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नाटक |
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गोडसे@गांधी.कॉम
पात्र
मोहनदास करमचंद गांधी, नाथूराम गोडसे,
बावनदास (फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास 'मैला आँचल' का पात्र) सुषमा शर्मा (दिल्ली की एक मिडिल क्लास फैमिली की लड़की जिसने बी.ए. पास किया है जो
महात्मा गांधी की अंधभक्त हैं।), नवीन जोशी (दिल्ली कॉलेल में अंग्रेजी के युवा प्राध्यापक), निर्मला शर्मा (सुषमा शर्मा की माँ, हरियाणा की निवासी है),
प्यारे, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, नाना आप्टे, विष्णु करकरे तथा अन्य।
सीन -1
(मंच पर अँधेरा है। उद्
घोषणा समाचार के रूप में शुरू होती है।)
'ये ऑल इंडिया रेडियो है। अब आप देवकी नंदन पांडेय से खबरें सुनिए। समाचार मिला है कि ऑपरेशन के बाद महात्मा गांधी की हालत में तेजी से सुधार हो रहा है। उन
पर गोली चलानेवाले नाथूराम गोडसे को अदालत ने 15 दिन की पुलिस हिरासत में दे दिया है। देश के कोने-कोने से हजारों लोग महात्मा गांधी के दर्शन करने दिल्ली
पहुँच रहे हैं।'
(आवाज फेड आउट हो जाती है और मंच पर रोशनी हो जाती है। गांधी के सीने में पट्टियाँ बँधी हैं। वे अस्पताल के कमरे में बिस्तर पर लेटे हैं। उनके हाथ
में अखबार है। मंच पर प्यारेलाल आते हैं।)
प्यारेलाल :
बापू, डॉक्टरों का कहना है कि अभी कम (गांधी अखबार नीचे रख देते हैं) से कम 15 दिन तक दवाएँ लेनी पड़ेंगी।
गांधी :
प्यारेलाल, अब मैं ही अपना डॉक्टर हूँ.... जब मैं बेहोश था तो दूसरी बात थी।
प्यारेलाल :
बापू, आपको पता नहीं हैं..... कितना खून बहा है आपका...
गांधी :
मुझे, ये मालूम है कि मुझे कितने खून की जरूरत है और मेरे शरीर में
कितना है।
प्यारेलाल :
आप कम-से-कम डॉक्टरों की बात तो....
गांधी :
(बात काट कर)
मुझे मरीजों की देखभाल करने का अच्छा अनुभव है प्यारेलाल... तुम फिक्र मत करो (कागज बढ़ाते हुए)... ये दो किताबें मुझे चाहिए हैं, किसी को भेज कर मँगा दो।
(प्यारेलाल कागज लेकर बाहर निकल जाते हैं। दूसरी तरफ से सुषमा अंदर आती है। गांधी जी के पैर छूती है तो वे अखबार हटाकर उसे देखते हैं।)
गांधी :
कौन हो तुम? क्या बात है?
सुषमा :
मेरा नाम सुषमा है।
गांधी :
क्या करती हो?
सुषमा :
बी.ए. का इम्तिहान दिया है।
गांधी :
तो अब?
(नवीन अंदर आता है। गांधी उसे देखते हैं।)
सुषमा :
ये नवीन है बापू।
गांधी :
तुम क्यों आए हो?
नवीन :
आपके दर्शन करने...
गांधी :
दर्शन? क्या मैं तुम्हें मंदिर में लगी मूर्ति लगता हूँ?
नवीन :
ज्ज...जी...
गांधी :
तुम लोग अपना भी समय बर्बाद करते हो और मुझे भी परेशान करते हो..।
सुषमा :
बापू, हमलोग आपके साथ देश सेवा....
गांधी :
(बात काट कर)
नवीन तुम क्या करते हो?
नवीन :
बापू, मैं दिल्ली कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाता हूँ...।
गांधी :
देश सेवा तो तुम कर रहे हो.... और लड़की तुम?
सुषमा :
बापू, मैं आपके आश्रम.. में...।
(प्यारेलाल का प्रवेश। वे घूर कर सुषमा और नवीन को देखते हैं)
प्यारेलाल :
आप लोग कौन हैं? और अंदर कैसे आ गए? आपको
मालूम है....डॉक्टरों ने बापू को 'कंपलीट रेस्ट' बताया
है... मेहरबानी करके बाहर जाइए।
गांधी :
प्यारेलाल यहाँ तुमलोगों को ठहरने नहीं देगा... कल प्रार्थना सभा में आना।
(सुषमा और नवीन नमस्कार करके बाहर निकल जाते हैं। नेहरू, पटेल और मौलाना आते हैं)
नेहरू :
आप कैसे हैं बापू?
गांधी :
ठीक हूँ..।
पटेल :
ड्रेसिंग हो रही है?
गांधी :
मैं, खुद ही कर रहा हूँ...।
मौलाना :
आप?
गांधी :
हाँ... हाँ... क्यों... अब जख्म सूख रहा है।
मौलाना :
आपकी खैरियत मालूम करने को पूरा मुल्क बेचैन है।
नेहरू :
ब्रिटेन के किंग जार्ज और प्राइम मिनिस्टर रिचर्ड हेडली के केबिल भी आए हैं।
मौलाना :
पोस्ट टेलीग्राफ वालों को इतने खत और तार कभी मिले ही नहीं... डाकखानों में जगह ही नही है।
पटेल
: बापू.. नाथूराम गोडसे ने सब कुबूल कर लिया है।
गांधी :
कौन है ये? क्या करता था?
पटेल :
पूना का है.. वहाँ से एक मराठी अखबार निकालता था...सावरकर उसके गुरू हैं हिंदू महासभा से भी उसका संबंध है...ये वही हैं जिन्होंने प्रार्थना सभा में बम
विस्फोट किया था...बहुत खतरनाक लोग हैं...।
गांधी :
(कुछ सोच कर)
मैं गोडसे.. से मिलना चाहता हूँ...।
सब :
(हैरत से)
...जी?
गांधी :
हाँ.... मैं गोडसे से मिलना चाहता हूँ... परसो ही मिलूँगा, डिस्चार्ज होते ही।
नेहरू :
बापू, परसों तो हमने रामलीला मैदान में एक बहुत बड़ी मीटिंग रखी है, जहाँ कम-से-कम एक लाख...।
गांधी :
मैं पहले गोडसे से मिलूँगा....।
पटेल :
क्यों बापू.. वह आपकी हत्या करना चाहता था...।
गांधी :
मिलने की यही वजह हैं।
नेहरू :
बापू यह सुन कर पूरा देश परेशान हो जाएगा कि आप गोडसे से मिलने जा रहे हैं।
गांधी :
आदमी परमात्मा की सबसे बड़ी रचना है... उसे समझने में समय लगता है।... मैं जाऊँगा।
पटेल :
तो हम सब आपके साथ जाएँगे।
गांधी :
(बात काट कर)
...नहीं, मैं गोडसे से अकेले मिलना चाहता हूँ...।
नेहरू :
अकेले?
(पर्दा गिरता है मंच पर अँधेरा।)
सीन-2
(मंच पर अँधेरा है। उदघोषणा होती है)
उद्
घोषणा :
'गांधीजी अपनी जिद पर डटे रहे। बड़े-बड़े नेताओं के अपील करने, अखबारों के एडीटरों की राय और जनता के निवेदन के बावजूद वे नाथूराम गोडसे से मिलने गए। राज हठ
और बाल हठ के साथ लोगों ने गांधी हठ को भी जोड़ दिया। गांधी अपने प्रोग्राम के मुताबिक ठीक आठ बजे तिहाड़ जेल के गेट पर पहुँच गए।'
(धीरे-धीरे प्रकाश आता है। जेल में नाथूराम अपनी कोठरी में सीखचों के पीछे खड़ा है। सामने से गांधी आते हैं। उनके साथ जेलर है।)
गांधी :
(नाथूराम को देख कर)... यह क्या है? बीच में लोहे की सलाखें क्यों हैं?
जेलर :
महात्मा जी... यही हुक्म मिला है कि...
गांधी :
नहीं.. ये नहीं हो सकता... इस तरह से कोई बात नहीं हो सकती... नाथूराम को बाहर निकालो।
जेलर :
महात्मा जी...मैं...मुझे... माफ करें
गांधी :
वल्लभ से पूछो..।
जेलर :
कहा गया है..जैसा आप कहें...
गांधी :
तो ठीक है... गोडसे को बाहर निकालो।
(हवलदार लोहे के फाटक का ताला खोलता है। नाथूराम बाहर निकाला जाता है। उसमें हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ पड़ी हैं।)
गांधी :
(जेलर से)
.. नाथूराम की हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ खोल दो..।
(हवलदार नाथूराम की हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ खोल देता है।)
गांधी :
(जेलर से)
.. अब तुम जाओ।
जेलर :
(हैरत से)
.. क्या महात्मा जी?
गांधी :
हाँ अब तुम जाओ..।
जेलर :
लेकिन आपकी सिक्युरिटी के लिए...
गांधी :
(बात काट कर)
.. मुझे विश्वास है, नाथूराम मुझ पर हमला नहीं करेगा।
(जेलर और हवलदार चले जाते हैं।)
(धीरे-धीरे गांधी जी नाथूराम के सामने खड़े हो जाते हैं। नाथूराम उनकी तरफ नफरत से देखता है और मुँह फेर लेता है। गांधी भी उधर मुड़ जाते हैं, जिधर
गोडसे ने मुँह मोड़ा है। अंतत: दोनों आमने-सामने आते हैं। गांधी हाथ जोड़ कर गोडसे को नमस्कार करते हैं। गोडसे कोई जवाब नहीं देता।)
गांधी
:
नाथूराम..परमात्मा ने तुम्हें साहस दिया.. और तुमने अपना अपराध कुबूल कर लिया.. सच्चाई और हिम्मत के लिए तुम्हें बधाई देता हूँ।
नाथूराम :
मैंने तुम्हारी बधाई पाने के लिए कुछ नहीं किया था।
गांधी :
फिर तुमने अपना जुर्म कुबूल क्यों किया है?
नाथूराम :
(उत्तेजित हो कर)
जुर्म.. मैंने कोई अपराध नहीं किया है। मैंने यही बयान दिया है कि मैंने तुम पर गोली चलाई थी। मेरा उद्देश्य तुम्हारा बध करना था...
गांधी :
तो तुम मेरी हत्या को अपराध नहीं मानोगे?
नाथूराम :
नहीं...
गांधी :
क्यों?
नाथूराम :
क्योंकि मेरा उद्देश्य महान था..
गांधी :
क्या?
नाथूराम :
तुम हिंदुओं के शत्रु हो..सबसे बड़े शत्रु..इस देश को और हिंदुओं को तुमसे बड़ी हानि हुई है...हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान अर्थात हिंदुत्व को बचाने के लिए एक
क्या मैं सैकड़ों की हत्या कर सकता हूँ।
गांधी :
ये तुम्हारे विचार हैं.. मैं विचारों को गोली से नहीं, विचारों से समाप्त करने पर विश्वास करता हूँ...
नाथूराम :
मैं अहिंसा को अस्वीकार करता हूँ।
गांधी :
तुम्हारी मर्जी... मैं तो यहाँ केवल यह कहने आया हूँ कि मैंने तुम्हें माफ कर दिया।
नाथूराम :
(घबरा कर)
... नहीं-नहीं.. ये कैसे हो सकता है?
गांधी :
मैं अदालत में बयान देने भी नहीं जाऊँगा।
नाथूराम:
(अधिक घबरा कर)
नहीं.. नहीं.. तुम ये नहीं कर सकते।
गांधी :
(शांत स्वर में)
गोडसे..तुमने अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी.. मुझे मेरी अंतरात्मा की आवाज सुनने दो..।
नाथूराम :
तुम्हारी हत्या के आरोप में मैं फाँसी पाना चाहता था।
गांधी :
परमात्मा से माँगो, तुम्हारे मन को शांत रखे... दूसरे के लिए हिंसा अपने लिए भी हिंसा..ये क्या है नाथूराम...तुम ब्राह्मण हो, ब्राह्मण के कर्म में
ज्ञान, दया, क्षमा और आस्तिकता होनी चाहिए।
नाथूराम :
मुझे मेरा कर्म मत समझाओं गांधी... मैं जानता हूँ।
गांधी :
ईश्वर तुम्हें शांति दे...।
(गांधी मुड़ जाते हैं। गोडसे उन्हें देखता रहता है।)
सीन-3
(मंच पर अँधेरा)
उद्घोषणा :
सुषमा और नवीन एक-दूसरे से प्यार करते हैं। सुषमा गांधी से इतना प्रभावित है कि अगर गांधी के नाम पर कोई उसकी जान भी माँगे तो वह दे सकती है। नवीन गांधी का
प्रशंसक है लेकिन अंधभक्त नहीं है। लेकिन सुषमा के प्यार ने उसे गांधी के और करीब ला दिया है। सुषमा गांधी के साथ देश सेवा कारना चाहती है। महात्मा ने
उसे यह अवसर दे दिया है लेकिन नवीन के बारे में गांधी का यह कहना है कि वह दिल्ली कॉलेज में पढ़ा रहा है और यही देश सेवा है। उन्होंने नवीन को अपने साथ
आने की अनुमति नहीं दी है। अब यह ऐसा मौका है कि प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे से बिछड़नेवाले तो नहीं है लेकिन कुछ दूर होने के डर से घबराए हुए हैं।
(धीरे-धीरे मंच पर रोशनी आती है। एक कोने में नवीन और सुषमा खड़े हैं।)
नवीन :
लेकिन गांधी जी मुझे अपने साथ क्यों नहीं रखना चाहते?
सुषमा :
उन्होंने कहा तो.. आप देश सेवा कर रहे हैं..दिल्ली कॉलेज में पढ़ा रहे हैं न?
नवीन :
(गुस्से में).. अरे यार, ऐसी-तैसी में गया दिल्ली कॉलेज.. मैं तुम्हारे पास होना चाहता हूँ।
सुषमा :
हम मिलते रह सकते हैं... अभी तो बापू दिल्ली में ही हैं... जब कहीं जाएँगे तो देखा जाएगा..।
नवीन :
कहीं उन्हें शक तो नहीं हो गया?
सुषमा :
कैसा शक?
नवीन :
मतलब हमारी 'रिलेशनशिप' का पता तो नहीं चल गया है?
सुषमा :
मुझे नहीं लगता।
(प्रकाश नवीन और सुषमा के ऊपर से हट जाता है। पूरे मंच पर प्रकाश आता है। गांधीजी चरखा चला रहे हैं। प्यारेलाल उनके पास बैठे कुछ लिख रहे हैं।)
प्यारेलाल :
बापू, ये नहीं हो सकता।
गांधी :
क्या?
प्यारेलाल :
दस हजार चिट्ठियों के जवाब नहीं दिए जा सकते।
गांधी :
रास्ता निकालो..तुम जल्दी ही घबरा जाते हो..ऐसा करो.. एक शहर से आई चिट्ठियों का एक जवाब लिखो..उसमें यह लिख दो कि यह चिट्ठी उसी शहर के इन-इन लोगों को
दिख दी जाए। समझे?
