई सो क्या जानै पीर पराई।
(बात करती करती पेड़ की आड़ में चली जाती है)
माधवी. : (चन्द्रावली से) सखी, श्यामला का दर्शन कर, देख कैसी सुहावनी मालूम पड़ती है। मुखचन्द्र पर चूनरी चुई पड़ती है। लटैं सगबगी हो कर गले में लपट रही हैं। कपड़े अंग में लपट गये हैं। भींगने से मुख का पान और काजल सब की एक विचित्र शोभा हो गई है।
चं. : क्यों न हो। हमारे प्यारे की प्यारी है। मैं पास होती तो दोनों हाथों से इसकी बलैया लेती और छाती से लगाती।
का. : सखी, सचमुच आज तो इस कंदब के नीचे रंग बरस रहा है जैसी समा बंधी है वैसी ही झूलने वाली है। झूलने में रंग रंग की साड़ी की अर्द्ध चन्द्राकार रेखा इन्द्रधनुष की छबि दिखाती है। कोई सुख से बैठी झूले की ठंढी ठंढी हवा खा रही है, कोई गांती बांधे लांग कसे पेंग मारती है, कोई गाती है कोई डर कर दूसरी के गले में लपट जाती है कोई उतरने की अनेक सौंगध देती है पर दूसरी उसको चिढ़ाने को झूला और भी झोंके से झुला देती है।
माध. : हिंडोरा ही नहीं झूलता। हृदय में प्रीतम को भुलाने के मनोरथ और नैनों में पिया की मूर्ति भी झूल रही है। सखी आज सांवला ही की मेंहदी और चूनरी पर तो रंग है। देख बिजुली की चमक में उसकी मुख छबि कैसी सुन्दर चमक उठती है और वैसे पवन भी बार-बार घूंघट उलट देता है। देख-
हूलति हिये मैं प्रान प्यारे के बिरह सूल
फूलति उमंग भरी झूलति हिंडोरे पै।
गावति रिझावति हंसावति सबन हरि-
चंद चाव चैगुनों बढ़ाइ घन घोरे पै ।।
वारि वारि डारौं प्रान हंसनि मुरनि वत-
रान मुंह पान कजरारे दृग डोरे पै।
ऊनरी घटामै देखि दूनरी लगी है आहा
कैसी आजु चूनरी फबी है मुखगोरे पै ।।
चं. : सखियो देखो कैसी अंधेर गजब है कि या रुत मैं सब अपनी मनोरथ पूरो करै और मेरी यह दुरगति होय! भलो काहुवै तो दया आवती। (आँखों में आँसू भर लेती है)
माध. : सखी तू क्यों उदास होय है। हम सब कहा करैं हम तो आज्ञाकारिणी दासी ठहरीं, हमारो का अखत्यार है तऊ हममैं सों तो कोऊ कछू तोहि नायं कहै।
का.मं. : भलो सखी हम याहि, कहा कहैंगी याहू तो हमारी छोटी स्वामिनी ठहरी।
विला. : हां सखी हमारी तो दोऊ स्वामिनी हैं। सखी बात यह है कै खराबी तो हम लोगन की है, ये दोऊ फेर एक की एक होंयगी। लाठी मारवे सों पानी थोरों हूं जुदा हो जायगो, पर अभी जो सुन पावैं कि ढिमकी सखी ने चन्द्रावलियै अकेलि छोड़ि दीनी तो फेर देखौ तमासा।
माध. : हम्बै बीर। और केर कामहू तौ हमीं सब बिगारैं। अब देखि कौन नै स्वामिनी सो चुगली खाई हमारोई तुमारे में सों बहू है। सखी चन्द्रावलियै जो दुःख देयगी वह आप दुःख पावैगी।
चं. : (आप ही आप) हाय! प्यारे हमारी यह दशा होती है और तुम तनिक नहीं ध्यान देते प्यारे फिर यह शरीर कहाँ और हम तुम कहाँ? प्यारे यह संयोग हम को तो अब की ही बना है फिर यह बातें दुर्लभ हो जायंगी। हाय नाथ! मैं अपने इन मनोरथों को किस को सुनाऊं और अपनी उमंगैं कैसे निकालूं। प्यारे रात छोटी है और स्वांग बहुत हैं। जीना थोड़ा और उत्साह बड़ा। हाय! मुझ सी मोह में डूबी को कहीं ठिकाना नहीं। रात दिन रोते ही बीतते हैं। कोई बात पूछने वाला नहीं क्योंकि संसार में जी कोई नहीं देखता सब ऊपर ही की बात देखते हैं। हाय! मैं तो अपने पराये सब से बुरी बन कर बेकाम हो गई। सब को छोड़ कर तुम्हारा आसाा पकड़ा था सो तुमने यह गति की। हाय! मैं किस की होके रहूं, मैं किस का मुँह देख कर जिऊं। प्यारे मेरे पीछे कोई ऐसा चाहने वाला न मिलैगा। प्यारे फिर दीया लेकर मुझको खोजोगे। हा तुमने विश्वासघात किया। प्यारे तुम्हारे निर्दयीपन की भी कहानी चलैगी। हमारा तो कपोतव्रत है। हाय स्नेह लगा कर दगा देने पर भी सुजान कहलाते हो। बकरा जान से गया पर खाने वाले को स्वाद न मिला। हाय यह न समझा था कि यह परिणाम करोगे। वाह खूब निबाह किया। बधिक भी बध कर सुधि लेता है, पर तुमने न सुधि ली। हाय एक बेर तो आकर अंक में लगा जाओ। प्यारे जीते जी आदमी का गुन नहीं मालूम होता। हाय फिर तुम्हारे मिलने को कौन तरसेगा और कौन रोवेगा। हाय संसार छोड़ा भी नहीं जाता सब दुःख सहती हूँ पर इसी में फंसी पड़ी हूं। हाय नाथ! चारों ओर से जकड़ कर ऐसी ऐसी बेकाम क्यों कर डाली है। प्यारे यों ही रोते दिन बीतैंगे। नाथ यह हवस मन की मन में ही रह जायगी। प्यारे प्रगट होकर संसार का मुंह क्यों नहीं