एक समय दलित साहित्य का जिक्र आते ही सबसे पहले आत्मकथाओं पर चर्चा की जाती
थी। अक्सर दलित लेखकों पर आरोप भी लगे कि जितना समय एवं वजन उन्होंने
आत्मकथा-लेखन को दिया, उतना साहित्य की अन्य विधाओं को नहीं। इसीलिए दलित
साहित्य के खेमे में कविता, उपन्यास एवं कहानी जैसी विधाएँ उतनी मजबूत नहीं
दिखतीं, जितना उन्हें होना चाहिए था। विशेषकर, गद्य की अन्य विधाओं के संदर्भ
में। इनकी शुरुआती रचनाओं के पात्र कमजोर और विपरीत स्थितियों में रहते हुए
अपने अस्तित्व और अधिकारों के लिए प्रतीकात्मक स्तर पर जूझते दिखाई देते हैं।
पर इधर कुछ वर्षों से इसमें काफी परिवर्तन आया है, खासकर दलित कहानी का ढाँचा
तो मानो पूरी तरह बदल गया है।
हिंदी के जिन दलित लेखकों का ध्यान इस ओर गंभीरता से गया है, रत्नकुमार
सांभरिया उनमें एक हैं। उनकी कहानियाँ एक पायदान आगे की कही जा सकती हैं।
सांभरिया के पात्रों को न तो अस्तित्व का संकट है और न ही अधिकारों की लड़ाई की
पहले जैसी जरूरत है। उनके पात्र अपनी अस्मिता और सम्मान के लिए संघर्षरत हैं।
उनका स्पष्ट मानना है कि, "दलितों की पीड़ाओं का पहाड़ खड़ा कर देना 'दलित कहानी'
नहीं है...। दलित कहानी से अभिप्राय एक ऐसी अनूठी रचना से है, जो दलित में नए
जीवन का संचार करती हो। कथाकार दलित हो या गैर दलित... जिस कहानी के पात्र
रुआँसे, गिड़गिड़ाते से, समझौतापरस्त, पलायनवादी से, हारकर बैठने वाले से तथा
यथास्थिति को प्रारब्ध मानने वाले से हों, उनसे दलित कहानी वैभव नहीं पाती।"
सूरजपाल चौहान की 'घाटे का सौदा' कहानी का मुख्य पात्र डोरीलाल वाल्मीकि शहर
में आकर 'डी' लाल बन जाता है और वहीं एक अच्छी कॉलोनी में बंगला खरीदकर
अँग्रेजी ठाठ-बाट से रहने लगता है। पर एक दिन सबके सामने उसकी जाति खुल जाती
है। बस, आत्मग्लानि में डूबा डोरीलाल आनन-फानन में अपनी दस-बारह लाख की कोठी
मात्र छह लाख में बेचकर उस कॉलोनी से भाग खड़ा होता है। किंतु सांभरिया की
कहानियों का एक भी पात्र ऐसा दब्बू और लड़खड़ाते व्यक्तित्व का नहीं मिलेगा।
'मुक्ति' कहानी को ही लें। यह धर्म के नाम पर भावनाओं के शोषण की कहानी है।
गाँव में रथ यात्रा निकल रही है। रथ पर मंदिर का महंत बैठा है। अचानक रास्ते
में एक बिगडैल साँड़ आ जाता है। सारा गाँव डर जाता है। लोग छिपकर तमाशा देखने
लगते हैं। कोई भी साँड़ का सामना करने नहीं आता। अंततः घिघियाता महंत गाँव के
एक दलित नानकराम मेहतर से धर्म की दुहाई देकर कहता है - "नानकराम धर्म की
मर्यादा है। महाराज की सवारी पीछे नहीं मुड़ती है। रथ छोड़ नहीं सकता हूँ, मैं।
साँड़ भगाओ। राह बनाओ। धर्म बचाओ।" धर्मांध नानक तुरंत भावावेश में आ जाता है।
वह अपने कसरती बेटे चंदू की ओर देखता है। चंदू साँड़ का मुकाबला करने आ डटता
है। साँड़ उसे 'घूण' मारता है और उठाकर पटक देता है। आघात से चंदू गंभीर रूप से
जख्मी हो जाता है।
नानक धर्म के नशे में इतना गाफिल है कि महंत द्वारा उकसाने पर अपने बेटे तक को
उसकी रक्षा के लिए आगे कर देता है और यहाँ तक सोचता है कि, "उसका चंदू पूरे
गाँव में शूर निकला। उसने खुद की जान की परवाह न कर धर्म की रक्षा की है। बेटा
चंदू मर गया, शहीद कहलाएगा। मंदिर में मूर्ति रखवा दूँगा, उसकी। बच गया, गाँव
में तूती बोलेगी, अपनी।" धर्म के लिए अपने बेटे की जान न्योछावर करने के बाद
भी जब नानक सवारी के साथ मंदिर में पहुँचकर रथ की मूर्ति उतारने आगे बढ़ता है
तो वही महंत जो कुछ ही देर पहले मृत्यु के डर से नानक के आगे घिघिया रहा था,
घृणा से काँपने लगता है - 'अरे नानकिया, मेहतर है, तू। झाड़ू वाले हाथ मूर्ति
नहीं छूते।" इस धोखे से नानक को धर्म और जाति के गठजोड़ की असलियत का भान होता
है। उसका स्वाभिमान जग उठता है। वह हाथ में पकड़ी तलवार लेकर महंत का वध करने
उसके पीछे दौड़ता है।
अन्य बहुत से दलित रचनाकारों के यहाँ दलित पीड़ा और उत्पीड़न की कहानियाँ तो खूब
हैं, पर उनमें प्रायः विपक्षी शोषणकारी सत्ता से उतना कड़ा और सीधा प्रतिरोध
(टकराव) नहीं मिलता, सांभरिया के यहाँ इसे खासतौर पर देखा जा सकता है। 'आखेट'
भी ऐसे ही प्रतिरोध की कहानी है। एक गाँव में सोमा और रेवती किसान-मजदूर दंपति
रहते हैं। आर्थिक रूप से तंग। सोमा मजदूरी करता है। एक दिन रेवती सास के साथ
अपने खेत में घास छील रही थी। तभी गाँव का जमींदार नानक सिंह उधर आ निकलता है।
वह रेवती की सास को अपने खेतों में चरते जानवरों को भगाने के बहाने दूर भेज
देता है और रेवती को दबोच लेता है। पर रेवती हाथ में मौजूद खुरपी से वार कर
नानक सिंह की नाक काट देती है और छुड़ाकर घर भाग आती है। बस उसी रात सोमा व
रेवती गाँव छोड़कर शहर आ जाते हैं। पीछे से नानक सिंह के कारिंदे सोमा के घर पर
हमला करते हैं। उसकी माँ को घर से पीट-पीटकर निकाल देते हैं, वह पैर पटक-पटककर
वहीं रास्ते में दम तोड़ देती है। सोमा के घर और खेत पर नानक सिंह कब्जा कर
लेता है। शहर आकर सोमा व रेवती एक खाली जगह पर झुग्गी बनाकर रहने लगते हैं।
झुग्गी सुखप्रसाद नाम के एक थुल-थुल साठवर्षीय, विधुर लाला की हवेली के
पिछवाड़े से सटी है। लाला की रेवती पर बुरी नजर है। वह अक्सर अपनी छत से रेवती
को पैसे और आभूषणों का लालच देता रहता है। एक दिन उसने सौ-सौ के नोटो का बटुआ
झुग्गी की ओर गिराया। रेवती ने बटुआ उठाया, उस पर थूका और वापस लाला की ओर
फेंक दिया। इससे लाला जल-भुन उठता है और पिस्तौल निकालकर उसे डराने लगता है।
इसी क्रम में उसे ठोकर लगती है और पिस्तौल हाथ से छूटकर नीचे आ गिरती है। भोली
रेवती उसे खिलौना समझकर बच्चे को खेलने देने के लिए रख लेती है। रात को जब
बुखार में तपते सोमा के लिए वह चाय बनाने उठी तो उसे दिन की घटना याद आई और
उसने वह बंदूक सोमा को दिखाई। असली पिस्तौल और उसमें एक गोली देखते ही सोमा
बुखार में भी रेवती को लेकर अपने गाँव निकल पड़ता है - नानक सिंह से पत्नी की
बेइज्जती, माँ की मौत, घर और खेत का बदला लेने।
ऐसा ही सक्रिय प्रतिरोध 'मांडी' में भी देखा जा सकता है। हम सब जानते हैं कि
हिंदुओं में 'गुरु', 'गंगा', 'गीता, 'गाय', और 'गायत्री' पंचगकार माने गए हैं।
यानी एक समय पंचगकारों में स्थान प्राप्त गाय की धार्मिक, पारिवारिक एवं
आर्थिक हर जरूरत में बड़ी महत्ता थी। गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक हरेक अवसर पर
गाय का दूध, घी पवित्र माना जाता था। उनके बछड़ों से बैल बनते थे, जिनसे सारी
खेती-किसानी सँभलती थी। उनका गोबर खाद के काम आता था। यथावसर गायों का दान तक
किया जाता था। वह इज्जत-मर्यादा की निशानी थी। प्रेमचंद का 'गोदान' इसका
सर्वोत्तम उदाहरण है। एक समय 'घर-घर गायें बंधी होती थीं। उनके बछड़े कुदकड़े
मारा करते थे। बछड़ा नाथा जाता था, गुड़ बँटता था। बछड़ा खस्सी (बधिया) किया जाता
था (जो बड़ा होकर बैल बनता), गुड़ बँटता था। खेतों की ओर जाते बैलों के गलों में
