वह शाम मुझे अच्छी तरह याद है, जब 2009 में हम अंबादास जी के ऑस्लो (नार्वे)
वाले फ्लैट में बैठे थे। कमरों में स्वयं उनके अपने चित्र तो थे ही,
नॉर्वेजियाई कलाकारों और कुछ यूरोपीय कलाकारों के चित्र और प्रिंट्स थे। ये
अंबादास जी और उनकी नॉर्वेजियाई पत्नी हेगे के ही इकट्ठा किए हुए थे। कुछ वे
भी थे जो हेगे के माता-पिता के संग्रह में से थे। कमरों में कला पर किताबें और
पत्रिकाएँ भी बहुतेरी थी। हमारे सामने शाम की चाय का सामान था। और थे मक्खन,
शहद, ब्रैड स्प्रेड, चीज बिस्कुट आदि आदि। इन्हीं के बीच बैठे थे हम। और
अंबादास जी अपनी मुस्कान, और कभी-कभी जोरदार हँसी के साथ, हमें खिला-पिला रहे
थे। हमारे पहुँचने पर प्रसन्न थे - दोनों। हेगे हमारे लिए उस शाम विशेष रूप से
अपनी पसंद की दुकान से केक ले कर आई थीं।
साथ में मेरी बेटी वर्षिता भी थी जो नॉर्वे के शहर त्रांदाइम में 2007 से अपने
पति वेंकटेश गोविंदराजन के साथ रहने लगी थी। वेंकटेश तो वहाँ के एन.टी.एन.यू.
विश्वविद्यालय से संबद्ध थे, और मेरी बेटी को भी वहीं काम मिल गया था। दो
वर्षों में ही उसने नार्वेजियाई अच्छी तरह सीख ली थी। हेगे उससे नार्वेजियाई
में ही बातें करती रहीं, और उन्होंने मुझसे कहा इसने तो नार्वेजियन बहुत अच्छी
तरह सीख ली है।
कमरे में शाम का उजाला पसरा था। और काँच के खिड़कियों-दरवाजों से उस बहुत नीले
गगन का विस्तार भी दिख रहा था, जिसमें सूर्यास्त वाले रंग ठहरे हुए थे। दरअसल
उसे शाम कहना ठीक नहीं, थी तो वह रात ही - सफेद रात - उस वक्त भारत में जरूर
शाम के चार-पाँच बजे होंगे। नार्वे का समय, भारत से अमूमन तीन-चार घंटे पीछे
ही तो रहता है। मैं प्रसन्न था कि मैं नार्वे में बहुत अच्छे समय पहुँचा हूँ,
प्रकाश के दिन-रात वाले समय में, अन्यथा हम जानते हैं कि साल के कई महीनों तो
वहाँ दोपहर से शुरू हुआ धुँधला सा अँधेरा अगली सुबह तक पसरा रहता है। ठंड भी
बहुत पड़ती है। और बर्फीले दिनों में तो शहरों पर चलना मुश्किल हो जाता है।
बहरहाल, हम सब प्रसन्न थे, एक-दूसरे से मिलकर। अंबादास और हेगे साल में प्रायः
एक बार तो भारत आते ही थे, और हमारे घर भी जरूर आते थे। कभी दोनों साथ, कभी
अंबादास जी अकेले ही। ऐसे ही एक बार जब अंबादास जी ने हमारे साथ पूरा एक दिन
बिताया था तो मैंने उस दिन का एक संस्मरण लिखा था : "अंबादास के साथ एक दिन"
शीर्षक से। सो वर्षिता भी उन्हें और हेगे को प्रायः बचपन से ही देखती-मिलती आ
रही थी।
मैं अंबादास जी के बिल्कुल बगल में बैठा थे मेरी आँखें सूर्यास्त के रंगों की
ओर भी चली जाती थी, और उन पेड़ों की ओर भी, जो पड़ोस के मकानों के बीच सिर उठाए
खड़े थे। अंबादास जी हम दोनों को ही, अमुक-अमुक चीज को चखने का निमंत्रण देते
जा रहे थे। उनसे मेरी पिछली भेंट कुछ महीने पहले ही हुई थी। वह भोपाल आए थे