बंद करते और क्यों शंका द्वार खुला रखते हो। प्यारे सब दीनदयालुता कहाँ गई! प्यारे जल्दी इस संसार से छुड़ाओ। अब नहीं सही जाती। प्यारे जैसी हैं, तुम्हारी हैं। प्यारे अपने कनौड़े को जगत की कनौड़ी मत बनाओ। नाथ जहाँ इतने गुन सीखे वहाँ प्रीति निबाहना क्यौं न सीखा। हाय! मंझधार में डुबा कर ऊपर से उतराई मांगते हौ, प्यारे सो भी दे चुकी अब तो पार लगाओ। प्यारे सब की हद होती है। हाय हम तड़पैं और तुम तमाशा देखो। जन कुटुम्ब से छुड़ा कर यों छितर बितर करके बेकाम देना यह कौन बात है। हाय सब की आंखों में हलकी हो गई। जहाँ जाओ वहाँ दूर दूर, उस पर यह गति। हाय ”भामिनी तें भौंड़ी करी मानिनी तें मौड़ी करी कौड़ी करी हीरा ते कनौड़ी करी कुलते“ तुम पर बड़ा क्रोध आता है और कुछ कहने को जी चाहता है। बस अब मैं गाली दूंगी और क्या कहूं, बस आप आप ही हो; देखो गाली में भी तुम्हैं मैं मम्र्मवाक्य हूंगी-”झूठे, निद्र्दय, निर्घृण, निद्र्दय हृदय कपाट“ बखेड़िये और निर्लज्य ये सब तुम्हें सच्ची गालियाँ हैं; भला जो कुछ करना ही नहीं था तो इतना क्यों झूठ बके? किसने बकाया था? कूद कूदकर प्रतिज्ञा करने बिना क्या डूबी जाती थी? झूठे! झूठे!! झूठे!!! झूठे ही नहीं वरंच विश्वासघातक; क्यौं इतनी छात ठोंक और हाथ उठा उठा कर लोगों को विश्वास दिया? आप ही सब मरते चाहे जहन्नुम में पड़ते, और उस पर तुर्रा यह है कि किसी को चाहे कितना भी दुखी देखें आपको कुछ घृणा तो आती ही नहीं, हाय हाय वैसे दुखी लोग हैं-और मजा तो यह है कि सब धान बाइस पसेरी। चाहे आपके वास्ते दुःखी हो, चाहे अपने संसार के दुःख से, आपको, दोनों उल्लू फंसे हैं। इसी से तो ”निद्र्दय हृदय कपाट“ यह नाम है। भला क्या काम था कि इतना पचड़ा किया? किसने इस उपद्रव और जाल करने को कहा था? कुछ न होता तुम्हीं तुम रहते बस चैन था केवल आनन्द था फिर क्यों यह विषमय संसार किया। बखेड़िये। और इतने बड़े कारखाने पर बेहयाई परलेसिरे की। नाम बिकै, लोग झूठा कहैं, अपने मारे फिरैं, आप भी अपने मुंह झूठे बनैं, पर वाहरे शुद्ध बेहयाई और पूरी निर्लज्जता। बेशरमी हो तो इतनी तो हो। क्या कहना है लाज को जूतों मार के पीट पीट के निकाल दिया है। जिस मुहल्ले में आप रहते हैं उस मुहल्ले में लाज की हवा भी नहीं जाती। जब ऐसे हो तब ऐसे हों। हाय एक बेर भी मुंह दिखा दिया होता तो मतवाले मतवाले बने क्यौं लड़ लड़कर सिर फोड़ते। अच्छे खासे अनूठे निर्लज्ज हो, काहे को ऐेसे बेशरम मिलैंगे, हुकुमी बेहया हो, कितनी गाली दूं बड़े भारी पूरे हो, शरमाओगे थोड़े ही कि माथा खाली करना सुफल हो। जाने दो-हम भी तो वैसी ही निर्लज्ज और झूठी हैं। क्यों न हों। जस दुलह तस बनी बराता। पर इसमें भी मूल उपद्रव तुम्हारा ही है, पर यह जान रखना कि इतना और कोई न कहैगा क्यौंकि सिफारशी नेतिनेति कहैंगे, सच्ची थोड़े ही कहैंगे। पर यह तो कहो कि यह दुखमय पचड़ा ऐसा ही फैला रहैगा कि कुछ तै भी होगा वा न तै होय। हम को क्या? पर हमारा तो पचड़ा छुड़ाओ। हाय मैं किससे कहती हूँ। कोई सुनने वाला है। जंगल में मोर नाचा किसने देखा। नहीं नहीं वह सब देखता है वा देखता होता तो अब तक मेरी खबर न लेता। पत्थर होता तो वह भी पसीजता। नहीं-नहीं मैंने प्यारे को इतना दोष व्यर्थ दिया। प्यारे तुम्हारा दोष कुछ नहीं। यह सब मेरे कम्र्म के दोष हैं। नाथ मैं तो तुम्हारी नित्य की अपराधिनी हूँ। प्यारे छमा करो। मेरे अपराधों की ओर न देखो अपनी ओर देखो (रोती है)
मा. : हाय हाय सखियो यह तो रोय रही है।
का.मं. : सखी प्यारी रोवै मती। सखी तोहि मेरे सिर की सौंह जो रोवै।
मा. : सखी मैं तेरे हाथ जोड़ं़ई मत रोवै। सखी हम सबन को जीव भरî आवै है।
वि. : सखी जो तू कहैगी हम सब करैगी। हम भले ही प्रियाजी की रिस सहैंगी पर तों सूं हम ब काहू बात सों बाहर नहीं।
म. : हाय हाय! यह तो मानै ही नहीं (आँसू पोंछ कर) मेरी प्यारी मैं हाथ जोड़ईँ हा हा खऊंमानि जा।
का.मं. : सखी यासों मति कछू कहौं। आओ हम सब मिलि के विचार करे जासों याको काम हो।
वि. : सखी हमारे तो प्राणताई यापैं निछावर हैं पर जो कछू उपाय सूझै।
चं : ख्रोकर, सखी एक उपाय मुझे सूझा है जो तुम मानो।
मा. : सखी क्यौ नं मानैंगी तू कहै क्यों नहीं।
चं. : सखी मुझे यहाँ अकेली छोड़ जाओ।
मा. : तौ तू अकेली यहाँ का करेगी?
