हिंदी कथा साहित्य में गीताश्री एक परिचित नाम है। हिंदी की प्रसिद्ध
साहित्यिक पत्रिकाओं - हंस, नया ज्ञानोदय, पाखी, कथादेश, इरावती, बहुवचन,
लमही, निकट, संबोधन, आउटलुक, शुक्रवार आदि में आपकी कहानियाँ निरंतर प्रकाशित
और चर्चित हुई हैं। अब तक गीताश्री के तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं
- 'प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियाँ' (2013), 'स्वप्न, साजिश और स्त्री'
(2015), और 'डाउनलोड होते हैं सपने'(2017)। इनकी कहानियों में गजब की पठनीयता
होती है जो किसी भी कहानी की प्राथमिक विशेषता मानी जा सकती है। यह इसीलिए कि
अगर कहानी पढी ही नहीं गई तो फिर उस पर आगे बातचीत क्या होगी? भला उस पर विचार
कैसे हो सकता है? दूसरी खूबी इनके कथा साहित्य की यह है कि यह कहानीकार अपने
परिवेश और समय में घटित घटनाओं के कुछ खास चित्रों को अपनी रचनाओं में उकेरने
की कोशिश करती हैं। कहना न होगा कि इस प्रयास में उसे अपेक्षित सफलता मिली है।
यह बात अलग है कि कहानीकार की दृष्टि किसी खास परिवेश और समय पर रही है, लेकिन
इसे अस्वीकारा नहीं जा सकता है कि कहानी में चित्रित विषय हमारे समाज में
रोज-ब-रोज घटित होनेवाली घटनाएँ ही हैं, भले ही वह समग्र समाज का हिस्सा नहीं
है। अतः जीवन की सचाई को ही गीताश्री कथा-सूत्र में पिरोती हैं। परिवेश को
सजगता और रोचकता के साथ चित्रण करने में भी कथाकार सफल रही हैं।
गीताश्री के रचना संसार की केंद्रीय चिंता स्त्री है। विभिन्न संदर्भों और
परिप्रेक्ष्यों में स्त्री जीवन की स्थितियों को उद्घाटित करने में इनकी
कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। उल्लेख करना आवश्यक है कि गीताश्री की स्त्री जयशंकर
प्रसाद की नारी नहीं है। वह रचनाकार के समकाल की है। उसके अपने स्वप्न हैं और
दृष्टि भी। उसे पता है मर्दवादी अत्याचार और दमन। शोषण और व्यभिचार के सामने
वह मूक बनकर रहना नहीं चाहती, प्रतिवाद करती है। विरोध करती है। सबसे बडी बात
यह कि यह स्त्री मरना नहीं, जीना चाहती है और जितने दिनों तक जीवित रहती है
उसे अपनी शर्त पर जीवन को भोगते हुए जीना चाहती है। परंपरा की जकड़बंदी से वह
मुक्त होना चाहती है। गुलामी से उसे घृणा है। आजादी से बेहद प्रेम है। इस
स्वतंत्रता को 'मर्दवाद' उच्छृंखलता का नाम दे तो भी उसे कोई परवाह नहीं है।
यह स्त्री अपने व्यक्तित्व और अपनी पहचान स्वयं निर्मित करना चाहती है। एलिट
स्त्री हो या मध्यवर्गीय स्त्री, महानगर की हो या कस्बे की अथवा गाँव की, उसके
जीवन की त्रासद स्थितियों को ही अंकित करना कथाकार का अभिप्रेत नहीं है।
कामकाजी, घरेलू स्त्री, आदि के जीवन की विडंबनाओं को भी गीताश्री बड़ी शिद्दत
के साथ प्रस्तुत करती हैं। अतः यह स्पष्ट है कि उनकी कथा दुनिया में ऊपर से
