'नहीं मैं उससे प्यार नहीं करती।' नताशा ने कहा।
हमेशा की तरह उसके चेहरे की रंगत ने बता दिया कि सच और झूठ के बीच रहने में
उसे कितना प्रयत्न करना पड़ रहा है। एक रंग उसके चेहरे पर आया और गया। शायद वह
सच बोल रही थी शायद झूठ।
वह पेड़ पौधों से घिरे खुशनुमा रेस्त्राँ के लॉन पर एक फूलों से लदे पेड़ के
पीछे खड़ी थी। लॉन पर छोटे-छोटे झुंड बनाकर लोग बिखरे हुए थे जो सूप पी रहे
थे, कुछ खा रहे थे और गपिया रहे थे।
उसके सामने उमा थी। अपने गरिमामय अंदाज में सलीके से साड़ी पहने हुए। उसने
मुस्कुरा कर कहा,
'सोच लो। एक बार अपने दिल में ठीक से झाँककर देख लो। हो सकता है जो तुम कह रही
हो वह सच न हो'।
'कहीं ऐसा भी होता है कि कोई अपने दिल की बात न जाने?'
'होता है। कई बार दिल कुछ कहता है पर दिमाग उसे मानने से इनकार कर देता है या
साफ-साफ पहचान नहीं पाता। ठीक से सोच लो, पहचान लो। नहीं तो बाद में पछताती
फिरोगी।'
नताशा चुप हो गई थी।
उसने शायद देखा नहीं था कि कार्तिक वहीं पेड़ की दूसरी ओर खड़ा है। न जाने
क्यों कार्तिक को लगा कि ये बातें उसी के बारे में कही जा रही हैं। उसके दिल
पर अवसाद की एक गहरी रेखा खिंच गई।
आखिर क्या था प्यार?
एक दूसरे के साथ रहने की इच्छा? एक दूसरे के सामने लगातार बने रहने की इच्छा?
एक दूसरे को छूने की इच्छा? एक दूसरे को पा लेने की इच्छा?
ऐसा क्यों होता है कि साथ रहते हुए, साथ-साथ काम करते हुए आप अचानक किसी को
पसंद करने लगते हैं, उसके और साथ रहना चाहते हैं, फिर इस बात से डरने लगते हैं
कि कहीं आप वह न कह डालें जो आपके दिल में है, फिर डरते डरते एक दिन कह ही
डालते हैं, शायद हाथ पर या होठों पर या गर्दन पर या आँखों पर एक मीठे चुंबन के
साथ, और उस समय बिल्कुल नहीं सोचते कि ये जो आप कर रहे हैं इसका प्रभाव क्या
होगा।
हो सकता है कि आपके ऐसा करने के बाद सामने वाला कुछ दिनों के लिए आपसे गुस्सा
हो जाए या शरमा कर मुँह फेर ले और कई दिनों तक आपसे बात न करे पर फिर भी आपके
आसपास रहने की कोशिश करे, चाहे कि आप उससे बात करें और इसी असमंजस में एक दिन
अचानक आपके हाथ की उँगलियों में हाथ फँसा कर धीरे से कहे।
'चलो, थोड़ी देर बैठते हैं। कुछ बातें करेंगे।'
कार्तिक जहाँ खड़ा था वहाँ से नताशा के चेहरे की रेखाएँ साफ साफ पढ़ सकता था।
उसकी माथे की चार आड़ी रेखाएँ एक बार सिकुड़ीं और फिर सीधी हो गई थीं। चेहरे
पर गुलाबी रंग आकर जा चुका था। अब वह उमा के साथ चुपचाप खड़ी थी और सूप पी रही
थी।
कार्तिक वहाँ से हटा और एक कोने में जहाँ रोशनी कुछ कम थी, जाकर कुर्सी पर बैठ
गया।
नताशा करीब दस साल पहले आंदोलन में आई थी।
बहुत से लड़के लड़कियाँ थे जो कार्तिक की जन शिक्षा समिति के काम के कारण
समिति के आसपास इकट्ठा हो गए थे, उससे जुड़े थे। नताशा उन्हीं में से एक थी।
हर कार्यक्रम में आगे आगे। बच्चों के साथ काम करते हुए, शिक्षकों के साथ पढ़ते
पढ़ाते हुए, गीत और संगीत में अपनी आवाज मिलाते हुए। फिर तय किया गया था कि
उसे पूरी तरह से संगठन में लाया जाए।
पहले पहल जब वह जन शिक्षा समिति के कार्यालय में आई थी तो उसे देखकर कार्तिक
को एक अजीब पवित्रता का बोध हुआ था। और जैसे इस पवित्रता बोध को और समृद्ध
करने के लिए उसने साफ सफेद रेशमी साड़ी और सफेद ब्लाउज पहन रखा था जिसकी
पृष्ठभूमि में उसका गुलाबी सा चेहरा और मासूम नजर आ रहा था। उसकी चमकती काली
आँखें जिज्ञासा से भरी हुई थीं। कार्तिक ने पूछा था।
'आप आंदोलन में पूरी तरह से काम करना चाहेंगी?'
'जी, इसीलिए तो आई हूँ।'
'क्यों?'
'क्योंकि मैं लोगों के लिए, समाज के लिए, कुछ करना चाहती हूँ।'
'ये बहुत आदर्शवादी बात है और आदर्श से आदमी जल्दी थक जाता है। समय और समाज ही
थका देता है।'
'मैं नहीं थकूँगी। मैं कुछ करके दिखाना चाहती हूँ।'
कार्तिक को अपने प्रारंभिक दिनों की याद आई थी। नताशा उसे अच्छी लगी थी।
कुछ कर डालने की तीव्र इच्छा शक्ति के अलावा उसके पास कुछ नहीं था। न ही विचार
की गहनता, न अनुभव का विस्तार। बस वह सबके लिए कुछ न कुछ करना चाहती थी। किसी
के बीमार पड़ने पर उसे दिन रात अस्पताल में देखा जा सकता था, किसी के घर
मृत्यु हो जाने पर वह हफ्तों उसके यहाँ दुख बाँटने जा सकती थी। किसी के पैसा
माँगने पर उसका हाथ तुरंत अपने झोले में जाता था और जो भी उसके पास हो उसे
देने में वह संकोच नहीं करती थी। वह जैसे घर बाहर के लोगों का सुख दुख बाँटने
के लिए ही पैदा हुई थी। या शायद उस समय कार्तिक को ऐसा लगा था।
उसने एक बार नताशा से पूछा था।
'तुम अपना जीवन कब जियोगी?'
और उसने जवाब दिया था,
'यही मेरा जीवन है।'
'क्यों और लड़कियाँ अच्छी तरह रहती हैं, ठीक ठाक कपड़े पहनती हैं, उनकी और भी
रुचियाँ हैं। तुम उनकी तरह की क्यों नहीं हो सकतीं?'
'मैं उनकी तरह की नहीं हो सकती बस।'
उदासी उसके चेहरे पर गहरा गई थी।
कार्तिक को कभी कभी लगता था कि उदासी उसके चेहरे का स्थायी भाव है। उसके
खिलखिला कर हँसने के पीछे भी कार्तिक को एक उदास अनुभूति होती थी। क्या कोई
गहरा अपराध बोध उसके मन में था जिसका परिष्कार वह अपने आप को काम में झोंककर,
या दूसरों के लिए मिटकर करना चाहती थी?
वह अपने भाई और भाभी के साथ रहा करती थी जिनका घर वयस्कों से भरा पड़ा था। या
ऐसे बच्चों से, जो वयस्कों की तरह व्यवहार करते थे। दो कमरे के उस मकान में
करीब दस लोग रहते थे और लोगों के शरीर से आने वाली गंध उसमें हर समय समाई रहती
थी। कार्तिक को नहीं लगता था कि वे सब उसमें इकट्ठा सो पाते होंगे। और वास्तव
में ऐसा था भी। सबके काम करने की और सोने की शिफ्टें तय थीं और लगातार कोई न
कोई आता जाता बना रहता था। कभी रात में उसके घर जाना पड़े तो उसे दरवाजा खोलने
में बड़ा वक्त लगता था क्योंकि कोई न कोई दरवाजे से सटकर लेटा ही रहता था।
पहले उसे जगाएँ तो दरवाजा खुले।
नताशा ने बहुत जल्दी संगठन में जगह बना ली। उसकी अंग्रेजी अच्छी थी और कार्तिक
को चिट्ठी पत्री तथा प्रस्ताव तैयार करने में उससे बहुत मदद मिल जाती थी।
लक्ष्मण सिंह के तौर तरीकों से परेशान कार्तिक को नताशा में एक अच्छा दोस्त और
साथी मिल गया था।
अब उन्हें अक्सर साथ-साथ देखा जाने लगा। बैठकों, गोष्ठियों, सभाओं और धरनों
में वे साथ साथ जाते। ऑफिस में भी उन्हें घंटों एक दूसरे के साथ काम करते हुए
देखा जा सकता था, प्रस्ताव तैयार करते हुए, बहस करते हुए, चर्चा करते हुए या
अगले कार्यक्रम की तैयारी में जुटे हुए।
और तभी कान्हा के जंगलों में वह वर्कशॉप आयोजित हुआ था जिसने कार्तिक और नताशा
को लंबे समय तक साथ रहने का मौका दिया था।
फरवरी की उस खुशनुमा सुबह में वे अक्सर टकरा जाते। कार्तिक कहता, चलो थोड़ी
दूर तक घूम कर आते हैं, फिर घने पेड़ों के साये में वे लंबी दूरी तक घूमने
जाते। कभी किसी नाटक के कथ्य पर बहस करते हुए, कभी किसी घटना की चर्चा करते
हुए, कभी किसी साथी के व्यवहार पर बात करते हुए और कभी सिर्फ चुपचाप साथ-साथ
चलते हुए। नताशा को न जाने कैसे सभी लोगों की और उनकी अंदरुनी बातों की,
जानकारी हो जाती थी। वह कार्तिक से कुछ न छुपाती। जैसे कार्तिक पर उसे गहरा
विश्वास हो।
रेस्ट हाउस के बीचों बीच स्थित, घास और बाँस की छत से ढके इथनिक रेस्त्राँ में
वे सुबह का नाश्ता करते और फिर सुबह के सत्र में काम पर लग जाते। दोपहर का
सत्र चर्चा का होता था जिसमें तैयार किए गए नाटकों पर बहस होती, उन पर सुझाव
दिए जाते और कुछ दृश्य विधानों पर बात होती।
रात्रि के सत्र में किसी पेड़ के नीचे, या किसी चौबारे में सब लोग गाने बैठते।
जोश, बदलाव और क्रांति के गीत। 'औरतें उट्ठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा,'
'लिक्खो, पढ़ो, आगे बढ़ो।' 'चले चलो, लहूलुहान पाँव ले के भी चले चलो' - जैसे
गीत। पूरा वातावरण शक्ति और ऊर्जा से भर जाता। दिलों में एक अद्भुत प्रकाश फैल
जाता। लगता जैसे वे ब्रह्मांड की बड़ी से बड़ी शक्ति से भी टक्कर ले सकते हैं।
वे नताशा और कार्तिक के पास आने के दिन थे। साथ की ऊष्मा को महसूस करने के दिन
थे।
उन्हीं दिनों कार्तिक नताशा के साथ दिल्ली गया।
वे पहली बार शताब्दी एक्सप्रेस में साथ साथ यात्रा कर रहे थे। आरामदायी सीटों
पर एक दूसरे के बहुत निकट।
ट्रेन चलते ही नताशा ने पीछे झुककर आँखें मूँद ली थीं। कार्तिक पर्दा हटा कर
खिड़की के बाहर देख रहा था। अचानक उसे दुनिया बहुत सुंदर लगी। कितनी सुखद
अनुभूति थी। नताशा उसके साथ थी, इतने पास कि वह उसे छू सकता था। बाकी दुनिया
बाहर छूट गई थी। ट्रेन जैसे उन्हें एक दूसरी दुनिया में ले जा रही थी, एक ऐसे
एकांत में जहाँ न कोई चिट्ठी थी, न कोई याद, न कोई ऑफिस था और न काम, न दूसरे
लोग थे न अपने, जहाँ सिर्फ वे दोनों थे कार्तिक और नताशा।
'उठो भई, चाय आ गई है।'
कार्तिक ने कहा था। नताशा हड़बड़ा कर उठी।
'सॉरी कार्तिक। नींद लग गई थी।'
'इसमें सॉरी की क्या बात? हम लोग दौड़ते भागते ट्रेन में चढ़े थे। तुम्हारा सो
जाना स्वाभाविक है। पर पहले चाय पी लो फिर सो जाना।'
नताशा को पैकेट वाले दूध और 'डिप-डिप' टी बैग से चाय बनाने में थोड़ी दिक्कत
महसूस हो रही थी। कार्तिक ने उसकी ट्रे हाथ में लेते हुए कहा था,
'लाओ, मैं बनाता हूँ।'
फिर उसने बहुत कुशलता से चाय तैयार की थी। तब तक टी बैग को भाप उठते पानी में
डुबोए रखा था जब तक चाय पर अच्छा रंग नहीं आ गया, फिर दूध और शक्कर की सही
मात्रा मिलाकर, चाय के कप को नाटकीय अंदाज में पेश करते हुए उसने कहा था।
'लीजिए चाय हाजिर है।'
नताशा ने एक बहुत ही मीठी मुस्कान के साथ उसका स्वागत किया था। चाय पीते पीते
कार्तिक ने पूछा था,
'नताशा, तुमने अपने घर परिवार के बारे में कभी नहीं बताया?'
तब उसने बताना शुरू किया था। महाराष्ट्र के एक छोटे से कस्बे में उसका परिवार
रहता था। पिता सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके थे और घर में उसके अलावा तीन
अविवाहित बहनें और थीं जिनके विवाह की चिंता उन्हें खाए डालती थी। माँ थी,
सबके प्रति प्रेम और चिंता से परिपूर्ण। भाई नौकरी के लिए बाहर निकल आए थे और
उसे भी पास बुला लिया था। वह पिता के दुख से खुद को पूरी तरह एकमेक कर चुकी
थी। चाहती थी कि घर को व्यवस्थित करने में, बहनों के विवाह में, मदद कर सके।
अचानक कार्तिक को लगा, नताशा खुद भी तो करीब तीस साल की होगी। उसने पूछा,
'और तुम्हारा अपना क्या इरादा है? विवाह करोगी कि नहीं?'
'रिश्ते आते हैं बहुत सारे, पिता और भाई दोनों ढूँढ़ते रहते हैं, पर मुझे वे
पसंद ही नहीं आते - कोई टीचर, कोई क्लर्क, कोई छोटे मोटे अफसर।'
कार्तिक ने हँसते हुए पूछा था,
'तो कैसा आदमी पसंद करोगी?'
एक जवाब नताशा की जुबान तक आते आते रह गया था। उसने कुछ रुक कर कहा,
'फिलहाल मैं अपनी चिंता नहीं कर रही। बस बहनों की हो जाए यही चाहती हूँ।'
फिर वह खिड़की से बाहर देखने लगी थी। अचानक उसने कहा,
'जानते हो कार्तिक, एक ज्योतिषी ने मुझसे कहा है कि मैं पैंतीस साल से आगे
नहीं जिऊँगी। मैं सोचती हूँ इस बीच कुछ अच्छे काम कर डालूँ।'
बात हालाँकि मजाक में कही गई थी पर कार्तिक को उससे गहरा दुख हुआ। उसका मन
भारी हो गया। उसने वातावरण को हल्का करने के लिए कहा,
'मैं तुम्हारे उस ज्योतिषी से बड़ा ज्योतिषी हूँ। लाओ जरा अपना हाथ तो दिखाओ।'
नताशा ने हँसते हुए अपना हाथ उसके हाथ में दे दिया था। कार्तिक ने उसका हाथ
देखने का अभिनय करते हुए कहा था,
'तुम पैंतीस साल पर नहीं मरोगी। तुम्हारे उस ज्योतिषी ने तुम्हारी लाइफ लाइन
के पीछे छुपी ये सपोर्टिंग लाइन नहीं देखी है। ये तुम्हें बचा लेगी।'
वातावरण हल्का हो गया था। नताशा ने बहुत मिठास के साथ कहा था,
'कार्तिक, तुम बहुत अच्छे आदमी हो।'
क्या इस पर कार्तिक ने एक गहरा संतोष महसूस नहीं किया था?
अगला दिन एक उबाऊ कार्यशाला में गुजारने के बाद, देर शाम कार्तिक और नताशा
गेस्ट हाउस पहुँचे थे। गेस्ट हाउस जिन फ्लैट्स में स्थित था वे खुद तो कोई
बहुत सुंदर नहीं थे पर जिस कैंपस में वे बने थे वह हरा भरा और खूबसूरत था।
खाना खाने के बाद वे कैंपस में घूमने निकले।
चौड़ी व्यवस्थित सड़कें, हरे भरे वृक्ष और बीच बीच में छोटे मगर सुंदर लॉन,
कार्तिक और नताशा घूमते हुए एक सुनसान झुरमुट की ओर निकल आए थे।
अचानक कार्तिक ने पाया कि नताशा का हाथ उसके हाथ में था, उसकी कोमल उँगलियाँ
कार्तिक की मुलायम लेकिन दृढ़ गिरफ्त में थीं। जैसे किसी अनजान इच्छा के
वशीभूत वे झुरमुट की ओट में चले गए।
कार्तिक ने पहले उसका हाथ चूमा। फिर धीरे से हों, फिर आँखें और फिर माथा।
नताशा ने एक बार उसे आँखें उठाकर देखा। उसकी बड़ी बड़ी आँखों में एक अजीब उदास
खुशी के दर्शन कार्तिक को हुए। उसने नताशा के कंधों को अपनी बाँहों में समेटा,
एक बार फिर उसे चूमा और सड़क पर निकल आया।
नताशा ने धीरे से खुद को कार्तिक से अलग कर लिया। फिर वह रास्ते भर कुछ नहीं
बोली। दूसरे दिन कार्तिक ने बातचीत की शुरुआत करने की कोशिश की लेकिन नताशा
चुप रही। उसे लगा वह उससे नाराज है।
पहली बार कार्तिक को लगा कि उससे गलती हो गई है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था।
उसने लगभग अनायास ही ऐसा किया था। तो क्या वह नताशा से प्यार करने लगा था? या
ये सिर्फ एक भावोच्छ्वास था? एक 'स्पर ऑफ द मोमेंट' पर की गई गलती? या उसके
दुख को बाँट लेने की कोशिश थी? या अपने प्रसन्न विश्व में उसे शामिल करने का
प्रयास था? या शेयर करने और निकट आने का एक गहरा अंदरुनी दबाव था? या एक गहरी
कशिश थी? या उसे प्रसन्न करने, प्रसन्न देखने का प्रयास था? क्या था कार्तिक
के उस अनायास चुंबन का अर्थ, क्या वह उसे समझ सकता था? और क्या वह नताशा को
अच्छा लगा था?
लौटते समय ट्रेन में भी वह कार्तिक से कुछ नहीं बोली थी और लौटकर हफ्ते भर की
छुट्टी पर चली गई थी।
उसके जाने से कार्तिक के दिन बिल्कुल खाली खाली हो गए। उसका मन किसी भी काम
में नहीं लगता था। वह बाहर निकलने की सोचता पर फिर तय करता कि कुछ दिनों के
बाद जाएगा, कुछ लिखने की सोचता फिर खुद से कहता - फिर कभी, नताशा को फोन करने
का विचार मन में आता पर लगता पता नहीं उधर से क्या कह दे। कार्तिक उससे बात
करने के लिए बेचैन था उसका दिल सिर्फ नताशा की ओर उड़ा जाता था।
तभी एक रात उसका फोन आया था,
'कार्तिक?'
कार्तिक का दिल बल्लियों उछल रहा था,
'हाँ। कहाँ हो? कैसी हो?'
'ठीक हूँ। तुम्हारी बहुत याद आ रही है।'
कार्तिक को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा,
'मुझे तो लगा तुम नाराज हो गई हो।'
'नाराज तो हूँ।'
'क्यों?'
'ये बता नहीं सकती।'
कह कर वह उधर से हँसी थी।
कार्तिक जैसे हवा में उड़ रहा था।
उमा तब परिदृश्य में नहीं थी, हालाँकि कार्तिक उससे एक दो बार पहले मिल चुका
था। एक साक्षरता सम्मेलन के सिलसिले में कार्तिक उस छोटे से शहर में गया था
जहाँ उसे 'साक्षरता की चुनौतियाँ' विषय पर बोलना था।
वहाँ उसने बड़ा ओजस्वी वक्तव्य दिया। साक्षरता की जरूरत क्या है, किस तबके के
लोग इसमें सबसे आगे आ रहे हैं और मध्य वर्ग को क्यों अपने सुखी जीवन में से
कुछ समय निकाल कर इस काम के लिए थोड़ा समय देना चाहिए जैसी बातें वह कह चुका
था। फिर वह साक्षरता से सामाजिक चेतना की ओर आया और उससे साक्षरता आंदोलन से
बदलाव की संभावना पर विचार प्रगट करने लगा।
तभी चौथी पाँचवी पंक्ति में बैठी एक महिला ने अचानक उठकर कहा,
'आप महिलाओं के बारे में बात क्यों नहीं करते?'
कार्तिक ने देखा एक सुंदर सी तेजस्वी महिला, करीब पैंतीस वर्ष की उम्र, माथे
पर गोल बड़ी बिंदी, ढीला सा जूड़ा, भरा भरा बदन, सफेद और हरे रंग की संबलपुरी
साड़ी पहने उसके सामने खड़ी थी। उसकी विचार प्रक्रिया कुछ रुक सी गई। उसने
हल्के से हँस कर कहा,
'मैं महिलाओं के बारे में ज्यादा इसलिए नहीं बोल रहा कि मैं उनकी बात करने के
लिए शायद सक्षम नहीं हूँ। आप क्यों नहीं यहाँ आकर अपनी बात रखतीं?'
वह पहले पहल थोड़ा सा झिझकी थी फिर किसी ने पीछे से कहा था- उमा जी जाइए, जाइए
और वह आत्मविश्वास के साथ आकर मंच पर खड़ी हो गई थी।
'मुझे लगता है कि साक्षरता की अगर किसी को सबसे ज्यादा जरूरत है तो वह है
महिलाओं को। जिस दबे कुचले वर्ग की आप बात कर रहे हैं उनमें महिलाएँ और भी
अधिक दबी कुचली हैं। मैं पूरे जिले में घूमती हूँ। कहूँ कि मुझे घूमना अच्छा
लगता है। हर जगह कक्षाओं में महिलाएँ ज्यादा हैं। वे दिन भर काम करती हैं, घर
का खाना बनाती हैं और फिर रात में पढ़ने भी आती हैं। कभी कभी तो अपने पतियों
का विरोध भी सहकर। उनमें सीखने और जानने की एक तीव्र इच्छा है, ललक है, उनके
साथ उनके बच्चे भी आते हैं। अगर हम कोई स्ट्रेटेजी बनाएँ तो महिलाएँ उस
स्ट्रेटेजी के केंद्र में होनी चाहिए।'
सभा में एक सनाका खिंच गया था। सबसे पहले तालियाँ कार्तिक ने ही बजाई थीं। फिर
सभी ने उमा के वक्तव्य का तालियाँ बजाकर स्वागत किया था।
कार्तिक ने उमा से कहा था,
'आप अपने साथ तीन चार महिलाएँ ले लें और विचार कर लें कि किस तरह का विशेष
अभियान आप महिलाओं के लिए चाहेंगी? हम जरूर उसे अपने आंदोलन में शामिल
करेंगे।'
उमा ने हँसकर उसके इस विचार का स्वागत किया था। कार्तिक ने देखा हँसते समय
अपनी हथेली से वह अपना मुँह छुपा लेती थी और ऐसा करते समय और भी सुंदर लगती
थी।
चाय के अंतराल में जब वह उस कोने में अकेले बैठी थी, जहाँ से कनेर की बेल लाल
पीले फूलों के साथ ऊपर चढ़ती थी और सभा स्थल की छत पर जाकर बिखर जाती थी,
कार्तिक चाय का कप हाथ में लिए उसके पास जाकर बै गया। उसने कहा,
'आप बोलती बहुत अच्छा हैं।'
'प्रशिक्षक जो हूँ।'
'कहाँ?'
'यहीं जिला समिति में'
'प्रशिक्षण देने के अलावा भी कुछ करती हैं?'
'हाँ, गाती हूँ, कभी कभी'
'अरे वाह! तो कभी हमें भी सुनाइएगा'
'उसके लिए आपको मेरे साथ गाँवों में चलना होगा। वहाँ रात में महिला समूहों के
साथ गाने का आनंद ही कुछ और है।'
'इस बार तो शायद ही हो सके!'
'कोई बात नहीं। अगली बार सही। तब तक आपको हमारा गाना सुनने का इंतजार करना
होगा।'
कार्तिक को उमा पहली नजर में अच्छी लगी थी। सुंदर और परिपक्व। उसे लगा था कि
वह उसके साथ कुछ देर और बैठे। वह बातें भी सलीके की करती थी। पर अचानक उमा उठ
गई थी,
'चलिए, दूसरे सत्र का समय हो गया।'
क्या वह कार्तिक को झटकना चाहती थी?
उसके जाने के बाद लक्ष्मण सिंह कार्तिक के पास आया।
'क्या बात है? हमारी उमा जी से बड़ी दोस्ती कर रहे हो?'
'आपकी उमा जी?'
'मतलब हमारे जिले की, हमारी समिति की उमा जी!'
'तो भई कोई मनाही तो नहीं है?'
'मनाही नहीं है, मगर जरा बचकर!'
'क्यों?'
'नक्सलियों की पॉलीटिक्स करती हैं'
'तो किसने कहा कि नक्सली बुरे आदमी होते हैं? कई बार वे आम आदमियों से भी
अच्छे होते हैं।'
'तुम्हारी मर्जी। तुम्हें चेताना था सो मैंने बता दिया।'
लक्ष्मण सिंह की इस चेतावनी ने कार्तिक के मन में उमा के रहस्य को और गहरा
दिया था।
रहस्य की यह परत उसके आसपास हर समय बनी रही। उसके गुजरे हुए समय के बारे में
कोई ज्यादा कुछ नहीं जानता था। उसका परिवार कहीं था पर वह उसके साथ नहीं रहती
थी। उसके पति भी कहीं थे पर वह उनके साथ भी नहीं रहती थी। वह कई तरह के काम कर
चुकी थी पर कोई ठीक ठीक नहीं जानता था कि कहाँ? वह ठीक समय पर काम पर आती थी
और छह बजते ही सीधे अपना बैग उठाकर घर को रुख करती थी। उसके बाद की दिनचर्या
के बारे में उससे कोई ज्यादा कुछ नहीं पूछ सकता था। सब उसे पसंद करते थे, और
सब उससे थोड़ा थोड़ा डरते भी थे।
पहली मुलाकात के बाद का वह आकर्षण कार्तिक के मन में लगातार बना रहा। वह जब भी
उस जिले में जाता ढूँढ़कर उमा से जरूर मुलाकात करता। कभी वह प्रशिक्षण दे रही
होती, कभी महिला समूहों के साथ किसी काम में भिड़ी होती, कभी कक्षाएँ दिखाने
कार्तिक को गाँव ले जाती।
उसे सब जानते थे। वह सबको जानती थी।
शाम के झुटपुटे में किसी गाँव में पहुँचने पर औरतें उसके आसपास इकट्ठा हो
जातीं। 'बहुत दिन में आई दीदी इस बार', 'इस बार आपको हमारी कक्षा में भी चलना
होगा।' 'दीदी हमारे आदमी को समझा दो न एक बार, कक्षा में आने नहीं देता।'
'दीदी, नया गाना बनाया है सुनोगी क्या?'
