हिंदी को 'हिंदू' और उर्दू को 'मुसलमान' करने का जो काम उन्नीसवीं सदी के
उत्तरार्द्ध में किया गया उसका असर अपने चरम पर आज नजर आ रहा है। उन्नीसवीं
सदी में होने वाले हिंदी नवजागरण के विभिन्न पहलुओं और उसके नायकों को
अपने-अपने ढंग से 'डिफेंड' करते हुए भी आज तमाम आलोचक और इतिहासकार कम-से-कम
इस बात से तो सहमत ही हैं कि इतिहास के इस काल-खंड में ही हिंदी के 'सोलहों
संस्कार' हुए और उर्दू की पूरी 'मुसलमानी' हुई। हालाँकि यह काम फोर्ट विलियम
कॉलेज और ईसाई मिशनरियों ने पहले ही शुरू कर दिया था लेकिन इसे अंजाम तक
पहुँचाया उन्नीसवीं सदी के हिंदी आंदोलन ने।
युक्त प्रांत में सरकारी दफ्तरों और अदालतों की भाषा उर्दू और लिपि फारसी थी।
इन दफ्तरों में काम करने वाले मुसलमान और हिंदू दोनों थे। इन दोनों का साझा
भद्रवर्ग था जो उर्दू भाषा और फारसी लिपि का इस्तेमाल करता था। उन्नीसवीं सदी
के उत्तरार्द्ध में इस साझा भद्रवर्ग में दरारें पड़ने लगीं। इसका विस्तृत
वर्णन फ्रांसिस रॉबिंसन ने अपनी किताब 'सेपरेटिज्म एमंग इंडियन मुस्लिम' में
किया है। उनके मुताबिक ''इस भद्रवर्ग की एकता में पहली दरार 1867 में पड़ी जब
सैयद अहमद ने पश्चिमोत्तर प्रांत की देशी भाषा में एक विश्वविद्यालय खोलने का
प्रस्ताव सरकार के सामने रखा। इससे यह बहस उठ खड़ी हुई कि इस प्रांत की देशी
भाषा कौन-सी है - उर्दू या हिंदी?'' जाहिर है सैयद अहमद जिस उर्दू को प्रांत
की देशी भाषा बता रहे थे वह आम लोगों की भाषा नहीं बल्कि उस छोटे से भद्रवर्ग
की भाषा थी जो सरकारी नौकरियों में था और जिसमें कुछ हिंदू और ज्यादातर
मुसलमान थे।
हिंदी और उर्दू का झगड़ा दरअसल अपने मूल रूप में नागरी और फारसी लिपि का झगड़ा
था। सरकारी कामकाज में जो लिपि इस्तेमाल की जाती थी वह फारसी थी। इस कारण भाषा
में फारसी के शब्द भी ज्यादा-से-ज्यादा आते थे। फारसी का चलन हिंदुओं में कम
था। कायस्थों और कश्मीरी पंडितों को छोड़कर बाकी हिंदू फारसी लिखना-पढ़ना नहीं
जानते थे। इसके विपरीत मुसलमानों में फारसी का चलन अपेक्षाकृत अधिक था। एक तो,
कुछ ही पुश्त पहले फारस या अरब से आए उच्चवर्गीय मुस्लिम परिवारों में इस लिपि
का आम चलन था, दूसरे मुसलमानों के तमाम धार्मिक ग्रंथ इसी लिपि में थे जिसे वे
सबसे पहले पढ़ना सीखते-सिखाते थे। इस प्रकार फारसी लिपि और इसलिए उर्दू भाषा से
मुसलमानों का लगाव ज्यादा था जबकि हिंदुओं में, नौकरी चाहने वाले लोगों को अलग
से फारसी लिपि सीखनी पड़ती थी। सरकारी दफ्तरों में फारसी का चलन होने से
मुसलमान लड़कों के लिए इनमें प्रवेश पाना बहुत आसान था जबकि हिंदू लड़के खूब
पढ़े-लिखे होने के बावजूद फारसी लिपि न जानने के कारण इन नौकरियों में प्रवेश
नहीं पाते थे। लिहाजा शिक्षा में बहुत पिछड़े होने के बावजूद मुसलमान सरकारी
नौकरियों में भरे हुए थे जबकि हिंदू अच्छी शिक्षा हासिल करने के बाद भी
नौकरियों में पीछे थे। फ्रांसिस रॉबिन्सन ने अपनी किताब में सरकारी
स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ने वाले हिंदू-मुस्लिम लड़कों के आँकड़े प्रस्तुत किए हैं
जिसे डॉ. वीर भारत तलवार ने अपनी किताब रस्साकशी में उद्धृत किया है। इस आँकड़े
के अनुसार '1860-61 में सरकारी प्राइमरी-सेकेंडरी स्कूलों में शिक्षा पाने
वाले कुल विद्यार्थियों में 90 प्रतिशत विद्यार्थी हिंदू थे और 10 प्रतिशत
मुस्लिम। 1870-71 में 84 प्रतिशत विद्यार्थी हिंदू थे और 15.9 प्रतिशत
मुस्लिम। 1880-81 में 81 प्रतिशत विद्यार्थी हिंदू थे और 16.6 प्रतिशत
मुस्लिम। 1900 ई. में 81 प्रतिशत विद्यार्थी हिंदू थे 15.4 प्रतिशत मुस्लिम।
सरकारी कॉलेजों में शिक्षा पाने वालों में 1860-61 में 85.7 प्रतिशत
विद्यार्थी हिंदू थे, सिर्फ 8.4 प्रतिशत मुस्लिम। 1870-71 में 92 प्रतिशत
हिंदू थे, 7.3 प्रतिशत मुस्लिम। 1880-81 में 75.2 प्रतिशत हिंदू थे, 12.6
प्रतिशत मुस्लिम और 1900 ई. में 78 प्रतिशत हिंदू थे, 16.2 प्रतिशत मुस्लिम।'
इस प्रकार शिक्षा में मुसलमानों से बहुत आगे रहने के बावजूद सरकारी नौकरियों
से वंचित होने पर नागरी लिपि और हिंदी भाषा का व्यवहार करने वाले हिंदुओं में
असंतोष होना बिल्कुल स्वाभाविक-सी बात थी और इसके खिलाफ सरकारी क्षेत्रों में
नागरी लिपि को लागू करने की माँग भी वाजिब और लोकतांत्रिक थी। इस माँग को सबसे
पहले 1868 ई. में राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिंद' ने उठाया। उन्होंने 1868 ई. में
युक्त प्रांत की सरकार को एक मेमोरेंडम - 'कोर्ट कैरेक्टर इन दी अपर
प्रोविंसेज ऑफ इंडिया' दिया। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जो व्यापक
हिंदी आंदोलन चला उसकी विधिवत शुरुआत इस मेमोरेंडम से मानी जा सकती है।
युक्त प्रांत की सरकार को सौंपे गए अपने मेमोरेंडम में राजा शिवप्रसाद
'सितारेहिंद' ने अदालतों में नागरी लिपि लागू करने की माँग की। उन्होंने भाषा
में परिवर्तन का सवाल नहीं उठाया। दरअसल वे हिंदी-उर्दू को अलग-अलग भाषाएँ
मानते ही नहीं थे, इसलिए उनके लिए इस सवाल का कोई मतलब भी नहीं था। लेकिन लिपि
के मुद्दे पर ही हिंदू-मुस्लिम अलगाव के बीज इस मेमोरेंडम में मौजूद थे। इस
मेमोरेंडम में उन्होंने नागरी एवं फारसी लिपि का क्रमशः हिंदू एवं मुस्लिम
आधार स्पष्ट कर दिया है। हिंदी भाषा और लिपि ('हिंदी' शब्द का इस्तेमाल भाषा
और लिपि दोनों अर्थों में किया गया है) को हिंदुत्व से जोड़ते हुए मेमोरेंडम
में उन्होंने लिखा है - ''जब मुसलमानों ने हिंदोस्तान पर कब्जा किया, उन्होंने
पाया कि हिंदी इस देश की भाषा है और इसी लिपि में यहाँ के सभी कारोबार होते
हैं। ...लेकिन उनकी फारसी शहरों के कुछ लोगों को, ऊपर-ऊपर के दस-एक हजार लोगों
को, छोड़कर आम लोगों की जुबान कभी नहीं बन सकी। आम लोग फारसी शायद ही कभी पढ़ते
थे। पटवारी आज भी अपने कागज हिंदी में ही रखता है। महाजन, व्यापारी और कस्बों
के लोग अब भी अपना सारा कारोबार हिंदी में ही करते हैं। कुछ लोग मुसलमानों की
कृपा पाने के वास्ते अगर पूरे नहीं, तो आधे मुसलमान जरूर हो गए हैं। लेकिन
जिन्होंने ऐसा नहीं किया, वे अब भी तुलसीदास, सूरदास, कबीर, बिहारी इत्यादि की
रचनाओं का आदर करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हर जगह, हिंदी की सभी बोलियों
में फारसी के शब्द काफी पाए जाते हैं। बाजार से लेकर हमारे जनाने तक में, वे
घर-घर में बोले जाते हैं। भाषा का यह नया मिला-जुला रूप ही उर्दू कहलाता है।