भले ही कथा एक जैसी लगे लेकिन वहाँ वैविध्य का अभाव नहीं है। स्त्री जीवन की
अनेक परतों को अपने ढंग से रूपायित करने में भी रचनाकार को विशेष सफलता
प्राप्त हुई है।
गीताश्री की कहानी की नायिका मर्दवादी समाज व्यवस्था की साजिशों को बेरहमी से
पेश करती है। वह इस व्यवस्था के विरुद्ध अत्यंत मुखर भी है। लेकिन उसकी मुखरता
स्लोगनधर्मी नहीं है। नारी मुक्ति कामना केवल 'विशफुल थिंकिंग' बनकर नहीं रह
गई है। 'प्रार्थना के बाहर' की रचना हो या प्रार्थना, 'लबरी' की माला हो अथवा
'गोरिल्ला प्यार' की अर्पिता, 'डायरी, आकाश और चिड़िया की रागिनी और हिमानी,
मेकिंग आफ बबीता सोलंकी' की बबीता 'माई री मैं टोना करिहों' की मिताली हो अथवा
'ड्रिम्स अनलिमिटेड' की राइमा, सोनिया आदि तमाम स्त्री पात्र हमारे समाज की
पुरुषवादी मानसिकता का बयान करती हैं। यह निश्चित है कि ये स्त्रियाँ
भूमंडलीकरण के दौर की हैं। अतः उनकी कैरियर संबंधी ऊहापोह, क्श्मकशभरी जिंदगी
का चित्रण तो यहाँ है ही, जीवन के तनाव और घुटन भी हैं। लेकिन उनकी अपने ढंग
की संघर्षशीलता और निजी पहचान के लिए जद्दोजहद भी अंकित हैं। अक्सर आज की
पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा स्त्री के बारे में पुरुष समाज की सोच है कि ऐसी
स्त्रियों की कोई समस्या ही नहीं है। लेकिन गीताश्री की कहानियों से गुजरकर यह
पता चलता है कि कहाँ कुछ भी तो नहीं बदला। स्थिति जस की तस बनी हुई है। सदियों
से चला आ रहा स्त्री का करुण विलाप आज भी जारी है। ताउम्र कैद और मुक्ति की
छटपटाहट के बीच स्त्री जीवन एवं उसके पीड़ित संसार का चित्रण करती हैं गीताश्री
की कहानियाँ। कहानीकार ने स्पष्ट रूप से कहा है - "अपने समय में झाँकने और कई
बार उसके आगे झाँकने का दुस्साहसिक सपना देखती हूँ। पुरुष वर्चस्ववादी सत्ता
की परतें उधेड़ना चाहती हूँ। घोर नैराश्य की स्थिति में भी एक जिद की तरह...।"
उसने यह जो कहा है कि "जब मेरी कहानियों की स्त्रियाँ वाचाल दिखती हैं, तब
उनकी इस वाचालता की तह में जाना जरूरी है। (चिड़ियाएँ जब ज्यादा चहचहाती हैं तो
यह न समझिए कि वे उत्सव मना रही हैं। वे यातना में होती हैं।)
गीताश्री अपने कथा पात्रों को भी परिचित संसार से ले कर आती हैं। कपोलकल्पित
पात्र और घटनाओं को कहानी में स्थान देना इस रचनाकार का स्वभाव नहीं है।
भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण और बाजारवादी अर्थव्यवस्था ने मौज करने, मजा
लूटने और भोग में लिप्त रहने का गुरु मंत्र दिया है। नए को यूँ कहें कि नव्यतम
को हासिल करने की अंधी होड़ में व्यक्ति अपनी जड़ और अपने नाभि-नाल संबंध को
पूरी तरह से विस्मृत करता जा रहा है। इसी क्रम में उसका बहुत कुछ छूटता जा रहा
है। गीताश्री लिखती हैं - "थोड़ा कुछ पाने के लालच में कितना कुछ छूट जाता है।