बंधे घुँघरू भोर होने का संकेत कर जगाते थे।' अब स्थिति बदल गई है। पूँजीवाद
और आधुनिक मशीनीकरण ने खेती-किसानी का तरीका ही बदल दिया है। बैलों की जगह
ट्रैक्टर ने ले ली है। गाय की जगह भैंसें आ गई हैं। क्योंकि उससे मिलने वाला
दूध-घी गाय की तुलना में काफी ज्यादा होता है। गोबर की जगह रासायनिक खाद आ गया
है। वस्तुतः इससे उत्पादन में बढ़ोत्तरी भी हुई है। खेती करना आसान हुआ है।
यानी कभी-कभार किसी धार्मिक अवसर के अलावा अब पारिवारिक एवं आर्थिक स्तर पर
गाय की जरूरत बदल गई है। 'मांडी' के दानीदास के लिए अमावस्या ऐसा ही एक
धार्मिक मौका है। 'मांडी' अमावस्या के दिन गाय को दी जाने वाली पहली सिंकी
रोटी को कहते हैं। जिस पर खीर या चावल रखकर गाय को खिलाया जाता है। इसे पितरों
का तर्पण और पुण्य माना जाता है। परंपरानुसार मांडी दे आने के बाद ही घर के
लोग भोजन कर सकते हैं। दान सिंह मांडी लेकर निकला है। असल में, पहले दानीदास
स्वयं गाय पालता था। पर उसकी उपयोगितावादी आँखों में भी अब गाय किसी काम की
नहीं रही सो, एक दिन बेच डाली। थोड़ी देर पहले ही वह गली में बंधी एक गाय देखकर
गया था। जो सुबेसिंह मेहतर की थी। पर इस समय गाय बाहर नहीं थी। सुबेसिंह की
पत्नी कुमुद उसे भीतर अपने चौक में दूध निकालने ले गई थी। दानीदास का मानना है
कि, "मेहतर के चौक-खूँटे बंधी गाय मेहतर थी।" इसलिए वह भीतर चौक में नहीं जाता
मांडी देने। 'धर्म की दीवार जो दरक जाएगी। पितर नुकर जाएँगे।' एक मेहतर के घर
गाय बंधे देख दानीदास का जात्याभिमान फुफकार उठता है। उसे पुराना वक्त याद आ
जाता है। एक समय, यही सुबे सिंह की माँ मोनी उसके घर 'लंबी झाड़ू लिए बुहारा
करती थी। झोली आगे बढ़ाकर जूठन ओटती थी। कोई निकलता, घूँघट काढ़कर खड़ी हो जाती
थी, छिटककर।" और अब, "बड़े-बूढ़े आते-जाते देखते हैं। मूढ़े पर बैठी पोती के
बालों में माँग काढ़ रही है, साहबनी। बेहयाई उतरी है, कतई। जिसके आँगन सूअर
घूमते हों, वह गाय दुहती है।" उपरोक्त पंक्तियों में दानीदास जैसे लोगों की
हिकारत के सारे बिंदु उजागर हो गए हैं। जिन्हें समाज के तथाकथित सबसे निचले
पायदान पर माना जाता है। जूठन लेना और गंदगी साफ करने जैसा घृणित समझा जाने
वाला काम जिनका पेशा रहा है, जिनके घर सूअर पलते आए हों, आज उनके घर गाय बंधी
हुई है। वह गाय, जो 'माता' और हिंदू धर्म का पूज्य स्तंभ मानी जाती है, आज उस
'धर्म की डोर अछूत थामे हुए हैं।' पर दानीदास में भंगी जाति के प्रति जैसी
घृणा है, वैसी दूसरी अछूत जाति चमारों के प्रति नहीं। सुबेसिंह मेहतर के घर न
जाकर दानीदास हाथ में मांडी लिए पता करता है कि गाँव में और किसके यहाँ गाय
मिल सकती है। उसे रुक्का चमार का घर बताया जाता है। यह सुनकर दानीदास सोचता है
कि, "चमारों ने जात छोड़ दी। काम छोड़ दिया। समाज में आ गए।" यानी वह चमारों के
चौक में जाकर मांडी दे सकता है। यादवों के घर जा सकता है। यहाँ तक कि एक मील
दूर मुस्लिम सालुदीन के घर मांडी देने निकल पड़ता है, नहीं जाएगा तो एक भंगी के
घर। रास्ते में उसे खेतों में वही सुबे सिंह मेहतर की गाय चरती मिल जाती है।
जिसे देखकर दानीदास घृणा से थूक देता है। परंतु फिर आपद्धर्म विचारने लगता है,
"बहता पानी और चरता पशु निरपेक्ष होते हैं। ना जात। ना धर्म। मांडी दे। धर्म
निभा, दानी। पोते-पोती भूख से बिलखते उधम मचा रहे होंगे।" और चोर चाल से गाय
तक पहुँच जाता है। मांडी देख गाय भी ललचाकर आगे बढ़ती है। पर उसके मुँह तक
पहुँचने से पहले ही सुबे सिंह की पत्नी कुमुद ने दौड़कर गाय की रस्सी खींच दी
थी। मांडी नीचे गिर पड़ी थी। कुमुद की इस प्रतिक्रिया से पता चलता है कि दलित
अब सचेत हो चुके हैं। वे हिंदू धर्म के उस पक्ष के विरोधी हैं, जिसने उन्हें
सदियों दबाए रखा, शोषण किया और अब अपने माध्यम से वे ऐसी शोषणाकारी धार्मिक
व्यवस्था को फलने नहीं देंगे। 'मांडी' जैसी कहानियों का उल्लेख करते हुए आलोचक
अर्जुन प्रसाद सिंह ने उचित ही कहा है कि, "आज की कहानी 'नई कहानी' को बहुत
पीछे छोड़कर काफी लंबा सफर तय कर आई है। और कई मामलों में उससे आगे बढ़ी हुई
है।" (मधुमती, अंक- मार्च-अप्रैल, 2012, उदयपुर, राजस्थान में शामिल अर्जुन
प्रसाद सिंह का लेख 'समकालीन हिंदी कहानियों की दशा एवं दिशा')
वस्तुतः कहानीकार अपने किसी स्त्री पात्र को कमजोर, हारा हुआ या समझौतापरस्त
नहीं दिखाते, चाहे जाति-व्यवस्था हो अथवा सामंती पुरुष-व्यवस्था, 'आखेट' की
रेवती, 'चपड़ासन' की मीता और 'मांडी' की 'कुमुद' जैसी स्त्रियाँ भरपूर विद्रोही
चेतना का परिचय देती हैं।
सांभरिया का मानना है कि, "पद और पैसे के सामने जात जूती है।" यानी अगर आप
उच्च पदासीन और पैसे वाले हैं, तो जाति का प्रभाव कम हो जाता है। उनकी अधिकतर
रचनाओं में इसकी गूँज सुनी जा सकती है। 'फुलवा' ऐसी ही कहानी है। गाँव में
फुलवा नामक एक दलित स्त्री अपने पति के साथ रहती थी। पति जमींदार के घर में
टहलुआ था। अचानक एक दिन उसकी मृत्यु हो गई। तब से टहलुआ की जिम्मेदारी फुलवा
पर आ पड़ी। पर सब कुछ के बावजूद उसने अपने इकलौते बेटे राधामोहन को पढ़ाना नहीं
छोड़ा। वही राधामोहन अब एस.पी. बन गया था और शहर में आकर एक बड़ी-सी कोठी में
रहने लगा था। गाँव छोड़कर फुलवा भी अब बेटे के साथ ही रहने लगी थी। थोड़ी दूरी
पर उसी गाँव के पंडित माताप्रसाद का भी घर है। एक दिन जमींदार रामेश्वर पंडित
जी से मिलने शहर आता है, ताकि अपने बेरोजगार बेटे दीप सिंह के लिए कोई नौकरी
का प्रबंध करा सके। पता पूछने करने के क्रम में उसे फुलवा के घर पहुँच दिया
जाता है। वही फुलवा, जो कभी गाँव में उसके परिवार की टहलुआ थी। शहर में उसके
ठाट-बाट और व्यवहार देखकर रामेश्वर की जातीय भावना को बड़ी ठेस लगती है। वह
जल्दी से माताप्रसाद के घर पहुँचना चाहता है। वहाँ जाकर उसके मुँह से जातीय
अंह फूट ही पड़ता है - 'फुलवा चाहे सोने की हो जाए। रहेगी उसी जात की। मैंने तो
उसके घर का पानी भी नहीं पिया। धर्म भ्रष्ट होने से मर जाना अच्छा समझता है,
रामेश्वर सिंह।' यहाँ पंडिताइन का जवाब काबिले-गौर है, "तू तो कुएँ का मेंढक
ही रहा रामेसरिया। अब तो पद और पैसे का जमाना है, जात-पांत का नहीं।"
यहाँ तक कि वह दीप सिंह की नौकरी के लिए भी फुलवा के यहाँ जाकर उसकी बहू के
पैर पकड़ लेने की सलाह देती है। पर रामेश्वर का जातीय अंह इसे स्वीकार नहीं कर
पाता। रात को पंडिताइन द्वारा अपने गैरेज में रामेश्वर का बिस्तर लगा दिया
जाता है। पूरा गैरेज बकरी के मिंगन और पेशाब से बास मार रहा था। ऊपर से गेट पर
बीमार कुत्ता बंधा था। रात में एकाएक कुत्ते की खाँसी बढ़ जाती है। बदबू से
रामेश्वर के नकसोर रुँधने लगते हैं। आखिर वह उठकर बाहर आ जाता है और 'उसके कदम
अनायास ही फुलवा की कोठी की ओर बढ़ने' लगते हैं। जो रामेश्वर अपने बेटे की
नौकरी के लिए भी उसके यहाँ जाने, यहाँ तक कि पानी भी पीना स्वीकार नहीं करता,
