हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 

 दुर्लभ बन्धु
भारतेंदु हरिश्चंद्र

तीसरा अंक

 


पहला दृश्य
स्थान-वंशनगर, एक सड़क
(सलोने और सलारन आते हैं)
सलोने : कहो बाजार का कोई नया समाचार है?
सलारन : इस बात का अब तक वहाँ बड़ा कोलाहल है कि अनन्त का एक अनमोल माल से लदा हुआ जहाज उस छोटे समुद्र में नष्ट हो गया; कदाचित् उस स्थान को लोग दुरूह कहते हैं जो एक बड़ी भयानक बालू की ठेंक है जहाँ कितने ही बड़े-बड़े अनमोल जहाज नष्ट हो गए हैं यदि यह समाचार निरी गप हाँकने वाली कुटनीक न हो।
सलोने : ईश्वर करे वह वैसी ही झूठी कुटनी निकले जो आँसू बहाने के लिए अपनी आँखों में लाल मिर्च मल लेती है, जिसमें लोगों पर अपने तीसरे पति के मरने का दुख प्रकट करे। पर यह सच है और मैं बिना इसके कि बात को बढ़ाऊँ या बातचीत की सीधी राह से मुड़ूँ, कहता हूँ कि सुहृद अनन्त धर्मिष्ठ अनन्त-हाय मुझे तो कोई ऐसा शब्द ही नहीं मिलता जिससे उसकी प्रशंसा सूचित हो सके।
सलारन : अच्छा तो अब तुम्हारा वाक्य समाप्त हुआ।
सलोने : वाह! क्या कहते हो? अच्छा तो उसका परिणाम यह है कि उनका एक जहाज नष्ट हो गया।
सलारन : मैं तो आशीर्वाद देता हूँ कि उनकी हानि यहीं पर समाप्त हो जाय।
सलोने : मैं भी झटपट एवमस्तु कह दूँ, कहीं ऐसा न हो कि भूत मेरी प्रार्थना में विघ्न करे क्योंकि यह देखो वह जैन की सूरत में चला आता है।
(शैलाक्ष आता है)
सलोने : कहो जी शैलाक्ष आज कल सौदागरों में क्या समाचार है?
शैलाक्ष : मेरी बेटी के भागने का हाल तुमको भलीभाँति विदित है तुमसे बढ़कर इस बात को कोई नहीं जानता, कोई नहीं जानता।
सलारन : इसमें भी कोई सन्देह है परन्तु यदि मुझसे पूछो तो मैं केवल इतना ही जानता हूँ कि अमुक दर्जी ने उसके लिये पर बनाये थे जिनके सहारे से उड़ी।
सलोने : और शैलाक्ष भी इस बात को जानता था कि उस चिड़िए के पर जम चुके हैं जिसके होने के सब पक्षियों का नियम है कि अपने माँ बाप के खोन्ते से निकल भागते हैं।
शैलाक्ष : वह इस अपराध के लिए अवश्य नरक में पड़ेगी।
सलारन : अवश्य यदि चेत भूत उसका न्यायकत्र्ता हो।
शैलाक्ष : ऐ! मेरा ही मांस और रुधिर मुझी से विरुद्ध हो!
सलोने : तुम भी पुराने घाघ होकर क्या ही वाही तबाही बकते हो! भला ऐसी युवा कुमारी के ऐसे कृत्य को विरुद्ध कह सकते हैं?
शैलाक्ष : क्या मेरी लड़की मेरा मांस और लहू नहीं है?
सलारन : तुम्हारे और उसके मांस में तो उससे भी अधिक अन्तर है जैसा कि नीलमणि और स्फटिक में होता है, तुम्हारे और उसके रुधिर में उससे भी अधिक अन्तर है जैसा कि सिंगर्फ और गेरू में होता है। पर यह तो कहो कि तुमने भी अनन्त के जहाज के नष्ट होने का कुछ हाल सुना है?
शैलाक्ष : वह मेरे लिये एक दूसरे घाटे की बात है; एक पूरा व्यर्थ व्यय करने वाला और दीवालिया जो अब बाजार में किसी को मुँह नहीं दिखला सकता, एक भिखमंगा जो किस बनावट के साथ बन ठन कर बाजार में आया करता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे; वह मुझे बड़ा ब्याज खाने वाला कहता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे; वह लोगों को बहुत अपनी आर्य दयालुता दिखलाने के लिए व्यर्थ रुपया ऋण दिया करता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे।
सलारन : क्यों, मुझे विश्वास है कि यदि वह अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सके तो तुम उनका मांस न माँगोगे; भला वह तुम्हारे किस काम में आ सकता है?
शैलाक्ष : मछली फँसाने के लिये चारे के काम में यदि वह और किसी वस्तु का चारा नहीं हो सकता तो मेरे बदले का चारा तो होगा। उसने मुझे अप्रतिष्ठित किया है और कम से कम मेरा पाँच लाख का लाभ रोक दिया है; वह सदा मेरी हानि पर हँसा है, मेरे लाभ की निन्दा की है, मेरी जाति की अप्रतिष्ठा की है, मेरे व्यवहारों में टाँच मारी है, मेरे मित्रों को ठंढा और मेरे शत्रुओं को गर्म किया है; और यह सब किस लिए? केवल इसलिये कि मैं जैनी हूँ। क्या जैनी की आँख, नाक, हाथ, पाँव और दूसरे अंग आर्यों की तरह नहीं होते? क्या उसकी सुधि, सुख और दुःख, प्रीति और क्रोध आर्यों की भाँति नहीं होता? क्या वह वही अन्न नहीं खाता उन्हीं शस्त्रों से घायल नहीं होता, वही रोग नहीं झेलता, उन्हीं औषधियों से अच्छा नहीं होता, उसी गर्मी और जाड़े से सुख और कष्ट नहीं उठाता जैसा कि कोई आर्य? क्या यदि तुम चुटकी काटो तो हम लोगों के रुधिर नहीं निकलता? क्या यदि तुम गुदगुदाओ तो हम लोगों को हँसी नहीं आती? क्या यदि तुम विष दो तो हम लोग मर नहीं जाते? तो फिर जो तुम हम पर अत्याचार करोगे तो क्या हम बदला न लेंगे? यदि हम लोग और बातों में तुम्हारे सदृश हैं तो इस बात में भी तुम्हारे तुल्य होंगे। यदि कोई जैनी किसी आर्य को दुःख दे तो वह किस भाँति अपनी नम्रता प्रकट कर सकता है? बदला लेकर। तो यदि कोई आर्य किसी जैन को क्लेश पहुँचावे तो इसे उसके उदाहरण के अनुसार किस प्रकार से सहन करना चाहिए? अवश्य बदला लेकर। जो पाजीपन तुम लोग मुझे अपने उदाहरण से सिखलाते हो उसे मैं कर दिखलाऊँगा और कितनी ही कठिनता क्यों न पड़े मैं बदला लेने में अवश्य तुमसे बढ़कर रहूँगा।
(एक भृत्य आता है)
भृत्य : महाशयो मेरे स्वामी अनन्त अपने घर पर हैं और आप दोनों से कुछ बातचीत किया चाहते हैं।
सलारन : हम लोग तो उनको चारों ओर खोज ही रहे थे।
(दुर्बल आता है)
सलारन : यह देखो एक दूसरा जैनी आया; अब तीसरा इनकी बराबरी का नहीं निकल सकता पर हाँ उस दशा में कि भूत आप ही एक जैन बन जाय।
(सलोने, सलारन और भृत्य जाते हैं)
शैलाक्ष : कहो जी दुर्बल जयपुर से क्या समाचार लाए? मेरी बेटी का पता लगाया?
दुर्बल : मैंने जहाँ जहाँ उसका समाचार सुना, वहाँ वहाँ पहुँचा परन्तु कहीं पता न लगा।
शैलाक्ष : वही, वही, वही वह हीरा ले गई जो मैंने दो सहस्र अशरफी से फरीदकोट में लिया था! ऐसा बड़ा ईश्वर का कोप हमारी जाति पर आज तक न गिरा था। मुझे तो आज तक उसका अनुभव न हुआ था-तो सहस्र अशरफी का एक हीरा और दूसरे अमूल्य रत्न अलग। अच्छा होता कि मेरी लड़की मेरी आँखों के सामने मर गई होती और वह रत्न उसके शरीर पर होते! अच्छा होता कि उसका शव मेरे पावों के नीचे गड़ता और अशरफियाँ उसके कफन में होतीं। उनका कुछ पता नहीं लगा? यही परिणाम हमारे प्रयत्नों का है और विदित नहीं कि इस खोज में कितना व्यय पड़ा-हाय यह हानि पर हानि! ‘मुफलिसी में आटा गीला!’ इतना तो चोर ले गया और इतना चोर की खोज में नष्ट हुआ। तिस पर न कुछ उसके सन्ती मिलने की आशा और न बदला निकलने की। किसी और के घर दुःख भी दृष्टि पड़ता जिसे देख धीरज हो। हाँ यदि है तो मेरी गर्दन पर सवार, कहीं से आह भी नहीं सुनाई देती सिवाय उसके जो मेरे हृदय से निकलती है, और न सिवाय मेरे किसी के आँसू गिरते हैं।
दुर्बल : ऐसा तो नहीं और लोग भी अपने अपने दुःख से खाली नहीं हैं। अभी मैंने जयपुर में समाचार पाया कि अनन्त का-
शैलाक्ष : क्या, क्या, क्या? दुःख दुःख?
दुर्बल : उसके जहाजों का एक बेड़ा त्रिपुल से आते समय राह में नष्ट हो गया।
शैलाक्ष : धन्य है ईश्वर को, धन्य है ईश्वर को, क्या यह समाचार सच्चा है? क्या यह समाचार सच्चा है?
दुर्बल : मैं आप उन खलासियों के मुँह से सुन आया हूँ जो जहाज के नष्ट होने से बच कर आए हैं।
शैलाक्ष : मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ अच्छे दुर्बल, बड़ा अच्छा समाचार लाए, बड़ा अच्छा समाचार लाए, अहाहा-कहाँ? जयपुर में?
दुर्बल : मैंने जयपुर में सुना कि तुम्हारी बेटी ने एक रात में अस्सी अशरफियाँ व्यय कीं!
शैलाक्ष : तू मेरे कलेजे में छुरी मारता है। अब मैं फिर अपनी अशरफियों को इन आँखों से न देखूँगा; हाय! अस्सी अशरफियाँ! एक बार में अस्सी अशरफियाँ!
दुर्बल : अनन्त के कई ऋणदाता मेरे साथ वंशनगर को आए जो शपथ खाकर कहते थे कि अब उसके काम का बिगड़ना किसी भाँति नहीं रुक सकता।
शैलाक्ष : बडे़ हर्ष की बात है; में उसे बहुत रुलाऊँगा, मैं उसे कोच कोच कर मारूँगा; बडे़ हर्ष का विषय है।
दुर्बल : उनमें से एक ने मुझे एक अँगूठी दिखलाई जो तुम्हारी बेटी ने उसे एक बन्दर के मोल में दी है।
शैलाक्ष : उसका नाम मत लो दुर्बल! तुम मेरे हृदय में रह रह के घात करते हो! वह मेरी नीलम की अँगूठी थी; मैंने उसे कमलाक्षी से पाया था जब कि मेरा ब्याह नहीं हुआ था; यदि मुझसे कोई बन्दरों का जंगल का जंगल देता तो भी मैं इस अँगूठी को अपने से पृथक् न करता।
दुर्बल : लेकिन अनन्त तो निस्सन्देह नष्ट हो गया।
शैलाक्ष : इसमें भी कोई सन्देह है, यह तो स्पष्ट है, यह तो भलीभाँति प्रकट है। जाओ दुर्बल उसके पकड़ने के लिए एक प्रधान ठहराओ, उसे पन्द्रह दिन पहले से पक्का कर रक्खो। यदि यह मुझे अपने प्रण के अनुसार रुपया न दे सका तो मैं इसका पित्ता निकलवा लूँगा, क्योंकि यदि यह काटा वंशनगर से निकल जाए तो मेरा व्यापार मनमाना चले। अच्छा दुर्बल अब जाओ और मुझसे मंदिर में मिलो, जाओ प्यारे दुर्बल; देखो हम लोगों को मंदिर में मिलना।
दोनों जाते हैं,