मैं इसी 'छूटते' जाने को रचनाओं में पकड़ने की कोशिश करती हूँ। मेरे लिए यही
अंतिम सत्य है।"
प्रार्थना जैसी मस्ती में दिखाई देने वाली केयरलेस, अपनी मर्जी से जीनेवाली,
मूडी लड़केबाजी करती है, हमबिस्तर भी होती है तो स्वाभाविक है कि रचना जैसे
पारंपरिक युवती के लिए यह ग्राह्य नहीं होती है । रचना से अर्चना कहती है - "
देख रचना तू नहीं समझ पाएगी यह सब। मैं समझाना भी नहीं चाहती। बस इतना समझ ले
कि मेरे लिए यह कुंठाओं से मुक्ति का मार्ग है। ये मेरे तनाव और बोरियत को दूर
करके मुझे एकाग्र बनाता है मेरे लक्ष्य के प्रति..." अब कोई कह सकता है कि
कैसा बेहूदा तर्क है। लेकिन उपभोक्तावादी समय में नई पीढ़ी बेहिचक ऐसा तर्क
प्रस्तुत कर रही है तो रचनाकार उसकी अभिव्यक्ति कैसे न करे। इस पीढ़ी की
मानसिकता को गीताश्री भली-भाँति प्रस्तुत करती है इसी 'प्रार्थना के बाहर'
कहानी में - "देख... मेरे लिए कोई एक व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण
है मेरा रास्ता... मेरी पसंद... मेरा आनंद... और आनंद का कोई चेहरा नहीं
होता... जो जितनी दूर साथ चले... चले.. नहीं तो भाड़ में जाए। मैंने किसी से
कमिटमेंट नहीं किया ना लिया। I do not indulge in middle class mentality... I
have only one life and I want excitement without regret... that is it. कुछ
ऐसा कर गुजरना है जिससे लोग याद रखें... बस।" प्लाट के अनुसार कथा होगी,
घटनाएँ होंगी, परिस्थितियों का निर्माण होगा और पात्रों का मनोविश्लेषण भी।
इसलिए गीताश्री की कहानियों पर राय बनाते समय या उन पर विचार करते समय
उपर्युक्त मुद्दों पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। इस कहानी के अंतिम भाग में
रचनाकार का सरोकार स्पष्ट होता है - "एक दफ्तर, एक घर। दोनों जगह उसका कोई
वजूद नहीं। दोनों जगह मालिक कोई और है... और उसका वक्त गुलाम से ज्यादा कुछ
नहीं। भली लड़की बनकर उसे गुलामी मिली और यह जो बुरी लड़की थी उसने अपने तरह
की जिंदगी जीने की, अपना कॅरिअर चुनने की आजादी पाई... अपना वजूद बनाया।"
जाहिर है कि 'भली लड़की' और 'बुरी लड़की' की स्थापनाएँ जो हमारे समाज ने दी हैं
वह कितना हास्यास्पद है। गीताश्री का रचनाकार उन जर्जर स्थापनाओं के समक्ष
प्रश्नचिह्न खड़ा करता है और चुनौती प्रस्तुत करता है।
गीताश्री के कथा-संसार में विविधताएँ हैं। यह वैविध्य कथा-संगठन, कथानक,
अभिव्यक्ति, शैली आदि के संदर्भ में परिलक्षित किया जा सकता है। उनकी कहानियों
में लोक भी अनुपस्थित नहीं है। लोक की पुकार या प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनी जा
सकती है। इस कथाकार के निंदक उनकी कहानियों में स्त्री देह को ही देख पाते
हैं। उस बिंदु पर बात करते हैं। लेकिन, उनकी कहानियों का गंभीर पाठ हो तो