...मेरा निवेदन है कि अदालतों की भाषा से फारसी लिपि को हटा दिया जाए और उसकी
जगह हिंदी लिपि को लागू किया जाए।''
इस मेमोरेंडम में भाषा में परिवर्तन का सवाल नहीं उठाते हुए भी हिंदुओं की
आर्यभाषा के फारसी से दूषित होने की बात राजा शिवप्रसाद ने जरूर उठाई है। यही
नहीं फारसी प्रभाव से समस्त आर्य संस्कृति के दूषित होने का जिक्र भी इन्होंने
किया है। इन्होंने ब्रिटिश सरकार पर, जनता पर फारसी लिपि और फारसीनिष्ठ उर्दू
थोपने का आरोप लगाया। वे लिखते हैं-
''आजकल की फारसी में आधी अरबी मिली हुई है। सरकार की इस नीति को विवेकपूर्ण
नहीं माना जा सकता जिसने हिंदुओं के बीच सामी तत्वों को खड़ा कर उन्हें अपनी
आर्यभाषा से वंचित कर दिया है; न सिर्फ आर्यभाषा से बल्कि उन सभी चीजों से जो
आर्य हैं, क्योंकि भाषा से ही विचारों का निर्माण होता है और विचारों से
प्रथाओं तथा दूसरे तौर-तरीकों का। फारसी पढ़ने से लोग फारसीदाँ बनते हैं। इससे
हमारे सभी विचार दूषित हो जाते हैं और हमारी जातीयता की भावना खत्म हो जाती
है।''
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि राजा शिवप्रसाद ने हिंदी-उर्दू को एक भाषा मानने
के बावजूद लिपिगत भिन्नता के कारण इनका हिंदू-मुस्लिम आधार तय कर दिया। यद्यपि
इस मेमोरेंडम से ठीक सात महीने पहले जनवरी 1868 ई. में भी राजा साहब द्वारा
सरकार को दिए गए एक मेमोरेंडम का उल्लेख मिलता है जिसमें उनके विचार बाद वाले
मेमोरेंडम से बहुत कुछ अलग हैं। नागरी प्रचारिणी पत्रिका के एक अंक में छपे
लेख 'हिंदी के उन्नायक और रक्षक राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद' में लेखक उमेश
नंदन सिन्हा ने इस पहले वाले मेमोरेंडम का उल्लेख किया है। इसमें राजा साहब ने
लिखा है कि अदालती भाषा उर्दू प्रांत की मातृभाषा बन रही थी जबकि हिंदी केवल
हमारे स्कूली पंडितों की निर्मिति थी। इसके अलावा दोनों मेमोरेंडम में राजा
साहब के विचारों के अंतर की चर्चा करते हुए उमेश नंदन सिन्हा ने लिखा है कि -
''इन्होंने (राजा साहब) अपने प्रथम मेमोरेंडम में लिपि के प्रश्न पर फारसी या
देवनागरी दोनों में से किसी एक लिपि को अपनाने का विचार दिया था लेकिन दूसरे
मेमोरेंडम में इन्होंने सिर्फ देवनागरी लिपि की ही वकालत की। प्रथम मेमोरेंडम
में इन्होंने कहा था कि जनता को कोर्ट की भाषा (उर्दू) सीखनी चाहिए लेकिन
दूसरे मेमोरेंडम में उन्होंने कहा कि कोर्ट की भाषा जनता की भाषा (हिंदी) होनी
चाहिए। प्रथम मेमोरेंडम में इन्होंने संस्कृत शब्दों के प्रयोग का बहिष्कार
किया था और दूसरे में उन्होंने फारसी के शब्दों के बहिष्कार का आह्वान किया।''
दोनों मेमोरेंडम में राजा शिवप्रसाद के वैचारिक अंतर्विरोध को स्पष्ट रूप से
देखा जा सकता है। हालाँकि इस अंतर्विरोध के कारण ढूँढ़ने की कोशिश उक्त लेख
में की गई है लेकिन वह बहुत तर्कपूर्ण नहीं लगता।
दरअसल यह अंतर्विरोध उस दौर में हिंदी का आंदोलन कर रहे तमाम लेखकों-पत्रकारों
के यहाँ दिखाई पड़ता है। यह असल में इनकी राजनीति और धर्मनीति के बीच के
द्वंद्व के कारण है। हिंदू-मुस्लिम दोनों धर्मों का भद्रवर्ग, जो आंदोलन की
अगुआई कर रहा था, अँग्रेजों के प्रति अपनी-अपनी राजभक्ति के प्रदर्शन के लिए
परस्पर होड़ कर रहा था। इसके अलावा हिंदी के लिए ही आंदोलन कर रहे दो लोग भी
अपनी-अपनी राजभक्ति के प्रदर्शन में एक-दूसरे से आगा-पीछा कर रहे थे। इसका
नतीजा साफ दिखाई पड़ रहा था। उस पूरे दौर में अँग्रेजी भाषा या अँग्रेजी शिक्षा
का कोई विरोध हिंदू-मुस्लिम, किसी भी भद्रवर्ग की ओर से नहीं हुआ। इसके उल्टे
अँग्रेजी शिक्षा और अँग्रेजी राज को कई मायने में बहुत अच्छा ठहराया गया, उसे
ज्ञान का दीपक दिखाने वाला माना गया। खैर, हम उस वैचारिक अंतर्विरोध की ओर
लौटें जो उस दौर के आंदोलनकारियों के बीच मौजूद थे। एक ही व्यक्ति अलग-अलग
मौके पर, थोड़ा आगे-पीछे एक ही मुद्दे पर दो परस्पर विरोधी विचार दे रहा था।
इनमें से कौन-से विचार असली थे और कौन नकली, यह तय करना एक मूर्खतापूर्ण काम
होगा। उस पूरे दौर को उसकी समग्रता में, तमाम अंतर्विरोधों के साथ पकड़ने की
कोशिश की जानी चाहिए और ऐसी कोशिशें की भी गई हैं। प्रसंगवश, यहीं पर एक और
बात का जिक्र करना उचित लगता है। कहा जाता है कि साहित्यकारों पर बात करनी हो
तो उनकी साहित्यिक रचनाओं के आधार पर ही बात करनी चाहिए। यह ठीक है। लेकिन जब
हम भाषा के निर्माण की प्रक्रिया पर बात करते हैं तो साहित्य मात्र की भाषा से
काम नहीं चलता। जैसे यदि आज की हिंदी के निर्माण की प्रक्रिया को देखें तो
उसमें मीडिया और फिल्म की भूमिका को किसी भी सूरत में नकारा नहीं जा सकता।
बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि हिंदी के साहित्य की तुलना में साहित्येतर
माध्यम इस भाषा के निर्माण में ज्यादा भूमिका अदा करते हैं और साहित्य भाषा के
इन नए रूपों, शैलियों को अपनाता है। समकालीन साहित्य-कविता, कहानी, उपन्यास,
आदि में नई हिंदी को देखा जा सकता है। इसलिए, कहने का मतलब है, कि यदि हम किसी
व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह विशेष को भाषा को एक नई चाल में ढालने का सबसे
बड़ा और सबसे ज्यादा श्रेय देते हैं तो उनकी भूमिका की पड़ताल उनके साहित्य
मात्र की भाषा के आधार पर करना ठीक नहीं लगता। एक और बात, उन्नीसवीं सदी में
हिंदी भाषा के लिए आंदोलन चला। जाहिर है जब कोई आंदोलन होता है तो उसका एक
निश्चित उद्देश्य होता है, उसकी एक विचारधारा होती है और उस आंदोलन को चलाने
वाले लोग उसी उद्देश्य और विचारधारा के अनुरूप कार्य करते हैं। उन्नीसवीं सदी
के हिंदी आंदोलन का उद्देश्य क्या था? उसकी विचारधारा क्या थी? इस सवाल का
जवाब ढूँढ़ने की कोशिश करने पर स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी और उर्दू के अलगाव
की तमाम सांप्रदायिक कोशिशें उस दौर में हुईं और धड़ल्ले से हुईं। लेकिन एक बात
और ऐसा नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति किसी आंदोलन से जुड़ा हो तो वह उससे बाहर
कुछ सोचता ही नहीं, कुछ करता ही नहीं। आंदोलन से बाहर उसका अपना निजी जीवन और
निजी चिंतन भी होता है। यह निजी चिंतन आंदोलन की विचारधारा से अलग हो सकता है,
उसके ठीक उलट भी हो सकता है। यहीं अंतर्विरोध पैदा होता है। उन्नीसवीं सदी के
अंतिम दशकों में हिंदी का आंदोलन कर रहे लोगों के लेखन में जो अंतर्विरोध है