प्यारेलाल :
समझ गया.. लेकिन फिर भी..।
गांधी :
करो.. ये बताओ.. कि मीटिंग में जो मैं कहने जा रहा हूँ उसके नोट्स तुमने देख लिए हैं?
प्यारेलाल :
हाँ, देख लिए हैं। बापू आपकी बातें.. कभी-कभी समझ में नहीं आतीं।
गांधी :
कौन सी बातें?
प्यारेलाल :
यही जो आज की मीटिंग का मुद्दा है.. मेरी तो समझ में आया नहीं।
गांधी :
उसके बारे में..मैं दो बार बात नहीं करूँगा.. नेहरू, सरदार और मौलाना को आ जाने दो.. जो बातें होंगी तुम्हारे सामने ही होंगी..
(नेहरू, सरदार और मौलाना आजाद मंच पर आते हैं।)
पटेल :
आप कैसे हैं बापू?
गांधी :
तुम देख रहे हो... इस उम्र में जितना शारीरिक बल होना चाहिए उतना आ गया है... आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाने का प्रयास कर रहा हूँ।
नेहरू :
आपने दवाएँ खाना क्यों छोड़ दिया है?
गांधी :
अपनी खुराक को ही मैंने दवा बना लिया है... इसीलिए दवाओं की जरूरत नहीं है (कुछ कागज उठाते हुए).. आज मैंने तुम लोगों को बड़ी... विशेष... बात करने
के लिए बुलाया है... सवाल बहुत कठिन है, लेकिन परमात्मा हमें साहस देगा, ऐसा मेरा विश्वास है... कठिन मौकों पर वही मदद करता है... बहुत विस्तार में जाने
की जरूरत नहीं है.. लेकिन फिर भी... मैं थोड़ा पीछे से बात शुरू करना चाहता हूँ... आजादी की लड़ाई में हमारे साथ और हमसे अलग भी, बहुत से लोग शामिल थे...
हमारे साथ ऐसे भी लोग थे जिनके ख्यालात एक-दूसरे से मिलते नहीं थे... लेकिन आजादी पाने की चाह में कांग्रेस के साथ आ गए थे... क्योंकि कांग्रेस एक खुला
मंच था, जहाँ सबका सवागत किया जाता था... अब आजादी मिल चुकी है... मंच को पार्टी नहीं बनाना चाहिए।
नेहरू :
मैं समझा नहीं बापू।
गांधी :
पार्टी में आमतौर पर एक राजनैतिक विचार रखनेवाले होते हैं। आज कांग्रेस से अलग-अलग राजनैतिक विचार रखनेवाले लोग हैं... यह ठीक है कि निर्णय बहुमत से होते
हैं लेकिन पार्टी में मिलते-जुलते विचारों का होना लाजिम है। नीतियाँ बनाना ही सब कुछ नहीं होता, अगर पार्टी के लोगों के विचार अलग-अलग हों तो उन्हें लागू
करना कठिन हो जाएगा।
मौलाना :
मैं आप से मुत्तफ्फिक हूँ महात्मा जी... लेकिन अगर गौर किया जाय तो ये सूरतेहाल हर पार्टी और हर सियासी तहरीक में होती है... पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं
होती।
गांधी :
मौलाना, पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं.. लेकिन खाना खाते वक्त बराबर हो जाती है। देश निर्माण का काम कठिन है.. अब हमें उधर ध्यान देना चाहिए। उसके लिए
जरूरी है कि कांग्रेस को भंग कर दिया जाए।
नेहरू :
(हैरत से)
क्या कह रहे हैं बापू?
गांधी :
हाँ जवाहर.. मैं जानता हूँ कि मैं बहुत कड़वी बात कह रहा हूँ.. ऐसी बात तो जहर लग सकती है.. पर है वह अमृत..।
पटेल :
कांग्रेस को भंग कर देने का औचित्य क्या है बापू.. अब तो कांग्रेस में एकता और अनुशासन की भावना आई है..।
गांधी :
यह ऊपरी दिखावा है बल्लभ.. अंदर से ऐसा नहीं है।
पटेल :
बापू, आप जानते है कि आज देश की क्या हालत है? कश्मीर में युद्ध बढ़ता जा रहा है.. कहने को तो कबाइली हैं.. लेकिन पकिस्तानी सेना ने ही हमला किया है..
शरणार्थियों का भार उठाना बस से बाहर हो रहा है हर मिनिस्ट्री.. रात-दिन काम कर रही है.. बुनियादी जरूरतें, खाना और सिर पर छत.. यही नहीं पूरी हो पा रही
है.. हैदराबाद में जो हो रहा है, उसकी जानकारी आपको होगी ही.. रजाकारों ने निजाम को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। हैदराबार एयरपोर्ट पर विदेशी जहाज उतर रहा
है... कई स्तरों पर हैदराबाद को स्वतंत्र देश बनाए जाने का काम हो रहा है। बाकी जूनागढ़।
मौलान :
ये समझ लीजिए एक पैर रकाब में है और दूसरा हवा में उठा हुआ है। इस सूरत में घोड़े पर बैठना ही जरूरी है।
नेहरू :
बापू, देश के लोगों ने हमसे उम्मीदें लगा रखी हैं, उन्हें कौन पूरा करेगा.. हम किसी को मुँह दिखाने के लायक नहीं रह जाएँगे।
पटेल :
भारत को एक देश बनाने का यही वक्त है.. और अगर अब कांग्रेस को डिजॉल्व कर दिया गया तो.. शासन कौन करेगा।
गाधी :
बल्लभ असली बात यही है... जो तुमने अब कही है.. सवाल ये है कि शासन कौन करेगा.. तुम लोग अब शासन करना चाहते हो।
नेहरू :
बापू, देश की जनता ने हमे चुना है।
गांधी :
हाँ, केवल आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए... सरकार चलाने के लिए नहीं चुना, मैं नहीं चाहता, जनता को धोखा दिया जाए।
नेहरू :
धोखा? कैसा धोखा?
गांधी :
मंच को राजनैतिक दल बना देना जनता को धोखा देना ही होगा.. जवाहर ... तुम जानते हो न्याय और अन्याय का भेद न रहा तो बुनियाद ही कच्ची रह जाएगी..।
मौलाना:
महात्मा जी... कांग्रेस के डिजॉल्व हो जाने के बाद हम लोग क्या करेंगे?
गॉंधी:
देश सेवा... जो हमने व्रत लिया हुआ है हम सब भारत के गाँवों में चले जाएँगे और वहाँ के लोगों की सेवा करेंगे। गीता में आता है, 'हम अपने अंत:करण की शुद्धि
के लिए यज्ञ-कर्म करेंगे'।
नेहरू :
सरकार में रहते हुए क्या हम जनता की खिदमत नहीं कर सकते।
गांधी :
सरकार हुकूमत करती है जवाहर.. सेवा नहीं करती.. सरकारें सत्ता की प्रतीक होती है और सत्ता सिर्फ अपनी सेवा करती है.. इस लिए सत्ता से जितनी दूरी बनेगी उतना
ही अच्छा होगा।
नेहरू :
बापू, देश को बचाने के लिए अब हमें 'पॉलिसीज' बनानी पड़ेंगी... उन्हें लागू करना पड़ेगा। 'प्लानिंग कमीशन' बनेगा। फाइव इयर प्लान बनेंगे.. तब देश में
गरीबी और जहालत दूर होगी... यह दो हमारी बड़ी प्रॉब्लम्स हैं। मैं तो यही सोचता हूँ और ये करने के लिए एक 'कमीटेड' सरकार बनाना जरूरी है।
गांधी :
जवाहर तुम पत्तों से जड़ की तरफ जाते हो और मैं जड़ से पत्तों की तरफ आने की बात करता हूँ। तुम समझते हो कि सरकारी नीतियाँ बना कर, उन्हें सरकारी तौर पर
लागू करने से देश की भलाई होगी.. मैं ऐसा नहीं मानता... मैं कहता हूँ लोगों को ताकत दो, ताकि वे अपने लिए वह सब करें जो जरूरी समझते हैं... चिराग के नीचे
अँधेरा होता है, लेकिन सूरज के नीचे अँधेरा नहीं होता।
पटेल :
बापू, आपका प्रस्ताव कांग्रेस वर्किंग कमेटी में रख दिया जाएगा।
गांधी :
तुम लोग क्या सोचते हो?
नेहरू :
बापू, ये तो बातचीत के बाद ही पता चलेगा।
गांधी :
ठीक है चर्चा करो... और सुनो, कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने अगर यह प्रस्ताव पास न किया तो कांग्रेस से मेरा कोई वास्ता न रहेगा।
सब :
(एक साथ)
ये आप क्या कह रहे हैं बापू?
(गांधी सिर झुका लेते हैं)
सीन-4
(मंच पर अँधेरा है। उद्
घोषणा शुरू होती है।)
उद्
घोषणा :
भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने महात्मा गांधी के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। प्रस्ताव के पक्ष में एक सदस्य भी
नहीं था। प्रस्ताव के गिरते ही गांधी ने कांग्रेस के अध्यक्ष को चिट्ठी लिखी थी कि अब कांग्रेस से उनका कोई संबंध नहीं है। उनकी इस चिट्ठी से कांग्रेस में
थोड़ी खलबली मची थी। नेहरू, पटेल और मौलाना आजाद ने गांधी से कई मुलाकातें की थीं और उन्हें इस बात पर राजी करने की कोशिश की थी कि वे कांग्रेस से अपना
रिश्ता नहीं तोड़ें। घनश्याम दास विड़ला, जमुनालाल बजाज, पंडित सुंदर लाल, आचार्य नरेंद्र देव ने भी गांधी जी से कांग्रेस में बने रहने की अपील की थी। पर
गांधीहठ के आगे सब फेल हो गए थे। गांधी के कांग्रेस से अलग होते ही स्थितियाँ बदल गई थीं। गांधी अकेले पड़ गए थे। अब उनके साथ कोई न था। एक प्यारेलाल थे जो
अब तक गांधी के साथ बने हुए थे।
(मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश आता है। गांधी बैठे चरखा चला रहे हैं। पास में ही प्यारेलाल बैठे कागज उलट-पुलट रहे हैं।)
गांधी :
प्यारेलाल... तुम भी विचार कर लो।
प्यारेलाल :
क्या विचार करूँ बापू?
गांधी :
मेरे साथ... अब भी रहना चाहते हो?
प्यारेलाल :
बापू, आपने इतना अपमान तो मेरा कभी नहीं किया था।
गांधी :
हो सकता है, तुम्हें बहुत दु:ख हुआ हो... उसके लिए क्षमा चाहता हूँ... मैं कह रहा था, आजाद भारत में तुम्हारा भविष्य उन लोगों के साथ है जो मुझे छोड़
चुके हैं, क्या तुम उनके पास जाना नही पसंद करोगे?
प्यारेलाल :
बापू, इस बात को यही बंद कर दिया जाए तो अच्छा है...।
(मंच पर बावनदास आता है। उसने भूदानी झोला कंधे से लटका रखा है। चेहरे पर बेतरतीब दाढ़ी है, सिर पर अँगोछा बाँध रखा है। वह आते ही गांधी के पैर छूता है।
गांधी उसे इस तरह देखते हैं जैसे पहचान नहीं पाए हों।)
बावनदास :
आप हमें चीन्हे नहीं न?
गांधी :
तुम्हारा नाम क्या है?
बावनदास :
अब देखिए, हम कुल बात बताते हैं... थोड़ा दम लेने दीजिए... हम बड़ी दूर से... चला आ रहा हूँ।
प्यारेलाल :
अपना नाम बताइए न?
बावनदास :
हम आपको नहीं चीन्हते... आपको अपना नाम न बताएँगे। गान्ही बाबा को चीन्हते हैं... बाबा हमारा नाम बावनदास है। कुछ चेत में आया?
गांधी :
हाँ, कुछ याद तो आता है।
बावनदास :
ध्यान करें बाबा, आप पूर्णिया गए थे न? पटना के सिरी बाबू के साथ। उधर भाखन हुआ था आपका... उधर मैं था... ध्यान आया होगा?
गांधी :
हाँ-हाँ ठीक है... कैसे आए हो?
बावनदास :
बाबा हम आपके ऊपर हमला की खबर सुना तो नहीं आए... पर जब सुना, बाबा गान्ही कांग्रेस छोड़ दिए हैं तो हम आ गया... हम भी कांग्रेस छोड़ दिया है... आपसे पहले
छोड़ दिया है।
गांधी :
क्यों?
बावनदास :
रोज सपने में आता था कि भारत माता रो रहा है... रोज सपने में आता था। उधर पूर्णिया में बिरंचीलाल है न? वही जो पिकेटिंग वाले भोल्टियरों को पुलिस बुलाता था।
हमें उसका लठैत और पुलिस डंडा, जूता से मारता था, वही विरंचीलाल कांग्रेस का जिला अध्यक्ष बना है। भोई पटवारी है... भोई जेल है... भारतमाता रोता है। तो हम
कांग्रेस छोड़ दिया।
गांधी :
अब क्या करोगे?
बावनदास :
वही जो बाबा आप करोगे।
गांधी :
बावनदास... मैं वहाँ जा रहा हूँ जहाँ से तुम आ रहे हो।
बावनदास :
हम तो कह दिए हैं... जहाँ बाबा आप जाओगे, उधर ही मैं।
(मंच पर सुषमा, निर्मला देवी और नवीन आते हैं। वे अपना-अपना सामान भी उठाए हुए हैं। सामान रख कर सुषमा गांधी के पैर छूती है। नवीन भी छूता है। निर्मला
देवी नमस्ते करती है।)
गांधी :
(निर्मला देवी से)
आप कौन हैं बहन जी?
निर्मला देवी :
मैं जी, इसकी माँ हूँ... ये लड़की जो मेरी है... इसे छोड़ कर मेरा कोई और ना है, ये बोली तुम्हारे साथ जा रही है। अब सोचो, मैं अकेले घर में क्या करती?
मैंने कहा, चल मैं भी चलती हूँ। बाबा के साथ मैं भी आश्रम में रहूँगी। अब देखो जी, मैं पढ़ी-लिखी तो ना हूँ। पर घरबार का काम जानती हूँ। सुषमा ने बताया था
कि तेरे पास एक बकरी है तो मैं तेरी बकरी का पूरा ध्यान रख सकती हूँ वैसे रोटी-वोटी भी डाल लेती हूँ - बैठ के ना खाऊँगी... सो।
गांधी :
(कुछ घबरा कर) ठीक है... और तुम (नवीन से) क्या नाम है तुम्हारा...