चं. : जो मेरी इच्छा होगी।
मा. : भलो तेरी इच्छा का होयगी हमहूं सुनैं?
चं. : सखी वह उपाय कहा नहीं जाता।
मा. : तौ का अपनी प्रान देगी। सखी हम ऐसी भोरी नहीं हैं कै तोहि अकेली छोड़ जायंगी।
वि. : सखी तू व्यर्थ प्राण देन को मनोरथ करै है तेरे प्राण तोहि न छोड़ैंगे। जौ प्राण तोहि छोड़ जायंगे तो इनको ऐसी सुन्दर शरीर फिर कहाँ मिलैगो।
का.मं. : सखी ऐसी बात हम सूं मति कहै, और जो कहै सो सो हम करिये को तयार हैं, और या बात को ध्यान तू सपने हू मैं मति करि। जब ताईं हमारे प्राण हैं तब ताईं तोहि न मरन देंयगी पीछे भलेईं जो होय सो होय।
चं. : ख्रो कर, हाय! मरने भी नहीं पाती। यह अन्याय।
मा. : सखी अन्याय नहीं यही न्याय है।
का.मं. : जान दै माधवी वासों मति कछू पूछै। आओ हम तुम मिल कै सल्लाह करैं अब का करनो चाहिए।
वि. : हां माधवी तू ही चतुर है तू ही उपाय सोच।
मा. : सखी मेरे जी में तौ एक बात आवै है। हम तीनि हैं सो तीनि काम बांटि लें। प्यारी जू के मनाइबे को मेरो जिम्मा। यही काम सब में कठिन है और तुम दो उन मैं सो एक याके घरकेन सों याकी सफाई करावै और एक लाल जू सों मिलिबे की कहै।
का.मं. : लाल जी सों मैं कहूंगी। मैं विन्नै बहुती लजांउंगी और जैसे होय गो वैसे यासों मिलाऊंगी।
मा. : सखी वेऊ का करैं। प्रिया जी के डर सो कछू नहीं कर सकैं।
वि. : सो प्रिय जी को जिम्मा तेरी हुई है।
मा. : हां हां, प्रिया जी को जिम्मा मेरो।
वि. : तौ याके घर को मेरौ।
मा. : भयो फेर का। सखी काहू बात को सोच मति करै। उठि।
चं. : सखियो! व्यर्थ क्यौं यत्न करती हौ। मेरे भाग्य ऐसे नहीं हैं कि कोई काम सिद्ध हो।
मा. : सखी हमारे भाग्य तो सीधे हैं। हम अपने भाग्य बल सों सब काम करैंगी।
का.मं. : सखी तू व्यर्थ क्यों उदास भई जाय है। जब तक सांसा तब तक आसा।
मा. : तो सखी बस अब यह सलाह पक्की भई। जब ताईं काम सिद्ध न होय तब ताईं काहुवै खबर न परै।
वि. : नहीं खबर कैसे परैगी?
का.मं. : चन्द्रावली का हाथ पकड़ कर, लै सखी अब उठि। चलि हिंडोरें झूलि।
मा. : हाँ सखी अब तौ अनमनोपन छोड़ि।
चं. : सखी छूटा ही सा है पर मैं हिंडोरे न झूलूंगी। मेरे तो नेत्र आप ही हिंडोरे झूला करते हैं।
पल पटुली पैं डोर प्रेम लगाय चारु
आसा ही के खंभ दोय गाढ़ कै धरत हैं।
झुमका ललित काम पूरन उछाह भरîो
लोक बदनामी झूमि झालर झरत हैं ।।
हरीचन्द आंसू दृग नीर बरसाई प्यारे
पिया गुन मान सो मलार उचरत हैं।
मिलन मनोरथ के झोंटन बढ़ाइ सदा
विरह हिंडोरे नैन झूल्योई करत हैं ।।
और सखी मेरा जी हिंडोरे पर और उदास होगा।
मा. : तौ सखी तेरी जो प्रसन्नता होय! हम तौ तेरे सुख की गांहक हैं।
चं. : हा! इन बादलों को देख कर तो और भी जी दुखी होता है।
देखि घनस्याम घनस्याम की सुरतिकरि
जियमैं बिरहघटा घहरि घहरि उठै।
त्यौंहीं इन्द्रधनु बगमाल देखि बनमाल
मोतीलर पीकी जय लहरि लहरि उठै ।।
हरीचंद मोर पिक धुनि सुनि बंसीनाद
बांकी बार बार छहरि छहरि उठै।
देखि देखि दामिनी की दुगुन दमक पीत
पट छोरे मेरे हिय फहरि फहरि उठै ।।
हाय! जो बरसात संसार को सुखद है वह मुझे इतनी दुखदाई हो रही है।
मा. : तौ न दुखदायिनी होयगी। चल उठि घर चलि।
का.मं. : हां चलि।
(सब जाती हैं)
।। जवनिका गिरती है ।।


।। इति वर्षा वियोग बिपत्ति नाम तृतीय अंक ।।


चौथा अंक


।। स्थान चन्द्रावली जी की बैठक ।।
खिड़की में से यमुना जी दिखाई पड़ती हैं। पलंग बिछी हुई, परदे
पड़े हुए, इतरदान पानदान इत्यादि सजे हुए।
(’जोगिनी आती है)
जो. : अलख! अलख! आदेश आदेश गुरू को! अरे कोई है इस घर में?-
कोई नहीं बोलता। क्या कोई नहीं है? तो अब मैं क्या करूं?