उसका भी रूप संभव है बहुत कुछ ऐसा ही हो। बहरहाल, यह अंतर्विरोध उनमें है और
उन्हें इसे प्रकट करने में कोई परेशानी और दिक्कत भी नहीं है। परेशानी तो
दरअसल हमारी है जो उनके इस अंतर्विरोध में से क्या ठीक और क्या गलत का निर्णय
करने की ठाने बैठे हैं। अपने पूर्व निर्धारित निष्कर्षों को किनारे करके
इन्हें इनके अंतर्विरोधों के साथ 'ह्यूमनाइज' करके देखें तो इस झगड़े का बहुत
हद तक अंत होने की संभावना हो सकती है।
ऊपर जिस वैचारिक अंतर्विरोध की बात की जा रही थी वह अंतर्विरोध भारतेंदु के
यहाँ भी जबर्दस्त रूप से मौजूद है। भारतेंदु प्रारंभिक वर्षों में राजा
शिवप्रसाद की भाषा नीति के समर्थक थे और हिंदी-उर्दू में कोई भेद नहीं मानते
थे। 15 अक्टूबर 1873 ई. को छपे 'हरिश्चंद्र मैगजीन' के पहले अंक में 'हिंदी
भाषा' नामक एक लेख में भारतेंदु ने साफ-साफ लिखा है कि हमें अपनी देशी भाषा को
समृद्ध करने के लिए कहीं से भी शब्द लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। अपनी
भाषा को समृद्ध करने के लिए जिस किसी खजाने से हो सके शब्द लिए जाएँ और हमारी
भाषा को आप जिस नाम से चाहें, पुकार सकते हैं लेकिन वह भाषा उपयोगी और आम
लोगों के समझने योग्य हो। इसके साथ ही भारतेंदु ने भाषा को संस्कृत के शब्दों
से भरने का विरोध किया। भारतेंदु के इन विचारों को उद्धृत करते हुए वसुधा
डालमिया ने बिल्कुल ठीक नोट किया है कि तब भारतेंदु को यह मानने और कहने में
कोई संकोच नहीं था कि हिंदी और उर्दू अनिवार्यतः एक भाषा है जो बहुसंख्यक जनता
द्वारा बोली जाती है। भारतेंदु की इस भाषा-नीति में बाद में काफी बदलाव आता
है, जैसे-जैसे वे हिंदी आंदोलन का हिस्सा बनते हैं, उनका उर्दू-विरोध भी बढ़ता
जाता है। लिहाजा राजा शिवप्रसाद की नीति का खुलकर विरोध करना वे प्रारंभ करते
हैं। यह विरोध इतना बढ़ जाता है कि 'हरिश्चंद्र मैगजीन' के फरवरी 1874 के अंक
में संपादक मंडल की सूची से राजा साहब का नाम हटा दिया जाता है और इस बारे में
यह सूचना दी जाती है कि पहले अंक में राजा साहब का नाम गलती से चला गया था।
इसके साथ ही हरिश्चंद्र मैग्जीन में ऐसे लेख छपने लगे जिनमें धड़ल्ले से हिंदी
के संस्कृतनिष्ठ रूप को बढ़ावा दिया गया।
1873 ई. के हरिश्चंद्र मैगजीन में हिंदी भाषा में संस्कृत के शब्दों को भरने
का विरोध करने वाले भारतेंदु बाद के दिनों में हिंदी और संस्कृत को एक-दूसरे
से इस तरह से जोड़ देते हैं कि उनके लिए संस्कृत का विकास हिंदी का विकास हो
जाता है। और तो और वे संस्कृत और हिंदी का एक साथ इस प्रकार प्रयोग करते हैं,
गोया दोनों में कोई अंतर ही नहीं। भारतेंदु ने 'नाटक' निबंध (1883 ई.) में
फ्रेडरिक पिंकॉट के बारे में जो कुछ लिखा है उससे यह बात ज्यादा स्पष्ट हो
सकती है। वे लिखते हैं - ''इन से (पिंकॉट से) मुझे संस्कृत, नागरी की उन्नति
होने की अधिक आशा है क्योंकि इन्होंने संस्कृत हिंदी के अनेक ग्रंथ पुराचीन और
नवीन संग्रह किए हैं और तन मन धन से संस्कृत हिंदी की उन्नति चाहते हैं। मैं
हिंदी का यह सौभाग्य समझता हूँ। ऐसे सहायक मित्र मिलने से हिंदी रसिकों को भी
अभिमान होना चाहिए। ये उन पुराचीन ग्रंथों के प्रकाश के लिए यत्न कर रहे हैं
जो अब तक प्रकाश न हुए हैं।''
असल में संस्कृत के बारे में उस समय एक ऐसी धारणा बनी हुई थी, या ज्यादा ठीक
यह कहना होगा कि बनाई जा रही थी कि देश-दुनिया के तमाम ज्ञान संस्कृत में भरे
पड़े हैं। किसी भी नई खोज या नए अविष्कार का बहुत पहले संस्कृत के ग्रंथों में
उल्लेख हो चुका बताया गया। संस्कृत का यह महिमामंडन उससे हिंदी को जोड़कर हिंदी
के मुकाबले फारसी-उर्दू को नीचे और ज्ञान के मामले में बहुत पीछे दिखाने की
नीयत से भी किया गया। प्रतापनारायण मिश्र के लेख 'हमारी आवश्यकता (2)' में यह
बात पूरी स्पष्टता से दिखाई पड़ती है - ''आज हम लाख गई बीती दशा में हैं पर
हमारी भाषा किसी अन्य भाषा के किसी अंग से किसी अंश में कुछ भी कम नहीं है और
यदि इसे संस्कृत का सहारा मिल जाए तो मानो सोने में सुगंध हो जाए। क्योंकि
संस्कृत के यद्यपि लाखों ग्रंथ आज लुप्तप्राय हो गए हैं तथापि जो मिलते हैं
अथवा दौड़ धूप से मिल सकते हैं वह ऐसे नहीं कि किसी लौकिक अथवा पारलौकिक विद्या
से रहित हों। वरंच यह कहना अत्युक्ति नहीं है, अनेक सहृदयों की साक्षी से
सिद्ध है, कि जो कुछ संस्कृत के प्राचीन ग्रंथकार लिख गए हैं वही अभी तक दूसरी
भाषा के अभिमानियों को सूझना कैसा पूरी रीति से समझना ही कठिन है। एक बार नहीं
सैकड़ों बार देखने में आया है कि जिस विद्या के जिस अंग को विदेशी विद्वानों ने
वर्षों परिश्रम करके, सहस्रों का धन खो के, हस्तगत किया है और अनेक लोगों की
समझ में उसके आचार्य (ईजाद करने वाले) समझे गए हैं वही बात संस्कृत की किसी न
किसी पुस्तक में सहस्रों वर्ष पूर्व की लिखी हुई ऐसी मिल गई है कि बुद्धिमान
चकित रह गए हैं। फिर हम नहीं जानते ऐसी सर्वांग सुंदर भाषा के भंडार के रत्न
अपनी मातृभाषा के कोष में क्यों नहीं भर लिए जाते।''
आज भी नवीनतम वैज्ञानिक आविष्कारों का उल्लेख वेदों में ढूँढ़कर विद्वानों को
चकित कर देने वाले लोगों की कमी कहाँ है!
खैर, सन् 1873 ई. के पहले भारतेंदु की भाषा-नीति और 1873 ई. के बाद भारतेंदु
की भाषा नीति में जो बदलाव आया, उसके कारणों की तलाश वसुधा डालमिया और डॉ. वीर
भारत तलवार दोनों ने की है। राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिंद' और भारतेंदु के
व्यक्तिगत संबंधों के दाँव-पेंच की इस पूरे मामले में बड़ी भूमिका रही। डॉ. वीर
भारत तलवार ने अपनी पुस्तक 'रस्साकशी' में इस प्रसंग पर विस्तार से चर्चा की
है।
बहरहाल, इस पूरी चर्चा की शुरुआत उन्नीसवीं सदी में शुरु होने वाले
हिंदी-उर्दू अलगाव की बात से हुई थी। एक बार फिर उधर लौटें। 1868 ई. में राजा
शिवप्रसाद ने प्रांतीय सरकार को जो मेमोरेंडम सौंपा उसमें यद्यपि उर्दू को
हिंदी से अलग भाषा नहीं माना गया, लेकिन उसमें फारसी के शब्दों के अंधाधुंध
प्रवेश को रोकने की बात की गई और लिपि के रूप में फारसी को हटाकर नागरी लागू
करने की बात तो साफ-साफ कही गई। इस मेमोरेंडम का सरकार पर तो कोई असर नहीं पड़ा
लेकिन इसने मुस्लिम भद्रवर्ग में, जो सरकारी नौकरियों का भरपूर लाभ उठा रहे
थे, खलबली मचा दी। उन्नीसवीं सदी का हिंदी आंदोलन दरसअल उस समय के युक्तप्रांत
में हिंदू-मुस्लिम के बीच के शक्ति-समीकरण को बदलने का प्रयास था। मुसलमानों