वह बदबू से घबराकर उसी दलित फुलवा के घर की ओर निकल पड़ता है। दलित लेखक विपिन
बिहारी की कहानी 'भूकंप' में नेमिचंद नामक एक सवर्ण पात्र है। उसके विचार भी
बिल्कुल वही हैं, जो रामेश्वर के फुलवा को लेकर हैं। नेमिचंद नीची जाति के
बीडीओ पात्र एतवारू के बारे में कहता है, "पद-पैसा-व्यवहार में वह लाख ऊँच हो
जाए, लेकिन जात नहीं बदलेगी।" (हिंदी के दलित कथाकारों की पहली कहानी, संपादक
सूरजपाल चौहान, अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, 2004, पृ. 86) गौरतलब है कि 'फुलवा'
और 'भूकंप' दोनों इनके लेखकों की पहली कहानियाँ हैं, परंतु सांभरिया अपनी रचना
में जाति पर पद और पैसे की जीत दिखाकर अंततः सवर्ण रामेश्वर को एक दलित के आगे
झुकने को मजबूर कर देते हैं, जबकि विपिन बिहारी नेमिचंद में कोई बदलाव नहीं
दिखाते।
बहरहाल, 'बिपर सूदर एक कीने' में गाँव की चमार बस्ती के सारे लोग पंचायत में
गंगाजली उठाकर चमड़े का पैतृक पेशा छोड़ने का प्रण लेते हैं, बस एक श्यामू नहीं
लेता। वह चार वर्ष की मोहलत माँगता है कि बेटे की पढ़ाई पूरी होते ही वह भी यह
धंधा त्याग देगा। सारी पंचायत में उसके इस फैसले की थू-थू होती है। यहाँ तक कि
गंगाजली उठा चुका छोटा भाई जीवन भी उसे जली-कटी सुनाने से बाज नहीं आता। अंततः
दोनों भाई घर-परिवार, पशु-खेत सब बाँटकर अलग हो जाते हैं। श्यामू बेटे की पढ़ाई
होने तक चमड़े का काम नहीं छोड़ता। बेटे दीदार का राज्य पुलिस सेवा में चयन भी
हो जाता है। बस सारे गाँव की बयार बदल जाती है, श्यामू के प्रति, अब वह चमार
नहीं रहता। यहाँ तक कि गाँव का पुजारी परिवार भी श्यामू के घर आने-जाने लगता
है। पुजारी श्यामू को मंदिर में भी बुलाकर बात करने लगे थे। असल में पुजारी की
साली का भी दीदार के बैच में चयन होता है। पुजारी परिवार मिलजुल कर, जाति को
भुलाकर 'दलित' दीदार और अपनी ब्राह्मण लड़की का रिश्ता कर देता है। यानी पद और
पैसे ने जाति को दरकिनार कर दिया। किंतु ऐसा आदर्श हर बार और हर जगह मिल पाना
संभव नहीं। यह तभी हो सकता है, जब ऊँची जातियाँ मन एवं वचन से प्रगतिशील विचार
अपना चुकी हों, अहं वाली न हों। अन्यथा अभी भी नीची जातियों की प्रगति को
देखकर प्रायः ऊँची जातियों के अंह को चोट पहुँच जाती है, जिसका परिणाम गोहाना
और नागपुर जैसे कंडों के रूप में सामने आता है, यहाँ आगे बढ़ते दलित सवर्णों की
आँख की किरकिरी बन जाते हैं। यद्यपि कहानीकार ने इस कहानी में सवर्ण के बीच
रोटी-बेटी का संबंध बनाकर अपनी व्यापक भविष्य दृष्टि का परिचय दिया है, पर अभी
भी 'जाति के आगे पद और पैसा जूती हैं' जैसी स्थितियाँ कायम हैं। सांभरिया की
ही 'डंक' शीर्षक कहानी इसका अच्छा उदाहरण है। दलित-जीवन पर आधारित होने के
बावजूद यह रचना लेखक की 'हाथ में दाम हों, जात दब जाती है' मान्यता के विरोध
में जा पड़ती है। गाँव में खेरा नाम का एक पैसे वाला दलित युवक है। ब्याज पर
पैसे उधार देता है। परंतु खेरा से हर कोई चिढ़ता है। 'बाभन उसकी पाग से खीजते,
बनिए उसकी लाम से कुढ़ते।' एक बार गाँव के पुजारी सतना को अपनी बेटियों के
विवाह हेतु बीस हजार रुपयों की जरूरत पड़ती है। कई जगह घूमने के बाद आखिर वह
खेरा के घर पहुँचता है। रुपयों के मद में फूला खेरा जात्याभिमानी पंडित को
अपने दरवाजे आया देखकर भी न तो हुक्का पीना छोड़ता है, न ही खाट से खड़ा होता
है, उल्टे सतना को उसका नाम लेकर बुलाता है, जबकि गाँव के सभी लोग सम्मान से
उसके चरण छूते हैं। खेरा सतना की उधार देकर मदद भी करता है, परंतु समय पर काम
आने के बावजूद नीची जात के खेरा की अकड़ सतना की आँखों में रड़क जाती है। सो एक
दिन वह पीछे से जाकर लाठी से उसकी कमर तोड़ देता है। ताकि पैसे की वजह से गर्व
भरा व्यवहार करने वाले एक दलित को उसकी औकात बता सके। दूसरे, कमर टूट जाने पर
खेरा अपने आप असहाय होकर एक दिन मर जाएगा, सो उसके पैसे भी नहीं लौटाने
पड़ेंगे।
सांभरिया की अधिकतर कहानियाँ गाँव और छोटे कस्बों की कहानियाँ हैं, जहाँ
जातिगत शोषण खूब होता है। पर इनके यहाँ जातिगत शोषण के साथ आर्थिक शोषण भी जुड़
जाता है। 'काल', 'गूँज', 'भैंस', 'खेत' और 'डंक' जैसी कहानियाँ इसका अच्छा
उदाहरण है। 'बदन-दबना' में जमींदार हल्का सिंह कुछ पैसों के बदले में दलितों
के किशोर बालकों को पाँच वर्ष के लिए बंधुआ बना लेता है। और उनसे घर के अधिकतर
काम-काज के साथ अपने हाथ-पैर यानी शरीर दबवाने का काम लेता है। एक बार बंधुआ
हुआ व्यक्ति पाँच वर्ष के लिए उसकी हवेली की चार दीवारी में कैद हो जाता है।
उसे अपनी बहन-बेटी की शादी तक में एक-दो घंटे के लिए भी आने की छूट नहीं होती।
पूछाराम भी इसी तरह बहन की शादी में लिए कर्ज लेने की वजह से 'बदन दबना' बंधुआ
मजदूर बना है। उसी दिन उसकी बहन की शादी है। कई दिनों तक हल्का सिंह की चिरौरी
करने के बाद भी उसे शादी में जाने की मोहलत नहीं मिलती। अंततः उसे अंबेडकर और
गांधी के वाक्य क्रमशः 'शिक्षा शेरनी का दूध होती है' और 'करो या मरो' याद आ
जाते हैं और वह विद्रोह कर देता है। एक और बात, दलितों में अंबेडकर को लेकर
जितना सम्मान और गर्व का भाव है, गांधी के प्रति वैसा नहीं है। यहाँ लेखक ने
अंबेडकर और गांधी को अपने दलित पात्र की चेतना से जोड़कर इस विवादित बहस का
अपने ढ़ंग से समाहार करने का प्रयास किया है। इसी प्रकार, 'गूँज' के माध्यम से
उन्होंने 'ब्राह्मण' और ब्राह्मणवाद' के फर्क को रेखांकित किया है। वैसे
'गूँज' सीधे-सीधे दलित चेतना की कहानी नहीं है, दलित समाज और उसमें पारिवारिक
चालाकियों की कथा है। इसका मुख्य पात्र मालू नामक एक भोला और अनाथ युवक है। जो
बहुरुपिए का काम करता है, अपने से ज्यादा अपने सगे चाचा के परिवार का भरण-पोषण
करता है। किंतु चाचा और उनके लड़के मूर्ख बनाकर समय-समय पर मालू से पैसे ऐंठते
रहते हैं। यहाँ तक कि पैसों के लिए मालू का मकान तक बेच डालना चाहते हैं।
कहानी में पार्वती नामक एक ब्राह्मण स्त्री भी है, पर उसमें 'जात का जहर कतई
नहीं'। वह मालू की सगी माँ नहीं है, पर मालू की अपनी माँ और पार्वती, दोनों का
मायका एक होने की वजह से मालू के लिए उसका स्नेह सगी माँ से कम नहीं है।
इसीलिए मालू उन्हें 'माई' कहता है। मालू को इन्हीं ब्राह्मणी माई द्वारा
चेताया जाता है और समय रहते मालू अपना मकान बिकने से बचा लेता है। आजकल कुछ
दलितवादियों को 'ब्राह्मण' और 'ब्राह्मणवाद' में कोई फर्क नजर नहीं आता। जबकि
हरेक ब्राह्मण जाति का व्यक्ति 'ब्राह्मणवाद' का पोषक नहीं होता।
रत्न कुमार सांभरिया केवल सामाजिक रूप से अस्पृश्य (संवैधानिक रूप से अनुसूचित
जाति के) लोगों को अपनी कहानी का पात्र नहीं बनाते, वरन इनकी दलित-संवेदना का
आयतन काफी विस्तृत है। इनका कहना है कि, "दलित-चरित्र की पहचान के दो आयाम
हैं। पहला जाति, दूसरा पैसा। जाति से दलित। पैसे से दलित। जो जाति से दलित