बैठूं। का चिन्ता है। फकीरों को कहीं कुछ रोक नहीं। उसमें भी हम प्रेम की जोगी। तो अब कुछ गायैं।
(बैठकर गाती है)
”कोई एक जोगिन रूप कियैं।
भौंहैं बंक छकोहैं लोयन चलि चलि कोयन कान छियैं ।।
सोभा लखि मोहत नारोनर बारि फेरि जल सबहिं पियैं।
नागर मनमथ अलग जगावत गावत कांधे बीन लियै1 ।।1 ।।
बनी मनमोहिनी जोगिनिया।
गल सेली तन गेरुआ सारी केस खुले सिर बैंदी सोहनियां।
मातै नैन लाल रंग डोरे मद बोरे मोहै सबन छलिनियां।
हाथ सरंगी लिये बजापत गाय जगावत बिरह अगिनिया2 ।। 2 ।।
जोगिन प्रेम की आई।
बड़े बड़े नैन छुए कानन लौं चितवन मद अलसाई ।।
पूरी प्रीति रीति रस सानी प्रेमी जन मन भाई ।।
नेह नगर मैं अलख जगावत गावत विरह बधाई ।। 3 ।।
जोगिन आंखन प्रेम खुमारी।
चंचल लोयन कोयन खुभि रही काजर रेख ढरारी ।।
डोरे लाल लाल रस बोरे फैली मुख उंजियारी।
हाथ सरंगी लिये बजावत प्रेमिन प्रान पियारी ।। 4 ।।
जोगिन मुख पर लट लटकाई।
कारी घूंघरवारी प्यारी देखत सब मन भाई।।
छूटे केस गेरूआ बागे सोभा दुगुन बढ़ाई।
सांचे ढरी प्रेम की मूरति आंखियां निरखि सिराई।।
(नेपथ्य में से पैंजनी की झनकार सुन कर)
अरे कोई आता है। तो मैं छिप रहूं। चुपचाप सुनूं। देखूं यह सब क्या बातें करती हैं।
(जोगिन जाती है, ललिता आती है)
ल. : हैं अब तक चन्द्रावली नहीं आई। सांझ लो गई, न घर में कोई सखी है न दासी, भला कोई चोर चकार चला आवै तो क्या हो। (खिड़की की ओर देख कर) अहा! यमुनाजी की कैसी शोभा हो रही है। जैसा वर्षा का बीतना और शरद का आरंभ होना वैसा ही वृंदावन के फूलों की सुगन्धि से मिले हुए पवन की झकोर से जमुना जी का लहराना कैसा सुंदर और सुहावना है कि चित्त को मोहे लेता है। आहा! यमुना जी की शोभा तो कुछ कही ही नहीं जाती। इस समय चन्द्रावली होती तो यह शोभा उसे दिखाती। वा वह देख ही के क्या करती उलटा उसका विरह और बढ़ता (यमुनाजी की ओर देख कर) निस्सन्देह इस समय बड़ी ही शोभा है।
तरनि तनूजा तट तमाल तरूवर बहु छाये।
झुके कूल सों जल परसन हित मनहुं सुहाये ।।
किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा ।।
मनु आतप वार तीर कों सिमिटि सबै छायै रहत।
कै हरि सेवा हित नै रहे निरखि नैन मन सुख लहत ।।
कहूं तीर पर कमल अमल सोभित बहु भंातिन।
कहुं सैवालन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पांतिन ।।
मनु दृग धारि अनेक जमुन निरंखत ब्रज सोभा।
कै उमगे पिय प्रिया प्रेम के अनगिन गोभा ।।
कै करि कै बहु पीय कों टेरत निज ढिग सोहई।
कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई ।।
कै पिय पद उपमान जानि एहि निज उर धारत।
कै मुख करि नहु भृंगन मिस अस्तुति उच्चारत ।।
कै ब्रज तियगन बदन कमल की झलकत झांई।
कै ब्रज हरिपद परस हेतु कमला बहु आईं ।।
कै सात्विक अरु अनुराग दोउ ब्रजमंडल बगरे फिरत।
कै जानि लच्छमीं भौन एहि करि सतधा निज जल धरत ।।
तिन पै जेहि छिन चंद जोति राका निसि आवति।
जल मैं मिलि कै नभ अवनी लौं तान तनावति ।।
होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा।
तन मन नैन जुड़ात देखि सुन्दर सो सोभा ।।
सो को कवि जो छवि कहि सकै ताछन जमुना नीर की।
मिलि अवनि और अम्बर रहत छबि इकसी नभ तीर की ।।
परत चन्द्र प्रतिबिम्ब कहूं जल मधि चमकायो।
लोल लहर लहि नचत कबहुं सोई मन भायो ।।
मनु हरि दरसन हेत चन्द जल बसत सुहायो।
कै तरगन कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ।।
कै रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है।
कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है ।।
कबहुं होत सत चन्द कबहुं प्रगटत दुरि भाजत।
पावन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।।
मनु ससि भरि अनुराग जमुन जल लोटत डोलै।
कै तरंग की डोर हिंडोरन करत कलोलै ।।
कै बालगुड़ी नभ मैं उड़ी सोहत इत उत धावती।
कै अवगाहत डोलत कोऊ ब्रजरमनी जल आवती ।।