के बीच होने वाली खलबली का मुख्य कारण अपनी शक्ति के खोने का भय ही था।
मुस्लिम भद्रवर्ग के मुखिया सर सैयद अहमद फारसी लिपि की जगह नागरी के आने से
मुसलमानों को होने वाले नुकसान का अनुमान कर रहे थे। 29 अप्रैल, 1870 ई. को
उन्होंने इंग्लैंड से मुहसिन-उल-मुल्क को पत्र लिखा कि - ''एक और मुझे खबर
मिली है जो मेरे लिए अत्यंत दुख एवं चिंता का कारण है। वह यह कि बाबू
शिवप्रसाद साहब के अभियान से आम हिंदू लोगों के दिल में जोश आया है कि जबान
उर्दू व फारसी लिपि को, जो मुसलमानों की निशानी है, मिटा दिया जाए। ...यह एक
ऐसा उपाय है कि हिंदू-मुसलमान में किसी तरह एकता नहीं रह सकती। मुसलमान हरगिज
हिंदी पर सहमत न होंगे और अगर हिंदू मुस्तैद हुए और हिंदी पर आग्रह किया तो वे
उर्दू पर सहमत न होंगे और परिणाम इसका यह होगा कि हिंदू-मुसलमान अलग हो
जाएँगे। यहाँ तक तो कोई चिंता नहीं, बल्कि मैं समझता हूँ कि अगर मुसलमान हिंदू
से अलग होकर अपना कारोबार करे तो मुसलमानों को ज्यादा फायदा होगा और हिंदू
नुकसान में रहेंगे। हाँ, इसमें दो बातों का ख्याल है। एक खास अपनी तबीयत के
कारण कि मैं सभी भारतवासियों क्या हिंदू क्या मुसलमान, सबकी भलाई चाहता हूँ।
दूसरे, बड़ा डर इस बात का है कि मुसलमानों का बुरा समय चल रहा है, वे हरगिज इस
काबिल नहीं होने के जो अपनी भलाई के लिए कुछ कर सकें।''
उपर्युक्त चिट्ठी में सर सैयद अहमद की चिंता का केंद्र साफ मालूम पड़ता है।
लेकिन इसमें कुछ और बातें हैं जिन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। सैयद अहमद
शिवप्रसाद के प्रयासों से चिंतित तो है लेकिन वे हिंदी-उर्दू या हिंदू-मुसलमान
के बीच एकता स्थापित करने की कोई बात नहीं करते बल्कि उल्टे यह कहते हुए कि
मुसलमान हरगिज हिंदी पर सहमत नहीं होंगे और हिंदू उर्दू पर सहमत नहीं होंगे,
वे हिंदी और उर्दू का क्रमशः हिंदू और मुस्लिम आधार और अधिक स्पष्ट कर देते
हैं। ध्यान दें तो एक बात और स्पष्ट होती है कि सैयद अहमद के लिए हिंदू-मस्लिम
अलगाव कोई चिंता की बात नहीं है बल्कि उन्हें इस बात का डर सबसे अधिक है कि यह
समय मुसलमानों के लिए ठीक नहीं चल रहा।
उन्नीसवीं सदी में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ते हुए अलगाव और इस कारण
हिंदी और उर्दू के बीच की बढ़ती हुई दूरी के कारणों का संकेत करते हुए
शम्सुर्रहमान फारूकी ने एक और बात कही - ''हिंदुओं में नए उर्दू लेखक तो फिर
भी पैदा होते रहे, लेकिन मुसलमानों ने अब एक नया तरीका अपनाया। शायद अचेतन तौर
पर अँग्रेजों के मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक दबाव के कारण या फिर उर्दू/हिंदी के
झगड़ों में दिन-ब-दिन बढ़ती कटुता के चलते मुसलमानों ने हिंदुओं को उर्दू की
प्रामाणिक तालिका से निकालने की मनोवृत्ति को अपनाना आरंभ किया। अपनी अत्यधिक
लोकप्रिय कृति (जो उर्दू शाइरी का इतिहास है) अर्थात् 'आब-ए-हयात' (प्रथम
संस्करण, 1880) में मुहम्मद हुसैन आजाद को केवल एक हिंदू शाइर (दयाशंकर नसीम
1811-1844) उल्लेखनीय दिखाई दिया। और उनका भी उल्लेख आजाद ने ऐतिहासिक क्रम
में सही स्थान पर नहीं, बल्कि मीर हसन (1727-1786) के साथ किया। लिहाजा ढूँढ़ने
वाला अगर चाहे भी तो नसीम का विवरण आसानी से नहीं ढूँढ़ सकता।''
इसी तरह के और भी अलगाववादी प्रयास हिंदी-उर्दू दोनों पक्षों के लोगों द्वारा
भरपूर किए गए। इसमें यह ढूँढ़ने की कोशिश करना मूर्खतापूर्ण होगा कि किसने यह
प्रयास पहले प्रारंभ किया और किसने ऐसा प्रयास ज्यादा किया। यह एक पक्ष के
प्रयास को दूसरे पक्ष की तुलना में न्यायोचित ठहराने की कोशिश से ज्यादा और
कुछ नहीं।
दरअसल जिसे उन्नीसवीं सदी का 'हिंदी आंदोलन' कहा जाता है, वह मूल रूप में
हिंदुओं को एकजुट करने के लिए चलाया जा रहा आंदोलन था। फ्रेंचेस्का ऑरसिनी ने
अपनी किताब 'द हिंदी पब्लिक स्फीयर' में बिलकुल ठीक नोट किया है कि -
''उन्नीसवीं सदी के अंतिम दिनों में चल रहा हिंदी-उर्दू विवाद पुराने
नौकरी-पेशा वाले भद्रवर्ग और नए समुदाय के बीच नौकरी और रूतबे के लिए होने
वाली प्रतिस्पर्धा मात्रा नहीं था, बल्कि यह अपनी सांस्कृतिक पहचान सुनिश्चित
कराने के लिए चल रहा संघर्ष भी था जिसमें नए-नए सांस्कृतिक प्रतीक गढ़े जा रहे
थे।''
इस आंदोलन में हिंदुओं को एकजुट करने की प्रक्रिया में तमाम ऐसे प्रतीक गढ़े गए
जिसके आधार पर तमाम हिंदुओं को एक छत के नीचे लाया जा सके। हिंदी, नागरी, गाय
आदि ये सारे प्रतीक उसी प्राचीन 'आर्यधर्म' की रक्षा के लिए इस्तेमाल किए गए
जिसके वारिस हिंदू थे। यह अकारण नहीं है कि उन्नीसवीं सदी के अधिकांश लेखक जब
'निजभाषा' की उन्नति की बात करते हैं तो उसमें 'आर्यधर्म' की 'चीख' नहीं तो
'गूँज' तो सुनाई पड़ती ही है। पिछले दिनों इस विषय पर पर्याप्त शोध हुए हैं और
तमाम उदाहरणों को ही संकलित कर दिया जाए जो उन्नीसवीं सदी के 'हिंदी आंदोलन'
के सांप्रदायिक चरित्र को उजागर करते हैं, तब भी एक मोटी किताब बन सकती है।
फिर भी ऐसे लेखकों-आलोचकों की कमी नहीं है जो शुक्ल जी के 'आध्यात्मिक रंग
वाले चश्मे' की तर्ज पर, उन्नीसवीं सदी के हिंदी आंदोलन के सांप्रदायिक चरित्र
की पड़ताल करने वालों पर 'सांप्रदायिक रंग के चश्मे' चढ़े होने की बात कर रहे
हैं। असल में यह एक पूरा विमर्श ही खड़ा हो गया है कि उस दौर का लेखन
सांप्रदायिक था या नहीं। सवाल किसी को सांप्रदायिक ठहराने या नहीं ठहराने का
नहीं है। सवाल है कि क्या दूसरे पक्ष की आँखों पर सांप्रदायिकता के चश्मे
लगाने वाले स्वयं 'मेरे महबूब में क्या नहीं, क्या नहीं' की तर्ज पर अपने-अपने
'चरित नायकों' को डिफेंड करते हुए उनकी गड़बड़ियों और खामियों से आँखें नहीं
चुराते रहे अगर ऐसा नहीं है तो क्यों वे सारे उद्धरण जो हाल-फिलहाल के शोधों
के बाद प्रकाश में आए, पहले के तमाम लेखन में गायब हैं? इतने सारे उद्धरण, जो
उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों के लेखन में भरे पड़े हैं, उन
आलोचकों-इतिहासकारों की नजरों से ओझल रह गए हों, यह मानना संभव नहीं है। बल्कि
ये मानना ज्यादा ठीक लगता है कि इन लोगों ने उन्हीं अंशों को प्रकाश में लाया
जिनके आधार पर उनके अपने विचार प्रमाणित किए जा सकते थे। यह दरअसल बौद्धिक
ईमानदारी के साथ घपला है। दुखद है कि इन दिनों यह घपला जोरों पर है।
उन्नीसवीं सदी के हिंदी आंदोलन के सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व भारतेंदु