हैं, लेकिन धन-दौलत से संपन्न हैं और शोहरत पा गए हैं, वे दलित कहानी के पात्र
नहीं होंगे। जो जाति से दलित हैं, जिनका न जातीय सम्मान है और न ही
समाज-परिवेश में उन्हें बराबरी का हक है, अर्थात अनुसूचित जाति, अनुसूचित
जनजाति के गरीब किसान, श्रमिक, बंधुआ मजदूर, पैतृक पेशा करने वाले सफाई कर्मी,
चर्मशोधन करने वाले परिवार तथा घुमंतु और खानाबदोश लोग, जिनका धरती बिछावन है
और आकाश ओढ़न, दलित कहानी के पात्र होने का अधिकार पाते हैं। दलित कहानी का
मुख्य ध्येय इन्हीं उपेक्षित वर्ग को दलित्व से उबारकर उन्हें शिक्षा और
पुनर्वास की ओर उन्मुख करना है।" (दलित समाज की कहानियाँ, रत्नकुमार सांभरिया,
अनामिका प्रकाशन, दिल्ली, पृ.10-11) सांभरिया की यह धारणा 'दलित पैंथर्स' की
परिभाषा के काफी करीब है। 'दलित पैंथर्स' ने 'दलित' के अंतर्गत 'समाज के
अनुसूचित जाति/ जनजाति, नवबौद्ध, मजदूर, भूमिहीन, गरीब किसान, उच्च वर्ण एवं
वर्ग के आर्थिक एवं धार्मिक रूप से पीड़ित एवं शोषित' सदस्यों को माना है। जबकि
समाजशास्त्री डॉ. विवेक कुमार के अनुसार ऐसी व्याख्याएँ सर्वहारा और अस्पृश्य
(दलितों) में भेद नहीं करती, साथ ही, अनुसूचित जाति और जनजाति के अंतर को भी
नकारती हैं। उनके अनुसार, "समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से दलितों एवं सर्वहारा
तथा दलितों (अस्पृश्यों) एवं जनजाति के सदस्यों की चेतना एवं आत्म के विकास के
गर्भ में भिन्न कारक कार्य करते हैं। जहाँ तक सर्वहारा की चेतना एवं आत्म के
सृजन एवं विकास का प्रश्न है तो वह आर्थिक एवं राजनैतिक सत्ता की वंचना से
विकसित एवं पल्लवित होती है, सर्वहारा सामाजिक और धार्मिक रूप से वंचित नहीं
होता। उसे दलितों की भाँति सामाजिक प्रताड़ना, अपमान, तिरस्कार, बहिस्कार एवं
निष्कासन नहीं अनुभव करना पड़ता। दूसरी ओर, अनुसूचित जनजाति हिंदू सामाजिक
व्यवस्था के कभी अंग रहे ही नहीं हैं। उनकी अपनी आत्मनिर्भर सामाजिक व्यवस्था
एवं संस्कृति है। अतः उन्हें भी हिंदू समाज से किसी प्रकार का बहिस्कार एवं
तिरस्कार नहीं झेलना पड़ा है। इसके विपरीत दलित (अस्पृश्य) समुदाय के सदस्यों
के लोगों की चेतना एवं आत्मसृजन एवं विकास के जो कारक हैं, वे हैं सामाजिक
वंचना, आर्थिक विपन्नता एवं राजनैतिक सत्ताविहीनता। अर्थात जहाँ सर्वहारा की
चेतना एवं आत्म के विकास में मात्र आर्थिक वंचना एवं राजनैतिक सत्ताविहीनता
भूमिका अदा करते हैं, वहीं दलितों की चेतना एवं आत्म के विकास में सामाजिक,
आर्थिक एवं राजनैतिक तीनों क्षेत्रों में वंचनाएँ अपना योगदान करती हैं।"
('उत्तर प्रदेश' लखनऊ, अंक 1, सितंबर-अक्टूबर : 2002 में विवेक कुमार का लेख
'दलित साहित्य का समाजशास्त्र', पृ. 32)
अगरचे, सांभरिया की रचनाधर्मिता में हिंदू, मुस्लिम, सिख धर्मों एवं विभिन्न
जातियों के आर्थिक दृष्टि से कमजोर, निम्न वर्ग, खेतिहर मजदूर, विकलांग यहाँ
तक कि पशु-पक्षियों तक के लिए जगह है। सबसे वे उतनी ही आत्मीयता से संवाद करते
हैं। उनकी कई रचनाओं में पशु-पक्षी मौजूद हैं यथा - बकरी के दो बच्चे, मियाँ
जान की मुर्गी, भैंस और काल। 'काल' पशु-संवेदना की बेहद मार्मिक कहानी है।
बैलों की कथा प्रेमचंद ने भी कही है, पर वह बैलों की अपने मालिक से प्रेम की
कथा है। अकाल में मालिक और बैलों के गाढ़ संबंध की कथा 'काल' है। जिसमें भूखों
मरता मालिक मनखू स्वयं अपने बैल की रस्सी खोल उसे 'जहाँ उसका जीव ले जाए',
जाने को कहता है। बैल सीधे अपने मालिक के खेत में जा पहुँचता है, जहाँ थका हुआ
पानी की सूखी 'खेल' (हौज) में अपनी गर्दन डालकर पानी पीने के प्रयास में अंततः
मर जाता है। इस काल ने मनुष्य और इंसान में किसकी दुर्दशा ज्यादा हो रही है,
पाठक सोचता रह जाता है ।
'लाठी' हिंदू बाहुल्य गाँव में एक मुस्लिम दंपति की स्थिति की कहानी है। गाँव
में तो हिंदू, मुस्लिम, उच्च-निम्न वर्गीय लोग सब साथ ही रहते हैं, पर प्रायः
इसे लेकर झगड़े भी हो जाया करते हैं, तो कई बार गलतफहमियाँ भी पनप जाती हैं।
'लाठी' के माध्यम से लेखक ने ऐसी ही एक गलतफहमी को रेखांकित किया है। चाँद
मोहम्मद और सलमा एक मुस्लिम दंपति हैं और हिंदू बहुल गाँव में रहते हैं। चाँद
ने एक गाय पाल रखी है। एक रात जब चाँद घर लौटा तो पत्नी को बदहवास बैठे पाया।
पूछने पर पता चला कि उनके पड़ोसी हरमन चाचा दो लाठियाँ ले आए हैं और शाम से ही
अपने चौक में उठा-उठाकर पटक रहे हैं। असल में, उनके यहाँ नोहरे में एक जहरीला
साँप घुस आया और कहीं दीवार में छिप गया है। जिसे खोजकर मार डालने के क्रम में
लाठियाँ उठाई-पटकी जा रही हैं। पर चाँद व उसकी पत्नी को लगता है कि ये लाठियाँ
उन्हें मारने के लिए लाई गई हैं और पटक-पटक कर उन्हें डराया जा रहा है। उसी
दिन सुबह जब चाँद अपनी गाय को जोहड़ पिलाने लेकर जा रहा था। उसने हरमन चाचा के
दरवाजे के आगे पेशाब कर दिया था। इस बात को लेकर उनके बीच थोड़ी नोंक-झोंक भी
हो गई थी। अपने धर्म का इकलौता घर होने, सुबह हुई तकरार और कुछ साल पहले घटित
बाबरी-मस्जिद विध्वंस ने उनके इस विश्वास को पूरी जमीन दे दी थी कि लाठियाँ
उन्हीं के लिए आई हैं। किसी भी वक्त उन पर हमला हो सकता है। क्षोभ और डर में
पति-पत्नी दोनों रातभर एक-दूसरे को थामे बैठे रहते हैं। चाँद हाथ में चारपाई
की बाही को निकालकर लाठी की तरह पकड़े रहता है ताकि जरूरत पड़ने पर इसी से
मुकाबला किया जा सके। इसी डर और सोच में बैठे इंतजार करते भोर हो जाती है।
सुबह हरमन चाचा बताते हैं कि एक साँप घुस आने के कारण उन्हें सारी रात ऐसा
करना पड़ा। यह कहानी अपनी अर्थ-व्यंजना में भीष्म साहनी के 'तमस' जैसा प्रभाव
छोड़ती है। यहाँ तक कि इस रचना का उपयोग व्यंजना शब्द शक्ति के बेहतरीन उदाहरण
के रूप में किया जा सकता है।
इसी तरह 'बात' एक गरीब और आर्थिक रूप से मजबूर स्त्री सुरती के आत्मसम्मान की
कहानी है। जो पति के मर जाने पर अपने बेटे राधू के साथ रहती है। यों राधू
आठवीं में पढ़ रहा है, पर पिछले तीन महीनों से स्कूल मास्टर को ट्यूशन की फीस न
दे पाने के कारण रोज सजा पाता है। एक दिन सुरती देखती है कि अन्य सारे बच्चे
तो पढ़ रहे हैं, पर मास्टरजी ने राधू को फीस न देने के कारण दोनों हाथ ऊपर कर
खड़ा रहने की सजा दे रखी है। वह स्कूल में हाथ ऊपर किए खड़ा है और उसकी ढीली,
पुरानी तथा पीछे से फटी हुई नेकर धीरे-धीरे नीचे की ओर सरक रही है। यह देख
सुरती उद्विग्न होकर बच्चे को घर ले आती है। इसके बाद वह गाँव के एक बदमाश और
रंडक-भंडक व्यक्ति धींग के पास जाती है और फीस देने हेतु तीन सौ रुपये उधार
माँगती है। धींग पहले ही सुरती पर बुरी नजर रखता था। पैसों के बदले वह कोई चीज
गिरवी रखने को कहता है, लेकिन सुरती के पास रखने को कुछ नहीं है, अपने शरीर के
अलावा। सो वह एक महीने की मोहलत पर 'बात'(जबान) रखती है। 'अगर एक महीने में
तुम्हारा उधार नहीं चुका पाई तो 'हाँ'। खुशी के मारे धींग पैसा दे देता है।