मन जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटि जात जमुन जल।
कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अविकल ।।
के कालिन्दी नीर तरंग जितो उपजावत।
तितनौ ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।।
कै बहुत रजत चकई चलत कै फुहार जल उच्छरत।
कै निसिपति मल्ल अनेक विधि उठि बैठत कसरत करत ।।
कूजत कहुं कलहंस कहूं मज्जत पारावत।
कहुं कारंडव उड़त कहूं जलकुक्कुट धावत ।।
चक्रवाक कहुं बसत कहूं बक ध्यान लगावत।
सुक पिक जल कहुं पियत कहूं भ्रमरावलि गावत ।।
कहुं तट पर नाचत मोर वहुं रोर विविध पच्छी करत।
जलपान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब जिय धरत ।।
कहूं बालुका विमल सकल कोमल बहु छाई।
उज्जल झलकत रजत सिढ़ी मनु सरस सुहाई ।।
पिय के आगम हेत पांवड़े मनहुं बिछाये।
रत्नरासि करि चूर कूल मैं मनु बगराये ।।
मनु मुक्त मांग सोभित भरी, श्यामनीर चिकरन परसि।
सतगुन छायो कै तीर मैं, ब्रज निवास लखि हिय हरसि ।।
चन्द्रावली अचानक आती है,
च. : वाह वाहरी बैहना आजु तो बड़ी कविता करी। कबिताई की मोट की मोट खोलि दीनी। मैं सब छिपें छिपें सुनती।
(दबे पांव से योगिन आकर एक कोने में खड़ी हो जाती है)
ल. : मलो भरा बीर तोहि कबिता सुनिबे को सुधि तौ आई हमारे इतनोई बहुत है।
च. : सुनते ही स्मरण पूव्र्वक लम्बी सांस लेकर,
सखीरी क्यौं सुधि मोहि दिवाई।
ही अपने गृह कारज भूली भूलि रही बिलमाई ।।
फेर वहै मन भयो जात अब मरिहौं जिय अकुलाई।
हौं तबही लौं जगत काज की जब लौं रहौं भुलाई ।।
ल. : चल जान दै दूसरी बात कर।
जो. : आप ही आप, निसन्देह इसका प्रेम पक्का है, देखो मेरी सुधि आते ही इसके कपोलों पर कैसी एक साथ जरदी दौड़ गई।
नेत्रों में आँसुओं का प्रवाह उमग आया। मुंह सूख कर छोटा सा हो गया। हाय! एक ही पल में यह तो कुछ की कुछ हो गई। अरे इसकी तो यही गति है।
छरीसी छकीसी जड़ भईसी जकीसी घर
हारीसी बिकीसी सो तो सबही घरो रहै।
बोलें तें न बोलै दृग खोलै नाहि डोलै बैठी
एकटक देखै सो खिलौनासो धरी रहै ।।
हरीचन्द औरो घबरात समुझाये हाय
हिचकि हिचकी रोवै जीवति मरी रहै ।।
याद आयें सखिन रोवावै दुख कहि कहि
तौलौं सुख पावै जौलौं मुरछि परी रहै ।।
अब तो मुझ से रहा नहीं जाता। इस से मिलने को अब तो सभी अंग व्याकुल हो रहे हैं।
च. : (ललिता की बात सुनी अनसुनी करके बायें अंग का फरकना देखकर आप ही आप) अरे यह असमय में अच्छा सगुन क्यौं होता है। (कुछ ठहरकर) हाय आशा भी क्या ही बुरी वस्तु है और प्रेम भी मनुष्य को कैसा अन्धा कर देता है। भला वह कहां और मैं कहां-पर जी इसी भरोसे पर फूला जाता है कि अच्छा सगुन हुआ है तो जरूर आवैंगे (हंसकर) हैं-उनको हमारी इस बखत फिकिर होगी। मान न मान मैं तेरा मिहमान मन को अपने ही मतलब की सूझती है। मेरो पिय मोहि बात न पूछै तऊ सोहागिन नाम (लम्बी सांस लेकर) हा! देखो प्रेम की गति! यह कभी आशा नहीं छोड़ती जिस को आप चाहो वह चाहे झूठ मूठ भी बात न पूछै पर अपने जी को यह भरोसा रहता है कि वे भी जरूर इतना ही चाहते होंगे (कलेजे पर हाथ रख कर) रहो रहो क्यों उमगे आते हो धीरज धरो, वे कुछ दीवार में से थोडे़ ही निकल आवैंगे।
जो. : (आप ही आप) होगा प्यारी ऐसा ही होगा। प्यारी मैं तो यहीं हूं। यह मेरा ही कलेजा है कि अंतय्र्यामी कहला कर भी अपने लोगों से मिलने में इतनी देर लगती है। ख्प्रगट सामने बढ़कर, अलख! अलख!
(दोनों आदर करके बैठाती हैं)
ल. : हमारे बड़े भाग जो आपुसी महात्मा के दर्शन भये।
च. : (आप हो आप) न जानैं क्यों इस योगिन की ओर मेरा मन आप से आप खिंचा जाता है।
जो. : भलो हम अतीतन को दरसन कहा योंहों वर घर डोलत फिरैं।
ल. : कहां तुम्हारो देस है।
जो. : प्रेम नगर पिय गांव।
ल. : कहा गुरू कहि बोलहीं।
जो. : प्रेमी मेरो नांव ।।
ल. : जोग लियो कहि कारनै।
जो. : अपने पिय के काज।
ल. : मंत्र कौन?