हरिश्चंद्र थे। इनका एक निबंध है - 'जातीय संगीत'। इस निबंध में भारतेंदु ने
भारतवर्ष की उन्नति हेतु ग्रामगीतों की एक पुस्तक तैयार करने की बात की है और
लोगों से इसके लिए गीत लिखने का अनुरोध किया है। इसके लिए उन्होंने कुछ विषय
भी निर्धारित किए हैं। इन्हीं विषयों में से एक है - 'पूर्व्वज आर्यों की
स्तुति - इसमें उनके शौर्य्य, औदार्य्य, सत्य, चातुर्य्य, विद्यादि गुणों का
वर्णन।' अरुण देव ने अपने निबंध 'राष्ट्र की अवधारणा, भारत का अतीत और
भारतेंदु हरिश्चंद्र' में बिल्कुल ठीक लिखा है कि - ''इसमें पूर्वज के बाद आया
'आर्य' शब्द खासे महत्व का है। पूर्वजों से यहाँ तात्पर्य अब तक चली आ रही
परंपरा में अवस्थित उस निरंतरता से नहीं था जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों थे,
बल्कि यहाँ सचेत ढंग से हिंदुओं को उसमें से अलगाकर उन्हें आर्यों की एक सायास
निर्मित शुद्धतावादी ढाँचे में व्यवस्थित कर लेना भर था।''
भारतेंदु की बात को अत्यंत स्पष्ट रूप से बाद में उन्हीं के मंडल के एक अन्य
लेखक प्रतापनारायण मिश्र ने कहा - ''हम हिंदू हैं और यह देश हमारा स्थान है।
यह भारत है और हम यहाँ के मुख्य निवासी हैं। दूसरे लोग केवल गौण रीति से
भारतीय कहलावें पर मुख्य भारतीय हमीं हैं जिनके लाखों पुरखे भारत में हो गए और
परमेश्वर चाहेगा तो आगे होने वाली लाखों पीढ़ियाँ भारत ही में बीतेंगी तथा
हमारी ही उन्नति अवनती का नाम भारत की उन्नति अवनती है, था और होगा...। ...इस
रीति से आँखें पसार कर देखिए तो प्रत्यक्ष हो जाएगा कि हिंदुस्तान हिंदुओं ही
के बनने-बिगड़ने से बन-बिगड़ सकता है। जिन दिनों हिंदुओं के सौभाग्य का सूर्य
पूर्ण रूप से प्रकाशमान था उन दिनों समस्त विदेशी हिंदुस्तान का यश गाते थे,
प्रतिष्ठा करते थे और हिंदुस्तान के लिए ललचाते थे तथा हिंदुस्तान के कोप से
डरते थे। जब हिंदुओं के कुदिन आए तब हिंदुस्तान दूसरों के स्वेच्छाचार का आधार
बन गया। बड़े-बड़े शाहंशाहों के होते हुए भी भारत की दशा को कोई इतिहासवेत्ता
अच्छी न कह सकता था।''
यह सुखद है कि आज भारत के लोग प्रतापनारायण मिश्र की बातों को झूठा साबित कर
रहे हैं, भारत की 'उन्नति-अवनती' 'हिंदू मात्रा की उन्नति-अवनती' से तय नहीं
हो रही। हालाँकि 'भारत में यदि रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा' की धमकी देने
वाले भी इस देश में मौजूद हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
उन्नीसवीं सदी में भारत के इतिहास के बारे में अनेक मिथक गढ़े गए। भारत के
प्राचीन इतिहास को स्वर्णकाल कहना, मुसलमानों के आगमन के बाद अंधकार काल आ
जाना, आर्यों का भारत का मूल निवासी होना आदि उन मिथकों में प्रमुख थे। इन
तमाम मिथकों का इस्तेमाल करते हुए हिंदू मानस को मुसलमानों के खिलाफ एकजुट
करने की हर संभव कोशिशें की गईं। राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिंद', भारतेंदु और
उस दौर के लगभग तमाम लेखकों ने इन मिथकों का अपने-अपने ढंग से खूब प्रयोग
किया। शिवप्रसाद ने 'इतिहासतिमिरनाशक' के तीसरे खंड (1873 ई.) में मुसलमानों
के अत्याचार को कुछ इस तरह प्रस्तुत किया - ''काफिर तो मानो हिंदू शब्द का
पर्याय हो गया। यही कारण है कि जहाँ देखो बादशाह की तारीफ, अमीरों को खिलत
खिताब और सूबे देना लोगों को तुहफे नजर लेना मुल्क और किले फतह करना हिंदुओं
को काटना उनकी बहू बेटी बच्चों समेत लौंडी गुलाम बनाना उनका सब माल मत्ता लूट
लेना मंदिर और मूर्तों को तोड़ना, ब्राह्मणों को गोमांस खिलाना जबर्दस्ती
मुसलमान कर डालना शराब पीना नाचना गाना शिकार खेलना हाथी घोड़े फेरना यही
दिखलाई देता है।''
अँग्रेजों ने भारत में आकर भारतवासियों को मुसलमानों के अत्याचार से मुक्त
कराया, इसका जिक्र करते हुए वे लिखते हैं - ''ईश्वर की बड़ी कृपा हुई कि ऐसे
समय में इस देश के दरमियान अँग्रेजी अमलदारी हो गई। सूखे खेत फिर से लहलहाए,
अस्त हुए तारे फिर उदय हो आए...।''
यहीं पर भारत के इतिहास के बारे में भारतेंदु के विचार देखे जा सकते हैं।
'बादशाह-दर्पण' में मुसलमान राजाओं का वृतांत लिखते हुए उन्होंने कहा - ''इस
ग्रंथ में तो केवल उन्हीं लोगों का चरित्र है जिन्होंने हम लोगों को गुलाम
बनाना आरंभ किया। इसमें उन मस्त हाथियों के छोटे-छोटे चित्र हैं जिन्होंने
भारत के लहलहाते हुए कमलवन को उजाड़ कर पैर से कुचलकर छिन्न-भिन्न कर दिया।
मुहम्मद, महमूद, अलाउद्दीन, अकबर और औरंगजेब आदि इनमें मुख्य हैं।''
इसी में आगे अँग्रेजी शासन से तुलना करते हुए वे लिखते हैं - ''जो कुछ हो,
मुसलमानों की भाँति इन्होंने (अँग्रेज) हमारी आँख के सामने हमारी देवमूर्तियाँ
नहीं तोड़ीं और स्त्रियों को बलात्कार से छीन नहीं लिया, न घास की भाँति सिर
काटे गए और न जबरदस्ती मुँह में थूक कर मुसल्मान किए गए।''
भारत के इतिहास के बारे में भारतेंदु के ये विचार ठीक वे ही विचार हैं जो
शिवप्रसाद 'सितारे हिंद' के थे और जिसकी भारतेंदु ने फरवरी 1874 के हरिश्चंद्र
मैग्जीन में 'एन ऑर्थोडॉक्स हिंदू ऑफ काशी' के छद्मनाम से लेख लिखकर खूब
आलोचना की थी तथा यहाँ तक कहा था कि शिवप्रसाद ने मुसलमानों के अत्याचारों का
वर्णन करके इतिहास का केवल एक ही पक्ष सामने रखा है। उन्होंने सवाल उठाया था
कि इतिहास के एक पक्ष को सामने लाना और दूसरे पक्ष को दबाकर पाठक को धोखा देना
क्या ईमानदारी है? इतना ही नहीं भारतेंदु ने यह भी लिखा कि मुसलमानों के
अत्याचार की बात सही मानते हुए भी हम बच्चों को ये बात याद दिलाना नहीं चाहते
क्योंकि इससे भारतीय आबादी के दो बड़े समुदायों के बीच परस्पर बदले और घृणा की
भावना बढ़ेगी। भारतेंदु ने दोनों समुदायों को मिलाकर शांतिपूर्वक देश की उन्नति
के लिए प्रयास करने की सलाह दी। 1874 ई. के भारतेंदु के विचार और 1884 ई. के
भारतेंदु के विचारों में गहरा अंतर्विरोध है। इस अंतर्विरोध के कारणों के केवल
कयास लगाए जा सकते हैं, अंतिम उत्तर ढूँढ़ना लगभग नामुमकिन है।
उन्नीसवीं सदी के अंत में हिंदू-मुस्लिम अलगाववाद का चरम रूप बालकृष्ण भट्ट के
लेखन में दिखाई पड़ता है। कलकत्ता के कुछ मुसलमानों ने अपनी शिक्षा और विकास के
संबंध में उचित व्यवस्था करने की माँग करते हुए लार्ड रिपन को एक मेमोरेंडम
दिया था। बालकृष्ण भट्ट ने इस मेमोरेंडम पर जो और जैसी प्रतिक्रिया दी थी,
हिंदू-मुस्लिम हितों के परस्पर विरोधी होने की बात, उससे ज्यादा खुले रूप में