नवीन :
नवीन जोशी।
गांधी :
हाँ तुम तो दिल्ली कॉलेज में पढ़ाते हो।
नवीन :
जी... जी... लेकिन... बापू।
गांधी :
मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ नवीन कि तुम जो काम कर रहे हो, वही करते रहो।
नवीन :
बापू... मैं तो आपके साथ...।
गांधी :
(बात काट कर
) पूरा देश मेरे साथ काम नहीं कर सकता। तुम अभी यहीं रहो। अगर तुम्हारी जरूरत महसूस होगी तो मैं तुम्हें आश्रम में बुला लूँगा।
(प्रकाश कम हो जाता है)
(मंच के एक कोने में नवीन और सुषमा खड़े हैं। उन पर ही प्रकाश पड़ रहा है।)
नवीन :
देखा तुमने, वही हुआ जिसका डर था।
सुषमा :
अब मैं क्या बताऊँ? आप आते रहिएगा।
नवीन :
पर ये जा कहाँ रहे हैं।
सुषमा :
अभी तक तो बताया नहीं।
नवीन :
सुनो सुषमा... तुम न जाओ।
सुषमा :
ये आप क्या कह रहे हैं? मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना पूरा होने जा रहा है। मैं बापू की महानता के किस्से सुन-सुन कर बड़ी हुई हूँ। वे देवता हैं, भगवान का
अवतार हैं।
नवीन :
तो तुम मुझे छोड़ रही हो?
सुषमा :
ये किसने कहा... आपको मैंने अपना सब कुछ दे दिया है... आपके अलावा है कौन?
सीन-5
(मंच पर अँधेरा है। उद्
घोषणा शुरू होती है।)
उद्
घोषणा :
न सिर्फ यह कि नाथूराम गोडसे के मुकदमे में गांधी अदालत में बयान देने नहीं गए बल्कि उन्होंने अदालत को लिख कर दे दिया कि उन्होंने गोडसे और उसके साथियों
को माफ कर दिया है। इसका नतीजा ये निकला कि मुकदमा कमजोर पड़ गया। गोडसे के इकबाल-ए-जुर्म के बावजूद अदालत ने गोडसे को पाँच साल, नाना आप्टे को तीन साल, और
करकरे को दो साल की सजा सुनाई। शंकर किस्तैया, गोपाल गोडसे, सावरकर, डॉक्टर परचुरे और बागड़े को रिहा कर दिया गया।
(धीरे-धीरे प्रकाश आता है। जेल में नाथूराम गोडसे और नाना आप्टे बैठे हैं। गोडसे गीत का पाठ कर रहा है।)
नाथूराम :
य एनं वेत्ति हंतारं यश्रेनं मन्यते इतम्।
उमौ तौ न विजानीतो नायं हंति न हन्यते।।
बहुत स्पष्ट ढंग से गीता ने आत्मा और शरीर के
संबंध को स्पष्ट किया है...
न जायते म्रियते वा कदचित्रायं
भूत्वा भविता वा न भूय: अजो नित्य...
(विष्णु करकरे दूर से 'नाथूराम' चिल्लाता हुआ, हाथ में
अखबार लिए मंच पर आता है)
करकरे :
नाथूराम... देखा तुमने
नाथूराम :
क्या करकरे...।
करकरे :
ये देखा... गांधी ने कांग्रेस छोड़ दी है।
(नाथूराम और नाना अखबार देखते है।)
नाथूराम :
सब पाखंड है... गांधी तो सदा झूठ बोलता ही रहा है। उसकी किसी बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
नाना :
क्या छापा है... दिखाओ।
(तीनों अखबार पढ़ते हैं।)
नाथूराम :
गांधी तो पूरा पाखंडी है। कांग्रेस छोड़ दी... अरे वह तो कांग्रेस का मेंबर तक नहीं था।
करकरे :
पर अखबार में झूठ कैसे छप सकता है।
नाथूराम :
गांधी ने कभी सच बोला है? कहा करता था पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा। लेकिन देखा क्या हुआ। पाकिस्तान का पिता जिन्ना नहीं, गांधी है। हिंदुओं का जितना
अहित औरंगजेब ने न किया होगा, उससे ज्यादा गांधी ने किया है... पवित्र भूमि पर इस्लामी राष्ट्र का निर्माण उसकी ही नीतियों के कारण हुआ है।
(नाथूराम उठ
कर बेचैनी से टहलने लगता है। उसके चेहरे पर पीड़ा और क्रोध दिखाई पड़ता है। लगता है वह बहुत भावुक हो गया है। वह धीरे-धीरे पर बड़े ठहरे हुए ढंग से
बोलता है।)
नाथूराम :
नाना, अपने को असहाय समझने, अपमानित होने और निष्क्रिय बौद्धिकता की एक सीमा है... जब मुझे लगा था कि एक आदमी है... हमारे-तुम्हारे जैसा आदमी... वह इतना
शक्तिशाली है कि जूरी भी वही है, जज भी वही है। मुकद्दमा दायर वही करता है, सुनता भी वही है और फैसला भी वही सुनाता है... और सारा देश उसका फैसला मान लेता
है... और यह सब होता है हमारी कीमत पर... मतलब हिंदुओं की कीमत पर नाना, यह देश हमारा है... पवित्र मातृभूमि है... हमारी कीमत पर मुसलमानों को सिर पर चढ़ाना
इतना अपराध है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। गांधी यही करता रहा है... शुरू से, खिलाफत आंदोलन से ले कर पाकिस्तान बनने तक... यही वजह थी कि मुझे अपना
जीवित रहना अर्थहीन लगने लगा था... हिंदुत्व के लिए, मातृभूमि के लिए, हजारों साल की संस्कृति के लिए क्या एक आदमी, मेरे जैसे तुच्छ आदमी, अपना बलिदान
नहीं दे सकता? क्या पूरी हिंदू जाति नपुंसक हो गई है। गुरू जी ने कहा था कि गांधी ने अपनी उम्र जी ली है तब मुझे लगा था कि यही समय है, यह निकल गया तो
हमेशा हाथ मलते रह जाएँगे। यह मातृभूमि और हिंदू जाति के लिए मेरी तुच्छ सेवा होगी जिसे कानूनी तौर पर चाहे अपराध माना जाए लेकिन ईमानदारी से इतिहास
लिखनेवालों के लिए यह एक स्वर्णिम अध्याय होगा... समझे तुम।
नाना :
तुम महान हो... गोडसे।
गोडसे :
ये बकवास है नाना... कोरी बकवास... मैं अपने उद्देश्य को पूरा न कर सका... तुम अनुमान लगा सकते हो कि मेरे मन में कैसी ज्वाला धधक रही है?
सीन-6
(मंच पर अँधेरा है)
उद्
घोषणा :
बिहार में राँची से पुरूलिया जानेवाले सड़क पर धमहो से 13 किलोमीटर दूर बेतिया जनजाति के सांगी गाँव में गांधी ने आश्रम बनाया।
(धीरे-धीरे प्रकाश आता है। गांधी तथा अन्य, आश्रम के लिए अलग-अलग तरह के काम करते दिखाई पड़ते है। मंच पर पत्रों का आना-जाना तथा गतिविधियाँ होती रहती हैं
और उद् घोषणा चलती रहती है) दिल्ली में कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता बापू को भूले नहीं हैं। उन्हें पता चलता रहता है कि बापू कहाँ हैं और और क्या कर रहे
हैं। उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री श्री बाबू को निर्देश दे रखे हैं कि धुर आदिवासी गाँव में जहाँ पहुँचने के लिए 13 मील पैदल चलना पड़ता है, वहाँ बापू के
लिए जो भी साधन जुटाए जा सकते हों, जुटाए जाएँ... इधर आश्रम में गांधी ओर उनके सहयोगी नगपुरिया बोली सीख रहे हैं, गांधी के आदेश से सबने वही कपड़े पहनने
शुरू कर दिए हैं जो दूसरे आदिवासी पहनते हैं। गांधी ने पहला काम ये बताया कि आरम वाले खेती-किसानी में गाँव वालों की मदद करें...
(उद्
घोषणा के दौरान मंच पर संबंधित गतिविधियाँ दिखाई देती रहती हैं। उद्घोषणा जारी रहती है।)
... सुषमा गाँव की दूसरी लड़कियों के साथ चिमकौली जमा करने जंगल चली जाती है... निर्मला देवी पर रसोईघर की जिम्मेदारी है... बावनदास गांधी जी की मदद करते
हैं... प्रार्थना सभा में आनेवालों की संख्या बढ़ रही है...
(मंच पर प्रार्थना सभा हो रही है। सब भजन गा रहे हैं।)
...रघुपति राघव राजाराम...
(सभा में तीन अजनबी आकर बैठ जाते हैं। भजन खत्म होता है तो एक अजनबी गांधी जी के पास आता है।)
रामनाथ :
(नमस्ते करता है)
... गांधी जी मेरा नाम रामनाथ है, मैं इस जिले का डिप्टी कमिश्नर हूँ...
गांधी :
बैठिए... और आप लोग?
रामनाथ :
जी... ये... जिले के इंजीनियर है और आप जिले एसपी हैं।
गांधी :
बेठिए... बताइए... क्या बात है...
रामनाथ :
शासन का आदेश है...
गांधी :
(बात काट कर)
अगर आदेश है तो मेरे पास क्यों आ गए... जो आदेश है वैसा करना चाहिए।
रामनाथ :
आदेश ये हे कि आपकी सहमति से...
गांधी :
(बात काट कर)
क्या किया जाए?
रामनाथ :
सबसे पहले तो गाँव में दो हैंडपंप लगाने की योजना है।
गांधी :
ये हैंडपंप क्या होता है?
रामनाथ
: जी... ? मतलब...
गांधी :
हैंडपंप क्या होता है?... उसमें क्या खराबी हो सकती है?... उसकी देख भाल कैसे की जाएगी... ये सब आप पहले गाँव वालों को बताओ और उसके बाद हैंडपंप लगाओ...
रामनाथ :
सर, हम लोग उनकी भाषा नहीं जानते।
गांधी :
भाषा नहीं... जानते... तो सीख लो...
रामनाथ :
जी?
गांधी :
हाँ... बिना भाषा जाने इनका विकास कैसे करोगे?
रामनाथ :
जी... हाँ... ठीक कहते हैं... शासन यह भी चाहता है कि यहाँ तक टेलीफोन लाइन डाल दी जाए...
गांधी :
क्यों?
रामनाथ :
जी... जी... मतलब बातचीत करने में इजी हो ताएगा... मैं यहाँ पर टेलीफोन पर बातचीत करने तो आया नहीं हूँ... जिसे मुझसे बातचीत करनी हो... यहाँ आकर करे... और
फिर... सिर्फ मेरे लिए शासन इतना पैसा क्यों खर्च करना चाहता है?
रामनाथ (नोट्स लेते जाते हैं)... महात्मा जी... यहाँ से गाँव में पुलिस चौकी...
गांधी :
पुलिस चौकी? क्यों? किसलिए?
रामनाथ :
हिफाजत... सुरक्षा के लिए।
गांधी :
किसकी सुरक्षा?
रामनाथ :
ज... ज... जी... आपकी...
गांधी :
मेरी सुरक्षा?... क्या मजाक है... मुझे यहाँ कोई खतरा नहीं है...
रामनाथ :
जी... मतलब... अच्छा रहेगा... प्रशासन गाँव में...
गांधी :
गाँव में, गाँव वालों का अपना प्रशासन है।
रामनाथ :
अपना प्रशासन?
गांधी :
हाँ... इनकी अपनी सुरक्षा है, अपने सिपाही हैं, अपनी अदालत है...
रामनाथ :
जी... ये कैसे?
गांधी :
तुम्हें ये सब समझाने का समय नहीं है मेरे पास... अब जाओ।
रामनाथ :
एक और बात करनी है महात्मा जी।
गांधी :
हाँ... बताओ...
रामनाथ :
(एक चपरासी)
थैले इधर लाओ...
(चपरासी दो बड़े-बड़े थैले सामने लाता है। रामनाथ के इशारे पर गांधीजी के सामने रख दिए जाते हैं।)
रामनाथ :
ये आपकी डाक है... चिट्ठियाँ हैं... जो पूरे देश के डाकखानों से यहाँ रि-डायरेक्ट कर दी गई हैं।
गांघी :
धन्यवाद... चिट्ठियाँ लाने के लिए।
रामनाथ :
नियरेस्ट पोस्ट ऑफिस यहाँ से 20 मील दूर है। अब वहाँ से वीक में एक बार आपके पास डाक आया करेगी...
गांधी :
बहुत अच्छा...
रामनाथ :
और किसी चीज की जरूरत... ?
गांधी :
नहीं... यहाँ सबकुछ है... नमस्ते।
(तीनों अधिकारी और चपरासी चले जाते हैं। गांधीजी चिट्ठियों का बैग खेल लेते हैं। उन्हें एक रंगीन लिफाफे में एक पत्र दिखाई प्रड़ता है। उसे उठा कर
पढ़ते हैं।)
गांधी :
सुषमा शर्मा, केयर ऑफ महात्मा गांधी, राँची बिहार।
(लिफाफा खोलते हैं। लाल रंग के कागज का खत है। गांधी उसे पढ़ते हैं।
)
गांधी :
(चिट्ठी पढ़ते हैं)
... मेरी जान से प्यारी सुषमा, तुम्हें हजारों... प्यार... तुम्हारे चले जाने के बाद कई दिन तक तो मैं होश में ही नहीं रहा... अब लगता है कि यह सहन नहीं
कर पाऊँगा। माफ करना मुझे, मुझे लगता है कि हमारे प्रेम के बीच महात्मा जी आ गए हैं।
(गांधी की आवाज भारी होती है और चिट्ठी पढ़ना बंद कर देते है
)
गांधी :
(आवाज देते हैं)
सुषमा... सुषमा।
(सुषमा आती है)
गांधी :
सुषमा तुम अपना सामान बाँधो और आश्रम से चली जाओ...
सुषमा :
(घबरा कर)
क्यों... क्यों बापू क्यों?
गांधी :
तुमने आश्रम का अनुशासन भंग किया है... लगता है ये मेरे ही पाप हैं जो मेरे सामने आ रहे हैं... यहाँ ब्रह्मचर्य पालन करने के लिए भगीरथ प्रयास किए जा रहे
हैं... यहाँ गंदगी, सड़न, कुविचार, काम के लिए लालसा... मैं इतनी गंदगी में नहीं जी सकता... न मैं दूसरों को इस नरक में रखना चाहता हूँ... तुमने मर्यादा को
भंग किया है... तुम्हें प्रायश्चित करना पड़ेगा...
(चिट्ठी दिखाते हैं। सुषमा समझ जाती है।)
सुषमा :
मैं प्रायश्चित करने के लिए तैयार हूँ बापू।
गांधी :
तैयार हो...
सुषमा :
जी।
गांधी :
हृदय से नवीन को अपना भाई या पिता मान सकती हो?
सुषमा :
(रोते हुए)
ये क्या है बापू...
गांधी
: तुम्हारे मन में काम की ज्वाला जल रही है... तुम आश्रम में रहने योग्य नहीं हो... तुम्हारे मन में विकार है...
सुषमा :
नहीं... बापू नहीं... एक मौका मुझे दीजिए बापू... एक मौका...