कुछ दिनों के लिए, और संयोग से हम भी वहीं थे। एक रात हम लोगों ने साथ ही भोजन
भी किया था 'जहाँनुमा होटल' में चित्रकार अखिलेश और उदयन वाजपेयी भी थे।
बहुत-सी बातें भी हुई थीं।
ऑस्लो पहुँचते ही संयोग से हेगे हमें, हमारे होटल के पास ही मिल गई थीं। हम
रास्ता पार कर रहे थे और वह भी। हम बीच सड़क पर मिले, फिर एक किनारे होकर कुछ
देर बातें करते रहे। वह हमारे लिए ही केक खरीदने आई थीं। यह तो उनसे फोन पर
पहले ही तय हो गया था कि वे आठ बजे हमें लेने आएँगी, अपनी गाड़ी से। उस
संक्षिप्त सी रास्ते में हुई भेंट के वक्त उन्होंने यह इशारा कर दिया था कि
अंबादास जी 'स्मृति लोप' का शिकार होते जा रहे हैं। यह मानों उन्होंने हमें
सावधान करने के लिए भी कहा था कि अगर वह कुछ भूलते हुए लगें तो हम परेशान न
हों। उन्होंने बताया कि कभी-कभी वह खाने-पीने का सामान कपड़ों की आलमारी में
रख देते हैं, इसी तरह कई अन्य चीजों का स्थान भूल जाते हैं। पर, जब हम उनके
फ्लैट में पहुँचकर उनसे मिले तो इस बात की गहरी प्रसन्नता हुई थी कि हम लोगों
से संबंधित चीजें उन्हें अच्छी तरह याद थीं। उन्होंने कमलेश जी के बारे में
पूछा। स्वामीनाथन के छोटे बेटे हर्षवर्धन की याद की और बहुत पुराने दिनों की
बातें की। एकाध बातें को छोड़कर 'स्मृति लोप' के लक्षण चर्चा में कम दिखे।
हाँ, बीच-बीच में कुछ गुम हो जाते उन्हें जरूर देखा, और मैं कामना करता रहा कि
जो दो-एक दिन उनके साथ बिताने हैं, उनमें हम ताजा बातें भी करें, और पुरानी
स्मृतियों का साझा भी करें।
[ 2
. ]
मैं 1964 के अगस्त महीने में कल्पना (हैदराबाद) छोड़कर, दिल्ली की कला-साहित्य
की गतिविधियों को निकट से देखने के इरादे से दिल्ली आया था। और इस इरादे से भी
कि अब दिल्ली रहकर ही लिखना-पढ़ना है। दिल्ली आने पर कुछ अरसा मित्रों के साथ,
फिर कोई तीन महीने रामकुमार जी के स्टूडियो में रहा था। यह व्यवस्था स्वयं
रामकुमार जी ने ही की थी कि जब तक तुम्हें कोई कमरा नही मिल जाता, तुम मेरे
स्टूडियो में रह सकते हो। रामकुमार जी से मिलने सभी आते थे - हुसेन साहब, तैयब
मेहता, कृष्ण खन्ना, नसरीन मोहम्मदी, और कई लोग। एक दिन शमशेर जी, उनसे मिलने
आए थे उसकी भी याद है। इन्हीं दिनों, स्वामीनाथन, अंबादास, जेराम पटेल, हिम्मत
शाह से मेरा परिचय हुआ था। वे दिन कनाट प्लेस में शामियाना कॉफी हाउस और टी
हाउस के दिन भी थे। रोज ही कनाट प्लेस में या मंडी हाउस के चौराहे पर, या
सप्रू हाउस, रवींद्र भवन में कई चित्रकारों, रंग कर्मियों, लेखकों, पत्रकारों
से भेंट होती थी। कई मेरे हमउम्र भी थे।
कुछ मुझसे दस-पंद्रह वर्ष या बीस-पच्चीस वर्ष बड़े भी (होते) थे। पर, सबके साथ
एक मैत्री-भाव महसूस होता था। अंबादास जी तो मुझसे कोई अठारह वर्ष बड़े थे।
पर, पहली भेंट से ही वह मुझसे मित्रवत, व्यवहार करने लगे थे। हिंदी के अन्य