वह सबसे घुल मिल कर बातें करती। सबको कुछ न कुछ सलाह देती। वह सबकी दोस्त थी।
फिर वह साथिनों को लेकर गाना गाती।
'विद्या के भंडार घरो घर लावत जावा रे...'
कार्तिक को उसके साथ गाँवों में जाना अच्छा लगता था। वह उससे बातचीत करने की
कोशिश भी करता। पर हर बार उसे महसूस होता था कि एक दीवार सी है जिसके पार वह
नहीं जा सकता। उमा अक्सर उसे एक सीमारेखा पर रोक देती जिसके पार उसकी अपनी
दुनिया थी, रहस्यमय दुनिया।
फिर मालूम पड़ा था कि एक कार्यकर्ता की मदद को लेकर उसने समिति में बड़ा
हंगामा खड़ा किया था
हुआ यों था कि समिति में काम कर रहे एक कार्यकर्ता का काम के दौरान एक्सीडेंट
हो गया था और उसे गहरी चोट आई थी। उसकी पत्नी और छोटा बच्चा अचानक बड़ी तकलीफ
में आ गए थे। उमा चाहती थी कि समिति की ओर से उन्हें बड़ी मदद दी जाए। पर
लक्ष्मण सिंह का कहना था कि ऐसा कोई भी प्रावधान समिति की राशि में से नहीं
किया जा सकता। हाँ लोग चाहें तो व्यक्तिगत योगदान से राशि इकट्ठी की जा सकती
है।
उमा ने पहले समिति में हो रही फिजूलखर्ची की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया था,
फिर लक्ष्मण सिंह और उसके सहयोगियों को अमानवीय और संवेदनाशून्य घोषित कर दिया
था। फिर वह अपने एक दो मित्रों के साथ धन इकट्ठा करने में जुटी थी और कुछ ही
दिनों में एक अच्छी खासी राशि चोटिल कार्यकर्ता के घर पहुँचा कर ही मानी थी।
लक्ष्मण सिंह ने इसे व्यक्तिगत अपमान की तरह लिया था। उसने उमा को नक्सलवादी
घोषित कर दिया था और उससे सब काम छीनकर कार्यालय में ही रहने को कह दिया था।
इसी समय किसी ने इस पूरे घटनाचक्र की सूचना कार्तिक को दी।
कार्तिक उमा से प्रभावित था और उसकी क्षमताओं का सम्मान करता था। वह नहीं
चाहता था कि वह जिले की ओछी राजनीति में पड़कर नष्ट हो जाए। उसके आगे जाने की
संभावना थी। कार्तिक मन में 'मिशन-उमा' लेकर एक बार फिर उस छोटे से जिले में
पहुँचा था।
'क्या उमा जी, आपने क्या हंगामा खड़ा कर दिया है?'
'अगर किसी की मदद करने का मतलब नक्सलवादी होना है तो मैं नक्सलवादी ही सही।'
'मैं नक्सलवादियों को भी गलत नहीं मानता हालाँकि वक्त आने पर उनसे बहस कर सकता
हूँ। खैर क्या आप जानती हैं कि आपके इस नक्सलवादी रुझान के अलावा भी आपके पास
कुछ और गुण हैं?'
'नहीं, आप ही बता दें।'
'आप बोलती अच्छा हैं, लिखती अच्छा हैं और भाषा पर आपकी अच्छी पकड़ है। आजकल
ऐसे लोग मिलते कहाँ हैं?'
'शुक्रिया। क्या मैं जान सकती हूँ कि आपका इरादा क्या है?'
'मेरा इरादा आपको यहाँ से ले जाने का है।'
'जी?'
'जी हाँ। आप मेरे साथ केंद्र में चलिए, वहाँ आपके लिए बहुत सा काम है।'
'सोच कर बताऊँगी।'
फिर गर्मियों में उसका फोन आया था। वह कार्तिक के शहर में आने को तैयार थी।
कार्तिक को न जाने क्यों यह खबर सुनकर बहुत सुखद अनुभूति हुई थी।
पहले पहल शहर उसे रास नहीं आया था। वह एक छोटे से कस्बे से आई थी जहाँ आपसी
संबंधों और रिश्तों में मिठास अब भी बाकी थी। उसे उस तरह के आत्मीय वातावरण की
आदत थी।
वह खुद में सिमटी रहती। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर। कुछ थोड़ा बहुत
पढ़ना-लिखना। सभाओं और गोष्ठियों में भी उसका ज्यादा मन नहीं लगता था।
नताशा ने आते ही उससे दोस्ती कर ली थी। 'चलिए उमा जी, हम लोग उस कार्यालय में
होकर आते हैं,' 'उमा जी आज शाम को गोष्ठी है, ध्यान रखिएगा,' 'उमा जी, आप पोहा
बढ़िया बनाती हैं, हम लोग आपके घर आ रहे हैं,' 'आइए मैं आपका अकाउंट बना दूँ,'
जैसा संवाद उनके बीच चलता ही रहता था। वे अक्सर एक दूसरे की बाँहों में बाँहें
डाले दिख जातीं। सभाओंऔर गोष्ठियों में साथ-साथ रहतीं, एक दूसरे के कान में
मुँह दिए, बातें करते हुए। कहीं अचानक एक ठहाका पड़ता। वह दोनों की सम्मिलित
हँसी होती थी।
उनकी दोस्ती को इस तरह परवान चढ़ते देख कार्तिक को संतोष हुआ था। उसे लगा था
कि प्रदेश में एक अच्छी लीडरशिप महिलाओं के बीच स्थापित की जा सकती है।
उसने उमा की अकादमिक क्षमताओं को देख उसे ज्यादा अकादमिक काम देना शुरू किया
था। नताशा पहले से ही संगठन के काम में रुचि लेती थी। सो कार्तिक ने उसे संगठन
में लगाए रखा। महिलाओं का एक बड़ा समूह संगठन में उभर रहा था और कार्तिक ने इस
बात को पार्टी में रेखांकित भी किया था।
कभी-कभी नरेंद्र वगैरह अपना दुख प्रगट करते।
'कार्तिक, हम लोग संगठन के पुराने आदमी हैं। पर तुम नताशा को ज्यादा उठा रहे
हो।'
कार्तिक उन्हें समझा देता,
'अभी वह ऊर्जा से भरी है। उसे काम करने दो। मैं और तुम तो नींव की तरह हैं।
वहीं रहेंगे।'
संगठन में नताशा का प्रोजेक्शन बढ़ता गया। उमा एक तरह से पृष्ठभूमि में थी और
लगता था कि वह अपनी इस भूमिका से संतुष्ट है।
पर पता नहीं क्यों नीति को कुछ आभास हो गया था। उसने कहा था - देखना, जल्दी ही
इन दोनों में लड़ाई होगी।
कार्तिक ने तब इस पर विश्वास नहीं किया था।
संगठन से महिलाओं के बढ़ते जुड़ाव को देखते हुए प्रांतीय महिला सम्मेलन करने
का निर्णय लिया गया। हर जिले और ब्लॉक से तथा गाँव-गाँव तक से महिलाएँ
साक्षरता आंदोलन में आई थीं। तय किया गया कि हर जिले से करीब दस प्रतिनिधियों
को बुलाया जाए।
कार्तिक के पास नताशा और उमा दोनों थीं। वह किसी को भी सम्मेलन का संयोजक बना
सकता था। उमा नई-नई केंद्र में आई थी। उसने आकर कहा,
'आप मुझे सिर्फ अकादमिक व्यक्ति समझते हैं। मैं संगठन भी कर सकती हूँ।'
कार्तिक ने हँसते हुए कहा था,
'तो ठीक है, ये महिला सम्मेलन आपके जिम्मे। पर बाकी सबको भी साथ रखना।'
फिर एक समिति बना दी गई थी जिसमें नताशा के साथ-साथ सुमन, चित्रा और अन्य
लड़कियाँ थीं। उमा को उसका संयोजक बनाया गया। कार्तिक ने तय किया कि वह
सम्मेलन से खुद को अलग रखेगा।
सम्मेलन में आशा से अधिक प्रतिनिधि आए। रोज गर्मागर्म बहस होने की खबरें
मिलतीं। नए-नए कार्यक्रमों पर बात होती। कैसे और महिलाओं को जोड़ा जा सकता है
इस पर विचार होता। बातें अन्य सुधारों तक भी जातीं। कभी शराब बंदी पर और कभी
बाल विवाह के विरोध जैसे मुद्दों पर भी बात होती।
सम्मेलन की सफलता के बीच कुछ विचलित करने वाली बातें भी सुनाई पड़ीं। किसी ने
खाने पीने की व्यवस्था के बारे में जिक्र किया, किसी ने खेमेबाजी हो जाने की
शिकायत की।
कार्तिक ने कहा,
'तो क्या कमेटी काम नहीं कर रही?'
जवाब मिला,
'उसी में तो दिक्कत है'
सम्मेलन की समाप्ति पर, जैसा कि नियम था, समीक्षा के लिए समिति बैठी। कार्तिक
उसमें शामिल था। बातचीत उमा ने शुरू की। उसने संयोजक की रिपोर्ट रखते हुए कहा,
'उपस्थिति की दृष्टि से सम्मेलन को बहुत सफल कहा जाएगा। करीब तीन सौ
प्रतिनिधियों के आने का अनुमान था पर पाँच सौ से अधिक प्रतिनिधि उपस्थित थे।
चर्चा का स्तर भी अच्छा रहा और कई नए कार्यक्रम लिए गए। हालाँकि हमारी ओर से
परचे तैयार करा कर बाँटने का काम ठीक से नहीं हो सका।'
सुमन ने कहा,
'एक वही काम ठीक से नहीं हुआ ऐसा नहीं है, खाने पीने में भी भारी अव्यवस्था
थी।'
उमा ने अब कुछ नाराजी से कहा,
'जितना हो गया वही काफी था। एक तो प्रतिनिधि आशा से अधिक आ गए थे। दूसरे आप
लोगों ने भी मुझे अलग-थलग करने में कोई कठोर कसर नहीं छोड़ी थी।'
नताशा ने अब मैदान में आते हुए कहा,
'उमा जी ये आप गलत आरोप लगा रही हैं।'
उमा ने जोर से जवाब दिया,
'मैं बिल्कुल सही कह रही हूँ और ये सब आपकी लीडरशिप में हो रहा था।'
नताशा ने अब कार्तिक से कहा,
'कार्तिक ये बिल्कुल गलत बात है'
उमा ने कहा,
'मेरे पास इस बात के सबूत हैं कि आपने मेरे खिलाफ वहाँ पर बैठक की थी।'
अब कार्तिक ने वातावरण को ठीक करने की गरज से कहा,
'अच्छा आप एक विस्तृत रिपोर्ट लिखकर दे दीजिए। हम लोग उस पर कुछ दिनों के बाद
विचार करेंगे।'
उमा ने अपना गुस्सा नहीं छोड़ा, उसने कार्तिक पर ही खड़ा प्रहार करते हुए कहा,
'लिखित रिपोर्ट का क्या होगा? आप हर समय इन्हें बचाते हैं, आगे भी बचाएँगे।'
कार्तिक को थोड़ा खराब लगा। संगठन के मामले में वह अपने आपको न्यायपूर्ण मानता
था। उसने कहा,
'मैं किसी को बचा नहीं रहा हूँ। आप और नताशा एक ही समिति में थे। अगर नताशा ने
वहाँ आपका खुला विरोध किया या आपको अलग-थलग करने की कोशिश की तो गलत किया। पर
हम यहाँ किसी को दंड देने के लिए नहीं बैठे हैं। हमारा लक्ष्य इस कार्यक्रम की
समीक्षा करना है जिससे आगे ऐसी गलतियाँ न हों और हम मजबूती के साथ अगले
कार्यक्रम आयोजित कर सकें।'
इस बार उमा ने कुछ नहीं कहा। अब कार्तिक ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,
'अगर आगामी कार्यक्रमों के बारे में किसी का कोई सुझाव हो तो कहे'
सुमन ने कहना शुरू किया,
'एक अच्छा सुझाव ये आया है कि स्कूलों में लड़कियों के समूह बनाए जाएँ और
उन्हें स्त्री मुक्ति, स्त्री समानता, स्त्री अधिकार संबंधी गीत सिखाए जाएँ।
इन गीतों की प्रतियोगिताएँ भी आयोजित हो सकती हैं...।'
एक बार उमा फिर गुस्सा हो गई। उसने हस्तक्षेप करते हुए कहा,
'ये सब बकवास है। आखिर आप स्त्री के संघर्ष के बारे में जानती क्या हैं? आप
गीत गाते रहिएगा और स्त्रियाँ जलाई जाती रहेंगी, आप गीत गाएँगी और उन पर
अत्याचार होता रहेगा, आप गीत गाइएगा और उनके अधिकार छीने जाते रहेंगे। गीत वीत
गाना बेकार की बात है, हमें ठोस कार्रवाई का प्लान बनाना चाहिए।'
कार्तिक ने कहा,
'गीत लोगों को पास तो लाते हैं। उनमें बड़ी शक्ति है। हमने देखा है, अनुभव
किया है...'
'आप और आपके ये मित्र हर समय गुडी गुडी काम करना चाहते हैं। सरल से काम। जिनका
कोई विरोध भी न हो और आपको अच्छा काम करने का श्रेय भी मिल जाए। ये कोई
क्रांति, वांति नहीं है।'
कार्तिक समझ गया। अब कोई बातचीत नहीं हो सकती थी। उसने बैठक बर्खास्त करते हुए
कहा,
'चलिए। आपकी बात ही मान लेते हैं। अब क्योंकि कोई एजेंडा ही नहीं है इसलिए
बैठक समाप्त करते हैं, कुछ दिनों बाद बैठेंगे।'
बैठक के बाद कार्तिक सोच रहा था, आखिर उमा ने इस तरह से रियेक्ट क्यों किया?
क्या वह सम्मेलन में हुए अपने किसी अपमान या चोट का बदला ले रही थी? या वाकई
वह उन कामों में विश्वास नहीं करती और कुछ अधिक क्रांतिकारी कार्यक्रम लेना
चाहती है? अगर ऐसा है तो वह आलोचना के साथ-साथ कुछ सुझाव भी क्यों नहीं देती?
फिर उसने अपने प्रहार कार्तिक पर क्यों किए? क्या वह कार्तिक को हर्ट करना
चाहती थी? या अपनी चोट दिखाकर और उसे हर्ट कर वह कुछ हासिल करना चाहती थी?
जैसे कि कार्तिक से निकटता? यह भी हो सकता था कि वाकई उसके पास कोई गहरी बात
हो जो उसे सताती हो और उसे रचनात्मक दिशा में मोड़ा जा सकता हो?
कार्तिक ने तय किया - वह उमा के घर जाएगा।
उमा दो कमरों के एक छोटे मगर सुंदर से फ्लैट में रहती थी।
सामने वाले कमरे में छोटी हाइट के दीवान और जमीन पर बिछे मोटे गद्दों से
ड्राइंगरूम बनाया गया था, जिसमें गुजराती डिजाइन वाले कुशन कुछ-कुछ बेतरतीब से
पड़े रिलैक्स्ड वातावरण का निर्माण कर रहे थे। बीच में काँच का एक चौकोर
खूबसूरत टेबल, कोने में किताबों से भरा रैक और सामने छोटा सा कलर टेलीविजन।
कुछ रस्सी के बुने हुए मूढ़े कमरे को एक अजीब बेफिक्री प्रदान कर रहे थे।
उसने कार्तिक को देखकर कहा,
'अरे आप! आइए आइए।'
कार्तिक ने बातचीत शुरू करने के लिहाज से कहा था,
'बहुत दिनों से मन था कि आपसे ऑफिस के माहौल से बाहर निकलकर बात की जाए। पहले
जब आपके शहर में आता था तो आपके साथ घूमते फिरते बहुत सी बातें हो जाया करती
थीं। यहाँ ऐसा मौका ही नहीं मिलता।'
'तो आपका जब भी मन हो घर आ जाया करिए।'
'घर आपका खूबसूरत है। आपने सजाया भी बढ़िया है।'
'सजाना वजाना क्या। इट इज अ वर्किंग वीमेन्स हाउस।'
फिर उसने पूछा था।
'अच्छा क्या पिएँगे चाय या नीबू का शरबत? ऑफिस से आ रहे हैं। मैं कुछ खाने को
भी बनाती हूँ। आपको मालूम है मैं पकौड़े और पोहे दोनों ही बहुत बढ़िया बनाती
हूँ।'
'बस चाय बना लीजिए। मैं तो यूँ ही थोड़ी बातचीत करने आ गया था।'
'ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। आप अखबार-मैग्जीन देखिए। मैं दस मिनिट में पोहा
बनाती हूँ।'
फिर वह चाय और पोहे की प्लेटों के साथ हाजिर हुई थी। सामने जमीन पर बिछे गद्दे
पर बैठते हुए उसने कहा था,
'लीजिए, चाय के साथ पोहा भी हाजिर है। अब भूखे भजन नहीं करना पड़ेगा।'
इस बीच उसने कपड़े बदल लिए थे और वह हल्के कपड़ों में आ गई थी जिनमें उसका
शरीर और भी भरा भरा नजर आ रहा था। कार्तिक को लगा कि वह भीतरी वस्त्र नहीं
पहने है। उसे एक अजीब सी उत्तेजना महसूस हुई। जैसे उसने कार्तिक का मन पढ़
लिया था। उसने पूछा,
'क्या सोच रहे हैं?'
'यही कि आपने पोहा बढ़िया बनाया है।'
वह खिलखिला कर हँसी।
'तो थोड़ा और लाऊँ?'
'नहीं इतना काफी है।'
अब कार्तिक ने गंभीर होते हुए कहा,
'आपने उस दिन महिलाओं के संघर्ष की बात कही थी। मैं जानना चाहता था कि आपके मन
में आखिर क्या था?'
अब उमा ने भी गंभीरता से जवाब दिया,
'नताशा वगैरह आखिर महिलाओं के संघर्ष के बारे में क्या जानती हैं? मैं आपको
अपने बारे में बताती हूँ। हम लोग पाँच बहनें हैं। मैं सबसे बड़ी। हमारी शादी
की उम्र आते आते पिताजी का रिटायरमेंट आ गया था। उन्हें हम लोगों की शादी की
चिंता खाए जाती थी। काफी दौड़ भाग कर उन्होंने मेरी शादी तय की। जब मैं अपनी
ससुराल पहुँची तो वहाँ का नजारा ही अलग था। तीन चार भाइयों का संयुक्त परिवार
और संयुक्त परिवार की लगातार खींचतान। ये सबसे छोटे थे, तो इन पर और मुझ पर
सबका दबाव भी बना रहता था। मैं सबकी इज्जत करती थी पर ससुर अजब सामंतवादी
प्रकृति के आदमी थे। अक्सर मेरी सास पर हाथ छोड़ दिया करते। आप पचास पचपन साल
की उस महिला के दुख और अपमान की कल्पना कर सकते हैं जिसे सबके सामने अपने पति
की पिटाई झेलनी पड़ती हो? एक बार जब उन्होंने मेरे सामने ही उन पर हाथ छोड़ा,
तो मैंने अपने ससुर का हाथ पकड़ लिया। कहा - मेरे सामने नहीं।'
'फिर?'
'फिर क्या? मैं घर में सबके लिए विद्रोही हो गई। जो थोड़ी बहुत सपोर्ट मिलती
थी वह भी कम हो गई। अब मैं बस खुद पर निर्भर थी।'
'और आपके श्रीमान जी?'
'उनकी कोई रेग्युलर नौकरी नहीं थी। वे भी घर की धन संपत्ति पर ही निर्भर थे।
इसलिए पिता के खिलाफ ज्यादा नहीं बोलते थे। अब मैंने आगे पढ़ने का निर्णय
लिया। सुबह घर का काम। फिर कॉलेज। फिर थककर घर लौटना और फिर काम। कभी कभी तो
घर लौटूँ तो खाना तक समाप्त मिलता था। तब भी मैंने बी.एड. किया। इस बीच सास से
मेरी दोस्ती हो गई थी, उन्हें छोड़कर घर में मेरा कोई सपोर्ट नहीं करता था।'
'उसके बाद?'
'फिर मैंने नौकरी करना तय किया। जाहिर है इस विचार को किसी ने पसंद नहीं किया।
मैंने अनिल से कहा, चलो हम लोग अलग रहते हैं। मेरी नौकरी और तुम्हारा काम
मिलाकर काम चल ही जाएगा। पर वे प्रॉपर्टी में शेयर को मुझसे ज्यादा जरूरी
समझते थे। तब मैंने घर छोड़ दिया। तब तक जतिन इस दुनिया में आ चुका था।'
'जतिन कौन?'
'मेरा बेटा। फिलहाल अपने मामा के साथ रहता है। घर छोड़ने के बाद मैंने
छोटी-छोटी नौकरियाँ कीं। सोचा हर समय महिलाओं के पक्ष में काम करूँगी। फिर
साक्षरता आंदोलन में और वहाँ से यहाँ - आपके ऑफिस में।'
उसने बीच में एक लंबी छलाँग लगा दी थी। शायद उस समय के बारे में बात करना नहीं
चाहती थी। कार्तिक ने विचार सा करते हुए कहा,
'तुम्हारा संघर्ष बड़ा है इसमें कोई शक नहीं। पर फिर भी क्या तुम्हें नहीं
लगता कि संघर्ष के और तरीके भी हो सकते हैं?'
'हो सकते हैं। मेरा सिर्फ इतना कहना है कि उन पर गंभीरता से विचार करिए। सिर्फ
गीत गाने से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा। स्त्रियों के मुद्दों का विश्लेषण कर
उन पर लिखा जाना चाहिए। उनके खिलाफ कोई घटना हो तो वहाँ जाकर प्रदर्शन करना
चाहिए। ऐसे संगठन बनाने चाहिए जो उन्हें ठोस रूप से सहारा दे सकें, उनकी मदद
कर सकें। आपके संगठन के नेता लोग ये सब करना नहीं चाहते। उन्हें बस आसान
रास्ता चाहिए, प्रसिद्धि का रास्ता...।'
'चलो तुम्हारी बात मैं ज्यादा अच्छी तरह समझ गया। हम लोग मिलकर कुछ करेंगे।'
वह बाहर तक छोड़ने आई थी। फिर वही, अपनी प्यारी सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा
था,
'फिर आइएगा।'
'जरूर।'
कार्तिक उस दिन उमा के लिए दिल में कुछ और सम्मान लिए हुए लौटा था।
धीरे धीरे उमा कार्तिक से खुलती गई।
अब वह कार्तिक के साथ बहुत औपचारिकता नहीं बरतती थी। कार्तिक को भी उससे बात
करना अच्छा लगने लगा। वह अक्सर ऑफिस से लौटते समय या छुट्टी के दिन उसके घर
चला जाता। वह चाय बनाती, कभी पकौड़े और नमकीन, कभी सिर्फ कुछ फल सामने रख देती
और उसके बहाने बातचीत शुरू होती।
अपने जीवन के कई उजले या कड़वे पक्ष बड़ी आसानी से वह कार्तिक के सामने रख
देती,
'जानते हो कार्तिक मेरी अपने पति से पहली लड़ाई किस बात पर हुई थी?'
'नहीं।'
'हमारी दादी थीं। काफी उम्र हो गई थी उनकी। फिर वे बीमार पड़ीं। कुछ ऐसा था कि
रात में उनका कष्ट बढ़ जाता था और वे दर्द के मारे चीखने लगती थीं। ऐसे समय
में उन्हें देखने मैं मायके आई थी। कुछ दिन ज्यादा रुक गई। मेरे पीछे-पीछे
अनिल भी मुझे लेने पहुँचे। दादी रात में दर्द से चीख रही थीं और अनिल ने मुझसे
प्रेम करना चाहा। मैं दादी के कष्ट से, उनकी चीखों से, पूरे वातावरण से अपने
आपको बहुत विचलित पा रही थी। मैंने उन्हें मना भी किया, पर उन्हें कहाँ चिंता
थी। उन्हें मेरा शरीर चाहिए था बस। मुझे उस दिन से घृणा जैसी हो गई...'
कार्तिक बात बदलने के लिए कहता,
'अच्छा तुम तो इतनी मजबूत महिला हो। लड़की भी मजबूत रही होगी। उस समय कोई
चक्कर नहीं चलाया? चलातीं तो शायद अपने मन का साथी पातीं।'
वह कार्तिक के खेल को समझ जाती।
'चलाया भी हो तो तुम्हें क्यों बताऊँ?'
'यूँ ही। जानने का मन करता है।'
'एक शर्त पर बताऊँगी'
'क्या?'
'अगर तुम भी अपने चक्कर के बारे में मुझे बताओ।'
'बताऊँगा। पर पहले आप...।'
'ठीक है बताती हूँ। जरा दिल सम्हाल कर बैठिएगा'
'मेरा दिल सम्हला हुआ है।'
'एक था। घर के पास ही रहता था। छत पर चिट्ठियाँ विट्ठियाँ फेंका करता था। मैं
नहाकर छत पर बाल सुखा रही हूँ, वह सामने खड़ा है। मैं स्कूल जा रही हूँ वह
मेरे पीछे पीछे। मैं साइकिल पर हूँ और अचानक उसकी साइकिल मेरे सामने, मेरा
रास्ता रोकते हुए। मैं खिड़की में खड़ी हूँ और अचानक गुलाब के फूल के साथ एक
चिट्ठी मेरे कदमों में।'
'इंटरेस्टिंग।'
'धीरे धीरे वह मुझे अच्छा लगने लगा।घर के लोगों से नजरें बचाकर उससे बात भी
होती। बहुत ही कोमल सा, घुँघराले बालों वाला लड़का था वो। एक दिन गर्मियों की
दोपहरी में काफी योजना बनाने के बाद हम लोग पीपल के पेड़ के नीचे लगने वाले
कुल्फी के ठेले के पास मिले। उसने मुझे कुल्फी खिलाई, वहीं ओटले पर बैठे कसकर
मेरा हाथ पकड़ा और कहा - चलो भाग चलते हैं। तब तक मैं कॉलेज में आ गई थी।
मैंने कहा - पढ़ाई तो पूरी हो जाने दो। उसने जवाब दिया था - तब तक तो बहुत देर
हो जाएगी। फिर वाकई देर हो गई।'
'ओह!'
'उसके भाइयों को खबर लग गई थी। उन्होंने उसे शहर से बाहर भेज दिया। कुछ भनक
मेरे घर वालों को भी हो गई थी। मुझ पर भी पहरा लग गया। भाई जान से मारने की
धमकी देने लगा। तब भी मैं भाग जाती।'
'फिर?'
'फिर क्या। वह खुद ही डर गया। उसे लगता था शहर में दंगा हो जाएगा। और उसके भाई
लोग ही इसे शुरू कर देंगे।'
'दंगा क्यों?'