दूसरा दृश्य
स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा
(बसन्त, पुरश्री, गिरीश, नरश्री, और उनके साथी आते हैं। सन्दूक रक्खे जाते हैं)
पुरश्री : भगवान के निहोरे थोड़ा ठहर जाइए। भला अपने भाग्य की परीक्षा के पहले एक दो दिन तो ठहर जाइए, क्योंकि यदि आप की रुचि ठीक न हुई तो आप के साथ रहने का आनन्द तुरन्त ही हाथ से जाता रहेगा। इसलिए थोड़ा धीरज धरिए, न जाने क्यों मेरा जी आप से पृथक् होने को नहीं करता, पर मैं समझती हूँ कि इसका कारण अनुराग नहीं है और यह तो आप भी कहेंगे कि घृणा का इससे सम्बन्ध नहीं हो सकता। किन्तु कदाचित् आप मेरे जी की बात न समझे हों इसलिए मैं आप को भाग्य की परीक्षा करने से पहले दो एक महीने तक ठहराऊँगी, परन्तु इससे क्या होना है? कुमारी अपने जी की बात को जिह्ना पर कब ला सकती है। मैं आप को पते का सन्दूक बता सकती हूँ पर मेरी सौगन्ध टूट जायेगी और यह मुझे किसी तरह पर अंगीकार नहीं। कदाचित् मैं आप को न मिलूँ, पर यदि ऐसा हुआ तो मेरा चित्त यही कहेगा कि तू ने अपराध क्यों न किया और शपथ क्यों न तोड़ डाली। मेरा मन करता है कि आपकी आँखों को कोसूँ, इन्हीं ने तो मुझे मोल ले लिया और मेरे दो भाग कर डाले-आधी तो मैं आप को हूँ, और शेष आधी भी आप ही को, क्योंकि यदि मैं यों कहूँ कि अपनी हूँ तो भी तो आपही की हुई, इसलिए सब आप ही की ठहरी। क्या बुरा समय आ गया है कि अपनी वस्तु पर भी अपना बस नहीं! अतएव यद्यपि मैं आप ही की हूँ तो भी क्या? हुई न हुई दोनों बराबर-यदि कहीं भाग्य ने धोखा दिया तो उसके कारण मैं क्यों दुःख में पडँ़ई, पड़े तो भाग्य पड़े जिसका दोष है। मैं बहुत कुछ बक गई पर तात्पर्य मेरा यह है कि बातचीत में कुछ समय कटे और आपके सन्दूक पसन्द करने के लिए जाने में इसी बहाने कुछ देर हो।
बसन्त : मुझे झटपट चुन लेने दीजिए, यों रहने से तो मेरा जी सूली पर टँगा है।
पुरश्री : सूली पर, तो कहिए कि आप के प्रेम के साथ दगा कैसी मिली हुई है?
बसन्त : दगा का क्या काम, हाँ यदि कुछ है तो अपने चित्त के अभिलाष पूरे होने की ओर से अविश्वास। मेरे प्रेम के साथ तो दगा का होना ऐसा है मानो आग और बर्फ की मित्रता।
पुरश्री : जी हाँ, पर मुझे भय है कि आप का जी तो सूली पर टँगा है, और सूली पर लोग प्रायः विवश होकर बे सिर पैर की बका करते हैं।
बसन्त : जीवदान दीजिए तो यथार्थ कह दूँ।
पुरश्री : अच्छा तो फिर कहिए, आप का जीवन आपको मुबारक।
बसन्त : कह दूँ, मेरा प्राण मुझको मुबारक! तौ तो मेरा मनोरथ बर आया, वाह जब सताने वाला आप ही वह राह दिखलाता है जिससे जी बचे तो कष्ट भी परम सुख है परन्तु अच्छा अब मुझे सन्दूकों के साथ अपने भाग्य की परीक्षा के लिए छोड़ दीजिए।
पुरश्री : अच्छा तो आप जायँ, उन सन्दूकों में से एक में मेरा चित्र है; यदि आप मुझे चाहते होंगे तो वह आपको मिल जायगा। नरश्री तुम अब अलग खड़ी हो जाओ और जब आप सन्दूक पसन्द करने लगें तो कुछ गाना का भी आरंभ हो, जिसमें यदि आप कहीं चूक जायँ तो जैसे बत्तक अपना दम निकालने के समय गाता है वैसे ही आप के बिदा होने के समय भी गाना होता रहे। यदि कहिए कि बत्तक की समाधि पानी में होती है तो मेरी आँखें नदी बनकर आप के शत्रुओं की समाधि बन जायँगी। यदि कहीं आप ने दाँव मारा तो गाना क्या है मानो उस समय की सलामी का बाजा है जब कोई नया राजा सिंहासन पर बैठता है और उसकी शुभचिन्तक प्रजा उसके अभिनन्तन को आती है, या वह मीठी तान है जिसे सुन कर नया वर विवाह के दिन सबेरे ही उठ कर ब्याह की तैयारी करता है। देखिए (वह जाते हैं) जब रुद्र उस कुमारी को छुड़ाने गया था जिसे त्रयम्बक ने समुद्र की एक आपत्ति को सौंप दिया था तो जैसा तेज उसके मुख पर बरसता था वैसा ही उनके मुँह पर बरसता है परन्तु प्रेम तो उसकी अपेक्षा कई अंश अधिक है। मैं भी उस कुमारी की भाँति बलिदान के लिए प्रस्तुत हूँ और यह स्त्रियाँ मानो त्रयम्बक की रहने वाली हैं और वियोगिन बनी हुई खड़ी देख रही हैं कि इस दुस्तर कर्म का क्या परिणाम होता है। अच्छा मेरे रुद्र जाओ, अब तो मेरा जीवन तुम्हारे प्राण के साथ है और निश्चय रखिए कि आप का चित्त, यद्यपि आप स्वयं लड़ने जाते हैं, इतना न धड़कता होगा जितना मेरा धड़कता है यद्यपि मैं केवल दूर से खड़ी हुई कौतुक देख रही हूँ।
गीत
अहो यह भ्रम उपजत किय आय।
जिय मैं कै सिर मैं जनमत है बढ़त कहाँ सुख पाय।
ता को यह उत्तर जिय उपजत बढ़त दृष्टि में धाय ।
पै यह अति अचरज कै जित यह जनमत तितहि नसाय।
देखि ऊपरी चमक चतुर हूँ जद्यपि जात भुलाय ।
पै जब जानत अथिर ताहि तब निज भ्रम पर पछिताय।
तासों टनटन बजै कहौ अब घंटा हू घहराय ।
बसन्त : सच है पदार्थ देखने में भले और भड़कीले होते हैं वस्तुतः कुछ नहीं होते। संसार के लोग बाहरी चमक दमक में भूल जाया करते हैं। देखिए कानून में कोई दलील कैसी ही झूठी और बे सिर पैर की क्यों न हो यदि उसी को साधु भाषा में नमक मिर्च लगाकर कहिए तो उसका सब अवगुण छिप जाता है। उसी भाँति धर्म में देखिए तो कैसी ही घृणा के योग्य भूल क्यों न हो कोई न कोई उपयुक्त युक्ति मनुष्य उसके प्रमाण में देकर उसे सराहेगा और उसके दोषों पर सुवर्ण का पर्दा डाल देगा। निरी बुराई पर भी बाहरी भलाई का मुलम्मा चढ़ जाता है। देखिए कितने ऐसे डरपोक मनुष्य, जिनके चित्त बालू की भीत की भाँति निर्बल हैं, दाढ़ी और रूप रंग में मानसिंह और विजयसेन को तुच्छ करते हैं और भीतर देखिए तो उनका दुर्बल अन्तःकरण दूध सा स्वच्छ है। उन लोगों को कहना चाहिए कि यह केवल वीर पुरुषों का उतरन अपना प्रभाव दिखलाने के निमित्त पहिन लेते हैं। सुन्दरता की ओर दृष्टि कीजिए तो विदित होगा कि वह केवल चाँदी का न्यौछावर है जितना रुपया लगाइए उतनी ही भड़क हो। वास्तव में तत्वनिरूपण करने पर करामात प्रतीत होने लगती है, जिसके सिर पर जितना अधिक भार है उतना ही विशेष तुच्छ है। यही दशा उन घुँघरवाले सुन्दर कचकलापों का है जो वायु में इस भाँति बल खाते हैं कि मन को लुभा लेते हैं। देखिए एक के सिर से उतर एक दूसरे के सिर चढ़ते हैं और जिस सिर ने उन्हें पाला था वह अन्त में कीड़ों का आहार है। अतः भूषण बसन क्या हैं मानो किसी बड़े भयानक समुद्र का ऐसा किनारा है जो थाह बता कर गोता दे या किसी हिन्दुस्तानी स्त्री का भड़कीला दुपट्टा है, अर्थात् यह कहना चाहिए कि समय के छली लोग झूठ को ऐसा सच करके दिखा देते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान की बुद्धि चकित हो जाती है। इसलिये चमकीले सोने जिसने महाराज मागधि से उनका खाना लेकर लोहे के चने चबवाए, मैं तुझको न छुऊँगा और न तुझे ऐ कुरूप चाँदी जिसके लिए एक मनुष्य दूसरे की सेवा करता है। परन्तु तुच्छ सीसे जिसके देखने से आशा के बदले भय उत्पन्न होता है-
वचन रचन तजि और के, तोही पै विस्वास।
उदासीन प्रेमी मनहिं, लखि तुव रंग उदास ।
औरन तजि तासों चुनत, सीसक अब हम तोहि।
आनँदघन करुनायतन, करहु अनन्दित मोहि ।
पुरश्री : (आप ही आप)
मिट्या सकल भ्रम भीति नसानी।
नसी निरासा जिय-दुखदानी ।
मोह-कँवल-रुज दृग सों भाग्यौ।
संसय तजि मन आनँद पाँग्यौ ।
प्रेम! धीर धरु किन अकुलाई।
धरत सीवँ तजि पगहि बढ़ाई ।
आनँद नीर इतो हिय-जलधर।
उमगि उमगि जनि बरस धीर धर ।
यह सुख नदी उमड़ि जो आई।
मम घट घट नहिं सकत समाई ।
होइ न कहूँ अनन्त अजीरन।
तासों धरु धीरज चंचल मन ।
बसन्त : देखें तो यह क्या निकला?
(सीसे के सन्दूक को खोल कर) वाह वाह यह तो मेरी परम सुन्दरी पुरश्री का चित्र है! यह किस चितेरे की निपुणता है कि चित्र बोला ही चाहता है? क्या यह आँखें सचमुच फिरती हैं या केवल मेरी आँखों की पुतलियों पर इनकी परछाईं पड़ने से मुझे घूमती हुई दिखाई देती हैं। इधर देखिए तो दोनों ओष्ठ इस भाँति से भिन्न हैं मानो मीठे प्यारे श्वासों के आने जाने का मार्ग है। ऐसे प्यारे साथियों के विरह का कारण ऐसी ही प्यारी वस्तु होनी चाहिए। इधर देखिए तो बालों की छबि खींचने में चित्रकार ने मकड़ी की चातुरी को तुच्छ कर दिखलाया है और सोने के तारों का ऐसा जाल बिना है कि मनुष्य का चित्त पतंग की भाँति उसमें फँस जाय। पर वाह री आँखें! इनके बहाने के समय चित्रकार की दृष्टि किस भाँति ठहरी? मेरी समझ में तो जब एक बन गई थी तो उसकी दोनों आँखें इस एक के न्यौछावर हो जातीं और यह आँख बेजोड़ रह जाती। किन्तु सच पूछिए तो जितनी ही मेरी प्रशंसा की इस चित्र के सामने कुछ गिनती नहीं उतनी ही साक्षात् के सामने इस छबि की कुछ गणना नहीं। देखिए यह भाग्य का लेखा-जोखा है।
(पढ़ता है)
जौ लखि छबि ऊपरी भुलाते। तौ यह दाँव कबहुँ नहिं पाते ।
तुम्हरी बुद्धि धीर नहिं छूटी। लेहु अबै रस संपति लूटी ।
अब जिय चाह करौ जनि दूजी। भ्रमहु न जग इच्छा तुव पूजी ।
जौ तुम याहि भाग निज लेखौ। तौ मुरि निज प्यारी मुख देखौ ।
जीवन सरबस याहि बनाई। रहौ चूमि मुख कंठ लगाई ।
अब जौ प्यारी सुन्दरी तुव अनुशासन होय।
तौ हम चुंबन लेहिं अरु निजहु देहिं भय खोय ।
(मुँह चूमता है)
कहँ द्वै जन की होड़ मैं जीतत बाजी कोय।
तौ सब दिसि सों एक सँग ताकी जय धुनि होय ।
सो कोलाहल सुनत ही तासु बुद्धि अकुलाय।
ठाढ़ी सोचत साँच ही जीत्यो मैं इत आय ।
तिमि सुन्तरि सन्देह यह मेरे हू जिय माहिं।
कै जो देखत मैं दृगन तौन साँच की नाहिं ।
सो मम भ्रम तुम करि दया बेगहि देहु मिटाय।
मम जयपत्र सकारि पुनि सुन्तरि मुहि अपनाय ।
पुरश्री : मेरे स्वामी बसन्त आप मुझे जैसी खड़ी हुई देखते हैं वैसे ही मैं हूँ; यद्यपि केवल अपने लिये मेरे जी में यह अभिलाष नहीं है कि मैं अपनी वर्तमान अवस्था से चढ़ जाऊँ किन्तु आपके विचार से मेरा बस चले तो मैं सौगुनी अच्छी हो जाऊँ। रूप में सहस्र बार और धन में लक्षबार अधिक हो जाऊँ, केवल इसलिए कि आपकी दृष्टि में जचूँ। सम्भव है कि मैं गुण, सौन्दर्य, लक्ष्मी और मित्रों में अत्यन्त बढ़ जाऊँ, तथापि इन सब अलभ्य पदार्थों के होते भी मेरी अवस्था यह है कि मैं एक निरी मूर्ख, बेसमझ और सीधी सादी छोकरी हूँ; पर हाँ इस बात से तो प्रसन्न हूँ कि मेरी अवस्था इतनी अधिक अभी नहीं हुई कि मैं कुछ सीख न सकूँ और इस कारण से और भी प्रसन्न हूँ कि इतनी कुंठित भी नहीं हो गई हूँ कि सीखने के योग्य न रही हूँ और सबसे अधिक प्रसन्नता का कारण यह है कि मैं अपने भोले चित्त को आपको सौंपती हूँ कि वह आपको अपना स्वामी, अपना नियन्ता, अपना अधिपति समझकर जो आप कहे सो किया करे। मैं और जो कुछ मेरा है अब वह सब आप का हो चुका। अभी एक साइत हुई कि मैं इस राजभवन और अपने अनुचरों को स्वामिनी और अपने मन की रानी थी, और अभी इस क्षण यह घर, ये नौकर चाकर और मैं आप, सब आप के हो गए। मैं इन सबों को इस अँगूठी के साथ आपको सौंपती हूँ। जब यह अँगूठी आप के पास न रहे, खो जाय या आप इसे किसी को दे देवें तो मैं येे समझूँगी कि आप के प्रेम में अन्दर आ गया और फिर मुझे आप से उपालम्भ देने का पूरा स्वत्व प्राप्त होगा।
बसन्त : प्यारी मेरी जिह्ना को सामथ्र्य नहीं कि तुम्हारे उत्तर में एक अक्षर भी निकाले, पर हाँ मेरा रोम रोम तुम्हारी कृतज्ञता में जिह्ना बन रहा है और मेरी सुधि में ऐसी घबराहट आ गई है जैसी कि प्रजावृन्द में उस समय दृष्टि पड़ती है जब कि वह अपने प्यारे राजा के मुख से कोई उत्तम व्याख्यान सुन कर प्रसन्न हो जाते हैं और वाह वाह करने और आशीष देने लगते हैं। जबकि बहुत से शब्द जिनके कुछ अर्थ हो सकते हैं मिल कर सब व्यर्थ हो जाते हैं और सिवाय इसके कि उनसे प्रसन्नता प्रकट हो और कोई तात्पर्य नहीं समझ में आता। परन्तु यह प्यारी अँगूठी मेरी उँगली से उसी समय जुदा होगी जब कि इस उँगली से सत्ता निकल जायेगी और उस समय तुम निस्सन्देह समझ लेना कि बसन्त मर गया।
नरश्री : मेरे स्वामी और मेरी स्वामिनी अब तक हम लोग खड़े खड़े अपने मन के मनोरथ के पूर्ण होते देखा किए और अब हम लोगों की बारी है कि ‘कल्याण हो’ की ध्वनि मचावें। ‘कल्याण हो’ ऐ मेरे स्वामी और मेरी स्वामिनी।
गिरीश : ऐ मेरे स्वामी बसन्त और मेरी सरल स्वामिनी मेरी यही आसीष है कि आप के सारे मनोरथ पूरे हों क्योंकि मुझे निश्चय है कि आप मेरे हर्ष को तो बाँट लेंगे ही नहीं, अतः मेरी यह प्रार्थना है कि किस समय आप लोग परस्पर अपना मनोभिलाष और प्रतिज्ञा पूरी करें उसी समय मेरा ब्याह भी कर दिया जाय।
बसन्त : मुझे तन और मन से स्वीकार है पर इस शर्त पर कि तुम अपने लिये कोई स्त्री ठहरा लो।
गिरीश : मैं आप को धन्यवाद देता हूं कि आप ही के न्यौछावर में मेरा काम भी निकल आया, क्योंकि ज्योंही आप की प्रेम दृष्टि राजकुमारी पर पड़ी मेरे नेत्रों में भी उसकी सहेली बस गई। उधर आप अनुरक्त हुए इधर मैं प्रेम के फन्दे में फंसा। इसमें न आप को विलंब लगा न मुझे। आप के प्रारम्भ की परीक्षा सन्दूकों के चुनने पर थी वैसे ही मेरा भाग्य भी उन्हीं के साथ अटका हुआ था। तात्पर्य यह है कि मुझे इस सुन्दरी की इतनी सुश्रूषा करनी पड़ी कि शरीर से स्वेद निकल आया और अपनी प्रीति का निश्चय दिलाने के लिये इतनी सौगन्धें खानी पड़ीं कि तालू चटक गया तब कहीं, यदि वाक्दान कोई वस्तु है तो इनके मुख से यह वाक्य निकला कि जो तुम्हारे स्वामी का विवाह मेरी स्वामिनी से हो जायगा तो मैं भी तुम्हें ग्रहण करूँगी।
पुरश्री : नरश्री क्या यह बात सच है?
नरश्री : हाँ सखी यदि आप की इच्छा के विरुद्ध न हो तो सच ही समझी जायगी।
बसन्त : और तुम गिरीश धर्मपूर्वक यह विचार करते हो न?
गिरीश : धर्मावतार सब सच्चे जी से।
बसन्त : तुम्हारे ब्याह से हमारे समाज का आनन्द दूना हो उठेगा।
गिरीश : ऐ यह कौन आता है? अहा लवंग और उनकी प्राण-प्यारी! और हमारे पुराने वंशनगर के मित्र सलोने भी साथ हैं।
(लवंग, जसोदा और सलोने आते हैं)
बसन्त : अहा लवंग और सलोने आए परन्तु मैं अपनी अवस्था में बिना अपनी प्यारी की आज्ञा के प्रसन्नता प्रकट करने का कब अधिकार रखता हूँ। प्यारी पुरश्री यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं अपने सच्चे मित्रों और स्वदेशियों के आने पर प्रसन्नता प्रकट करूँ।
पुरश्री : मेरे स्वामी इस में मेरी परम प्रसन्नता है, ऐसे लोगों का भाग्य से आना होता है।
लवंग : मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, किन्तु सच पूछिए तो मेरी इच्छा आप से यहाँ भेंट करने की न थी परन्तु मार्ग में सलोने मित्र मिल गए और मुझे यहाँ लाने के विषय में इतना हठ किया कि मैं नहीं न कर सका और साथ आना ही पड़ा।
सलोने : जी हाँ मैं इनको वस्तुतः खींच लाया पर इसका एक मुख्य कारण है। अनन्त महाशय ने आपको सलाम कहा है।
(बसन्त के हाथ में एक पत्र देता है)
बसन्त : इससे पहिले कि मैं उनके पत्र को खोलूँ मुझे भगवान के लिये इतना बता दो कि मेरे सुहृन्मित्र प्रसन्न तो है।
सलोने : देखने में तो वह पीड़ित नहीं हैं परन्तु आन्तरिक हो तो हो और न अच्छे ही दृष्टि आते हैं किन्तु चित्त का हाल मैं नहीं कह सकता। अच्छा उस पत्र से उनका वृत्तान्त आपको भलीभाँति सूचित हो जायगा।
गिरीश : नरश्री अपने पाहुनों का सत्कार करो और उनका मन बहलाओ। सलोने नेक इधर ध्यान दीजिए, कहो तो वंशनगर का क्या समाचार है, सब सौदागरों के सिरताज हमारे सुहृद अनन्त किस भाँति हैं? हमारे पूर्ण मनोरथ होने का समाचार सुन कर तो वह फूले न समाएँगे, हम लोग अपने समय के महाबीर हैं क्योंकि सोने की खाल हमने ही जीती है।
सलोने : मेरी जान तो यदि तुम उस खाल को जीतते जिसे बसन्त हारे हैं तो अच्छा होता।
पुरश्री : कदाचित् पत्र में कोई बुरा समाचार है कि जिससे बसन्त के मुख की कांति बढ़ी जाती है। कोई प्रिय मित्र मर गया हो, नहीं तो कौन ऐसी बात है कि जिससे ऐसे धीर मनुष्य की अवस्था हीन हो जाय। ऐं! यह तो क्षण प्रतिक्षण मुख की पाण्डुता बढ़ती जाती है। बसन्त मुझे क्षमा कीजिएगा, मैं आपके शरीर का अद्र्धांग हूँ, और इसलिए जो कुछ कि उस पत्र में लिखा है उस में से आधा हाल सुनने की मैं भी अधिकारी हूँ।
बसन्त : ऐ मेरी प्यारी पुरश्री इस पत्र में कई एक ऐसे दुखदाई शब्द हैं कि जिनका वर्णन नहीं हो सकता। मेरी सुजान प्यारी तुम भलीभाँति जानती हो कि जब मैंने तुम्हें अपना मन दिया था तो यह पहले ही कह दिया था कि जो, कुछ कि मेरी पूँजी है वह मेरा शरीर है अर्थात् मैं अपने कुल का कुलीन हूँ और इस में कोई बात मिथ्या न थी, परन्तु प्यारी यद्यपि मैंने अपनी क्षमता तुम पर स्पष्ट प्रकट कर दी तो भी यदि सच पूछो तो मैंने अभिमान किया क्योंकि जिस समय मैंने तुमसे यह कहा कि मेरे पास कुछ नहीं है मुझे यों कहना चाहिये था कि मेरी अवस्था उससे भी गई बीती है। खेद है कि मैंने केवल अपना मनोरथ पूरा करने के लिये अपने प्यारे मित्र को उसके परम शत्रु के पंजे में फँसा दिया। देखो यह पत्र वर्तमान है जिसे मेरे मित्र का शरीर समझना चाहिए और प्रति शब्द उसका नया घाव जिससे रक्त टपक रहा है। पर क्यों सलोने क्या यह सत्य है कि उनका सारा काम बिगड़ गया? क्या एक भी ठीक न उतरा? ऐ विपुल, मौक्षिक, अंगदेश नन्दन बरबर और हिन्दुस्तान सब देशों के जहाजों में से एक को भी व्यापारियों को निराश करनेवाली चट्टानों ने अखण्ड न छोड़ा।
सलोेने : महाराज एक भी नहीं। तिस पर यह और आपत्ति है कि यदि वह उस जैन को नकद रुपया देने का कहीं से प्रबन्ध भी करें तो वह न लेगा। मेरी दृष्टि में तो ऐसा व्यक्ति मनुष्य की उन्नति तथा उसकी अवनति का साथी अब तक नहीं आया! इसी सोच में वह प्रति दिन सायं प्रातः मण्डलेश्वर को जाकर घेरता है और कहता है कि यदि मेरे साथ न्याय न बरता जायेगा तो इस राज्य के इस सिद्धान्त पर कि वह प्रतिवर्ण के लोगों को एक दृष्टि से देखता है बट्टा लग जायेगा। बीस सौदागरों और कितने और बड़े बड़े नामी लोगों ने और मण्डलेश्वर ने आप भी उसे समझाया और उसने एक की भी न सुनी। अब बतलाइए क्या किया जाय। उस पर तो ईर्षा के मारे यही धुन सवार है कि बस जो कुछ होता था सो हो चुका अब तमस्सुक के प्रण के अनुसार मेरा विचार हो।
जसोदा : जबकि मैं उनके साथ थी मैंने उन्हें प्रायः दुर्बल और अक्रर अपने स्वदेशियों से इस बात की सौगन्ध खाते हुए सुना था कि यदि मुझे कोई ऋण के बीस गुने रुपये भी दे तो अनन्त के मांस के अतिरिक्त उसकी ओर आँख उठा कर न देखूँगा और महाराज मुझे निश्चय है कि यदि वहाँ के विचाराधीश कानून के अनुकूल उसे हठपूर्वक रोक न रक्खेंगे तो विचारे अनन्त के सिर पर बुरी बीतेगी।
पुरश्री : क्या वह आपके कोई प्यारे मित्र हैं जिन पर यह आपत्ति आई है।
वसंत : (आह भर कर) यह वही मेरा सबसे प्यारा मित्र है जो उपकार करने में अपना जोड़ी नहीं रखता, उपकार करने में कभी नहीं थकता और शील का राजा है। इस समय मारवाड़ में वही अकेला एक मनुष्य है जिसमें मारवाड़ के प्राचीन समय के लोगों की उत्तम बातें और उच्च विचार पूरे पूरे पाए जाते हैं।
पुरश्री : उन्हें इस जैन का कितना देना है?
वसंत : मेरे ही कारण छः हजार रुपये के ऋणी हो गए हैं।
पुरश्री : बस इतना ही? आप बारह सहस्र देकर तमस्सुक फेर लीजिए। यदि आवश्यकता हो तो बारह सहस्र के भी दूने कर डालिए और इस दूने के तिगुने, पर ऐसा कदापि न होने पावे कि बसन्त के कारण उनके ऐसे अनुपम मित्र का एक रोम भी टेढ़ा हो। चलिए अभी मंदिर में चल कर ब्याह की रीति कर लीजिए और इसके उपरान्त सीधे अपने मित्र के पास वंशनगर को चले जाइए; क्योंकि जब तक आपका शोच दूर न हो लेगा, मुझे आप के साथ सोना धिक्कार है। उस छोटे ऋण के चुका देने के लिये उनका बीस गुना रुपया लेते जाइए और उसे देकर अपने मित्र को यहाँ साथ लेते आइए। इस बीच में मैं और मेरी सहेली नरश्री कुमारी और विधवा स्त्रियों की भाँति अपना समय काटेंगी। आइए चलिए क्योंकि आपको आज ही अपने ब्याह के दिन यहाँ से जाना है। अपने मित्रों से प्रसन्नतापूर्वक मिलिए और अपना मन विकसित रखिए। आप से मिलने में जितनी कठिनता होवेगी उतने ही अधिक आप मुझे प्यारे प्रतीत होंगे। परन्तु तनिक अपने दोस्त का पत्र तो सुनाइए।
वसंत : (पढ़ता है)-
मेरे प्यारे बसन्त, सब जहाज नष्ट हो गए, मेरे ऋणदाता निर्दयता से वर्त ते हैं, मेरी अवस्था अत्यन्त ही नष्ट है और मेरी प्रतिज्ञा जैन के साथ टल गई और जो कि ऋण के चुका देने में संभव नहीं कि मैं जीता बचूँ, इसलिये मैं सब हिसाब अपने और तुम्हारे बीच साफ समझूँगा कि मैं अपने मरने के समय तुम्हें एक आँख देख लूँ। परन्तु हर हालत में यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। यदि मेरा प्रेम तुम्हें यहाँ तक न खींच ला सके तो मेरे पत्र का कुछ ध्यान न करना।
पुरश्री : मेरे प्यारे सब काम को झटपट पूरा करके एकबारगी चले ही जाओ।
वसंत : जब तुमने प्रसन्नता से जाने की आज्ञा दी तो अब मुझे क्या विलम्ब है। परन्तु जब तक कि मैं लौट न आऊँ मेरे लिये नींद हराम और सुख दुख से अधम है।


