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आलोचना

लोक और लोक-स्वर के पारखी

श्रीराम परिहार


पंडित विद्यानिवास मिश्र साहित्य की ऋषि-परंपरा के रचनाकार हैं। उनका चिंतन-क्षेत्र शास्त्र और लोक तक गहरा विस्तारित है। वे मनुष्य-जीवन और सृष्टि-जीवन को अभेद दृष्टि से देखते हैं। समझते हैं। साहित्य में उसकी मंगल-सर्जना करते हैं। उनकी दृष्टि मूलतः मंगलविधायिनी है। मंगलविधान का उत्स उन्हें भारतीय जीवन की जड़ों में प्राप्त होता है। भारतीय जीवन सृष्टिहित में जिस वाक, जिस परंपरा, जिस वचनबद्धता और जिस परदुखकातरता से प्रेरित होकर कार्य करता रहा है और करता है, वह 'सर्वभूतहितरत' के व्यापक अर्थ में सनातन का संवर्धन करना ही है। इस प्रक्रिया में भारतीय धरती के जन ने साधारण कार्य करते हुए भी अद्भुत-अनुभव संपन्न जीवन-पद्धति का निर्माण किया है। भारतवर्ष का लोक अपनी वाक्शक्ति, अपनी परंपरा और अपने जीवन-व्यवहार में इतना संपन्न और अविछिन्न है कि उसके चिंतन संसार में सरग-पाताल-भूलोक की अनेक बातें बार-बार चमत्कृत, विस्मित और आलोकित करती हैं।

पंडित विद्यानिवास मिश्र की एक पुस्तक है - ''लोक और लोक का स्वर''। इसके शब्द-शब्द और वाक्य-वाक्य में मिश्रजी लोकानुभव और उसकी तर्कसम्मत सोदाहरण नवीन व्याख्याएँ करते हैं। लोक की व्यापक और परिधि-अतिक्रमित व्याख्या करते हुए वे कहते हैं - ''जो भी दृष्टिगत संसार है अथवा जो भी इंद्रिय गोचर संसार है, वह लोक है। इस लोक का अर्थ है - जो यहाँ है, जो प्रस्तुत है। लोक का विस्तृत है - लोक में रहने वाले मनुष्य, अन्य प्राणी और स्थावर संसार के पदार्थ; क्योंकि ये भी सब प्रत्यक्ष अनुभव के विषय हैं।'' (पृ.11) उनके चिंतन-पथ में तीन लोक आते हैं - भूलोक (पृथ्वीलोक), भुवर्लोक (अंतरिक्ष) और स्वर्लोक (द्युलोक)। यह लोक कर्म से जुड़ा है। मांगलिक प्रतीकों के कर्मकांड में उपयोग होने वाली वस्तुओं के माध्यम से लोक इहलोक के चिंतन को प्रधानता देता है। वह लोक-परंपरा और लोक-मर्यादाओं को उतना ही महत्व देता है, जितना शास्त्रविधि को। लोक-चिंतन या भारतीय चिंतनधारा संपूर्ण या समग्र को महत्व देती है और संपूर्णता में ही सोचती है। पंडित मिश्र भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक को दूसरे प्रकार से ज्ञान, इच्छा और कर्म के त्रिबिंदुओं से जोड़कर कहते हैं - ''पृथ्वीलोक में क्रियाशक्ति है, इसीलिए यहाँ क्रिया की समाप्ति भी है, क्रिया का संहार भी है, यहाँ नश्वरता है। भुवर्लोक में इच्छाशक्ति है; स्वर्लोक में ज्ञानशक्ति है। इच्छा से क्रिया और क्रिया से ज्ञान में समाहार होता है; परंतु क्रिया में इच्छा व ज्ञान दोनों की प्रतीति होती है। क्रिया में ही देवता प्रतीत होते हैं। इसमें भूलोक की महिमा इसलिए विशेष है कि उसी पर सबकुछ खड़ा होता है।'' (पृ.13) यह लोक साधना के लिए है। कार्य की साधना निरंतर चलती रहती है।