गांधी :
चलो ठीक है, पाप की दौड़ लंबी नहीं होती।
सीन-7
(मंच पर अँधेरा है।)
उद्
घोषणा :
पुणे के समाचार पत्र हिंदू भारत ने नाथूराम गोडसे को हिंदू हृदय सम्राट की उपाधि दी है। हिंदू महासभा के वार्षिक अधिवेशन में नाथूराम कोष बनाने की योजना
पारित हुई है। जेल के बाहर गोडसे से मिलनेवालों की भीड़ लगी रहती है।... गोडसे के प्रशंसक लगातार पत्र भेजते रहते हैं। कई शहरों की हिंदू जनता ने गोडसे को
प्रशस्ति-पत्र भी भेजे हैं। गोडसे हिंदुत्व का प्रतीक बन गया है।
(धीरे-धीरे मंच पर रोशनी होती है। गोडसे और करकरे अखबार पढ़ रहे हैं।)
करकेर :
ये गांधी क्या कर रहा है, समझ में नहीं आता।
गोडसे :
(लापरवाही से)
यह सब मजाक है करकरे... गांधी ने हर काम इसी तरह किया है।
करकरे :
लेकिन सरकार से इस तरह का व्यवहार करना तो कठिन है।
गोडसे :
सरकार किसकी है? उसी की सरकार है, वही सबसे बड़ा मुखिया है...
करकरे :
गांधी की लोकप्रियता... भी बढ़ रही है... आदिवासी क्षेत्र में स्वराज का काम फैल रहा है...
गोडसे :
तुम भ्रम में हो करकरे... सच्चाई कुछ और है...
(नाना आप्टे कुछ चिट्ठियाँ और एक पैकेट लिए मंच पर आते हैं।
)
नाना :
(गोडसे को चिट्ठियाँ देते हुए)
... तुम्हारी डाक दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है...
करकरे :
इस पैकेट में क्या है?
गोडसे :
लो खोल कर देख लो।
(करकरे पैकेट खोल कर देखता है।
)
नाना :
अरे ये तो स्वेटर है...
करकरे :
ये पत्र भी है... देखो
(करकरे पत्र गोडसे को दे देता है।
)
गोडसे :
(पढ़ता है)
परम पूजनीय हिंदू हृदय सम्राट महामना श्री नाथूराम गोडसे जी...।
(रूक जाता है।)
नाना :
पढ़ो-पढ़ो, क्या लिखा है?
गोडसे :
लो, तुम ही पढ़ो।
नाना :
शहर की समस्त हिंदू स्त्रियों की ओर से चरण स्पर्श... करने के बाद निवेदन है कि जाड़ा आ रहा है और सर्दी से बचने के लिए हमारी छोटी-सी भेंट स्वीकार...
करकरे :
(बात काट कर)
कमाल है गोडसे तुम्हारी लोकप्रियता आकाश छू रही है।
नाना :
गोडसे जब तुम अदालत में बयान दिया करते थे तो मैंने लोगों की आँखों से टप-टप आँसू बहते देखा हैं। लोग इतना प्रभावित और द्रवित हो जाते थे कि रोते थे...
गोडसे :
इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं नाना... मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूँ... मेरे पास कॉलिज क्या, स्कूल तक का कोई प्रमाण-पत्र नहीं है... लेकिन मुझे
श्रद्धा करनेवाले हजारों-लाखों हैं। क्योंकि हिंदुत्व की रक्षा ही मेरा जीवन है।
करकरे :
वार्डर बता रहा था कि नौजवान तुम्हारी एक झलक पाने के लिए जेल के चक्कर लगाया करते हैं।
गोडसे :
गुरूजी का आशीर्वाद है... यह उनका ही दिखाया हुआ रास्ता है। उन्होंने साफ शब्दों में मुझसे कहा था कि हिंदू हितों की उपेक्षा करनेवाले देश शत्रु है और
शत्रु को मित्र नहीं समझना चाहिए... पर दुख की बात है कि मैं अपना काम पूरा नहीं कर सका।
नाना :
नाथूराम, दुख मत करो... भगवान तुम्हें अवसर देगा। न्याय होकर रहेगा। और यह अच्छा है कि गांधी सत्ता से दूर चला गया है। लगता है अब कांग्रेस में उसका वह
स्थान भी नहीं है जो पहले हुआ करता था।
गोडसे :
कुछ हो या न हो... गांधी भारत विभाजन का अपराधी है और भारत विभाजन को तुम क्या समझते हो नाना... यह हमारे धर्म, इतिहास और आस्था का विभाजन है।... और सुनो
विभाजन के बाद असंख्य हिंदुओं की हत्या करने और बाकी हिंदुओं को पाकिस्तान से भगानेवाले मुसलमानों से गांधी की सरकार ने कहा - आप लौट आइए... हमारा देश धर्म
निरपेक्ष है, आप कैसा भी व्यवहार क्यों न करें हम तो आप से भला ही व्यवहार करेंगे... आपको मारने के लिए कोई हाथ उठाएगा तो उसका पूरा नाश करने के लिए हमने
सेना को तैयार कर लिया है। हमारी बंदूक आपके ऊपर कभी नहीं तनेगी क्योंकि उसमें हिंसा होने का भय है...
नाना :
इसी को गुरुजी मुस्लिम तुष्टिकरण कहते हैं...
गोडसे :
हाँ... बिलकुल ठीक कहते हो, लेकिन इतिहास का चक्र घूम चुका है।
सीन-8
(मंच पर अँधेरा है।)
उद्
घोषण :
(नेहरू की आवाज में)
डियर बापू
आप कैसे हैं? आप इतनी दूर चले गए कि खत या तार तक आपके प्रयोग आश्रम में देर से पहुँचते हैं। श्री बाबू ने हमें बताया था कि आपने टेलीफोन लाइन लगाने की
इजाजत नहीं दी है। इस बात पर हैरान था क्योंकि इससे पहले आपने जितने आश्रम बनवाए थे वहाँ टेलीफोन था। बहरहाल मुझे ही नहीं पूरे मुल्क को आपकी कमी खटकती
रहती है। आप हमेशा हमारे लिए इंस्पिरेशन का सोर्स रहे हैं और आपके मशविरे से हम लोगों ने अच्छा काम किया है...
(धीरे-धीरे रोशनी आती है। गांधी हाथ में खत पकड़े पढ़ रहे हैं। सामने श्री बाबू और दो-तीन कांग्रेसी बैठे हैं।)
आप बिहार में जो कर रहे हैं उसकी जानकारी श्री बाबू से मिलती रहती है। मुझे बताया गया कि पंचायतें बहुत एक्टिव हो गई हैं और उन्होंने एडमिनिस्ट्रेशन का
पूरा काम सँभाल लिया है। अदालतें, पुलिस और सिविल एडमिनिस्ट्रेशन का रोल बहुत कम रह गया है। ये खुशी की बात है कि जनता अपने ऊपर खुद हुकूमत कर रही है आपने
गाँव के लोगों को जोड़ कर डेवलपमेंट के जो काम किए हैं, उसकी भी मुझे पूरी खबर है। हम चाहते थे कि पिछले साल आप प्लानिंग कमीशन की मीटिंग में आते, लेकिन
किसी वजह से आप नहीं आ पाए... अब इस साल जनरल इलेक्शन होने जा रहे हैं, इसमें हम सब, अपकी मदद चाहते हैं। बिहार के चीफ मिनिस्टर श्री बाबू ये खत लेकर आपके
पास आ रहे हैं...
(गांधी खत रख देते हैं। सामने बैठे श्री बाबू से)
गांधी :
नेहरू की चिट्ठी ले कर तुम इतने दूर क्यों आए श्री बाबू... भिजवा दी होती।
श्री बाबू :
मैं भी आपके दर्शन करना चाहता था। कई साल हो गए थे आपको देखे... फिर पंडित जी की सख्त हिदायत थी कि चिट्ठी आपके हाथ में दी जाए।
गांधी :
ठीक है... अच्छा है आ गए। तुम्हे देख कर चंपारण सत्याग्रह की याद आ गई।
श्री बाबू :
मुझे तो उसके पहले की याद आई है बापू... 1916 में बनारस के हिंदू कॉलेज में आपका भाषण...
गांधी :
हाँ, बहुत समय बीत गया... और क्या कहा है जवाहर ने?
श्री बाबू :
चुनाव में सहयोग देने की अपील की है।
गांधी :
चुनाव में कांग्रेस को वोट देने की बात तो मैं कर ही नहीं सकता... क्योंकि तुम जानते हो मैं कांग्रेस के पक्ष में नहीं हूँ।
श्री बाबू :
बापू, आप जानते है मैं भी कई मुद्दों पर अलग ढंग से सोचता हूँ... पंडित जी से चिट्ठी-पत्री होती रहती है... लेकिन बापू... आज के हालात में... एक मजबूत सरकार
जरूरी है। चुनाव में आपका... समर्थन मिलना ही चाहिए।
गांधी :
(बात काट कर)
देखो, जहाँ तक चुनाव की बात है... इस क्षेत्र में... मतलब चार जिलों में चुनाव हो गए हैं।
श्री बाबू :
(आश्चर्य से) जी... ये कैसे बापू?... अभी तो... कम-से-कम तीन महीने हैं...
गांधी :
यहाँ चुनाव हो चुके हैं।
श्री बाबू :
मैं संसद के चुनाव की बात कर रहा हूँ।
गांधी :
मैं भी संसद के चुनाव की बात बता रहा हूँ।
श्री बाबू :
लेकिन... बापू देश में संसद का चुनाव तो अगले साल अप्रैल में होना है।
गांधी :
लेकिन यहाँ हो गए हैं... सरकार भी बन गई है... और देखो... बावनदास... यहाँ का (बावनदास सामने लकड़ी चीर रहा है।)... प्रधानमंत्री बना है।
श्री बाबू :
बापू... एक देश में दो सरकारें कैसे हो सकती है?
गांधी :
एक देश में दस सरकारें हो सकती हैं... क्या कठिनाई है?... तुम अपनी सरकार चलाओ... यहाँ के लोग अपनी सरकार चलाएँगे... यही तो हमारी संस्कृति है... बिहार का
इतिहास तुम ज्यादा जानते हो...
श्री बाबू :
दो सरकारों में टक्कर होगी न?
गांधी :
क्यों? सरकारें एक-दूसरे से टकराने के लिए थोड़ी बनती हैं।
(बावनदास आ जाता है।)
गांधी :
(बावनदास से)... तुम्हारे मंत्री अभी क्या काम कर रहे हैं?
बावनदास :
अभी... सब कुँआ खोद रहा है... पचास गाँव में... सौ कुँआ खोदने का है...
गांधी :
श्री बाबू को पहचानते हो बावनदास...
बावनदास :
अच्छी तरह चीन्हते हैं... पटना में श्री बाबू के साथ जेल भी गया हूँ... सेवादल में रहा हूँ...
गांधी :
(श्री बाबू से)...
ये सब तुम्हारे लोग हैं...
श्री बाबू :
(पुराने प्रसंग में लौटने का प्रयास करते हुए)... तो मैं क्या करूँ बापू?
गांधी :
नेहरू को बता दो... कि यहाँ तुम्हारे चार जिलों में सरकार बन चुकी है... उसके साथ सहयोग करने की अपील है...
सीन-9
(मंच पर अँधेरा है।)
उद्
घोषणा :
''इश्क पर जोर नहीं, है ये वो आतिश 'गालिब' जो लगाए न लगे और बुझाए न बुझे।
सुषमा ने तो गांधी जी से माफी तो माँग ली थी लेकिन इश्क के तूफान को रोकना तो हथेली पर सरसों जमाना है। सुषमा रात-दिन नवीन की याद में तड़पने लगी और एक दिन
उसने अपने दिल लिफाफे में बंद कर दिया... अब चिट्ठियाँ आश्रम के पते पर नहीं... बल्कि किसी और पते पर आती-जाती थीं... और फिर एक दिन अपने माथे पर डाक टिकट
चिपका कर नवीन प्रयोग आश्रम के पीछे वाले जंगल में पहुँच गया...'।
(धीरे-धीरे प्रकाश होता है। नवीन झाड़ियों और पेड़ों के बीच से चुपचाप, लुकता-छिपता आगे बढ़ रहा है। कहीं रुक कर आहट लेने लगता है और कहीं जल्दी आगे
बढ़ जाता है... उसे सुषमा की धुँधली सी छाया दिखाई पड़ती है। वह उधर बढ़ता है।) (गायन शुरू होता है।)
'हुस्न-ओ-इश्क की आग में अकसर छेड़ उधर से होती है। शम्मा का शोला जब लहराया, उड़ के चला परवाना भी।'
(नवीन और सुषमा गले लग जाते हैं। सुषमा लगातार रोती है। नवीन उसे थपथपाता है। कुछ क्षण बाद दोनों अलग होते हैं।) (गायन खत्म होता है।)
नवीन :
यह बर्दाश्त से बाहर हो गया है सुषमा...
सुषमा :
मैं क्या करूँ नवीन, उलझन से मेरा दम निकल जाता है... मैं बापू को नहीं छोड़ सकती... मैं बचपन से बापू के सपने देखते-देखते... यहाँ पहुँची हूँ और... तुम
मेरे प्यार हो...
नवीन :
सुषमा : सुषमा... तुम जो कहो... जो करो... सब ठीक है... लेकिन किसी तरह से बापू को समझाओ... ये मेरी जिंदगी और मौत का सवाल है...
(पीछे से गांधी आ जाते हैं और छिप कर इन दोनों की बातचीत सुनने लगते हैं।)
सुषमा :
बापू को पता चल गया है... अब बात करने का उल्टा ही असर होगा।
नवीन :
क्या पता चल गया है?
सुषमा :
यही कि हम दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हैं।
नवीन :
अरे, तो कौन-सा पाप या जुर्म है...
सुषमा :
बापू आदमी और औरत के प्रेम को विकार मानते हैं, पाप मानते हैं... वासना मानते हैं।
नवीन :
ये तो कोई बात नहीं हुई । दुनिया में आज तक जिन लोगों ने प्यार किया है क्या उन सबके संबंध वासना, विकार और पाप थे? ये कैसे हो सकता है सुषमा...
सुषमा :
मैं क्या करूँ। कुछ समझ में नहीं आता...
(गांधी पीछे से निकल आते हैं।)
गांधी :
मैं समझ सकता हूँ तुझे, सुषमा... तू आराम से चली जा... वही कर जो नवीन कह रहा है... संयम से रहना तेरे बस की बात नहीं है... तेरी आँखों पर वासना की काली
पट्टी चढ़ी है।
(सुषमा रोने लगती है। नवीन आश्चर्य और गुस्से से गांधी को देखता है।)
गांधी :
सुषमा, तू यह जानती है कि मैं ब्रह्मचर्य का उपासक हूँ... उसके बाद भी... तू अपने बिस्तर में साँप देख कर खामोश रही और तूने...।
नवीन :
(बात काट कर)
गुस्से में) महात्मा जी... जो आप नहीं कर सके, उसकी तालीम दूसरों को क्यों दे रहे हैं।
गांधी :
तुमसे तो मैं बात भी नहीं करना चाहता... तुम मेरे लिए, बाहर से आए 'चोर' के समान हो।
(
'
बापू
'
,
'
बापू
'
की आवाज लगाता, हाथ में लालटेन लिए बावनदास आता दिखाई पड़ता है। उसके पीछे निर्मला देवी भी हैं। ये लोग गांधी के पास पहुँचते हैं।
)
बावनदास :
हम तो सारे में आपको खोज रहा थ। ऐसे रात, यहाँ काहे आ गए?
(गांधी खामोश रहते है। निर्मला देवी नवीन को देखती है।)
निर्मला देवी :
अरे तू कब आया रे... यहाँ क्यों खड़ा है?
(नवीन कुछ नहीं बोलता।)
गांधी :
(नवीन से)...