उनमें स्त्री देह से अधिक स्त्री मन की बातें उभरकर आती हैं। 'डाउनलोड होते
हैं सपने' की कई कहानियों में यह वैशिष्ट्य दिखाई देता है। इनमें चरित्रों का
मनोविज्ञान स्पष्ट रूप से अंकित हुआ है।
इधर की कहानियों से कथा-तत्व गायब हो रहा है। सत्यनारायण पटेल जैसे युवा
रचनाकारों के यहाँ कथा मौजूद है। खुशी की बात है कि 'कोन्हारा घाट', 'प्रश्न
कुंडली', 'डाउनलोड होते हैं सपने' जैसी कहानियों में कथा-सूत्रों का सफल
निर्वहन हुआ है। उल्लेख किया जा सकता है कि कथा कहना गीताश्री का उद्देश्य
नहीं है। कथा के बहाने अपनी चिंताओं और सरोकारों को उजागर करना ही किसी भी
रचनाकार का बड़ा ध्येय रहता है। इस संदर्भ में भी यह लागू होता है। 'कोन्हारा
घाट' की फुआ बरसों तक अपनी स्मृति और परंपरा में रहने वाली एक चरित्र है। एक
अद्भुत आकर्षण है उनके व्यक्तित्व में। लंबे ठहराव से दूर और अनथक गतिशीलता से
यह पात्र पाठकों को बांधे रखती है। फुआ बरसों तक स्मृति में रहनेवाली एक पात्र
है। उनमें परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व है तो इनका सुंदर समन्वय भी। अक्सर
अपने बदरंग झोले को साथ लिए रहनेवाली बुआ के लिए झोला जीवन था, सपना था और
उसकी अस्मिता थी। झोले के बारे में उनका कहना था - "हमारा झोरा कोई छुइहे मत।
ये हमर झोरा न हय, हमर सपना है। हम इस झोरे के सहारे कहीं भी डेरा बना सकते
हैं, हाँ। सब रख लो न तुम लोग... हमको कुछ नहीं चाहिए... बस हमको इस झोरे के
साथ यहाँ से निकल जाने दो।" (डाउनलोड होते हैं सपने) सच है कि फुआ को पर्स का
बड़ा शौक था। लेकिन कहाँ तो उनका झोरा और कहाँ है पर्स। इसमें तो जगह भी कितना
कम होती है। इस लंबी कहानी में फुआ के जीवन की कई शेड्स हैं। पत्नी के रूप
में, बहन के रूप में, विधवा स्त्री के रूप में और संगीतप्रेमी तथा स्त्री
सशक्तिकरण के एक्टिविस्ट के रूप में। कथाकार ने इन रूपों का अत्यंत
हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। सामाजिक संस्कारों से फुआ जितनी आबद्ध प्रतीत
होती हैं वे इन्हें तपाक से छोड़ने में भी पीछे नहीं हटतीं। फुआ तरक्कीपसंद,
स्वाभिमानी और सामाजिक संचेतना से भरपूर स्त्री हैं। हाशिए की स्त्री को
मुख्यधारा में प्रतिष्ठित करने का उनका सपना कहानी में निनादित हुआ है। अपने
अधिकारों के प्रति सचेतन फुआ परिवारवालों से अपनी बोल्डनेस से वसीयत के बारे
में साफ-साफ जानना चाहती हैं। विधवा हो जाने के बाद कौतुकतावश उनकी माँग पर
सिंदूर और माथे पर तेल लगाने से वे शर्मसार हो जाती हैं। अर्थात यहाँ फुआ कोई
महान क्रांतिकारी कदम उठाकर पूरी व्यवस्था को तहस-नहस कर डालना नहीं चाहतीं। न
ही नारीवाद का झंडा उठाकर चल पड़ती हैं। फुआ सामाजिक संस्कारों, नियमों और
पाबंदियों के घेरे में बँधे रहना भी नहीं जानतीं। वे कुछ करना चाह्ती हैं,