पंडित विद्यानिवास मिश्र लोकदृष्टि, लोकसंग्रह, लोकयात्रा और लोकायत की नवीन और आश्वस्तिपूर्ण व्याख्या करते हुए कहते हैं - ''इस लोक में मनुष्यों का समूह ही नहीं, सृष्टि के चर-अचर सभी सम्मिलित हैं; पशु-पक्षी, वृक्ष-नदी, पर्वत सब लोक हैं और सबके साथ साझेदारी की भावना ही लोक-दृष्टि है। सबको साथ लेकर चलना ही लोक-संग्रह है और इन सबके बीच में जीना लोकयात्रा है। लोक के अर्थात दिखने वाले कर्मों और देखने वाले लौकिक साक्ष्यों के आधार पर निर्णय लोकायत निर्णय है।'' (पृ.19) वे भारतीय लोकदृष्टि, लोकसंग्रह, लोकयात्रा और लोकायत के बिंदुओं की गहरी और मार्मिक विवेचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में अपना समाजशास्त्र रचने की आवश्यकता है। हम भारतीय समाज को पश्चिम के मानकों के आधार पर देखने-परखने लगे हैं। पश्चिम का समाजशास्त्र केवल मानव केंद्रित चिंतन और समता की बात करता है। यह अधूरा चिंतन है। भारतीय लोक चिंतन चर-अचर तक विस्तार पाता है। यह चिंतन सर्वभूतहित से संपृक्त है। इसलिए वे इस बात पर जोर देते हैं कि प्रगति की दिशा के बारे में फिर से नए ढंग से विचार करने की जरूरत है। सनातन सर्वभूतवादी ढंग से सोचने की आवश्यकता है। भोग मात्र को प्रगति का प्रमाण मानना ठीक नहीं। वे कर्मवाद अैर भक्तिवाद के माध्यम से प्रगति की नवीन दिशा और भारतीय सनातन जीवन मूल्यों के आधार पर नया समाजशास्त्र रचने का प्रबल पक्ष रखते हैं।

पंडित विद्यानिवास मिश्र लोक में बहुत अंतरंग रचे-बसे थे। लोकदृष्टि, लोकानुष्ठान, लोकपर्व, लोकनीति, लोकरीति, लोकव्यवहार, लोकभाषा, लोकजीवन का व्यापक सीधा अनुभव उनके पास था। एक सूक्ष्म भेदक दृष्टि भी उनके पास थी, जिससे वे लोकमानस के भावलोक में प्रवेश कर उसके संपूर्ण संसार को देखने-परखने में समक्ष हो सके। उन्होंने पाया कि लोकदृष्टि पूर्णता की आकांक्षा है। वे लोक का कबीलाई पद्धति से अध्ययन करने का विरोध करते हैं। मूल वस्तु है मनुष्य की संवेदना और मिल-जुलकर रहने की प्रवृत्ति। इसी आधार पर नृतत्वशास्त्र को भारतीय जन और भारतीय लोक का अध्ययन करना चाहिए। समुदायों का अलग-अलग अध्ययन करने के दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। मूल निवासी और बाहर से आने वाले का भारतीय संदर्भ में भेद ही आधारहीन है। वे इस संबंध में स्पष्ट कहते हैं - ''वास्तविकता यह है कि रक्त का मिश्रण तिथिबद्ध इतिहास के इतने पूर्व का है कि इसकी कोई स्मृति कहीं है नहीं। मूल की बात ही एक तरह से अर्थहीन है और मूल के साथ बिलगाव की बात भयंकर अभिसंधि है।'' (पृ.25) इसी तरह लोक संस्कृति को अलग या समानांतर संस्कृति भारतीय संदर्भ में मानना और उस दृष्टि से उसका अध्ययन करना अनुपयुक्त और अशुभ रहा है।