जो. : पियनामइक।
ल. : कहा तज्यौ
जो. : जगलाज।
ल. : आसन कित।
जो. : जितही रमे।
ल. : पन्थ कौन।
जो. : अनुराग।
ल. : साधन कौन।
जो. : पिया मिलन।
ल. : गादी कौन।
जो. : सुहाग।
नैन कहें गुरू मन दियो, विरहे सिद्वि उपदेस।
तब सों सब कुछ छोड़ि हम फिरत देस परदेस ।।
च. : (आप ही आप) हाय! यह भी कोई बड़ी भारी वियोगिनि है तभी इसकी ओर मेरा मन आपसे आप खिंचा जाता है।
ल. : तौ संसार को जोग तो और ही रकम को है और आप को तो पन्थ ही दूसरो है। तौ भला हम यह पूछैं कि का संसार के और जोगी लोग वृथा जोग साधैं हैं।
जो. : यामैं का सन्देह है सुनो (सारंगी छेड़ कर गाती)
पचि मरत वृथा सब लोग जोग सिरधारी।
सांची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी ।।
बिरहागिन धूनी चारों ओर लगाई।
बंसी धुनि की मुद्रा कानों पहिराई ।।
अंसुअन की सेली गल में लगत सुहाई।
तन धूर जमी सोई अंग भभूत रमाई ।।
लट उरझि रहीं सोई लटकाई लटकारी।
सांची जोगिन पिंय बिना बियोगिन नारी ।।
गुरू बिरह दियो उपदेस सुनो ब्रजबाला।
पिय बिछुरन दुख का (ज?) बिछाओ तुम मृगछाला ।।
मन के मन के की जपो पिया की माला।
बिरहिन की तो है सभी निराली चाला ।।
पीतम से लगि लौ अचल समाधि न टारी।
सांची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी ।।
यह है सुहाग का अचल हमारे बाना।
असगुन की मूरति खाक न कभी चढ़ाना ।।
सिर सेंदुर देकर चोटी गूथ बनाना।
कर चूरी मुख में रंग तमोल जमाना ।।
पीना प्याला भर रखना वही खुमारी।
सांची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी ।।
है पन्थ हमारा नैनों के मत जाना।
कुल लोक वेद सब औ परलोक मिटाना ।।
शिवजी से जोगो को भी जोग सिखाना।
हरिचन्द एक प्यारे से नेह बढ़ाना ।।
ऐसे बियोगं पर लाख जोग बलिहारी।
सांची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी ।।
च. : (आप ही आप) हाय हाय इसका गाना कैसा जी को बंधे डालता है। इसके शब्द का जी पर एक ऐसा विचित्र अधिकार होता है कि वर्णन के बाहर है। या मेरा जी ही चोटल हो रहा है। हाय हाय! ठीक प्रान प्यारे की सी इसकी आवाज है। (बल पूर्वक आंसुओं को रोक कर और जी बहला कर) कुछ इस से और गावाऊं। (प्रगट) योगिन जी कष्ट न हो तो कुछ और गाओ। (कह कर कभी चाव से उसकी ओर देखती है और कभी नीचा सिर करके कुछ सोचने लगती है।)
जो. : (मुसका कर) अच्छा प्यारी! सुनो (गाती है)
जोगिन रूप सुधा को प्यासी।
बिनु पिय मिलें फिरत बन ही बन छाई मुखहि उदासी ।।
भोग छोड़ि धन धाम काम तजि भई प्रेम बनबासी।
पिय हित अलख अलख रट लागी पीतम रूप उपासी ।।
मन मोहन प्यारे तेरे लिये जोगिन बन बन बन छान फिरी।
कोमल से तन पर खाक मली ले जोग स्वांग सामान फिरी ।।
तेरे दरसन कारन डगर करती तेरा गुन गान फिरी।
अब तो सूरत दिखला प्यारे हरिचन्द बहुत हैरान फिरी ।।
च. : (आप ही आप) हाय यह तो सभी बातैं पते की कहती है। मेरा कलेजा तो एक साथ ऊपर को खिंचा जाता है। हाय! ‘अब तो सूरत दिखला प्यारे’।
जो. : तो अब तुम को भी गाना होगा। यहाँ तो फकीर हैं। हम तुम्हारे सामने गावैं तुम हमारे सामने न गाओगी। (आप ही आप) भला इसी बहाने प्यारी की अमृत बानी तो सुनैंगे। (प्रगट) हां! देखो हमारी यह पहिली भिक्षा खाली न जाय हम तो फकीर हैं हमसें कौन लाज है।
च. : भला मैं गाना क्या जानंू। और फिर मेरा जी भी आज अच्छा नहीं है गला बैठा हुआ है। (कुछ ठहर कर नीची आंख करके) और फिर मुझे संकोच लगता है।
जो. : (मुसकरा कर) वाह रे संकोच वाली। भला मुझ से कौन संकोच है? मैं फिर रूठ जाऊंगी जो मेरा कहना न करेगी।
च. : (आप ही आप) हाय हाय! इसकी कैसी मीठी बोलन है जो एक साथ जी को छीने लेती है। जरा से झूठे क्रोध से जो इस ने भौहें तनेनी की हैं वह कैसी भली मालूम पड़ती हैं। हाय! प्राणनाथ कहीं तुम्हीं तो जोगिन नहीं बन आए हो। (प्रगट) नहीं नहीं रूठो मत मैं क्यों न गाऊंगी। जो भला बुरा आता है सुना दूंगी पर फिर भी कहती हूं आप मेरे गाने से प्रसन्न न होंगी। ऐ मैं हाथ जोड़ती हूं, मुझे न गवाओ (हाथ जोड़ती है)।
ल. : वाह तुझे ये पाहुने की बात अवश्य माननी होगी। ले मैं तेरे हाथ जोडूं हूं, क्यों न गावैंगी। यह तो उससे बहाली बता जो न जानती हो।
च. : तो तू ही क्यों नहीं गाती। दूसरों पर हुकुम चलाने को तो बड़ी मुस्तैद होती है।
जो. : हां हां सखी तू ही न पहिले गा। ले मैं सारंगी से सुर की आस देती जाती हूं।
ल. : यह देखो। जो बोले सो घी को जाय। मुझे क्या, मैं अभी गाती हूं।
(राग बिहाग गाती है)
अलख गति जुगल पिया प्यारी की।
को लखि सकै लखत नहीं आवै तेरी गिरधारी की ।।
बलि बलि बिछुरनि मिल हंसनि रूठनि नितहीं यारी की।
त्रिभुवन की सब रति गति मति छबि या पर बलिहारी की ।।
च. : (आप ही आप) हाय! यहां आज न जाने क्या हो रहा है, मैं कुछ सपना तो नहीं देखती। मुझे तो आज कुछ सामान ही दूसरे दिखाई पड़ते हैं। मेरे तो कुछ समझ ही नहीं पड़ता कि मैं क्या देखसुन रही हूं। क्या मैंने कुछ नशा तो नहीं पिया है। अरे यह योगिन कहीं जादूगर तो नहीं है। घबड़ानीसी होकर इधर उधर देखती है,
(इसकी दशा देख कर ललिता सकपकाती और जोगिन हंसती है)
ल. : क्यों? आप हंसती क्यों हैं?