कवियों-लेखकों से भी उनकी मैत्री जैसी थी। श्रीकांत वर्मा से, कवि कमलेश से।
जब हमारी भेंट हुई थी तो मैं 'दिनमान' के लिए प्रीलांसिंग करता था। वात्स्यायन
जी (अज्ञेय) या मनोहर श्याम जोशी मुझसे प्रायः प्रति सप्ताह 'दिनमान' के लिए
कुछ लिखवाते थे, या किसी का इंटरव्यू करने भेजते थे या फिर किसी प्रदर्शनी और
नाटक की समीक्षा करने को कहते थे। 1969 में मैं 'दिनमान' के संपादकीय विभाग
में बाकायदा नियुक्त कर लिया गया। पर, मुझे नियुक्ति-पत्र दिलाकर कुछ महीनों
बाद ही वात्स्यायन जी अमेरिका चले गए। तब तक मैं 'दिनमान' का कला-स्तंभ नियमित
रूप से लिखने लगा था और कलाकारों के साथ मेरा बहुत समय बीतने लगा था - उनके
स्टूडियोज में, घरों में, प्रदर्शनियों में, कॉफी हाउस में, और त्रिवेणी कला
संगम जैसे अड्डों में, जहाँ शामों को लेखक-कवि-चित्रकार रंगकर्मी सभी तो
इकट्ठा होते थे।
अंबादास जी के यहाँ भी कभी-कभी जाने लगा था। और कनाट प्लेस में कॉफी हाउस में,
धूमिमल गैलरी में, श्रीकांत वर्मा के यहाँ भी उनसे भेंट हो जाती थी। उनके
व्यक्तित्व की मृदुता, उनकी अपनी ही तरह की मौलिक विचारशीलता, और कला पर होने
वाली चर्चा बहुत आकर्षित करती थी। हम लोगों के प्रति उनका स्नेह भी गहरा,
आत्मीय लगता था। वे मेरे बहुत कुछ जानने-सीखने के दिन भी थे। और मैं ठीक ही
अपने को भाग्यशाली मानता था कि अंबादास जी, स्वामीनाथन, हिम्मत शाह जैसे
कलाकारों की निकटता मुझे सहज ही सुलभ हो गई है। रामकुमार जी से परिचय पुराना
था। वह 1962 में कलकत्ता आए थे। और मैंने उनके साथ कलकत्ता में एक सप्ताह
बिताया था। मेरी कहानियाँ उन्होंने 'कल्पना' 'कहानी' 'सारिका' (जो तब निकली ही
थीं) पढ़ रखी थीं। और परिचय-सूत्र वे कहानियाँ ही बनी थीं। हम लोग - अशोक
सेकसरिया, मेरे बड़े भाई कहानीकार रामनाराण शुक्ल तो रामकुमार जी की कहानियों
के घनघोर प्रशंसक थे। हम जानते थे कि वे महत्वपूर्ण चित्रकार भी हैं, और इस
नाते उनकी ख्याति भी है, पर, तब तक उनके चित्रकार-रूप का पूरा परिचय हम लोगों
को मिला नहीं था। बहरहाल हैदराबाद से दिल्ली पहुँचने पर यह जो कलाकारों की
दुनिया में मेरा प्रवेश हुआ था वह मुझे सहज ही रोमांचित करता था। अंबादास जी
से हम लोगों की निकटता और अधिक बढ़े, इसमें एक शाम श्रीकांत वर्मा के यहाँ हुई
एक पार्टी ने भी अपना योग दिया। उस शाम वहाँ मधु लिमये, टाइम्स ऑफ इंडिया के
संपादक शामलाल, स्वामीनाथन, निर्मल वर्मा, अंबादास सहित कई लोग थे। हम कुछ
युवा लोग भी थे - कमलेश, अशोक सेकसरिया, जितेंद्र कुमार। कई तरह की बातें हो
रही थीं, सहसा एक बहस ने गंभीर रूप ले लिया, और निर्मल वर्मा और अंबादास उसमें
उलझ गए। बहस का पूरा प्रसंग भूल गया हूँ, पर, इतना अच्छी तरह याद है कि निर्मल
