"ऐ सबसे पुरानी कौम दुनिया की सलाम
ऋषियों ने बताए वह राज़े-दवाम
कहते हैं जिन्हें रूहे-खाने-तहज़ीब
मुज़मर जिनमें है ज़िंदगी के पैगाम।"
- फिराक़ गोरखपुरी
ऐसी ही है हमारी भारतीय संस्कृति, हमारे मूल्य और हमारी परंपराएँ जो विश्व में सबसे पुरातन एवं समृद्ध हैं। हमारे ऋषि, मुनियों ने संपूर्ण विश्व को स्थायित्व का रहस्य बताया है। हमारी संस्कृति व मूल्य जीवंत और चैतन्य हैं। यही कारण है कि इतने पुराने होने के बाद भी ये आज तक चट्टान की तरह सिर उठाकर खड़े हैं जिनकी ओर विश्व की अन्य संस्कृतियाँ प्राचीन काल से ही आकर्षित होती रही हैं। भारतीय संस्कृति ने हमारे समाज के लिए कुछ मूल्य निर्धारित किए हैं जिनका पालन व्यक्ति एवं समाज स्वेच्छा से करता है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि हमारी संस्कृति जड़ एवं स्थिर नहीं है, यह गत्यात्मक एवं परिवर्तनशील है। भारतीय संस्कृति अपने मूल को बरकरार रखते हुए सदैव प्रगतिशील मूल्यों का स्वागत करती है तथा जड़, स्थिर एवं गलित मूल्यों का परित्याग करने को तत्पर रहती है। यह रूढ़ि के बंधन में जकड़ी नहीं रहती।
भारतीय साहित्य भी ग्राह्य एवं प्रगतिशील मूल्यों का पोषण करता रहा है लेकिन जहाँ कहीं भी मूल्यों ने रूढ़ियों का रूप लेकर विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने की चेष्टा की वहीं उन रूढ़ियों को तोड़कर परिवर्तन की धारा को निर्बाध प्रवाहित होने का मार्ग प्रशस्त किया गया। भारतीय लोक-साहित्य मूल्यों एवं परंपराओं का प्रबल पोषक है। लोक-साहित्य की हर विधा चाहे वह लोकगीत हो अथवा लोक-कथाएँ, लोक-नृत्य हों अथवा लोक में प्रचलित मुहावरे एवं लोकोक्तियाँ, ये सब किसी न किसी रूप में हमारे मूल्यों का संरक्षण एवं संवर्धन करते हैं। लोकनाट्यों ने इस दिशा में सराहनीय प्रयास किए हैं। भिखारी ठाकुर की बिदेसिया एवं बेटी बेचवा जैसे मर्मिक किंतु सामाजिक बुराइयों पर कुठाराघात करते लोकनाट्य हों, दक्षिण भारत के कुडियाट्टम, दोड्डाता या फिर छत्तीसगढ़ की पंडवानी, मध्य-प्रदेश के गम्मत ओर माच जैसे लोकनाट्य अथवा उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध लोकनाट्य विधा 'नौटंकी' इन सभी लोकनाट्यों ने अपनी संस्कृति से प्राप्त मूल्यों को संरक्षित करने एवं उसे गत्यात्मकता प्रदान करने में सराहनीय योगदान दिया है।
यहाँ हम नौटंकी द्वारा मानवीय मूल्यों के प्रगटन एवं उनके संरक्षण के प्रयासों की पड़ताल करेंगे, परंतु उससे पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि मानवीय मूल्य क्या हैं तथा उनका नैतिक महत्व किस प्रकार है।
मानवीय मूल्य विभिन्न मानवीय परिस्थितियों तथा विषयों के मूल्यांकन हेतु निर्धारित वे मानवीय मान अथवा आदर्श हैं जिनकी कसौटी पर इन मानवीय परिस्थितियों तथा विषयों का आकलन होता है। ये मूल्य सबके लिए अर्थ रखते हैं तथा उन्हें सारे व्यक्ति अपने जीवन के लिए महत्वपूर्ण समझते हैं।