अपने लिए नहीं बल्कि दुखियारी बाल-विधवाओं के लिए - "मुझे बन्नी गौरेया देवी
के नाम से किशोरी निकेतन बनवा कर दे दीजिए। हम वहाँ बाल-विधवाओं को रखेंगे,
पढ़ाएँगे, लिखाएँगे, लूर सिखाएँगे। किसी लायक बनाएँगे। आगे जिनगी शुरू करना
चाहें तो उसमें भी मदद करेंगे।" (पृ.27) ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह याचना
नहीं है, अपने अधिकार की प्राप्ति के लिए दृढ़तापूर्वक पेश किया गया उद्गार है।
'ट्राम नंबर 5 और बोहेमियन धुन' शीर्षक कहानी विदेश की पृष्ठभूमि पर लिखी गई
है। मैगनोलिया उर्फ हाना के माध्यम से गीताश्री ने यह अंकित किया है कि स्त्री
अपने सारे कष्ट और कषणों को सहते हुए भी कैसे अपने तथा सामने वाले के जीवन में
'न्यू वर्ल्ड सिंफनी' भर देना चाहती है। इस कहानी में कथाकार की भाषिक
सामर्थ्य का भी पता चलता है। कहानी में कविता का रूप बार-बार झाँकता है। हाना
तमाम समस्याओं से घिरे रहने पर भी देवप्रकाश को 'न्यू वर्ल्ड सिंफनी' सुनाकर
बसंत का स्वागत करना चाहती है। जिजीविषा को बनाए रखने में स्त्री की भूमिका को
रेखांकित करना कथाकार की जीवनदृष्टि का भी परिचायक है। इस संदर्भ में भारत की
पृष्ठभूमि में तथाकथित उच्च-मध्यवर्ग स्त्री जीवन में व्याप्त विसंगतियों और
मुसीबतों के आधार पर लिखी गई कहानी 'तीन देवियाँ' उल्लेखनीय है। दिव्या, शानवी
और दृष्टि तीन देवियाँ हैं ड्राइवर बालम सिंह की दृष्टि में। पुरुष होते हुए
भी वह इन लड़कियों की कहानी का अनसुना दर्द महसूस करने में समर्थ होता है। अतः
यह स्पष्ट है कि यह कथाकार पुरुषविरोधी नहीं, बल्कि पुरुषवादी मानसिकता विरोधी
है। इस कहानी में दिव्या मैडम के पति के बारे में उल्लेख है - "दिव्या मैडम का
पति भी वैसा ही था जैसे हम सब होते हैं। बीवी को पैर की जूती समझने वाले।
मैडम, हम मर्द लोग ऐसे क्यों होते हैं? आखिर हम औरतों को नौकरानी ही क्यों
समझते हैं?" (पृ.106) कथावाचक के अनुसार विवाह के पूर्व दिव्या चुलबुली, मस्ती
में जीनेवाली और खूब समर्पण के साथ प्यार करनेवाली थी। उसका पति पैसे के लिए
कुछ भी करने को तैयार है। धन का बड़ा लोभी। धन के लिए पत्नी को भी किसी से
विवाह रचाने के लिए कहने में कोई संकोच नहीं करता। पूँजी के खेल ने तमाम नाते
और रिश्तों को तार-तार कर दिया है। कैसा विकट समय आ गया कि पति प्रस्ताव दे
रहा है - "मैं तुझे कागज पर तलाक देता हूँ। रहेंगे हम पति-पत्नी जैसे। पर
इंडिया में एक धनी आदमी है उससे एक करोड़ की डील हुई है। उससे तू शादी करके
अमेरिका ले आ। उसे वीजा नहीं मिल रहा। कुछ साल रह कर हम उसे यहाँ जमा देंगे।
हम फिर कोई दूसरी पार्टी फाँसेंगे.." (पृ, 107)
मल्टी नेशनल में नौकरी कर रही और मिस इंडिया में शार्ट लिस्टेड हो चुकी शानवी
की कहानी भी कम दुखदाई नहीं है। उसका पति भी नाम के वास्ते, कागजी रिश्तों में