जो. : नहीं यों हीं, मैं इसको गीत सुनाया चाहती हूं पर जो यह फिर गाने का करार करे।
च. : (घबड़ा कर) हां मैं अवश्य गाऊंगी आप गाइए
(फिर ध्यानावस्थित सी हो जाती है)।
(सारंगी बजा कर गाती है)
(संकरा)
जो. :
तू केहि चितवति चकित मृगीसी
केहि ढूँढत तेरो कहा खोयो क्यौं अकुलाति लखाति ठगीसी ।।
तन सुधि करु उघरत री आंचर कौन ख्याल तू रहति खगीसी।
उतरु न देत जकीसीं बैठी मद पीयो कै रैन जगीसी ।।
चैंकि चैंकि चितवति चारहु दिस सपने पिय देखति उमगीसी।
भूलि बैखरी मृग छौनी ज्यौं निज दल तजि कहुं दूर भगीसी।
करती न लाज हाट घर बर की कुलमरजादा जाति डगीसी।
हरीचंद ऐसिहि उरझी तौ क्यौं नहिं डोलत संग लगीसी ।।
तू केहि चितवति चकित मृगीसी
च. : (उन्माद से) डोलूंगी डोलूंगी संग लगी (स्मरण करके लजा कर आप ही आप) हाय हाय! मुझे क्या हो गया है। मैंने सब लज्जा ऐसी धो बहाई कि आये गये भीतर बाहर वाले सब के सामने कुछ बक उठती हूं भला यह एक दिन के लिये आई बिचारी योगिन क्या कहैगी? तौ भी धीरज ने इस समय बड़ी लाज रक्खी नहीं तो मैं- राम-राम नहीं-नहीं मैंने धीरे से कहा था किसी ने सुना न होगा। अहा! संगीत और साहित्य में भी कैसा गुन होता है कि मनुष्य तन्मय हो जाता है। उस पर भी जले पर नोन। हाय! नाथ हम अपने उन अनुभव सिद्ध अनुरागों और बढ़े हुये मनोरथों को किस को सुनावैं जो काव्य के एक एक तुक और संगीत की एक-एक तान से लाख लाख गुन बढ़ते हैं और तुम्हारे मधुर रूप और चरित्र के ध्यान से अपने आप ऐसे उज्ज्वल सरस और प्रेमरूप हो जाते हैं मानो सब प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं। पर हा! अंत में करुणा रस में उनकी समाप्ति होती है क्योंकि शरीर की सुधि आते ही एक साथ बेबसी का समुंद्र उमड़ पड़ता है।
जो. : वाह अव यह क्या सोच रही हो! गाओ ले अब हम नहीं मानैंगी।
ल. : हां सखी अब अपना बचन सच कर।
च. : (अद्र्धोन्माद की भंाति) हां हां मैं गाती हूं।
(कभी आंसू भर कर कभी कई बेर, कभी ठहर कर, कभी भाव बता कर, कभी बेसुर ताल ही, कभी ठाक ठोक कभी टूटी आवाज से पागल की भांति गाती है)
मन की कासों पीर सुनाऊं।
बकनों वृथा और पत खोनी सबै चवाई गाऊं ।।
कठिन दरद कोऊ नहिं हरिहै धरिहै उलटो नाऊं।
यह तो जो जानै सोई जानै क्यों करि प्रगट जनाऊं ।।
रोम रोम प्रति नैन श्रवन मन केहि धुनि रूप लखाऊं।
बिना सुजान शिरोमनि री केहि हियरो काढ़ि दिखाऊं ।।
मरमिन सखिन वियोग दुखिन क्यौं कहि निज दसा रोआऊं।
हरीचंद पिय मिले तो पग परि गहि पटुका समझाऊं ।।
(गाते गाते बेसुध होकर गिरा चाहती है कि एक बिजली सी चमकती है और योगिन श्रीकृष्ण बनकर उठाकर गले लगाते हैं और नेपथ्य में बाजे बजते हैं)
ल : (बड़े आनंद से) सखी बधाई है, लाखन बधाई है। ले होश में आ जा। देख तो कौन तुझे गोद में लिये है)
च : (उन्माद की भांति भगवान के गले में लपट कर)।
पिय तोहि राखौगी भुजन में बांधि।
जान न देहौं तोहि पियारे धरौंगी हिये सों नांधि ।।
बाहर गर लगाइ राखौंगी अन्तर करौंगी समाधि।
हरचन्द छूटन नहिं पैहौ लाल चतुरई साधि ।।
पिय तोहि कैसे हिय राखौं छिपाय?