तीसरा दृश्य
स्थान-वंशनगर की एक सड़क
(शैलाक्ष, सलारन, अनन्त और कारागार के प्रधान आते हैं)
शैलाक्ष : प्रधान इससे सचेत रहो; मुझसे दया का नाम न लो। यही वह मूर्ख है जो लोगों को बिना ब्याज रुपये ऋण दिया करता था। प्रधान इससे सावधान रहो।
अनन्त : मेरे सुहृद शैलाक्ष कुछ तो मेरी सुन लो।
शैलाक्ष : मैं तमस्सुक के प्रणों को नहीं तोड़ने का, उसके विरुद्ध कुछ मत कहो। मैं इस बात की शपथ खा चुका हूँ कि अपने तमस्सुक की शर्तों पर दृढ़ रहूँगा। तुम ही न इस मुकद्दमे के होेने से पहले मुझे कुत्ता कहा करते थे। अच्छा मैं तो तुम्हारे कहने अनुसार कुत्ता हो ही चुका पर नेक मेरे पंजों से डरते रहना; मण्डलेवश्वर साहिब मेरा विचार करेंगे! मुझे तो ऐ दुष्ट प्रधान तुझ पर आश्चर्य होता है कि तुझे क्या मूर्खता सूझी है जो इसकी बातों में आकर इसे बेखटके इधर उधर लिए फिरता है।
अनन्त : भगवान के वास्ते एक बात तो मेरी सुन लो।
शैलाक्ष : मुझे अपने तमस्सुक से काम है, मैं कदापि तुम्हारी बात न सुनूंगा, मुझे केवल अपने तमस्सुक से काम है; बस अब अधिक गिड़गिड़ाने से क्या लाभ। मैं कुछ ऐसा चित्त का दुर्बल अथवा आँखों का अंधा थोड़े ही हूँ जो सिर हिला कर खेद करूँ, आहें भरूँ और आर्यों के समझाने बुझाने में आकर पिघल जाऊँ। मेरे पीछे न आओ, मैं कदापि सुनने का नहीं, मुझे अपने तमस्सुक से काम है।
(शैलाक्ष जाता है)
सलारन : मनुष्य की आकृति में ऐसा पाषाणहृदय कुत्ता काहे को निकलेगा।
अनन्त : जाने दो, अब मैं उसके पीछे व्यर्थ गिड़गिड़ाता न फिरूँगा। वह मेरे प्राण लेने की चिन्ता में है और इसका कारण भी मैं भलीभाँति जानता हूँ। प्रायः मैंने बहुतेरे लोगों को जो मेरे पास आकर रोए हैं उसके पंजे से छुड़ाया है और इसी कारण से वह मेरा प्राणघातक शत्रु हो रहा है।
सलारन : मुझे निश्चय है कि मण्डलेश्वर उसकी शर्त को कदापि स्थिर न रहने देंगे।
अनन्त : क्यों नहीं, मण्डलेश्वर कानून के उद्देश्य को जिससे विदेशी वंशनगर में आकर बेखटके लेन देन करते हैं क्योंकर बदल सकते हैं। यदि अस्वीकार किया जाये तो यहाँ के राज्य का अपवाद है क्योंकि इस नगर का वाणिज्य और लाभ सब जाति वालों के मिलाप होने के कारण है। अच्छा तो अब तुम जाओ। जो दुःख और क्षतियाँ मैंने इधर उठाई हैं उनके कारण मेरी अवस्था ऐसी नष्ट हो गई है कि कदाचित कल तक मेरे रक्त के प्यासे ऋणदाताओं के लिए मेरे शरीर में आध सेर माँस भी शेष न रहे। आओ प्रधान चलो। ईश्वर करे कहीं बसन्त आ जाय और मुझे अपना ऋण चुकाते हुए देख ले, फिर मेरे जी में कोई लालसा शेष न रहेगी।
ख्सब जाते हैं,