'वह मुस्लिम था और उसके भाई शहर के दादा हुआ करते थे।'
'ओह! नाम क्या था उसका?'
'आसिफ'
उमा के चेहरे पर एक अजीब थकान सी उतर आई। कार्तिक को उदास देखकर उसने कहा,
'मगर मेरे भाग न पाने के दुख में आप क्यों उदास होते हैं कार्तिक जी? चलिए अब
कुछ काम की बातें करें।'
'काम की बात ये है कि मेरे मन में एक प्लान आया है।'
उसने हँसते हुए कहा,
'बताएँ योजना मार्तंड'
'हम लोग महिलाओं के लिए एक हॉस्टल खोलते हैं। उसमें बेसहारा महिलाओं, पढ़ने
वाली लड़कियों को जगह मिलेगी। रैन बसेरा जैसा भी हो सकता है।'
'बढ़िया ये मेरे मन का काम है।'
फिर वह हॉस्टल बनाने के काम में जुट गई थी।
हॉस्टल के लिए जगह ढूँढ़ने से लेकर उसके लिए सामान का इंतजाम करने तक और फिर
लड़कियों को हॉस्टल में रखने के बाद उनकी ठीक ठाक देखभाल करने तक उसने कड़ी
मेहनत की।
उसने अपना रुटीन बदल लिया। सुबह ऑफिस जाने के पहले वह हॉस्टल जाती फिर वहाँ की
व्यवस्था देखने के बाद ऑफिस। शाम को एक बार फिर लड़कियों के हालचाल पूछने
जाती। उनकी छोटी छोटी सुविधाओं का भी ख्याल रखती। धीरे-धीरे वह उनकी दोस्त बन
गई थी। उमा दीदी।
पता नहीं लक्ष्मण सिंह वगैरह को उसका हॉस्टल चलाना क्यों रास नहीं आया था।
पहले उन्होंने वैचारिक सवाल उठाए।
ये हॉस्टल चलाने में क्या रखा है, ये सब रिफॉर्म है कोई क्रांतिकारी काम नहीं,
फिर हॉस्टल के संचालन से उमा को क्या मिल रहा है, वह कोई आर्थिक लाभ तो नहीं
ले रही, कार्तिक उसकी मदद क्यों कर रहा है, हॉस्टल का सामान कहाँ से आया -
जैसे कई सवालों से उन्होंने उमा को घेर लिया।
उमा ने पहले इन सवालों का जवाब देने की कोशिश की थी। कि स्त्रियों की ठोस मदद
करना संगठन का काम ही करना है, कि क्रांति हवा से नहीं उपजती लोगों के साथ काम
करने से ही हो सकती है, कि संगठन की बचत से ही हॉस्टल बनाया गया है और वह उससे
कोई आर्थिक लाभ नहीं ले रही।
पर आलोचना जारी रही थी।
अब एक दिन उमा ने कार्तिक से कहा,
'कार्तिक मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।'
'ठीक है, शाम को मिलेंगे।'
शाम को वह बहुत गंभीर थी। बोली,
'मेरा हॉस्टल चलाना तुम्हारी मित्र को पसंद नहीं आ रहा'
'किसे?'
'नताशा को!'
'क्यों?'
'इसलिए कि संगठन में एक नया काम हो रहा है और विचार उसका नहीं मेरा है।'
'पर नताशा ऐसा क्यों करेगी?'
'उसकी विजिबिलिटी जो कम होती है। मुझे धीरे-धीरे समझ में आ रहा है कि वह किसी
को भी अपने बराबर नहीं देख सकती।'
'मुझे नहीं लगता कि नताशा ऐसी लड़की है। मैं उससे बात करूँगा। मुझे लगता है कि
लक्ष्मण सिंह ये सब करवा रहा है।'
'लक्ष्मण सिंह का तो सिर्फ कंधा है। बंदूक नताशा की है।'
'मुझे बात करने का एक मौका तो दो।'
'बात करके देख लो। मुझे नहीं लगता कि उससे कोई फायदा होगा'
कार्तिक ने अगली बैठक में बात रखने की कोशिश की थी। पर लक्ष्मण सिंह की आलोचना
और मुखर हो गई थी। आश्चर्य की बात कि नताशा और सुमन का धीमा स्वर भी उसमें
मिला हुआ था, तो क्या उमा सही कह रही थी?
कार्तिक को इसकी तह तक पहुँचने का अवसर नहीं मिल पाया।
अचानक संगठन का राष्ट्रीय सम्मेलन उसके शहर में करने की घोषणा हो गई थी और उस
पर करीब एक हजार प्रतिनिधियों के रहने, खाने, तकनीकी सत्रों के आयोजन,
अतिथियों के सत्कार और रैली जैसे बड़े कार्यक्रमों का जिम्मा आ गया था।
इस बार टीम बनाने में उसने सावधानी बरती। आखिर देशभर से लोग आने वाले थे और
उसके प्रदेश की इज्जत का सवाल था। संयोजन उसने अपने हाथ में रखा। साथ में
सरफराज, लक्ष्मण सिंह, नताशा, उमा, नरेंद्र और वर्मा थे। उमा ने पहले ही
चेतावनी दे दी थी,
'तुम सरफराज और लक्ष्मण सिंह को ले तो रहे हो। पर इन पर निर्भर मत करना। ये
धोखा देंगे।'
'देखा जाएगा। मैं तो विश्वास पर काम करता हूँ।'
'कार्तिक तुम बहुत भोले आदमी हो।'
महिला सम्मेलन के अनुभव को ध्यान में रखते हुए इस बार कार्तिक ने संगठन का,
दौड़ भाग का, विज्ञापन इकट्ठा करने का काम नताशा के जिम्मे किया था। अगर वह
ज्यादा विजिबल रहना चाहती थी तो यही सही। और सारा अकादमिक काम याने पेपर्स
तैयार करना, वक्ताओं से बात करना, उनसे संवाद बनाए रखना, बुक स्टॉल और
प्रदर्शनियों की तैयारी उमा के जिम्मे थी। नरेंद्र को ठहरने के स्थान और
ट्रांसपोर्ट का काम दिया गया था और वर्मा को सभास्थल के प्रबंध पर लगाया गया
था।
कार्तिक खुद सोलह से अठारह घंटे काम करता, जैसा कि उमा ने कहा था, सरफराज एक
भी बैठक में उपस्थित नहीं हुआ और बाहर से हर काम की आलोचना करता रहा। विजय
सक्सेना ने भी सरफराज का हाथ थाम लिया था और वह किसी न किसी बहाने से व्यस्त
रहने का अभिनय करता रहा। लक्ष्मण सिंह अपने साथ एक बड़ा जत्था लेकर आया था जो
सम्मेलन को सफल करने के नारे के साथ आया था हालाँकि वह लक्ष्मण सिंह का शक्ति
प्रदर्शन भी था।
नताशा और उमा दोनों ने अपने अपने कामों में बड़ी मेहनत की। नताशा ने शहर भर
में राष्ट्रीय सम्मेलन की हवा बना दी और काफी विज्ञापन भी इकट्ठे कर लिए। उमा
को भी सभी वक्ताओं के आने की सहमति मिल गई। बुकस्टॉल और रजिस्ट्रेशन काउंटर भी
बहुत सुंदर सजाए गए। हैदर भाई की रोशनी से पूरा सभा स्थल जगमग हो गया।
पुष्पेंद्र ने रंग बिरंगी पताकाओं, झंडों, बाँस की टोकरियों और आधुनिक बिंबों
के सहारे सभा स्थल को अजब रंग और उल्लास से भर दिया।
सम्मेलन बहुत ही गरिमापूर्ण ढंग से प्रारंभ हुआ। सभी गोष्ठियों और सेमीनारों
का स्तर बहुत ऊँचा था। देश के प्रख्यात वैज्ञानिक एवं समाज वैज्ञानिक सम्मेलन
में आए थे। प्रदर्शनियों में स्थानीय भागीदारी शानदार थी। शाम के सांस्कृतिक
कार्यक्रम दिल को छू लेने वाले और सम्मेलन की गरिमा का और विस्तार करने वाले
थे।
अंतिम दिन के सांस्कृतिक कार्यक्रम का संचालन खुद कार्तिक ने किया। उसने पिछले
पंद्रह वर्षों में आंदोलन के दौरान तैयार किए गए नाटकों और गीतों का एक विहंगम
दृश्य प्रस्तुत किया जिससे स्मृति और वास्तविकता का अद्भुत प्ले सामने आया।
कार्यक्रम की समाप्ति पर लंबे समय तक हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजता रहा
था। कार्तिक और उसके दल को ढेर सारी बधाइयाँ मिली थीं। उसने अपने भीतर अद्भुत
ताकत महसूस की थी।
उसकी यह भीतरी ताकत अगले दिन रैली में भी देखने मिली। रैली में प्रतिनिधियों
के अलावा प्रदेश और आसपास के जिलों से आए हजारों लोग शामिल थे। आगे आगे डॉ.
नारायणन् और देश के प्रसिद्ध वैज्ञानिक, कार्यकर्ता, झंडों और बैनरों का रंग
बिरंगा संसार, नारों का जादू। हजारों लोगों के एक साथ चलने की ताकत।
रैली एक बार फिर यूनियन कार्बाइड के गेट पर थी। संक्षिप्त भाषणों के बाद पूरा
सम्मेलन और रैली में शामिल हजारों लोग यूनियन कार्बाइड के द्वार पर शपथ ले रहे
थे,
'हम सब भारत के कोने कोने से आए वैज्ञानिक और कार्यकर्ता, शपथ लेते हैं कि
विज्ञान का उपयोग मानव की भलाई के लिए करेंगे और देश में तथा विश्व में इसके
लिए संघर्ष करते रहेंगे...।'
कार्तिक ने पिछले कई महीनों की कड़ी मेहनत के बाद आज संतोष का अनुभव किया।
उसमें थोड़ा गर्व और थोड़ा सुख भी शामिल थे। एक बहुत बड़े काम को बहुत
व्यवस्थित रूप से और शानदार ढंग से संपन्न कर पाने का सुख।
रैली के बाद सम्मेलन को समेटना भी था। वह अक्सर कहा करता था कि वह सम्मेलन सफल
होता है जो जल्दी से जल्दी समेट भी दिया जाए।
वह रात तक काम करता रहा था। शाम की प्रेस कान्फ्रेंस भीड़ भरी हुई थी और उसे
विश्वास था कि अगले दिन अखबारों में बढ़िया कवरेज मिलेगा। रात साढ़े बारह बजे
हैदर भाई को आखिरी निर्देश देने के बाद उसने घर चलने का मन बनाया।
उसने देखा नताशा भी अब तक स्टॉल पर पैकिंग करवा रही थी उसने नताशा से कहा,
'बाकी काम हैदर करवा लेगा। चलो, घर चलते हैं।'
नताशा ने हैदर से किताबों के बंडल अगले दिन कार्यालय भिजवाने के लिए कहा और
कार्तिक के साथ आ गई।
कार्तिक ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान रेसोनेंस के बारे में पढ़ा था। ऐसी
आवृत्तियाँ जो एक दूसरे की मदद करती थीं, जो एक दूसरे की ताकत को बढ़ा देती
थीं, जो साथ साथ धड़कती थीं। आज नताशा के साथ चलते समय उसे लगा कि उन दोनों के
बीच भी वैसा ही रेसोनेंस है।
आज कार्तिक जिप्सी चला रहा था। नताशा साथ बैठी थी। सामने रात काफी हो चुकी थी।
सड़कों पर आवाजाही लगभग बंद थी। हवा में ठंड की खनक थी लेकिन वह अप्रिय नहीं
लग रही थी। नताशा थकी हुई थी पर प्रसन्न नजर आ रही थी। उसने एक बार चुन्नी को
अपने गले के चारों ओर लपेटा।
जिप्सी घने छायादार वृक्षों से ढंकी सड़क पर पहुँची। अचानक नताशा ने कार्तिक
का बायाँ हाथ जो गियर पर था अपने हाथों में ले लिया। उसे धीरे से दबाया फिर
अपनी बड़ी बड़ी आँखें कार्तिक के चेहरे पर टिका कर कहा,
'कार्तिक वी हैव डन इट'
अब तक मिली सभी बधाइयों और प्रशंसाओं से अधिक नताशा का यह कहना उसे अच्छा लगा।
उसने एक पेड़ के नीचे जिप्सी रोक दी। धीरे से नताशा के दोनों हाथ अपने हाथों
में लिए। फिर उसके माथे पर एक गहरा चुंबन लेते हुए कहा,
'यस वी हैव डन इट'
उस दिन कार्तिक और नताशा सीधे घर नहीं गए थे। वे बस यूँ ही तालाब के किनारे
वाली लंबी सड़क पर, कॉलोनियों के वीरानों के बीच तथा शहर की पहाड़ियों पर
जिप्सी से चक्कर लगाते रहे थे। एक अजीब मुक्ति का अनुभव करते हुए।
सम्मेलन की समीक्षा के लिए दो तीन दिनों के बाद कमेटी बैठी।
आज सब लोग उपस्थित थे। सरफराज और विजय सक्सेना जो इसके पहले सम्मेलन की तैयारी
की किसी बैठक में नहीं आए थे आज पूरे जोर शोर से समीक्षा के लिए उपस्थित थे।
लक्ष्मण सिंह और रामनारायण, नताशा और उमा, कार्तिक और नरेंद्र सभी सम्मेलन की
सफलता से उत्साहित, बैठक में आए थे।
कॉमरेड मोहन ने गंभीर शुरुआत की।
'साथियों हमने अभी अभी एक बड़ा सम्मेलन आयोजित किया है। जिसके संयोजक कार्तिक
थे। मैं चाहूँगा कि वे अपनी विस्तृत रिपोर्ट रखें,'
कार्तिक ने सम्मेलन की विस्तृत रिपोर्ट रखी। प्रतिनिधियों की संख्या, बहस के
स्तर, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रभाव और रैली की विराटता तथा मीडिया में
स्थान, सभी दृष्टियों से सम्मेलन सफल रहा था। उसने इन सभी बातों को उभारा और
आगे का प्लान भी सामने रखा।
कॉमरेड मोहन ने अब अपने परिचित अंदाज में कहा,
'अगर कोई साथी, इस रिपोर्ट पर टिप्पणी करना चाहें तो कर सकते हैं।'
सरफराज ने हमले की शुरुआत करते हुए कहा,
'मेरा मानना है कि सम्मेलन कई दृष्टियों से असफल रहा है। जैसे रैली की विराटता
की बात कही गई। मेरी जानकारी के अनुसार लोगों को पैसे देकर उसमें लाया गया था।
वक्ताओं को लाने ले जाने की व्यवस्था भी खराब थी। कार्तिक खुद किसी भी ठहरने
के स्थान पर नहीं गए इससे भी प्रतिनिधियों में नाराजी थी।'
नताशा ने कार्तिक का बचाव करते हुए कहा,
'ये सरासर गलत है कि लोगों को पैसे देकर रैली में लाया गया, आने वाले कई गरीब
कार्यकर्ता भी थे, उन्होंने ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था करने की माँग की थी, वह
व्यवस्था की गई। इसी तरह सम्मेलन के पहले सभी हरने के स्थानों की व्यवस्था
मैंने और कार्तिक ने स्वयं की थी। बाद का जिम्मा नरेंद्र और वर्मा का था, और
उन्होंने भी ठीक काम किया।'
अब लक्ष्मण सिंह ने तलवार चलाई,
'जितना बड़ा सम्मेलन था उसके हिसाब से मीडिया में कवरेज बहुत कम रहा। हमारे
यहाँ प्रेस रिलीज, प्रेस से बातचीत करने की कोई व्यवस्था नहीं थी। कोई काउंटर
भी नहीं था।'
रामनारायण इस झूठ पर उत्तेजित हो गया। उसने गुस्सा होते हुए कहा,
'ये सरासर झू्ठ है, सम्मेलन के प्रत्येक दिन का बुलेटिन शाम को प्रकाशित किया
जा रहा था और मैंने खुद उसका संपादन किया। अनूप इसमें मदद कर रहा था। उसी को
प्रेस विज्ञिप्त के रूप में बाँटा भी गया। सम्मेलन के शुरू और आखिर में
अत्यधिक सफल प्रेस कान्फ्रेंस की गई। जितना कवरेज हमें मिला है उतना राजधानी
में आयोजित होने वाले किसी भी इवेंट को शायद ही मिलता, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने
भी खासी तवज्जो हमें दी। डॉ. नारायणन् और प्रमुख वक्ताओं के अलग अलग इंटरव्यू
भी किए गए। मैं जानना चाहूँगा कि लक्ष्मण सिंह इससे ज्यादा क्या चाहते थे?'
लक्ष्मण सिंह ने अपनी अकड़ बनाए रखते हुए कहा,
'मेरे विचार में जो भी था, वह कम था।'
अब विजय सक्सेना ने तीर चलाया,
'और कॉमरेड लाइटिंग भी कुछ ज्यादा कर दी गई थी। मेरे ख्याल में वह फिजूलखर्ची
थी।'
कार्तिक इसका उत्तर देना चाहता था। पर कॉमरेड मोहन ने निर्णय सा देते हुए कहा,
'मेरे विचार में सम्मेलन की कुछ आलोचनाएँ सही हैं। फिजूलखर्ची को रोका जा सकता
था, रैली या मीडिया हैंडलिंग की अव्यवस्था भी दूर की जा सकती थी, अगर सभी
साथियों को इन्वॉल्व किया जाता। मुझे लगता है कि सम्मेलन की सबसे बड़ी आलोचना
ये है कि इसमें समिति के सभी साथियों को जोड़ा नहीं गया।'
रामनारायण अपने गुस्से को काबू में नहीं रख सका। उसने कहा,
'मैं जानना चाहूँगा कि साथियों को जोड़ने का क्या मतलब है? क्या उन्हें
मीटिंगों में बुलाया नहीं गया? क्या उन्हें काम की जिम्मेदारी नहीं दी गई? अगर
कोई तय कर ले कि वह काम नहीं करेगा, मीटिंगों में नहीं आएगा, सिर्फ आलोचना
करेगा तो उसे कैसे जोड़ा जा सकता है? आप इनसे क्यों नहीं पूछते कि इन्होंने
हिस्सेदारी क्यों नहीं की? और ये सम्मेलन को असफल कराना क्यों चाहते थे?'
कॉमरेड मोहन ने सरफराज से कुछ नहीं पूछा। उन्होंने रामनारायण को ही सलाह देते
हुए कहा,
'आपको इस तरह से गुस्सा नहीं होना चाहिए।'
कार्तिक को बहस के तौर तरीके और उसकी विषयवस्तु की क्षुद्रता पर गहरा विक्षोभ
हुआ। ये बात पारे की तरह साफ थी कि सम्मेलन अब तक के सम्मेलनों में सर्वाधिक
सफल रहा था। वैज्ञानिक और सामाजिक कम्यूनिटी पर तथा मीडिया पर उसका गहरा
प्रभाव पड़ा था और उसका इस्तेमाल कर प्रदेश में आंदोलन को और मजबूत बनाया जा
सकता था और पार्टी को भी उससे बल मिल सकता था। पर बात इस पर नहीं हो रही थी।
बात जानबूझ कर उन छोटी छोटी आलोचनाओंकी तरफ ले जाई जा रही थी जहाँ से कार्तिक
के ऊपर असफलता का आरोप मढ़ा जा सके। वह इस क्षुद्रता में नहीं पड़ना चाहता था।
उसने जेब से डॉ. नारायणन् का पत्र निकाला जो उन्होंने सम्मेलन से जाने के बाद
लिखा था और उसे सबको पढ़कर सुना दिया,
'प्रिय कार्तिक,
मैं सम्मेलन की अद्भुत सफलता के लिए तुम्हें और तुम्हारे साथियों को बहुत बहुत
बधाई देता हूँ। जिस कुशलता और शांत मनोयोग से तुमने इसका संचालन किया वह वाकई
काबिले तारीफ है। मैं तुम्हें गले लगाना चाहता हूँ। सबको मेरी ओर से बधाई
देना। अगर हमारा आंदोलन इसी गति से आगे बढ़ता रहा, तो जल्दी ही हम और बड़ा
मुकाम हासिल करेंगे,
तुम्हारा दोस्त,
नारायणन।'
पत्र के बाद आलोचना की ज्यादा गुंजाइश रह नहीं जाती थी। कॉमरेड मोहन ने आगे के
कार्यक्रमों पर बाद में बातचीत की घोषणा कर मीटिंग समाप्त कर दी।
कार्तिक ने नोट किया, उमा इस मीटिंग में एक भी शब्द नहीं बोली थी।
मीटिंग की समाप्ति के बाद नरेंद्र कार्तिक के पास आया और धीरे से बोला,
'तुम उमा से मिलते हुए जाना, वह काफी नाराज है।'
'क्यों?'
'पता नहीं।'
कार्तिक ने ऑफिस बंद कराया और सीधे उमा के घर पहुँचा। घर का दरवाजा यूँ ही
उढ़का हुआ था। उसने हल्के से नॉक किया फिर अंदर चला गया।
उमा दूसरी ओर मुँह किए, पेट के बल, उल्टे लेटी हुई थी। उसका मुँह दीवार की ओर
था। कार्तिक के आने की आहट से उसने करवट बदली। कार्तिक को देख अचानक उठ बैठी
और बोली,
'आओ। तुम अचानक कैसे?'
'नरेंद्र ने बताया, तुम कुछ नाराज हो। सो तुमसे मिलने चला आया।'
'क्यों? मुझसे क्यों? उसी के पास जाओ।'
'किसके?'
'जिससे तुम प्यार करते हो!'
कार्तिक को एक धक्का सा लगा। उमा क्या और किसके बारे में कह रही है? उसने कहा,
'क्या कह रही हो? कुछ सोच समझकर तो बोलो!'
वह गुस्से से पागल हो रही थी। उसने बिफर कर कहा,
'मैं सोच समझकर बोलूँ? टेल मी क्लियरली। यू लव हर। इज इट नॉट? यू लव हर!'
'किससे? नाम तो बताओगी?'
'मुझसे ही जानना चाहते हो तो सुनो! नताशा से, और किससे?'
कार्तिक पर इतना खड़ा प्रहार पहले किसी ने नहीं किया था। न ही उसकी नताशा से
कभी इन शब्दों में बात हुई थी। हाँ उन दोनों के बीच एक रेसोनेंस था, शेयरिंग
थी, एक समझ थी, वे एक अच्छी टीम बनाते थे। शायद एक गहरी अनकही मिठास भी थी। पर
इन शब्दों में उससे कभी बात नहीं हुई थी। वह यकायक उमा के आरोप पर कुछ न कह
सका। उसने इतना ही पूछा,
'तुम ऐसा कैसे कह सकती हो?'
'क्यों क्या ये स्पष्ट नहीं? संगठन की सारी जिम्मेदारी नताशा को, मंच पर पूरा
स्थान नताशा को, राष्ट्रीय समिति में एक्सपोजर नताशा को, और मेरे लिए? उमा तुम
अकादमिक काम अच्छा करती हो, तो पूरा बुलवर्क मेरे जिम्मे। बुक स्टॉल मेरे
जिम्मे। प्रतिनिधियों के रजिस्ट्रेशन मेरे जिम्मे। क्या मैं समझती नहीं!'
कार्तिक को साँस लेने का मौका मिला। उसने समझाते हुए कहा,
'देखो उमा तुम पूरी तरह गलत समझ रही हो। वैसे तो वह है नहीं जैसा तुम समझ रही
हो। पर अगर वैसा होता भी तो यकीन मानो, मैं व्यक्तिगत पसंदगी नापसंदगी को काम
के बीच में नहीं आने देता। नताशा शहर को ठीक से जानती है, पहले से केंद्र में
है इसलिए उसे संगठन का काम दिया। तुम्हारी अकादमिक क्षमताओं पर मुझे विश्वास
है इसलिए तुम्हें वही काम दिया। मुझे मालूम होता कि तुम इतना बुरा मानोगी तो
शायद कुछ और करता। फिर इतनी नाराजी क्यों, अभी तो और भी सम्मेलन होंगे!'
उमा ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। उसने कार्तिक की सभी बातों को इग्नोर करते हुए
कहा,
'मुझे नताशा ने खुद बताया था कि तुमने उसे किस किया था।'
कार्तिक ने अब सीधे भिड़ने का निर्णय किया,
'उसने तुम्हें क्या बताया क्या नहीं ये मैं नहीं जानता। ये सच है कि मैं उसे
पसंद करता हूँ। बहुत दिन से उसके साथ काम कर रहा हूँ। उससे एक फ्रीक्वेंसी बन
गई है। उसके बनने बनाने में मेरा हाथ रहा है। उसका साथ रहना अच्छा लगता है।
उसकी सफलताओं-असफलताओं को शेयर करता रहा हूँ। अगर मैंने उसे कभी किस किया तो
वह एक भावोच्छ्वास था। अचानक उसके प्रति गहरे अनुराग की अनुभूति या सफलता को
उसके साथ निकट से बाँटने का सुख या उसे गहरे से आश्वस्त कर सकने की इच्छा, बस
और कुछ नहीं। वह तो बिल्कुल नहीं जो तुम समझ रही हो। अगर हम और आधुनिक समाज
में होते तो इसे एक बिल्कुल स्वाभाविक प्रतिक्रिया माना जाता।'
उमा ध्यान से कार्तिक की बातें सुन रही थी। उसकी आँखें थोड़ी सिकुड़ गई थीं।
वह एकटक कार्तिक की ओर देख रही थी। अचानक वह खिलखिला कर हँसी,
'कितनी सारी बातें तुम्हें कहनी पड़ रही हैं? एक वाक्य में स्वीकार क्यों नहीं
कर लेते?'
'इसलिए कि स्वीकार करने जैसी कोई बात ही नहीं।'
अब वह थोड़ी हल्की हो गई थी। उसने कहा,
'चलो छोड़ो। फिलहाल तुम्हारा स्पष्टीकरण ही मान लेते हैं। ये बताओ, चाय
पियोगे?'
'हाँ, वह तो मिनिमम होगा। कुछ खिला भी सको तो और भी अच्छा। कॉमरेड मोहन ने
पहले ही मेरी इतनी आलोचना कर दी है। दिल पहले से ही भारी है। उस पर तुम्हारा
ये एब्सर्ड आरोप...।'
'उनकी बातें छोड़ो। मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि वे तुम्हें निबटाना चाहते हैं।
तुम्हारी सामर्थ्य, तुम्हारी प्रसिद्धि उन्हें खटकती है।'
'मेरी उनसे कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है।'
'तुम नहीं समझोगे। तुम बहुत भोले आदमी हो। नताशा तक तुम्हारा उपयोग करे ले रही
है।'
'फिर वही?'
'चलो छोड़ो! मैं चाय बनाती हूँ।'
जब वह चाय लेकर आई तो सुंदर दिख रही थी। उसने कपड़े बदल लिए थे और बाल पीछे
करके जूड़ा बाँध लिया था। कार्तिक ने मजाक में कहा,
'गुस्सा होती हो तो और सुंदर लगती हो!'
'अच्छा?'