इसके बाद सुरती पास की फैक्ट्री में ऊन सुलझाने का काम करने लगती है। तीसवें
दिन उसे साढ़े तीन सौ रुपये मिलते हैं। शाम को धींग के पैसे चुकाने की सोचकर वह
उन्हें एक बाती में रख देती है और काम करने में लग जाती है। पीछे से धींग
चुपचाप आकर वह बाती में खुसी पोटली निकाल लेता है ताकि पैसे न रहने पर सुरति
की बात पूरी न हो और मजबूरन उसे धींग के हवस का शिकार बनना पड़े। पर सुरति अपने
चौक में धींग की बड़ी-बड़ी जूतियों के निशान पहचान लेती है। वह तुरंत उसके घर
जाती है। धींग उसकी पोटली से खेल रहा था, क्रोध झागती सुरति धींग पर बिजली सी
टूट पड़ती है। एक स्त्री के आत्म सम्मान की बेहतरीन प्रस्तुति है 'बात'।
इसी प्रकार, 'सवाँखे' विकलांगता पर जाति की जीत की कहानी है। वीमा शर्मा आँखों
से अंधी एक ब्राह्मण युवती है, पर नेत्रहीन होने के कारण वह अपने खाते-पीते
परिवार के लिए बोझ बन जाती है। दो सर्विस मैन भाई, भाभियाँ, अच्छी आमदनी होने
पर भी अंधी वीमा उनके लिए हाथी का पेट हो जाती है। 'बचा-खुचा खाना, ऊपर से
तीर-ताना।' किसी तरह फर्ज पूरा करने के लिए घरवाले उसकी शादी एक बेऔलाद सजातीय
अधेड़ से करना चाहते हैं, पर वीमा वहाँ से भाग निकलती है। रास्ते में एक मनचला
युवक उसकी इज्जत लूटना चाहता है। जिसे वहाँ से गुजर रहा एक नेत्रहीन अध्यापक
जमन वर्मा बचा लेता है। मुश्किल में मदद और समान शारीरिक अक्षमता उन दोनों को
करीब लाती है। जमन वीमा को श्यामा जी शर्मा, जिनके स्कूल में वह पढ़ाता है,
लेकर आता है। दोनों श्यामा के दिए हुए मकान में रहने लगते हैं। जब तक वीमा की
जाति नहीं पता थी, किसी को कोई परेशानी नहीं थी, पर एक दिन वीमा के पिता और
भाई उसे ढूँढ़ने हुए वहाँ आ जाते हैं, श्यामा जी को वीमा और अपने सजातीय होने
का पता चलता है। बस, वह वीमा को जबरदस्ती उठवाकर उसके घर भिजवा देता है। जमन
का सामान अपने कमरे से बाहर फिंकवा देता है और वीमा व जमन के तलाक की
प्रक्रिया में लग जाता है। जमन विकलांगों के कार्यालय से लेकर पुलिस और
पत्रकारों तक अपनी गुहार लगाता है, पर जाति के आगे सब कुछ बेकार। सारे उच्च
जाति वाले नीची जाति के जमन के खिलाफ एक जुट हो जाते हैं। अंततः मददगार साबित
होता है जमन का विकलांग मित्र देवत, जो बहुत सारे विकलांगों को इकट्ठा कर
निशक्तजन आका के कार्यालय के सामने धरने पर बैठ जाता है। यहाँ तक कि चंदा
उगाहकर कोर्ट जाने की तैयारी भी कर ली गई है।
'गाड़िया' एक घुमंतू जाति से संबंधित लोहार-जीवन की कहानी है। ये लोग अपने को
महाराणा प्रताप का वंशज मानते हैं। कहते हैं, 1576 में हल्दी घाटी की लड़ाई
में मुगलों की 80,000 सेना के विरुद्ध 20,000 राजपूत और भील लड़े थे। पर मुगल
जीत नहीं पाए। लेकिन महाराणा प्रताप भी चित्तौड़ वापस नहीं ले पाए।
चित्तौड़गढ़ 1567-68 में ही उनके पिता की हार के साथ मुगलों के कब्जे में चला
गया था। लुहार तब चित्तौड़ की सेना के लिए हथियार बनाने का काम करते थे।
उन्होंने तय किया कि जब तक महाराणा चित्तौड़ को वापस नहीं पा लेते, तब तक वे
कहीं घर बसाकर नहीं रहेंगे। लुहारों की यह शपथ आज भी कमोबेश कायम है। बैलगाड़ी
ही इनका चलता-फिरता घर है। इनके जीवन के सारे रंग इस गाड़ी में ही सिमटे हुए
हैं। जन्म, मरण, घरण, गौना आदि सब-कुछ। ये लोहे के घरेलू कामकाज के औजार बनाते
हैं। किसी एक गाँव में अस्थायी तौर पर रुक जाते हैं, वहाँ खेती-किसानी एवं
अन्य जरूरत के लोहे के सामान की पूर्ति करते हैं। इनकी आजीविका इसी से चलती
है। किंतु जब से प्लास्टिक, फाइबर और लोहे के सामान का औद्योगिक उत्पादन होने
लगा है, खेती भी आमतौर पर मशीनों से होने लगी है, इनका जीवन संकट में आ गया
है। गरीबी ने उन्हें निगल लिया है। पढ़े-लिखे भी नहीं हैं। स्थिर रहवासन हो तो
पढ़ाई-लिखाई का सवाल ही नहीं उठता। सो, नौकरी आदि का भी मुद्दा नहीं बनता।
वस्तुतः सांभरिया की कहानी 'गाड़िया' अपने कथ्य में पूरी शिद्दत से 'सौ सुनार
की, एक लुहार की' कहावत बयाँ करती है। लूण सिंह नामक गाड़िया लुहार अपनी पत्नी
और एक जवान बेटी के साथ एक गाँव में पिछले बीस सालों से डेरा डाले हुए है।
बेटी की अभी-अभी सगाई हुई थी। एक रात जब लूण सिंह की बेटी गाड़ी में सोई थी,
गाँव के जमींदार का बेटा फकीरचंद उसकी गाड़ी में चढ़ गया। ज्यों ही उसने लड़की को
हाथ लगाया, उसने शोर मचा दिया। पकड़े जाने के डर से फकीर चंद भागकर अपने घर में
घुस गया। लूण सिंह भी कुल्हाड़ा लेकर उसके पीछे-पीछे। मोहल्ले में जाग पड़ गई।
सरपंच आया। उसने लूण सिंह को खूब समझाने की कोशिश की, पर सब व्यर्थ। अंततः
सरपंच के इशारे पर गाँव के दो-तीन गबरू लड़कों ने उसे पकड़ लिया और उठाकर मुँह न
खोलने की धमकी देते हुए उसकी गाड़ी तक छोड़ गए। लूण सिंह ने अपने रिश्तेदारों और
पड़ोसी गाँव में रह रहे लुहारों को भी बुला लिया था। सब जमींदार के बेटे के
खिलाफ एकजुट हो गए थे। यहाँ तक कि लूण सिंह का समधी और होने वाला दामाद भी
'दिल्ली तक लड़ने' को तैयार था। तनाव बढ़ता देख सरपंच पुलिस बुला लेता है, पर
दाँव उल्टा पड़ता है। पुलिस फकीर चंद को ही पकड़कर ले जाती है। केस, थाना, कचहरी
के बाद अंततः फकीर चंद को चार साल की सजा हो जाती है। इसके बाद लूण सिंह गाँव
छोड़ देता है। साथ ही कसम खाता है कि आज के बाद इस गाँव में कोई लुहार डेरा
नहीं डालेगा। एक घुमंतू जाति की एकता, उनकी जागरुकता और अन्याय के प्रति
विद्रोह देखने लायक है।
सांभरिया की ही एक कहानी है 'शर्त'। इसमें जमींदार के बेटे द्वारा दलित जाति
के पानाराम की लड़की के साथ बलात्कार किया जाता है। पर पानाराम को अपनी लड़ाई
अकेले लड़नी पड़ती है। ऊपर बताया जा चुका है कि गाँव के लोग जमींदार जसबीर के
खिलाफ प्रतीकात्मक विरोध तो दर्शाते हैं, पर कोई सक्रिय विद्रोह करते नहीं
दिखते। यहाँ दलितों के बीच आपसी एकजुटता का स्पष्ट अभाव दिखाई देता है, अन्यथा
इस कहानी का हल भी 'गाड़िया' जैसा हो सकता था। यों, 'गाड़िया' बहुत छोटी कहानी
है। सिर्फ एक मुख्य-घटना को केंद्र में रखकर लिखी गई। जबकि इसमें संघर्ष की कई
संभावनाएँ मौजूद हैं। जिनको विस्तार देने पर यह रचना और समृद्धि प्राप्त करती।
हमारे समाज में आज भी कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनसे दलित-विमर्श गंभीरता से टकरा
रहा है और माकूल उत्तर खोजने का प्रयास कर रहा है। सांभरिया की कहानियों में
रचना के स्तर पर ऐसे कुछ सवालों की गंभीर पड़ताल मिलती है। 'शर्त' और 'चमरवा'
ऐसी ही कहानियाँ हैं। हालाँकि 'शर्त' के कथ्य और 'ट्रीटमेंट' को लेकर भरपूर
संवाद और प्रतिवाद की गुंजाइश है। गाँव का जमींदार व दलितों के वोट पर ही
वर्षों सरपंच रहा जसबीर दबंग किस्म का व्यक्ति है। उसके यहाँ पानाराम मेहतर की
लड़की झाड़ू-बुहारी करने आती थी। एक दिन जसबीर परिवार सहित एक रिश्तेदार की शादी
में गया होता है। उसका लड़का परीक्षा होने के कारण घर में अकेला रह जाता है।