इन मूल्यों के पीछे एक सुदृढ़ सामाजिक-सांस्कृतिक आधार या पृष्ठभूमि होती है। यही कारण है कि प्रत्येक समाज के मूल्यों में हमें भिन्नता मिलती है। उदाहरणस्वरूप भारतीय समाज, विशेषकर हिंदुओं में विवाह के लिए एक विशिष्ट सामाजिक मूल्य यह है कि इसे अपनी इच्छानुसार तोड़ा नहीं जा सकता है। साथ ही इसकी पवित्रता तभी बनी रह सकती है जबकि पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति वफादार हों। इन मूल्यों का सामाजिक प्रभाव यह होता है कि विवाह-विच्छेद की भावना पनप नहीं पाती है और विधवा-विवाह को उचित नहीं माना जाता है। इसके विपरीत अमेरिकी समाज में विवाह से संबंधित इन मूल्यों का अभाव होने के कारण विवाह-विच्छेद निंदनीय नहीं है। सामाजिक मूल्य सामाजिक मान हैं जो कि सामाजिक जीवन के अंतःसंबंधों को परिभाषित करने में सहायक होते हैं।
मूल्यों के मूल्यांकन की परिधि में सभी प्रकार की वस्तुएँ, भवनाएँ, विचार, क्रिया, गुण, व्यक्ति, समूह, लक्ष्य या साधन आते हैं। मूल्यों का एक उद्वेगात्मक आधार होता है, यदि इसे और भी स्पष्ट करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि मूल्य सामाजिक सदस्यों के उद्वेगों को अपील करता है और उन्हीं के भरोसे जीवित रहता है। जब कभी भी व्यक्ति किसी विषय पर विचार करता है, मूल्यांकन करता है अथवा निर्णय लेता है तो उस पर उद्वेग का प्रभाव स्पष्ट रहता है। इसे एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। हिंदुओं में विवाह से संबंधित एक दृष्टि मूल्य अंतःविवाह है, अर्थात इस सामाजिक मूल्य के अनुसार व्यक्ति को अपनी ही जाति या उपजाति में विवाह करना चाहिए। इसके विपरीत यदि कोई अंतरजातीय विवाह करता है तो सामान्यतः यह देखने को मिलता है कि उस विवाह की चर्चा दंपत्ति के परिवारों में, पड़ोस या गाँव में, मित्र-मंडलियों में बड़े उद्वेगपूर्ण शब्दों में की जाती है। उनके वर्तालाप से ऐसा लगता है मानो उन्हीं का सब कुछ छिन गया है अथवा उन पर कोई आफत आ पड़ी है। उसी प्रकार यदि विवाह के पश्चात नव-दंपत्ति संयुक्त्त परिवार से अलग हो जाते हैं तो वह दंपत्ति विशेषकर वधू निंदा का पात्र बनती है क्योंकि हिंदुओं के सामाजिक मूल्य संयुक्त परिवार के पक्ष में हैं। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति धर्म, त्याग, अहिंसा के सिद्वांतों पर अटल रहकर यदि अपने प्राण दे देता है तो उसकी प्रशंसा में लोग मुखरित हो उठते हैं क्योंकि उस व्यक्ति ने स्वीकृत मूल्यों को मान्यता दी है।
सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों या विभिन्न क्रिया कलाप से संबंधित विभिन्न प्रकार के मूल्य होते हैं। यदि परिवार के पिता से संबंधित कुछ मूल्य होते हैं, तो संपूर्ण राष्ट्र के संबंध में भी कुछ मूल्य हुआ करते हैं। इसी प्रकार विवाह, सामाजिक सहवास, धार्मिक आचरण, राजनीति, आर्थिक जीवन आदि के संबंध में भी कुछ मूल्य होते हैं। इसी क्रम में समस्त मूल्यों में एक बोधात्मक तत्व होता है और वह इस अर्थ में होता है कि एक व्यक्ति की यह धारणा कि 'क्या उचित है' या 'क्या संभव है' की धारणा पर निर्भर करती है। कहना न होगा कि मूल्य एवं आदर्श-नियमों में घनिष्ठ संबंध है तथा इस घनिष्ठता के कारण इनमें अंतर करना अत्यंत कठिन हो जाता है।