भारतीय लोकदृष्टि के संबंध में चिंतन करते हुए वे 'कला-कला के लिए' या 'कला जीवन के लिए' वाली अवधारणा को भी सिरे से नकारते हैं। भारतीय लोक के पास वाचिक परंपरा बहुत समृद्ध है। उस परंपरा में कला और जीवन को विलग करना या देखना असंभव है। यहाँ कला प्रदर्शन या अर्थोपार्जन का आधार नहीं थी। वह जीवन की सहज ठुरन थी। सहज बान थी। वह आनंद का कारक थी। वह आत्मलोक का आधार थी। ''जब हिंदुस्तान में भी पश्चिम की देखा-देखी विवाद छिड़ा हुआ था - कला-कला के लिए या कला जीवन के लिए? दोनों दृष्टियाँ किसी भी कला या सर्जना-कर्म को उसके संदर्भ से काटकर के ही देखती थीं। इसलिए दोनों में एक खोट थी। वाचिक परंपरा एक गुँथी हुई परंपरा है। इसमें जीवन के दैनंदिन या नैमित्तिक अनुष्ठान, उन अनुष्ठानों के लिए रची जाने वाली कला या गाए जाने वाले गीत एक-दूसरे में ओत-प्रोत रहे हैं। इनको अलग करने की बात ही लगभग असंभव है।'' (पृ.26)

मिश्रजी अपनी लोकपारखी दृष्टि से भारतीय दृष्टि को परखते हुए उसमें डूबकर उसकी विशेषताएँ प्राप्त करते हैं। उनकी दृष्टि इतनी साफ और सूक्ष्म है कि आज तक के अध्ययन में ये विशेषताएँ अपना एकदम नया वितान प्रस्तुत करती हैं। ''लोकदृष्टि की पहली विशेषता है - उसमें पूर्णता की आकांक्षा होती है। दूसरी विशेषता - जीवन की परार्थता में ही सार्थकता की खोज है। सबकी साझेदारी का नियंत्रण उसकी तीसरी विशेषता है। चौथी है - अपने भाव को दूर से पाने के लिए निंरतर बेचैनी में रहना। पाँचवीं है - लोकदृष्टि सभ्यता की बनावट को संतुलित रखने में उपयोगी होती है और शिष्टाचार को आधार मात्र नहीं रहने देती है। उसे भीतर तक पहुँचाने का उपाय बतलाती है।'' (पृ.33) लोक संस्कृति भारतीय जीवंत संस्कृति का अभिन्न या उसमें एकरस रूप है। यह संकल्प है मनुष्य का लोक से आलोकमय होने का।

पंडित विद्यानिवास मिश्र संस्कृत की मनीषी परंपरा के व्यक्ति थे। वे बहुभाषाविद थे। वे लोकभाषा विशेषकर भोजपुरी के अधिकारी विद्वान थे। वे शास्त्रज्ञ और लोकज्ञ दोनों थे। अपने इस ग्रंथ में उन्होंने बार-बार अनेक उदाहरणों और लोकप्रसंगों के द्वारा यह स्थापित किया कि भारतीय जीवन-विधि में लोक और शास्त्र साथ-साथ चलते रहे हैं। कहीं भी विरोध नहीं है। कहीं-कहीं तो शास्त्रसम्मत होने पर भी यदि लोक विरुद्ध है, तो वहाँ लोक को ही प्रधानता देकर लोकसम्मत आचार संपन्न किया जाता है। 'यद्यपि शुद्धं, लोक विरुद्धं नहि करणीयं नहि करणीयं।' वे कहते हैं - ''वाक्यपरंपरा' का आदि स्रोत ढूँढ़ना बड़ा कठिन है। बहुत से लोकाचार, लोकानुष्ठान और उसके अंगभूत लोकगीत और लोकाख्यान कहीं-कहीं तो वैदिक मंत्रों की गूँज जान पड़ते हैं, कहीं-कहीं बहुत से तांत्रिक अनुष्ठानों की गूँज वहाँ मिलती है। कौन पहले है, कौन बाद में यह निर्णय करना कठिन है। परंतु इस निर्णय की अपेक्षा ही नहीं रखती परंपरा, परंपरा तो संश्लिष्ट है, जिस बिंदु पर है, उस बिंदु पर संपूर्ण है, उसमें कितना प्रतिशत वैदिक है, कितना तांत्रिक, कितना जनजातीय, यह विश्लेषण अनावश्यक है; क्योंकि परंपरा इतिहास से या तिथि क्रम में पुरानेपन से प्रमाणित नहीं होती, वह प्रमाणित होती है वर्तमानता और सफलता से।'' (पृ.52)