पीछे से पानाराम की लड़की सफाई करने आती है। जसबीर का लड़का उससे बलात्कार कर
देता है। अपनी बेटी के साथ हुए बलात्कार की इस घटना से दुखी और विक्षुब्ध
पानाराम खाना-पीना त्याग देता है। गाँव में उसकी खाली कुर्सी को भी अदब करने
वाले लोग, इस घटना के बाद जसबीर को नमस्कार करना भी छोड़ने लगते हैं, बल्कि,
कुछ तो उसके सामने से गुजरने के बाद थोड़ा आगे जाकर थूक तक देते हैं। जसबीर
लगातार अपनी इज्जत और दबंगई को कम होते देख बेहद आहत है। जसबीर सुलह के लिए
पानाराम को बुलवाता भी है, पर वह नहीं आता। बाद में पानाराम खुद ही आता है।
जसबीर जैसे लोगों के लिए किसी दलित लड़की का बलात्कार होना कोई अनहोनी नहीं है।
इसीलिए वह पानाराम को तरह-तरह के प्रलोभन आदि देकर निपटा लेना चाहता है। पैसे
लेने के आग्रह पर पानाराम की चेतना बहुत अच्छा जबाब देती है - 'पैसे और गरीब
की इज्जत को एक ही तराजू में मत तौलो साब।' उसके लिए बलात्कार के कारण वर्षों
से चली आ रही अपनी इज्जत का कम होते देखना और पीड़ित दलित परिवार के सारे
सदस्यों का इसी मुद्दे पर अपनी इज्जत के लिए जहर खाकर मर जाने को कहना बड़ी
चिंता के विषय हैं।
अंत में फँसा हुआ जमींदार जसबीर पानाराम के आगे हथियार डालने की मुद्रा में
पूछता है - 'किसी शर्त पर मान भी जाओ पानिया!' "पानाराम स्वयं को मथने लगा,
केवल साँसें लेकर जिंदा रहना जिंदगी नहीं है। आदमी की असली जिंदगी तो उसकी
आबरू होती है। आबरू उतरी, इंसान जिंदा लाश हुआ। जिसके लड़के ने मेरी आबरू का
खून कर दिया, उसकी दुखती रग पर उँगली रखकर तो देखूँ!" बात उसके कंठ तक आई,
लेकिन मानवीयता ने उसके पाँव पकड़कर वापस खींच लिए, मानो कोई सँपेरा सीमा
लाँघते कोबरा को पूँछ से खींचकर वापस टोकरी में पटक देता है। औरत की सजा औरत।
यह तो बेहूदी शर्त है।"
गौरतलब है, दलित पानाराम अधिक पढ़ा-लिखा नहीं है, पर इतना जागरूक जरूर है कि
अपनी लुटी हुई इज्जत को पैसों के बदले गिरवी नहीं रखता। ना ही जसबीर के लड़के
को सबक सिखाने के लिए पुलिस थाने में जाता है। पानाराम अपना और अपनी बिटिया की
इज्जत का दाग धुलाने के लिए पाँच काम कर सकता था - पहला, वह जमींदार से पैसे
ले लेता और चुप हो जाता, जसबीर खुद भी ऐसा ही चाहता है। दूसरा, वह जमींदर के
बेटे के खिलाफ पुलिस में चला जाता। पर वह जानता है कि "थाना-कचहरी गरीब के
नासूर होते हैं।" यहाँ सांभरिया ने आम आदमी के असुरक्षा बोध और थाना-कचहरी से
उसकी दूरी को रेखांकित किया है। तीसरा, वह अपने गाँव से चुपचाप पलायन कर जाता।
चौथा, पूरे परिवार सहित जहर खा सकता था, जैसा कि जमींदार से बातचीत के दौरान
उसने कहा भी। पाँचवें और अंतिम हल के रूप में वह अपनी बेटी का विवाह जमींदार
के उसी बलात्कारी बेटे से कराने का सुझाव दे सकता था, यह कहते हुए कि आपके जिस
बेटे ने मेरी बेटी का दलन किया है वही अब उसको सामाजिक रूप से अपनाए। इससे एक
ओर पानाराम की इज्जत का बदला पूरा होता तो दूसरी तरफ इसे एक दलित परिवार से
संबंध जोड़कर समाज में जड़ हो चुकी जाति-व्यवस्था को तोड़ने में सफलता का एक कदम
भी माना जा सकता। यद्यपि पति बना दिए जाने के बावजूद पानाराम की लड़की के लिए
जमींदार का वह लड़का हमेशा बलात्कारी ही बना रहता? उसके लिए यह कोई तार्किक हल
नहीं कहलाता। परंतु जाति से निम्न, आर्थिक रूप से कमजोर, एक बलात्कृत बेटी का
पिता, बिना ऊँची पहुँच का और पूरी तरह बेबस होने के बावजूद पानाराम इनमें से
कोई रास्ता नहीं चुनता। अंत में, चारों ओर से घिरे जमींदार को पानाराम एक नया
ही हल सुझाता है। वह जसबीर से कहता है, "मुखिया साब, इज्जत का सवाल है यह।
आपकी इज्जत सो मेरी इज्जत। आपकी लड़की मेरे लड़के के साथ रात रहेगी।"
यह निश्चित रूप से एक पुरुषवादी हल है। ये बात पानाराम भी जानता है। एक
निर्दोष अस्मिता पर बलात्कार का जवाब दूसरी निर्दोष अस्मिता से बलात्कार कर
नहीं लिया जा सकता। परंतु जाति, जमीन और रुतबे के नशे में फूला एक जमींदार,
जिसके लिए किसी दलित या स्त्री का अपमान अथवा शोषण हो जाना किसी अपराध की
श्रेणी में नहीं आता। ऐसे व्यक्ति को पानाराम जान-बूझकर, बल्कि अपनी जान पर
खेलकर दूसरों की इज्जत से खेलने का अपराध-बोध कराना चाहता है। कहानी के
अनुसार, बलात्कार की इस घटना के बाद गाँव के लोगों द्वारा मुखिया को नमस्कार
करना छोड़ देना और थोड़ी दूर जाकर थूकना उनके मन में एक दलित लड़की के शोषण को
लेकर पैदा हुई गहरी सामाजिक चेतना का संकेत है। लेखक पानाराम के साथ ऐसे
चेतनशील लोगों को जमींदार के खिलाफ गोलबंद कर रचना को एक नया आयाम दे सकता था।
जिससे उसे अपनी लड़ाई अकेले नहीं लड़नी पड़ती और जसबीर को उसके अपराध की गंभीरता
का अंदाजा भी हो जाता। पानाराम की जान तो बचती ही।
इसी तरह, 'चमरवा' के माध्यम से लेखक ने जाति और पेशे के मध्य अंतर्संबंधों की
गहन पड़ताल की है। कहानी के अनुसार 'चमरवा राजस्थान के पूर्वी और हरियाणा के
पश्चिमी छोर पर बसी 'चमरवा बामन' नाम की एक जाति है, जो केवल चर्मकारों के ही
कर्मकांड संपन्न कराकर अपना बसर करती है।' दरपनदास का परिवार इसी जाति का है।
वह चमारों का पुरोहित तो है, पर उसकी पहचान चमारों के बीच एक ब्राह्मण की और
ब्राह्मणों के बीच एक 'चमार' की है। यहाँ सवाल है कि 'चमरवा' की उत्पत्ति के
सामाजिक आधार क्या हैं? इतना तो तय है कि आमतौर पर ब्राह्मण-पुरोहित तथाकथित
नीची जातियों के धार्मिक कर्मकांड संपन्न नहीं कराते थे अथवा प्रेमचंद की
'सद्गति' की तरह बहुत ना-नुकर, मान-मनुहार और बेगार कराने के बाद राजी होते
थे। फलतः चमार जाति में आसानी से पुरोहित-कर्म पूरा करने के लिए 'चमरवा' की
उत्पत्ति हुई होगी। एक संभावना यह है कि, ब्राह्मणों द्वारा अपनी जाति से
बहिष्कृत किए हुए कुछ लोगों ने प्रतिकार के चलते चमारों का कर्मकांड कराना
स्वीकार किया हो। यानी वे होंगे तो जाति से ब्राह्मण ही, पर कालांतर में सिर्फ
चमार जाति के पुरोहित होकर रह जाने से 'चमरवा' कहलाने लगे। दूसरी परिकल्पना ये
हो सकती है कि ब्राह्मणों द्वारा चमार जाति के कर्मकांड न कराने के चलते
थोड़े-बहुत पढ़े-लिखे चमार जाति के कुछ युवक ही पुरोहिती कर्म सँभालने लगे हों
और कालांतर में 'चमरवा' कहलाए हों। पौरोहित्य करते-करते और ब्राह्मणों की
देखा-देखी उनमें भी उच्चता बोध पनप गया होगा, सो वे चमारों के पुरोहित होने के
बाद खुद उनसे छुआ-छूत का व्यवहार करने लगे होंगे। अपनी जाति के आम लोगों से
रोटी-बेटी व्यवहार भी खत्म कर लिया होगा।
इस प्रकार 'चमरवा' एक जाति के रूप में अस्तित्व में आई होगी। बहरहाल, इसके सही
कारणों की तलाश के लिए अलग से शोध की जरूरत है। खोजना यह भी चाहिए कि जिस तरह
चमारों के कर्मकांड संपन्न कराने वाले चमरवा कहलाने लगे, वैसे अन्य नीची
जातियों के लिए भी ऐसे पुरोहित जरूर होंगे; उनका नाम और सामाजिक आधार भी जानने
योग्य है। प्रश्न ये भी है कि जाति और पेशे के द्वंद्ध में भारी कौन पड़ता है।