पति है। वह शानवी के शरीर का मालिक बना रहना चाहता है। पति राहुल शानवी को
मुक्त नहीं करना चाहता था और शानवी भी उससे मुक्त नहीं होना चाहती थी। दिव्या
की तरह यहाँ भी संबंध को ढोया जा रहा है। दृष्टि के प्रेमी एक के बाद एक आते
गए। दृष्टि की देह से खेलते रहे। वे सभी दृष्टि को गुलाम बना कर रखना चाहते
थे। कथावाचक ड्राइवर सुनाता है - "आखिरी प्रेमी के जाने के बाद तो उनको प्रेम
से घृणा हो गई। जाते-जाते उसने इनके चेहरे पर तेजाब फेंकने की कोशिश की पर मैम
बचा ले गई खुद को। बस कंधा झुलस गया उनका। वहाँ सबको दिखा-दिखाकर खूब रो रही
थीं..." (पृ.111) यह प्रेम पोस्ट मेरिटल अफेयर्स था। यहाँ तमाम जटिलताएँ आती
हैं जिन्हें कहानी में कथा-सूत्र में पिरोया गया है। कहना न होगा कि तीनों
स्त्रियाँ मर्दवादी व्यवस्था से पीड़ित, शोषित और निर्यातित हैं। प्रभा खेतान
की पंक्ति याद आती है - "औरत कहाँ नहीं रोती और कब नहीं रोती।" (आओ पेपे घर
चलें, पृ.54)
'डाउनलोड होते हैं सपने' कहानी ही नहीं अन्य कहानियाँ भी जिंदादिल भाषा में
लिखी गई हैं। इसलिए पाठक बड़े चाव से पाठक पढ़ना शुरू करता है और पूरी कहानी पढ़
लेता है। गंभीर समस्याओं को रोचक ढंग से पेश करने की कला कथाकार को मालूम है।
झुग्गी में रहने वाली सुमित्रा के शराबी बाप ने अपनी ही बेटी से बदसलूकी की'।
बेटी दर्द से कराह उठी थी। लेकिन बाप कहता है - "साली नखरे करती है, एकदम अपनी
माँ पर गई है, शरीर है दर्द तो होगा ही, पहली बार है न, बाद में तो खुद ही मजे
आएँगे।" (पृ.119) कैसी आसुरी प्रवृत्ति है यह हमारे समाज की? यहाँ पिता पिता
नहीं रह गया, मर्द बनकर कन्या का शोषण करने को अपना अधिकार मान बैठता है। घोर
चिंता का विषय है। बेटी अपनी माँ से 'पहली बार' के बारे में पूछती है तो
मर्यादा उल्लंघन हेतु थप्पड़ तो खाती है लेकिन इससे भी बड़ी चिंता में पाठक
डूबता है जब माँ का जवाब सुनता है - "अरे हम औरतें क्या होती हैं? इत्ते लोग
गुजरते हैं ऊपर से कि कभी न कभी तो किसी न किसी का पहली बार होता ही है, किसे
किसे बताऊँ! चल भाग यहाँ से! हम झुग्गियों की औरतों को इस्तेमाल की चीज समझते
हैं लोग, धंधेवालियों पर तो पैसा फूँक आते हैं, हम तो फ्री में हैं।" (पृ.120)
सुधा आंटी के माध्यम से देह व्यापार करने वालों की कलई ही नहीं खुली गई है
बल्कि स्त्री के शोषण और पतनोन्मुखी समाज की असलियत पर भी गंभीर विमर्श
प्रस्तुत किया गया है। कॉल गर्ल, सेक्स वर्कर आदि भी मनुष्य होती हैं और उनके
भी सपने होते हैं। रोहित सर ने सुमित्रा की प्रतिभा को पहचाना। अब उसके सपने
डाउनलोड होने लगे।
गीताश्री की स्त्री सभी वर्ग और वर्ण से आती हैं। यहाँ केवल खाती-पीती अघाती
स्त्री, मध्यवर्गीय स्त्री, मजदूर स्त्री, गरीब परिवार की स्त्री के दास्ताँ,
उनके संघर्ष और उनकी जिजीविषा आदि को कथा के माध्यम से दिखाते हुए कथा-दृष्टि