लोक और शास्त्र दोनों भारतीय परंपरा में एकमेक और अनुस्यूत हैं। लोक और शास्त्र दोनों से रचित भारतीय परंपरा की पंडित मिश्र बहुत दूर तक विवेचना करते हैं। वे बौद्ध और जैन पूजा-पद्धतियों में वैदिक और लौकिक परंपरा का मिश्रण भी पाते हैं। अतः उनका मत स्पष्ट है कि विभिन्न पंथों के वैविध्य में एकता के वे सूत्र खोजना चाहिए, जिससे अलगाव समाप्त हो और इनमें स्थित मूल तत्व की पहचान की जा सके। वे भारतीय परंपरा की अनेक बिंदुओं पर परख और व्याख्या करते हैं। वे निष्कर्ष रूप में तीन मूल बातों का उल्लेख करते हैं। ''पहली विशेषता इसकी है - जीवन की अखंडता और जीवन की पूरी स्वीकृति, जीवन जो सामने है उसकी भी, जो परोक्ष है उसकी भी। दोनों प्रकार के जीवन एक दूसरे के पूरक हैं। ...यह परंपरा समष्टि को एक-दूसरे के लिए सापेक्ष बनाने पर बल देती है। इसकी दूसरी विशेषता है कि यह देशकाल के प्रति सजग होते हुए भी इसके अतिक्रमण के लिए प्रयत्नशील रही है। ताकि दूसरा देशकाल भी अपना हो सके। इसकी तीसरी विशेषता है इसका वाक्केंद्रित होना, इसमें वाक का महत्व होना और फलतः वाक की पवित्रता, वाक की संयोजकता, वाक की सत्यता और वाक की धारावाहिकता का महत्व होना।'' (पृ.72)

लोक और लोक का स्वर सुनते हुए पंडित विद्यानिवास मिश्र वाचिक परंपरा की बहुत गहरी और व्यापक विवेचना करते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि हमारे यहाँ औपचारिक शिक्षा से अधिक प्रभावशाली अनौपचारिक शिक्षा रही है। अनौपचारिक शिक्षा वाचिक रही है, चाहे वह कला कौशल की हो, लौकिक अनुष्ठान की हो, चाहे नीति की हो, चाहे सृजनात्मक हो। यह शिक्षा परिवार और समाज से पुत्र, शिष्य या जिज्ञासु में रोपित और अंकुरित होती रही है। इस दृष्टि से वाचिक परंपरा में केवल बोलकर कही जाने वाली बात ही नहीं आएगी, बल्कि इसमें गायन, वादन, नृत्य, चित्रकला, संगीत, वाचिक साहित्य और लोकरीति, लोकअनुष्ठान, लोकविश्वास की परंपरा भी आ जाती है। वे वाचिक परंपरा के मुख्य तीन अभिलक्षण उद्धारित करते हैं - पहला वाक की अमोध शक्ति में अटूट विश्वास। दूसरा वाक की परिशुद्धता की चिंता। तीसरा परस्पर हृदय संवाद। इन तीनों अभिलक्षणों को वे लोकगीत, शास्त्रोक्ति और लोकपरंपरा के आधार और अनुक्रम में विस्तार से समझाते हैं। पंडित मिश्र की दृष्टि में कलासृष्टि, काव्यसृष्टि कोई भी सृष्टि जीवन की सृष्टि से अलग नहीं है। जीवन की प्रक्रिया से बाहर नहीं है।