बहुत मजबूरी में ही मैंने तुम्हारे लिए चोर जैसा भारी शब्द बोला है... मैं मजबूर हूँ... मेरे सिद्धांत, मेरा जीवन हैं। (निर्मला देवी से) यह छिप कर आया
है... इसके मन में विकार है, यह सुषमा से मिलने आया है...
निर्मला :
सुषमा से मिलने तो यह हमारे घर भी आता था, विकार... कैसा बापू...
गांधी :
स्त्री और पुरुष को एकांत में नहीं मिलना चाहिए।
निर्मला :
क्यों?
गांधी :
मन में विकार आता है... पाप की ओर आकर्षण होता है...
निर्मला :
जिनका होता होगा, उनका तो ठीक है... जिनका नहीं होता... उनका क्या है?
गांधी :
विकार सबके मन में होता है।
निर्मला :
अरे, मैं तुमसे मिलती हूँ तो क्या मेरे या तेरे मन में विकार है... पाप है?
गांधी :
नहीं... पर छिप कर मिलने में है... ये दोनों छिप कर मिल रहे थे।
निर्मला :
अरे, तो जब खुले में न मिलने दिया जाय तो छिप कर ही मिलेंगे...
गांधी :
नियमों-सिद्धांतों को छोड़ कर जीवन आदमी को शोभा नहीं देता है। औरत और मर्द का जनम ब्रह्मचर्य पालन करते हुए परमात्मा में मिल जाना है।
निर्मला :
अरे बापू, तू एक बात बता, सभी साधू-संत हो जावेंगे तो संसार कैसे चलेगा?
गांधी :
संसार चलाने के लिए, परमात्मा के काम में दखल देना... हमारा काम नहीं है।
नवीन :
बापू, हम लोग एक-दूसरे से प्रेम करते हैं...
गांधी :
प्रेम वासना के अलावा कुछ नहीं है और अगर है तो उसमें त्याग और आध्यात्मिकता दिखाई देनी चाहिए... तुम्हारा प्रेम, मुझे सच्चा नहीं लगता... प्रेम में
'छिपाव' का भाव, उसे वासना और भोग के करीब ले जाता है।
निर्मला :
अरे महात्मा, मेरी बात सुन... ये दोनों शादी करना चाहते हैं... कर लेने दे।
गांधी :
विवाह भोग के लिए नहीं, संयम के लिए है। ब्रह्मचर्य ही आदर्श विवाह है।
निर्मला :
महात्मा हो के तू कैसी बातें कर रहा है... उल्टी गंगा बहा रहा है। चल ठीक है... ऋषि-मुनि, साधु-महात्मा घर-बार नहीं करते तो ठीक है... भगवान से लौ लगाते
हैं पर ये तू क्या कह रहा है... आदमी और औरत एक-दूसरे के लिए नहीं तो क्या आदमी और जानवर एक-दूसरे के लिए बने हैं?
नवीन :
बापू... क्या आप मुझे आश्रम में अनुमति दे सकते हैं...
गांधी :
नहीं।
नवीन :
किसी शर्त पर नहीं?
गांधी :
तुम्हे सुषमा को अपनी सगी बहन मानना होगा... वो तुम्हें सगा भाई स्वीकार करे... तुम दोनों एकांत में नहीं मिलोगे... बात नहीं करोगे... किसी तरह का कोई
इशारा नहीं... कोई चिट्ठी-पत्री नहीं... लड़कियों के लिए... आदर्श अखंड ब्रह्मचर्य होना चाहिए... उसी में आदर्श विवाह समाया हुआ है।
नवीन :
आप यह जानते हुए ऐसा कह रहे हैं... कि हम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं।
गांधी :
संयम के बिना मनुष्य पशु है... मैं दृढ़ता से अपनी बात पर टिका हुआ हूँ।
नवीन :
ठीक है बापू, मैं जा रहा हूँ... देवदास और लक्ष्मी को आपका आर्शीवाद मिल सकता है,। मुझे नहीं... क्योंकि देवदास आपका पुत्र है... मैं नहीं... मैं जा रहा
हूँ...
(नवीन जाने लगता है।)
गांधी :
ठहरो... अपने प्रश्न का उत्तर सुनते जाओ... मैं यह नहीं चाहता कि 'प्रयोग आश्रम' से कोई असंतुष्ट जाए... देवदास और लक्ष्मी ने प्रेम के लिए त्याग किया
था। बोलो तुम कर सकते हो... पाँच साल प्रतीक्षा कर सकते हो... पाँच साल।
नवीन :
पाँच साल नहीं... पचास साल... तक प्रतीक्षा कर सकता हूँ... अब मैं सुषमा से उसी समय मिलूँगा, जब आप बुलाएँगे...
(तेजी से बाहर निकल जाता है। सुषमा फूट-फूट कर रोने लगती है।)
सीन-10
(मंच पर अँधेरा है।)
उद्
घोषणा :
'प्रयोग आश्रम में सुलगाई गई चिंगारी ने आसपास के 25 गाँवों को अपनी आग में समेट लिया। पहली बार लोगों ने अपने को पहचाना... पहली बार अपनी ताकत पर विश्वास
किया... पहली बार अपने लिए लक्ष्य बनाए और उन्हें पूरा किया... पहली बार किसी दूसरी व्यवस्था से सुरक्षा, न्याय और सहायता की माँग नहीं की... ये कोई
छोटी बात नहीं थी... गाँवों के पटवारियों, चौकीदारों से होती-हवाती यह बात जिले और कमिश्नरी और राज्य सरकार से होती सीधे दिल्ली पहुँची और स्वतंत्र भारत
की राजधानी में इस पर विचार हुआ कि देश में एक ऐसा हिस्सा है जो सरकार से कुछ नहीं माँगता। और यह बहुत ही खतरनाक माना गया। संविधान का हवाला देते हुए
दिल्ली से जो चिट्ठियाँ गांधी के पास पहुँची उसके जवाब में गांधी ने लिखा कि यहाँ स्वराज है... जो यहाँ के लोगों ने खुद बनाया है।'
(उद्
ढ
घोषणा समाप्त होती है। मंच पर रोशनी आती है। गांधी चरखा कात रहे हैं। उनकी प्रेस कान्फ्रेंस हो रही है।)
रिपोर्टर-1 :
महात्मा क्या आप नहीं मानते कि जो आप कर रहे हैं, वो देशद्रोह है? गांधी : लोग कभी अपने देश में विद्रोह नहीं करते।
रिपोर्टर-2 :
आप देश के कानून को क्यों नहीं मान रहे हैं?
गांधी :
कानून लोगों के लिए होता है, लोग कानून के लिए नहीं होते।
रिपोर्टर-3 :
क्या आपका ये कहना हे कि कानून जनहित में नहीं है?
गांधी :
जनता अपना हित अच्छी तरह समझती है। कानून अपना हित अच्छी तरह समझता है।
रिपोर्टर-4 :
राजधानी में यह अफवाह है कि शायद, आपको गिरफ्तार कर लिया जाएगा... आपका क्या सोचना है?
गांधी :
मैंने इस पर कभी नहीं सोचा... क्योंकि कभी किसी को गिरफ्तार किया ही नहीं जा सकता।
रिपोर्टर-1 :
आपने कहा कि जल, जंगल, जमीन पर जनता का उतना ही अधिकार है, जितना अपनी जीभ पर है, इसका क्या मतलब है?
गांधी :
हाँ... जैसे जीभ सबकी अपनी होती है... उस पर और किसी का अधिकार नहीं होता... वैसे ही जल, जंगल, जमीन पर भी लोगों का अधिकार है। इतना ही... सोचने की बात है
ज्यादा-कम नहीं।
रिपोर्टर-1 :
महात्मा जी कुल मिला कर आप कहना क्या चाहते हैं?
गांधी :
मेरे कहने का निचोड़ यह है कि मनुष्य-जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीजें हैं, उस पर निजी काबू रहना ही चाहिए... अगर न रहे तो आदमी बच ही नहीं सकता... आखिर
तो संसार आदमियों से ही बना है... बूँद न रहेगी तो समुद्र भी न रहेगा... धन्यवाद... आप लोग जा सकते हैं।
(रिपोर्टर चले जाते हैं।)
गांधी :
प्यारेलाल, क्या तुमने इन सबको बताया है कि हालात कुछ कठिन हो गए हैं?
प्यारेलाल :
नहीं... मैंने नहीं बताया... जब आप ही सबसे मिलना चाहते थे तो...
(मंच पर निर्मला, सुषमा और बावनदास आ जाते हैं।)
गांधी :
(बात काट कर)
ठीक है... देखो मुझे किसी भी वक्त गिरफ्तार किया जा सकता है।
निर्मला देवी :
ऐं, क्या कह रहे हो बाबा, काहे को तुम्हें गिरफ्तार किया जाएगा... क्या तूने डाका मारा है या चोरी की है...
सुषमा :
माँ तुम चुप रहो...
निर्मला देवी :
लो, चुप क्यों रहूँ... इसे (गांधी को) गिरफ्तार करके कोई क्या पावेगा...
बावनदास :
ये राजनीति है निर्मला जी... आप कुछ मत बोलो...
निर्मला देवी :
तू जाने क्या कहता रहता है... तेरी बात तो मेरी समझ में आती न...
बावनदास :
फिर आप हमें तू-तू कह कर बुलाते हो... हम कितनी बार कहा कि यह 'हिंसा' है?
निर्मला देवी :
अरे चल हट, काहे की हिंसा है?
गांधी :
(हाथ उठा कर चुप कराते हैं)
... मैं गिरफ्तार कर लिया जाऊँगा... तुम लोग आश्रम से चले जाना... मैं नहीं चाहता मेरे साथ तुम लोग भी जेल आओ।
सुषमा :
ये कैसे हो सकता है बापू... आप जेल जाएँगे तो मैं भी जेल जाऊँगी...
निर्मला देवी :
ले, तो मैं क्या करूँगी... मैं आज तक कभी जेल तो ना गई हूँ... पर जब बाबा जाएगा और तू जाएगी तो मैं भी जेल जाऊंगी।
बावनदास :
हम तो कसम लिया है... सत-अहिंसा करेगा... बाबा के साथ रहेगा... हमको आपके साथ रहना है।
गांधी :
ये तुमलोगों की मर्जी... जाओ...
(सब जाने लगते हैं। गांधी सुषमा को इशारे से रुकने के लिए कहते हैं। गांधी के पास अकेली सुषमा रह जाती है।)
गांधी :
सुषमा... तू मुझसे नाराज तो नहीं है?
(सुषमा फूट-फूट कर रोने लगती है।)
सीन-11
(मंच पर अँधेरा है।)
उद्
घोषणा :
गांधी को जेल जाने की चिंता न थी... इसकी भी परवाह न थी कि 'प्रयोग आश्रम' उजाड़ दिया जाएगा... गांधी ने जीवन में ऐसा बहु कुछ देखा थ और वे इसके आदी थे...
लेकिन सुषमा की आँखों में गांधी को जो भाव दिखाई पड़ते थे वे चिंता में डाल रहे थे...
(धीरे-धीरे मंच पर नीले रंग की रोशनी होती है। गांधी विस्तर पर लेटे सो रहे हैं। अचानक कोई बर्तन गिरने की आवाज आती है। गांधी उठ जाते हैं। देखते हैं
सामने किसी औरत की छाया खड़ी है।)
गांधी :
कौन?
कस्तूरबा :
मुझे पहचानते भी नहीं।
गांधी :
बा... तुम? इतने दिनों बाद... कैसे?
कस्तूरबा :
जो जीवन में नहीं कह सकी... वह कहने आई हूँ।
गांधी :
वह क्या है बा?
कस्तूरबा :
तुमने मेरे साथ न्याय नहीं किया था।
गांधी :
बा, ये तो मैं मानता हूँ... लिख भी चुका हूँ... तुमसे माफी भी माँग चुका हूँ।
कस्तूरबा :
अगर मेरी बात छोड़ भी दो तो तुमने हर औरत को दुख दिया है... सताया है, जो तुम्हारे करीब आई है।
गांधी
: (डर कर)... ये तुम क्या कह रही हो बा?
कसतूरबा :
अपने आदर्शों और प्रयोगों की चक्की में तुमने हर औरत को पीसा है।
गांधी :
मैं एक भागीरथी पयास कर रहा हूँ, तुम..
कस्तूरबा :
(बात काट कर)
... प्रयोग में अपनी बलि दी जाती है, दूसरों की नहीं... तुमने कहाँ दी है अपनी बलि?
गांधी :
तू आज भी उतनी ही जहरीली है जितनी थी।
कसतूरबा :
न तुम बदले हो और न मैं बदली हूँ।
गांधी :
मैं तुमसे अब भी डरता हूँ बा।
कस्तूरबा :
जो तुम्हारे महात्मा होने से नहीं डरता, उससे तुम डरते हो।
गांधी :
आज तू फिर काले नाग की तरह फुँफकार रही है... क्या बात है? तू आई क्यों है?
कस्तूरबा :
बहुत सीधी बात करने आई हूँ... स्त्रियों को दुख देना बंद कर दो...
गांधी :
मैं तुमसे माफी माँगता हूँ बा...
कस्तूरबा :
(बात काट कर)
... मुझसे माफी माँग कर क्या होगा? तुम्हें माफी तो जयप्रकाश और प्रभादेवी नारायण से माँगनी चाहिए... कि तुमने उनके वैवाहिक जीवन का सत्यानाश कर दिया
था... सुशीला से माफी माँगो... मीरा से माफी माँगो... जो मेरी सौतन बनी रही... हजारों अपमान झेले और पाया क्या? दूर क्यों जाते हो अपने बेटों से माफी
गाँगो... देवदास और लक्ष्मी को तुमने कितना रुलाया है... और नाम बताऊँ? आभा और कनु.. मुन्ना लाल और कंचन...
गांधी :
बस करो बा... बस... परमात्मा के लिए बंद करो ये सब... मैं अपनी आँखें और कान बंद कर रहा हूँ...
कस्तूरबा :
दूसरों की आँखों से भी कभी कुछ देख लिया करो...।
गांधी :
...देखो, मेरे कुछ आदर्श हैं... मेरे सिद्धांत हैं... मेरे विश्वास हैं... मैं किसी को कभी कुछ करने या न करने पर मजबूर नहीं करता...
कस्तूरबा :
सुषमा और नवीन के बीच में कौन है?... तुम इसलिए दीवार बने खड़े हो कि सुषमा तुम्हें भगवान मानती है। अपने माननेवालों के प्रति तुम्हारे मन में दया नहीं
है।
गांधी :
मैं किसी को पकड़ कर आश्रम में नहीं लाता... जो आता है, अपनी इच्छा से आता है... जब आ जाता है तो उसे यहाँ के नियमों का पालन करना पड़ता है... सुषमा चाहे
तो... आश्रम छोड़ कर जा सकती है... नवीन से शादी कर सकती है...
कस्तूरबा :
तुम जानते हो, सुषमा आश्रम छोड़ कर नहीं जा सकती है... और यही तुम्हारी ताकत है जिसका तुम प्रयोग करते हो... इसे तुम हिंसा नहीं कहोगे? मनोवैज्ञानिक हिंसा
कह सकते हो, जिससे तुम दूसरों को मानसिक कष्ट देते हो... और वह भी उनको, जो तुम्हें 'भगवान' समझते हैं..