और कैसे कही जा सकती है! मार्च 1882 ई. के हिंदी प्रदीप में संपादकीय टिप्पणी
में बालकृष्ण भट्ट ने साफ-साफ लिखा - ''साँप को दूध पिलाने के माफिक इस
बाँकी-टेढ़ी कौम को बढ़ाकर अँग्रेजी सरकार तथा हम भोले-भाले गरीब हिंदुओं को
कितना क्लेश पहुँचने की संभावना है, इसका विचार लार्ड रिपन साहब को पहले कर
लेना चाहिए।''
इससे पहले जुलाई, 1881 ई. के हिंदी प्रदीप में भी वे इस बात को कह चुके थे कि
''आर्यों के एकांत विरोधी मुसलमानों को अपना भाई समझना भूल है।''
हिंदू-मुस्लिम हितों के परस्पर विरोधी होने की घोषणा यहाँ स्पष्ट रूप से कर दी
गई है। बिपिन चंद्र सांप्रदायिकता के जिस तीसरे चरण में विभिन्न समुदायों के
हितों को परस्पर विरोधी मान लिए जाने की बात करते हैं और जिसका भारतीय राजनीति
में प्रवेश मोटे तौर पर 1937 ई. के बाद मानते हैं उसके शुरुआती दर्शन
उन्नीसवीं सदी के अंत में ही होने लगे थे। बालकृष्ण भट्ट के उक्त उद्धरण के
अलावा उस दौर की दूसरी पत्रिकाओं में भी ऐसे ढेरों उद्धरण भरे पड़े है जिन्हें
देखा जा सकता है।
हिंदू-मुस्लिम अलगाववाद के ऐसे ही सांप्रदायिक माहौल में हिंदी और उर्दू की
शक्लें गढ़ी जा रही थीं। हिंदी को हिंदुओं की भाषा और उर्दू को मुसलमानों की
भाषा इतनी बार और इतने तरीकों से बताया गया कि इतना बड़ा झूठ उस दौर का सबसे
बड़ा सच बना दिया गया। हिंदी और उर्दू के बीच के विरोध को इतना बढ़ा दिया गया कि
मूल रूप से एक भाषा होने के बावजूद दोनों अलग-अलग भाषाएँ बन गईं। उर्दू को
फारसी शब्दों से और हिंदी को संस्कृत शब्दों से इस तरह बोझिल बनाया जाने लगा
कि सामान्य आदमी को न उर्दू समझ में आ सकती थी और न हिंदी। असल में हिंदी और
उर्दू दोनों पक्षों की ओर से कुछ ऐसे भद्रवर्गीय नेता उठ खड़े हुए जो शुद्ध
हिंदी और खालिस उर्दू की रहनुमाई करने का दावा करने लगे। इन भद्रवर्गीय नेताओं
ने अपने-अपने राजनीतिक-सामाजिक स्वार्थों के लिए बहुसंख्यक जनता की भाषा को दो
अतिवादी छोरों पर पहुँचा दिया और जनता की भाषा को उन्हीं के लिए अजनबी बना
दिया। आज भी बैंकों और सरकारी दफ्तरों में ऐसी अजनबी हिंदी से साबका पड़ ही
जाता है कि उस हिंदी से ज्यादा परिचित उसके लिए दिया गया अँग्रेजी शब्द
(वस्तुतः इस अँग्रेजी शब्द का ही बनावटी हिंदी अनुवाद किया गया होता है) लगता
है।
हिंदी और उर्दू का अलगाव कई बार चिढ़ और प्रतिक्रिया के रूप में भी किया गया।
'काशी पत्रिका' में छपने वाले 'वेनिस के सौदागर' की भाषा में, जो शेक्सपीयर के
'मर्चेंट ऑफ वेनिस' का भारतेंदु द्वारा किया गया अनुवाद था, भारतेंदु ने चिढ़
और प्रतिक्रियावश ही परिवर्तन किया और उसे 'दुर्लभ बंधु' नाम से अलग से
छपवाया। इसमें भारतेंदु ने कई चलते शब्दों की जगह संस्कृतनिष्ठ शब्दों को रखा।
लेकिन हर जगह यह चिढ़ और प्रतिक्रिया ही नहीं थी। उस दौर के अधिकांश हिंदी
लेखकों की भाषा-नीति की बुनियाद में ही उर्दू-विरोध था। और यह विरोध इसलिए कि
उर्दू 'यवनों' और 'म्लेच्छों' की भाषा है। हिंदी में बढ़ते संस्कृत प्रेम को
यहाँ सहज ही समझा जा सकता है। उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं
की भाषा बताने के अलावा यहाँ तक कहा गया कि जो लोग हिंदू होकर उर्दू
लिखते-बोलते हैं उनके हिंदू होने पर ही संदेह है। जाहिर है हिंदुओं में उर्दू
लिखने-पढ़ने वाला वर्ग कायस्थों और कश्मीरी ब्राह्मणों का था जो सरकारी
नौकरियों में थे। जून, 1880 ई. के 'हिंदी प्रदीप' में बालकृष्ण भट्ट ने लिखा
-''अफसोस कि हम हिंदू कहलाते हैं, और हिंदी को नहीं चाहते तो मुझे ऐसे लोगों
के हिंदू होने में कुछ दाल में काला जान पड़ता है।''
अगस्त 1887 ई. के 'हिंदी प्रदीप' में कायस्थों को धिक्कारते हुए उन्होंने लिखा
-''बाल्यावस्था से ही उर्दू, फारसी के अनुशीलन से इनकी समाज की समाज महामलेच्छ
हो गई।''
20 अक्टूबर, 1884 ई. के भारत जीवन में महावीर प्रसाद (महावीर प्रसाद द्विवेदी
से भिन्न) ने 'कायस्थों से निवेदन' शीर्षक से टिप्पणी की - ''यह प्रायः देखने
में आता है कि हिंदी को सभी हिंदू मात्र अनुमोदन करते हैं पर कतिपय कायस्थ
भ्राता उससे रूठे हैं। यह क्यों? जब हिंदी हिंदुओं की, हिंदुस्तानियों की,
हिंदुस्तानवासियों की भाषा है, तब कायस्थ क्यों विरक्त होते हैं? ...यह जाति
एक हिंदुओं में प्रधान, सभ्य, विद्यावान गिनी जाती है। इसके निकल जाने से अलवः
हिंदुओं का पल्ला हल्का पड़ जाता है ...तो क्या ये हिंदू नहीं हैं? ...ये हिंदू
आर्य संतान हैं।''
हिंदी की उन्नति के लिए जैसे-जैसे सुझाव उस दौर में दिए जा रहे थे उनमें से
बहुत कम ऐसे रहे जिसमें आर्य और हिंदू जैसे विशेषणों का प्रयोग नहीं किया गया।
प्रताप नारायण मिश्र तो मानो आर्य और हिंदूपन की दुहाई देने में औरों से होड़
ही कर रहे थे। अपने एक निबंध 'हिम्मत राखो एक दिन नागरी का प्रचार होहीगा' में
'ऋषि वंशजों' को सांत्वना और सलाह देते हुए वे लिखते हैं - ''जिस नागरी के लिए
सहस्रों रिषि वंशज छटपटा रहे हैं उसका उद्धार न हो, कहीं ऐसा भी हो सकता है?
...यदि हमारे आर्य भाई अधीर न होंगे तो एक दिन अवश्य होगा कि भारतवर्ष भर में
नागरी देवी अखंड राज्य करेंगी और उर्दू देवी अपने सगों के घर में बैठी कोदौं
दरैंगी। ...हमारे उत्साही वीरगण कमर बाँध के प्रयाग हिंदू समाज के सहायक तो
बनें। उसके सदनुष्ठान में शीघ्रता तो करैं। यदि सच्चे हिंदू हों, यदि सचमुच
हिंदी चाहते हों तो मन लगा के हिंदू समाज प्रयाग की अमृतवाणी सुनैं तो सही।''
जिस प्रयाग हिंदू समाज के सहायक बनने और उसकी अमृतवाणी को मन लगा कर सुनने की
सलाह प्रतापनारायण मिश्र 'आर्य भाइयों' को दे रहे हैं उस हिंदू समाज की वाणी
में कितना जहर मिला था, ये देखने की जरूरत है। प्रयाग हिंदू समाज मुसलमानों के
बारे में तरह-तरह की बेबुनियादी और बेसिर-पैर की बातें करके हिंदुओं को एक
लड़ाकू फौज में तब्दील करने की कोशिश कर रहा था। प्रयाग हिंदू समाज का
घोषणा-पत्र नवंबर 1882 ई. के 'हिंदी प्रदीप' में प्रकाशित हुआ जिसमें कहा गया
- ''मुसलमानों में यह एक बड़ी खूबी है कि मुसलमान चाहे मद्रास का हो या पंजाब
का हो - एक-दूसरे से बड़े हेलमेल के साथ पेश आते हैं। भला भारतवर्ष के हिंदुओं
में ऐसा एका क्यों नहीं?''
प्रतापनारायण मिश्र यहीं पर नहीं रुकते। अपने उपर्युक्त निबंध में आगे वे अपने
मन की बात कहते हैं - ''इस देश के मंगलकारी सदा से ब्राह्मण तो हैं ही। सदा
से, सब सदनुष्ठानों में इस पूजनीय जाति को छोड़ कौन अग्रगामी रहा है, और है?