मूल्यों की उत्पत्ति एक सामाजिक संरचना विशेष के सदस्यों के बीच होने वाली अंतः क्रियाओं के फलस्वरूप धीरे-धीरे होती है। वास्तव में मनुष्य को अपनी परिस्थिति व पर्यावरण से एक संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता होती है। उसे अपने समाज या समूहों के अन्य लोगों के साथ सामाजिक जीवन में भागीदार बनना पड़ता है, अपने व्यक्तित्व एवं संस्कृति के बीच आदान-प्रदान की प्रक्रिया में सम्मिलित होना पड़ता है, साथ ही उसे अपने जीवन निर्वाह एवं भरण-पोषण संबंधी समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में समाज को अव्यवस्था, असुरक्षा और अशांति से बचाने हेतु समाज द्वारा कुछ अधिमानों, मानदंडों तथा सामूहिक अभिलाषाओं को व्यवहार के आधार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। समाज में अराजकता की स्थिति को टालने के लिए ही समाज द्वारा मान्यता प्राप्त कुछ मानदंड, इच्छाएँ एवं लक्ष्य विकसित किए जाते हैं, और वे समाज में प्रचलित रहते हैं। जिन्हें व्यक्ति सामाजीकरण की प्रक्रिया के दौरान अपने व्यक्तित्व में सम्मिलित कर लेता है। अतः मनुष्य को मूल्य अपने जीवन से, अपने पर्यावरण से, स्वयं से, समाज और संस्कृति से ही नहीं अपितु मानव-अस्तित्व एवं अनुभव से भी प्राप्त होते हैं।
मनुष्य मूल्यों का अन्वेषी है एवं उसके मूल्यों का निर्माता समाज है। वह त्याग को भोग से, श्रेय को प्रेय से अधिक मूल्यवान मानता है। भले ही कोई मनुष्य अहिंसक सत्यवादी या ब्रह्मचारी न हो सके, तथापि समाज अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य को आदर्श मानता है और जो मनुष्य अपने जीवन में इन मूल्यों का थोड़ा भी पालन करते हैं, उनको वह सम्मान देता है। बौद्धों के संघ व्यभिचार के कारण नष्ट हो गए, प्राचीन यूनान के सोडम और गोमरा जैसे नगर भी सामाजिक व्यभिचार के कारण नष्ट हो गए। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस समाज में ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय एवं त्याग जैसे मूल्यों की प्रतिष्ठा रहती है वही जीवित रहता है।
लोकमंच या लोकनाट्य लोक-साहित्य का एक रूप है। लोक एवं लोक-मानस की कथावस्तु पर आधारित, संगीत एवं अभिनय से युक्त यह लोकमंच सदैव लोकप्रियता के शिखर छूता रहा है। लोक कथाओं, लोकसंगीत एवं लोकभाषा से युक्त ये लोकनाट्य चाहे किसी अखाड़े से संबद्ध हों अथवा गुरु शिष्य परंपरा में पोषित, ये लोकमंच जनमानस में आज भी अपना स्थान बनाए हुए है।
स्वाँग या साँगीत जिसे कालांतर में 'नौटंकी' नाम से प्रसिद्धि मिली, लोक वार्तापरक एवं लोक मानसिकता की संगीतात्मक, गेए एवं अभिनयमूलक अभिव्यक्ति है। स्वाँग नामक लोकनाट्य परंपरा अत्यधिक प्राचीन रही है। डॉ. श्याम परमार नवीं शताब्दी में इसके अस्तित्व को स्वीकारते हैं। डॉ. बी.डी. गुप्ता के अनुसार - "ब्रज स्वाँग उसी परंपरा का एक नवीनीकृत रूप है। अभिनय एवं गेयता अर्थात स्वाँग गीत मिलकर 'साँगीत' शब्द को अस्तित्व एवं महत्व प्रदान करते हैं जो स्वाँग में संगीत की प्रधानता का परिचायक है। लोकवाद्य नगाड़े की फड़कती ताल पर अभिनय एवं संगीत की थिरकती स्वर लहरी से परिपूर्ण 'स्वाँग' या साँगीत' लोक मानस की धड़कन के रूप में जनमानस को लुभाता रहा है।"1
कई प्रसिद्ध नौटंकी कलाकारों ने इस विधा को लोकप्रिय बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिनमें श्री कृष्ण पहलवान, त्रिमोहनलाल, गुलाबबाई, तथा पंडित नथाराम शर्मा गौड़ प्रमुख हैं। इनमें पंडित नथाराम शर्मा गौड़ जो उस्ताद 'इंदरमन' अखाड़े की परंपरा के हाथरस निवासी स्वाँग लेखक, गायक एवं अभिनेता थे तथा जिनके नाम की बुलंदी आज भी आकाश को स्पर्श करती प्रतीत होती है, ने स्वाँग की इस परंपरा को निरंतर प्रवाहमय बनाए रखा। 'सुरसरि सम सब कह हित होई' की भावना से आपूरित यह हाथरसी स्वाँग परंपरा जनमानस का रंजन करती हुई न केवल ब्रज क्षेत्र अपितु संपूर्ण भारत में प्रवहमान है।