गांधी :
तुम बा नहीं हो।
(मंच पर पूरा प्रकाश आता है। गांधी चारपाई से उठ जाते हैं। इधर-उधर देखते हैं, कोई नहीं है।)
गांधी :
वह सब क्या था? बा, मेरी ही प्रतिछाया बन कर आई थी...
(बावनदास अंदर आता है।)
बावनदास :
प्रार्थना के लिए तैयारी है...
सीन-12
(मंच पर अँधेरा है।)
उद्
घोषणा:
दो हजार पन्नों की फाइल बिहार सरकार के सैकड़ों दफ्तरों का चक्कर लगाती है, होम मिनिस्ट्री और लॉ मिनिस्ट्री के गलियारों से गुजरती, पी.एम. सेक्रेटेरियट
पहुँची है। रिपोर्टों-गवाहों के बयानों, साक्ष्यों के बाद कानून के सैकड़ों हवालों, संविधान की धाराओं, अफसरों और मंत्रियों की 'रिकमेंडेशन' से भरी-पूरी इस
फाइल में बिहार सरकार ने सेंट्रल गवर्नमेंट से इजाजत माँगी है कि क्या श्री मोहनदास करमचंद गांधी,पुत्र करमचंद गांधी को दफा 121, 121-ए, 123, 124-ए और 126
के तहत गिरफ्तार करके मुकद्दमा चलाया जा सकता है? देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के लिए यह फैसला करना मुश्किल था, लेकिन कैबिनेट की राय थी
कि संविधान और देश की अवमानना के किसी भी मामले में बड़े-से-बड़े आदमी के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है, चाहे वह राष्ट्रपति क्यों न हों... इसके बाद
गांधी को प्यारेलाल, बावनदास, सुषमा और निर्मला देवी के साथ गिरफ्तार कर लिया गया।
(धीरे-धीरे मंच पर प्रकाश आता है। जेल के अंदर बावनदास आता है, उसके पीछे सुषमा है। सबसे अंत में निर्मला देवी हैं, जिसने बकरी की रस्सी पकड़ी हुई है।
हवलदार निर्मला देवी को जेल के अंदर बकरी ले जाने से रोकता है।)
हवलदार :
ये क्या है, बकरी क्यों ले जा रही हो जेल में?
निर्मला देवी
: गांधी बाबा की बकरी है।
हवलदार :
अरे किसी की भी बकरी हो... अंदर नहीं जाएगी।
निर्मला देवी :
क्यों नहीं जाएगी... बुड्ढा भूखा मर जाएगा, इसी का दूध पी-पी कर तो
वह जीता है।
हवलदार :
ला, इधर ला... बकरी की रस्सी।
निर्मला देवी :
मैं न दूँगी... चाहे मेरी जान ही चली जाए।
सुषमा :
अम्मा दे दे बकरी।
बावनदास :
बकरी जेल नहीं जाता। हम जानता है, हम चार ठो बार जेल गया है।
निर्मला देवी :
तू चुप रह... मैं तो ले जाऊँगी।
हवलदार :
(झटपट छीनना चाहता है)
... ला... बहुत हो गई.. नहीं तो लेडीज पुलिस बुलाता हूँ...
निर्मला देवी :
अरे, तू क्या मुझसे छीन लेगा बकरी... ले उधर से रस्सी पकड़ कर खींच...
देखूँ तूने कितना दूध पिया है।
(प्यारेलाल आते हैं। उनके साथ जेलर भी है।)
प्यारेलाल :
बकरी तो बापू के साथ कई बार जेल जा चुकी है।
जेलर :
ठीक है... जाने दो..
(प्यारेलाल और जेलर के अलावा सब अंदर चले जाते हैं। मंच पर कैदी के कपड़ों में गांधी आते हैं।)
गांधी :
मुझे जानकारी मिली है कि इसी जेल में नाथूराम गोडसे अपनी सजा काट रहा है।
जेलर :
जी हाँ... वो इसी जेल में है।
गांधी :
किस वार्ड में है?
जेलर :
वो वार्ड नंबर पाँच में है।
गांधी :
मुझे भी पाँच नंबर का वार्ड दे दीजिए।
जेलर :
(चौंक कर)
... क्यों?
गांधी :
यह मेरी इच्छा है... मैं गोडसे से बात करना चाहता हूँ।
जेलर :
श्रीमान जी... कैदी को जेल में माँगने से वार्ड नहीं मिलते... और फिर उसने आप पर जानलेवा हमला किया था
गांधी :
यही वजह है... यही है।
जेलर :
मतलब... मैं समझा नहीं... आप उस आदमी के साथ एक वार्ड में क्यों रहना चाहते हैं, जिसने आप पर जानलेवा हमला किया था?
गांधी :
मैंने कहा न, मैं उससे बातचीत करना चाहता हूँ। उसके साथ 'डायलॉग' करना चाहता हूँ।
जेलर :
माफ करें... जेल 'डायलॉग' करने का कोई फोरम नहीं है।
गांधी :
'डायलॉग' करना तो बुनियादी अधिकार है। आप किसी को कैसे रोक सकते हैं?
जेलर :
देखिए, मेरी सबसे पहली और बड़ी जिम्मेदारी यह है कि जेल में लॉ और आर्डर कायम रहे...
गांधी :
तो मेरे वार्ड नंबर पाँच में जाने से लॉ और ऑर्डर को क्या खतरा हो सकता है?
जेलर :
वह आदमी आप पर फिर हमला कर सकता है।
गांधी :
क्या उसके पास यहाँ पिस्तौल है?
जेलर :
(घबरा कर) नहीं... नहीं... पिस्तौल तो नहीं लेकिन उसके बगैर भी किसी का कत्ल किया जा सकता है।
गांधी :
मैं आपको लिख कर देता हूँ... आप मेरे कहने से मुझे वार्ड नंबर पाँच दे रहे हैं और अगर, वहाँ मेरे साथ कुछ होता है तो उसकी जिम्मेदारी भी मेरी होगी।
जेलर :
आपके लिख कर देने की कोई कानूनी अहमियत नहीं होगी।
गांधी :
मैं तो इसे परमात्मा की कृपा मानता हूँ। अब कोई मुझे उसके साथ संवाद बनाने में रोक नही सकता... और सबसे बड़ी बात यह है कि वह संवाद पूरे देश के लिए बहुत
जरूरी है... बहुत जरूरी।
जेलर :
आदरणीय, आप चाहे जो कहें, आपको वार्ड नंबर पाँच में नहीं भेजा जा सकता।
गांधी :
अगर ऐसा हे तो मेरे पास एक ही रास्ता बचता है...
जेलर :
क्या?
गांधी :
अपनी माँग के लिए आमरण अनशन।
जेलर :
नहीं... नहीं... ठहरिए महात्मा जी... मैं...।
गांधी :
हाँ तुम 'ऊपर' से पूछताछ कर लो...।
(जेलर चला जाता है)
प्यारेलाल :
बापू, आप भी कमाल करते हैं।
गांधी :
मेरी समझ में नहीं आता कि बहुत सीधी-सादी और मोटी बातें लोगों की समझ में क्यों नहीं आती... मैं कोई अनोखी बात नहीं कर रहा हूँ।
प्यारेलाल :
बापू, आपकी हर बात अनोखी होती है। गोडसे के वार्ड में आपके रहने का कोई तुक नहीं है।
गांधी :
प्यारेलाल, सच्चाई में अगर ताकत है और तुम यह मानते हो कि है... तो शरमाते क्यों हो?... झिझकते क्यों हो?... और अगर सच्चाई की ताकत पर भरोसा नहीं है तो
जीवित रहने से फायदा?
सीन-13
उद्
घोषणा
: मंच पर अँधेरा है। वॉयस ओवर के साथ मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश आता है।
'87 साल के महात्मा गांधी के अमरण अनशन ने पूरे देश को हिला दिया। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गांधी से अनशन न करने की अपील की और देश को बताया कि
उन्हें वार्ड नंबर 5 में इसलिए नहीं शिफ्ट किया जा रहा क्योंकि वहाँ उन पर जानलेवा हमला करनेवाला नाथूराम गोडसे अपनी सजा काट रहा है। महात्मा गांधी से
बिनोवा भावे, जयप्रकाश नारायण और बाबा आप्टे ने अनशन खत्म करने की अपील की। लेकिन गांधी ने किसी की एक न सुनी। जल्दी ही महात्मा की सेहत गिरने लगी और
डॉक्टरों ने प्रशासन को चेतावनी दे दी कि अगर जल्दी ही अनशन न खत्म किया गया तो कुछ भी हो सकता है। मंत्रिमंडल की बैठक में तय किया गया कि गांधीजी को
गोडसे से बातचीत करने का मौका दिया जाया जा सकता है।''
(प्रकाश आता है। वार्ड नंबर पाँच में जेलर के साथ गांधी, प्यारेलाल और बावनदास आते हैं। गोडसे अपनी
'
चट
'
पर बैठा अखबार पढ़ रहा है। वह इन सबको उपेक्षा से देखता है और अखबार पढ़ने लगता है।)
जेलर :
ये वार्ड नंबर पाँच... और ये गोडसे की चट...।
गांधी :
बस... इसके बराबर वाली चट... मुझे दे दो।
प्यारेलाल :
बापू... बराबर वाली नहीं... उसके बाद वाली चट... बराबर वाली मैं ले लूँगा...
बावनदास :
बाबा... हमको... बराबर वाला चट हमारा है... हम इधर सोया करेगा...
गांधी :
क्यों?
बावनदास :
बस हम बोल दिया... नहीं मिलेगा तो अब हम भी अनशन करेगा...
गांधी :
ठीक है तुम इधर अपना समान रखो... उसके बाद मैं,फिर प्यारेलाल...
जेलर :
ठीक है तो अब मैं चलता हूँ... (गोडसे से) मिस्टर गोडसे... आपको मालूम है कि...
गोडसे :
(बात काट कर)
... गांधी को नाटक करने का शौक है और मुझे नाटक में कोई रुचि नहीं है... मेरे ऊपर कोई अंतर नहीं पड़ता कि मेरे बराबर कौन लेटा है।
गांधी :
नाथूराम अगर ये तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा है तो मैं माफी माँगने के लिए तैयार हूँ लेकिन अब मैं वार्ड नंबर पाँच से कहीं नहीं जाऊँगा। यह मेरे ऊपर
परमेश्वर की असीम कृपा हुई है...
(इस बीच बावनदास और प्यारेलाल चट को साफ करने लगते हैं। इधर-उधर समान रखते हैं।)
गोडसे :
तुम इस वार्ड में मेरे पास क्यों आना चाहते थे।
गांधी :
वैसे तो लंबी बात है, कम में कहा जाए तो ये समझ लो, मेरे ऊपर गोली चलाने के बाद तुमसे लोग घृणा करने लगे या प्रेम करने लगे। कह सकते हो, घृणा करनेवालों की
तादाद प्रेम करनेवालों की तादाद से ज्यादा थी। लेकिन संख्या से क्या होता है। मैं घृणा और प्रेम के बीच से नया रास्ता, संवाद का रास्ता 'डॉयलॉग' का
रास्ता निकालना चाहता हूँ... तुमसे बात करना चाहता हूँ।
गोडसे :
जरूर करो... लेकिन यह समझ कर न करना कि मेरे विचार कच्ची मिट्टी के घड़े हैं।
गांधी :
नहीं गोडसे... मैं मानता हूँ, तुम्हारे विचार बहुत पक्के हैं, तुम्हारा विश्वास बहुत अडिग है, तुम साहसी हो क, ऐसा न होता तुम भरी प्रार्थना सभा में
मेरे ऊपर गोली न चलाते... उसके बाद आत्मसमर्पण न करते।
गोडसे :
हाँ, ये ठीक है मैंने जो कुछ किया था... अपने लिए नहीं किया था... मेरी तुमसे कोई निजी दुश्मनी न थी और न है। मैं हिंदुत्व की रक्षा अर्थात हिंदू जाति,
हिंदू धर्म और हिंदुस्तान को बचाने के लिए तुम्हारी हत्या करना चाहता था।
गांधी :
मैं खुश हूँ गोडसे... तुम सच बोल रहे हो...
गोडसे :
मैंने यही बात अदालत में कही थी...
गांधी :
अफसोस की बात यह है कि अदालत में संवाद नहीं होता... सिर्फ बयान और जिरह होती है...
गोडसे :
संवाद होता तो क्या पूछते?
गांधी :
सवाल तो यही पूछता कि हिंदू से तुम्हारा मतलब क्या है? पहली बात यह कि यह शब्द कहाँ से आया? वेद पुराण और उपनिषदों में यह शब्द नहीं मिलता... पुराणों
में लिखा है, समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसका नाम भारत है, यहाँ भरत की संतानें रहती हैं। (गोडसे उठ कर खड़ा हो जाता है। इधर-उधर टहलने लगता है। गांधी उसे ध्यान से देखते हैं।)
गोडसे :
गांधी, हिंदू शब्द बहुत प्राचीन है... यह भ्रम फैलाया गया है कि हिंदू शब्द विदेशियों ने दिया था... तुमने प्रश्न किया था कि हिंदू से मैं क्या अर्थ
लेता हूँ, वैदिक धर्म और उनकी शाखाओं पर विश्वास करने वालों को मैं हिंदू मानता हूँ और सिंधु नदी के पूर्व में जिस धरती पर हिंदू बसते हैं वह हिंदुस्थान
है।
(बावनदास और प्यारेलाल भी बैठ कर बातचीत सुनने लगते हैं।
)
गांधी :
गोडसे तुम 'हिंदूस्थान' से प्रेम करते हो।
गोडसे :
प्राणों से अधिक।
गांधी :
क्या मतलब?
गांधी :
तुमने सिंधु से लेकर असम और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक का इलाका देखा है?
गोडसे :
तुम कहना क्या चाहते हो गांधी...।
गांधी :
(प्यारेलाल से)
... चर्खा इधर उठा दो... मेरे हाथ काम माँग रहे हैं।
(प्यारेलाल और बावनदास चर्खा उठा कर गांधी के सामने रख देते हैं। वे चर्खा चलाने लगते हैं।)
गांधी :
(गोडसे से) मैं 1915 में जब भारत आया था और यहाँ सेवाभाव से काम करना चाहता था तो मेरे गुरु महामना गोखले ने मुझसे कहा था कि गांधी हिंदुस्तान में
कुछ करने से पहले इस देश को देख लो। और मैंने एक साल तक देश को देखा था। और उसका इतना प्रभाव पड़ा कि मैं चकित रह गया।
गोडसे :
कैसे?
गांधी :
जिसे हम 'हिंदुस्थान' या 'हिंदुस्तान' कहते हैं वह एक पूरा संसार है गोडसे... और उस संसार में जो कुछ है... जो रहता है... जो काम करता है... उससे
हिंदुस्तान बनता है...
गोडसे :
ये गलत है 'हिंदुस्थान' केवल हिंदुओं का देश है...
गांधी :
तुम हिंदुस्तान को छोटा कर रहे हो गोडसे... हिंदुस्तान तुम्हारी कल्पना से कहीं अधिक बड़ा है... परमेश्वर की विशेष कृपा रही है इस देश पर...