चौथा दृश्य
स्थान-विल्वमठ पुरश्री के घर का एक कमरा
(पुरश्री, लवंग, जसोदा और बालेसर आते हैं)
लवंग : प्यारी यद्यपि आप के मुँह पर कहना सुश्रूषा है पर आप में ठीक देवताओं का सा सच्चा और पवित्र प्रेम पाया जाता है और इसका बड़ा प्रमाण यह है कि आपने इस भाँति अपने स्वामी का विरह सहन किया। किन्तु यदि आपको विदित हो कि आपने किस पर इतनी कृपा की है और वास्तव में कैसे सच्चे सभ्य को सहायता भेजी है और उसको मेरे स्वामी अर्थात् आपके स्वामी से कैसी प्रीति है तो आपको अपने इस कृत्य पर और साधारण कर्तव्यों की अपेक्षा कहीं बढ़ कर प्रसन्नता हो।
पुरश्री : मैं अच्छे काम करके न आज तक पछताई हूँ और न अब पछताऊँगी क्योंकि ऐसे मित्र जो हर क्षण मिले जुले रहते हैं ओर जिनके चित्त में एक दूसरे का समान प्रेम है मानो एक प्राण दो देह हैं उनकी चाल ढाल रहन सहन और चित्त भी अवश्य ही एक सा होगा तो मैं समझती हूँ कि यह अनन्त जो मेरे स्वामी के अन्तरंग मित्र हैं उन्हीं के सदृश्य होंगे। यदि ऐसा है तो मैंने अपने स्वामी के चित्त को महा आपत्ति के पंजे से कैसे थोड़े व्यय में छुड़ा पायी। पर इससे तो मेरी ही प्रशंसा निकलती है। इसलिए अब इस प्रकरण को छोड़कर दूसरी बातें सुनो। लवंग मैं अपने घर और गृहस्थी का सारा प्रबन्ध अपने स्वामी के लौट आने तक तुम्हारे आधीन करती हूँ। रही मैं तो मैंने अपने मन में ईश्वर के सामने एक मन्नत मानी है कि नरश्री को साथ लेकर उसके स्वामी के आने तक प्रार्थना करती और उसकी ओर लौ लगाए रहूँ। यहाँ से दो मील पर एक मठ है, उसी में जाकर हम लोग रहंेगी। मैं आशा करती हूँ कि तुम मेरी इस प्रार्थना से जिसे अपनी प्रीति और कुछ अधिक आवश्यकता होने के कारण करती हूँ अनंगीकार न करोगे।
लवंग : प्यारी मैं तन मन से आप की आज्ञा का अनुगामी हूँ।
पुरश्री : मेरे नौकर चाकर इस इच्छा को जान चुके हैं और वह तुम्हें और जसोदा को महाराज वसन्त और मेरे स्नानापन्न समझेंगे। अच्छा अब मैं तुम लोगों से विदा होती हूँ, जब तक कि भगवान तुमसे फिर न मिलाए।
लवंग : भगवान् आपको उच्च मनोरथ और उत्तम साहस दें।
जसोदा : मेरी आसीस है कि आपका आन्तरिक मनोरथ पूरा हो।
पुरश्री : मैं तुम्हारी इस अभिलाषा का धन्यवाद देती हूँ और तुम्हारे विषय में भी वैसा ही जी से चाहती हूँ। जसोदा मेरा राम राम लो।
(जसोदा और लवंग जाते हैं)
हाँ बालेसर जैसा कि मैंने तुम्हें सदा सच्चा और धामिक पाया है वैसा ही मैं चाहती हूँ कि अब भी पाऊँ। इस पत्र को लो और जहाँ तक कि तुम्हारे पाँव में बल हो शीघ्र पाँडुपुर पहुँचने का प्रयत्न करो और इसे मेरे चचेरे भाई कविराज बलवन्त के हाथ में दो और देखो कि जो पत्र और वस्त्र वह तुम्हें दंे उन्हें ईश्वर के वास्ते मन से अधिक तीव्र उस घाट पर जहाँ से वंशनगर को व्यापार का माल जाता है, लेकर आओ। बस अब चले जाओ, बातों में समय नष्ट न करो। मैं तुमसे पहिले वहाँ पहुँच जाऊँगी।
वालेसर : बबुई मैं जितना शीघ्र सम्भव होगा जाऊँगा।
पुरश्री : इधर आओ नरश्री मुझे अभी वह काम करना है जो तुम्हें अभी विदित नहीं है। हम तुम चल कर अपने स्वामी को देखेंगे और उनको इसका ध्यान भी न होगा।
नरश्री : हमें भी वह देखेंगे या नहीं?
पुरश्री : हाँ हाँ परन्तु ऐसे भेस में कि उन्हें ध्यान न होगा कि वे वीरता के चिन्ह जो स्त्रियों में नहीं होते हम में उपस्थित हैं। मैं प्रण करती हूँ कि जब हम तुम युवा मनुष्यों की भाँति वस्त्र इत्यादि पहिन कर तैयार हो जाएँगे, उस समय मैं तुमसे बढ़कर सजीली जान पडँ़ईगी और अपनी तलवार को खूब तिरछी बाँध कर चलूँगी और बालक और युवा के शब्द के बीच का भारी शब्द बनाकर बोलूँगी और स्त्रियों की मन्दगति छोड़कर पुरुषों की भाँति लम्बे पैर रक्खूंगी और एक अभिमानी नवयुवक व्यसनी पुरुष की भाँति युद्ध इत्यादि का भी वर्णन करूँगी और झूठी बातें गढ़ गढ़ कर कहूँगी कि बड़ी प्रतिष्ठित स्त्रियाँ मुझ पर आसक्त हुईं पर मैंने उन्हें ऐसा कोरा उत्तर दिया कि नैराश्य से पीड़ित होकर मर गईं पर मेरा इसमें क्या बस था फिर मैं खेद प्रकट करूँगी और कहूँगी कि यद्यपि इसमें मुझ पर कुछ दोष नहीं है किन्तु यदि वह मेरे इश्क में न मरतीं तो उत्तम था और इसी प्रकार के बांसों झूठ ऐसे बोलूँगी कि लोगों को इस बात का पक्का विश्वास हो जायेगा कि मुझे पाठशाला छोड़े साल भर से अधिक न हुआ होगा। मुझे इन अभिमानी छोकरों के सहस्र ों चुटकुले स्मरण हैं और मैं इन्हीं से अपना काम निकालूँगी। परन्तु आओ मैं तुमसे अपना सब उपाय गाड़ी में जो बगीचे के फाटक पर खड़ी है सवार होकर वर्णन करूँगी। बस अब शीघ्र ही चलो क्योंकि हमें आज ही बीस मील समाप्त करना है।
(दोनों जाती हैं।)


पाँचवाँ दृश्य
स्थान-विल्वमठ-एक उद्यान
(गोप और जसोदा आते हैं)
गोप : हाँ बेशक-तुम जानती हो कि पिता के पापों का दण्ड उसके बच्चों को भोगना पड़ता है। इसलिये मैं सच कहता हूँ कि मुझे तुम्हारा अमंगल दृष्टि आता है। मैंने तुमसे छलावल की बात आज तक नहीं की और अब भी तुमसे अपना विचार स्पष्ट कह दिया। नेक अपने मन को प्रसन्न रक्खो क्योंकि मेरी सम्मति में तो तुम अपराधग्रस्त हो चुकीं। हाँ एक उपाय तुम्हारे कल्याण का दृष्टि आता है सो उसकी भी आशा कुछ ऐसी वैसी है।
जसोदा : वह कौन सा उपाय है नेक बताना तो?
गोप : भाई! तुम यह समझो कि तुम अपने पिता से उत्पन्न नहीं हो अर्थात् तुम जैन की कन्या नहीं हो।
जसोदा : तौ तो सचमुच यह आशा ऐसी ही वैसी है क्योंकि ऐसा करने में मुझे अपनी माता के अपराधों का दण्ड मिलेगा।
गोप : हाँ सच तो है, तब तो मुझे भाग्य है कि तुम माता पिता दोनों के निमित्त दण्ड पाओगी। हाय हाय जब मैं तुम्हें उधर गड्डे अर्थात् तुम्हारे पिता से बचाता हूँ तो इधर खाई अर्थात् तुम्हारी माता दृष्टि आती है। अच्छा तो अब तुम दोनों ओर से गई।
जसोदा : मैं अपने स्वामी के द्वारा मुक्ति पाऊँगी, वह मुझे आर्य धर्म में लाए हैं।
गोप : तौ तो प्रधान दोष उन पर है। हम लोग पहिले ही से आर्य धर्म के क्या न्यून मनुष्य हैं। परन्तु अच्छा जितने थे उतनों का किसी भाँति पूरा पड़ जाता था पर अब नये आर्यों के भरती होने से सूअर का दाम बढ़ जायेगा। यदि हम सब के सब शूकर भक्षी बन जाएँगे तो थोड़े दिनों में बहुत दाम देने से भी उस स्वादिष्ट मांस का एक टुकड़ा भी हाथ न आवेगा।
(लवंग आता है)
जसोदा : गोप, मैं तुम्हारी सब बातें अपने स्वामी से कहूँगी; देखो वह आते हैं।
लवंग : गोप, यदि तुम इस भाँति मेरी स्त्री से परोक्ष में बात किया करोगे तो मुझसे कैसे देखा जायेगा।
जसोदा : नहीं लवंग तुम हम लोगों की ओर से सन्देह मत करो; मुझ से और गोप से कहासुनी हो रही है क्योंकि वह मुझसे स्पष्ट कहता है कि मुझको भगवान न क्षमा करेगा क्योंकि मैं जैन की पुत्री हूँ और तुम्हारे विषय में कहता है कि तुम अपनी जाति के शुभचिन्तक नहीं हो क्योंकि जैनियों को आर्य बना कर सूअर के मांस का भाव बिगाड़ते हो।
लवंग : अबे जा उन लोगों से भोजन की तैयारी के लिये कह दे।
गोप : साहिब वह सब प्रस्तुत हैं क्योंकि उनको भी तो पेट है।
लवंग : ईश्वर का कोप हो तुझ पर, तू क्या ही हँसोड़ है। अच्छा उन्हें थाली परोसने के लिए कह दे।
गोप : यह भी हो चुका है केवल आच्छादन करना शेष है।
लवंग : तो शीघ्र आच्छादित करो।
गोप : यह मेरा सामथ्र्य नहीं कि स्वामी के सामने आच्छादन करूँ।
लवंग : फिर भी अपना ही राग गाए जाता है। क्या तू एक ही क्षण में अपना कुल हँसोड़पन खर्च कर डालेगा मैं तुझसे विनय करता हूँ कि मेरी सरल बातचीत के सीधे अर्थ समझ। जा अपने साथियों से कह दे कि थाली में मांस चुन कर ढंपना, छुरी काँटा इत्यादि रख दे। हम लोग भोजन को आते हैं।
गोप : महाराज थाली तो परस दी जायेगी और मांस भी लगा दिया जायेगा पर बिना चुहल के खाना अलोना प्रतीत होगा। इससे इसका तार न तोड़िए।
लवंग : ईश्वर की शरण, इस दुष्ट में तो हँसोड़पन वू$ट वू$ट कर भरा है मानो इसके सिर में श्लेष की सेना पैतरा बाँधे हर समय उपस्थित है। मैं बहुतेरे दुष्टों को जानता हूँ जो इससे अधिकार में कहीं बढ़कर हैं परन्तु शब्दों के प्रयोग में अर्थ का सत्यानाश करते हैं। जसोदा तुम किस विचार में हो? भला प्यारी तुम अपनी सम्मति तो वर्णन करो कि तुम राजकुमार बसन्त की अद्र्धांगिनी को कैसा समझती हो?
जसोदा : उनकी प्रशंसा अनिर्वचनीय है। मेरी जान में तो उचित होगा कि राजकुमार बसन्त को अब अपना जीवन निरी पवित्रता के साथ बिताना चाहिए क्योंकि जो पदार्थ कि उन्हें अपनी स्त्री में मिला है वह ऐसा है कि मानो उन्हें पृथ्वी पर स्वर्ग का सुख जीते जी हाथ लगा और यदि वह इसका आदर न करें तो स्पष्ट है कि उन्हें स्वर्ग का सुख भी क्या उठेगा। मेरी समझ में तो यदि दो देवता आपस में कोई स्वर्गीय कौतुक करें और दो सांसारिक स्त्रियों की होड़ बढ़े और इनमें से एक पुरश्री को अपनी ओर से बाजी में लगावें तो दूसरे को अपनी शर्त में एक स्त्री के साथ और भी बहुत कुछ बढ़ना होगा। क्योंकि इस उजाड़ संसार में पुरश्री का सा दूसरा तो मिलना नहीं।
लवंग : जैसा कि राजकुमार बसन्त को स्त्री लब्ध हुई है वैसा ही मैं भी तुम्हें स्वामी मिला हूँ।
जसोदा : सत्य वचन। परन्तु इसके विषय में भी तनिक मेरी सम्मति पूछ देखो।
लवंग : हाँ अभी पूछता हूँ। पहिले चलो खाना खा लें।
जसोदा : नहीं, अभी मुझे पेट भर तुम अपनी प्रशंसा कर लेने दो भोजन के उपरान्त समाई न रहेगी।
लवंग : भगवान के वास्ते यह कथा खाने के समय के लिए रहने दो। उस समय तुम मुझे कैसा ही कुछ कहोगी मैं उसे और पदार्थों के साथ पचा जाऊँगा।
जसोदा : बहुत अच्छा मैं आपकी प्रशंसा की पोथी वहीं खोलूँगी।
(दोनों जाते हैं)