ने कुछ ऐसा कह दिया कि अंबादास अवसाद-ग्रस्त से हो गए। बहस में सहसा जितेंद्र
ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, और अंबादास का पक्ष लेकर उन्होंने निर्मल को कुछ
खरी बातें भी सुनाईं। अंबादास जी को अपने विचार रखते हुए एक जोश तो होता था पर
शालीनता और मृदुता उस जोश का पल्ला छोड़ते नहीं थे, सो, हम लोग इससे दुखी हुए
कि अंबादास जी दुखी हो गए हैं। उन्होंने हमारी सह-अनुभूति पहचान ली, और मानों
उसकी प्रतीति ने उन्हें कुछ तसल्ली दी, हमें तो इसकी तसल्ली हुई ही। अनंतर
हमें दिल्ली में, भोपाल में, लेखको-कवियों, कलाकारों, रंगकर्मियों की ऐसी
बहुत-सी विचारोत्तेजक, और चर्चा में एक-दूसरे को 'घायल' कर देने वाली बहसें
देखने सुनने को मिलीं, और हम यह जान सकें कि वे धारदार बहसें, अगली सुबह
'सुलह' का रूप ले लेती थीं, या 'शांत' होकर एक-दूसरे को अगली बैठक के लिए
तैयार कर लेती थीं। पर, तब की बात और थी। और हमें लगा था कि मानों निर्मल और
अंबादास जी की बातचीत हमेशा के लिए बंद हो जाएगी !
अंबादास जी से मेरी निकटता इसलिए भी हुई कि वह मुझे हमेशा एक सौंदर्य-प्रिय
व्यक्ति लगे। उनका पहनावा, उनकी रुचियाँ, उनकी चर्चा, सबमें मानो एक
सौंदर्य-बोध टपकता था, और ज्यों-ज्यों मैं उनके अमूर्तन से, उनके सम्मोहक
चित्रों से परिचित होने लगा, मैं उनका और अधिक भावक/प्रशंसक बनता गया। वह
स्वामीनाथन के अभिन्न मित्र थे, और जब मैं भी स्वामी की मित्र-मंडली में एक
अनुज की तरह शामिल हो गया, और पाया कि स्वामी स्वयं अंबादास की कला के घोर
प्रशंसक और आत्मीय 'व्याख्याता' हैं, तो अंबादास जी के प्रति मेरा और अधिक
झुकाव होना स्वाभाविक था। मैं अकसर उन दोनों के बीच होने वाली बातचीत को ध्यान
से सुनता था। अंबादास जी जब कोई बात कहते थे तो पूरी तल्लीनता से, उसमें डूबे
हुए, और एक ऊर्जा के साथ ही।
याद है लेखक-कवियों-कलाकारों की एक सभा में अंबादास जी की बातें सुनकर,
'अज्ञेय' ने कहा था : "मैंने अंबादास जी की बातें सुनी और देखी भी"। हाँ,
अंबादास जी कुछ उत्तेजित होने पर, यानी चर्चा के ताप से भरकर, पूरे हाव-भाव के
साथ बोलते थे। पर, ज्यादातर उन्हें कम बोलना या चुप रहना ही अच्छा लगता था।
यह सब भी याद आता रहा जब मैं अंबादास जी के साथ ऑस्लो में उनके फ्लैट में बैठा
था उस शाम। इस फ्लैट में वह कुछ समय पहले आए थे। इससे पहले वह हेगे के
माता-पिता की एक ऐसी संपत्ति में रहते थे जो जगह के मामले में बड़ी थी, और
जहाँ हेगे ने बताया कि, अंबादास जी और उन्होंने मिलकर कई सांस्कृतिक संध्याएँ
आयोजित की थीं : विशेष रूप से भारत से नार्वे आने वाले कई नृत्यकारों,
संगीतकारों की। इनमें अमजद अली खाँ, और सोनल मानसिंह जैसे लोग शामिल रहे हैं।
हेगे ने यह भी बताया कि अंबादास जी नई जगह में पेंट नहीं कर पा रहे। अंबादास