उसने कहा। उसके 'अच्छा' में एक नकली नाराजी थी, एक चुहल थी और शायद थी एक
चुनौती, कार्तिक के लिए। उससे दूर रह सकने की चुनौती। कुछ इस तरह का भाव कि
देखना मैं तुम्हें जीत ही लूँगी।
कार्तिक को लगा था कि उसने उमा को उस दिन समझा लिया है। पर असल में ऐसा हुआ
नहीं। उसके और नताशा के बीच कड़वाहट बढ़ती ही गई।
अब बैठकों के दौरान अक्सर वे एक दूसरे खिलाफ कड़ा स्टैंड ले लिया करती थीं
जिसमें मेल करा पाना असंभव हो जाता। दोनों का एक साथ काम करना असंभव हो गया था
और उनका एक दूसरे के घर आना जाना भी कम से कमतर हो चला था।
ऑफिस के कई लोगों को अब इसमें मजा आने लगा। वे इधर की बात उधर और उधर की इधर
करने लगे। लक्ष्मण सिंह वगैरह को सूचना दी गई कि कार्तिक की नताशा से दूरी बन
गई है और वह अपना खेल शुरू कर सकता है। उसने नताशा को महत्व देना शुरू किया और
बैठकों में उसका खुला सपोर्ट करने लगा। आश्चर्य की बात ये थी कि पहले लक्ष्मण
सिंह पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाली नताशा को भी अब उसके साथ काम करने में
कोई एतराज नहीं था। इससे ऑफिस का वातावरण और खराब हो गया था।
कार्तिक ने एक बार नरेंद्र से कहा भी था,
'नरेंद्र हमें इन दोनों महिलाओं से हटकर कोई नई शुरुआत करनी चाहिए।'
पर वह ऐसा कर नहीं सका था। क्योंकि उसके पहले ही वह हादसा हो गया था।
बात बहुत छोटी सी थी।
कार्तिक ने कार्यालय को नवीनता प्रदान करने की दृष्टि से, और एक समूह में काम
करने वाले लोगों को एक साथ बिठाने की दृष्टि से कार्यालय की बैठक व्यवस्था में
कुछ परिवर्तन किए। वह अभी काम पूरा करके सुस्ताने अपनी सीट पर बैठा ही था कि
उमा गुस्से में भरी हुई उसके पास आई,
'तो तुम उसे अपने सामने बिठाना चाहते हो?'
कार्तिक को उसके बात करने का तरीका अच्छा नहीं लगा। फिर भी उसने संयमित रहते
हुए पूछा,
'किसे?'
'उसी को। अपनी नताशा को और किसे?'
'क्या एब्सर्ड सी बात कर रही हो। मैंने काम करने की सुविधा के लिए समूह बनाए
हैं। किसी को सामने बिठाने के लिए नहीं।'
'मैं तुम्हारा काम खूब समझती हूँ। मैं कहे देती हूँ, या तो तुम ये सिटिंग
अरेंजमेंट बदलो या मैं ये ऑफिस छोड़ दूँगी।'
कार्तिक को उमा की बातों से अपार दुख हो रहा था। वह नहीं चाहता था कि कोई भी
ऑफिस छोड़े या आंदोलन से बाहर जाए। लड़कियों के प्रति उसका विशेष सम्मान का
भाव रहता था, अपने साथियों की वैचारिक और व्यक्तिगत ग्रोथ के लिए वह खुद को
जिम्मेदार मानता था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह उमा से क्या कहे? बहस ऑफिस
में काफी जोर-जोर से हो रही थी और अन्य लोग उसमें काफी रुचि के साथ कान दे रहे
थे। कार्तिक ने बात खत्म करने के लिए कहा,
'अच्छा तुम फिलहाल तो बैठो। मैं कल तक कुछ सोचता हूँ।'
उमा ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने बैग उठाया और अपने घर चली गई।
अब नताशा की बारी थी, वह कार्तिक के पास आई,
'कार्तिक उमा की बातें मैंने भी सुनी हैं। उसका व्यवहार अच्छा नहीं है।
तुम्हें उससे कुछ कहना चाहिए।'
'मैं अपनी ओर से तो कहता ही हूँ। उसने अपना एक निष्कर्ष निकाल लिया है। उसे
बदलने को वह तैयार नहीं।'
'तो ठीक है। मैं उससे बात करूँगी।'
'करके देखो।'
कार्तिक इस दुतरफा प्रहार से थक गया था। उसके चेहरे से स्पष्ट था कि वह इसमें
और नहीं पड़ना चाहता। पर नताशा ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसने कहा,
'मैं जा रही हूँ।'
'कहाँ?'
'घर।'
कार्तिक ने उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की।
दोनों के जाने के बाद कार्तिक ने सोचा। कितनी कड़वाहट आ गई थी उनके संगठन में।
वे जो काम के आनंद की बात किया करते थे, वे जो संगठन को शक्ति मानते थे, वे जो
बड़े-बड़े काम कर सकने का माद्दा रखते थे, दो लड़कियों को नहीं समझा पा रहे
थे। वह नहीं चाहता था कि कोई भी संगठन छोड़ कर जाए। उसका विश्वास था कि सबके
काम करने की जगह है। असल में तो काम इतना है कि लोग कम पड़ जाते हैं। लेकिन इस
विश्वास को वह ठीक से संप्रेषित नहीं कर पा रहा था। सरफराज उसकी इस दुविधा को
लेकर खुश था। लक्ष्मण सिंह इस द्वंद्व का उपयोग कर लेना चाहता था। और कॉमरेड
मोहन फिलहाल सरफराज और लक्ष्मण सिंह के साथ थे। उन्हें शायद कार्तिक में कोई
खतरा दिखता हो। कार्तिक उमा और नताशा के एडवांसेस को समझता था, लेकिन उन्हें
झटकना नहीं चाहता था। एक सम्मानित दूरी वह अब तक बनाए रखता आया था। क्या उसके
मन में भी दोनों के लिए कोई कोमल भावना थी? क्या पता!
शाम होते होते कार्तिक ने निश्चय कर लिया।
वह नरेंद्र के पास गया और बोला,
'नरेंद्र मैं कुछ दिन छुट्टी पर जाना चाहता हूँ। तुम ऑफिस सम्हाल लोगे?'
'हाँ क्यों नहीं। पर अचानक ये निर्णय क्यों?'
'यूँ ही थोड़ा ब्रेक लेना चाहता हूँ। तुम एक काम करना, मेरी टेबल ऑफिस के
बीचों बीच लगा देना। नताशा और उमा की टेबलों के बीचों बीच। मेरे सामने तुम
बैठना। फिलहाल काम कोई खास नहीं। दस पंद्रह दिन तुम, नताशा और उमा मिलकर देख
लोगे। मुझे भरोसा है।'
नरेंद्र मुस्कुरा रहा था।
कार्तिक ने तय किया, वह नारायणपुर जाएगा। वहाँ उसके दोस्त फॉदर विलियम स्टैनली
थे। आंदोलन की शुरुआत में उनसे मुलाकात हुई थी। नारायणपुर में उन्होंने शानदार
आश्रम बना रखा था। कार्तिक की पहली मुलाकात कन्फ्रंटेशन से हुई थी पर आगे चलकर
गहरी दोस्ती में बदल गई थी। फॉदर मजेदार आदमी थे और क्रिश्चियनिटी पर भी मजाक
करना नहीं छोड़ते थे। कार्तिक ने सोचा कुछ दिन उनके साथ रहेगा। आसपास के
सुरम्य इलाके में घूमेगा। वहाँ क्या चल रहा है देखेगा समझेगा, तो शायद उसका मन
बदल जाए।
कार्तिक जब नारायणपुर के छोटे से बस अड्डे पर उतरा तो अभी सुबह के छह बजने
वाले थे। बस अड्डे के आसपास लगी छोटी छोटी दुकानें अभी बंद थीं। सिर्फ एक दो
चाय की दुकानों में हलचल जारी थी। बस्तर की मादक हवा हल्के से उसे छूकर जा रही
थी। कार्तिक का मन अचानक हल्का हो गया। पिछले तीन चार दिनों की त्रासद और
व्यथित करने वाली घटनाएँ उसके दिमाग से तिरोहित हो गईं। कभी-कभी दूर जाना खुद
के पास आने की तरह होता है।
कार्तिक ने एक कप चाय पी, अपना बैग उठाया और पैदल ही चल पड़ा। आश्रम कोई एक
किलोमीटर दूर ही तो था। सुबह-सुबह पैदल चलना अच्छा भी लग रहा था।
कार्तिक ने आश्रम के लकड़ी के पट्टियों वाले दरवाजे को खोलकर अंदर प्रवेश
किया। सामने वही सुंदर, घना, लहलहाता बगीचा था। उसे लगा फॉदर स्टैनली वहीं
टहलते मिल जाएँगे। पर वे वहाँ नहीं थे। पास के हॉल से सिस्टर्स तथा
आश्रमवासियों की सामूहिक प्रार्थना की सघन आवाज आ रही थी।
कार्तिक आश्रम को अच्छी तरह से जानता था। वह गेस्ट हाउस तक पहुँचा और वहीं
वरांडे में कुर्सी डालकर बै गया। उसे पता था कि प्रार्थना खत्म होने पर कोई न
कोई वहाँ जरूर आएगा।
सबसे पहले सिस्टर जेस्सी प्रार्थना कक्ष से बाहर आई। उसने देखा कि गेस्ट हाउस
के सामने वाले वरांडे में कोई बैठा है तो वह उस तरफ चली आई, पास आते ही उसने
कार्तिक को पहचान लिया। आश्चर्य के स्वर में बोली,
'ओह कार्तिक! हाउ वेरी इंटरेस्टिंग।'
'क्यों सिस्टर, इसमें इंटरेस्टिंग जैसी क्या बात है? मैंने तो कहा था आपसे
मिलने फिर आऊँगा। तो आ गया हूँ। आई एम वेरी वेरी हैप्पी टू सी यू। व्हेअर इज
फॉदर?'
सिस्टर जेस्सी ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। उसने कहा,
'तुम दो मिनिट बैठो। मैं कमला से चाय के लिए कह कर अभी आती हूँ।'
थोड़ी देर बाद उसने कमला के साथ चाय की ट्रे लिए हुए प्रवेश किया। एक कुर्सी
खींचते हुए कहा,
'हियर इज ए फ्रेश कप ऑफ नारायणपुर टी।'
'मेरा ख्याल था कि नारायणपुर में बाँस वगैरह पाए जाते हैं, चाय नहीं।'
उसने हँसते हुए कहा,
'चाय तो दार्जिलिंग की ही है। नारायणपुर में आपको पिलाई जा रही है।'
'आई अंडरस्टैंड, आश्रम कैसा है? आप लोगों का काम कैसा चल रहा है? और फॉदर
स्टैनली? वे कैसे हैं, कहाँ हैं? मैं विशेषकर उन्हीं से मिलने आया था।'
सिस्टर जेस्सी ने कुछ गंभीरता से कहा,
'कार्तिक, फॉदर ने आश्रम छोड़ दिया है। आजकल मैं इनचार्ज हूँ'
कार्तिक को थोड़ा धक्का सा लगा।
'ओह! क्यों?'
'उन्हें किसी अन्य काम से कनाडा भेज दिया गया है। पर मजे की बात ये है कि वे
जाने के पहले तुम्हारी बहुत याद कर रहे थे। तुम्हारे लिए एक पैकेट भी छोड़ गए
हैं। मैं उसे पोस्ट से भिजवाने वाली थी पर मेरे पास तुम्हारा पता नहीं था। और
देखो ईश्वर की इच्छा। अचानक तुम आ गए। यहाँ, नारायणपुर में।'
'मैं एक तरह की छुट्टी पर हूँ। सोचा कुछ दिन उनके और आप लोगों के साथ रह
लूँगा। जल्दी में खबर भी नहीं कर पाया।'
'कोई बात नहीं। मैं गेस्ट हाउस में कमरे की व्यवस्था कर देती हूँ। तुम जब तक
चाहो रहो। गाड़ी चाहोगे तो उसका भी इंतजाम हो जाएगा। इन द मीन व्हाइल, आई विल
सेंड यू द पैकेट। देखो फॉदर तुम्हारे लिए क्या छोड़ गए हैं। नाउ, आई एम गेटिंग
लेट। सी यू ड्यूरिंग लंच। कमला आकर सब इंतजाम कर देगी।'
कमला आकर कमरा ठीक कर गई थी। नाश्ता वह जो चाहे, कमला रूम में ही ला देगी। साथ
ही एक पैकेट भी था जिस पर फॉदर स्टैनली ने सुंदर से अक्षरों में लिखा था,
'प्यारे कार्तिक के लिए।'
कार्तिक सोच रहा था पता नहीं क्या है इस पैकेट में?
कार्तिक को सिस्टर जेस्सी का व्यवहार कुछ अजीब सा लगा था। लगा जैसे वे कुछ
छुपा रही हैं।
खैर जो कुछ भी है, मालूम पड़ ही जाएगा।
उसे फॉदर स्टैनली द्वारा दिए गए पैकेट को देखने की बहुत उत्सुकता थी। आखिर
क्या देना चाहा होगा उन्होंने?
कार्तिक ने जल्दी जल्दी सुबह के काम निबटाए। कमला तब तक आकर चाय और सैंडविच रख
गई।
कार्तिक ने वरांडे में कुर्सी डाल ली। पैर सामने लकड़ी की रेलिंग पर टिका लिए।
फिर उसने गोद में रखा फॉदर स्टैनली का लिफाफा खोला।
लिफाफे में कागजों का एक बंडल जैसा था। कोने में करीने से क्लिप लगी हुई थी।
उसी पर एक स्लिप लगी थी,
'कार्तिक इसे पढ़ना और हो सके तो नष्ट कर देना।'
कार्तिक ने पर्ची हटाई और पढ़ना शुरू किया।
'प्यारे कार्तिक,
ये पत्र पाकर तुम्हें आश्चर्य होगा। ऐसी क्या जरूरत आ गई कि मैं तुम्हें पत्र
लिखूँ? हम लोग दोस्त हैं, कभी भी मिल सकते हैं, आपस में बात कर सकते हैं। फिर
ऐसी क्या बात हो कि गई मुझे तुम्हें पत्र लिखना पड़ रहा है?
बात ये है दोस्त कि हो सकता है अब हम कभी न मिलें। ये अच्छा भी है और बुरा भी।
बुरा इसलिए कि हमारी दोस्ती गहरी हो गई थी, हमारे सरोकार कई मायनों में एक तरह
के थे और हम एक दूसरे को जानने लगे थे, मदद कर सकते थे। पर अब शायद ऐसा न हो
सके। अच्छा इसलिए कि ये बातें जो मैं तुम्हें बताने वाला हूँ, उसके लिए मुझे
एक ऐसे आदमी की जरूरत थी जिस पर मुझे विश्वास हो, पर जो मेरे जीवन में उपस्थित
न रहे, अनजान बन जाए। तुम जानते हो हमारे धर्म में कनफेशन का क्या महत्व है?
एक बार कनफेस करने का बाद आदमी अपने अपराध के बोझ से मुक्त हो सकता है। क्षमा
प्राप्त कर सकता है। तुम्हें कनफेस करके मैं भी शायद कुछ हल्का हो सकूँ।
मुझे लगता है तुम्हीं वह जाने पहचाने अनजान आदमी हो जिससे मैं अपनी बात कह
सकता हूँ।
तुम्हें याद है हम सबसे पहले नारायणपुर में ही मिले थे? तुम उस समय अपने
आंदोलन के सिलसिले में यहाँ आए थे और मुझे अपना प्रतिद्वंद्वी मानते थे। पहले
हमारी लड़ाई हुई थी और फिर हम दोस्त बन गए थे। तब तुमने पूछा था कि मैं दिल्ली
का भरा पूरा जीवन छोड़कर नारायणपुर कैसे चला आया? आज मैं वहीं से शुरुआत करता
हूँ।
नारायणपुर आने के पहले मैं चर्च के ट्रेनिंग स्कूल में पढ़ाया करता था। मुझसे
पहले फॉदर जेम्स यहाँ काम करते थे। उनकी रिपोर्ट कोई बहुत अच्छी नहीं थी। उग्र
वामपंथियों का यहाँ गहरा प्रभाव था और उनके खिलाफ वे कुछ भी काम नहीं कर पा
रहे थे। इसी के साथ वनवासियों के कल्याण के लिए कई हिंदू संगठन भी इस इलाके
में तेजी से काम कर रहे थे, चर्च इस बात को लेकर चिंतित था। तभी कुछ चुनिंदा
लोगों के बायोडाटा मँगवाए गए। स्वयं आर्चबिशप चयन करने वाले थे। मैं दिल्ली से
ऊब गया था और कुछ नया करना चाहता था। मैंने भी अपना बायोडाटा दिया,
फॉदर विलियम स्टैनली एस.जे.
जन्म १९६५, मुथ्थुपुरम, केरल, इंडिया।
तीन बहनें और तीन भाई।
ग्रेज्युऐशन, सेंट स्टीफेंस कॉलेज, कोचिन, १९८६। एम.ए., कैथोलिक कॉलेज,
अर्नाकुलम, १९८९। प्रोफेसर अपोलोजेटिक्स, सेंट मेरीज कॉलेज १९८९-९२। डी.फिल.
त्रिवेंद्रम यूनिवर्सिटी।
थीसिस : सेंट थॉमस अक्विनास की सामाजिक अवधारणाएँ।
काम : सामाजिक विकास के संदर्भ में आर्चबिशप के विशेष सलाहकार। सोसायटी ऑफ
जीसस के सचिव।
प्रमुख आलेख : १. सेंट थेरेसा का दर्द - नम्रता एवं आधुनिकता की अद्भुत
अभिव्यक्ति।
२. सेंट बर्नार्ड का परिप्रेक्ष्य - आधुनिक मनोविज्ञान के नए क्षितिज।
३. नाटो युद्ध एवं कैथोलिक सामाजिक सिद्धांत
४. ईश्वर रहित कम्यूनिज्म की ताकत पर कुछ विचार।
५. क्या कम्यूनिज्म वाकई ईश्वर रहित है?
६. सांप्रदायिकता और कम्यूनिज्म के ईसाइयत पर बढ़ते खतरे।
किताबें : मध्यकालीन धार्मिक अवधारणाएँ।
कम्यूनिज्म की चुनौतियाँ।
प्रारंभिक साक्षात्कार के लिए मेरे बायोडाटा का चयन कर लिया गया। फिर शायद
कम्यूनिज्म पर मेरे काम को देखते हुए नारायणपुर के लिए मेरा चयन किया गया।
मुझे भेजते हुए आर्चबिशप ने कहा था,
'फॉदर स्टैनली। मैं आपकी सैद्धांतिक समझ से बहुत प्रभावित हूँ। अब आपको इसे
व्यवहार में बदलना है। नारायणपुर बहुत कठिन जगह है, आपकी जान को खतरा भी हो
सकता है। बहुत समझ बूझकर चलें। मुझसे बात भी करते रहें। मुझे आप पर भरोसा है।
गॉड ब्लेस यू।'
मैंने नारायणपुर पहुँचकर किस तरह फॉदर जेम्स के खिलाफ आंदोलन चलाया और कैसे
उनके स्थान को भरा ये तुम जानते ही हो।
मैंने अपने आश्रम को गतिविधियों का केंद्र बना लिया। हम पहले से ही वहाँ तीन
हायर सेकेंडरी स्कूल चला रहे थे। मैंने एक वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर खोला जहाँ
लकड़ी का, बाँस का, चमड़े का काम सिखाया जाने लगा। हमारे यहाँ बहुत लोग आने
जाने लगे। चर्च का प्रभाव इलाके में अच्छा खासा बढ़ गया।
पर इसी के साथ एक अजीब बात देखने में आ रही थी। आसपास के गाँवों में नक्सलवादी
गतिविधियाँ भी बढ़ रही थीं। गाँव के लोगों को छोटे-छोटे दलम् में संगठित किया
जा रहा था। पुलिस और फॉरेस्ट के लोगों को मारा जा रहा था। वे हमें कुछ नहीं
कहते थे। हमें शायद अच्छा आदमी मानते थे। पर प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की
प्रतिस्पर्धा तो थी ही।
हमारे आश्रम के लोग बार बार एक तेज तर्रार लड़की का जिक्र किया करते थे जो
नारायणपुर दलम् के साथ देखी जाती थी।
मैं एक दिन सुबह यही बात सोचते हुए अपने आश्रम के सामने कुर्सी डालकर बैठा था।
मुझे अब क्या करना चाहिए, कैसे आगे बढ़ना चाहिए, यही सब विचार मेरे मन में आ
रहे थे।
मौसम खुशगवार था। हवा धीरे-धीरे चल रही थी, जैसे सहला रही हो। हमारे आश्रम की
क्यारियों में खूबसूरत फूल खिले हुए थे, पेड़ सरसरा रहे थे। सिस्टर्स अपने
अपने काम पर निकलने को तैयार थीं। वोकेशनल केंद्र के प्रशिक्षार्थी आ गए थे और
दूर वर्कशेड में अपने काम पर लगे दिख रहे थे। सुबह की प्रार्थना आश्रम में की
जा चुकी थी। मैं अखबार देख रहा था और कुछ सोचता जा रहा था।
अचानक मुझे लगा, मैं ऐसा ही जीवन तो जीना चाहता था।
तभी खड़ी पट्टियों वाले लकड़ी के गेट को धकेल कर एक लड़की ने आश्रम में प्रवेश
किया।
वह सीधे बढ़ी और मेरे सामने आकर खड़ी हो गई,
'फादर विलियम?'
'येस..., व्हॉट कैन आई डू फॉर यू?'
'फॉदर मेरा नाम रति है। मेरी समाज सेवा में रुचि है। मुझे किसी ने बताया कि
आपके आश्रम में एक महिला कार्यकर्ता की जरूरत है। क्या मुझे काम मिल सकता है?'
'यू सी रत्ती, वी डोंट टेक पीपुल लाइक दिज। हमें कुछ रिफरेंस की जरूरत होती
है। मैं तो आपको जानता तक नहीं।'
'फॉदर मुझे मालूम था। मैं इसीलिए रिफरेंस लेकर आई हूँ। एंड बाई द वे। माई नेम
इज नॉट रत्ती। इट इज रति।'
मुझे उसकी बोल्डनेस अच्छी लगी थी। मैंने हँसते हुए कहा था,
'ओ.के. रति। इज इट राइट रति? नाउ गिव मी यूअर रिफरेंस लैटर!'
उसने एक पत्र निकाला और मेरे हाथ में थमा दिया। मैंने पत्र पढ़ा। पास के ही
गाँव के एक बहुत प्रभावशाली व्यक्ति का पत्र था। लिखा था, अच्छी लड़की है।
पढ़ी लिखी है, ग्रेज्युएट है। समाज सेवा में रुचि रखती है। जरूरतमंद भी है।
अगर मुझे किसी महिला कार्यकर्ता की जरूरत हो तो उसे रखने के बारे में जरूर
सोचूँ। मैंने पत्र देखकर कहा,
'अच्छा मैं इनसे फोन पर बात करूँगा। आप कल इसी वक्त आइए।'
इस बार मैंने भरपूर निगाहों से उसे देखा। तीखे नैन नक्श, गेहुंआ रंग, पीछे
ढीले जूड़े में बँधे बाल, बड़ी बड़ी आँखें और चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट।
माथे पर गोल बड़ी बिंदी और सुतवाँ नाक पर चमक पैदा करती हुई दमकती लौंग। उसे
देखकर मुझे अच्छा लगा। ऐसा लगा कि वह एक सुलझी हुई और अच्छे परिवार की लड़की
है।
मुझे सबसे ज्यादा पसंद आया था उसके साड़ी पहनने का ढंग। उसने न उसे ऊँचा बाँध
रखा था, न नीचा। सामने को गिरी हुई उसकी प्लेटें न एक इंच इधर थीं न उधर। कंधे
पर से होता हुआ पल्ला बड़े गरिमामय ढंग से नीचे आ रहा था, जिसे उसने चलते समय
लपेटकर अपने बांयी ओर खोंस लिया था। सुरुचिपूर्ण वस्त्र और सधी हुई चाल, उसने
कहा,
'अच्छा नमस्ते फॉदर। मैं कल आ जाऊँगी।'
एक बार फिर उसने सीधे मेरी निगाहों में देखा। उसकी दृष्टि में एक चैलेंज जैसा
था जैसे कह रही हो, देखती हूँ, आप मुझे कैसे रिजेक्ट करते हैं।
तुम्हें सच बताऊँ कार्तिक? पहली नजर में ही वह मुझे बहुत अच्छी लगी थी। एक
अदृश्य सा खिंचाव महसूस किया था मैंने उसकी ओर, और फिर तत्काल थोड़ी ग्लानि भी
हुई थी। मैं चर्च के काम से नारायणपुर आया था। लड़कियों के प्रति खिंचाव महसूस
करने के लिए नहीं। फिर भी जाने कौन सा आकर्षण था कि उसकी छवि मेरी आँखों से
ओझल नहीं हो पा रही थी।
अगले दिन मैं आश्रम में रह नहीं पाया।
शाम को ही पास के गाँव से हमारे कार्यकर्ताओं का बुलावा आ गया और मैं रात में
ही भानुप्रतापपुर की ओर निकल गया। करीब हफ्ते भर मैं जंगलों में बसे छोटे-छोटे
गाँवों में घूमता रहा। जंगलों की सुगंध, पहाड़ों की चुप्पी और पहाड़ी नदियों
की गुनगुनाहट के बीच मुझे रह रह कर उसकी याद आती थी। उसकी वह प्यारी सी, मगर
बोल्ड, मेरी आँखों में सीधी झाँकती छवि।
मैं करीब एक हफ्ते बाद आश्रम में लौटा। मेरे पूछने से पहले ही सिस्टर जेस्सी
ने बताया,
'फॉदर रति नाम की एक लड़की दो बार आश्रम में आई थी। कहती थी आपने वक्त दिया
है। दूसरी बार कुछ गुस्सा भी हो रही थी।'
मैंने अनजान बनते हुए कहा था,
'ओह अच्छा! वो लड़की। क्या वो फिर आएगी?'
'हाँ मैंने बताया कि आप आज आ जाएँगे। कल सुबह वह फिर आएगी।'
कार्तिक, पता नहीं क्यों, मैं उस रात ठीक ठीक सो नहीं पाया। सुबह जल्दी उठ गया
और सुबह की प्रार्थना के बाद, जल्दी जल्दी नाश्ता करके अखबार लेकर वरांडे में
बै गया। अखबार पढ़ने में मेरा मन नहीं लग रहा था। मैं तो उसी का इंतजार कर रहा
था। सोचता था कि वह आए और मैं उसे एक बार फिर देखूँ।
ठीक दस बजे वह गेट धकेल कर भीतर दाखिल हुई। उसी गरिमामय चाल में, उसी तरह
साड़ी का पल्लू दाहिने हाथ पर लिए। वह सीधे मुझ तक आई और बोली,
'फॉदर नमस्ते। अगर आप बाहर जाने वाले थे तो मुझे बताना चाहिए था। मैं अगले दिन
यहाँ नहीं आती। मुझे बहुत दूर से आना पड़ता है।'
अब तक किसी नौकरी माँगने वाले ने मुझसे इस अंदाज में बात नहीं की थी। मैं
थोड़ा चौंका, पर मुझे उसका यह अंदाज अच्छा भी लगा।
'आई एम सॉरी। मुझे अचानक जाना पड़ा। आइए बैठिए।'
उसने एक कुर्सी खींची और बैठ गई। मैंने बातचीत शुरू करने के लिए पूछा,
'आप टाइपिंग वगैरह जानती हैं?'