का परिचय प्रदान किया गया है। कहानी चाहे 'मलाई' हो अथवा 'सी यू', 'प्रश्न
कुंडली' हो या 'ब्लाइंड डेट', आप एक नई औरत की नई जिंदगी का साक्षात्कार
करेंगे। स्त्री के तनाव और सामंती सोच, स्त्री की तकलीफों और मर्दवाद की
क्रूरताओं को महसूस कर सकेंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि गीताश्री की औरत विकटतम
स्थितियों में भी घुटने नहीं टेकती, जूझती, टकराती और जिजीविषा प्रकट करती है।
गीताश्री के कथा-संसार की केंद्रीय चिंता के बारे में जानना है तो
'प्रश्न-कुंडली' की शुरुआती पंक्तियाँ अवतरित की जा सकती हैं - "प्रेम, खौफ,
धोखा, दुनिया, रचना, सपना, आकांक्षा, डर, प्रकृति, पानी, बारिश, धूप, बादल,
आकाश, पृथ्वी, सौंदर्य, शोख, चंचल, दिल, कविता, लय, गीत, मंदिर, देवता,
आशा..." (पृ.51) इस उद्धृंताश से कथाकार के रचना-परिसर को जाना और समझा जा
सक्ता है। अतः उसे किसी खास वर्ग की स्त्रियों की रचनाकार कहना उनके लेखन से
अन्याय करने के समान होगा।
'प्रश्न-कुंडली' की टैरो कार्ड रीडर स्मिता दुर्रानी हो या अपनी समस्याओं से
निजात पाने के उपाय पूछने वाली शिवांगी हो सभी यंत्रणादग्ध हैं। दांपत्य जीवन
की विषज्वाला से पीड़ित हैं। लेकिन, कथाकार ने शिवांगी के माध्यम से अपनी जीवन
दृष्टि को स्पष्ट किया है तथा आत्मविश्वास से भरपूर स्त्री के नए रूप से
परिचित कराया है - "हम सारा सुख एक ही जगह तलाशते रहते हैं, उम्मीद का सारा
बोझ एक रिश्ते पर डाल देते हैं... हम उसे अपने हिसाब से ढालना चाहते हैं,
नियंत्रित करना और होना चाहते हैं... हम जिंदगी को उसकी विराटता में देख ही
नहीं पाते... मैं तलाश करूँगी उसकी..." (पृ.63) पूँजीवादी व्यवस्था ने संबंध
तक को 'प्रॉडक्ट' बना दिया है। गीताश्री इसका विरोध करती हैं। गुलाम मंडी में
अपने लिए कोई जगह नहीं देखती हैं। शिवांगी कहती है - " विवाह उन्हें वस्तु
में बदल देता है... वस्तु में... इससे ज्यादा कोई हैसियत नहीं... एक बार वस्तु
बन कर जी रही हूँ... मुक्ति का मार्ग खुद को तलाशना होगा। मैं खुद को इस आतंक
से बचाए रखने की हिमायती हूँ..." (पृ.63-64) 'सी यू' कहानी की सुषमा दुबे के
प्रेमी बनने का नाटक करने वाले उसे उपयोग का सामान मात्र समझते हैं। सदियों से
मर्दवादी सोच और वर्चस्व का शिकार बनता हमारा समाज खोखला बनता जा रहा है।
जमाना बदल रहा है बड़ी तेजी से लेकिन मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया। ईशा और
ईशान के छोटे-छोटे संवाद कहानी के कथ्य को रचनादृष्टि को पुख्ता बनाते हैं। इस
कहानी में रचना कौशल का भी सुंदर परिचय मिलता है।
ऐसा नहीं है कि गीताश्री की कहानियाँ केवल स्त्री केंद्रित हैं। स्त्री की
समस्याओं, विडंबनाओं, उलझनों के अलावा उसमें समाज और राष्ट्र को लचड़ बनाने