लोक साहित्य की मर्यादा के चिंतन में पंडित मिश्र अनेक बिंदु उद्घाटित करते हैं, जिससे भारतीय लोक को जानने-समझने के नए द्वार खुलते हैं। वे कहते हैं कि लोक-साहित्य की परिभाषा इस तरह से की जा सकती है कि वह साहित्य जो लोक के द्वारा, लोक के लिए और लोक का अर्थात लोक की भाषा का साहित्य हो। इसी क्रम में वे लोक-साहित्य की तीन मर्यादाओं का उल्लेख करते हैं। पहली - लोक-साहित्य की रचना लोक द्वारा होती है। अर्थात लोक-साहित्य का रचयिता कोई व्यक्ति न होकर समूह होता है। लोक-साहित्य सामूहिक आकांक्षा में घनीभूत होते ही गीतों, उक्तियों, कथाओं में फूट पड़ता है। दूसरी मर्यादा है लोक-साहित्य लोक के लिए होता है। अर्थात इसमें लोक-मंगल की आकांक्षा, लोक का सुख-दुख निरूपण और लोकाकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है। तीसरी मर्यादा है - लोक-भाषा में उसकी रचना होना। पंडित मिश्र लोक साहित्य को भारतीय संस्कृति का शाश्वत राग मानते हुए कहते हैं - ''यह समझना कि लोक-साहित्य की रचना असंस्कृत जीवन की रचना है, सबसे बड़ा प्रमाद होगा, क्योंकि संस्कृति का जो शाश्वतमय राग हो सकता है, वही लोक-जीवन का श्वास बनकर मुखरित होता है। संस्कृति का क्षणभंगुर उपकरण लोक-जीवन तक नहीं पहुँच पाता और इसलिए लोक-जीवन के श्वास-प्रश्वास से मुखरित होने वाला स्वर जिस राग को गुंजरित करता है, वह संस्कृति का सबसे मर्मभूत, सबसे अनश्वर और सबसे शिवप्रद राग होता है।'' (पृ.87)

पंडित विद्यानिवास मिश्र ग्रंथ के अंत-अंत में लोक-विज्ञान के आयामों पर चिंतन प्रस्तुत हैं। वे कौन से तत्व और विषय या अनुभव हैं, जिनके आधार पर लोक-साहित्य रचा जाता है। इस पर विचार करते हुए वे बहुत जोर देकर कहते हैं - 'लोक' और 'फोक' में जमीन-आसमान का अंतर है। 'फोक लोर' लोक साहित्य नहीं है। फोक शब्द का बहुत सीमित और अनुचित अर्थ है। वे अपने अध्ययन और प्रज्ञा के आधार पर कहते हैं - ''फोक अभिधान में व्यापक सामुदायिक स्वीकृति निहित नहीं है, न उसकी वर्तमानता ही परिलक्षित है। वह एक तरह से पुरानेपन, पिछड़ेपन का बोधक है। अथवा असंस्कार का बोधक है। लोक का वैदिक अर्थ प्रकाश, खुली जगह, दृश्य जगत है और उसके बाद उसका अर्थ मुक्त विचरण भी है; इसी कारण विकसित अर्थ है पूरा विश्व, जो तीन या सात या चौदह लोकों में विभक्त है। लोक न प्राचीनता का बोधक है, न पिछड़ेपन का, न किसी सीमित अलग समुदाय का। लोक शास्त्र विरुद्ध नहीं है, शास्त्रपूरक है।'' (पृ.91-92)

पंडित विद्यनिवास मिश्र लोक विज्ञान के आयामों पर चिंतन करते हुए उसमें अंतर्निहित विश्वदृष्टि के बिंदु तक पहुँचते हैं - ''लोक में केवल मनुष्य ही नहीं, मनुष्य का समस्त आत्मीय परिवेश सम्मिलित है। कोई भी लोक व्यवहार प्रकृति के उपादानों के बिना या केवल प्रकृति के उपादानों से ही संभव नहीं। प्रकृति के साथ सहज संबंध ही मनुष्य को पूर्णतर बनाता है, यही हमारी विश्व-दृष्टि का मुख्य लक्ष्य है।'' (पृ.93) लोक गीत मूलतः लोक जीवन के अंगभूत हैं। वे इस प्रसंग में लोक-साहित्य की विधाओं, शैलियों, बिंबों की भी गहरी पड़ताल करते हुए लोक-गीतों के उदाहरणों से उसकी पहचान कराते हैं। यह दुर्लभ, अनूठा और स्तुत्य कार्य है।