इन स्वाँगों को देख-पढ़कर न केवल जन-मन रंजन होता है बल्कि कर्तव्यपालन की प्रेरणा, अपनी प्रस्थिति के अनुरूप भूमिका निर्वाह की भावना इत्यादि जैसे मूल्यों का भी सहृदय सामाजिक को बोध होता है। साँगीत 'मदनसेन चंद्रकिरन' का कोतवाल पात्र रिश्वत ग्रहण न कर अपने कर्तव्यपालन का आदर्श मूल्य आज की पुलिस के समक्ष रखता है -
"अपने हक में लैना हराम रिश्वत है।
वह नौकर नमकहराम जिसै यह लत है।
बदमाश लोभ में मुझे फँसाता है।
चलहट आगे को क्यों ज्यादा बात बनाता है।।"2
साँगीत 'सरवर नीर' में व्यक्ति को सत्कर्म करने की ओर प्रेरित किया गया है। कवि के ये शब्द -
"जिसने पाला धरम उन्होंने अच्छा ही फल पाया है।
परमेश्वर ने आज धरम का बेड़ा पार लगाया है।"3
मनुष्य में सत्कर्म जैसे आदर्श मूल्यबोध जागृत करने का प्रयत्न करते प्रतीत होते हैं।
प्रेमाख्यान परंपरा के स्वाँग 'धर्म' की आधारशिला पर टिके हुए हैं। एतदर्थ वे धर्म एवं नैतिकता के पालन की ओर प्रेरित करते हैं। धर्म लोकमानस का आधारभूत संबल रहा है। स्वाँग 'सरवर नीर' के मंगलाचरण की ये पंक्तियाँ धर्म के प्रति आस्था जागृत करती है -
"तेरे नाम अनेक किंतु तू एक दीन हितकारी।
सृजक तु ही पालक तु ही और तु ही नाथ संहारी।।
तेरे ही आधार दया भंडार सृष्टि यह सारी।
उर से तोहि बिसारि कष्ट पावें अपार नर नारि।।"4
धर्म में आस्था जागृत करते हुए भी रचयिता पंडितों के छल-फरेब, मिथ्यावादिता से जन सामान्य को सावधान रहने के लिए आगाह भी कारता है स्वाँग 'बेकसूर बेटी' के सत्यपाल का यह कथन -
"आजकल पंडितों का है इतबार क्या,
कलि में बिल्कुल रहा ना दया और धरम।।"5
स्पष्ट प्रमाण है। साथ ही जीवन की निस्सारता, नश्वरता का बोध कराते हुए धर्मपालन की प्रेरणा स्वाँग से प्राप्त होती है।
"क्यों अभिमान करै नर मूरख हमें अचंभा भारी है रे।
न तेरा भैया न तेरा बाबुल ना तेरी महतारी है रे।।
माया के फंदे में फँसकर प्रभु की याद बिसारी है रे।
नथाराम तुझसा दुनियाँ में तू ही एक अनारी है रे।।" 6
स्वाँग लोकनाट्य सामाजिक वर्ग संरचना में सामंजस्य स्थापित कर समाज व्यवस्था सुदृढ़ करने में योगदान देता है। साँगीतों में धनी, निर्धन, मध्यवर्ग आदि सभी वर्गों के पात्र, विभिन्न जातियों के पात्र तथा सभी वर्णों के पात्र समान महत्व प्राप्त करते रहे हैं। खुले मंच पर अभिनीत 'स्वाँग' के दर्शकों में भी जाति एवं वर्ग के बंधन शिथिल पड़ते लक्षित होते हैं। सभी दर्शक एक साथ बैठकर नौटंकी मंचन का आनंद लेते थे जिससे सामाजिक ऐक्यभाव में वृद्धि की प्रेरणा मिलती है।
'सरवर नीर' स्वाँग में राजा के पुत्रों को धोबी पालता है तथा 'पुत्र मिलन' के अवसर पर राजा धोबी को सम्मान प्रदान कर भारतीय समाज के समक्ष सद्भाव, उदारता एवं सामंजस्य का उदाहरण प्रस्तुत करता है -
"पुत्रों के कहने से झट धोबी-धेबिन बुलवाए हैं।
बसा दिया एक महल उसी में दोनों बसे सिहाए हैं।
मात पिता सम नेह नीर सरवर ने सदा निभाए हैं।"7
कनक रतन जैन जी द्वारा रचित आधुनिक नौटंकी 'दहेज का दर्द' में दहेज जैसी कुप्रथा को समाप्त करने का संदेश जनता को दिया गया है -
"भारत के हम युवक वीर हैं, आगे कदम बढ़ाएँगे,