आमतौर पर जाति। बहरहाल, कहानी में दरपनदास ऐसा ही एक 'चमरवा ब्राह्मण' है। वह
चमारों के सारे धार्मिक कार्यकलाप पूरे कराता है, पर उनका छुआ नहीं खाता। बदले
में आसामी से सूखा सिद्धा लेता है - आधा किलो चावल, दो किलो आटा, एक किलो
बूरा, आधा किलो देशी घी, आधा किलो दाल, छोंकने का सामान, पकाने के लिए पाँच
बर्तन। सर्दियों में सोर-सोरिया। गर्मियों में खेस, दरी और चादर। उसका मानना
था कि सूखा शुद्ध होता है, गीला छूत। कुल मिलाकर 'चमरवा' के रूप में जाना जाने
वाला दरपन अपने को 'बामन' मानता है। उसके आसामी चमार भी उसे बामन ही मानते,
बोलते और व्यवहार करते थे।
जब दरपन की पत्नी नोना का देहांत हो गया तो उसके लिए चार कंधों की जरूरत पड़ी,
लाश को शमशान ले जाने के लिए। गाँव में अपना अकेला घर और उसमें भी अकेला
व्यक्ति बचा रहने के कारण दरपन को तीन ब्राह्मण या कम से कम सवर्ण कंधे और
चाहिए। चमारों के साथ पीढ़ियों से चली आ रही छुआछूत की रीत के चलते वह उनकी मदद
लेना गवारा नहीं करता। रचना के अनुसार शास्त्रों में भी लिखा है - 'मृतक का
क्रियाकर्म कुलदीपक, भाई-बंधु, रिश्तेदार अथवा ऊँची जाति के लोग ही करें, वरना
जीवात्मा को इस भवसागर से मुक्ति नहीं मिलती।' दूसरे स्वयं नोना ने भी 'जीते
जी छोटी जात नहीं छुआई, तो मृत देह को छूत क्यों? अंततः वह तय करता है कि
'नोना, तुम्हें गंगा मैया में बहाकर आना मंजूर, तेरी अर्थी चमार नहीं छुएँगे।'
रीति के अनुसार मृत देह को नहला-धुलाकर, नए कपड़े व पूरा श्रृंगार कराया जाता
है। दरपन अकेले नोना की लाश को तैयार कर लेता है और ब्राह्मणों के यहाँ कंधों
की व्यवस्था के लिए चल देता है। सबसे पहले वह सवर्णों की पुरोहिती कराने वाले
ब्राह्मण हीरानाथ के घर पहुँचता है, पर वहाँ से बुरी तरह लताड़ खाकर लौटता है।
हीरानाथ उसे 'चमार' ही हाँकते हैं। नोना के सारे गहनों के बदले भी अपना
ब्राह्मण कंधा देने को राजी नहीं होते। कहते हैं, तेरी घरवाली स्वर्ग में जाए
या नहीं जाए, मैं उसे कंधा देकर जीते जी नरक में जरूर चला जाऊँगा। धर्म का
मखौल मत उड़ा 'चमरवा।"
वहाँ से निराश होकर वे दर्जी, खाती, तेली, अहीर और जाटों के घर भी गए, यानी
वर्ण व्यवस्था के पायदान ब्राह्मण से लेकर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों तक से
उन्हें कंधा लेने से कोई दिक्कत नहीं, बस अछूत चमार स्वीकार्य नहीं। हारकर
अपने किए प्रण के अनुसार दरपनदास टैक्सी कर लौटता है ताकि लाश को गंगा में ही
बहा दिया जाए, पर घर आकर देखता है कि गाँव के चमारों को इस घटना का पहले ही
पता चल गया था, वे पीछे से ही नोना की अर्थी उठाकर श्मशान की ओर बढ़ गए थे।
कहानी का अंत ये है कि दरपनदास चमारों को लाश न जलाने के लिए चिल्लाते हुए दौड़
रहा था, पर चमारों ने चिता को आग दे दी थी। हिंदू धर्म में, जैसा कि पीछे लिखा
है, लाश का अंतिम संस्कार परिजन करते हैं। चूँकि दरपनदास अपने परिवार में
अकेला था, इसलिए चमारों द्वारा अपने आप कंधा देना परंपरा विरुद्ध होने के
बावजूद गैरवाजिब नहीं लगता, पर उनके द्वारा नोना की चिता को मुखाग्नि देना
उचित नहीं प्रतीत होता। कहानी के अनुसार न तो नोना ने कभी जीते-जी चमारों से
अपनी देह छुआई, न 'धर्मभीरु' चमारों ने छुई। किंतु कहानीकार ने उनके हाथों लाश
को आग तक दिलवा दी। यहाँ रचना का 'ट्रीटमेंट' न तो स्वाभाविक लगता है, न ही
तार्किक।
'चमरवा' सहित एक-दो कहानियाँ और हैं, जिन्हें पढ़कर रचनाकार की दृष्टि पर सवाल
भी उठ सकता है। जैसे, 'बकरी के दो बच्चे'। यह दलित-जीवन की कहानी तो है, पर
दलित-चेतना की कहानी नहीं है। चमार जाति के खेतिहर दलपत की ताजा ब्याई बकरी के
दोनों बच्चों को जमींदार दान सिंह के बेटे धर्मपाल द्वारा मार दिया जाता है।
दलपत दान सिंह से इसकी शिकायत करने जाता है। पर जाति और पसे के मद में चूर दान
सिंह उल्टे दलपत को डपटते हुए कहता है - 'ढेड़ और भेड़ को हम जीव नहीं मानते,
समझे...। ज्यादा मुँह जोरी की न, तो तुझे भी...।' दलपत अपने साथ हुए इस अपमान
और धर्मपाल के अपराध का बदला लेना चाहता है। जिसमें सहायक बनता है, उसका
पड़ोसी, 'धर्मभाई' व गाँव का पंच शर्मचंद मेहतर। दोनों दरोगा के पास एफ.आई.आर
कराने बकरी के मरे हुए दोनों बच्चे साथ लेकर जाते हैं, पर दान सिंह से पहले ही
पाँच हजार की रिश्वत खाया दरोगा उन्हें डाँटकर थाने से भगा देता है। अंततः
शर्मचंद दलपत को अपने साले रामदुलारे के पास लेकर जाता है। रामदुलारे सफाई
कर्मचारी यूनियन का अध्यक्ष है। उसके द्वारा एस.पी. को फोन करने से मामला
संभलता है। लेखक के अनुसार एस.पी. स्वयं अभावों में पले थे। 'किसी दरिद्र की
पीड़ा से रू-ब-रू होते ही उनका सर्वहारा मानस जाग उठता था।' किंतु साथ ही,
उन्हें ये भी पता था कि, 'रामदुलारे अपनी बात की खातिर गंदे से गंदा हथकंड़ा
अपनाने से भी नहीं चूकता है। एक बात उसने तहसीलदार के गेट के सामने कचरे का
ढेर लगवा दिया था।' आज चूँकि एस.पी. के इकलौते बेटे की सालगिरह थी, जाहिर है,
अगर उसकी बात नहीं मानी गई तो रामदुलारे यहाँ भी कुछ ऐसा ही कर सकता था। सो,
एस.पी. तुरंत दरोगा को हड़काकर दान सिंह को हथकड़ी लगा लाने का हुक्म दे देता
है। निलंबित होने के डर से दरोगा न केवल दलपत की रिपोर्ट दर्ज करता है, दान
सिंह को पकड़कर थाने भी ले आता है। कहानी में एक पीड़ित दलित को उसका इच्छित फल
तो मिला, पर उसका तरीका और एकाध पात्रों का चरित्र-चित्रण मन में सवाल उठाता
है। लेखक ने कहानी में एक तरफ तो दलपत और शर्मचंद को एक-दूसरे का धर्मभाई
घोषित किया है, पर साथ ही, एक बात भी कही है, 'जात-पाँत की कथित सोपान पर
शर्मचंद और दलपत एक सीढ़ी छोटे-बड़े थे।' चूँकि कहानी में यह वाक्य रचनाकार की
ओर से बतौर सूचना आया है, किसी पात्र के संवाद के रूप में नहीं। लेखक को यह
कहने की क्या जरूरत थी? समझ से परे है। दूसरे, इस कहानी में उन्होंने
रामदुलारे नामक सफाई कर्मचारी अध्यक्ष का जैसा चरित्र-चित्रण किया है, वह भी
सवाल उठाता है! ''रामदुलारे शर्मचंद का साला है। सफाई कर्मचारियों की यूनियन
का अध्यक्ष। घर का मकान है। भौतिक ठाठ-बाट हैं...। रामदुलारे का कद नाटा है।
बदन गठीला-गदराया है। वह कृष्ण रंग का तीसेक साल का दानिशमंद युवक है। बातों
में रोचक, रोबदार, मजेदार। सनकी बहशीपन की हद तक। इलाके का दादा। आक्रोशित
होने पर रीछ की मानिंद शरीर नोचता। बदहवास की तरह मुट्ठियाँ बाँधकर मेज पीटता
और लहूलुहान हो जाता। उसके कमरे की दीवारों पर कलाकृतियाँ टंगी हैं। वह
कलाकृतियों को देह-देख प्रमुदित है। ये चौथी कक्षा में पढ़ रही उसकी बेटी
तूलिका ने बनाई हैं।" पूछना यह है कि एक व्यक्ति, जो सफाई कर्मचारी यूनियन का
अध्यक्ष और भौतिक ठाठ-बाट से युक्त है, यानी रामदुलारे के पास पद और पैसा,
दोनों हैं। क्या इसके बावजूद दूसरों की नजर में उसकी जाति का असर दब गया है?