'क्यों, क्या आप मुझसे टाइपिंग करवाना चाहते हैं?'
'अभी तो हमने आपको रखने का तय भी नहीं किया है। मैंने सिर्फ इसलिए पूछा कि जान
लूँ कि आपकी स्किल्स क्या हैं, आपको क्या क्या आता है?'
'फॉदर मैं लोगों को संगठित कर सकती हूँ, उनको ऊर्जावान बना सकती हूँ। उन्हें
एक साथ ला सकती हूँ, गाँव गाँव घूम सकती हूँ। और अगर मैं ये सब कर सकती हूँ,
तो आप मुझसे टाइपिंग क्यों करवाएँगे?'
'मैंने कहा न, अभी तक तो हमने तय भी नहीं किया है कि आपको लें या नहीं।'
उसने खिलखिला कर कहा,
'तो एक बार तय कर लीजिए। निकाल तो आप कभी भी सकते हैं।'
'अच्छा, आप जानती हैं, हम लोग क्या करते हैं?'
'बच्चों को पढ़ाते हैं, युवकों को व्यवसाय सिखाते हैं, दवाएँ बाँटते हैं
और...' उसने हँसते हुए कहा, 'लोगों से ईसा मसीह की प्रार्थना करवाते हैं।'
मुझे बुरा नहीं लगा। हमें वैसे भी शांत रहने का प्रशिक्षण दिया जाता है। मैंने
शांति से कहा,
'जीवन में ईश्वर की भी जगह है।'
कहते कहते न जाने मुझे क्यों लगा कि मुझे रति को प्रभावित करना चाहिए। अपने
काम के बारे में, अपने ऊँचे आदर्शों के बारे में, अपने जीवन के बारे में उसे
बताकर उसे प्रभावित करना चाहिए। पर ऐसा करना मुझे कुछ कुछ बेमानी, कुछ खोखला
सा भी लगा। अचानक मुझे समझ नहीं आया कि मैं आगे क्या कहूँ क्योंकि कोई भी बात
उस पर कोई खास असर नहीं डाल रही थी। मैं उससे कोई चौंकाने वाली बात कहना चाहता
था। ऐसी कोई बात जो उसने पहले कभी न सुनी हो। ऐसा कोई दृश्य जो उसने कभी देखा
न हो। ऐसी कोई घटना जिससे पहले कभी वह रूबरू न हुई हो।
मैंने एक अजीब सी शुरुआत की।
मैंने उसे चौंकाने के लिए कहा,
'आप चर्मकारों के बीच में काम करेंगी?'
उसने बिना चौंकते हुए कहा,
'कर लूँगी।'
'सोच लीजिए। कहना सरल है, करना कठिन'
'क्यों?'
'मरे हुए जानवर को देखकर अच्छे अच्छे भाग खड़े होते हैं। फिर गाँवों में शोषण
का जो तंत्र है उससे भी भिड़ना पड़ता है।'
उसने बहुत सहजता से कहा,
'मुझे शोषण तंत्र से भिड़ने की आदत है।'
'अभी तो आप ये भी नहीं जानतीं कि गाँवों में चमड़े का सायकल क्या है?'
इस बार वह चुप रही। मुझे लगा मैं यहाँ उस पर भारी पड़ सकता हूँ। उसे बहुत सारी
बातें बता सकता हूँ। मैंने उत्साह में आते हुए कहा,
'जब किसी के खेत या घर में जानवर मर जाता है, तो खाल निकालने वालों को बुलाया
जाता है।'
'अच्छा?'
'वे बिचारे अपने उन्हीं पुराने औजारों से दिन भर लगा कर चमड़ा निकालते हैं।'
'फिर?'
'फिर क्या हर दो चार गाँवों पर एक छोटा दलाल होता है, जिसके पास किसी बड़े
साहूकार या दलाल का एडवांस पैसा रहता है। वह दस पाँच रुपये में यह चमड़ा खरीद
लेता है। कीमत इसलिए भी कम होती है क्योंकि पुराने औजारों से निकालने के कारण
चमड़ा जगह जगह से कट फट जाता है। कभी कभी तो एक पाव कच्ची शराब ही चमड़ा
खरीदने के लिए काफी होती है।'
'ओह!'
'फिर एक दिन शहर से एक ट्रक आता है। वह गाँव गाँव में बिखरे छोटे दलालों के
पास जाकर खालें इकट्ठी करता है। वह छोटे दलालों को एक खाल के चालीस पचास रुपये
तक दे देता है।'
'उसके बाद?'
'उसके बाद क्या? बड़े दलाल या साहूकार का वह ट्रक चमड़े को मद्रास या कानपुर
में बैठे सेठों की टैनरियों में पहुँचा देता है। छोटा कारीगर तो बिचारा अपने
कच्चे माल से भी हाथ धो बैठता है, और फायदा उठाता है दूर बैठा कोई से और उसका
दलाल। गाँव गाँव में यही हो रहा है।'
'तो आप क्या करना चाहते हैं?'
'हम इस चेन को तोड़ना चाहते हैं।'
'कैसे?'
'हम पहले तो अच्छे औजारों का उपयोग करेंगे, जिससे खाल को ठीक से निकाला जा
सके। फिर वहीं गाँव में चमड़ा पकाने की एक छोटी सी फैक्ट्री लगाएँगे, जिसे
कारीगर खुद चलाएँगे। फैक्ट्री क्या, एक छोटा सा शेड होगा, जिसमें एक ओर नमक
लगाकर कच्चा चमड़ा रखा जाएगा। फिर टंकियाँ होंगी जिनमें चूने का पानी, रसायन
और रंग रखा जाएगा। चमड़े पर से बाल साफ करने के लिए...'
रति ने मेरे चेहरे पर से ध्यान हटा लिया। उसने लगभग अनावश्यक रूप से अपनी
साड़ी का पल्ला ठीक किया। वह पहले से ही ठीक था। फिर उसने धीरे से सिर उठाया
और कहा,
'अच्छा, अच्छा।'
वह शायद मुझे आगे बात करने से रोकना चाहती थी। पर अब मुझे उसकी असहजता, उसके
चेहरे पर छाया हल्का सा भय, उसकी अनिच्छा में आनंद आने लगा था। मैं बात को आगे
बढ़ाना चाहता था,
'फिर चमड़े को पकाया जाएगा। अधपके चमड़े को सीकर उसका बैग जैसा बनाया जाएगा।
तुमने वह दृश्य कभी देखा है? लगता है जैसे जानवरों का पेट फूल गया हो और
उन्हें उलटा लटका दिया गया हो। देखोगी तो डर जाओगी...।'
इस बार वह चुप रही। मैंने आगे कहा,
'इस तरह पके चमड़े का लोकल मार्केट बहुत है। इससे जूते चप्पल बनाए जा सकते
हैं...'
रति ने चप्पलें उतार दीं और अपने पैर उठाकर कुर्सी पर रख लिए। वह इस तरह भयभीत
लग रही थी जैसे ये पूरी प्रक्रिया उसके सामने ही घटित हो रही हो। मैंने फिर भी
कहना जारी रखा,
'जानवरों की हड्डियों और चर्बी को काम में लाया जा सकता है। हड्डियों का चूरा
करके मुर्गियों के लिए दाना बनाया जा सकता है, और चर्बी से...'
अचानक उसने जोर से कहा,
'इनफ फॉदर। विल यू प्लीज स्टॉप नाउ?'
मैं अकबका सा गया। मुझे लगा मुझसे कहीं गलती हो गई है। वह मेरे सामने वाली
कुर्सी पर दोनों पैर ऊपर किए बैठी थी। उसके चेहरे पर अजब डर और वितृष्णा का
भाव था। पर मैं तो उसे प्रभावित करना चाहता था? ये क्या हो गया? ये प्रेम की
बहुत ही अटपटी शुरुआत थी।
कुछ देर वह मेरे अकबकाए हुए चेहरे को देखती रही। फिर अचानक खिलखिला कर हँसी,
फिर मेरी आँखों में आँखें डालकर पूछा,
'ओ.के. फॉदर, यू वांट टू इंप्रेस मी? इज इट नॉट?'
इस बार मैं चुप रहा। वह एक बार फिर खिलखिला कर हँसी।
'ओ.के. आई एम इंप्रेस्ड'
अब मैं भी उसके साथ-साथ हँसने लगा। उसने हँसते हँसते हुए कहा,
'मैंने चर्मकारों की पूरी कहानी सुन ली। मैं उनके साथ काम कर लूँगी। तो फिर कल
से आऊँ?'
मैंने कहा,
'हाँ आओ। मुझे सीधे रिपोर्ट करना।'
इस तरह उसने सेंट जीसज सोसायटी नारायणपुर में प्रवेश किया।
रति ने बहुत तेजी से मेरा बहुत सारा काम सम्हाल लिया। वो हिंदी और अंग्रेजी
दोनों भाषाएँ अच्छी तरह जानती थी। चिट्ठी पत्री कर लेती थी। और सबसे बड़ी बात,
उसे फील्ड में घूमने में कोई दिक्कत नहीं थी। इस मामले में वह किसी पुरुष की
तरह ही थी।
वह गाँव गाँव जाकर महिलाओं की बैठक ले सकती थी। उनके साथ जाकर रह सकती थी।
उनके दुख तकलीफ में उनका साथ दे सकती थी। उनकी आवाज उठा सकती थी। उनकी बात
प्रशासन के सामने रख सकती थी। मुझे और क्या चाहिए था?
धीरे धीरे पूरे नारायणपुर क्षेत्र में मेरे दौरे बढ़ गए। मेरे साथ हर समय रति
हुआ करती थी। काम में हाथ बँटाती, गाँव की औरतों का हालचाल पूछती, कभी कभी
उनके साथ गीत गाती, कभी उनकी व्यक्तिगत समस्या सुलझाती। न जाने क्यों मुझे
लगता था कि वह इन गाँवों में पहले भी आती रही है। कुछ रहस्यमय किस्म के लोग
कभी कभी उससे आकर बातें करते दिखते थे। मेरे पूछने पर कहती - मैं इन्हें पहले
से जानती हूँ।
पर ज्यादा बड़ी बात ये थी कि लोग बड़ी सहजता से उसके पास चले आते थे, और उसे
भी लोगों के साथ काम करने में आनंद मिलता था।
हमारे आश्रम में लोगों का आना जाना बढ़ गया।
मैंने फॉदर जेम्स के जाने के बाद से स्कूलों, मेडीकल सेंटर, व्यावसायिक केंद्र
तथा सामाजिक गतिविधियों की पहली रिपोर्ट आर्चबिशप के पास भेजी। उनके पास से
बधाई का पत्र भी आया।
कार्तिक, मैं खुश था। जो आप करना चाहते हैं उसे आनंद के साथ कर सकें इससे बड़ी
खुशी और क्या हो सकती थी?
सबसे बड़ी बात ये थी कि ये काम करते समय रति मेरे साथ थी। अपने तमाम सौंदर्य
और ऊर्जा के साथ। मैं धीरे धीरे उसके निकट आने लगा। कई बार मैं उसका नाम
बिगाड़ कर पहले की तरह रत्ती मैडम कहा करता। अधिकतर वह ये अपभ्रंश स्वीकार कर
लेती पर कभी कभी पलट कर कहती,
'मेरा नाम रत्ती नहीं फॉदर रति है। मैंने पहले भी आपको बताया था।'
'ओ.के. रति। मेरी हिंदी जरा कमजोर है। अच्छा, तुम्हारे नाम का मतलब क्या है?'
यही एक अवसर था जब वह थोड़ा शरमाती, फिर सम्हल कर कहती,
'ये आप अपनी पत्नी से पूछिएगा।'
'पर मेरे तो कोई पत्नी नहीं। यू नो, फॉदर लोग शादी नहीं कर सकते।'
'तो अपनी प्रेमिका से पूछिएगा।'
'मेरी कोई प्रेमिका भी नहीं।'
'तो फिर आप इस शब्द का अर्थ नहीं जान पाएँगे।'
वह कहती और चल देती।
अपनी तमाम खुशनुमा तबियत के बावजूद उसमें एक अजीब बात थी। वह था उसका कभी कभी
एकदम अकेला हो जाना। पूरी गहमागहमी और घनघोर गतिविधियों के बीच वह कभी कभी
अकेली खड़ी मिलती। आश्रम में किसी पेड़ के नीचे, या किताब लिए हमारे छोटे से
पुस्तकालय में, या रात के समय बगीचे में पड़ी खाली बेंच पर बैठी, कुछ सोचती
सी।
उसे लेकर एक बात मेरे मन में बहुत तीव्रता से घर करने लगी। मैं उसे प्रसन्न
रखना चाहता था। मैं चाहता था कि वह खुश रहे, अकेला महसूस न करे। सबसे घुले
मिले। वह आसपास रहती तो मैं माहौल को खुशनुमा बनाए रखता,
'सो रत्ती मैडम, हाउ आर यू?'
'क्या बात है आजकल आप कुछ खुश नहीं दिख रहीं?'
'रति तुम्हारे घर में कौन-कौन है?'
'रति तुमने शादी क्यों नहीं की?'
'चलो रति हम लोग मिलकर ये रिपोर्ट बनाते हैं।'
'आओ थोड़ा घूम कर आते हैं।'
'रति तुम्हें आश्रम में कोई तकलीफ तो नहीं?'
'आज खाना खाया या नहीं? भूखे रहना गलत बात है।'
'रति मीटिंग की तैयारी कर ली?'
'रति चलो, शहर से कुछ मार्केटिंग कर लाएँ।'
जाने अनजाने छोटी छोटी बातों, चिंताओं और अटेंशन से मैं उसे खुश रखने की कोशिश
करता। लेकिन उसके दिल में प्रवेश करना कठिन काम था। उसके जवाब कुछ इस तरह
होते,
'आई एम फाइन।'
'नहीं नहीं फॉदर, मैं ठीक हूँ।'
'अब घर कहाँ रहा?'
'आपसे किसने कहा कि मैंने शादी नहीं की?'
'रिपोर्ट तो पहले से ही तैयार है फॉदर।'
'चलिए, कहाँ चलना है?'
'कोई तकलीफ नहीं।'
'सुबह खाया तो था।'
'यस रेडी।'
'लेट अस गो।'
सिर्फ एक बार जब वह अपने डिप्रेशन में या कि अकेलेपन में आश्रम के बाहर बेंच
पर चुपचाप बैठी थी, और मैंने दोनों हाथों में चाय के मग लिए, उसके पास जाकर
कहा था।
'लो चाय पियो।'
तब उसने चाय का मग मेरे हाथ से लेते हुए कहा था,
'फॉदर आप बहुत अच्छे आदमी हैं।'
उसके कुछ दिनों बाद ही वह घटना हुई थी।
तुम तो बस्तर जाते रहे हो। कांकेर से जगदलपुर जाते समय केशकाल की घाटी पड़ती
है। सुंदर वनों से ढकी, अपनी नीरवता में मोहक, अपने विस्तार में जादू कर देने
वाली। घाट के बीच देवी माता का मंदिर है जहाँ अक्सर आते जाते वाहन रुकते हैं।
लोग माता को प्रणाम करते हैं, प्रसाद पाते हैं, थोड़ा सुस्ताते हैं, फिर आगे
बढ़ते हैं। मैं अपने काम के सिलसिले में अक्सर जगदलपुर जाया करता था।
वह पूर्णिमा की रात थी और चाँद अपने पूरे वैभव के साथ आकाश में पसरा हुआ था।
फरवरी का महीना रहा होगा। हवा में हल्की सी खनक थी। रात के करीब ग्यारह बजे
मैं और रति जगदलपुर से वापस लौट रहे थे।
केशकाल की घाटी से उतरते समय उसने मंदिर के पास कहा,
'फॉदर यहाँ गाड़ी रोकिए न!'
'क्यों क्या देवी माँ को प्रणाम करने का इरादा है? मेरा ख्याल था कि तुम ईश्वर
पर विश्वास नहीं करतीं?'
'विश्वास नहीं करती, पर अविश्वास भी नहीं करती। फिलहाल मैं मंदिर के कारण नहीं
कह रही। बस यूँ ही, थोड़ी देर खड़े रहने का मन है।'
'बाई ऑल मींस।'
मैंने कहा और अपनी जिप्सी वहीं मंदिर के पास रोक दी।
वह उतरी, थोड़ा आगे बढ़ी और एक चट्टान के ऊपर जाकर खड़ी हो गई, घाटी के पार
देखती हुई। मैं जिप्सी से निकल कर बोनट से टिक कर खड़ा था। तभी अचानक हवा का
झोंका आया, और रति का आँचल उड़कर नीचे आ गिरा।
कार्तिक, मैंने पहली बार उसके शरीर पर ध्यान दिया। उसके सुडौल और कसे हुए स्तन
अपने तीखे उभार के साथ मेरे सामने थे। मैं तुम्हें बता नहीं सकता कि कैसा
विचलन मेरे मन में उस समय पैदा हुआ। मुझे अपनी ओर देखता पाकर उसने अपना मुँह
दूसरी ओर किया और अपना आँचल ठीक करने लगी।
तब मेरा ध्यान उसकी पी पर गया। चंद्रमा की किरणें उसकी खुली हुई पीठ को मादक
ढंग से प्रकाशित कर रही थीं। ढीला बँधा हुआ जूड़ा हवा के झोंके के कारण खुल
गया था और बाल हवा से, गर्दन के एक ओर हो गए थे। उसने बालों को सामने सीने पर
कर लिया, जिससे गर्दन के नीचे उसकी पी की गोलाई साफ और आकर्षक दिखने लगी। उसकी
गर्दन पर एक प्यारा सा तिल था। पी पर से होते हुए मेरी निगाहें उसके सुडौल और
पृथुल नितंबों तक गई। बीच की कमर का कटाव उन्हें और भी सुंदर उभार प्रदान कर
रहा था। मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि मैं बुरी तरह उत्तेजित हो गया।
मेरा एक मन कह रहा था कि मैं ये गलत सोच रहा हूँ। मैं चर्च का आदमी हूँ और एक
मिशन पर हूँ। पर उस समय, उस क्षण उसके प्रति आकर्षित होने से मुझे कोई रोक
नहीं सकता था।
वह पीछे मुड़ी।
वह शायद लता मंगेशक्कर का कोई गीत गा रही थी।
मैं तब भी उसकी ओर देख रहा था। वह थोड़ा सा झेंप गई। फिर मेरे पास आकर कहा,
'चलिए फॉदर, चलें।'
मैं अभी जाना नहीं चाहता था। मैंने कहा,
'एक कप चाय पी लें?'
'पी जा सकती है।'
हम लोग वहीं मंदिर के पास पत्थर की पटिया पर चाय पीने बै गए। छोटी जगह के सभी
कार्य व्यापार भी धीरे धीरे चलते हैं। 'चाय पिलाऊँ बाबूजी' से लेकर वाकई चाय
पिलाने तक करीब आधा घंटा गुजर गया। पर मुझे लग रहा था कि वह और समय ले।
अपनी तमाखू रंग की मैरून प्रिंट वाली साड़ी और मैरून ब्लाउज में। अपने शरीर की
उस टिपिकल महक के साथ रति मेरे पास बैठी थी, और मैं उस क्षण को और लंबा करना
चाहता था, जितना हो सके उतना। हम दोनों बिलकुल चुपचाप बैठे थे, जैसे उस एकांत
को महसूसते हुए।
आखिर चाय समाप्त हुई। हम दोनों उठे और जिप्सी में बै गए। मैंने जिप्सी स्टार्ट
की और घाट पर धीरे-धीरे लुढ़काना शुरू की। साँप की तरह बल खाते दो तीन चक्करों
के बाद, वह जगह आती है जहाँ से पूरी घाटी देखी जा सकती है। वहाँ रेलिंग लगाकर
पब्लिक व्यूइंग का स्थान बनाया गया है जिसके एक कोने पर लिखा है- घाटी का
विहंगम दृश्य यहाँ से देखें।
जैसे किसी अनजान इच्छा के वशीभूत मैंने जिप्सी वहाँ रोक दी।
आसमान पर चंद्रमा अपने पूरा शबाब पर था। नीचे चाँदनी वृक्षों और पेड़-पौधों पर
बरस रही थी। अद्भुत एकांत था।
जिप्सी रुकते ही रति ने प्रश्नवाचक निगाहों से मेरी ओर देखा। उसने अपनी पतली
उँगलियों से सामने वाला हैंडल कस कर पकड़ रखा था। मैंने धीरे से अपना बायाँ
हाथ उसके दाहिने हाथ पर रखा और उसकी उँगलियों के बीच अपनी उँगलियाँ फँसा कर
उसे धीमे से हैंडल से अलग कर लिया। उसने चौंक कर मेरी ओर देखा,
'फॉदर?'
अब मैंने उसके दोनों हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिए। उन्हें उठाया और धीरे
से एक चुंबन लिया। उसने पूछा,
'फॉदर, क्या हम ये ठीक कर रहे हैं?'
उसके पूछने में प्रतिरोध कम और इच्छा ज्यादा थी, मैंने कहा,
'शायद नहीं...'
मैं बस इतना ही कह पाया। उसके बाद मैंने उसका चेहरा अपने हाथों में ले लिया।
अब मैं उसके चेहरे पर हर जगह चुंबन ले रहा था। चिबुक पर, आँखों और माथे पर,
भौहों पर, कान की लवों पर, गर्दन पर - जैसे मुझे होश नहीं रह गया था। अब मेरे
हाथ उसके सुडौल स्तनों पर गए, उसने अपना चेहरा बाहर खिड़की की ओर कर लिया।
कार्तिक मैंने बरसों से किसी महिला को छुआ तक नहीं था। मैं बता नहीं सकता मेरे
लिए वह कितना उत्तेजक अनुभव था।
मैंने धीरे से उसके खुले हुए जूड़े के बाल हटाए और गर्दन पर के तिल को हलके से
चूमा। उसके मुँह से धीरे से एक सीत्कार सी निकली जिसने मुझे गहरी उत्तेजना से
भर दिया। एक झटके से मैंने उसका मुँह अपनी ओर किया और एक गहरा चुंबन फिर से ले
लिया...।
अचानक उसने अपनी तरफ का दरवाजा खोला और बाहर निकल कर रेलिंग के पास खड़ी हो
गई। उसकी साड़ी का पल्ला हवा में लहरा रहा था। बाल खुल कर झूम रहे थे। वह दूर
नीचे चाँदनी में नहाए वृक्षों को देख रही थी और खुद एक सुंदर प्रतिमा सी नजर आ
रही थी।
मैं उतरा और मैंने जाकर उसे पीछे से आलिंगन में ले लिया। पहली बार मैंने उसके
पूरे शरीर की ऊष्मा को महसूस किया। उसके कानों के पास धीरे से मुँह ले जाकर
मैंने कहा,
'आई लव यू, रति।'
उसने कोई जवाब नहीं दिया। बस धीरे से गर्दन घुमाई और एक गहरा चुंबन मेरे होठों
पर लिया। उसके बाद उसने आँखें बंद कर लीं।
अचानक पीछे से आ रही किसी गाड़ी की हेड लाइट ने हमारा स्वप्न भंग किया। एक
झटके से उसने अपने आप को मुझसे अलग किया। फिर साड़ी ठीक करते हुए कहा,
'बस फॉदर, अब चलिए।'
पूरे रास्ते हमने कोई बात नहीं की। वह लगातार खिड़की से बाहर देखती रही थी।
गाड़ी से उतरकर एक हल्की सी मुस्कुराहट उसने मेरी ओर फेंकी ओर कहा,
'गुट नाइट फॉदर।'
फिर वह तेजी से अपने कमरे की ओर चली गई।
मैं रात भर एक बेचैनी से गुजरा। नींद थी कि आने का नाम नहीं ले रही थी। रति का
शरीर मेरे जेहन पर इस कदर हावी था कि उसके अलावा कोई बात मन में नहीं आती थी।
वो ऊँचे आदर्श जिन्हें लेकर मैं नारायणपुर आया था कहीं पीछे चले गए थे। बीच
में एक दो बार झपकी आई पर मैं चौंक कर उठा, एक बार फिर रति की छवि दिमाग में
लिए।
सुबह मैं उसी के आने का इंतजार कर रहा था पर पता लगा कि उसकी तबियत ठीक नहीं
थी और वह दो दिन की छुट्टी लेकर चली गई है।
मैंने सिस्टर जेस्सी से पूछा कि रति कहाँ गई है, कब आएगी। उसने बताया कि
कांकेर में उसके कुछ परिचित रहते हैं, उन्हीं के घर जाने का कह कर गई है। दो
दिनों में आ जाएगी। मैंने झुँझलाकर कहा - मुझसे पूछना तो चाहिए था। इस बार
जेस्सी ने रूखेपन से जवाब दिया - तबियत ठीक नहीं थी। छुट्टी लेकर गई है, इन
ऐनी केस, शी इज नॉट अ वेरी इंपॉर्टेंट वर्कर इन दिस आश्रम।
मैं जेस्सी से बहस करना चाहता था पर फिर कुछ सोचकर चुप रह गया।
अगले दो दिन तक मुझसे कोई काम नहीं हुआ। मैंने बगीचे का निरीक्षण किया और माली
को डाँट लगाई। वोकेशनल सेंटर के छात्रों को ठीक से काम नहीं सीखने के बारे में
लताड़ा। पैदल आश्रम से नारायणपुर तक गया और बेकार ही कस्बे में यहाँ वहाँ
घूमता रहा। लिखने का, रिपोर्ट बनाने का, नए प्रोजेक्ट तैयार करने का बहुत सा
काम था, पर कुछ भी करने का मन नहीं किया।
मैंने वे दोनों रातें कैसे काटीं, मैं ही जानता हूँ। घंटों नींद का गायब रहना,
कभी हल्की सी झपकी लेकिन फिर चौंक कर उना और मन में एक गहरी मीठी सी निराश
उत्तेजना। क्या मुझे कामदेव का बाण लग गया था?
दो दिन के बाद वह फिर हाजिर थी। वैसी ही मुस्कुराती हुई और तरोताजा।
'गुड मॉर्निंग फॉदर।'
'गुड मॉर्निंग रति, हाउ आर यू?'
'मैं ठीक हूँ। पर आप कुछ थके थके नजर आ रहे हैं।'
'हाँ दो दिनों से ठीक से सो नहीं पाया'
उसने आँखों में शरारत भरकर पूछा,
'क्यों?'
'ये तुम्हें बाद में बताऊँगा।'
उस दिन न जाने उसने कौन कौन से काम निकाल लिए। पहले वह सिस्टर जेस्सी के साथ
रिकॉर्ड्स रूम में घुसी रही और सभी फाइलें ठीक करती रही। फिर उसने सामान का
स्टॉक लेना शुरू कर दिया। उसके बाद उसने वोकेशनल सेंटर वाली महिलाओं के साथ
मीटिंग रख ली। पर वह मेरे रूम में नहीं आई। आखिर लंच के बाद करीब तीन बजे
मैंने कमला को भेजकर उसे बुलवाया।
'क्या बात है, आज मेरे साथ काम नहीं करना?'
'नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं। बस कुछ पुराने पड़े काम निबटा रही थी। आपने ही तो
कहा था कि वोकेशनल सेंटर की महिलाओं से उनकी दिक्कतों के बारे में बात
करना...।'
'हाँ, मगर उसे आज ही करना ये नहीं कहा था...।'
'अच्छा तो बताइए। आज क्या करना है?'
'वी हैव टू गो टू जगदलपुर। वहाँ शाम को क्लस्टर लेवल मीटिंग है।'
उसने आँखों में वही शरारत भरकर पूछा,
'क्यों, कोई विशेष बात?'
'हाँ, क्लस्टर के सभी लोग आ रहे हैं। मंथली रिव्यू के लिए...।'
उसने शरारत नहीं छोड़ी,
'मेरा चलना जरूरी है?'
'हाँ जरूरी है।'
आज वह मुझे टीज करने पर आमादा थी,
'अगर रात में रुकना पड़ेगा तो बता दें। मैं अपना बैग रख लूँ...।'
'रख लो।'
मैंने कहा।
जगदलपुर की मीटिंग कोई नौ बजे खत्म हुई। हम लोग रात ग्यारह के करीब केशकाल
घाटी के ऊपर बने गेस्ट हाउस पहुँचे। मैंने गेस्ट हाउस की सुंदर फुलवारी के पास
जीप रोकते हुए कहा,
'मैंने जगदलपुर से जीवन को फोन कर दिया था। वह गेस्ट हाउस का केयर टेकर है।
खाना तैयार मिलेगा।'
जीवन ने मुस्करा कर स्वागत किया। बताया कि खाना तैयार है और अगर हम लोग फ्रेश
होना चाहें तो दो कमरे भी रेडी हैं। रति ने कहा।
'फॉदर, मैं एक बार नहाना चाहूँगी।'
'जरूर, जरूर।'
वह नहाकर आई तो एकदम फ्रेश लग रही थी। उसने साड़ी बदल ली थी और अब वह हल्के
गुलाबी रंग के परिधान में थी। मैंने कहा,
'गुलाबी रंग में और भी अच्छी लग रही हो।'
जीवन खाना लगा चुका था। उसने शुरुआत करते हुए कहा,
'खाने में खुशबू बढ़िया आ रही है। गर्म भी है। फॉदर लोगों के बड़े मजे हैं।
जहाँ चाहे रुक गए। जहाँ चाहे खाना बनवा लिया...।'
'जीवन मेरा पुराना परिचित है। मेरी पसंद भी जानता है। फ्रेश वेजीटेबल, बीन्स
और करी। साथ में अच्छा चावल...।'
'मैं तो एक दो रोटी भी खाऊँगी। मेरा रोटी के बिना काम नहीं चलता।'
'हाँ तो लो न। रोटी और दही भी है...।'
खाने के बाद मैंने जीवन से कहा,
'कॉफी मेरे कमरे में ही भिजवा देना। हम लोग रात में रुक रहे हैं।'
रति ने मेरी उम्मीद के मुताबिक सवाल उछाला,
'क्या वाकई? तो मेरा बैग लाना ठीक ही रहा...।'
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया।
रति कॉफी का कप लिए बड़ी आरामकुर्सी पर पैर फैलाकर बैठी थी। उसने अपने दाहिने
पैर पर बायाँ पैर रख लिया था और इस प्रक्रिया में उसकी साड़ी कुछ ऊपर खिसक गई
थी।
मैं सामने लिखने की मेज के किनारे रखी बुनी हुई कुर्सी पर बैठा था।
रति ने मुझे गहरी निगाहों से देखा। उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी।
कार्तिक मैं पूरी तरह उसकी गिरफ्त में था। कमरे के दाहिनी ओर खुलने वाली
खिड़की में से कनेर के रंग बिरंगे फूल अंदर झाँक रहे थे। बाहर कहीं दूर से
चंपा की खुशबू चली आ रही थी। गेस्ट हाउस के लॉन में अद्भुत नीरवता थी और उसके
पाथ वे में लगे पीले बल्बों की मध्यम रोशनी लॉन तक आकर लगभग अँधेरे में तब्दील
हो गई थी।
मैं उठा और आकर आराम कुर्सी के बाएँ हत्थे पर बैठ गया। उसके हाथ से कॉफी का कप
लेकर नीचे रखा और धीमे से उसके ओंठों पर एक चुंबन लिया।
जैसे ही मैंने सिर उठाया, देखा, सामने बड़ा सा शीशा था जिसमें हम दोनों की
प्रतिच्छाया नजर आ रही थी। उस प्रतिच्छाया ने मुझे और उत्तेजित कर दिया। मैंने
दोनों हाथों में भरकर उसे कुर्सी पर से उठाया और वहीं दीवार के सहारे खड़ा कर
दिया। वहाँ से मिरर और साफ दिखाई दे रहा था।
अब मैं एक एक कर उसके कपड़े उतार रहा था और उसके भरे भरे शरीर की हर छवि मुझे
और उत्तेजित करती जा रही थी। उसकी गर्दन और गर्दन का तिल, उसके भरपूर वक्ष और
सुंदर निरावृत्त पीठ से होते हुए मैं उसके अधोवस्त्रों तक आया और धीरे से
उन्हें नीचे सरका दिया। अब वह पूरी तरह निरावृत्त खड़ी थी और मैं उसे ऊपर से
नीचे तक चूम रहा था। उसने एक बार अपने आपको ढकने की कोशिश की, पहले दोनों
बाँहों को क्रॉस कर अपने वक्ष को और फिर दोनों हथेलियों को क्रॉस कर अपने
अधोस्थान को। मैंने हल्के से प्रयास से उसके हाथ अलग किए और उसका गहरा आलिंगन
कर लिया।
अब वह भी उत्तेजित हो चुकी थी। उसने एक झटके से मुझे घुमाया और खुद दीवार से
सटकर खड़ी हो गई। अब मैं उसके सामने था। उसने अपना पूरा हाथ मेरे कुर्ते में
डाल दिया और मेरे सीने तथा पीठ को गहरे प्यार से सहलाने लगी। बीच बीच में वह
मेरे सीने, मुँह और गर्दन पर चुंबन भी लेती जाती थी। अचानक एक झटके से उसने
मेरा कुर्ता और फिर पैंट अलग कर दिया। अब मैं भी उसी की तरह था। पूरी तरह
निरावृत्त। वह मेरे शरीर से खेलने लगी।
हम दोनों शीशे के सामने खड़े थे और हमारी प्रतिच्छाया हम दोनों को और उत्तेजित
करती जाती थी। उसी रक्त उत्तप्त अवस्था में मैंने उसे दोनों बाँहों में उठाया
और पास ही पड़े सफेद बिस्तर पर ले जाकर लिटा दिया। उसके शानदार बुश से होते
हुए मैंने धीरे से प्रवेश किया। अब मैं लंबे लंबे प्रहार कर रहा था। वह पहले
से ही उत्तेजित थी। मेरे अनुमान के विपरीत उसने जल्दी ही गति पकड़ ली। अब वह
भी अपने नितंब पूरी गति से उछाल रही थी। और धीरे धीरे छोटी छोटी सिसकारी सी
छोड़ती जाती थी।
अब उसने हाथ बढ़ाकर मेरी गर्दन को घेरे में लिया और कसकर मुझे अपने सीने से
लगा लिया। मेरे घुँघराले बाल उसकी मुट्ठी में थे। और वह 'ओह', 'ओह विलियम्स',
'आई लव यू विलियम्स', 'प्लीज', 'प्लीज' जैसे शब्द मेरे कान में फुसफुसा रही
थी। हम दोनों ने अपनी गति बढ़ा ली। अब हम छोटे छोटे प्रहार कर रहे थे। मुझे
लगा जैसे कुछ छोटे छोटे विस्फोट हुए हों और इसी के साथ उसने एक गहरी सिसकारी
ली। उसका अधोस्थान प्रवाह से भर उठा। मैं कुछ क्षण पहले ही पूर्णता पर पहुँचा
था। उसने मुझे बिस्तर पर खींच लिया और 'ओह विलियम्स' कह कर करवट ले ली।
अब हम एक दूसरे के सामने मुँह किए लेटे थे। साँसें अभी पूरी तरह थमी नहीं थीं।
उसने 'यू आर वंडरफुल विलियम्स' कहा और मेरी पीठ को अपने घेरे में ले लिया।
कार्तिक मैं अपने प्रवचनों में यूनीसन की बहुत बात करता था। स्पिरिचुअल होने
का मतलब उस अज्ञात शक्ति के साथ एक हो जाने से लगाया करता था जो ब्रह्मांड में
व्याप्त थी। मैं इतना हल्का होने की बात किया करता था कि आकाश में स्थित उस
ईश्वर से मिलने उड़कर जा सकूँ। कार्तिक उस दिन मुझे अनुभव हुआ कि प्रेम वह
शक्ति है जो आपके दिमाग को हल्का, साफ और स्वच्छ कर दे। रति के साथ प्रेम ने
मुझे मुक्त कर दिया। मैंने बहुत ही प्यार से उससे पूछा,
'क्यों, कैसा रहा?'
वह उनींदी सी हो रही थी। उसने आँखें बंद किए हुए ही कहा,
'ओह विलियम्स'
और मेरे माथे पर गहरा चुंबन लिया।
मैं समझ गया। मुझे लगा हम दोनों सफेद पक्षियों के जोड़े की तरह हैं जो अभी अभी
खिड़की से उड़ेगा और आकाश की ओर निकल जाएगा।
उस दिन भी पूर्णिमा थी और चंद्रमा अपनी पूरी शीतलता के साथ खिड़की में
मुस्कुरा रहा था।
मैं बहुत हौले से उससे अलग हुआ, कुछ इस तरह कि उसकी मीठी नींद में खलल न पड़े।
वह पेट के बल लेटी हुई थी और उसने दोनों बाँहें सामने की ओर फैला रखी थीं।
उसके वे पृथुल नितंब, जिन्हें देखने की मेरी इच्छा पूर्णिमा की उस रात केशकाल
की घाटी में जागृत हुई थी आज पूरी तरह निरावृत्त मेरे सामने थे और मैं अपनी
इच्छा पूरी तरह संतुष्ट कर सकता था। मैं उन्हें देख सकता था, छू सकता था, चूम
सकता था।
मैं बिस्तर के एक किनारे बैठ गया और उसे देखने लगा। वह पूरी तरह निश्चिंत मीठी
नींद में जा चुकी थी। मैंने उसके बालों और सुंदर खुली पीठ पर हाथ फेरना शुरू
किया। और फिर उसके नितंबों पर हल्का सा चुंबन लिया। वह उठ बैठी और एक बार फिर
मुझे बिस्तर पर खींच लिया।
मैं एक बार फिर तैयार था। इस बार मैंने दूसरी ओर से प्रवेश किया। उसकी
उत्तेजना वैसी की वैसी ही थी। इस बार प्रेम कुछ और आदिम, कुछ और उग्र था। जब
ज्वार थमा तो उसने एक बार फिर मुझे गहरे आलिंगन में लिया और नींद में चली गई।
कमरे में ठंड बढ़ गई थी। मैंने एक चादर खींची और दोनों शरीरों को उससे ढक
लिया।
कार्तिक उस रात जब भी हमारी नींद खुली, हमने एक दूसरे से प्यार किया। ऐसा लग
रहा था जैसे हम जन्म भर के प्यासे हैं और आज के बाद हमें अवसर नहीं मिलेगा।
चाँद, रोशनी, खुशबू, अकेलापन, चाह, इच्छा, सफेद बिस्तर और एक दूसरे के प्रति
गहरे अनुराग की अनुभूति।
वह स्वर्गीय आनंद की रात थी।
जब सुबह मेरी नींद खुली तो रति मेरे पास नहीं थी।
जाने कब उठकर वह अपने कमरे में चली गई थी।
करीब सात बजे किसी ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी। वह जीवन के साथ चाय लिए मेरे
दरवाजे पर खड़ी थी।
'गुड मॉर्निंग फॉदर। बेड टी हाजिर है।'
'चलो वरांडे में बैठते हैं। वहाँ से बाहर का शानदार नजारा भी दिखेगा।'
उसने चाय बनाई। फिर कप उठाते हुए कहा,
'आपने कहा था कि आपको अनुभव नहीं है।'
'गलत। मैंने कहा था कि मैं विवाहित नहीं हूँ।'
'मतलब अनुभव कहीं और से प्राप्त किया हुआ है।'
'भई फॉदर बनने के पहले तो मैं फॉदर नहीं था।'
'और फॉदर बनने के बाद?'
'तुमने मेरी तपस्या भंग कर दी।'
'और मेरा भी तो विचलन हुआ?'
'क्या तुम्हें किसी तरह का अपराध बोध हो रहा है?'
'नहीं। और आपको?'
'फिलहाल तो मैं अपने आपको मुक्त महसूस कर रहा हूँ। ट्रूली इन अ स्टेट ऑफ
ब्लिस। तुम लोगों के ओशो ने भी तो ऐसा ही कुछ कहा था। ट्रू स्पिरिचुएलिटी इज
इन ट्रू लव।'
'मैं ओशो के बारे में ज्यादा नहीं जानती। पर जिसे मैं प्रेम करती हूँ, उससे
प्रेम करने में मुझे कोई अपराध बोध नहीं होता।'
मेरे दिल में गहरी टीस सी उठी। निश्चित ही मैं उसका पहला प्रेमी नहीं था। पर
मैंने ये कहना ठीक नहीं समझा। मैंने विषय बदलने के लिए पूछा,
'रति, तुमने अपने पति को क्यों छोड़ा?'
वह बहुत देर तक चुप रही शायद उसे ये सवाल अच्छा नहीं लगा था। फिर कुछ सोचकर
उसने कहा,
'वे असंवेदनशील आदमी थे।'
'बस, इसीलिए?'
'क्या ये कोई कम कारण है? जो व्यक्ति मुझे समझे बिना मुझ पर आधिपत्य जताना
चाहता हो, मैं उसे क्यों सहूँ?'
'तो मैं तुम्हें समझता हूँ?'
'आप संवेदनशील और प्यारे आदमी हैं हालाँकि अभी मुझे पूरी तरह नहीं समझते।'
ये कहते हुए हँसी एक बार फिर उसके चेहरे पर लौट आई। चाय समाप्त कर हम लोग लंबी
दूरी तक घूमने गए। हवा ठंडी और पुरसुकून थी। कभी कभी एक दूसरे का हाथ थामते और
कभी कभी एक दूसरे को बाँहों के घेरे में लेते हम दूर निकल गए। बातचीत जैसे
समाप्त हो गई थी। चुप्पी में ही बात शामिल थी।
दोपहर होते होते जब हम नारायणपुर पहुँचे तो सिस्टम जेस्सी दरवाजे पर ही मिल गई
थी। उसने हमें देखकर कहा,
'फॉदर, आपको तो कल रात आ जाना था।'
'हाँ, मगर लौटने में देर हो गई, तो मैंने केशकाल में रुकना ही मुनासिब समझा।'
सिस्टम जेस्सी ने अजीब सी निगाहों से मुझे देखा। मैं उसकी निगाह टाल गया और
काम में लग गया। हालाँकि खटका मुझे उसी दिन हो गया था।
कार्तिक, उन दिनों मैं अक्सर सोचता था कि क्या मानवीय प्रेम, ईश्वरीय प्रेम से
भी ऊँचा होता है। क्या वह ईश्वरीय प्रेम पर भारी पड़ सकता है? क्या दोनों एक
ही नहीं हैं?
रति का प्रेम मेरे लिए उस प्रसाद की तरह था जो एक लंबे समय की तपस्या के बाद
अचानक मेरी झोली में आ गिरा था। और मैं उस प्रसाद का एक कण भी त्यागना नहीं
चाहता था।
अक्सर किसी न किसी बहाने हम लोग आश्रम से दूर निकल जाते। कांकेर, केशकाल,
कोंडागाँव, जगदलपुर, दंतेवाड़ा, बचेली, सुकमा, कोंटा जैसी सभी जगहों पर हमारा
काम था। कहीं स्कूल, कहीं अस्पताल, कहीं वोकेशनल सेंटर और उन सबके साथ साथ
चर्च। मैं उन दिनों अद्भुत ऊर्जा से भरा हुआ था। मैं प्रेम भी कर रहा था और
काम भी। रति कभी कभी मजाक में कहती 'फॉदर आप बड़े 'कामी' पुरुष हैं' और मैं
जवाब देता, 'आई हैव टू बी।'
मैं हफ्तों रति के साथ दौरे पर रहता। ऐसा कोई गेस्ट हाउस नहीं था जहाँ हम न गए
हों। चित्रकोट, कुटुमसर, दंतेवाड़ा, आकाशनगर जैसा कोई झरना, कोई गुफा, कोई
बादलों का शहर नहीं बचा था जिसे हमने देखा न हो। बस्तर का अद्भुत और आदिम
सौंदर्य जैसे हमारे गहरे प्रेम के लिए एक लैंडस्केप की तरह फैला हुआ था,
जिसमें कहीं भी अपनी जिप्सी रोककर हम प्यार कर सकते थे। किसी भी झरने के
किनारे, किसी भी पेड़ के नीचे, किसी भी पहाड़ी की ऊँचाई पर, किसी भी घने
झुरमुट में।
धीरे धीरे मुझे उसके शरीर के सभी रहस्यों के बारे में मालूम पड़ गया। उसके
शरीर के तिल, उसके वे स्थान जहाँ छूने भर से वह उत्तेजित हो जाती थी, उसकी गति
और उसका मन जैसे मेरे सामने खुल चुका था। पर फिर भी कुछ व्यवधान थे जो अक्सर
मुझे चकित करते थे।
जैसे प्रवेश करते समय की उसकी हिचकिचाहट। वह शुरू में अपने आपको कुछ इस तरह
समेट लेती कि प्रवेश करने में कठिनाई महसूस होती थी। मैंने कई बार उससे इस
बारे में पूछना चाहा था पर कुछ सोचकर रह गया था।
उस दिन जब हम एक बार फिर केशकाल गेस्ट हाउस के सामने चाय का कप लिए वरांडे में
बैठे थे, सुबह की ताजा हवा पेड़ों से होकर हमें छूती हुई घाटी की तरफ जा रही
थी और चारों तरफ क्यारियों में रंगबिरंगे फूल तथा गुलाबी, पीले और सफेद बोगन
बेलिया नीरव सौंदर्य की सृष्टि कर रहे थे, मैंने उससे पूछा था,
'अच्छा एक बात बताओ, शुरू में तुम खुद को इतना समेट क्यों लेती हो? कोई
परेशानी है?'
वह चुप रही। उसने कुर्सी बगीचे की तरफ घुमा ली जिससे उसकी आँखें मुझे सीधे न
देख सकें। वह सामने पौधों, वहाँ से उठते हुए वृक्षों, उनके पीछे पसरी पहाड़ियों
और उसके ऊपर उठते सूरज की ओर देख रही थी। मुझे लगा कि वह उस बारे में बात नहीं
करना चाहती। मैंने कहा,
'ठीक है, अगर तुम नहीं बताना चाहतीं तो नहीं सही।'
'अब तक किसी को बताया नहीं। अपने पति को भी नहीं। पर आपको बताने की इच्छा होती
है। मैं बहुत छोटी थी, कोई तेरह चौदह साल की। आठवीं, नवीं कक्षा में रही
होऊँगी। परिवार बड़ा था और घर में लोगों का आना जाना लगा ही रहता था, विशेषकर
गर्मियों में घर के सब लोग, सारे रिश्तेदार इकट्ठे होते थे। गर्मियों की उस
दोपहर मैं अकेली घर में रह गई थी। सब लोग या तो बाजार गए थे या किसी और
रिश्तेदार के घर। बस वही घर पर रह गए थे। शायद जानबूझकर।'
'कौन?'
'मेरे एक रिश्तेदार ही थे। करीब चालीस पैंतालीस बरस के रहे होंगे। मैं अंदर
अपने कमरे में बैठी किताब पढ़ रही थी कि अचानक वे आ गए मुझे पकड़ लिया। मैंने
बहुत मना किया, छूटने की कोशिश भी की पर...'
'ओह!'
'बाद में मैंने माँ को बताना चाहा पर हिम्मत नहीं पड़ी। लेकिन उस घटना के बाद
मेरे दिल पर एक खराश सी पड़ गई। मैं गुस्से और आक्रोश के मारे एकदम चुप और
इंट्रोवर्ट सी हो गई। एक तरह से पुरुष मात्र से ही मुझे घृणा हो गई। बहुत
कोशिशों के बाद भी वह गुस्सा और घृणा मेरे दिल से नहीं जाते। धीरे धीरे बढ़ते
ही जाते हैं। एक तरह का मानसिक व्यवधान जैसा बन गया है, जब भी शुरुआत करती हूँ
एक नेचुरल हिचकिचाहट, अपने आपको समेट लेने का इंस्टिक्ट काम करता है...'
मुझे रति की वह बात सुनकर उस दिन गहरा धक्का लगा था। पर यह भी महसूस हुआ था कि
उससे बहुत ही संवेदनशीलता के साथ और गहरे प्रेम के साथ पेश आना चाहिए। वह धीरे
धीरे सामान्य हो रही थी। अब उसने कुर्सी फिर मेरी ओर घुमाते हुए पूछा,
'आपने मेरे पहले अनुभव के बारे में तो सुन लिया, अब अपने बारे में तो बताइए।'
'ऐसा कुछ खास बताने लायक नहीं।'
'फिर भी?'
'मेरी कजिन थी। अब जैसे जैसे मैं पूरे देश में घूमता हूँ इस कजिन सिंड्रोम को
अपने समाज में व्यापक रूप से फैला पाता हूँ। शायद इसलिए कि कजिन ही हैं जो
पहले पहल हमारे आसपास आती हैं, थोड़ी अधिक देरी के लिए। उसके साथ मेरा प्रेम
छत पर या पीछे के कमरे में चुंबन और कुछ ऊपरी टच और गो से आगे नहीं बढ़ पाया'
'गलत। तो फिर आपने यह व्यापक अनुभव कहाँ से पाया?'
'वह तो दूसरे प्रेम की देन है। कॉलेज के समय के प्रेम की। वह एक नर्स थी।
मुझसे कोई दस साल बड़ी। उसी ने मुझे इनीशियेट किया।'
'फिर?'
'फिर क्या? उसका तबादला हो गया और मैं 'फॉदर' बन गया।'
'अच्छा ही हुआ। अगर आप फॉदर नहीं बनते तो मुझे कैसे मिलते?'
उसने धीरे से कहा और मेरे कंधों पर सिर रख दिया।
धीरे धीरे हमारे प्रेम की खुशबू हमारे आश्रम में भी फैल गई, या ऐसा मुझे लगा
था। कम से कम सिस्टर जेस्सी तक खबर जरूर पहुँच गई थी क्योंकि वह अक्सर मुझसे
उखड़ी उखड़ी नजर आती। कभी कभी शिकायत भी करती,
'फॉदर आजकल आप आश्रम को समय कम दे रहे हैं। उस दिन वोकेशनल केंद्र के छात्र भी
शिकायत कर रहे थे कि वहाँ पढ़ाई ठीक से नहीं हो रही। हेल्थ प्रोग्राम को भी
देखने की जरूरत है।'
'आई विल लुक इन टू इट सिस्टर।'
'फील्ड से भी शिकायत है कि आप जाते तो हैं पर पूरा समय नहीं देते। एंड रति।
हाउ हैज शी बिकम सो इंपॉर्टेंट?'
'सिस्टर वह मेरी असिस्टेंट है बस!'
मैंने जवाब तो दे दिया था पर समझ गया था कि सिस्टर जेस्सी बुरा मान गई है। वह
आश्रम की पुरानी कार्यकर्ता थी और बहुत जिम्मेदार व्यक्ति भी। हमारे काम को
फैलाने में उसका बड़ा हाथ था, आर्चबिशप भी उससे बात करते थे। मैंने सोचा मुझे
कुछ करना होगा।
उस बार की साप्ताहिक बैठक में मैंने रति के साथ सिस्टर जेस्सी को ले जाना भी
तय किया। बैठक जगदलपुर में थी। दो गाड़ियों में हम लोगों के साथ कुछ और सामान
वगैरह भी था। मैंने एक हेल्थ कैंप का आयोजन भी कर लिया था और डॉ. सेम्युअल भी
हमारे साथ जा रहे थे।
मीटिंग और हेल्थ कैंप बहुत अच्छी तरह संपन्न हुए। आज मैंने कमान सिस्टर जेस्सी
के हाथ में दे रखी थी। उसने सभी कार्यकर्ताओं से बहुत अच्छी तरह बात की। उनसे
काम की प्रगति के बारे में जाना और अगले तीन महीनों का एक्शन प्लान बनाया। इस
बीच डॉ. सेम्युअल बहुत से मरीजों को देख रहे थे। कई गाँवों के लोगों ने डॉक्टर
को अपने गाँव में बुलाने की माँग रखी।
मीटिंग खत्म होते होते शाम हो गई थी। मैंने काम समेटते हुए कहा,
'सिस्टर कॉल इट अ डे नाउ। चलिए हम लोग चाय पिएँ, फिर आप और डॉक्टर सेम्युअल एक
गाड़ी में निकलिएगा। मैं जरा कोंडागाँव रुकते हुए आऊँगा।'
रति चाय पीने के लिए नहीं रुकी थी। वह 'अभी आती हूँ' कह कर गेस्ट हाउस की तरफ
चली गई थी। सिस्टर जेस्सी के जाने के बाद मैंने गेस्ट हाउस में उसे जा पकड़ा।
'क्या बात है, अचानक क्यों चली आई?'
उसने कुछ कहा नहीं। चुपचाप जाकर जीप में पीछे बैठ गई।
मैं परेशान हो गया था। मैंने पीछे पीछे जाकर पूछा,
'क्या तबियत खराब है?'
उसने कुछ तीखेपन के साथ जवाब दिया,
'फॉदर चलिए। वापस नारायणपुर चलिए।'
मैंने स्टीयरिंग पर बैठते हुए कहा,
'आखिर बात क्या है, कुछ बताओगी भी?'
'बात भी उसी कुतिया से पूछिए।'
मुझे अचानक उसकी भाषा की उग्रता पर आश्चर्य हुआ।
'किससे? आखिर आज ये किस तरह की भाषा बोल रही हो?'
'मैं जब गुस्सा होती हूँ तो इसी तरह की भाषा बोलती हूँ। दिनभर जिस कुतिया के
पीछे सिस्टर-सिस्टर कहकर लगे थे उसी से पूछो।'
मैंने अपने क्रोध पर काबू रखा। हो सकता है रति को उपेक्षित महसूस हुआ हो और वह
पीछे की बात न जानती हो।
'रति सिस्टर जेस्सी के बारे में तुम गलत भाषा का प्रयोग कर रही हो। वह आश्रम
की सीनियर कार्यकर्ता है। सिस्टर है।'
'एंड हू एम आई? क्या मैं तुम्हारी वाइफ हूँ? या सिस्टर? गो, फक दैट ब्लडी
सिस्टर...'
गुस्से के मारे मुझसे कुछ बोलते नहीं बना। मैंने अचानक जीप स्टार्ट की और तेजी
से जगदलपुर से बाहर निकल आया।
सिर्फ एक दिन मैंने इसे पूरा महत्व नहीं दिया तो ये इस तरह की भाषा पर उतर आई?