जी यह सब सुनते हुए मुस्कराते रहे। हेगे से मैत्री और अनंतर विवाह के बाद
अंबादास जी नार्वे पहुँचे थे, और जिस शाम की बात मैं कर रहा हूँ, उससे कोई
चालीस वर्ष से अधिक पहले वह नार्वे आ गए थे पर, भारत प्रायः हर वर्ष आते रहते
थे। सो, भारत से रिश्ता हर तरह से कायम रहा।
उस शाम हमारी बातचीत चलती रही। उसी के बीच हेगे ने फिर एक बार वर्षिता की
नार्वेजियन सीख लेने की तारीफ की, और बोली "आंबादास ने इतने वर्षों में
बिल्कुल नहीं सीखी। सीख लेते तो कितना अच्छा होता।" सुनकर अंबादास जी मुस्कराए
थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले धीरे से, "मैं तो भाषा को ही हटाने की चेष्टा
करता रहा हूँ।" हेगे थोड़ी दूर थीं। मैंने कहा, " हेगे, अभी-अभी अंबादास ने एक
बड़े मर्म की बात कही है, अपने काम के संदर्भ में।' अँग्रेजी में अंबादास के
कथन का जब अनुवाद किया, और उसे लेकर कुछ और चर्चा की तो हेगे थोड़ा उत्सुक सी
हुईं, और एक सराहना की दृष्टि से उन्होंने अंबादास की ओर देखा। अंबादास जी का
जैसा 'अमूर्तन' है, कृतियों में, उसे याद करते हुए मैं उनके कथन का आशय समझ
रहा था। हमें किसी भी चीज का एक बोध शब्दों के साथ होता है, भाषा के साथ; पर,
कुछ 'बोध' ऐसे भी होते हैं, जिनमें भाषा पीछे छूट जाती है। चित्रकला के संदर्भ
में ऐसा होना बिल्कुल स्वाभाविक है, और इसे तो उस माध्यम की एक विशेषता भी मान
सकते हैं। अंबादास जी की कृतियों में रंग कुछ उस तरह फट से जाते हैं, जैसे दूध
फट जाता है, और वे सर्पिल सी गतियों में पूरे चित्र-स्पेस में बिखरते जाते
हैं, कुछ उस तरह भी जैसे पानी में पेट्रोल घुल-मिल जाने पर हम कुछ रंग-रूपाकार
देखते हैं। उनके चित्र प्राय, किसी एक रंग में होते हैं, मोनोक्रोम मे, और
उनमें सफेद रूपाकारों की भी एक भूमिका रहती है।
जैसे अनार के दानों से कुछ और बड़े दाने इधर-उधर बिखर जाएँ, या जैसे किसी सूखे
तने के टुकड़े बारिश में भीगकर काष्ठ-खंडों के रूप में भूमि पर छितर जाएँ, या
जैसे सर्पिल गति बाले जीव-जगत में एक हलचल-सी मच जाए, जैसे - ऐसे ही बहुत-से
साम्य, सादृश्य, या उपमा-रूप गिनाए जा सकते हैं; अंबादास के चित्रों के
सिलसिले में, पर, नहीं उनके चित्र, उनके रूपाकार ये सब नहीं हैं। इनका चित्रण
नहीं हैं। वे तो अपने आप में कुछ ऐसे रंग-रूपाकार हैं; जो हमें एक सौंदर्य-बोध
से आप्लावित करते हैं। कई प्रकार की भाव-स्थितियों से जोड़ते हैं। अपने आप में
कोई/कई जीवन-मर्म छिपाए हुए हैं। उनकी भाव-गतियाँ हमें मोहती हैं। अंतर में
उतरती हैं। यह अमूर्तन है भी और नहीं भी है। ये रंग-रूपाकार कुछ ऐसा सजीव कर
रहे हैं, जिसका बोध मात्र हमें आनंद देता है, कभी अवसाद, कभी करुणा से भरता
है। हम उनके चित्रों के आगे ठिठकते-ठहरते हैं। वे कोई 'बीज'-रूप हैं, जिनके
मर्म, अर्थ-आशय हमें खोजने हैं। बार-बार खोजने हैं क्योंकि वे ऐसा करने के लिए