हमको निश्चय है कि हमारे सच्चे सहायक ब्राह्मण ही हैं।''
क्रिस्टोफर किंग ने नागरी प्रचारिणी सभा के सभासदों में से अधिकांश ब्राह्मण
सदस्यों की उपस्थिति को देखते हुए जो शंका जाहिर की है उसे प्रतापनारायण मिश्र
का उक्त कथन निश्चित रूप से एक आधार दे देता है। बहरहाल, ऐसे ही 'सदनुष्ठान'
उन्नीसवीं सदी में 'हिंदी जाति' या 'हिंदुस्तानी जाति' के निर्माण के लिए किए
गए। ऐसे में यह बात बिल्कुल आश्चर्यजनक नहीं है कि आज तक बंगाली, तमिल, मराठी
आदि जैसी हिंदी या हिंदुस्तानी जाति नाम की कोई चीज क्यों नहीं बन पाई है।
उन्नीसवीं सदी में उर्दू का विरोध कोई क्षणिक आवेग या चिढ़ मात्र का परिणाम
नहीं था। यह काम पूरे योजनाबद्ध तरीके से किया गया। उर्दू के विरोध में उस दौर
में ढेरों कविताएँ लिखी गईं, नाटक लिखे गए। भारतेंदु द्वारा लिखित 'उर्दू का
स्यापा' अत्यंत प्रसिद्ध है। इसके बारे में अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं
लगती। इस तरह की, बल्कि इससे भी आगे बढ़कर उर्दू को नीचा दिखाते हुए ढेरों
कविताएँ लिखी गईं जो उस दौर की पत्रिकाओं में भरी पड़ी हैं। उर्दू को वेश्या और
हिंदी को सभ्य, सहिष्णु देवी के रूप में खूब चित्रित किया गया। हिंदी-उर्दू के
रूपक गढ़ते हुए कई नाटक भी लिखे गए जिसमें गाली-गलौज तक की नौबत आ गई। सोहन
प्रसाद के नाटक 'हिंदी और उर्दू की लड़ाई' ने तो हड़कंप मचा दिया। ऐसे नाटकों और
कविताओं में उर्दू के विरोध के साथ-साथ 'हिंदुत्व' और 'गोरक्षा' के मुद्दे को
भी इस तरह उठाया गया मानो इन सभी समस्याओं का निदान एक ही हो। और सचमुच उनके
लिए तो ऐसा था ही! 1881-82 के गोरक्षा आंदोलन का घालमेल भी इस हिंदी आंदोलन के
साथ हो गया था। पश्चिमोत्तर प्रांत में हिंदी और नागरी का आंदोलन कर रहे तमाम
नेता गोरक्षा आंदोलन से गहरे रूप में जुड़े हुए थे। भारतेंदु ने तो 'गो महिमा'
नाम की किताब भी लिखी। इस पूरे प्रसंग पर डॉ. वीर भारत तलवार ने अपनी किताब
'रस्साकशी' में विस्तार से लिखा है।
हिंदी-नागरी आंदोलन ने 1882 ई. में जोर पकड़ा था, जब भारत में शिक्षा की प्रगति
का निरीक्षण करने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से सर विलियम हंटर की अध्यक्षता
में एक आयोग गठित किया गया। हंटर आयोग से प्रांत के लोगों को बहुत उम्मीदें
थीं। यह लग रहा था कि शायद प्रांतीय सरकार की भाषा-नीति में अब कुछ परिवर्तन
करवा पाना संभव हो सकता है। इसी उम्मीद में युक्त प्रांत से सौ से भी ज्यादा
मेमोरियल हजारों हस्ताक्षरों के साथ अलग-अलग संस्थाओं के द्वारा दिए गए।
मेमोरियल देने वाली अधिकांश संस्थाएँ धार्मिक थीं। इन संस्थाओं ने जो मेमोरियल
हंटर आयोग को सौंपे उनके तर्क, जो हिंदी के पक्ष में दिए गए, प्रायः एक-से थे
जिनमें हिंदी को हिंदू धर्म से अनिवार्य रूप से जोड़ा गया था। अलीगढ़ की
'सत्यधर्मावलंबिनी सभा' ने जो मेमोरियल हंटर आयोग को सौंपा उसमें कहा गया कि
'बहुसंख्यक जनता के लिए हिंदी पढ़ना केवल इसलिए जरूरी नहीं है कि यह उस प्रांत
की देशी भाषा है बल्कि इसलिए भी जरूरी है क्योंकि संस्कृत के अलावा हिंदी ही
एक ऐसी भाषा है जिसके माध्यम से इन्हें इनके सामाजिक और धार्मिक कर्त्तव्यों
के निर्देश दिए जा सकते हैं।' हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों के संस्कृत और हिंदी
में लिखे होने की दलील पूरे आंदोलन में बार-बार दी गई। इसके अलावा फारसी लिपि
की अस्पष्टता और पाठ-भ्रम होने की बात और उसकी तुलना में नागरी के स्पष्ट और
वैज्ञानिक लिपि होने की बात भी कही गई। फारसी में लिखी हुई बातों के
कुछ-से-कुछ पढ़े जाने के मामले पर खूब लिखा गया, ढेरों उदाहरण दिए गए। बहरहाल,
1882 ई. में दिए गए सैंकड़ों मेमोरियल भी प्रांतीय सरकार की भाषा-नीति को बदलवा
पाने में असमर्थ रहे। फिर भी हिंदी के लिए और उर्दू के विरोध में चल रहे
आंदोलन को तो इसने तेज किया ही।
उन्नीसवीं सदी के हिंदी आंदोलन में हिंदी-उर्दू विवाद के अलावा ब्रजभाषा और
खड़ी बोली का विवाद भी बना हुआ था जो कविता के क्षेत्र में 'छायावाद' के दौर तक
बना रहा और जिसके लिए पंत को 'पल्लव' की लंबी भूमिका लिखनी पड़ी। उन्नीसवीं सदी
में भारतेंदु से लेकर उस दौर के कई बड़े लेखकों का विचार था कि खड़ी बोली में
कविता हो ही नहीं सकती, बावजूद इसके कि उन सबों ने स्वयं खड़ी बोली में कविताएँ
लिखीं। उस समय खड़ी बोली का आंदोलन करने वाले बिहार के बाबू अयोध्या प्रसाद
खत्री थे जो ब्रजभाषा को 'गँवारू बोली' कहते थे और भाषा (ब्रजभाषा) कविता को
हिंदी की कविता नहीं मानते थे। इन्होंने भारतेंदु की हिंदी की बारह शैलियों की
तर्ज पर खड़ी बोली की पाँच शैलियाँ बताईं। अपनी पुस्तक 'खड़ी बोली का पद्य' की
भूमिका में उन्होंने लिखा कि - ''खड़ी बोली के मैंने पाँच भेद माने हैं; ठेठ
हिंदी, पंडित जी की हिंदी, मुंशी जी की हिंदी, मोलवी साहिब की हिंदी, और
यूरेशियन हिंदी।''
इन पाँचों शैलियों में 'मुंशी जी की हिंदी' को खत्री जी खड़ी बोली पद्य के लिए
सबसे उपयुक्त मानते हैं। इस 'मुंशी जी की हिंदी' के बारे में वह लिखते हैं -
''मुंशी जी की हिंदी पंडित जी और मोलवी साहब की हिंदी के बीच की हिंदी है और
इसको यूरोपियन विद्वान हिंदुस्तानी कहते हैं।''
अयोध्याप्रसाद खत्री के 'खड़ी बोली आंदोलन' का घोर विरोध किया गया। यह विरोध
ऐसा था कि खड़ी बोली को पद्य की भाषा स्वीकार लेने के बावजूद भी खत्री जी को
इसका श्रेय नहीं दिया गया। अब तक लिखे गए हिंदी साहित्य के तमाम इतिहासों में
खत्री जी के बारे में की गई टिप्पणियों (यदि की गई हो!) को देखा जा सकता है।
आचार्य शुक्ल ने खत्री जी पर जो आठ-दस पंक्तियाँ 'हिंदी साहित्य का इतिहास'
में लिखी हैं, उनमें शुक्ल जी का व्यंग्य और उनकी चिढ़ साफ-साफ दिखाई पड़ती है।
वह लिखते हैं - ''...मुजफ्फरपुर के बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री खड़ी बोली का झंडा
लेकर उठे। ...इसी प्रकार खड़ी बोली के पक्ष में जो राय मिलती, वह भी उसी पोथी
में दर्ज होती जाती थी। धीरे-धीरे एक बड़ा पोथा हो गया जिसे बगल में दबाए वे
जहाँ कहीं हिंदी के संबंध में सभा होती, जा पहुँचते। यदि बोलने का अवसर न
मिलता या कम मिलता तो वे बिगड़कर चल देते थे।''
देखा जा सकता है कि खत्री जी के 'खड़ी बोली आंदोलन' के तमाम महत्वपूर्ण
प्रयासों पर शुक्ल जी ने कितनी हल्की और छिछली टिप्पणी की है। इतना ही नहीं,
चूँकि खत्री जी ने 'एक अगरवाले के मत पर एक खत्री की समालोचना' शीर्षक पैंफलेट
में लिखा था कि भारतेंदु को शब्दशास्त्र का कुछ भी ज्ञान न था, शायद इसलिए
शुक्ल जी भी उनके बारे में यह कहना जरूरी समझते हैं कि ''वे भाषातत्व के
जानकार न थे।''
'हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास' भी खत्री जी को 'खड़ी बोली पद्य' के लिए किए गए
आंदोलन और तमाम प्रयासों का श्रेय नहीं दे पाता। इतना 'बृहत्' इतिहास तैयार
करवाने के बावजूद इसमें खत्री जी पर अलग से लिखने की जरूरत नहीं समझी गई।
'हिंदी खड़ी बोली काव्य' शीर्षक के भीतर दो-तीन बार खत्री जी का उल्लेख अवश्य
कर दिया गया है। यहाँ भी ऐसी लापरवाही बरती गई है कि राय सोहनलाल जिसे खत्री
जी ने 'खड़ी बोली का पद्य' में मुंशी स्टाइल के अंतर्गत रखा है और जिन्हें वे
मुंशी स्टाइल का जनक ही मानते थे, उनके बारे में लिखा गया कि - ''राय सोहनलाल
की खड़ी बोली का पद्य, संकलित रचना में बहुत ही सामान्य है तथा उसमें उर्दू
शब्दावली की अधिकता पर्याप्त मात्रा में है। इसी के कारण संभवतः उनकी रचना को
मौलवी स्टाइल के अंतर्गत रखा गया है।''
मतलब कि शुक्ल जी से लेकर बाद के तमाम साहित्येतिहासकारों ने जो भी इतिहास
लिखा उसमें अयोध्याप्रसाद खत्री का अलग से उल्लेख करना जरूरी नहीं समझा। खत्री
जी के बारे में बीसवीं सदी के अंत तक लिखे गए साहित्येतिहास में भी इतना ही
कहना जरूरी समझा गया कि वे खड़ी बोली का आंदोलन कर रहे थे तथा इस आंदोलन में
ब्रजभाषा के विरोध में खड़ी बोली का पक्ष ले रहे थे और उन्होंने 'खड़ी बोली का
पद्य' पुस्तक तैयार किया था, भले ही साहित्येतिहासकार हिंदी साहित्य का 'दूसरा
इतिहास' ही लिखने का दावा क्यों न कर रहा हो!