क्या ये मेरी मजबूरी नहीं जानती, नहीं समझती? आखिर मैं एक आश्रम का हेड हूँ,
सभी कर्मचारियों को साथ लेकर चलना मेरा काम है। दूसरों से बात करने, उन्हें
महत्व दे कर उनसे काम लेने से क्या इसके प्रति मेरा प्रेम कम हो जाएगा? और
इतना भी पजेसिव क्या होना? प्रेम को तो आपको और मुक्त कर सकना चाहिए, सारी
दुनिया को अपने में समेटने लायक बनाना चाहिए? फिर इस छोटेपन का, क्षुद्रता का
क्या मतलब है?
महानदी का पुल निकल गया था। थोड़ी ठंडी हवा लगने से मेरा दिमाग शांत हुआ।
मैंने सोचा, आखिर मेरे प्रति गहरे प्रेम के कारण ही इसने ऐसा कहा। मुझे बुरा
नहीं मानना चाहिए। मैंने किनारे पर गाड़ी रोकते हुए कहा,
'अच्छा अब गुस्सा कम हो गया हो तो आगे आ जाओ।'
वह अभी भी गुस्सा थी। उसने कहा,
'नहीं मैं यहीं ठीक हूँ।'
'मुझे लगा था मैं तुम्हें जानता हूँ। शायद मैं गलत था।'
'मैंने कहा था न, आप मुझे नहीं जानते।'
'हाँ। तुम्हारे व्यक्तित्व का ये पक्ष मेरे लिए बिल्कुल अनजाना था।'
'आई एम पजेसिव। एक्सट्रीमली पजेसिव। मेरे रास्ते में अगर कोई आएगा तो मैं उसे
गोली मार दूँगी। आई विल किल हर।'
'शायद ऐसी जरूरत न पड़े।'
वह कुछ नहीं बोली थी। मैंने केशकाल गेस्ट हाउस पर जो हमारा पुराना अड्डा था,
गाड़ी रोकी थी। कहा,
'आओ थोड़ा फ्रेश हो लो। फिर चलेंगे।'
पर वह नहीं उतरी थी। न ही उसने मेरी बात का कोई जवाब दिया था। बस घुटनों में
सिर डाले चुपचाप बैठी रही थी। मैंने जीवन से दो कप गर्म चाय बनवाई और खुद उसके
पास लेकर गया।
'अच्छा चाय तो पी लो। तुमने शाम से कुछ खाया पिया नहीं है।'
'नहीं पिऊँगी।'
कुछ देर चिरौरी करने के बाद जीवन चाय वापस ले गया था।
'तो ठीक है। मैं भी नहीं पियूँगा।'
मैंने कहा और गाड़ी वापस नारायणपुर की तरफ मोड़ दी थी।
आश्रम में पहुँचकर उसने एक झटके से जिप्सी का पिछला दरवाजा खोला था, और उतरकर
सीधे अपने कमरे में चली गई थी। मुझसे उसने 'गुड नाइट' तक नहीं कहा।
सुबह जेस्सी ने बताया, रति अपने कमरे में नहीं है।
मैं करीब सात दिन तक उसे ढूँढ़ता फिरा था।
मैं उन सभी गाँवों में गया जहाँ वह जाया करती थी, उन सभी स्थानों पर जहाँ हम
साथ साथ जाया करते थे, उन समूहों में जहाँ उसका परिचय था, उन लोगों के बीच
जहाँ वह मिल सकती थी।
पर वह नहीं मिली।
मुझे पहली बार समझ आया कि प्रेमी की बेचैनी किसे कहते हैं। सुबह आँख खुलते ही
उसकी तस्वीर मेरी आँखों के सामने आ जाती। जी धक् से रह जाता। और आँखें खुलने
के लिए सुबह का इंतजार नहीं करतीं। कभी दो बजे रात, कभी तीन बजे मैं अचानक एक
झटके के साथ उठ जाता। उसके बारे में सोचता। उसके साथ बिताए दिनों की याद दिल
में गहराती जाती।
कहाँ होगी वह इस समय! अचानक क्यों चली गई? क्या एक छोटी सी बात का उसने इतना
बुरा मान लिया? तो फिर हमारे प्रेम का क्या हुआ? क्या उसका आधार इतना कमजोर
था?
सुबह होते ही मैं उम्मीद करता कि शायद वह आ जाए। वैसे ही लकड़ी की पट्टियों
वाले दरवाजे को धकेल कर मुस्कुराती, पर वह नहीं आती।
मैं आ नौ बजे करीब फिर निकल जाता अपनी जीप में। इधर उधर भटकता फिरता बदहवास।
खाना पीना जैसे बिल्कुल भूल गया था। कभी लगता कि अभी अभी मैंने उसे देखा है।
पर नहीं, वह एक छाया सी होती। छह सात दिनों में ही मेरी हालत खराब हो गई। मैं
बीमार पड़ गया।
आवें दिन सिस्टर जेस्सी ने एक लिफाफा लाकर मेरे हाथ में दिया। कहा एक लड़का दे
गया है। उसी का पत्र था। मैं उसकी लिखाई पहचानता था। मैंने काँपते हाथों से वह
पत्र खोला,
'प्रिय विलियम्स,
आज तुम्हें फॉदर नहीं कहूँगी। अब मैं तुम्हारे आश्रम में नहीं।
मैंने कहा था न, तुम मेरे बारे में सब कुछ नहीं जानते। कोई किसी के बारे में
सब कुछ नहीं जान सकता।
फिलहाल मैं अपने प्रेम के बारे में कुछ नहीं कह रही। मैं मानती हूँ कि मेरे
जीवन में कुछ जो सबसे सुखद और सुंदर क्षण आए, वे तुम्हारे साथ बिताए क्षण थे।
पूर्णिमा की रातों में किया गया हमारा उन्मुक्त प्रेम, वनों और झुरमुटों में
किया गया खूबसूरत प्यार और तुम्हारे साथ रहने तथा घूमने की स्वच्छंदता ने मेरे
पैरों के नीचे से जमीन खींच ली थी। मैं जैसे हवा में उड़ने लगी थी। तुम्हारा
साँवला, गीला, सुंदर शरीर मेरे मन में बस गया था और उसकी याद मुझे वैसे ही
बेचैन किए रहती थी जैसे आज शायद तुम्हें मेरी याद कर रही हो। विलियम्स, मैं
इसे कभी भूल नहीं पाऊँगी। आई लव यू एंड आई विल नॉट फॉरगेट दिस एक्सपीरियंस।
पर जो बात तुम नहीं जानते वह ये कि मैं नारायणपुर दलम् की सदस्य हूँ और मुझे
तुम्हें और तुम्हारे आश्रम के बारे में जानने के लिए भेजा गया था। अगर तुम
सरकारी आदमी होते तो अब तक शायद खत्म कर दिए जाते। पर अब? सवाल ये है कि दल
तुम्हारा क्या करे और मैं जो तुम्हारे प्रेम में पड़ चुकी हूँ, तुम्हारा क्या
करूँ?
सिस्टर जेस्सी ने जैसे तुम्हें याद दिलाया कि तुम यहाँ एक मिशन पर हो वैसे ही
उन्होंने मुझे भी नींद से जगाया और याद दिलाया कि मैं भी एक काम पर थी जो कि
अब पूरा हो चुका है। हम लोग तुम्हारे बारे में सब कुछ जान चुके हैं और मेरी अब
आश्रम में कोई जरूरत नहीं। अब शायद दलम् मुझे कहीं और भेजे या मैं खुद ही कुछ
दूसरा काम करना तय करूँ। पता नहीं।
पर एक बात तय है। जैसा हमें तुम्हारे बारे में और तुम्हारे काम के बारे में
मालूम है वैसा तुम्हारे आर्चबिशप को भी अब तक हमारे बारे में पता चल चुका
होगा। मुझे लगता है अब शायद बहुत दिन तक तुम भी यहाँ नहीं रह पाओ।
जीवन इसी तरह चलता है। तुम मुझे ढूँढ़ना बंद कर दो। इसमें सफल नहीं हो पाओगे।
मुझसे भी तुम्हारी बेचैनी सहन नहीं होती और मैं कमजोर पड़ना नहीं चाहती।
हम अलग होते हैं एक दूसरे की स्मृतियों में जीवित रहने के लिए,
रति।'
कार्तिक, उसके इस पत्र ने मेरी गहरी बेचैनी और डिप्रेशन को एक मीठी सी कसक में
बदल दिया। उसके प्रेम के इजहार ने मुझे आश्वस्त किया। बट आई आल्सो फेल्ट सो
स्टुपिड। मुझे उसके दलम् का सदस्य होने के बारे में कुछ भी पता नहीं चल पाया
था। या मैंने प्रेम में अविश्वास करना सीखा ही नहीं था, शायद इसीलिए मैं उसका
मन जीत पाया। ये स्टुपिडिटी, ये हास्यास्पदता क्या सच्चे प्रेम का ही हिस्सा
नहीं?
पहली बार मैं उसके दिमाग में कुछ गहरे प्रवेश कर पाया। शी वॉज अ वूमन ऑफ
एक्स्ट्राऑर्डिनरी ब्रिलियंस। लोगों और रिश्तों की उसकी समझ बहुत गहरी, बहुत
सच्ची थी। क्या उसने ठीक ही नहीं कहा था कि आर्चबिशप को भी हमारे बारे में
मालूम पड़ चुका होगा?
करीब दो दिन बाद ही आर्चबिशप का पत्र आ गया।
'प्रिय फॉदर विलियम्स,
आपको चर्च ने नारायणपुर एक मिशन के साथ भेजा था। फॉदर जेम्स की छवि खराब हो
जाने के बाद वहाँ एक अच्छे और सशक्त कार्यकर्ता की जरूरत थी। आपके बायोडाटा को
देखकर मैंने ये विशेष जिम्मेदारी आपको सौंपी थी।
मुझे ये कहते हुए दुख है कि इस काम में आप असफल साबित हुए हैं। अच्छी शुरुआत
के बाद आपकी गतिविधियाँ जिस दिशा में गईं वह चर्च के प्रतिनिधि की गरिमा के
अनुरूप नहीं था। मैंने जाने से पहले भी आपको नारायणपुर क्षेत्र में नक्सलवादी
गतिविधियों के बारे में सचेत किया था। लेकिन जो महिला आपके बहुत निकट हैं वे
इसी दलम् की सदस्य हैं और आपको इस बात का अनुमान भी नहीं है।
उपरोक्त परिस्थितियों में मेरे सामने इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि आपको
वापस बुला लिया जाए।
आपको तत्काल प्रभाव से दिल्ली बुलाया जाता है। कृपया अपना काम सिस्टर जेस्सी
को सौंप कर एक सप्ताह के भीतर दिल्ली में मुझे रिपोर्ट करें।
आपका,
आर्चबिशप मकारियोस'
मैं समझ गया। सिस्टर जेस्सी अपना काम करती रही थी। मैंने आर्चबिशप का पत्र उसे
दिखा दिया था और कहा था कि वह चार्ज लेने की तैयारी कर ले। आर्चबिशप ने मुझे
हफ्ते भर का समय दिया था पर मैं दो दिनों में ही तैयार हो गया। आखिर रति के
अलावा मेरा वहाँ था ही क्या?
बार बार उसकी याद मुझे सालती थी। फिर लगता था कि मैं अपने कर्तव्य का ठीक से
निर्वाह नहीं कर पाया।
फिर मैंने तय किया कि किसी को अपने मन की बात बताऊँ और तुम्हें पत्र लिखने का
ख्याल मेरे मन में आया।
कल सुबह मैं यहाँ से दिल्ली के लिए निकल जाऊँगा। फिर पता नहीं तुमसे कब
मुलाकात हो? हो भी या नहीं? शायद मुझे देश से बाहर भेज दिया जाए। क्या पता?
फिलहाल तो ये पत्र तुम्हें लिखकर मैंने अपना मन हल्का कर लिया है। ये मेरा
कन्फेशन है। आशा है तुम समझ लोगे कि ईश्वर में मेरी आस्था कम नहीं हुई है पर
कभी कभी प्रेम ईश्वर का स्थान ले लेता है और आदमी उसके सामने बेबस हो जाता है।
तुम्हारा ही
फॉदर विलियम्स।
पुनः - जाने उसे कैसे मालूम पड़ गया था कि मुझे नारायणपुर छोड़ने का आदेश मिल
गया है। रात में जब तुम्हारा पत्र समाप्त कर मैं खिड़की के किनारे अपने बिस्तर
पर उसी के बारे में सोचते लेटा था तो अचानक खिड़की खुली थी और वह, किसी सुखद
स्वप्न की तरह मेरे कमरे में आ गई थी। 'तुम?' मैंने आश्चर्य से पूछा था। और
उसने कहा था 'हाँ, तुम्हें ऐसे ही थोड़े जाने दूँगी।' फिर हमने पागलों की तरह
प्यार किया था। एक बार, दो बार, तीन बार...। सुबह होने से कुछ देर पहले जब
मैंने अंतिम बार उसकी आँखों और चेहरे को छुआ तो मुझे लगा कि वह कुछ गीला था।
शायद आँसुओं से तर। अचानक मुझे लगा कि मैं भी रो रहा हूँ। एक पैंतीस वर्ष का
परिपक्व व्यक्ति, जिसने दुनिया देखी थी, प्रेम में व्याकुल होकर फूट फूट कर रो
रहा था। अचानक उसने चुप होते हुए कहा था, 'ये क्या विलियम्स?' मैंने चेहरा
दूसरी ओर घुमा लिया था। जब तक मैं सम्हलता उसने खिड़की के उस पार जाते हुए कहा
था, 'अलविदा विलियम्स, आई विल नेवर फॉरगेट यू।' मेरे हाथ बढ़े के बढ़े रह गए
थे। वह छाया को छूने की कोशिश थी।
अब मैं इस पत्र को अंतिम रूप से समाप्त करता हूँ। मैं निश्चिंत हूँ कि मैंने
तुम्हें सब कुछ बता दिया। अब मैं शांति से जा सकता हूँ।
विलियम्स।'
कार्तिक ने विलियम्स का पत्र समाप्त कर अपना चेहरा उठाया।
आश्रम वैसा का वैसा ही था। सामने गुलमोहर, चंपा और हरसिंगार के पेड़ लहलहा रहे
थे। वन की वही मादक सुगंध कहीं दूर से चली आ रही थी। आश्रम की बगिया और लॉन
वैसे ही थे सुंदर-सुव्यवस्थित। दूर वोकेशनल सेंटर में गतिविधियाँ उसी ब्रिस्क
गति से जारी थीं। आश्रम का ऑफिस, किचन तथा ऑडीटोरियम लोगों की आवाजाही से
जीवंत था। बस फॉदर विलियम्स वहाँ नहीं थे।
कार्तिक के दिल पर पीड़ा की एक लकीर सी खिंच गई। अचानक उसकी इच्छा हुई कि वह
विलियम्स और रति को देख सके, उनसे बात कर सके। प्रेम की उस कोमल, थरथरा देने
वाली अनुभूति को महसूस कर सके जो किसी भी नए युगल को देखने पर आपके मन में
व्याप जाती है।
सुबह की गुनगुनी धूप में उसने पैर फैलाए और रेलिंग पर रख लिए। रास्ते की थकान
और विलियम्स के पत्र की मानसिक थकान के कारण शायद उसकी झपकी लग गई। वह आधा
आश्रम में था और आधा किसी और दुनिया में।
पेड़ों की लंबी कतारें और साँप की तरह बल खाता पहाड़ी पर चढ़ता रास्ता। ऊपर एक
मंदिर का शिखर जिस पर पताका लहरा रही थी। वह ऊपर चढ़ता जा रहा था। एक अनजान सा
भय मन में व्याप्त था। जैसे कोई जंगल से निकल कर उसे रोक लेगा। या शायद
लड़ाकों का कोई झुंड तलवारें खींच कर अचानक उसके सामने आ जाएगा। फिर वह घिर
जाएगा, आगे नहीं बढ़ पाएगा। उसने अपनी गति बढ़ा ली और शिखर की तरफ दौड़ने लगा।
अचानक एक स्त्री उससे आगे थोड़ी दूर पर वन के बीच से निकली और ऊपर शिखर की तरफ
जाने लगी। उसका पल्ला हवा में लहलहा रहा था। कार्तिक दूर से भी उसकी उत्तेजक
खुली पीठ को देख पा रहा था। अचानक कार्तिक उस स्त्री के पीछे पीछे भागने लगा।
न जाने क्यों उसे लगा कि वह रति ही थी। स्त्री के पीछे-पीछे कार्तिक ने भी
अपनी गति बढ़ा दी। मंदिर चार दीवारी से घिरा था। स्त्री के पीछे पीछे कार्तिक
भी चार दीवारी में घुसा और घुसते ही दंग रह गया। मंदिर के सामने बड़ा सा
सीढ़ीदार कुंड बना था जिस में लबालब जल भरा था। उस कुंड में बहुत सी स्त्रियाँ
नहा रही थीं। और किसी के भी शरीर पर वस्त्र नहीं था। कार्तिक मंदिर के द्वार
पर कि गया। किसी ने भी उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। रति भी उन्हीं स्त्रियों में
शामिल हो गई थी। कार्तिक की इच्छा हुई कि वह उसके पास तक जाकर उसे देखे। वह
दीवार से सटे कुंड के उस ओर पहुँचा जहाँ रति नहा रही थी। अब वह उसकी खुली हुई
पी देख सकता था। उसके भारी नितंब कार्तिक को उत्तेजित किए दे रहे थे। उसने
धीरे धीरे कुंड की सीढ़ियों की ओर बढ़ना शुरू किया। अचानक उस स्त्री ने पलट कर
कार्तिक की ओर देखा। कार्तिक के मुँह से आश्चर्य की आवाज निकली, उमा, तुम...'
अचानक उसने सुना कोई कह रहा था।
'कार्तिक उठो। खाना खाने चलो।'
कार्तिक की तंद्रा टूटी। वह अपने स्वप्न से बाहर आया, सिस्टर जेस्सी सामने
खड़ी थीं। कार्तिक ने कहा,
'आप चलिए सिस्टर, मैं अभी आता हूँ।'
खाना खाते समय कार्तिक ने सिस्टर जेस्सी से कहा था,
'क्या आपकी जीप मुझे कुछ दिनों के लिए मिल सकती है?'
'क्यों नहीं? आजकल तो हमारे पास दो-दो गाड़ियाँ हैं। एक तुम ले जाना मगर जाओगे
कहाँ?'
'यूँ ही। थोड़ा बस्तर घूमूँगा। इतनी दूर आया हूँ तो जरा घूम फिर कर ही जाऊँ।'
'जरूर। मैं इंतजाम कर दूँगी।'
फिर कार्तिक अगले चार पाँच दिन तक बस्तर में घूमता फिरा था। वह उन सभी जगहों
पर गया जिनका जिक्र फॉदर विलियम्स ने अपने पत्र में किया था। वह केशकाल के
गेस्ट हाउस से लेकर, कोंडागाँव, बस्तर, जगदलपुर और दंतेवाड़ा के रुकने के
ठिकानों पर यूँ ही भटकता रहा। उसे ऐसा लगता था कि फॉदर विलियम्स शायद उसके
साथ-साथ हैं और रति भी। अपनी वही मुस्कराहट बिखेरते, जिसने विलियम्स को मोहित
कर लिया था। वह केशकाल घाटी के व्यू पॉइंट पर घंटों खड़ा रहा, मंदिर के पटिये
पर बैठकर उसने चाय पी, वह कांकेर की पहाड़ी पर चढ़कर ऊपर स्थित मंदिर तथा
तालाब तक गया, जगदलपुर में राजा के महल को निहारता रहा और दंतेवाड़ा में देवी
के मंदिर को देखने गया। लौटने से पहले वह बचेली, आकाश नगर तथा कोंटा तक गया और
सुकमा पर रुका, जहाँ शायद विलियम्स और रति अक्सर रुका करते थे। वह एक अजीब
छाया के पीछे भागता रहा था। आखिर थक जाने के बाद उसने सिस्टर जेस्सी को
धन्यवाद कहा, विलियम्स का पत्र किसी बहुमूल्य वस्तु की तरह अपनी अटैची के नीचे
वाले खाने में रखा और रायपुर आकर वापसी की ट्रेन पकड़ ली।
लौटते समय सारी रात वह एक ही बात सोचता रहा था। रति आखिर किसकी तरह थी? वह
इतनी पहचानी सी क्यों लग रही थी? कौन था उसके निकट जो रति की तरह था, बिल्कुल
उसकी तरह।
फिर अचानक उसे अपना सपना याद आया। आश्रम के वरांडे में बैठे बैठे दिखने वाला
सपना। आह, उमा। क्या रति कई मायनों में उमा की तरह नहीं थी? वही जिद, वही
रहस्यमयता, वही अतिवादी रुझान, वही चोट पहुँचाने की प्रवृत्ति। अचानक उसने
अपने आपको फॉदर विलियम्स की जगह पाया। बेबस। तो क्या, तो क्या वह भी उमा से...
उसने सिर झटककर उस विचार को अपने दिमाग से बाहर किया। पर फिर सोचा, एक बार वह
उमा से पूछेगा जरूर कि क्या वह कभी नारायणपुर गई है?
कार्तिक जब लौटकर अपने ऑफिस पहुँचा तो वहाँ का नजारा कुछ बदला बदला सा था।
नताशा का टेबल अपनी जगह पर नहीं था। उमा अलबत्ता अपनी जगह पर बैठी थी और अखबार
पढ़ रही थी। नरेंद्र रोज की तरह प्रशासनिक व्यवस्था में व्यस्त था। फिर भी
ऑफिस कार्तिक को खाली खाली लगा।
उमा ने उसे दूर से देख लिया था। उसने आवाज लगाते हुए कहा,
'आइए आइए कार्तिक जी। माहौल कुछ बदला-बदला लग रहा है?'
'हाँ लग तो रहा है। मामला क्या है?'
'आपके पीछे क्रांति हो चुकी है।'
'कैसी क्रांति?'
'तुम्हारे पीछे राष्ट्रीय समिति की बैठक की गई थी। बैठक यहीं अपने ऑफिस में
हुई। निर्णय लिया गया कि संगठन के काम को स्रोत केंद्र से अलग किया जाए और उसे
नताशा सम्हाले। संगठन के लिए एक नई जगह भी ले ली गई है।'
'और नताशा वहाँ चली गई है?'
'हाँ, क्यों तुम्हें दुख हो रहा है?'
कार्तिक ने उसकी बात में छुपे व्यंग्य को समझते हुए भी कहा,
'किसी ने विरोध नहीं किया?'
'सब कुछ राष्ट्रीय समिति के नाम पर किया गया। तुम शायद विरोध करते पर उन्होंने
देख लिया था कि तुम लंबी छुट्टी पर हो। यही समय मुफीद होगा।'
'जो भी हुआ अच्छा नहीं हुआ। इससे संगठन को नुकसान होगा।'
'मैं तुमसे कहती रही हूँ कि यहाँ संगठन की किसी को चिंता नहीं है। सब अपने
व्यक्तिगत हित साधने में लगे हैं।'
'मैं ऐसा नहीं मानता। कम से कम नताशा के मामले में तो नहीं, फिर प्रदेश का
नेता तो मैं था। मुझसे पूछ तो लेना चाहिए था।'
'तुम अपना भ्रम बनाए रख सकते हो। पर माफ करना कार्तिक। मुझे लगता है तुम भोला
भंडारी हो। जिसके सिर पर हाथ रखते हो वही भस्मासुर बन जाता है। और तुम्हें
राजनीति बिल्कुल समझ नहीं आती। नताशा संगठन का प्रमुख बनना चाहती है और
तुम्हें हटाए बिना या तुमसे दूर हटे बिना ये संभव नहीं। राष्ट्रीय समिति को भी
कोई कमजोर आदमी चाहिए प्रदेश में। सो उन्हें भी नताशा सूट करती है। इसमें तुम
कहाँ आते हो?'
कार्तिक को लगा शायद उमा सच कह रही थी। पर नताशा अगर ऐसा चाहती थी तो उससे बात
कर सकती थी। उसने कभी किसी को आगे बढ़ने से नहीं रोका। उसने दुख के साथ उमा से
कहा,
'तुम काफी खुश दिखाई दे रही हो?'
'क्यों नहीं? आई एम द विनर।'
विनर? कैसी विनर? क्या केंद्र में अब उसका एकाधिकार चल सकेगा इसलिए? या वह
कार्तिक के अधिक निकट आ सकेगी इसलिए? उसने कुछ क्षोभ के साथ कहना चाहा - इस
खेल का कोई विजेता नहीं है, एवरी वन इज अ लूजर, और ये हम सब बाद में समझेंगे।
पर कहा नहीं। उसे मालूम था, उमा उसकी बात नहीं मानेगी।
कार्तिक उठा और अपनी टेबल पर आ गया।
नरेंद्र चाय लेकर कार्तिक के सामने आकर बैठ गया। उसने बात शुरू करते हुए कहा,
'सब खेल लक्ष्मण सिंह का है।'
'कैसे?'
'वह एक ओर तो तुम्हारे और नताशा के बीच में और दूसरी ओर तुम्हारे और राष्ट्रीय
समिति के बीच में दूरियाँ बढ़ाना चाहता है। उसी ने ये हवा बनाई है कि तुम
लोगों को संगठन के काम से रोकते हो और इसीलिए संगठन का विस्तार नहीं हो पा रहा
है। बैठक में भी उसने यही कहा कि अगर संगठन मजबूत बनाना है तो उसे स्रोत
केंद्र से, यानी तुमसे, दूर ले जाना होगा।'
'और बाकी लोगों ने क्या कहा?'
'राष्ट्रीय समिति तो चाहेगी ही कि तुम्हारी शक्ति थोड़ी कम हो। उन्हें बस
राज्य में आधार की तलाश थी सो लक्ष्मण सिंह ने उन्हें दे दिया। जाने अनजाने
नताशा भी उधर ही जाती दिखती है।'
'नरेंद्र मुझे लगने लगा है कि दोष लक्ष्मण सिंह, नताशा, सरफराज, तुम्हारा या
मेरा उतना नहीं है जितना खुद राष्ट्रीय समिति का है। स्वयं राष्ट्रीय समिति
में अलग-अलग समूह बन गए हैं और हर समूह को राज्यों में अपने-अपने फॉलोअर
चाहिए। केंद्रीय पार्टी या तो रोकना नहीं चाहती या रोक नहीं पा रही। अगर हम
समझदार हैं तो हमें इस खेल को समझना चाहिए और अपने प्रदेश में एकता बनाए रखनी
चाहिए, पर हमारे यहाँ तो खुद परियोजनाएँ लेने की होड़ लगी है...।'
'क्या संगठन इसी तरह से बनाया जाता है?'