वाली व्यवस्था पर भी उन्होंने नोटिस ली है, उस पर अपनी चिंता व्यक्त की है।
कहने का आशय यह है कि एक जागरूक रचनाकार की दृष्टि से यह ओझल नहीं हो पाई है।
'उजड़े दयार में' अथवा 'बदन देवी की मेहँदी का मन डोला' या 'माई री मैं टोना
करिहों' जैसी कहानियों में सामाजिक चिंता व्यक्त हुई है, लोक तो है ही। मसलन,
'बदन देवी की मेहँदी का मन डोला' की निम्नलिखित पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती हैं -
"गाँव में बिजली नहीं, तीन किलोमीटर से पानी लाना पडता है, पाँचवीं कक्षा तक
का एक टूटा-फूटा स्कूल है और बीमार पड़े तो 17 किलोमीटर दूर साहेबगंज जाना
पड़ता है।"
इसी तरह 'ड्रिम्स अनलिमिटेड' कहानी कार्पोरेट कल्चर तथा विज्ञापन की दुनिया के
असली चेहरे को उद्घाटित करती है - "हम विज्ञापन की दुनिया में हैं सोनिया,
हमारी दुनिया बहुत तेज गति से आगे बढती है, फ्रेम दर फ्रेम, हम अटक के नहीं रह
सकते। एक लाइन पसंद नहीं आई, दूसरी लिखो... पर लिखो, फेंको बाजार में,
उपभोक्ता के मुँह पर दे मारो। ले उलझ, जाल में फँस।" इसी दुनिया की राइमा और
सोनिया ठगी जाती हैं रोहन के द्वारा। अन्य कहानियों की तरह इस कहानी में भी
लेखक की गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय मिलता है - "स्त्रियाँ जब खुलती हैं तो और
पास ही आती हैं। सारे विषाद, सारे ठगने वाले कारक उस खुलने में ध्वस्त हो जाते
हैं। दरारें भर रही हैं और उनमें उगे बरगद, पीपल सब उखड़ रहे हैं।" दरअसल,
पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते गीताश्री के स्त्री चिंतन में
सैद्धांतिकी का बखान न होकर अनुभव एवं व्यवहार का पक्ष अधिक उभरता है। एक बात
और, कहन पर जबर्दस्त पकड़ होने के नाते इनकी कहानियों के पाठक सभी वर्गों के
हैं। यह भी किसी कथाकार के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है। उम्मीद है, गीताश्री की
कहानियाँ पाठक समुदाय की आँखें खोलने में सदा समर्थ होंगी।
अपने समकालीन कहानीकारों से गीताश्री किस तरह भिन्न हैं? अर्थात किस बिंदु के
आधार पर उन्हें समसामयिक रचनाकारों की तुलना में अलग पहचान मिलती है? यूँ तो
हर रचनाकार का निजी महत्व होता है। अनन्य होता है। लेकिन गीताश्री की कहानियों
में बदलते परिदृश्य का स्पंदन सुना जा सकता है। समय की आहट और धड़कनें स्पष्ट
सुनाई पड़ती हैं। इनकी कहानियों में सनातनी सोच, संकीर्ण मनोभाव से लेकर मशीनी
सभ्यता में मशीनतुल्य जीवन, संचार क्रांति में माध्यमों का दुरुपयोग, दांपत्य
जीवन के कलह से दुष्प्रभावित संतान की पीड़ा और स्त्री की मुक्ति की तीव्र
आकांक्षा आदि रूपायित हैं। इतना ही नहीं, गीताश्री की कहानियाँ अपने समय के सच
को व्यक्त करती हैं। वे दूर खड़ी वारदात की सिर्फ गवाह नहीं, बल्कि जीवन की आँच
में तप और झुलस कर लिखती हैं।