चौथा अंक


पहला दृश्य
स्थान-वंशनगर राजद्वार
(मण्डलेश्वर वंशनगर, प्रधान लोग, अनन्त, बसन्त, गिरीश, सलारन, सलोने और दूसरे लोग आते हैं)
मण्डलेश्वर : अनन्त आ गए हैं?
अनन्त : धर्मावतार उपस्थित हूँ!
मण्डलेश्वर : मुझे तुम पर अत्यन्त शोच होता है क्योंकि तुम ऐसे दुष्ट कठोर वज्रहृदयवादी (मुद्दई) के उत्तर देने के लिये बुलाए गए हो, जिसे दया नाम को भी नहीं छू गई है।
अनन्त : मैं सुन चुका हूँ कि महाराज ने उसके क्रूर बरताव के नम्र करने के प्रयत्न में कितना श्रम किया परन्तु उस पर किसी बात की सिद्धि नहीं होती और न मैं किसी उचित रीति से उसकी शत्रुता की परिधि के बाहर आ सकता हूँ। अतः मैं अपना सन्तोष उसके अनर्थ के प्रति प्रकट करता हूँ और उसका अत्याचार सहने को सब प्रकार से प्रस्तुत हँँ और कदापि मुख से आह न निकालूँगा।
मण्डलेश्वरः कोई जाये और उस जैन को न्यायालय में उपस्थित करे।
सलोने : महाराज वह पहिले ही से द्वार पर खड़ा है, वह देखिए आ पहुँचा।
(शैलाक्ष आता है)
मण्डलेश्वर : सब लोग स्थान दो जिसमें वह हमारे सम्मुख आकर खड़ा हो। शैलाक्ष, सारा संसार सोचता है और मैं भी ऐसा ही समझता हूँ कि यह हठ तुम उसी क्षण तक स्थिर रक्खोगे जब तक कि उसके पूरे होने का समय न आ जायेगा और तब लोगों का यह विचार है कि तुम जितनी अब प्रकट में कठोरता दिखला रहे हो उसकी अपेक्षा कहीं अधिक खेद और दया प्रकाश करोगे और जहाँ कि अभी तुम उससे प्रतिज्ञा भंग होने का दण्ड लेने पर प्रस्तुत हो (जो इस दीन व्यापारी के शरीर का आध सेर मांस है) वहाँ उस समय तुम केवल इस दण्ड ही के छोड़ने पर अभिमत न हो जाओगे वरंच मनुष्य धर्म और शील का अनुकरण करके मूल ऋण में से आधा छोड़ दोगे। यदि उसकी हानियों की ओर जो इधर थोड़ी देर में उनके ऊपर फट पड़ी हैं ध्यान दिया जाये तो वही इतने बडे व्यापारी की कमर तोड़ देने के लिए बहुत हैं और कोई मनुष्य कैसा ही कठोर चित्त क्यों न हो और पत्थर का हृदय क्यों न रखता हो यहाँ तक कि कोल और भिल्ल भी जिन्होंने कभी शील का नाम नहीं सुना। उसकी दशा को देखकर अत्यन्त ही शोक करेंगे तो ऐ जैन हम लोग आशा करते हैं कि तुम इसका उत्तर नम्रतापूर्वक दोगे।
शैलाक्ष : महाराज को अपने उद्देश्य से सूचित कर चुका हूँ और मैंने अपने पवित्र दिन रविवार की शपथ खाई है कि जो कुछ मेरा दस्तावेज के अनुसार चाहिए वह भग्नप्रतिज्ञ होने के दण्ड के सहित लूँगा। यदि महाराज उसको दिलवाना अनंगीकार करैं तो इसका अपवाद महाराज के न्याय और महाराज के नगर की स्वतंत्रता के सिर पर। महाराज मुझसे यही न पूछते हैं कि मैं इतना मृतमांस छ हजार रुपयों के बदले लेकर क्या करूँगा। इसका उत्तर मैं यही देेता हूँ कि मेरे मन की प्रसन्नता। बस अब महाराज को उत्तर मिला? यदि मेरे घर में किसी घूंस ने बहुत सिर उठा रक्खा हो और मैं उसके नष्ट करने के लिए बीस सहस्र मुद्रा व्यय कर डालूँ तो मुझे कौन रोक सकता है। अब भी महाराज ने उत्तर पाया या नहीं? कितने लोगों को सूअर के मांस से घृणा होती है कितने ऐसे हैं कि बिल्ली को देखकर आप से बाहर हो जाते हैं, तो अब आप मुझ से उत्तर लीजिए कि जैसे इन बातों का कोई मूल कारण नहीं कहा जा सकता कि वह सूअर के मांस से क्यों दूर भागते हैं और यह बिल्ली सदृश दीन और सुखदायक जन्तु से क्यों इतना घबराते हैं वैसे ही मैं भी इसका कोई कारण नहीं कह सकता और न कहूँगा। सिवाय इसके कि मेरे और उनके बीच एक पुरानी शत्रुता चली आती है और मुझे उसके स्वरूप से घृणा है जिसके कारण से मैं एक ऐसे विषय का जिसमें मेरा इतना घाटा है उद्योग करता हूँ। कहिए अब तो उत्तर मिला?
बसन्त : ओ निर्दय यह बात जिससे तू अपने अत्याचार को उचित सिद्ध करता है कोई उत्तर नहीं है।
शैलाक्ष : मेरा कुछ तेरी प्रसन्नता के लिये उत्तर देना कत्र्तव्य थोड़े ही है।
वसंत : क्या सब लोग ऐसे पशु को मार डालते हैं, जिसे वह बुरा समझते हैं।
शैलाक्ष : संसार में कोई भी ऐसा मनुष्य है जो किसी जन्तु के मारने से जिससे वह घृणा करता हो हाथ उठावे।
वसंत : हर एक अपराध से पहिली बार घृणा नहीं उत्पन्न हो जाती।
शैलाक्ष : क्या तुम चाहते हो कि मैं साँप को दूसरी बार डसने का अवसर दूँ।
अनन्त : भगवान के निहोरे नेक विचारो तो कि तुम किससे विवाद कर रहे हो। इसको मार्ग पर लाना तो ठीक वैसी ही बात है जैसा कि समुद्र के किनारे खड़े होकर तरंगों को आज्ञा देना कि तुम इतनी ऊँची मत उठो, या भेड़िये से पूछना कि उसने बकरी के बच्चे को खा कर उसकी माँ को दुःख में क्यों फँसाया, या पहाड़ी खजूर के वृक्षों को कहना कि वह अपनी ऊँची पु$नगियों को वायु के झोंके से न हिलने दें और न पत्तों की खड़खड़ाहट का शब्द होने दें, ऐसे ही तुम संसार के कठिन से कठिन काम कर लो इसके पूर्व कि इस जैन के चित्त को (जिससे कठोरतर दूसरा पदार्थ न होगा) द्रव करने का यत्न करो। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि न तो तुम उससे अब कुछ देने दिलाने की बातचीत करो और न इस विषय में अधिक चिन्ता करो वरंच थोड़े में भाग्य पर सन्तोष करके मुझे दण्ड भुगतने और इस जैन को अपना मनोरथ पूरा करने दो।
वसन्त : तेरे छ हजार रुपयों के बदले यह ले बारह तैयार हैं।
शैलाक्ष : यदि इन बारह हजार रुपयों का हर एक रुपया बारह भागों में बाँट दिया जाए और हर एक भाग एक रुपये के बराबर हो तो भी मैं उनकी ओर आँख उठा कर न देखूँ, मुझे केवल दस्तावेज के प्रण से काम है।
मण्डलेश्वर: भला, तू किसी पर दया नहीं करता तो तुझे दूसरों से क्या आशा होगी?
शैलाक्ष : जब मैंने कोई अपराध ही नहीं किया है तो फिर किस बात से डरूँ? आप लोगों के पास कितने मोल लिए हुए दास और दासियाँ उपस्थित हैं जिन्हें आप गधों, कुत्तों और खच्चरों की भाँति तुच्छ अवस्था में रख कर उनसे सेवा कराते हैं और यह क्यों? केवल इसलिये कि आपने उन्हें मोल लिया है। या मैं आप से यह कहूँ कि आप उन्हें स्वतंत्र करके अपने कुल में ब्याह कर दीजिए, या यह कि उन्हें बोझ के नीचे दबा हुआ पसीने से घुला घुलाकर मारे क्यों डालते हैं, उन्हें भी अपनी सदृश कोमल शैय्या पर सुलाइए और स्वादिष्ट भोजन खिलाइए तो इसके उत्तर में आप यही कहिएगा कि वह दास हमारे हैं हम जो चाहेंगे करेंगे, तुम कौन? इसी भाँति मैं भी आपको उत्तर देता हूँ कि इस आध सेर मांस का जो मैं इससे माँगता हूँ बहुत मूल्य दिया गया है, वह मेरा माल है और मैं उसे अवश्य लूँगा। यदि आप दिलवाना अस्वीकार करें तो आप के न्याय पर थुड़ी है। जाना गया कि वंशनगर के कानून में कुछ भी सार नहीं। मैं राजद्वार की आज्ञा सुनने के लिए उपस्थित हूँ, कहिए मुझे न्याय मिलेगा या नहीं?
मण्डलेश्वर : मुझे निज स्वत्व के अनुसार अधिकार है कि मुकद्दमे के दिन को टाल दूँ। यदि बलवन्त नामी एक सुयोग्य वकील जिसको मैंने इस मुकद्दमे के विचार के लिए बुलाया है आज न आया तो मैं इस मुकद्दमे को टाल दूँगा।
सलारन : महाराज बाहर उस वकील का एक मनुष्य खड़ा है, जो उसके पास से पत्र लेकर अभी पाण्डुपर से चला आता है।
मण्डलेश्वर : शीघ्र पत्र लाओ और दूत को भीतर बुलाओ।
वसंत : अनन्त अपने चित्त को स्वस्थ रक्खो, कैसे मनुष्य हो! साहस न हारो। पहिले इसके कि तुम्हारा एक बाल भी टेढ़ा हो मैं अपना मांस, त्वचा, अस्थि और जान प्राण वो धन उस जैन के अर्पण करूँगा।
अनन्त : गल्ले भर में मन्नत की दुर्बल भेड़ मैं ही हूँ, मेरा ही मरना श्रेय है। कोमल फल सबके पहले पृथ्वी पर गिरता है तो मुझी को गिरने दो। तुम्हारे लिए इससे बढ़कर कोई बात उचित न होगी कि मेरे पश्चात् मेरा जीवनचरित्र लिखो।
(नरश्री वकील के लेखक के भेस में आती है)
मण्डलेश्वर : तुम पाण्डुपुर से बलवन्त के पास से आते हो?
नरश्री : जी महाराज वहीं से उन्हीं के पास से, बलवन्त ने आपको प्रणाम कहा है।
(एक पत्र देती है)
वसंत : क्यों, तू ऐसे उत्साह से छुरी क्यों तीक्ष्ण कर रहा है?
शैलाक्ष : उस दिवालिये के शरीर से दण्ड का मांस काटने के लिये।
गिरीश : अरे निर्दयी जैनी तू अपनी जूती के तल्ले पर छुरी को क्यों तेज करता है, तेरा पाषाण तुल्य हृदय तो प्रस्तुत ही है। पर कोई शस्त्र यहाँ तक कि बधिक की तलवार भी तेरी शत्रुता के वेग को नहीं पहुँच सकती। क्या तुझ पर किसी की विनती काम नहीं आती?
शैलाक्ष : नहीं, एक की भी नहीं जो तू अपने बुद्धि से गढ़ सकता हो।
गिरीश : हा! ओ कठोर कुत्ते, ईश्वर तेरा बुरा करे, यह केवल न्याय का दोष है जिसने अब तक तुझे जीता रख छोड़ा है, तूने तो आज मेेरे धर्म में बट्टा लगा दिया क्योंकि तेरे लक्षणों को देखकर मुझे गोरक्ष के इस विचार को कि पशुओं की आत्मा मनुष्य के शरीर में प्रवेश करती है। मानना पड़ा। तेरी हिंसक आत्मा एक भेड़िये की छाया में थी जो कितने मनुष्यों के जीव वध के लिये सूली चढ़ा दिया गया था। इस अवस्था को पहुँचने पर भी उस नारकी आत्मा को तोष न हुआ और वहाँ से भाग कर जिस समय तू अपनी माता के अपवित्र गर्भ में था तुझमें पैठ गई क्योंकि तेरा मनोरथ भी भेड़ियों की भाँति घातक हिंसक है।
शैलाक्ष : जब तक कि तेरे विचार में इतनी शक्ति न हो कि अनन्त की मुहर का मेरी दस्तावेज पर से मिटा दे सके तब तक इस विचार से क्या फल निकल सकता है। व्यर्थ को तू चिल्ला चिल्ला कर अपना ही कण्ठ फाड़ रहा है। ऐ नवयुवक अपने सुधि की औषधि कर कहीं ऐसा न हो कि तेरे सिर पर कोई आपत्ति आ जाए। क्या मुझे विदित नहीं कि मैं न्याय के लिये यहाँ खड़ा हूँ?
मण्डलेश्वर : बलवन्त अपने पत्र में इस न्याय सभा के लिये नवयुवक विद्वान वकील की सिफारिश करता है, वह कहाँ है?
नरश्री : वह समीप ही आपके उत्तर पाने की प्रत्याशा में खड़े हैं कि आप उन्हें विवाद करने की आज्ञा देंगे या नहीं।
मण्डलेश्वर : अति प्रसन्नता से। आप दो चार महाशय जाएँ और उनका समादर करके सम्मान के साथ यहाँ ले आएँ तब तक विचारसभा बलवन्त का पत्र सुनेगी।
(लेखक पढ़ता है)
श्रीमन्, मैने महाराज का पत्र अस्वस्थ होने की अवस्था में पाया। परन्तु जिस समय आप का दूत पहुँचा उस सम्यक् मेरे मित्रों में से मालवा के एक युवा वकील बालेसर नामी मेरी भेंट करने को आए हुए थे। मैंने उनको जैन और अनन्त सौदागर के मुकद्दमे का सब व्यौरा समझा दिया। हम दोनों मनुष्यों ने मिल कर कई व्यवस्थाएँ पलट कर देखीं। मैंने अपनी सम्मति उनसे प्रकट कर दी है अतः वह मेरी सम्मति लेकर जिसे वह अपनी योग्यता के बल से (जिसकी प्रशंसा मैं किसी मुँह से नहीं कर सकता) और सुधार लेंगे। मेरे निवेदन के अनुसार मेरे स्थानापन्न महाराज की सेवा में उपस्थित होते हैं। प्रार्थना करता हूँ कि महाराज उनकी अल्प अवस्था का ध्यान न करके उनके आदर में कदापि न्यूनता न करेंगे क्योंकि मेरी दृष्टि में ऐसी थोड़ी अवस्था का पुरुष ऐसी पुष्कल बुद्धि के साथ आज तक नहीं आया। मैं उन्हें महाराज की सेवा में अर्पण करता हूँ, परीक्षा से उनकी योग्यता का हाल भली भाँति खुल जायेगा।
मण्डलेश्वर : आप लोगों ने सुना कि प्रसिद्ध विद्वान् बलवन्त ने क्या लिखा है और जान पड़ता है कि वकील महाशय भी वह आ रहे हैं।
(पुरश्री वकीलों की भाँति वस्त्र पहने हुए आती है)
मण्डलेश्वर : आइए हाथ मिलाइए, आप ही वृद्ध बलवन्त के पास से आते हैं?
पुरश्री : महाराज।
मण्डलेश्वर : मुझे आप के आने से बड़ी प्रसन्नता हुई, विराजिए। आप इस मुकद्दमे को जानते हैं जिसका इस समय विचारसभा में विचार हो रहा है?
पुरश्री : मैं उसके वृत्तान्त को भलीभाँति जानने वाला हूँ। वर्णन लीजिए कि इन लोगों में से कौन सौदागर है और कौन जैन?
मण्डलेश्वर : अनन्त और वृद्ध शैलाक्ष दोनों सामने खड़े हो जाओ।
पुरश्री : तुम्हारा नाम शैलाक्ष है?
शैलाक्ष : हाँ मेरा नाम शैलाक्ष है।
पुरश्री : यह तुमने विचित्र मुकद्दमा रच रक्खा है, परन्तु नियमानुसार वंशनगर का कानून तुमको उसके प्रयत्न से रोक नहीं सकता, और आप ही इनके पंजे में फँसे हैं, क्यों साहिब?
(अनन्त से)
अनन्त : जी हाँ, मुझी पर इनका लक्ष्य है।
पुरश्री : आप तमस्सुक लिखना स्वीकार करते हैं।
अनन्त : निस्सन्देह मैं स्वीकार करता हूँ।
पुरश्री : तब तो अवश्य है कि जैन दया करे।
शैलाक्ष : मैं किस बात से दब कर ऐसा करूँ यह तो कहिए?
पुरश्री : दया ऐसी वस्तु नहीं जिसे आग्रह की आवश्यकता हो। वह जलधारा की भाँति नभ मण्डल से पृथ्वीतल पर गिरती है। उसका दुहरा फल मिलता है अर्थात् पहले उसको जो करता है और दूसरे उसको जिसे उसका लाभ पहुँचता है। महानुभावों को यह अधिकतर शोभा देती है, मण्डलेश्वरों को यह मुकुट से अधिकतर शोभित है। राजदण्ड केवल सांसारिक बल प्रकट करता है जो आतंक और तेज का चिन्ह है और जिससे राजेश्वरों का भय लोगों के चित्त पर छा जाता है परन्तु दया का प्रभाव राजदण्ड के प्रभाव की अपेक्षा कहीं अधिक है दया का वासस्थान राजेश्वरों का चित्त है, यह एक प्रधान महिमा ईश्वर की है। अतः संसार के राजेश्वर उसी समय दैवतुल्य प्रतीत होते हैं जबकि वह न्याय के साथ दया का भी बरताव करते हैं। इसलिए ऐ जैनी यद्यपि तू न्याय ही न्याय पुकारता है किन्तु विचार कर कि केवल न्याय ही के भरोसे पर हममें से कोई मरने के उपरान्त मुक्त होने की आशा नहीं कर सकता। हम ईश्वर से दया की प्रशंसा करते हैं तो चाहिए कि वही प्रार्थना हमको भी दया के काम सिखावे। मैंने इतना तेरे न्याय के आग्रह से हटाने के निमित्त से कहा पर यदि तू न मानेगा तो जैसे हो सकेगा वंशनगर की विचारशीला न्यायसभा तुझे इस सौदागर पर विनयपत्र दे देगा।
शैलाक्ष : मेरा किया मेरे सिर पर। मैं राजद्वार से अपने तमस्सुक के अनुसार दण्ड दिला पाने की प्रार्थना करता हूँ।
पुरश्री : क्या वह रुपया चुका देने की क्षमता नहीं रखता।
बसन्त : हाँ, मैं राजद्वार में उनकी सन्दी अभी दूना देने को उपस्थित हूँ। यदि इससे भी उसका पेट न भरे तो मैं उस जमा का दस गुना दूँगा और यदि न दे सकूँ तो दण्ड में अपना सिर अर्पण करूँगा। यदि इस पर भी वह न माने तो स्पष्ट है कि शत्रुता के आगे धर्म की दाल नहीं गलती। मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप अपने निज अधिकार से इस बार कानून का प्रतिबंध छोड़ दीजिए। एक बड़े भारी उपकार की अपेक्षा में थोड़ी सी अनीति स्वीकार कीजिए और हे मण्डलेश्वर, अत्याचारी पिशाच की बुराई को रोकिए।
ख्मण्डलेश्वर से,
पुरश्री : ऐसा न होना चाहिए। वंशनगर के कानून के अनुसार किसी को यह अधिकार नहीं है कि नीति को रोक सके। यह विचार दृष्टान्त की भाँति पर लिखा जायेगा और बहुत सी त्रुटियाँ इसके कारण राजा के कामों में आ पड़ेंगी। यह कदापि नहीं हो सकता।
शैलाक्ष : वाह वाह मानो महात्मा विक्रम आप ही न्याय के लिये उतर कर आए हैं। वास्वत में आपको विक्रम ही कहना चाहिए। ऐ युवा बुद्धिमान न्यायकर्ता मैं नहीं कह सकता कि मैं चित्त से आपका कितना समादर करता हूँ।
पुरश्री : कृपाकर, नेक मुझे तमस्सुक तो देखने दो।
शैलाक्ष : लीजिए सुप्रतिष्ठ वकील महाशय यह उपस्थित है।
पुरश्री : शैलाक्ष तुम्हें तुम्हारे मूलधन का तिगुना मिल रहा है।