गोडसे :
सैकड़ों साल की गुलामी को तुम कृपा मान रहे हो?
गांधी :
गोडसे, असली आजादी मन और विचार की आजादी होती है... हिंदूमत कभी पराजित नहीं हुआ, राम ने अपना विस्तार ही किया है...
गांडसे :
तुम्हें राम से क्या लेना-देना... गांधी... तुमने तो राम और रहीम को मिला दिया। ईश्वर अल्लाह को तुम एक मानते हो...
गांधी :
हाँ, गोडसे मैं वही कर रहा हूँ जो यह देश हजारों साल से करता आया है... समझे? समन्वय और एकता।
गोडसे :
समन्वय... यह शब्द... मैं इससे घृणा करता हूँ... हम विशुद्ध हैं... हमें हिंदू होने पर गर्व है... हम सर्वश्रेष्ठ हैं... सर्वोत्तम हैं...
सीन-14
(मंच पर अँधेरा। धीरे-धीरे रोशनी आती है।)
उद्
घोषणा
: 'देश की संसद में विरोधी दल के नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए ये शंका जताई कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और नाथूराम
गोडसे को एक वार्ड में रखना खतरनाक हो सकता है। नेशनल हेराल्ड के संपादक चेलापति राव ने लिखा कि गांधी कुछ ऐसा करने जा रहे हैं जो उनका सत्य के साथ सबसे
बड़ा प्रयोग हो सकता है। संसद और अखबारों से होती हुई यह चर्चा देश के मुहल्लों और गलियों में फैल गई। लेकिन वार्ड नंबर पाँच में जीवन अपनी सामान्य गति से
चल रहा।'
(मंच पर प्यारेलाल, बावनदास, निर्मला देवी और सुषमा आते हैं। सुषमा काफी कमजोर और बीमार जैसी लग रही है। चेहरे पर उदासी और निराशा है। निर्मला देवी
गोडसे को बड़े ध्यान से देखती है। निर्मला देवी दूध का वर्तन गांधी की तरफ बढ़ाते हुए कहती है।)
निर्मला :
ले... महात्मा... दूध पी ले...
(निर्मला गोडसे की तरफ देख कर प्यारेलाल से कहती है।)
ये वही है न... जिन्ने महात्मा पै गोल्ली चलाई थी (कोई कुछ नहीं बोलता।) देखण में तो भला चंगा लगै है... काए को मारना चाहता था महात्मा को... वैसेइ देख
कितनी जान है इसमें हड्डी का ढाँचा है... (गांधी से) पर महात्मा तू भी निरालाइ है... अपने कातिल के साथ...
गांधी :
(सुषमा से)... बहन जी... को ले जाओ... कल से दूघ तुम लाना... दो गिलास लाना...
निर्मला :
अरे तेरी तो मति मारी गई है महात्मा... साँप को दूध पिला रहा है...
(सुषमा निर्मला देवी का हाथ पकड़ कर चली जाती है)
गांधी :
(प्यारेलाल से)
डाक लाए?
प्यारेलाल :
आज ठेला नहीं मिल पाया...
गांधी :
ठेला?
प्यारेलाल :
चार मन चिट्ठियाँ आई हैं आपके नाम...
बावनदास :
चार बार में तो हम ले आऊँगा...
गांधी :
ठीक है, तुम लोग जाओ।
(बावनदास और प्यारेलाल चले जाते हैं)
गांधी :
(गोडसे से)
... क्षमा चाहता हँ... बेपढ़ी-लिखी औरत है, पर दिल की अच्छी है... तुम्हें उल्टा-सीधा बोल गई, इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।
गोडसे :
नहीं... उसने जो कहा वह सत्य ही कहा है। देश के बहुत से भोलेभाले लोगों को यह नहीं मालूम कि तुम हिंदू विरोधी हो।
गांधी :
कैसे गोडसे?
गोडसे :
एक-दो नहीं सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं... सबसे बड़ा तो यह है कि तुमने कहा था न कि पाकिस्तान तुम्हारी लाश पर बनेगा... उसके बाद तुमने पाकिस्तान
बनाने के लिए अपनी सहमति दे दी।
गांधी :
गोडसे... मैंने जो कहा था... वह सत्य है... सावरकर ने कहा था कि वे खून की अंतिम बूँद तक पाकिस्तान के विचार का विरोध करेंगे... लेकिन देखो आज मैं जीवित
हूँ... सावरकर के शरीर में पर्याप्त खून है... पर एक बात है गोडसे...।
गोडसे :
क्या?
गांधी :
मैं पाकिस्तान बनाने का विरोध कर रहा था और करता हूँ... तो ये बात समझ में आती है... पर मुझे समझा दो कि सावरकर पाकिस्तान का विरोध क्यों करते है?
गोडसे :
क्या मतलब... मातृभूति के टुकड़े...।
गांधी :
(बात काट कर)
... सावरकर तो यह मानते हैं... लिखा है उन्होंने कि मुसलमान और हिंदू दो अलग-अलग राष्ट्रीयताएँ हैं... इस विचार के अंतर्गत तो उन्हें पाकिस्तान का
स्वागत करना चाहिए...
गोडसे :
यह असंभव है... गुरुजी... पर आरोप है...
गांधी :
सावरकर की पुस्तक 'हिंदू राष्ट्र दर्शन'... मैंने पुणे जेल में सुनी थी... कृपलानी ने सुनाई थी देखो... अगर तुम किसी को अपने से बाहर का मानोगे और वो बाहर
चला जाता है तो इसमें एतराज कैसा? हाँ, भारत विभाजन का पूरा दुख तो मुझे है क्योंकि मैं इस सिद्धांत को मानता ही नहीं कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग
राष्ट्र हैं।
गोडसे :
अगर तुम पाकिस्तान के इतने ही विरोधी हो तो तुमने 55 करोड़ रुपए दिए जाने के लिए आमरण अनशन क्यों किया था?
गांधी :
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाय पर वचन न जाई। पाकिस्तान-हिंदुस्तान का कोई सवाल ही न था... सवाल था अपने वचन से मुकर जाने का... समझे...
गोडसे :
तुमने अपने सिद्धांतों की आड़ में सदा मुसलमानों का तुष्टीकरण किया है।
गांधी :
दक्षिण अफ्रीका में मैंने जो किया, क्या वह केवल मुसलमानों के लिए था? चंपारण, अहमदाबाद के आंदोलन क्या केवल मुसलमानों के लिए थे? असहयोग आंदोलन में क्या
केवल मुसलमान थे? हरिजन उद्धार और स्वराज का केंद्र क्या मुसलमान थे? हाँ, जब मुसलमान ब्रिटिश साम्रज्यवाद के विरूद्ध खिलाफत आंदोलन में उठ खड़े हुए तो
मैंने उनका साथ दिया था... और इस पर मुझे गर्व है।
गोडसे :
खिलाफत आंदोलन से प्रेम और अखंड भारत से घृणा यही तुम्हारा जीवन दर्शन रहा है... हिंदू राष्ट्र के प्रति तुम्हारे मन में कोई सहानुभूति नहीं है।
गांधी :
हिंदू राष्ट्र क्या है गोडसे?
गोडसे :
वो देखो सामने मानचित्र लगा है... अखंड भारत...
(गांधी उठ कर नक्शा देखते हैं।)
गांधी :
गोडसे... यही अखंड भारत का नक्शा है?
गोडसे :
हाँ... यह हमारा है... भगवा लहराएगा... इस क्षेत्र में...
गांधी :
गोडसे... तुम्हारा अखंड भारत तो सम्राट अशोक के साम्राज्य के बराबर भी नहीं है... तुमने अफगानिस्तान को छोड़ दिया है... वे क्षेत्र छोड़ दिए हैं जो आर्यो
के मूल स्थान थे... तुमने तो ब्रिटिश इंडिया का नक्शा टाँग रखा है... इसमें न तो कैलाश पर्वत है और न मान सरोवर है...
गोडसे :
ठीक कहते हो गांधी... वह सब हमारा है...
गांधी :
गोडसे... तुमसे बहुत पहले हमारे पूर्वजों ने कहा था, वसुधैव कुटुंबकम... मतलब सारा संसार एक परिवार है... परिवार... परिवार की मर्यादाओं का ध्यान रखना
पड़ता है।
सीन-15
(मंच पर अँधेरा है। धीरे-धीरे उद्
घोषणा के साथ प्रकाश आता है।)
उद्
घोषणा
: गांधी की व्याकुल आत्मा और पैनी निगाहें जेल के अंदर काम करने की संभावनाएँ तलाश कर लेती हैं। उनका यह मानना था की काम लोगों को जोड़ता है, एकता की
भावना पैदा करता है जो मनुष्य जाति की सबसे बड़ी वरदान है।
(मंच पर बड़ी-बड़ी झाड़ू लिए हुए बावनदास आता है। प्यारेलाल अपने हाथों में कुछ पोटलियाँ उठाए हुए उसके पीछे-पीछे आते हैं।)
उद्
घोषणा
: 'अपने आपको दस तरह के कामों लगाए रखना और अपनी सेना को आराम का समय न देने पर विश्वास करने वाले गांधी के मन में जाने क्या आया कि यह सब लाने का आदेश दे
दिया।'
(मंच पर निर्मला और सुषमा आते हैं। उन्हें प्यारेलाल थैला देते हैं। वे थैलों से कपड़ा निकाल कर उसे काटने लगती हैं। निर्मला सिलाई भी करती हैं। गांधी
एक हाथ में झाड़ू का डंडा पकड़ कर उसे देखते हैं। गोडसे शुरू से दृश्य में मौजूद है। वह इन सबको कुछ आश्चर्य और उपेक्षा से देख रहा है।)
गांधी मंच पर यह जानने के लिए झाड़ू देने लगते हैं, जैसे झाड़ू को टेस्ट कर रहे हों।
गांधी :
(प्यारेलाल से)
... फिनैल और चूना भी लाए हो?
प्यारेलाल
: सब आ गया है... ऊपर रखा है।
गांधी :
लड़की... एक कपड़ा मुझे देना...
(सुषमा गांधी को एक कपड़े की पट्टी देती है। गांधी उसे मुँह पर रख लेते हैं। सुषमा पीछे से बाँध देती है। गांधी इशारा करते हैं कि पट्टी ठीक बनी है।
गोडसे यह सब देख रहा है।)
गांधी :
(पट्टी सुषमा को देते हुए)
... अच्छी है... बदबू रोकने के काम आएगी... और सिर पर पहनने के लिए टोपी भी बना रही हो न?
सुषमा :
हाँ... बापू... बना रहे हैं।
(जेलर मंच पर आता है। वह कुछ गुस्से में है।)
जेलर :
महात्मा जी... मैंने सुना है आप जेल के संडास साफ करने जा रहे हैं।
गांधी :
हाँ... क्यों? इसमें क्या बुराई है... बल्कि सफाई करना तो अच्छी बात है।
जेलर :
जेल साफ रखना मेरी जिम्मेदारी है। आपकी नहीं।
गांधी :
देखो... ये जेल देश का है... देश को साफ रखना तो तो पूरे देशवासियों की जिम्मेदारी है।
जेलर :
मैं... आपसे बहस नहीं कर सकता।
गांधी :
तो क्यों कर रहे हो बहस?
(गोडसे, गांधी और जेलर के पास आ कर खड़ा हो जाता है। लेकिन कुछ नहीं बोलता।)
गांधी :
मैंने तो जेल के सभी कैदियों से निवेदन किया है कि वे जेल के संडास की सफाई में मेरी मदद करें।
जेलर :
ये सब मुझे मंजूर नहीं है क्योंकि ये सब गैरकानूनी है। जेल मैनुअल में यह नहीं लिखता है कि कैदी संडास की सफाई में लगाए जा सकते हैं।
गांधी :
जेल मैनुअल में तो ये भी नहीं लिखा है कि ऐसा नहीं किया जा सकता...
(गोडसे, गांधी और जेलर को ध्यान से देखता रहता है पर बोलता कुछ नहीं।)
जेलर :
कैदियों को जमा करना गैरकानूनी है... आप सफाई के नाम पर सैकड़ों कैदियों को जमा करना चाहते हैं जो गैरकानूनी है।
गांधी :
अगर तुम्हें डर है तो सिर्फ हम ही लोग... मतलब मैं, प्यारेलाल, बावनदास, निर्मलाजी, सुषमा और नाथूराम गोडसे ही संडास साफ करेंगे...
(सुषमा नाथूराम गोडसे के हाथ में झाड़ू देने की कोशिश करती है लेकिन गोडसे मना कर देता
है। वह गांधी और जेलर के पास से हट कर अलग खड़ा हो जाता है।)
गांधी :
सबसे पहले हम इस वार्ड से सफाई शुरू करते है... तुम चाहो तो हमें गिरफ्तार कर सकते हो, लेकिन कौन-सी धारा लगाओगे?
(इस बीच गांधी और उनके सभी साथी मुँह पर कपड़ा बाँध का सफाई का काम शुरू कर देते हैं। बावनदास सफाई का गीत गाता है। सभी उसमें शामिल होते हैं। कोरस गाते
हैं। पूरे एक्शन के साथ)
साफ करो जी, साफ करो
कूड़ा-करकट, साफ करो
गंदा-मैला, साफ करो
कपड़े-लत्ते, साफ करो
साफ करो जी, साफ करो
मिलजुल कर सब साफ करो
हिंसा-घृणा, साफ करो
लालच-लिप्सा, साफ करो
मन की माया, साफ करो
साफ करो जी, साफ करो
घर-बाहर सब साफ करो
पूरी धरती साफ करो
नदियाँ-नाले, साफ करो
साफ करो जी, साफ करो
(जेलर और गोडसे नाक पर रूमाल रखे दूर खड़े यह देखते हैं।)
सीन-16
(मंच पर अँधेरा।)
उद्
घोषणा
: (गायन)
कागा सब तन खाइयो, चुन चुन खाइयो मास
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस
इक्कीस साल की हँसती-बोलती सुषमा की आँखो के नीचे काले धब्बे पड़ गए, उसका चमकता हुआ रोशन चेहरा एक अजीब सी आग में झुलस गया, उसकी रंगत फीकी पड़ गई। उसके
माथे पर लकीरों ने अपना घर बना लिया। वह सूख कर काँटा हो गई। उसका खाना-पीना, सोना-जागना भारी पड़ने लगा। आँखों में तैरता पानी पूरी कहानी सुनाने के लिए
काफी था।
(मंच पर केवल सुषमा बैठी है उस पर प्रकाश प्रड़ता है। कई तरह के इफैक्ट अपना प्रभाव छोड़ते हैं।)
... अपनी बेटी की यह हालत निर्मला देवी से देखी न गई। जबकि वह गांधी के पास रोज दो गिलास दूध लेकर जाती थी और गांधी उसे देखते थे लेकिन देखे को भी अनदेखा कर
देते थे। एक दिन निर्मला देवी का गुस्सा गांधी के हठ से टकरा ही गया।
(धीरे-धीरे प्रकाश आता है। गांधी प्रार्थना सभा में बैठे हैं। भजन गाया जा रहा है। प्यारेलाल, बावनदास और सुषमा के अलावा एक-दो दूसरे कैदी भी बैठे भजन
गा रहे हैं। निर्मला देवी गुस्से में खड़ी है। न वह भजन गा रही है और न मंडली में बैठी है। भजन खत्म होता है।)
निर्मला देवी :
महात्मा, आज मुझे तुमसे एक बात करना है... चाहे तो सबके सामने
करूँ... चाहे तो अकेले में करूँ।
गांधी :
मैं किसी बात को निजी नहीं मानता... मेरा पूरा जीवन खुली किताब है जिसमें शूल भी है और फूल भी है... पर तू आज जो कहना चाहती है उसे साझा नहीं करना चाहता... (सब लोग मंच से चले जाते हैं।)... ताकि मेरे मन की बात सीधे मन तक पहुँचे।
निर्मला :
देख महात्मा, मैं पढ़ी तो नहीं हँ... तू तो सात समंदर का पढ़ा कहा जावे हैं।
गांधी :
तू अपनी बात कह।
निर्मला :
वई तो है... मुझे तेरी तरह कहना ना आवे है... पर सुन, मेरी लौंडिया को कुछ हो गया ना तो मैं तुझे ना छोडूँगी...