'उन्हें लगता है वे बना लेंगे।'
कार्तिक ने आगे कुछ नहीं कहा।
कार्तिक भीतर तक उदास था। उसे राष्ट्रीय समिति में होने वाली कड़वाहट भरी
बैठकों की याद आई जहाँ एक दूसरे को खत्म करने के ताने बाने बुने जाते थे, हमले
किए जाते थे, परियोजनाओं की लीडरशिप अपने हाथ में रखने के लिए नेतागण किसी भी
दूरी तक जा सकते थे। अब ये बीमारी नीचे तक आ गई थी। केरल, बंगाल और दिल्ली के
शक्तिशाली धड़े थे जिनके पीछे छुप जाना कमजोर राज्यों की नियति थी। एक बार फिर
वह दोराहे पर था। अब तक के सभी प्रसंगों में उसने छोड़ना और रास्ता बदलना ठीक
समझा था। उसे लगता था कि संगठनों पर कब्जे की राजनीति एक बचकानी और घटिया
राजनीति है और वह तमाम असुरक्षित या कि अक्षम लोगों द्वारा खेली जा रही है।
उसे नई शुरुआत करने में कभी भी हिचकिचाहट नहीं हुई थी, और उसने नए काम करके
दिखाए भी थे। तो क्या क्षमता, प्रदर्शन, नव प्रवर्तन, विचार की कोई ताकत नहीं
थी और क्या वे सब लॉयल्टी के सामने बौने पड़ जाते थे? क्या एक बार फिर उसे
लड़ना पड़ेगा?
उसने नरेंद्र से कहा,
'सबको नीचे बैठक कक्ष में इकट्ठा करो। जरा देखें कौन क्या कर रहा है?'
नरेंद्र उठकर सबको खबर करने चला गया।
उमा शायद इसी का इंतजार कर रही थी। उसने कार्तिक के सामने बैठते हुए कहा,
'उदास हो?'
'हाँ, कुछ कुछ!'
'चिंता मत करो, हम सब ठीक कर लेंगे। ये बताओ तुम्हारी छुट्टी कैसी रही?'
'ठीक ही थी। जिससे मिलने गया था वह तो मिला ही नहीं।'
'अचानक ही चले गए थे। कहाँ गए थे?'
'नारायणपुर।'
वाकई ऐसा था या शायद कार्तिक को ही लगा कि अचानक उमा की आँखों में एक चमक आई
और चली गई। उसने पूछा,
'अच्छा, नारायणपुर? वहाँ कहाँ?'
'फॉदर विलियम्स के आश्रम में।'
इस बार संकेत ज्यादा निश्चित था। उमा ने अपनी कुर्सी तिरछी की और खिड़की के
बाहर देखने लगी। कार्तिक ने पूछा,
'क्यों, कभी नारायणपुर गई हो?'
उसने खिड़की से बाहर देखते हुए ही कहा,
'नहीं, कभी नहीं।'
'फॉदर विलियम्स मेरे अच्छे दोस्त थे। करीब दो तीन साल पहले उनके साथ लंबा समय
गुजारा था। थोड़ी दोस्ती-थोड़ी लड़ाई। फिर चिट्ठी पत्री चलती रहती थी। सोचा एक
बार फिर उनके साथ बस्तर देखूँगा और उनका काम भी। पर उन्हें वापस दिल्ली बुला
लिया गया। यू नो, ही लेफ्ट एन इंटरेस्टिंग लेटर फॉर मी। कभी तुम्हें
दिखाऊँगा।'
उमा ने अचानक उठते हुए कहा।
'लेटर से याद आया। नताशा भी तुम्हारे लिए एक लिफाफा छोड़ गई है। कह रही थी
कार्तिक से कहना पढ़ ले। इंपॉर्टेंट है।'
फिर उसने अपनी दराज में से लाकर एक लिफाफा उसे दिया।
नरेंद्र ने कहा,
'सब लोग बैठे हैं, तुम्हारे इंतजार में।'
'छोड़ो यार। अब बैठक कल करेंगे।'
कार्तिक का मन उखड़ गया था। उसने लिफाफा जेब में डाला और घर आ गया।
वह जाकर पहली मंजिल की बालकनी में बैठ गया था और निरर्थक सा आने जाने वाले
लोगों और गाड़ियों को निहार रहा था। नीति आकर चाय रख गई, उसने पूछा,
'क्या बात है कुछ परेशान दिख रहे हो? '
'नहीं, ऐसे ही। कुछ देर अकेले बैठा हूँ।'
चाय पीते पीते उसने जेब में रखा लिफाफा निकाला और उसके भीतर का मजमून पढ़ना
शुरू किया। पहले पहल उसे समझ नहीं आया कि मजमून था किसके संबंध में? फिर धीरे
धीरे उसके शब्द कार्तिक के दिमाग में जज्ब होना शुरू हुए। वह एक रिपोर्ट थी जो
उसी के बारे में थी और कॉमरेड मोहन ने सेंट्रल कमिटी के लिए तैयार की थी। शायद
उसे भेज भी दिया गया था। रिपोर्ट इस प्रकार थी।
राजपुर के साक्षरता आंदोलन के संबंध में रिपोर्ट
यह रिपोर्ट राजपुर में विज्ञान आंदोलन में जारी टूट फूट के बारे में है। विदित
हो कि राजपुर के विज्ञान आंदोलन में कॉमरेड लक्ष्मण सिंह शीर्ष भूमिका निभाते
रहे हैं और हाल ही में उन्होंने सचिव के पद से इस्तीफा दिया है या यूँ कहें कि
प्रशासन ने दबाव डालकर उनसे इस्तीफा दिलवा दिया है। इस रिपोर्ट में आंदोलन की
स्थिति और कॉमरेड लक्ष्मण सिंह पर लगे आरोपों की पड़ताल की गई है और यह भी
बताया गया है कि असल में जिम्मेदार लोग कौन हैं।
पूरी स्थिति की जाँच करने के लिए राजपुर में साक्षरता समिति की बैठक की गई।
इसमें तेरह लोग उपस्थित थे जिनमें से पाँच कॉमरेड लक्ष्मण सिंह के खिलाफ बोले
एवं छह इन पाँच लोगों के खिलाफ बोले। स्पष्ट था कि पार्टी में एक दूसरे के
खिलाफ ग्रुप बन गए हैं। इसमें से एक ग्रुप ने, राज्य केंद्र की सक्रिय मदद से,
कॉमरेड लक्ष्मण सिंह के खिलाफ प्रतिक्रांति आयोजित की है। यह ग्रुप कॉमरेड
सादिक अली के नेतृत्व में काम कर रहा है तथा प्रशासन की भी मदद ले रहा है।
प्रतिक्रांतिकारियों ने जानबूझकर यह समय चुना, जबकि कॉमरेड लक्ष्मण सिंह को
प्रशासन ने साक्षरता समिति से निकाल दिया है और उन्हें नौकरी से भी निलंबित कर
दिया है। पहले तय किया गया था कि पूरी साक्षरता समिति इस कार्यवाही के खिलाफ
आंदोलन करेगी पर अचानक प्रतिक्रांतिकारियों ने लक्ष्मण सिंह पर ही हल्ला बोल
दिया और इसके लिए चार साल पुराने भ्रष्टाचार के आरोपों को आधार बनाया जा रहा
है। हमें इसमें कार्तिक और राज्य केंद्र के साथियों का हाथ दिखता है जो
प्रतिक्रांतिकारियों की मदद कर रहे हैं।
तोड़ फोड़ करने वालों की निगाह परियोजनाओं और विदेशी धन पर भी है जिसे वे
राज्य केंद्र की मदद से हथिया लेना चाहते हैं तथा लक्ष्मण सिंह को इससे अलग
रखना चाहते हैं। पूछा जा सकता है कि प्रतिक्रांतिकारी इस तरह का वातावरण रचने
में सफल कैसे हुए? इसका एक कारण ये है कि सादिक अली और उनके साथी नितिन देव
बहुत दिनों से मौके की तलाश में थे और जैसे ही प्रशासन ने लक्ष्मण सिंह को
हटाया, उन्हें लक्ष्मण सिंह पर हमला करने का मौका मिल गया। कुछ पुराने
कार्यकर्ताओं की कैरियरिस्ट आकांक्षाओं को भी भुनाया जा रहा है। एक बड़ा कारण
कॉमरेड लक्ष्मण सिंह की व्यक्तिवादी कार्यपद्धति भी है पर इसके लिए उन्हें माफ
किया जा सकता है क्योंकि पहले पहल पूरा आंदोलन ही उन्होंने खड़ा किया था और
स्वाभाविक रूप से सारी शक्ति उन्हीं के हाथ में केंद्रित थी।
एक बड़ी रोचक बात ये है कि तोड़ फोड़ कर्ता ये कहते हैं कि लक्ष्मण सिंह के
सचिव बनने के पहले सब ठीक चल रहा था, हालाँकि तथ्य ये है कि उस समय कोई
जनतांत्रिक संगठन था ही नहीं और लक्ष्मण सिंह खुद कॉमरेड कार्तिक की मदद कर
रहे थे। ये तो पार्टी के हस्तक्षेप से ही संभव हो सका है कि साक्षरता समिति
में पार्टी स्तर की जनतांत्रिक प्रक्रिया शुरू हुई है और ये लक्ष्मण सिंह के
सचिव बनने के बाद ही संभव हुआ है। सादिक अली को पार्टी का काम करने के लिए रखा
गया था पर वे स्वयं प्रतिक्रांतिकारी समूह के नेता बन गए हैं और टकराहट को
बढ़ावा दे रहे हैं। यहाँ जरा प्रतिक्रांतिकारियों के नेता सादिक अली और नितिन
देव के बारे में जान लेना उचित रहेगा।
सादिक अली बहुत ही आलसी और लालची किस्म के आदमी हैं और तोड़फोड़ तथा गुटबाजी
के लिए मशहूर हैं। वह राज्य केंद्र में भी गलतफहमियाँ पैदा करते रहे हैं तथा
कार्तिक के हथियार के रूप में काम करते हैं। वे समिति से पाँच हजार रुपये
तनख्वाह पाते हैं पर काम धेले भर का नहीं करते। नियमित रूप से कार्यालय तक
नहीं आते और अधिकतर समय अपनी शिक्षण संस्था के संचालन में लगाते हैं। क्योंकि
वे छात्र आंदोलन में रहे थे, उनसे उम्मीद की जाती थी कि वे राजनीतिक कार्य
करेंगे, पर उन्होंने इसका उलटा किया। वे व्यक्तिगत काम में लगे रहे और तनख्वाह
लेकर तोड़फोड़ करते रहे।
नितिन देव घोषित नक्सलवादी हैं। वे पार्टी के भीतर नक्सलवादी साहित्य बाँटते
पकड़े गए थे। पर जाने क्यों स्थानीय पार्टी उनका पक्ष लेती रही। इसीलिए उन्हें
आंदोलन में बनाए रखा गया। बाकी प्रतिक्रांतिकारियों में कोई दम नहीं है और वे
कैरियर बनाने के लिए साक्षरता आंदोलन में आए हैं।
अब जरा लक्ष्मण सिंह पर लगाए आरोपों को भी देख लिया जाए।
सबसे ज्यादा आलोचना उनकी व्यक्तिवादी कार्यशैली को लेकर है। ये आरोप सच है पर
जरूरत से ज्यादा बढ़ा चढ़ाकर बताया जा रहा है। लक्ष्मण सिंह स्वयं इस संबंध
में आत्मालोचना कर चुके हैं पर कार्तिक द्वारा इसे उछाला जा रहा है। आखिर तीन
सौ से अधिक लोगों की नौकरियाँ और उन पर प्रशासनिक कंट्रोल का भी सवाल है आखिर
यह थोड़ी बहुत व्यक्तिवादिता के साथ हो रहा है तो क्या बुराई है? हम लक्ष्मण
सिंह को सुझाव दे सकते हैं कि वे सुधर जाएँ।
जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है यह आरोप तो विरोधी दलों द्वारा कॉमरेड लक्ष्मण
सिंह पर लगाया जाता रहा है लेकिन इसके बावजूद आंदोलन का विकास हुआ और कॉमरेड
लक्ष्मण सिंह की छवि निखरी है। अब हमारा प्रतिक्रांतिकारी समूह कॉमरेड कार्तिक
के नेतृत्व में वही आरोप लक्ष्मण सिंह पर लगा रहा है, इसके लिए पुराने
अकाउंट्स को आधार बनाया जा रहा है जबकि लक्ष्मण सिंह की छवि तो साफ सुथरी है,
उन्होंने कभी कोई भ्रष्टाचार नहीं किया, सारे अकाउंट्स पार्टी को जमाकर दिए
हैं। जरूरत पड़ने पर पार्टी हाई लेवल जाँच करवा लेगी।
बाकी आरोप छोटे मोटे हैं और उसके लिए जिले की पार्टी या राज्य की पार्टी खुद
ही जिम्मेदार है। ऐसे कुछ लोगों को जिन्हें अनैतिक या भ्रष्ट काम करने के बाद
भी आंदोलन में वापस ले लिया गया, स्थानीय पार्टी के दबाव के कारण ही लिया गया
इसके लिए कॉमरेड लक्ष्मण सिंह जिम्मेदार नहीं। राज्य केंद्र और जिला समिति के
बीच बढ़ती खाई के लिए लक्ष्मण सिंह नहीं कॉमरेड कार्तिक जिम्मेदार हैं। जिला
समिति के लोगों को इन बातों का ज्ञान नहीं। जिला पार्टी का ये कहना भी गलत है
कि साक्षरता समिति उनके निर्देशों के अनुसार काम नहीं करती क्योंकि पिछले तीन
सालों में जिला पार्टी के सभी बड़े कार्यक्रम साक्षरता समिति ने ही आयोजित किए
हैं। हमें लगता है जिला पार्टी ढुलमुल रवैया अपना रही है।
हमारा स्पष्ट और ठोस सुझाव है कि कार्तिक और सादिक अली जैसे
प्रतिक्रांतिकारियों को कोई ढिलाई बरते बिना तत्काल प्रभाव से पार्टी और
आंदोलन से बर्खास्त कर देना चाहिए। आंदोलन की सफाई के लिए ये बहुत जरूरी है।
क्रांतिकारी अभिवादन के साथ
आपका
कॉमरेड मोहन।
कार्तिक ने रिपोर्ट दो बार पढ़ी और अलग रख दी।
पूरी रिपोर्ट उसे बहुत ही अविश्वसनीय और षड्यंत्रपूर्ण नजर आ रही थी। उसे
विश्वास ही नहीं हुआ कि इसे कॉमरेड मोहन जैसे परिपक्व व्यक्ति ने तैयार किया
होगा।
अभी कुछ दिनों पहले ही तो वे उसे मिले थे। हँसमुख, हाथ बढ़ाते। सदा की तरह
उन्होंने पूछा था - क्या हाल हैं कॉमरेड? और फिर आंदोलन के बारे में बात करने
लगे थे। तो क्या उस हँसमुख, पारदर्शी से दिखने वाले, मित्रवत् आदमी के दिल में
उसके लिए इतना कलुष भरा था? क्यों? आखिर क्यों? और वे तो साक्षरता या विज्ञान
आंदोलन को अच्छी तरह जानते भी नहीं थे। तो किसने भरा था ये कलुष उनके दिल में?
लक्ष्मण सिंह ने या सरफराज ने या विजय सक्सेना ने? कार्तिक का दिल गहरी पीड़ा
से भर गया।
रिपोर्ट एक झूठ का पुलिंदा थी। असल बात तो ये थी कि राजपुर का हर अखबार
साक्षरता समिति और लक्ष्मण सिंह के भ्रष्टाचार की खबरों से रंगा पड़ा था।
पुराने अकाउंट्स का मुद्दा कार्तिक ने नहीं नताशा ने उठाया था। कार्तिक का मूल
तर्क ये था कि साक्षरता, विज्ञान या संस्कृति सीधे सीधे पार्टीजन कार्यवाही
नहीं हैं और उन्हें अपनी गति से विस्तार करने देना चाहिए। इसीलिए उसने लक्ष्मण
सिंह से सीधी पार्टी कार्यवाहियों को साक्षरता समिति के माध्यम से करने के लिए
मना किया था, पर शायद कॉमरेड मोहन तथा स्थानीय पार्टी के दबाव के कारण या अपने
भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के लिए उसने खुले प्रतिरोध की कार्यवाही करना जारी
रखा था जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा था। कार्तिक ने हर बार कहा था कि
हिंदी प्रदेशों में पार्टी को लंबे रिफॉर्म आंदोलन के लिए तैयार रहना चाहिए
उसी में से क्रांतिकारी तत्व निकलेंगे। पर कॉमरेड मोहन ने इसे कभी महत्व नहीं
दिया। लक्ष्मण सिंह रिफॉर्म आंदोलन की गलत समझ और पार्टी की अतिवादिता के कारण
मारा गया था, कार्तिक के कारण नहीं।
फिर भी उसके निलंबित होने के बाद कार्तिक ने ही राज्य स्तर पर बैठक बुलाने की
पहल की थी जिसे सरफराज वगैरह ने होने नहीं दिया था, क्या कॉमरेड मोहन ये बात
नहीं जानते? लक्ष्मण सिंह जिले में जिन्हें अपना साथी मानता था, उन्होंने अगर
कोई आवाज नहीं उठाई तो कार्तिक दोषी कैसे हुआ?
और सादिक अली से उसकी दोस्ती सिर्फ दोस्ती तक ही सीमित थी। वैसे ही जैसे पूरे
प्रदेश के सभी साथियों को वह अपना दोस्त मानता था, उनसे बातचीत करता था, सलाह
देता था। जैसे लक्ष्मण सिंह ने एक जिले में आंदोलन खड़ा किया था वैसे कार्तिक
ने शायद पूरे प्रदेश में किया था। वह सबसे बात करता था और पार्टी के ही कई
साथियों के सुझाव के बावजूद उसने कभी अपना कोई गुट नहीं बनाया।
और कॉमरेड मोहन भाषा किस तरह की इस्तेमाल कर रहे हैं? क्रांतिकारिता तथा
प्रतिक्रांतिकारिता की इनकी समझ क्या इतनी ही उथली है? उनके देखते देखते
कम्यूनल और प्रतिक्रांतिकारी संगठनों ने दसियों नए संगठन खड़े कर लिए थे,
आदिवासियों के बीच अपनी जगह बना ली थी और लोगों की चेतना पर कब्जा कर लिया था।
अभी पिछले दिनों ही शहर ने भीषण दंगा देखा था। उस समय क्या उन्हें कार्तिक का
पक्ष नहीं दिखा। वे अपने बीच से ही प्रतिक्रांतिकारियों की तलाश करने निकले
हैं? जो उनके साथ, वह क्रांतिकारी, जो उनसे वैचारिक रूप से भिन्न, वह
प्रतिक्रांतिकारी?
ये कौन सी जनतांत्रिकता थी कि जिसमें आपके बारे में मत बनाते समय आपसे पूछा तक
नहीं जा रहा था? ये कौन सी केंद्रीयता थी कि जिसमें सिर्फ कॉमरेड मोहन केंद्र
में थे, किसी और व्यक्ति या विचार की वहाँ कोई जगह नहीं थी। ये कौन सी
पारदर्शिता थी जिसमें हँसकर हाथ मिलाए जाते थे और पीठ फिरते ही जहर बुझे तीर
चला दिए जाते थे। ये कौन सी पार्टी थी जो खुद गुटों को प्रश्रय देती थी और
दूसरों के सामने एकता का दंभ भरती थी।
असली प्रति-क्रांतिकारी शक्तियाँ लोगों की चेतना और जनांदोलन के स्पेस को भरती
चली जा रही थीं और हमें विस्तार करने से भय लगता था। हम अपने कमरे में ही पूरे
पवित्र रहना चाहते थे और बंद कमरे की बहस के आधार पर एक धुँधली सी रिपोर्ट बना
सकते थे और फिर उसे किसी की ओर भी दागकर उसे समाप्त कर सकते थे। बिना यह जाने
कि हम सच की ऊपरी परत भी नहीं खोल पाए हैं।
कार्तिक का मन गहरी वितृष्णा से भर गया। अब तक वह सरफराज और लक्ष्मण सिंह से
सैद्धांतिक लड़ाई इसलिए चलाए हुए था कि उसे लगता था कि वह सच की लड़ाई लड़ रहा
है और कभी न कभी कॉमरेड मोहन और राज्य की पार्टी को उस सच का एहसास करा ही
देगा। पर आज उसे महसूस हुआ कि पंद्रह बीस सालों का उसका काम, उसकी लड़ाई एक
तरह से निरर्थक ही गई थी। असल में तो लक्ष्मण सिंह और सरफराज ने स्वयं इतना
जहर कॉमरेड मोहन के दिलो दिमाग में भर दिया था कि वे सच को देखने, उसे महसूसने
की ताकत ही खो बैठे थे।
कार्तिक का दम घुटने लगा।
वह बाहर निकल आया। नीति से कहा,
'मैं थोड़ी दूर तक पैदल घूम कर आता हूँ।'
'अच्छा, क्या मैं भी चलूँ?'
'नहीं। अकेले ही जाऊँगा।'
उसने चप्पल पैर में डाली और निकल पड़ा। उसका सिर नीचे झुका हुआ था, जैसा कि
अक्सर वह चलते समय झुका लिया करता था। दिल पर भारी बोझ था। वह जैसे ब्रह्मांड
में निरर्थक घूमते किसी प्रस्तर खंड की तरह चलता चला जा रहा था।
अचानक उसने अपने आप को नताशा के घर के सामने पाया। वह ठिठक कर रुक गया। दोपहर
को जब वह ऑफिस से निकला था तो उसने सोचा था कि वह नताशा के घर जाएगा, उससे
राष्ट्रीय समिति की बैठक के बारे में पूछेगा, पूछेगा कि उसने अलग होने का
निर्णय क्यों स्वीकार कर लिया। पर अब अचानक एक और बात उसके दिमाग में आई।
रिपोर्ट! आखिर ये रिपोर्ट नताशा को कैसे मिली? अगर पार्टी में ये बात मालूम
पड़ी तो गजब हो जाएगा। उसके और नताशा के बारे में जाने क्या क्या कहा जाएगा।
आरोप लगाए जाएँगे। शायद जाँच भी बैठा दी जाए। ये गंभीर मसला था।
उसने नताशा की कॉलबेल बजाई। बेल शायद खराब थी। फिर कार्तिक ने साँकल खटखटाई।
किसी ने आकर दरवाजा खोला। देखा, नताशा ही थी। सफेद मैक्सी में, चेहरे पर बिखरी
लटों के साथ वह उदास, पर सुंदर लग रही थी।
आँखें हलकी सी लाल थीं जैसे कुछ देर पहले रो चुकी हो। उसने कार्तिक को देखकर
कहा,
'आओ। मुझे अंदाज था कि तुम आज आओगे।'
'कैसे?'
'आखिर मैं भी तुम्हें थोड़ा बहुत जानती हूँ।'
कार्तिक ने भीतर आते हुए कहा,
'क्या बात है, घर में बड़ी शांति है। कोई है नहीं क्या?'
'हाँ, भाई भाभी वगैरह बाहर गए हैं। मैं अकेली ही हूँ।'
'तो बैठकर रोती रही हो? आँखें इतनी लाल क्यों हैं?'
'तुम्हारे बारे में ही सोच रही थी।'
'क्या?'
'यही कि उन लोगों को तुम्हारे साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था।'
'अभी कुछ किया तो नहीं है। अभी तो रिपोर्ट ही बनी है।'
'तो करेंगे। मुझे समझ में नहीं आता। कॉमरेड मोहन इतने ब्लाइंड कैसे हो सकते
हैं?'
'हो सकते हैं। उनका विचार ही उनकी देखने की शक्ति हर लेता है।'
'फिर भी पूरा प्रदेश जानता है कि ये आंदोलन तुम्हारा खड़ा किया हुआ है। हम सभी
लोगों को तुम्हीं आंदोलन में लाए थे। लक्ष्मण सिंह तुम्हारी मदद से ही खड़ा
हुआ था। क्या ये कॉमरेड मोहन को नहीं दिखता।'
'दिखता है, और शायद यही बात उन्हें खटकती भी है। स्वतंत्र चेतना। इसे वे
बर्दाश्त नहीं कर सकते।'
'पर तुम्हारे काम से उन्हें, पार्टी को फायदा ही है।'
'ये फायदा उनकी परिभाषा में नहीं आता। अच्छा छोड़ो, एक बात बताओ ये रिपोर्ट
तुम्हें कहाँ से मिली?'
'सुदीप ने दी है।'
'वही सुदीप जो पार्टी कार्यालय देखता है?'
'हाँ।'
'क्यों?'
'शायद वह कॉमरेड मोहन को पसंद नहीं करता। शायद तुम्हारी मदद करना चाहता है।'
'उसने गलत किया। उन्हें मालूम पड़ेगा तो वह मारा जाएगा।'
'लेकिन अब तो जो होना था वह हो चुका। तुम यहाँ नहीं थे। मैं पार्टी ऑफिस गई थी
तो उसने छुपा कर मुझे दे दी। मैं समझी कोई सामान्य पत्र है। घर आकर देखा तो
रिपोर्ट थी। मैं क्या करती, मैंने तुम्हें दे दी।'
कार्तिक ने हँसते हुए कहा,
'अच्छा सुदीप ने रिपोर्ट तुम्हें ही क्यों दी? वह किसी और को भी दे सकता था।'
'मुझे तुम्हारी दोस्त मानता है इसलिए।'
'तो क्या तुम मेरी दोस्त नहीं?'
'तुम्हीं बताओ।'
अब वह गंभीर हो गई थी। कार्तिक ने उससे वह सवाल पूछा जो वह सुबह से पूछना
चाहता था,
'अच्छा एक बात बताओ। तुमने स्रोत केंद्र से अलग होने का निर्णय क्यों लिया?'
'तुम जानते हो फिर भी पूछ रहे हो?'
'समझो कि मैं नहीं जानता।'
'कार्तिक मैं अब वहाँ रह नहीं सकती।'
'क्यों?'
'इसलिए कि तुम उमा के निकट चले गए हो, और वह नहीं चाहती कि मैं वहाँ रहूँ।'
'मैं फिर पूछूँगा। क्यों?'
'क्योंकि शी इज हेड ओवर हील्स इन लव विथ यू। वह तुमसे गहरा प्यार करने लगी
है।'
कमरे में चुप्पी छा गई। नताशा ने चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया। कार्तिक के समझ
में नहीं आया कि वह क्या कहे। इस तरह सीधे उससे किसी ने ये बात नहीं कही थी।
अचानक उसके मुँह से निकला,
'ऐसी कोई बात नहीं है। बस इतना है कि मुझे लगा कि उसे मेरी ज्यादा जरूरत है।'
'और मैं? क्या मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं थी?'
एक बार फिर उसकी आँखों में आँसू छलछला आए। धीरे-धीरे ढरक कर वे उसके गालों पर
आ गए। कार्तिक को लगा कि वह उठे और उसे उसी तरह गहरे आलिंगन में लेकर आँखों पर
हल्के से चुंबन जड़ दे, जैसा पहले पहल गहरे प्रेम और आश्वस्ति के वशीभूत उसने
दिल्ली में, पेड़ों के झुरमुट के बीच अचानक किया था, पर उसने ऐसा कुछ नहीं
किया।
उस दिन यह प्रेम और आश्वस्ति शायद कार्तिक की ओर से थे। पर उसे आज समझ आया, वह
भी उससे प्यार करती थी। गहरा प्यार।
कार्तिक उठा। उसने नताशा के दोनों हाथ अपने हाथ में लिए, उन्हें बहुत धीरे से
दबाया और कहा,
'मैं तुम्हारा दोस्त हूँ नताशा।'
उसे पता था। वह इस तरह आखिरी बार उससे मिल रहा था।