शैलाक्ष : शपथ, शपथ, मैं शपथ जो खा चुका हूँ। क्या मैं झूठी शपथ खाने का पाप अपने माथे कर लूँ? न, कदापि नहीं, यदि मुझे इसके बदले में वंशनगर का राज्य भी हाथ आए तौ भी ऐसा न करूँ।
पुरश्री : इस तमस्सुक की गिनती तो टल चुकी और इसके अनुसार विवेकतः जैन को अधिकार है कि सौदागर के हृदय के पास से आध सेर मांस काट ले। परन्तु उस पर दयाकर और तिगुना रुपया लेकर मुझे तमस्सुक फाड़ डालने की आज्ञा दे।
शैलाक्ष : हाँ उस समय जब कि मैं लिखे अनुसर दण्ड दिला पाऊँ। मुझे प्रतीत होता है कि आप एक योग्य न्यायी हैं, आप कानून से परिचित हैं और उसके तात्पर्य को भी ठीक समझते हैं, तो मैं आपको उसी की शपथ देता हूँ जिसके आप पूरे आधार हैं कि आप आज्ञा सुनाने में विलम्ब न करें। मैं अपने प्राण की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मनुष्य की जिह्ना में इतना सामथ्र्य नहीं कि मेरा मनोरथ फेरे। मुझको सिवाय तमस्सुक के प्रणों के और किसी बात से क्या प्रयोजन।
अनन्त : मैं भी चित्त से चाहता हूँ कि न्यायकत्र्ता आज्ञा सुना दे।
पुरश्री : तो बस आपको छाती खोलकर प्रस्तुत रहना चाहिए।
शैलाक्ष : वाह रे योग्यता! वाह रे न्याय! आहा! क्या कहना है!
पुरश्री : क्योंकि कानून का अभिप्राय यही है कि प्रतिज्ञा भंग करने का दण्ड तमस्सुक के प्रणानुसार सब अवस्था में दिया जाना चाहिए, तो वह इस अवस्था में भी उचित है।
शैलाक्ष : बहुत ठीक, क्या कहना है, न्यायकर्ता को ऐसा ही बुद्धिमान और न्यायी होना चाहिए! यह अवस्था और यह बुद्धि।
पुरश्री : अब आप अपनी छाती खोल दीजिए।
शैलाक्ष : जी हाँ छाती ही, यही तमस्सुक में लिखा है, है न मेरे सुजन न्यायकर्ता, हृदय के समीप ये ही शब्द लिखे हैं।
पुरश्री : ऐसा ही है, परन्तु बताओ कि मांस तोलने के लिये तराजू रक्खे हैं?
शैलाक्ष : मैंने उन्हें ला रक्खा है।
पुरश्री : शैलाक्ष, अपनी ओर से कोई जर्राह भी बुला रक्खो कि उसका घाव बन्द कर दे, जिसमें अधिक रक्त निकलने से कहीं वह मर न जाए।
शैलाक्ष : क्या यह तमस्सुक में लिखा है?
पुरश्री : नहीं लिखा तो नहीं परन्तु इससे क्या, इतनी भलाई यदि उसके साथ करोगे, तो तुम्हारी ही कानि है।
शैलाक्ष : मैं नहीं करने का, तमस्सुक में इसका वर्णन नहीं है।
पुरश्री : अच्छा सौदागर साहिब, तो अब आपको जो कुछ किसी से कहना सुनना हो कह सुन लीजिए।
शैलाक्ष : केवल दो बातें करनी हैं, नहीं तो मैं सब भाँति उपस्थित और प्रस्तुत हूँ। लाओ बसन्त, मुझे अपना हाथ दो, मैं तुमसे विदा होता हूँ। तुम इस बात का कदापि ख्ेाद न करना कि मुझ पर यह आपत्ति तुम्हारे कारण आई क्योंकि इस समय पर भाग्य अपने नियम देखने आया है कि वह भाग्यहीन मनुष्य को उनकी लक्ष्मी चले जाने के उपरान्त ठोकर खाने और दुरवस्था से दारिद्रय का दुःख उठाने के लिए छोड़ देती है किन्तु मुझे वह एक साथ इस जन्म भर के क्लेश से छुटकारा दिए देती है। अपनी सुशील स्त्री से मेरा सलाम कहना और उनसे मेरे मरने का हाल कह देना। जो स्नेह मुझे तुम्हारे साथ था उसका भी वर्णन करना, मेरे प्राण देने के ढंग को सराहना और जिस समय मेरी कहानी कह चुके तो उनसे न्यायदृष्टि से पूछना कि किसी समय में बसन्त का भी कोई चाहने वाला था या नहीं। मेरे प्यारे तुम इस बात का खेद न करो कि तुम्हारा मित्र संसार से उठा जाता है क्योंकि निश्चय मानो कि उसे इस बात का नेक भी शोच नहीं कि वह तुम्हारे ऋण को अपने प्राण देकर चुकाता है क्योंकि यदि जैन ने गहरा घाव लगाने में कमी न की तो मैं तुरन्त उससे उऋण हो जाऊँगा।
बसन्त : अनन्त मेरा ब्याह एक स्त्री के साथ हुआ है जिसे मैं अपने से अधिक प्रिय समझता हूँ, परन्तु मेरा प्राण, मेरी स्त्री और सारा संसार तुम्हारे जीवन के सामने तुच्छ है, और तुमको इस दुष्ट राक्षस के पंजे से छुड़ाने के लिए मैं इन सब को खोने वरंच तुम पर से न्यौछावर करने को प्रस्तुत हूँ।
पुरश्री : यदि तुम्हारी स्त्री इस स्थान पर उपस्थित होती तो तुम्हारे मुँह से अपने विषय में ऐेसे शब्द सुन कर अवश्य अप्रसन्न होती।
गिरीश : मेरी एक स्त्री है, जिसे मैं धर्म से कहता हूँ कि प्यार करता हूँ परन्तु यदि उसके स्वर्ग जाने से किसी देवता की सहायता मिल सकती, जो इस पापी जैन के चित्त को फेर देता तो मुझे उससे हाथ धोने में कुछ शोच न होता।
नरश्री : यही कुशल है कि तुम उसकी पीठ पीछे ऐसा कहते हो, नहीं तो न जाने आज कैसी आपत्ति मचती।
शैलाक्ष : (आप ही आप) इन आर्यपतियों की बातें सुनो! मेरी बेटी का ब्याह तो यदि बरवण्ड के सदृश्य किसी व्यक्ति से हुआ होता तो मैं अधिक पसन्द करता, इसकी अपेक्षा कि वह एक आर्य की स्त्री बने। (चिल्ला कर) समय व्यर्थ जाता है। मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप विचार सुना दें।
पुरश्री : इस सौदागर के शरीर का आधा सेर मांस तुम्हारा ही है, जिसे कि कानून दिलाता है और राजसभा देती है।
शैलाक्ष : वाह रे न्यायी!
पुरश्री : और यह मांस तुमको उसकी छाती से काटना चाहिए, कानून इसको उचित समझता है और न्यायसभा आज्ञा देती है।
शैलाक्ष : ऐ मेरे सुयोग्य न्यायकर्ता! इसका नाम विचार है। आओ, प्रस्तुत हो।
पुरश्री : थोड़ा ठहर जा, एक बात और शेष है। यह तमस्सुक तुझे रुधिर एक बूँद भी नही दिलाता, ‘आध सेर मांस’ यही शब्द स्पष्ट लिखे हैं। इसलिए अपनी प्रण प्राप्ति कर ले अर्थात् आध सेर मांस ले ले परन्तु यदि काटने के समय इस आर्य का एक बूँद रक्त भी गिराया तो वंशनगर के कानून के अनुसार तेरी सब संपत्ति और लक्ष्मी व सामग्री राज्य में लगा ली जायेगी।
गिरीश : वाह रे विवेकी! सुन जैन-ऐ मेरे सुयोग्य न्यायी!
शैलाक्ष : क्या यह कानून में लिखा है?
पुरश्री : तुझे आप कानून दिखला दिया जायेगा क्योंकि जितना तू न्याय न्याय पुकारता है उससे अधिक न्याय तेरे साथ बरता जायेगा।
गिरीश : आहा! वाह रे न्याय! देख जैनी कैसे विवेकी न्यायकर्ता हैं।
शैलाक्ष : अच्छा मैं उसकी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ-तमस्सुक का तिगुना देकर वह अपनी राह ले।
बसन्त : ले यह रुपये हैं।
पुरश्री : ठहरो, इस जैनी के साथ पूरा न्याय किया जायेगा, थोड़ा धीरज धरो, शीघ्रता नहीं है, उसे दण्ड के अतिरिक्त और कुछ न दिया जायेगा।
गिरीश : ओ जैनी देख तो कैसे धार्मिक और योग्य न्यायी हैं। वाह वाह!
पुरश्री : तो अब तू मांस काटने की प्रस्तुतियाँ कर, परन्तु सावधान स्मरण रखना कि रक्त नाम को भी न निकलने पावे और न आध सेर मांस से न्यून वा अधिक कटे। यदि तूने ठीक आध सेर से थोड़ा सा भी न्यूनाधिक काटा यहाँ तक कि यदि उसमें एक रत्ती बीसें भाग का भी अन्दर पड़ा, वरंच यदि तराजू की डाँडी बीच से बाल बराबर भी इधर या उधर हटी तो तू जी से मारा जायेगा और तेरा सब धन और धान्य छीन लिया जायेगा।
गिरीश : वाह वाह! मानो महाराज विक्रम आप ही न्याय के लिए उत्तर आए हैं! अरे जैनी देख महाराज विक्रम ही तो हैं! भला अधम तू अब मेरे हाथ चढ़ा है।
पुरश्री : ओ जैनी तू अब किस सोच विचार में पड़ा है? अपना दण्ड ग्रहण कर ले।
शैलाक्ष : अच्छा मुझे मेरा मूल दे दो मैं अपने घर जाऊँ।
बसन्त : ले, यह रुपया उपस्थित है।
पुरश्री : यह भरी सभा में रुपये का लेना अस्वीकार कर चुका है। अब इसे न्याय और दण्ड के अतिरिक्त कुछ न मिलेगा।
गिरीश : विक्रम महाराज! सचमुच यह विक्रम ही तो हैं। ऐ जैनी, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ कि तू ने मुझे अच्छा शब्द बतला दिया।
शैलाक्ष : क्या मुझे मेरा मूल धन भी न मिलेगा?
पुरश्री : तुझे दण्ड के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलने का। इससे ऐ जैनी अपने जी पर खेल कर उसे वसूल कर ले।
शैलाक्ष : अच्छा मैंने उसे राक्षस को सौंपा अब मैं यहाँ कदापि न ठहरूँगा।
पुरक्षी : ठहर ओ जैनी, तुझ पर कानून की एक और धारा है। वंशनगर के कानून में यह लिखा है कि यदि किसी परदेसी के विषय में यह सिद्ध हो कि उसने प्रकट या गुप्त रीति पर वंशनगर के किसी रहने वाले के वध करने की चेष्टा की तो वह प्रतिवादी जिसके विषय में ऐसा यत्न किया गया हो अपने प्रतिवादी की आधी सम्पत्ति पर अधिकार दिला पाने का दायी है और शेष आधा राजकोष में ग्रहण किया जायेगा। अपराधी के मुक्त करने का केवल मण्डलेश्वर को अधिकार है, उसमें कोई दूसरा हस्तक्षेप नहीं कर सकता। तो जान, ओ जैनी कि इस समय तेरी अवस्था अत्यन्त दुर्बल है क्योंकि मुकद्दमा के विवरण से यह स्पष्ट है कि तू ने जान बूझ कर प्रतिवादी के प्राण लेने की चेष्टा की और इस भाँति उस आपत्ति में, जिसका मैं ऊपर वर्णन कर चुका हूँ, फँसा है। इसलिए तुझको उचित है कि मण्डलेश्वर के चरणों पर सिर पर रख कर दया की प्रार्थना कर।
गिरीश : सुन जैनी, मैं तुझे एक उपाय बताऊँ; मण्डलेश्वर से निवेदन कर कि तुझे आप फाँसी लगाकर मर जाने की आज्ञा दें। परन्तु तेरी धन सम्पत्ति तो छीन ली जायेगी अब तेरे पास इतना बचेगा कहाँ कि रस्सी मोल ले सके, इसलिए तुझको राजा ही के व्यय से फाँसी देनी पड़ेगी।
मण्डलेश्वर: जिसमें तुझे हमारे और अपने स्वभाव में अन्दर जान पड़े मैंने बेमाँगे तेरा जी बचा दिया। अब रही तेरी सम्पत्ति सो उसमें से आधी तो अनन्त की हो चुकी और आधी राज्य की, जिसके पलटे में यदि तू दीनता प्रकाश करेगा तो दण्ड ले लिया जायेगा।
पुरश्री : अर्थात् जितना राज्यांश है उसके बदले में, अनन्त के भाग से कुछ प्रयोजन नहीं।
शैलाक्ष : नहीं मेरा प्राण और सब कुछ ले लीजिए, वह भी न क्षमा कीजिए। जब कि आप उस आधार को जिस पर मेरा घर खड़ा है लिए लेते हैं तो मेरे घर को पहले ले चुके, इस भाँति जबकि आपने मेरे जीवन का आधार छीन लिया तो मानो मेरा प्राण पहले ले चुके।
पुरश्री : अनन्त तुम उसके साथ कितनी दया कर सकते हो।
गिरीश : भगवान के वास्ते सिवाय एक रस्सी के जिससे वह फाँसी लगाकर मर सके और कुछ व्यर्थ न देना।
अनन्त : मैं मण्डलेश्वर और राजसभा से विनती करता हूँ कि उसके अर्धभाग के बदले का दण्ड मैं इस शर्त पर देने को प्रस्तुत हँू कि वह भाग शैलाक्ष मेरे पास धरोहर की भाँति जमा रहने दे, जिसमें उसके मरने पर जो मनुष्य हाल में उसकी लड़की को ले भागा है उसको सौंप दूँ। परन्तु इसके साथ दो प्रण हैं अर्थात् पहले तो वह इस बर्ताव के लिए आर्य हो जाए और दूसरे इस समय सभा में एक दानपत्र इस आशय का लिख दे कि उसके मरने पर उसकी सारी सम्पत्ति उसके जामाता लवंग और उसकी लड़की को मिले।
मण्डलेश्वर: उसे यह करना पड़ेगा, नहीं तो मैंने जो क्षमा की आज्ञा अभी दी है उसे काट देता हूँ।
पुरश्री : क्यों जैनी तू इस पर प्रसन्न है, कह क्या कहता है?
शैलाक्ष : मैं प्रसन्न हूँ।
पुरश्री : लेखक अभी एक दानपत्र लिखो।
शैलाक्ष : भगवान् के निहोरे मुझे यहाँ से जाने की आज्ञा दीजिए, मेरी बुरी दशा है। पाण्डुलिपि मेरे मकान पर भेज दीजिए मैं हस्ताक्षर कर दूँगा।
मण्डलेश्वर : अच्छा जा, परन्तु हस्ताक्षर कर देना।
गिरीश : आर्य होने से तेरे दो धर्म बाप होंगे। कदाचित मैं न्यायकर्ता होता तो दस और होते जिसमें तुझे आर्य करने के लिए मंदिर भेजने के बदले में सूली पर पहुँचा देते।
(शैलाक्ष जाता है)
मण्डलेश्वर : महाशय मैं प्रार्थना करता हूँ कि आज आप मेरे साथ भोजन करें।
पुरश्री : महाराज मुझे क्षमा करें, मुझे आज ही रात को पाण्डुपुर जाना है और यह अत्यन्त आवश्यक है कि मैं अभी चला जाऊँ।
मण्डलेश्वर: मैं खेद करता हूँ कि आपको अवकाश नहीं है। अनन्त इनका भली भाँति सत्कार करो क्योंकि मेरी जान तुम पर इनका बड़ा उपकार है।
(मण्डलेश्वर, बड़े बड़े प्रधान और उनके चाकर जाते हैं)
बसन्त : ऐ मेरे सुयोग्य उपकारी, आज मैं और मेरे मित्र आपके बुद्धि वैभव से आपत्ति से मुक्त हुए, जिसके बदले छ सहस्र मुद्रा को जैन के पाने थे मैं बड़ी प्रसन्नता से आप की भेंट करता हूँ क्योंकि आपने हमारे निमित्त कष्ट सहन किया है।
अनन्त : और इनके अतिरिक्त हम लोग जन्म भर तन मन से आपके दास बने रहेंगे।
पुरश्री : जिस मनुष्य का चित्त अपने किए पर तुष्ट हुआ उसने अपनी सारी मजदूरी भरपाई और मेरे चित्त को इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि आप मेरे द्वारा मुक्त हुए, इससे मैं समझता हूँ कि आपने मुझको सब कुछ दिया। मेरे चित्त में आज तक मिहनताना पाने का ध्यान नहीं हुआ है, क्योंकि मुझे किराये के टट्टई बनने से घृणा है। कृपापूर्वक जब मेरा आपका कभी फिर साक्षात् हो तो मुझे स्मरण रखियेगा। ईश्वर आपकी रक्षा करें, अब मैं विदा होता हूँ।
बसन्त : महाशय मेरा धर्म है कि इस बारे में आपसे फिर प्रार्थना करूँ, कृपा करके कोई वस्तु हम लोगों के स्मरणार्थ मिहनताने करके नहीं वरंच एक स्मारक चिन्ह की भाँति स्वीकार कीजिए। मेरी प्रार्थना है कि आप मेरी दो बातें स्वीकार करें, एक तो यह है कि आप मेरी प्रार्थना को स्वीकार करें और दूसरे मेरी धृष्टता को क्षमा करें।
पुरश्री : आप मुझे अत्यन्त दबाते हैं इसलिये अब अधिक अस्वीकार करना निश्शीलता है। अच्छा एक तो मुझे आप अपने दस्ताने दें, मैं उन्हें आपकी प्रसन्नता के लिये पहनूँगा और दूसरे आपके स्नेह के चिद्द में इस अँगूठी को लूंगा। हाथ न खींचिए, मैं और कुछ न लूँगा पर मुझे निश्चय है कि आप मेरे स्नेह के निहोरे इसके देने में अनúीगार न करेंगे।
बसन्त : यह अंगूठी महाशय! खेद, यह तो एक अत्यन्त तुच्छ वस्तु है मुझे आप को देते लज्जा आती है।
पुरश्री : मैं इसको छोड़ और कुछ कदापि न लूँगा और मुख्य करके मेरा जी इसके लेने को बहुत ही चाहता है।
बसन्त : मैं इसके मोल लेने के ध्यान से वह बातचीत नहीं करता, इसमें कुछ और ही भेद है। वंशनगर के राज्य में जो अँगूठी सब से अधिक मूल्य की होगी उसे मैं सूचना देकर मँगवाऊँगा और आप के अर्पण करूँगा पर केवल इस अँगूठी के लिये आप मुझे क्षमा करें।
पुरश्री : बस महाशय बस, मैंने समझ लिया कि आप बातों के बड़े धनी हैं। पहले तो आपने मुझे भीख माँगना सिखलाया और अब यह ढंग बताते हैं कि भिखमंगे को किस भांति टालना चाहिए।
बसन्त : मेरे सुहृद, यह अँगूठी मुझे मेरी स्त्री ने दी थी और जिस समय कि उसने इसे मेरी उँगली में पहनायी तो मुझ से इस बात की प्रतिज्ञा ले ली कि न तो मैं इसे कभी बेचूँ, न किसी को दूँ और न खोऊँ।
पुरश्री : इस भाँति के चुटकुले प्रायः बहाना करने वालों के पास गढ़े गढ़ाए रहते हैं। यदि आपकी स्त्री पागल न होगी तो वह इस बात के कह लेने पर कि मैंने आप के साथ इस अँगूठी की लागत से कितना बढ़ कर सुलूक किया, इसके दे डालने पर आप से सदा के लिये शत्रुता कदापि न ठान लेंगी। अच्छा मेरा प्रणाम लीजिए।
(पुरश्री और नरश्री जाती हैं)
अनन्त : मेरे सुहृद बसन्त अँगूठी उन्हें दे दो। इस समय उनकी उपकार और मेरी प्रीति को अपनी स्त्री की आज्ञा से बढ़ कर समझो।
बसन्त : जाओ गिरीश, दौड़ कर उन तक पहुँचो, यह अँगूठी उनको भेंट करो और यदि बन पड़े तो उन्हें किसी भाँति अनन्त के घर पर लाओ, बस अब चले ही जाओ देर न करो! (गिरीश जाता है) आओ हम तुम भी वहीं चलें, कल बड़े तड़के हम दोनों विल्वमठ की ओर चलेंगे, आओ अनन्त।
(दोनों जाते हैं)