इसी ग्रंथ में पंडित मिश्र ने अपने एक साक्षात्कार में साहित्य-संस्कृति संबंधित अनेक महत्वपूर्ण बातें कही हैं, जो उनकी ऋतंभरा शक्ति से परिचय कराती हैं। साहित्य की श्रेष्ठता के बारे में वे कहते हैं - ''श्रेष्ठता का साहित्य में आधार केवल एक ही है कि वह बार-बार पढ़ा जाने पर भी नया अर्थ देता है। उसको पढ़ने की इच्छा बनी रहती है और वह मन को रुचिकर लगता है। मेरी दृष्टि में जिस साहित्य की पढ़ने के बाद गूँज बनी रहे, वही श्रेष्ठ साहित्य है।'' (पृ.35) भारतीय लोक परंपरा की प्रकृति के विषय में उनकी धारणा है - ''लोक-परंपरा समग्र दृष्टि लिए हुए रहती है। हमारा लोक समस्त विश्व को एक परिवार के रूप में बाँधने की बात करता है। लोक-परंपरा संबंधों के निर्वाह की परंपरा है। यह संबंधों की बहुविधता, अनेक प्रकार के रिश्तों को समझने की परंपरा है। यही मुख्य विशेषता है।'' (पृ.36) आदिवासी जनजातियों के अनुष्ठानों के मर्म को उद्घाटित करते हुए कहते हैं - ''आदिवासियों में बहुत-सारी चीजें हैं, जिन्हें हम रूढ़ि मानते हैं, मगर वे रूढ़ियाँ नहीं हैं। प्रकृति के संवाद की स्थिति है। वे पहाड़ को देवता मानते हैं। नदी को देवता मानते हैं। आकाश को देवता मानते हैं। यह पाँचों तत्वों से संबंध स्थापित करने की प्रक्रिया है, जो हमारे जीवन में नहीं है।'' (पृ.39)

भारतीय दर्शन और साहित्य के संबंधों पर वे मत प्रकट करते हैं - ''साहित्य मनुष्य से मनुष्य के संबंध की गहराई, मनुष्य से प्रकृति के संबंध की गहराई, मनुष्य के देशकाल के साथ संबंध की गहराई की पहचान से लिखा जाता है। दर्शन उसका एक हिस्सा मात्र है।'' (पृ.41) वे साहित्य में और अपने निबंधों में मानुष भाव को श्रेष्ठतर मानते हुए रचना करते हैं। मनुष्य भाव का अमर रहना आवश्यक है। अज्ञेय के रचनाकार के भीतर गहरी मानवीय चेतना के व्यक्ति को वे देखते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वालों से वे समझौता न करने की सलाह देते है। पत्रकार को समझौता न करने के लिए मन की तैयारी होनी चाहिए। वे अपने प्रिय साहित्य में महाभारत, रामचरितमानस, श्रीमद्भागवत एवं भवभूति के साहित्य को रखते हैं। अज्ञेय और जयशंकर प्रसाद उन्हें प्रिय लगते हैं।

ग्रंथ के अंत में पंडित विद्यानिवास मिश्र लोक मानस में राम में विरमते हैं। ऐसे विरमते हैं कि एक गीत-पंक्ति, लोक-अनुष्ठान, लोक-विश्वास में सब कहीं राम उपस्थित दिखाई देते हैं। राम और कृष्ण उनके साहित्य में सर्वत्र व्याप्त हैं। राम की स्मृति की व्यापकता पूरे भारतीय लोक-जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक है। वे अनुभव करते हैं कि लोक-कल्पना भी अद्भुत है कि उसमें वनवासी राम के आँधी-पानी में भीगने की चिंता तो होती ही है, क्योंकि उनके मुकुट के भीगने की भी चिंता होती है।

हम पाते हैं कि पंडित विद्यानिवास मिश्र भी लोक-संस्कृति के जल में भीग रहे हैं। हम भी उन्हें देखकर, पढ़कर, समझकर लोक-संस्कृति और साहित्य की शिक्षा-दीक्षा और संस्कार से थोड़े-थोड़े संस्कारित हो उठे हैं। दूर से लोकगीत का स्वर आ रहा है -

राम के भीजै मुकुटवा, लखन सिर पटुकवा हो राम।
मोरी सीता के भीजै सेनुरवा, लवटि घर आवइँ हो राम।।


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