उसे रंग का काला, बहशीपन तक की हद तक सनकी, गुस्से में रीछ की तरह शरीर नोचने
वाला और लहूलुहान होने तक मेज पीटने वाला चित्रित कर लेखक महोदय क्या संकेत
करना चाहते हैं और उक्त चरित्र की इन विशेषताओं की कहानी में क्या भूमिका है,
पता नहीं! और तो और, दलपत एवं शर्मचंद द्वारा बताई स्थिति से पैदा हुए तनाव के
बावजूद लेखक द्वारा रामदुलारे के मुँह से अमजद खाँ की तरह 'बहुत खूब! बहुत
खूब' कहकर दरोगा की टेबल पर बकरी के बच्चों को पटकने की बात करने जैसे डायलॉग
बुलवाना भी कहीं से तार्किक नहीं लगता। रामदुलारे का चरित्र ऐसा दिखाया गया
है, मानो वह कोई 'प्रिमिटिव' काल का मनुष्य हो। लेखक द्वारा इस कहानी में एक
दलित जाति-विशेष को जान-बूझकर बुरे रूप में चित्रित किया गया लगता है। यही
कारण है कि ऐसे चित्रण के तुरंत बाद कहे गए एकाध अच्छे वाक्य भी संदर्भों को
सकारात्मक दिशा नहीं दे पाते। वास्तव में, एस.पी. द्वारा अपनी सर्वहारा
मानसिकता के चलते घूसखोर दरोगा को डपटकर कार्यवाही का आदेश देना चाहिए था, न
कि रामदुलारे की 'गंदी हरकतों' की आशंका और उसके कारण अपने इकलौते बेटे की
सालगिरह में व्यवधान आ जाने के डर से। लेखक ने रामदुलारे की ऐसी क्रूर छवि
खींची है कि अपनी बेटी की कलाकृतियाँ देखकर उसका मुदित होना भी थोपा हुआ लगने
लगता है।
सांभरिया जी के यहाँ कुछ असंगत तुलनाएँ भी देखने को मिलती हैं। 'काल' नामक
अपनी एक कहानी में अकाल का चित्रण करते हुए उन्होंने लिखा है, "भागता-भागता वह
(मिनखू) कुएँ की मुंडेर से जा टकराया था...। संयमित होने पर उसने कुएँ की
मुंडेर पर हाथ रखकर कुएँ में झाँका। कुएँ की तली में चटक धूप थी। तली की चिकनी
सूखी पपड़ी मछली की देह सी आभ रही थी।" क्या मिट्टी की सूखी पपड़ी मछली की देह
सी आभ सकती है, अगर 'चार साल से अकाल की मार' पड़ रही हो? चिकनी मिट्टी और मछली
की देह आभती तभी हैं, जब दोनों पानी से जुड़ी हों। मिट्टी में नमी हो और मछली
पानी में हो। पानी सूख जाने पर न तो मिट्टी में आभ हो सकती है और न मछली में।
दोनों मृत्यु समान हो जाती हैं।
'आखेट' कहानी में भी ऐसा ही प्रयोग देखा जा सकता है। रचनाकार ने खेत में नानक
सिंह द्वारा रेवती की इज्जत लूटने के प्रयास की तुलना द्रौपदी, चीर, दुर्योधन
और कृष्ण प्रसंग से की है। "दौपदी सबल थी। रक्षक श्रीकृष्ण थे। गरीब रेवती का
यहाँ कौन, दुर्योधन से उसकी आबरू बचाए।" यद्यपि दोनों प्रसंग स्त्री की
अस्मिता से जुड़े हैं, पर दोनों के संदर्भ अलग हैं। प्रसिद्ध है कि द्रौपदी ने
एक बार दुर्योधन पर व्यंग्य कर दिया था, जिससे वह चिढ़ गया था। ऊपर से पांडवों
ने जुए में हारकर उसका वस्तुकरण कर दिया था। जबकि, कहानी में न तो सोमा ने
अपनी पत्नी रेवती को किसी जुए आदि में गँवाया है और न ही स्वयं रेवती ने कभी
नानक सिंह पर कोई टिप्पणी की है। जाहिर है, दुर्योधन द्वारा द्रौपदी का चीरहरण
अपना बदला और स्त्री के वस्तु रूप का परिणाम है, जबकि रेवती की इज्जत पर हमले
का कारण उसका स्त्री और निम्न जाति की होना है। इस दृष्टि से सांभरिया जी की
द्रौपदी प्रसंग से रेवती की तुलना उपयुक्त नहीं बनती।
एक और उदाहरण है, "'सोमा हिम्मत करके उठा और चूल्हे के पास आकर बैठ गया। सोमा
के हाथ में कप था। औरत से बात, मरद से जात नहीं छुपती है। रेवती ने प्लास्टिक
की थैली सोमा की ओर बढ़ाई - "देखना, कितना सुंदर और भारी खिलौना है।" सोमा ने
थैली थामकर पूछा - "क्या है?"
"छत वाला बूढ़ा दारू के नशे में छत पर इससे खेल रहा था। उसके हाथ से छूटकर नीचे
आ गिरा।, रेवती ने अपनी बात कही।" इस प्रसंग में 'औरत से बात, मरद से जात नहीं
छुपती' कहने का क्या औचित्य है? क्या यह कहावत संगत है? जबकि बात इस विवादित
वाक्य के बिना भी उतनी ही प्रभावपूर्ण हो सकती थी।
हरियाणा और राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्र का निवासी होने के कारण सांभरिया की
भाषा में अपने यहाँ की शब्दावली, बोली-बानी और कहावतों का प्रचुर प्रयोग मिलता
है। स्थानीय शब्दों के साथ छोटे-छोटे वाक्य उनकी कथा-भाषा को बेहद सशक्त बनाते
हैं। भाषा में स्थानीयता से मतलब अश्लीलता, गाली-गलौच या रुक्षता से बिल्कुल
नहीं है, ना ही निरर्थक, द्विअर्थी और नुकीले प्रयोगों से है, जैसा कि अक्सर
दलित रचनाओं में देखा जाता है। सांभरिया का कोई पात्र अपने पारस्परिक
वार्तालाप में भी ऐसी स्थानीयता का प्रयोग नहीं करता। हालाँकि 'भभुल्या'
(आँधी), 'भूभल' (राख), 'बिलगनी' (कपड़े सुखाने की रस्सी), 'झोटा' (भैंसा),
'थावस' (इंतजार), 'ल्हास' (भैंस, गाय आदि पालतू जानवरों को खिलाने के लिए बनाई
गई नाँद), 'कस्सी' (फावड़ा), 'धूण' (साँड़ आदि द्वारा अपने सींगो का प्रहार),
गूमड़ी (फुंसी), नीड़े (नजदीक), न्याणा (दुहते वक्त गाय के दोनों पैरों पर बाँधी
जाने वाली रस्सी), मांडी (अमावस्या के दिन पहली सिंकी रोटी, जिस पर खीर या
चावल रखकर गाय को खिलाया जाता है। इसे पितरों का तर्पण और पुण्य माना जाता
है।) आदि शब्द किसी पाठक के लिए एकबारगी समझने में थोड़ी मुश्किल पैदा कर सकते
हैं। लेकिन कहानीकार ने इनका प्रयोग बेहद उपयुक्त किया है। इसी प्रकार, कुछ
स्थानीय मुहावरे एवं कहावतें भी उनके लेखन में देखी जा सकती हैं, जैसे - 'आधा
फूस छान' यानी बेहद गरीबी होना। 'ताता दूध बिलाई देखना' अर्थात किसी चीज को
पाने के लिए लालायित रहना। इनके प्रयोग से उनकी कहानियाँ अपनी व्यंजना में और
गहरी हुई हैं। सबसे बड़ी विशेषता है, पात्रों का नाम-चयन। अधिकतर दलित लेखकों
के यहाँ यथार्थवादी चित्रण की शर्त पर निम्न जाति के पात्र कमजोर, बनैले,
हिकारत-भरे यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के नामों वाले मिलते हैं। जैसे 'चमरू
भगत', 'भुल्लन', 'कलपू', 'फेंकूराम', 'लटूरी', 'कालू', 'सूगलाराम' आदि। जबकि
सांभरिया के एक भी पात्र का नाम ऐसा नहीं मिलेगा। खासकर उनके दलित पात्रों के
नाम प्रेरणापरक और सकारात्मक अर्थ लिए होते हैं। कुल मिलाकर, रत्नकुमार
सांभरिया की कहानियाँ दलित विमर्श के विस्तार की परिपक्व कहानियाँ हैं। जिनके
माध्यम से वे लगातार दलितों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का सार्थक प्रयास
कर रहे हैं।
संदर्भ
1.
दलित समाज की कहानियाँ : रत्नकुमार सांभरिया, अनामिका पब्लिशर्स एंड
डिस्ट्रीब्यूटर्स, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण-2011
2.
'मांडी' शुकवार पत्रिका, दिल्ली, संपादक - विष्णु नागर, साहित्य वार्षिकी
विशेषांक में संकलित-2012,
3.
'गाड़िया' राजस्थान पत्रिका, जयपुर के रविवारीय (हम-तुम, पृष्ठ-2) अंक में
26-08-2012को प्रकाशित कहानी, वेबलिंक :
http://epaper।patrika।com/53598/Rajasthan-Patrika-Jaipur/26-08-2012page/32/1
4.
रत्नकुमार सांभरिया (मोनोग्राफ), राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर, 2011