दूसरा दृश्य
स्थान-वंशनगर की एक सड़क
(पुरश्री और नरश्री आती हैं)
पुरश्री : जैन के घर का पता लगा कर उससे झटपट इस पाण्डुलिपि पर हस्ताक्षर करा लो। हम लोग आज ही रात को चलते होंगे, जिसमें अपने पति से एक दिन पहले घर पहुँच रहें लवंग इस लिपि को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होगा।
(गिरीश आता है)
गिरीश : महाराज बड़ी बात हुई कि आप मिल गए। मेरे मालिक वसन्त ने अन्ततः सोच समझ कर वह अँगूठी आप की सेवा में भेजी है और प्रार्थना की है कि आज आप उन्हीं के साथ भोजन करें।
पुरश्री : मैं असमर्थ हूँ, हाँ उनकी अँगूठी मैंने सिर आँखों से स्वीकार की। तुम मेरी ओर से जाकर विनती कर देना। अब तुम इतनी कृपा और करो कि मेरे लेखक को शैलाक्ष का घर दिखला दो।
गिरीश : मैं प्रस्तुत हूँ।
नरश्री : (पुरश्री से) महाशय मैं आप से कुछ विनय किया चाहता हूँ। (अलग ले जाकर कहती है) देखिए मैं भी अपने पति की अँगूठी लेने का यत्न करती हूँ। मुझसे उन्होंने शपथ खाई थी कि में उसे जन्म भर अपने से पृथक् न करूँगा।
पुरश्री : अवश्य, चूकियो मत, हम लोगों को अच्छा अवसर हाथ आएगा। यह लोग शपथ खायँगे कि हमने अँगूठी पुरुषों को दी है परन्तु हम लोग उनकी एक न मानेंगी और आप सौगन्ध खाकर उन्हें झूठा बना लेंगी। बस अब चली ही जाव, तुम जानती हो जहाँ मैं ठहरी रहूँगी।
नरश्री : आइए महाशय, मुझे वह घर बतला दीजिए।
(दोनों जाते हैं)