सुन्दर रूप लखत सब कोऊ यहै कसक जिय जाय ।।
नैनन में पुतरी करि राखौं पलकन ओट दुराय।
हियरे में मनहू के अन्तर कैसे लेउं लुकाय ।।
मेरो भाग रूप पिय तुमरी छीनत सौतैं हाय।
हरीचन्द जीवन धन मेरे छिपत न क्यौं इत धाय ।।
पिय तुम और कहूं जिन जाहु।
लेन देहु किन मों रंकिन को रूप सुधा रस लाहु ।।
जोजो कहौं करौं सोई सोई धरि जिय अमित उछाहु।
राखौं हिये लगाई पियारे किन मन माहिं समाहु ।।
अनुदिन सुन्दर बदन सुधानिधि नैन चकोर दिखाहु।
हरिचन्द पलकन की ओटै छिनहु न नाथ दुराहु ।।
पिय तोहि कैसे बस करि राखौ।
तुव दृग मैं दृग तुव हिय मैं निज हियरो केहि बिधि नाखौं ।।
कहा करौं का जतन विचारौं विनती केहि विधि भाखौं।
हरीचन्द प्यासी जनमन को अधरसुधा किमि चाखौं ।।
भगवान : तौ प्यारी मैं तोहि छोड़ि कै कहां जाऊंगी तू तौ मेरी स्वरूप ही है। यह सब प्रेम की सिच्छा करिबे को तेरी लीला है।
ल : अहा! इस समय जो मुझे आनन्द हुआ है उसका अनुभव और कौन कर सकता है। जो आनन्द चन्द्रावली को हुआ है वही अनुभव मुझे भी होता है। सच है युगल के अनुग्रह बिना इस अकथ आनन्द का अनुभव और किस को है?
च : पर नाथ ऐसे निठुर क्यौं हौ! अपनों को तुम वैसे दुखी देख सकते हो? हा! लाखों बातैं सोची थी कि जब कभी पाऊंगी तो यह कहूंगी यह पूछूंगी पर आज सामने कुछ नहीं पूछा जाता!
भ : प्यारी मैं निठुर नहीं हूं। मैं तो अपने पे्रमिन को बिना मोल को दास हूं। पन्तु मोहि निहचै है कै हमारे पे्रमिन को हम सों हू हमारो विरह प्यारी है। ताही सों मैहूं वचाय जाऊं हूं। या निठुरता मैं जे पे्रमी हैं विनको तो प्रेम और बढे़ और जे कच्चे हैं विनके बात खुल जाय। सो प्यारी वह बात हूं दूसरेन की है। तुमारो का तुम और हम तो एक ही है न तुम हम सौं जुदी हो न प्यारीजू सों। हमने तो पहिले ही कही कै यह सब लीला है। (हाथ जोड़कर) प्यारी छिमा करियो, हम तो तुम्हारे सबन के जनम जनम के रानियाँ हैं। तुमसे हम कभू उरिन हौईबेई के नहीं। (आंखों में आंसू भर आते हैं)।
च : (घबड़ाकर दोनों हाथ छुड़ाकर आंसू भर के) बस बस नाथ बहुत भई, इतनी न सही जायगी। आपकी आंखों में आंसू देखकर मुझ से धीरज न धरा जायगा (गले लगा लेती है)।
(विशाखा आती है)
वि : सखी! बधाई है। स्वामिनी ने आज्ञा दई है के प्यारे सों कही दै चंद्रावली की कुंज मैं सुखेन पधारौ।
च : (बड़े आनंद से घबड़ाकर ललिता विशाखा से) सखियो, मैं तो तुम्हारे दिए पीतम पाये हैं। (हाथ जोड़कर) तुमारो गुन जनम जनम गाऊंगी।
वि : सखी, पीतम तेरो तू पीतम की, हम तौ तेरी टहलनी हैं। यह सब तौ तुम सबन की लीला है। यामैं कौन बोलै हू कहा जो कछू समझै तौ बोलै-या प्रेम को तौ अकथ कहानी है। तेरे प्रेम को परिलेख तो प्रेम की टकसाल होयगी और उत्तम प्रेमिन को छोड़ि और काहू की समझ ही में न आवैगो। तू धन्य तेरो, प्रेम धन्य, या प्रेम के समझि वेवारे धन्य और तेरे प्रेम को चरित्र जो पढ़े सो धन्य। तो मैं और स्वामिनी मैं भेद नहीं है, ताहू मैं तू रस की पोषक ठैरी। बस, अब हमारी दोउन की यही बिनती है कै तुम दोऊ गलबाही दै कै बिराजौ और हम युगलजोड़ी को दर्शन करि आज नेत्र सफल करैं।
(गलबाहीं देकर जुगल स्वरूप बैठते हैं)
दोनों :
नीके निरखि निहारी नैन भरि नैनन को फल आजु लहौ री।
जुगुल रूप छबि अमित माधुरी रूप-सुधा-रस-सिंधु बहौ री ।।
इनही सौं अभिलाख लाख करि इक इनहीं को नितहि चहौ री।
जो नर तनहि सफल करि चाहौ इनहीं के पद कंज गहौ री ।।
करम-ज्ञान-संसार-जाल तजि बरु बदनामी कोटि सहौ री।
इनहीं के रस-मत्त मगन नित इनहीं के ह्नै जगत रहौ री ।।
इनके बल जग-जाल कोटि अब तुम सम प्रेम प्रभाव दहौ री।
इनहीं को सरबस करि जानौ यहै मनोरथ जिय उमहौ री ।।
राधा चंद्रावली-कृष्णा-ब्रज-जमुना-गिरिवर सुखहिं कहौ री।
जनम जनम यह कठिन प्रेमव्रत ‘हरीचंद’ इकरस निबहौ री ।।
भ : प्यारी! और जो इच्छा होय सो कहौ। काहे सो कै जो तुम्हैं प्यारो है सोई हमैं हूं प्यारी हैं।
च : नाथ! और कोई इच्छा नहीं, तुम्हारी तो सब इच्छा की अबधि आपके दर्शन ही ताई है तथापि भरत को यह वाक्य सफल होय-
परमारथ स्वारथ दोउ कह सँग मेलि न सानैं।
जे आचारज होइँ धरम निज तेई पहिचानै ।।
बृदाबिपिन बिहार सदा सुख सों थिर होई।
जन बल्लभी कहाइ भक्ति बिनु होइ न कोई ।।
जगजाल छाँहि अधिकार लहि कृष्ण चरित सबही कहै।
यह रतनदीप हरिप्रेम को सदा प्रकाशित जग रहै ।।



(फूल की वृष्टि होती है, बाजे बजते हैं और जवनिका गिरती है)
इति परमफल चतुर्थ अंक
 


 

 

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