ही हमें बार-बार प्रेरित करते हैं। उनका - उनके चित्रों का जीवन गतिवान है,
कहीं ठहरता नहीं है।
हाँ ऑस्लो की वह शाम अनोखी थी, वैसे ही जैसे अंबादास के साथ कभी भी बिताए हुए
क्षण अनोखे होते थे। एक बार फिर यह बात भी उस शाम याद आई थी कि अंबादास के
पिता अपने बाग-बगीचों में काफी समय बिताते थे। शायद उन्हें ठेके पर लेते-देते
थे। छुटपन से ही मराठी भाषी अकोला के अंबादास का प्रकृति से, उसके उपादानों से
गहरा परिचय हुआ था। फलों, पक्षियों, जीवन-जंतुओं की दुनिया उन्होंने निकट से
देखी जानी थी। बचपन में पड़े इनके रंग-रूपों के प्रभाव को स्वीकारा था अंबादास
ने - एक बार मुझे दिए गए अपने साक्षात्कार में। और तथ्य यह भी कि एक बार
साधु-प्रवृत्ति के अंबादास सचमुच किसी साधु की तरह (पर, साधुओं वाले भेष में
नहीं) वर्मा के - म्यामार के वनों तक भटके थे। जो भी हो, उनके चित्रों का जीवन
अपूर्व है। अपनी तरह का है। मौलिक है। वह पश्चिम की चित्रशैली से प्रेरित नहीं
है। उसकी अपनी शैली है। उनकी अपनी चित्रभाषा है।
2009 की यात्रा में हम अंबादास के साथ कई संग्रहालयों में गए थे। घर-बाहर उनके
साथ भोजन किया था। खूब बातें भी की थीं। स्वामीनाथन की याद की थी। 'ग्रुप
1890' के सदस्यों की चर्चा की थी, जिसके एक सदस्य वह भी रहे थे। और 1963 में
जिसकी प्रदर्शनी का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया था।
प्रदर्शनी के कैटलॉग के लिए टिप्पणी लिखी थी, मेक्सिकी कवि, कला-चिंतक,
राजनयिक ओक्ताविओ पॉज ने (जिन्हें अनंतर साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला) जो
उस वक्त भारत में मेक्सिको के राजदूत थे, और स्वामीनाथन के मित्र बन गए थे।
ग्रुप के सदस्यों के भी आत्मीय।
इसके दो-तीन वर्षों बाद फिर ऑस्लो जाना हुआ। इस बार मेरी पत्नी ज्योति साथ थी।
हम हेगे के साथ ठहरे। उसी फ्लैट में जहाँ मैं और मेरी बेटी 2009 में अंबादास
से मिले थे। पर, इस बार अंबादास नहीं थे। उनका देहांत कुछ अरसा पहले हो चुका
था। हेगे एक सुबह हमें वहाँ ले गईं, जहाँ अंबादास का शरीर माटी को विसर्जित
हुआ। वहाँ कोई समाधि-लेख नहीं था। कुछ फूल और नन्हें पौधे अपने आप उग आए थे।
मैंने हेगे से कहा, "बस अंबादास जी के नाम की एक पट्टिका लग जाए। और चाहे वह
भी न लगे। इसी तरह फूल-पौधे यहाँ उगते रहें।" वह मुस्काराईं।
इस यात्रा में हम अंबादास की बेटी कंचन को भी मिले। उसके दोनों बेटों से भी,
जो अभी छोटे ही हैं। जिस दिन हमें लौटना था, हम सामान के साथ नीचे उतरे। हेगे
साथ थीं। सहसा, ज्योति के मुँह से निकला, 'अच्छा, अंबादास जी...' जैसे वह वहीं
हों, और हम उनसे बिदा ले रहे हों। हेगे ने कुछ प्रसन्न होकर हम दोनों की ओर
देखा, और हम तीनों उनकी कार की ओर चले, जिसे हेगे ही चलाने वाली थीं।