नई रोशनी नई आस हम दुनिया को दिखलाएँगे।
दहेज में धन लेने-देने का हम अत्याचार मिटाएँगे।
जाति-पाँत का भेद मिटाकर सबको गले लगाएँगे।
प्रेम परस्पर में लहरा दो, आज नक्कारा फिर बजवा दो।" 8
कला जीवन के लिए है। वह सप्रयोज्य होती है और मानव हित एवं कल्याण की ओर गतिशील रहती है। स्वाँग भी इसका अपवाद नहीं। मंगलाचरण में कवि दर्शकों की मंगल कामना करता है -
"शेष महेश शारदा, मम घट पूरण ज्ञान प्रकाश।
आनंद मंगल हौ सदैव भ्रमता अज्ञान विनाशै।।"9
जन मन के भ्रम निवारण, अज्ञान के विनाश एवं आनंद मंगल की कामना जहाँ मन में उल्लास उत्पन्न करती है वहाँ समान्य जन को भी इस ओर प्रेरित करती प्रतीत होती है। 'मदनसेन-चंद्रकिरन' स्वाँग का मंगलाचरण इस तथ्य की पुष्टि करने हेतु पर्याप्त है।
"बंदौ बारंबार निरंतर जन के रहौ सहायक।
मैं मतिमंद न छंद प्रबंधन के बनाइबे लायक।।
देउ विमल विज्ञान सर्वकल्याण मूर्ति सुखदायक।
त्राहिमाम प्रभु त्राहिमाम प्रभु त्राहिमाम गणनायक।।" 10
कहना न होगा कि लोकनाट्य नौटंकी न सिर्फ लोक संस्कृति का रक्षक है अपितु यह उसे निरन्तरता प्रदान कर जीवन में स्थयित्व लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं धार्मिक मूल्यों के संचरण का प्रयास करती है, लोक संबंधों एवं व्यवहार की अभिव्यक्ति कर, परिवार, धर्म, शिक्षा, राजनीति इत्यादि से संबद्ध हो मानव की कलात्मक, सौदर्यात्मक रुचियों की संतुष्टि में सहायक होती है। यही कारण है कि यह आज भी जीवंत रूप धारण कर मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु क्रियाशील है। लोक जीवन की यात्रा कर उसे बोधगम्य बनाने में सहायक होती है। आज के समय में जब -
"शोहरत की आरजू ने किया बेवतन हमें
इतनी बड़ी गरज की उसूलों से हट गए।।"
जैसी मानसिकता के कारण लोग सफलता प्राप्त करने हेतु अपने मूल्यों से भी समझौता करने से नहीं कतराते, ऐसे में नौटंकी जैसी लोकनाट्य विधा लोगों के अंदर मानवीय मूल्यों को जीवित रखने तथा उनका विस्तार करने हेतु सतत् प्रयत्नशील है। जरूरत है कि इस विधा के वास्तविक रूप को बनाए रखते हुए उसमें निहित मूल्यों एवं आदर्शों को ग्रहण एवं आत्मसात किया जाए।
संदर्भ-ग्रंथ सूची :
1. नथाराम शताब्दी ग्रंथ, संपादक - उमा शंकर गौढ़, प्रकाशक - एन.एस. शर्मा, गौड़ बुक डिपो, पृष्ठ संख्या-31
2. साँगीत मदनसैन चंद्रकिरन उर्फ मदन मुहब्बत, लेखक - पं. नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस, पृष्ठ संख्या-20
3. साँगीत सरवर नीर उर्फ धर्म की परीक्षा, नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस, पृष्ठ संख्या-13
4. वही, पृष्ठ संख्या-1
5. साँगीत बेकसूर बेटी उर्फ काली नागिन, पं. नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस, पृष्ठ संख्या-13
6. वही, पृष्ठ संख्या-37-38
7. साँगीत सरवर नीर उर्फ धर्म की परीक्षा, पं. नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस, पृष्ठ संख्या-51
8. नौटंकी कला, संपादक - डॉ. कृष्ण मोहन सक्सेना, सरस्वती मुद्रणालय पृष्ठ संख्या-5
9. साँगीत सरवर नीर उर्फ धर्म की परीक्षा, पं. नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस, पृष्ठ संख्या-1
10. मदनसैन चंद्रकिरन उर्फ मदन मुहब्बत, पं. नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस, पृष्ठ संख्या-1