बहरहाल, अहम सवाल यह है कि आखिर स्वयं खड़ी बोली में कविता कर रहे लोग खत्री जी
का विरोध क्यों कर रहे थे? ब्रजभाषा के प्रति आग्रह क्या सिर्फ इसलिए ही था कि
ब्रजभाषा कविता की परंपरा बड़ी पुरानी और समृद्ध थी, जबकि खड़ी बोली कविता की
कोई परंपरा नहीं थी? खत्री जी द्वारा संकलित पुस्तक 'खड़ी बोली आंदोलन' में खड़ी
बोली तथा ब्रजभाषा के पक्ष के लोगों के बीच के वाद-विवाद को देखने पर इसके मूल
कारण का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। जहाँ तक खड़ी बोली कविता की परंपरा का
सवाल है तो भारतेंदु स्वयं उर्दू में, जो खड़ी बोली की ही एक शैली है, कविता
लिख रहे थे। उन्होंने 1882 ई. में हंटर कमिशन के सवालों का जवाब देते हुए अपना
परिचय संस्कृत, हिंदी और उर्दू के कवि के रूप में दिया था। असल में खड़ी बोली
के विरोध के पीछे मूल मुद्दा यह था कि खड़ी बोली में न चाहते हुए भी उर्दू
(अरबी-फारसी) के शब्द आ जाएँगे। इसके विपरीत ब्रजभाषा इस 'छूत' से बची हुई थी।
ब्रजरत्नदास के 'खड़ी बोली हिंदी साहित्य का इतिहास' में इस ओर संकेत किया गया
है। उन्होंने लिखा है - ''यद्यपि भारतेंदु जी के काल ही में यह प्रश्न उठा था
कि गद्य तथा पद्य की भाषा एक ही होनी चाहिए। पर उस समय के प्रमुख साहित्यकारों
ने यही निश्चय किया कि पद्य में खड़ी बोली के उपयोग से सरसता नहीं आती और उर्दू
शब्दों की भरमार हो जाने से हिंदी पद का अभाव-सा हो जाता है।''
चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने भी नागरी प्रचारिणी सभा के गृह प्रवेश के मौके पर
सुधाकर द्विवेदी द्वारा ब्रजभाषा में दिए गए 'एड्रेस' पर खत्री जी की
प्रतिक्रिया का जवाब देते हुए कहा था कि -
"बाबू साहब को उन कठिनाइयों का ज्ञान न था जो खड़ी बोली में एड्रेस देने पर सभा
को पड़तीं, क्योंकि सबके सामने पॉलिसी में 'सरल भाषा के पक्षपाती' बनने वालों
को निखालिस उर्दू शब्द काम में लाने पड़ते और काशी नाम को कुछ गौरव से रहित
करना पड़ता।"
चंद्रधर शर्मा गुलेरी की टिप्पणी ब्रजरत्नदास की उक्त बात को और साफ कर देती
है।
अयोध्याप्रसाद खत्री का खड़ी बोली का आंदोलन खड़ी बोली को कविता का माध्यम बनाने
मात्र का आंदोलन नहीं था। वह आंदोलन दरअसल उस दौर में हिंदी भाषा के
स्वरूप-निर्धारण की नीति में बुनियादी परिवर्तन लाने का आंदोलन भी था। खत्री
जी जिस मुंशी स्टाइल की हिंदी की बात कर रहे थे वह और कुछ नहीं 'हिंदुस्तानी'
ही थी जिसमें न तो संस्कृत के और न ही अरबी-फारसी के भारी भरकम शब्द थे। खत्री
जी चाहते थे कि हिंदी के लोग ब्रजभाषा का मोह छोड़ दें और इसी तरह उर्दू वाले
लोग फारसी लिपि का मोह छोड़ दें और इस प्रकार हिंदुस्तानी भाषा और नागरी लिपि
पर एक आम सहमति बनाई जा सके। यह एक ऐसा रास्ता था जिससे हिंदी-उर्दू और इसी के
साथ हिंदू-मुसलमानों के अलगाव को रोका जा सकता था। लेकिन उस दौर की अलगाववादी
आवाजों ने इस प्रगतिशील आवाज को दबा दिया।
हिंदी-उर्दू के अलगाव को बढ़ावा देने वाले तमाम लेखकों ने इस अलगाववादी रवैये
से मुक्त सृजन के कुछ क्षणों में ऐसा लेखन भी किया है जो भाषा को गढ़ने के
प्रोपेगैंडा से मुक्त हैं और निस्संदेह बोलचाल की भाषा बोलती हुई हिंदी है।
भारतेंदु का 'अंधेर नगरी' नाटक तथा उनके यात्रा-वृत्तांत और बालकृष्ण भट्ट,
प्रतापनारायण मिश्र आदि के कुछ-एक निबंध ऐसी ही बोलती हुई हिंदी में हैं जिनका
जिक्र हमेशा होता आया है। इनके लिए उक्त लेखकों के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए
भी इस सच्चाई को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि भाषा के मामले में ऐसा
'सेक्युलर' लेखन उनके सांप्रदायिक लेखन की तुलना में काफी कम है। और इसका
नतीजा वही हुआ जिसकी तैयारी वर्षों से की गई थी।
संदर्भ
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वही, पृ.-64 पर उद्धृत
2. वही, पृ.- 69 पर उद्धृत, मेमोरेंडम अँग्रेजी में दिया गया था जिसका अनुवाद
डॉ. वीर भारत तलवार ने रस्साकशी में दिया है। मूल अँग्रेजी उद्धरण के लिए
देखें - वसुधा डालमिया, द नेशनलाइजेशन ऑफ हिंदू ट्रेडीशंस, ऑक्सफोर्ड
युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1999, पृ.-195
3. वही, पृ.-70 पर उद्धृत नागरी प्रचारिणी पत्रिका, संवत् 2034, वर्ष-82,
अंक-3-4, पृ.- 90 पर अँग्रेजी में (देवनागरी अक्षरों में) उद्धृत (अनुवाद
मेरा)
4. वही, पृ.- 90 देखें-समकालीन जनमत, मार्च, 2004, वर्ष-23, अंक-1 में 'हिंदी
नवजागरण' पर प्रो. मैनेजर पांडेय की बातचीत के अंश, पृ.- 31
5. देखें - हरिश्चंद्र मैगजीन, 15 अक्टूबर 1873 में प्रकाशित निबंध - 'हिंदी
भाषा' (अँग्रेजी में), हरिश्चंद्र मैगजीन, साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा
प्रकाशित, पृ.-11-12
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हिंदी प्रचारक पब्लिकेशंस प्रा.लि., वाराणसी, 2000, पृ.- 576
8. प्रतापनारायण मिश्र, प्रतापनारायण ग्रंथावली, संपा.- विजयशंकर मल्ल, नागरी
प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संवत् 2049, पृ.- 270
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10. शम्सुर्रहमान फ़ारूकी, उर्दू का आरंभिक युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
2007, पृ.- 45 पर उद्धृत
11. वही, पृ.- 37 फ्रेंचेस्का ऑरसिनी, द हिंदी पब्लिक स्फीयर (1920-40),
ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 2002, पृ.-29 (अनुवाद मेरा)
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आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2007, पृ.- 93 पर उद्धृत
14. वही, पृ.- 93 पर उद्धृत भारतेंदु समग्र, पृ.-731
15. वही, पृ.-732 देखें - हरिश्चंद्र मैगजीन, 15 फरवरी 1874 ई., हरिश्चंद्र
मैगजीन, साहित्य सम्मेलन प्रयाग, पृ.-151-152
16. हिंदी प्रदीप, मार्च 1882 ई.
17. हिंदी प्रदीप, जुलाई, 1881 ई.
18. बिपिन चंद्र एवं अन्य, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, हिंदी माध्यम
कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, 1998, पृ.- 319-20 देखें
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19. हिंदी प्रदीप, जून 1880 ई.
20. हिंदी प्रदीप, अगस्त 1887 ई.
21. भारत जीवन, 20 अक्टूबर, 1884 ई.
22. प्रतापनारायण ग्रंथावली, पृ.- 39
23. हिंदी प्रदीप, नवंबर, 1882 ई.
24. प्रतापनारायण ग्रंथावली, पृ.- 40
25. क्रिस्टोफर आर. किंग, वन लैंग्वेज टू स्क्रिप्ट्स, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी
प्रेस, नई दिल्ली, 1994, पृ.- 144
26. देखें-रस्साकशी, पृ.- 363 से 375
27. देखें-वही, पृ.- 333 से 355
28. वन लैंग्वेज टू स्क्रिप्ट्स, पृ.- 134 पर उद्धृत (अनुवाद मेरा)
29. देखें-भारतेंदु समग्र में 'हिंदी भाषा' शीर्षक निबंध, पृ.- 1050-51
30. अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक ग्रंथ, संपा.- आचार्य शिवपूजन सहाय एवं श्री
नलिन विलोचन शर्मा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1960 में संकलित, पृ.-
117
31. वही, पृ.-117 आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी
प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संवत् 2058, पृ.- 324-25
32. देखें - अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक ग्रंथ, पृ.- 86
33. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ.- 324
34. देखें - डॉ. शितिकंठ मिश्र, खड़ी बोली का आंदोलन, नागरी प्रचारिणी सभा,
वाराणसी, संवत् 2013, पृ.-161
35. हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास, खंड-8, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी,
1972, पृ.-144
36. देखें - बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन,
दिल्ली, 2002, पृ.- 309-10
37. अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक ग्रंथ में संकलित, पृ.-61 से 100 तक
38. देखें - एजुकेशन कमीशन एविडेंस, भारतेंदु समग्र, पृ.-1054
39. अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक ग्रंथ, पृ.- 209 पर उद्धृत
40. देखें - चंद्रधर शर्मा गुलेरी, प्रतिनिधि संकलन, संपा.- विश्वनाथ
त्रिपाठी, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली, 1997, पृ.- 138