पाँचवाँ अंक


पहिला दृश्य
स्थान-विल्वमठ, पुश्री के घर का प्रवेशद्वार
(लवंग और जसोदा आते हैं)
लवंग : आहा! चाँदनी क्या आनन्द दिखा रही है! मेरे जान ऐसी ही रात में जब कि वायु इतना मन्द चल रहा था कि वृक्षों के पत्तों का शब्द तक सुनाई न देता था, त्रिविक्रम दुर्ग की भीत पर चढ़ कर कामिनी की राह ताकता हुआ, जो यवनपुर के खेमे में थी, हृदय से ठण्डी साँस निकाल रहा था।
जसोदा : ऐसी ही रात में कादम्बिनी ओस पड़ी हुई घास पर डर डर कर कदम रखती थी कि यकायक सिंह की पर्छांई सामने देखकर बेचारी भय से भाग गई।
लवंग : ऐसी ही रात में जयलक्ष्मी समुद्र के किनारे खड़ी होकर छड़ी से अपने प्यारे को कामपुर लौट आने के लिये संकेत करती थी।
जसोदा : ऐसी ही रात में मालिनी ने जड़ी बूटियों को जंगल में एकत्र किया था, जिनके प्रभाव से बूढ़ा पुरुष जवान हो गया।
लवंग : ऐसी ही रात में जसोदा अपने समृद्ध पिता के घर से निकल भागी और एक दरिद्र पे्रमी के साथ वंशनगर से विल्वमठ को चली आई।
जसोदा : ऐसी ही रात में लवंग ने उससे चित्त से प्रेम करने की सौगन्ध खाई और निर्वाह का प्रण करके उसका मन छीन लिया परन्तु एक भी सच्चे न निकले।
लवंग : ऐसी ही रात में कामिनी जसोदा ने दुष्टता से अपने प्रेमी पर दोष लगाया और उसने कुछ न कहा।
जसोदा : क्या कहूँ मैं तो तुम को बात ही बात में बेबात कर देती यदि कोई आता न होता। देखो मुझे किसी के पैर की आहट जान पड़ती है।
(तूफानी आता है)
लवंग : रात के ऐसे सन्नाटे में कौन इतना शीघ्र चला आता है!
तूफानी : मैं हूँ, आप का एक मित्र।
लवंग : ऐं, मित्र? कैसे मित्र? भला मित्र, कृपा करके अपना नाम तो बताओ।
तूफानी : मेरा नाम तूफानी है। मैं यह समाचार लाया हूँ कि मेरा स्वामिनी आज मुँह अँधेरे विल्वमठ में पहुँच जायँगी। वह मंदिरों में घुटने के बल विवाह मंगल होने की प्रार्थना कर रही हैं।
लवंग : उनके साथ और कौन आता है?
तूफानी : कोई नहीं, केवल वह आप एक जोगिन के भेष में और उनकी सहेली। पर यह तो कहिए कि हमारे स्वामी अभी तक लौट आए या नहीं।
लवंग : न वह आए हैं न कुछ उनका हाल विदित हुआ है। पर आओ जसोदा हम तुम भीतर चलकर घर के स्वामी के शिष्टाचार का प्रबन्ध कर रक्खें।
(गोप आता है)
गोप : धूतू धूतू पिपी धूतू धूतू!
लवंग : कौन पुकारता है?
गोप : धूतू धूतू! तुम जानते हो कि लवंग महाशय और उनकी स्त्री कहाँ हैं? धूतू धूतू!
लवंग : अरे कान न फोड़े डाल, इधर आ।
गोप : धूतू धूतू! किधर? किधर?
लवंग : यहाँ।
गोप : उनसे कह दो कि मेरे स्वामी के पास से एक दूत आया है जिसकी तुरुही मंगल समाचारों से भरी हुई है, वह सवेरा होते होते यहाँ पहुँच जायँगे।
लवंग : प्यारी आओ, घर में चल कर उनके आने की राह देखें, या अच्छा यहीं बैठी रहो भीतर जाने की कौन सी आवश्यकता है। भाई तूफानी नेक भीतर जाकर लोगों से जना दो कि तुम्हारी स्वामिनी आती हैं और अपने साथ गवैयों को बाहर बुलाते लाओ।
(तूफानी जाता है)
इस बुरुज पर चाँदनी कैसी छिटक रही! आओ हम बैठकर गाना सुनें। एक तो सन्नाटा मैदान और दूसरे रात, यह दोनों राग का आनन्द दूना बढ़ा देेते हैं। बैठो जसोदा, देखो तो आकाश क्या शोभा दिखला रहा है, यह प्रतीत होता है कि मानो उसमें हजारों सोने के कुंकुमे लटकते हैं। जितने यह दृष्टि आते हैं इनमें से छोटे से छोटे की चाल से भी देवताओं के राग का सा शब्द आता है, मानो वह उनके शब्द के सात सुर मिलाते हैं। ऐसा ही सुरीलापन मनुष्य की निश्शब्द आत्मा में भी है परन्तु वह इस भौतिक वस्त्र को, जो नष्ट हो जाने वाला है, पहने है इसलिये हम उसके मीठे राग को सुन नहीं सकते।
(गाने बजाने वाले आते हैं)
इधर आओ और कोई राग ऐसा छेड़ो कि तानसेन भी नींद से चैंक उठे और जब तुम्हारे मीठे सुरों का आलाप तुम्हारी स्वामिनी के कान तक पहुँचे तो वह भी विवश होकर घर की ओर दौड़ी आवें।
जसोदा : मैं तो जिस समय अच्छा राग सुनती हूँ सब सुध बुध दूर भाग जाती है।
(लोग गाते हैं)
लवंग : इसका कारण यह है कि तुम अपना ध्यान जमाती और उस पर सोचती हैं। तुमने देखा होगा कि नये सीधे बछड़े जिन्हें किसी ने हाथ तक न लगाया हो आपस में क्या क्या कुलेलें करते, छलाँगें मारते और हिनहिनाते हैं जिससे उनके रुधिर की गर्मी जानी जाती है। परन्तु यदि संयोग से उनके सामने तुरुही या किसी दूसरे प्रकार का बाजा बजाया जाय तो यह शीघ्र ही सबके सब ठठक कर खड़े हो जायँगे और राग के प्रभाव से कुछ देर के लिये उनकी घबड़ाहट दूर हो जायगी। एक कवि का कथन ठीक है कि तानसेन के गाने का प्रभाव वृक्ष, पत्थर, जल पर भी होता था क्योंकि कोई वस्तु ऐसी कठोर और भयानक नहीं जिसकी प्रकृति-स्वभाव को अधिक नहीं तो थोड़ी ही देर के लिये राग बदल न देता हो। जिस मनुष्य के गाने का आनन्द नहीं और जिसके जी पर सुरीले शब्द का प्रभाव नहीं होता उससे अत्याचार, छल और चोरी इत्यािद जो कुछ न हो सब थोड़ा है क्योंकि ऐसे मनुष्य का चित्त नरक से अधिक अंधा और भ्रष्ट और बुरा होता है और वह कदापि विश्वास के योग्य नहीं होता। तुम ध्यान देकर गाना सुनो।
(पुरश्री और नरश्री कुछ दूर पर चली आती हैं)
पुरश्री : वह प्रकाश जो सामने दृष्टि पड़ता है मेरे ही दालान में हो रहा है। देखो तो एक छोटे से दीपक का प्रकाश कितनी दूर तक फैला हुआ है। इसी भाँति संसार में शुभकर्म चमकता है।
नरश्री : जब चाँदनी थी तो यह प्रकाश जान नहीं पड़ता था।
पुरश्री : इसी भाँति बड़ा तेज अपने सामने छोटे तेज को दबा लेता है। किसी कवि ने कितना ठीक कहा है-दिये (दीपकों) को तो प्रकट में चमक है, पर दिये (दान) का प्रकाश परलोक में भी है। राजा की अनुपस्थिति में उसके प्रतिनिधि ही की प्रतिष्ठा राजा के समान होती हैं परन्तु उसके सामने जैसे नदी की समुद्र के सामने कुछ गिनती नही उसका भी कोई मान नहीं होता। ऐं देखो, कहीं से गाने का शब्द आता है!
नरश्री : सखी यह आप ही के महल में गाना हो रहा है।
पुरश्री : इसमें सन्देह नहीं कि हर वस्तु के लिये एक नियत काल है और उसी समय वह भली जान पड़ती है। मेरी सम्मति में इस समय गाना दिन की अपेक्षा अधिक मनोहर होता है।
नरश्री : सखी यह आनन्द एकान्त के कारण से प्राप्त हुआ है।
पुरश्री : यदि कोई कान ही न दे तो कौवे का शब्द वैसा ही कोमल और मधुर है जैसा कोयल का और मेरी सम्मति में दिन को जब कि बत्तक काँव-काँव कर रही हों, बुलबुल हजार दास्ताँ का चहचहाना कोलाहल से बुरा है। कितनी वस्तुओं की सुन्दरता और उत्तमता समय ही पर जानी जाती है। बस बन्द करो, चन्द्रमा समुद्र के साथ सोने को गया और अभी उसकी आँख नहीं खुलने की।
(गाना बन्द हो गया)
लवंग : यदि मेरे कानों ने त्रुटि न की तो यह शब्द पुरश्री का है!
पुरश्री : मेरा शब्द तो इस समय मानो अंधे के लिये लकड़ी हो गया।
लवंग : ऐ मान्य सखी, आपके कुशलतापूर्वक लौट आने पर धन्यवाद देता हूँ।
पुरश्री : हम लोग अपने अपने स्वामी की कुशलता की प्रार्थना करती थीं और हम आशा करती हैं कि हमारी प्रार्थना स्वीकार हुई। वह लोग आए?
लवंग : इस समय तक तो नहीं आए हैं परन्तु उनके पास से अभी एक दूत समाचार लाया है कि वह लोग निकट ही हैं।
पुरश्री : नरश्री भीतर जाकर नौकरों से कह दो कि वह हमारे बाहर जाने के विषय में किसी से कुछ न कहें, लवंग तुम भी ध्यान रखना और तुम भी स्मरण रखना जसोदा।
(तुरुही की ध्वनि सुनाई देती है)
लवंग : आपके पति आन पहुँचे, मेरे कान में उनकी तुहही का शब्द आता है। हम लोग लुतरे नहीं हैं, आप तनिक भय न कीजिए।
पुरश्री : आज के सबेरे की दशा तो कुछ पीड़ित सी जान पड़ती है क्योंकि उसके मुंह पर नियम से अधिक पियराई छा रही है जैसा कि सूर्यास्त के समय दृष्टि आती है।
(बसन्त, अनन्त, गिरीश और उनके नौकर चाकर आते हैं)
बसन्त : यदि सूर्यास्त होने पर आप घूँघट उलट कर निकल आएँ तो हमको उसके अस्त होने की कुछ चिन्ता न हो।
पुरश्री : ईश्वर करे मुख की कान्ति आपको प्रकाशित कर सके परन्तु मेरी गति में चमक न आए क्योंकि चमक मटक छिछोरेपन का चिद्द है जिसका परिणाम यह होता है कि अन्त को स्वामी के चित्त में अपनी स्त्री की ओर से एक चमक आ जाती है, इसलिये ईश्वर मुझको इस आपत्ति से बचाए। आपका जाना हम लोगों को शुभंकर हो।
बसन्त : प्यारी मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ, पर इस समय तुम मेरे मित्र के आने पर प्रसन्नता प्रकट करो। यही अनन्त है जिनका मैं अन्तःकरण से अत्यन्त उपकृत हूँ।
पुरश्री : इसमें कोई सन्देह है, आपको अवश्य उपकार मानना चाहिए क्योंकि जहाँ तक मैंने सुना है उन्होंने आप के साथ बड़ा उपकार किया है।
अनन्त : आप लोग इस कहने से मुझे व्यर्थ लज्जित करते हैं, मैंने तो जो कुछ सेवा की होगी उससे कहीं अधिक भर पाया।
पुरश्री : महाशय आपके पधारने से हमारे घर की शोभा और हम लोगों की प्रसन्नता दूनी हुई परन्तु मुख से कहना बनावट है और मैं अपने आन्तरिक हर्ष को बनावट की आवश्यकता नहीं समझती।
(गिरीश और नरश्री पृथक् बात करते जान पड़ते हैं)
अनन्त : शपथ है अपने प्राण की तुम मुझ पर झूठा दोष लगाती हो, मैंने सचमुच उसे न्यायकर्ता के लेेखक को दिया।
पुरश्री : वाह वाह आते ही झगड़ा होने लगा! यह क्या बात है।
गिरीश : एक सोने के छल्ले के लिये, एक टके की मुँदरी के लिये जो आपने दी थी और जिस पर यह वाक्य खुदा था जैसा प्रायः बिसातियों की छुरियों पर लिखा होता है-मुझसे स्नेह रक्खो और कभी जुदा न हो’।
नरश्री : तुम लिखने और मूल्य का क्या कहते हो। क्या तुमने लेने के समय शपथ नहीं खाई थी कि मैं उसे आमरण अपनी उँगली में रक्खूँगा और वह मेरे साथ समाधि में जायगी? यदि मेरा कुछ ध्यान न था तो भला अपनी कठिन सौगन्धों का तो ध्यान करते। हंह! न्यायी के लेखक को दिया! मैं भली भाँति जानती हूँ कि जिस लेखक को तुम ने दिया है उसके मुँह पर दाढ़ी कभी न निकलेगी।
गिरीश : क्यों नहीं, जब वह पूर्ण युवा होगा तो अवश्य निकलेगी।
नरश्री : हाँ, यदि स्त्री पुरुष हो सकती हो।
गिरीश : शपथ भगवान की, मैंने उसे एक लड़के को दिया, एक मझले कद के छोकरे को जो तुम से ऊँचा न था। यही विचारपति का लेखक था। उसने ऐसी मीठी मीठी बातें करके अँगूठी पारितोषिक में माँगी कि मैं अनंगीकार न कर सका और उसको सौंपते ही बनी।
पुरश्री : सुनो साहिब मैं स्पष्ट कहती हूँ कि इस विषय में सब दोष तुम पर है कि एक लड़के की बातों में आकर अपनी स्त्री का दिया हुआ पहला चिन्ह उसे दे डाला और वह वस्तु, जिस पर तुमने अपनी उँगली में पहनने के समय सौगन्ध की बौछार मचा दी थी और प्रतिज्ञा के ढेर लगा दिए थे, ऐसे सहज में दे डाली। मैंने भी अपने प्यारे स्वामी को एक अँगूठी दी है और उसने शपथ ले ली है कि उसे कभी जुदा न करे। यह देखिए यहाँ उपस्थित हैं। परन्तु उनकी सन्ती मैं शपथ खा सकती हूँ कि यदि कोई उन्हें कुबेर का भण्डार भी अर्पण करे तो यह उसे अपनी उँगली से न उतारें, दे डालना तो दूर है। तात्पर्य यह है कि गिरीश तुम ने अपनी स्त्री को व्यर्थ इतना बड़ा दुःख दिया। यदि मैं उसके स्थानापन्न होती तो इस समय क्रोध के मारे पागल हो जाती।
बसन्त : (आप ही आप) इस समय इससे उत्तम कोई उपाय नहीं कि मैं अपना बायाँ हाथ काट डालूँ और शपथ खा लूँ कि जहाँ तक बस चला रक्षा की परन्तु अन्त को जब हाथ कट गया तो उसी के साथ अँगूठी भी गई।
गिरीश : मेरे स्वामी बसन्त ने अपनी अँगूठी विचाराधीश को उसकी प्रार्थना पर दे दी और निस्सन्देह उसने काम भी ऐसा ही किया था। इस पर उसके लेखक ने लिखाई की सन्ती मेरी अँगूठी माँगी और अभाग्य यह है कि उसे और उसके स्वामी दोनों को इस बात का आग्रह हुआ कि सिवाय इन अँगूठियों के और कोई वस्तु हाथ से न छुएँगे।
पुरश्री : क्यों साहब आपने कौन सी अँगूठी दी? वह तो काहे को दी होगी जो आपने मुझ से पाई थी।
बसन्त : यदि मुझे झूठ बोल कर अपने अपराध को दूना कर देना स्वीकार हो तो हाँ निस्सन्देह अस्वीकार करूँ परन्तु तुम देखती हो कि मेरी उँगली में अँगूठी नहीं है, वह जाती रही।
नरश्री : ऐसे ही आपका निर्दय चित्त भी स्नेह से शून्य है। शपथ भगवान की, जब तक आप मेरी अँगूठी मेरे सामने लाकर न रखिएगा मैं आपके साथ अंक में सोना पाप समझूँगी।
पुरश्री : और मैं भी जब तक अपनी अँगूठी देख न लूंगी आपसे बात न करूँगी।
गिरीश से,
बसन्त : मेरी प्यारी पुरश्री, यदि तुम्हें विदित हो कि मैंने अँगूठी किसे दी, किसके लिये क्यों दी और कैसी निर्वशता से दी जब कि वह पुरुष सिवा उस अँगूठी के दूसरी वस्तु के लेने पर प्रसन्न ही नहीं होता था तो तुम्हारा क्रोध इतना न रह जाय।
पुरश्री : यदि आप को अँगूठी का गौरव विदित होता, या आपने उसके देने वाली को आधा भी दिया होता, या अपनी बात का कि मैं सदा अँगूठी प्राण सदृश रक्खूँगा नेक भी विचार किया होता तो आप उसे कभी अपने से जुदा न करते। भला कौन ऐसा मूर्ख होगा कि आप से निर्लज्जता के साथ एक रीति की वस्तु को माँग ले जाता, यदि आप ने कुछ भी चित्त से उसके न देने का यत्न किया होता। नरश्री का विचार मुझे यथार्थ प्रतीत होता है, मैं शपथ खा सकती हूँ कि आप ने अँगूठी अवश्य किसी स्त्री को दी।
बसन्त : प्यारी, मैं अपनी प्रतिष्ठा, अपने प्राण की शपथ खाकर कहता हूँ कि मैंने उसे किसी स्त्री को नहीं दिया वरंच एक वकील को, जिसने छ हजार रुपया लेना अस्वीकार किया और केवल वह अँगूठी माँगी। फिर भी मैंने निवेदन किया और उसे अप्रसन्न होकर चले जाने दिया यद्यपि यह वह पुरुष था जिसने मेरे प्यारे मित्र की जान बचाई थी। मेरी प्यारी तुम ही बतलाओ कि मैं क्या करता? मेरे शील ने सहन न किया कि ऐसे उपकारी को अप्रसन्न करूँ, मुझे बड़ी लज्जा पर्दे पड़ी और स्वभाव इस बात को सह न सका कि मैं अपनी मर्यादा में कृतघ्नता का धब्बा लगाऊँ। अन्त को मुझे विवश होकर अँगूठी उसके पीछे भेज देनी पड़ी। मेरी प्यारी मेरा अपराध क्षमा करो। शपथ है यदि तुम वहाँ होती तो अँगूठी को मुझ से छीन कर उस योग्य वकील को सौंप देती।
पुरश्री : अच्छा अब उस वकील की ओर से सचेत रहना और उसको मेरे घर के निकट कदापि न फटकने देना क्योंकि जिस वस्तु से मुझको प्रीति थी और आपने मेरे निहोेरे सदा अपने पास रखने की शपथ खाई थी वह उसके हाथ में आ गई तो मैं भी आप की भाँति उदारता पर कमर बाँधूँगी और जो कुछ वह मुझसे माँगेगा उसके स्वीकार करने से मुँह न मोड़ूँगी। पहिचान तो मैं उसको लूँ हीगी, इसमें किसी भाँति का सन्देह नहीं। अब आप को उचित है कि कभी रात के समय घर से बाहर न जायँ और आठ पहर मेरी रक्षा करते रहें। यदि आपने मुझे किसी दिन अकेला छोड़ा तो शपथ है अपने लज्जा की जिस पर अब तक किसी पुरुष की परछाईं नहीं पड़ी है, मैं उस वकील को अपने पास सुला लूँगी।
नरश्री : और मैं उसके लेखक को, इस लिये सावधान कभी मुझको मेरे भरोसे पर छोड़ कर न जाना।
गिरीश : अच्छा जैसा तुम्हारा जी चाहे करो, पर उस अवस्था में उसे मेरे पंजे से बचाए रहना नहीं तो लेखक साहब की लेखनी पर आपत्ति आ जायगी।
अनन्त : मैं ही अभागा इन झगड़ों का कारण हूँ।
पुरश्री : आप न उदास हूजिए, आपके आने की मुझे बड़ी प्रसन्नता है।
बसन्त : पुरश्री, इस बार मेरा अपराध जो निरी निर्वशता की अवस्था में हुआ क्षमा कर दो और अब मैं इन सब मित्रों के सामने तुमसे प्रतिज्ञा करता हूँ वरंच तुम्हारी आँखों की जिनमें मेरा प्रतिबिंब दृष्टि पड़ता है शपथ कर कहता हूँ कि-
पुरश्री : देखिए नेक आप लोग इस बात को विचारिए, वह मेरे दो नेत्रों में अपना दुहरा प्रतिबिंब देखते हैं यानी हर नेत्र में एक, इसलिये आप अपनी दुहरी सूरत की शपथ खाइए तो हाँ विश्वास हो।
बसन्त : अच्छा थोड़ा मेरी सुन लो। इस अपराध को क्षमा करो और अब मैं अपने जीवन की सौगन्ध खाता हूँ कि अब फिर कभी तुम्हारे सामने प्रतिज्ञा से भ्रष्ट न हूँगा।
अनन्त : मैंने एक बार रुपयों के बदले अपना शरीर इनके लिये धरोहर रक्खा था और यदि वह मनुष्य, जिसने आपके स्वामी की अँगूठी ली, न होता तो यह अब तक कभी का नष्ट हो गया होता। अब मैं इस बार अपने प्राण को जमानत में दे करके प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपके स्वामी फिर कभी जान बूझ कर अपना वचन न तोड़ेंगे।
पुरश्री : तो मैं आपको उनका जामिन समझूँगी। अच्छा उन्हें यह अँगूठी दीजिए और शपथ ले लीजिए कि इसको पहली से अधिक सावधानी के साथ रक्खें।
अनन्त : लो बसन्त इसको लो और शपथ खाओ।
बसन्त : शपथ भगवान की यह वही अँगूठी है, जो मैंने उस वकील को दी थी।
पुरश्री : और मैंने भी तो उसी से पाई। बसन्त मुझे क्षमा करना क्योंकि इसी अँगूठी के स्वत्व से वह मेरे साथ आकर सोया था।
नरश्री : और मेरे सुहृद गिरीश आप भी मेरा अपराध क्षमा करें क्योंकि वही मझलाकद वकील का लेखक इस अँगूठी के बदले कल रात को मेरे साथ सोया हुआ था।
गिरीश : ऐं, यह तो मानो भरी बरसात में खेत को कुएँ के पानी से सींचना है। क्या हम लोगों में कोई दोष पाया जो हमारी स्त्रियों ने हमें अपना भँडुआ बनाया।
पुरश्री : इतनी असभ्यता से मत बको। आप लोग चकित हो गए। लीजिए यह पत्र पाण्डुपुर से बलवन्त के पास से आया है, इसे अवकाश के समय पढ़ियेगा, उससे आपको विदित होगा कि पुरश्री वकील थी और नरश्री उसकी लेखक। लवंग उपस्थित है वह साक्षी ही देंगे कि ज्योंही आप सिधारे मैं भी उसी क्षण चल दी और अभी चली आती हूँ, यहाँ तक कि घर में पैर नहीं रक्खा। अनन्त महाराज आपका आगमन मंगल, मैं आपको वह समाचार सुनाती हूँ जिसका आपको स्वप्न में भी ध्यान न होगा। इस पत्र की मुहर तोड़ कर पढ़िये, इसमें आप देखिएगा कि आपके तीन जहाज अनमोल माल से लदे हुए घाट (बन्दरगाह) में आ गए हैं। परन्तु मैं आपको यह न बतलाऊँगी कि मेरे हाथ यह पत्र क्योंकर लगा।
अनन्त : मेरे मुख से तो शब्द नहीं निकलता।
बसन्त : आप ही वकील थीं और मैंने पहचाना तक नहीं!
गिरीश : आप ही वह लेखक हैं जो मुझे जोरू का भँडुआ बनाया चाहती थीं?
नरश्री : जी हाँ, पर वह लेखक जिसकी इच्छा कभी ऐसा करने की नहीं परन्तु हाँ उस अवस्था में कि वह स्त्री से पुरुष बन सके।
बसन्त : मेरे सुहृद वकील अब आपको मेरे साथ सोना होगा और जब मैं न रहूँ उस समय मेरी स्त्री के साथ सोइए।
अनन्त : बबुई आपने जीवन और उसकी सामग्री दोनों मुझे दी, क्योंकि इस पत्र से विदित हुआ कि वास्तव में मेरे जहाज कुशलता के साथ बन्दरगाह में आ गए।
पुरश्री : लवंग, मेरे लेखक के पास आपके लिये भी कुछ सौगात प्रस्तुत है।
नरश्री : और मैं आपको बिना लिखाई लिए सौंपती हूँ, लीजिये यह उस धनी जैनी ने आपको और जसोदा को एक दानपत्र अपनी सारी संपत्ति का लिख दिया है, जिसके आप लोग उसके मरने पर उत्तराधिकारी होंगे।
लवंग : महाशय जी, यह मानो भूखों के सामने मोहनभोग का ढेर लगा देना है।
पुरश्री : सबेरा हो गया अब तक मेरी जान में आप लोगों को इन सब बातों के विषय पूरा तोष नहीं हुआ, इसलिये उचित होगा कि भीतर चल कर जो जो सन्देह हों उनके विषय मुझसे प्रश्न कीजिए और ब्योरेवार वृत्तान्त सुनिए।
गिरीश : बहुत ठीक-
है जब तक मेरे दम में दम डरूँगा हर घड़ी हर दम।
रहेगा रात दिन खटका नरश्री की अँगूठी का।


(सब जाते हैं)
इति

 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.