गांधी :
ये तू क्या कह रही है...
निर्मला :
अब मेरी बात ना समझा तो किसकी समझेगा?
गांधी :
तू चाहती क्या है?
निर्मला :
देख मेरी बेटी को कुछ हो गया ना तो मैं तुझे ना छोडूँगी...
गांधी :
अरे तो बात क्या है?
निर्मला :
तू सब जाने है... अपना समझ ले... अब मैं जाती हूँ।
(निर्मला चली जाती है। गांधी सोच में डूब जाते हैं। प्यारेलाल आते हैं।)
गांधी :
प्यारेलाल, नवीन को बुला लो।
प्यारेलाल
: क्या बापू? नवीन को...
गांधी :
हाँ... नवीन को...
प्यारेलाल :
पर क्यों बापू?
गांधी :
तुम... सुषमा की हालत देख रहे हो...
प्यारेलाल :
लेकिन आपके सिद्धांत...
गांधी :
प्यारेलाल... सिद्धांत जीवन को सुंदर बनाने के लिए होते हैं... कुरूप बनाने के लिए नहीं होते।
प्यारेलाल :
ठीक है, तो उसे तार देता हूँ।
(प्यारेलाल उठ कर जाते हैं। गांधी टहलने लगते हैं। उनके चेहरे पर बेचैनी है। गोडसे अंदर आता है।)
गांधी :
एक बात पूछूँ गोडसे...
गोडसे :
हाँ... पूछो।
गांधी :
प्रार्थना सभा में तुम क्यों नहीं बैठते?
गोडसे :
सीधी-सी बात है... तुम्हारी प्रार्थना पर मेरी कोई आस्था नहीं है।
गांधी :
श्रद्धा भी नहीं है?
गोडसे :
नहीं... मैं हिंदू हूँ... और हिंदू धर्म के प्रति आस्था है।
गांधी :
तुम मुझे हिंदू मानते हो?
गोडसे :
(असहज हो कर)...
हाँ मानता हूँ।
गांधी :
प्यारेलाल को हिंदू मानते हो?
गोडसे :
हाँ, मानता हूँ।
गांधी
: बावनदास को हिंदू मानते हो?
गोडसे :
हाँ... हाँ... क्यों?
गांधी :
वार्ड के जमादार नत्थू को हिंदू मानते हो?
गोडसे :
ये सब क्यों पूछ रहे हो?
गांधी :
इसलिए कि अगर तुम इन सबको बराबर का हिंदू नहीं मानते तो तुम हिंदू नहीं हो... पहले तो तुमने देश को छोटा किया नाथूराम... अब हिंदुत्व को छोटा मत करो...
हिंदू धर्म बहुत बड़ा, बहुत उदार और महान धर्म है गोडसे... उसे छोटा मत करो... दूसरे को उदार बनाने के लिए पहले खुद उदार बनना पड़ता है।
(बावनदास पीठ पर बड़ा-सा थैला लादे आता है। जिसमें गांधी की डाक है।)
बावनदास :
चार ठो... बोरा और है... महात्मा जी और लेकर आता हूँ....
गांधी :
बैठ जाओ बावनदास... बाकी चिट्ठियाँ कल ले आना... पाँच मन चिट्ठियाँ तो मैं एक दिन में पढ़ भी नही सकता...
सीन-17
(मंच पर अँधेरा)
उद्
घोषणा
: ऊपर से नीचे तक खादी के कपड़े पहने, सिर पर सेहरा बाँधे, सफेद घोड़े पर सवार, नवीन जेल के फाटक पर पहुँचता है। शहनाई की आवाज, जेल की दीवारों पर टकराई।
गैस बत्तियों की रोशनी में जेल का फाटक आलोकित हो गया। पाँच बारातियों के साथ दूल्हा जेल के अंदर गया, जहाँ वार्ड नंबर पाँच में लाल खादी की साड़ी बाँधी
दुल्हन उसका इंतजार कर रही थी।
(मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश आता है। गांधी शादी की रस्में पूरी कराते हैं। गोडसे भी वहीं मौजूद है। अग्नि के सामने दूल्हा-दुल्हन बैठते हैं। गांधी
मंत्र पढ़ते हैं। अग्नि के चारों तरफ फेरे लगाते हैं। जयमाला डाली जाती है।)
गांधी :
मैं हर नवविवाहिता जोड़े को सदा भेंट देता हूँ... तुम लोगों को भी दे रहा हूँ... 'गीता'... है।
(दोनों गीता ले लेते हैं)
गांधी :
जाओ... ब्रह्मचारियों जैसा जीवन बिताओ।
निर्मला :
अरे महात्मा, आज तो इन्हें संतान का आशीर्वाद दे देता
गांधी :
(प्यारेलाल से)
... इन्हें मेरी किताब 'विवाह का अर्थ' की एक कॉपी देना...
निर्मला :
दो-चार दिन की छुट्टी ही दे दे इन्हें।
गांधी :
(प्यारेलाल से)...
अब तुम लोग जाओ... समय हो गया है।
(गांधी और गोडसे को छोड़ कर सब बाहर निकल जाते हैं।)
गोडसे :
तुमने गीता भेंट की है?
गांधी :
हमेशा... हर जोड़े को गीता भेंट करता हूँ। और ये भी जानता हूँ कि तुम भी...
गोडसे :
गीता मेरा जीवन दर्शन है।
गांधी :
गीता मेरा भी दर्शन है।... कितनी अजीब बात है गोडसे।... गीता ने तुम्हें मेरी हत्या करने की प्रेरणा दी और मुझे तुम्हें क्षमा कर देने की प्रेरणा दी...
ये कैसा रहस्य है?
गोडसे :
तुमने गीता को तोड़-मरोड़ कर अहिंसा से जोड़ दिया है, जबकि गीता निष्फल कर्म का दर्शन है। युद्ध के क्षेत्र में निष्फल कर्म से प्रेरित अर्जुन अपने
प्रियजनों तक की हत्या कर देते हैं।
गांधी :
लड़ाई के मैदान में हत्या करने और प्रार्थना सभा में फर्क है गोडसे।
गोडसे :
कर्म के प्रति सच्ची निष्ठा ही काफी है। स्थान का कोई महत्व नहीं है। महाभारत तो जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है।
गांधी :
गोडसे... मैंने पूरे जीवन जितनी मेहनत गीता को समझने में की है... उतनी कहीं और नहीं की है... गीता कर्म की व्याख्या भी करती है... गीता के अनुसार यज्ञ
कर्म मतलब, दूसरों की भलाई के लिए किया जाने वाला काम ही है। हत्या किसी की भलाई में किया जाने वाला काम नहीं हो सकती।
गोडसे :
मुद्दा यह है कि हत्या क्यों की जा रही है? उद्देश्य क्या है? कितना महान है, कितना पवित्र है?
गांधी :
गोडसे... तुमसे शिकायत है... तुमने मेरी आत्मा को मारने का प्रयास क्यों नहीं किया?
गोडसे :
आत्मा? वो तो अजर और अमर है...
गांधी :
और शरीर का कोई महत्व नहीं है। तुमने कम महत्व के शरीर पर हमला किया... और आत्मा को भूल गए।
गोडसे :
तुम्हारा वध हिंदुत्व की रक्षा के लिए जरूरी था।
गांधी :
इसका निर्णय किसने किया था?
गोडसे :
देश की हिंदू जनता ने...
गांधी :
कौन सी हिंदू जनता?... जिसमें मेरे अलावा सभी हिंदू शामिल थे...
गोडसे :
वे सब जो सच्चे हिंदू हैं... तुम तो हिंदुओं के शत्रु हो...
गांधी :
तुम मुझे शत्रु मानते हो?
गोडसे :
बहुत बड़ा, सबसे बड़ा शत्रु...
गांधी :
गीता शत्रु और मित्र के लिए एक ही भाव रखने की बात करती है... यदि मैं तुम्हारा शत्रु था भी तो तुमने शत्रु भाव क्यों रखा?...गोडसे, गीता सुख-दुख,
सफलता-असफलता, सोने और मिट्टी, मित्र और शत्रु में भेद नहीं करती... समानता, बराबरी का भाव है गीता में...
गोडसे :
मैं महात्मा नहीं हूँ... उद्देश्य की पूर्ति...
गांधी :
अच्छे काम भी गलत तरीके और भावना से करोगे तो नतीजा अच्छा नहीं निकलेगा... सब खराब हो जाएगा।
गोडसे :
मैं नहीं मानता।
गांधी :
हम सब अपने विचारों के लिए आजाद हैं... लेकिन हत्या करने की आजादी नहीं है।
सीन-18
(मंच पर अँधेरा। धीरे-धीरे रोशनी आती है। तेज पानी बरसने, बिजली कड़कने, टीन की छत पर पानी गिरने का आभास। आँधी और तूफान की आवाज का आभास। मंच पर गांधी
और नाथूराम गोडसे बातें करते आते हैं। उनके पीछे बावनदास छाता लगाए साथ-साथ चल रहा है। गांधी और गोडसे क्या बात कर रहे हैं, यह सुनाई नहीं देता। बिजली
कड़कने और पानी गिरने की आवाजें बढ़ जाती हैं। गांधी देखते हैं कि बावनदास ने पूरा छाता केवल उनके ऊपर तान रखा है। नाथूराम गोडसे पानी में भीग रहा है।
गांधी मुड़ कर छाते को ठीक कर देते हैं ताकि वे और गोडसे दोनों पानी से बच सकें लेकिन बावनदास फिर छाते को सिर्फ गांधी पर ले आता है।)
उद्
घोषणा
: गांधी और गोडसे का संवाद चलता रहा... दिन पर दिन, महीने पर महीने और साल पर साल बीतते चले गए... बातचीत के दौरान कभी-कभी गोडसे की आवाज ऊँची हो जाया
करती थी तो गांधी चुप हो जाया करते थे क्योंकि उनका मानना था कि कमजोर आदमी ही ऊँची आवाज में बोलता है। बावनदास इस बहस का गवाह बनता रहा। वह गांधी और
गोडसे की बहस में
'
गीता
'
और
'
हिंदुत्व
'
पर कुछ बोल कर, दोनों को खामोश कर देता था... गांधी परमेश्वर की सबसे बड़ी रचना यानी मनुष्य को खोजने पहचानने और समझने की कोशिश करते रहे...
धीर-धीरे मंच पर अँधेरा हो जाता है। सुबह के समय, चिड़िया के बोलने की आवाजें, सूरज के निकलने का आभास। गांधी और नाथूराम गोडसे मंच पर टहलते दिखाई देते
हैं। उनके बीच बातचीत हो रही है लेकिन सुनाई नहीं देती।
मंच पर धीरे-धीरे अँधेरा होने के बाद रोशनी आती है। गर्मी के मौसम में चाँदनी रात और आसमान में तारों का आभास। गांधी और गोडसे सीढ़ियों पर बैठे हैं।
दोनों के बीच बातचीत का दृश्य। हाव-भाव से ऐसा लगता है कि गोडसे गांधी पर चीख-चिल्ला रहा है।
मंच पर अँधेरा होता है। रोशनी आती है। जाड़े का मौसम, ठंडी हवा का आभास। मंच पर गांधी लाठी लिए ऊनी चादर ओढ़े गोडसे के साथ टहल रहे हैं। गोडसे ने भी
गर्म कपड़े पहन रखे हैं। दोनों के बीच बातचीत का दृश्य।
मंच पर अँधेरा है। धीरे-धीरे प्रकाश आता है। गांधी और गोडसे जेल के वार्ड में बैठे हैं, बातचीत का आभास हो रहा है। सुषमा दो गिलास दूध लिए आती है। एक
गांधी को और दूसरा गोडसे को को देती है।
(मंच पर अँधेरा और उद्घोषणा शुरू होती है।)
'
कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसा घट जाता है जिससे कल्पना भी नहीं की जाती... 5 जुलाई 1960 को भी कुछ ऐसा ही हुआ। मोहनदास करमचंद गांधी और नाथूराम गोडसे की
सजा एक ही दिन पूरी हुई... एक ही दिन दोनों रिहा हुए... एक ही दिन दोनों जेल की फाटक के बाहर निकले...
'
(धीरे-धीरे प्रकाश आता है। जेल का फाटक खुलता है। गांधी और गोडसे बाहर आते हैं। दोनों रुक जाते हैं।)
गांधी : नाथूराम... मैं जा रहा हूँ। वही करता रहूँगा जो कर रहा था। तुम भी। शायद वही करते रहोगे, जो कर रहे थे।
(गोडसे गोधी की तरफ अर्थपूर्ण ढंग से देखता है। दोनों एक-दूसरे की आँखों में नजरें गड़ा देते हैं। गांधी, गोडसे को हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हैं। गोडसे
भी हाथ जोड़ देता है। गांधी मंच पर बाईं तरफ आगे बढ़ते हैं। गोडसे दाहिनी तरफ जाता है। दोनों की पीठ दर्शकों की तरफ है। अचानक गांधी रुक जाते हैं, पर
पीछे मुड़ कर नहीं देखते। गोडसे भी रुक जाता है और घूम कर गांधी के पीछे आता है। जब वह गांधी के बराबर पहुँचता है। गांधी बिना उसकी तरफ देखे अपना बायाँ
हाथ बढ़ा कर उसके कंधे पर रख देते हैं और दोनों आगे बढ़ते हैं... मंच पर धीरे-धीरे अँधेरा हो जाता है।)
(धीरे-धीरे उद् घोषणा के साथ मंच पर प्रकाश आता है। अभिनेता मंच पर एक-एक कर आते हैं। सबसे अंत में गांधी और गोडसे अभिनेताओं की लाइन में
शामिल हो जाते हैं।)
'...जो धीर मनुष्य दुख-सुख को बराबर समझता है, जो मिट्टी के ढेले और सोने के टुकड़े को एक जैसा मानता है, जो मनुष्य प्रशंसा और निंदा, मान और अपमान में एक
जैसा रहता है, जो मित्र और शत्रु के लिए समान है, जिसमें त्याग की भावना है वह मनुष्य सब गुणों का स्वामी माना जाता है।''
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