हिंदी कविता का इतिहास बहुत पुराना है, इसमें उत्तरोत्तर रूप, गुण, भाव व अभिव्यक्ति के स्तर पर परिवर्तन होता रहा है। हिंदी कविता का आविर्भाव काल आदिकाल है जहाँ से हिंदी की यात्रा प्रारंभ होती है। आधुनिककालीन हिंदी कविता, आदिकाल की विभिन्न प्रवृत्तियों से गुजरते हुए भक्तिकालीन विभिन्न धाराओं व रीतिकालीन विभिन्न प्रवृत्तियों से होकर आधुनिक काल में प्रवेश करती है। जिस प्रकार आधुनिक काल में गद्य साहित्य का जन्म हुआ उसी प्रकार पद्य साहित्य का पुनर्निर्माण भी हुआ। इस समय की कविता के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं कि "यह सूचित किया जा चुका है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस प्रकार गद्य की भाषा का स्वरूप स्थिर करके गद्य साहित्य को देशकाल के अनुसार नए-नए विषयों की ओर लगाया, उसी प्रकार कविता की धारा को भी नए-नए क्षेत्रों की ओर मोड़ा। इस नए रंग में सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति की वाणी का था। उसी से लगे हुए विषय लोकहित, समाजसुधार, मातृभाषा का उद्धार आदि थे। हास्य और विनोद के नए विषय भी इस काल में कविता को प्राप्त हुए। रीतिकाल के कवियों की रूढ़ि में हास्यरस के आलंबन कंजूस ही चले आते थे। पर साहित्य इस नए युग के आरंभ से ही कई प्रकार के नए आलंबन सामने आने लगे - जैसे, पुरानी लकीर के फकीर, नए फैशन के गुलाम, नोच-खसोट करने वाले अदालती अमले, मूर्ख और खुशामदी रईस नाम या दाम के भूखे देशभक्त इत्यादि।"1 आचार्य शुक्ल के इस उद्धरण में आधुनिक काल की प्रारंभिक हिंदी कविता का लगभग समस्त पक्ष स्पष्ट रूप से सामने आ जाता है।
उन्नीसवीं सदी के अंत की हिंदी कविता के विकास में भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र और उनके मंडल के अन्य सदस्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। आधुनिककालीन कविता की शुरुआत 1850 ई. से प्रारंभ होती है, 1850 ई. में ही भारतेंदु का जन्म हुआ तथा इनके जन्म के उत्तरोत्तर हिंदी कविता में महत्वपूर्ण परिवर्तन होता रहा। यह निरंतर विकास के मार्ग पर इन कर्मठ कवियों के सहारे अग्रसर होती रही। बदलते परिवेश और हालात में विकसित इस युग की कविता को पुनर्जागरण की कविता की संज्ञा दी गई। उन्नीसवीं सदी की हिंदी कविता का चरमोत्कर्ष उसके अंत में ही दिखलाई पड़ता है। 1868 ई. में भारतेंदु द्वारा संपादित पत्रिका 'कविवचन सुधा' का प्रकाशन प्रारंभ होता है और तभी से भारतेंदु मंडल तथा श्रीधर पाठक जैसे कवियों ने हिंदी साहित्य को मजबूती से सहारा दिया। आधुनिककालीन हिंदी कविता को समृद्धि और मजबूती, उन्नीसवीं सदी के अंत की हिंदी कविता से प्राप्त होती है। जिन महत्वपूर्ण कवियों ने आधुनिककालीन हिंदी कविता से परिचय कराया उनकी साहित्यिक पृष्ठभूमि उन्नीसवीं सदी के अंत में तैयार हो चुकी थी इसीलिए बीसवीं सदी की प्रारंभिक कविता को उन्नीसवीं सदी की हिंदी कविता का विस्तार माना जाता है। श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, नाथूराम शर्मा 'शंकर', अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध', मैथिलीशरण गुप्त आदि मूर्धन्य कवि अपनी कविता की भावभूमि और भावबोध उन्नीसवीं सदी से लेकर अवतरित हुए।
उन्नीसवीं सदी की हिंदी कविता में कई भाषाओं की रचनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं, जिसमें ब्रजभाषा, अवधी और खड़ीबोली तीनों ने समान रूप से काव्य की सेवा की। इस काल में पाश्चात्य संस्कृति का संपर्क और भारतीय राष्ट्रीयता के उदय की जो मिली-जुली प्रतिक्रिया लोक में हुई उसकी प्रतिध्वनि उस युग की कविता में सुनाई देती है। इसी को ध्यान में रखकर भारतेंदु ने अपने 'कालचक्र' में लिखा कि 'हिंदी सन 1873 ई. में नई चाल में ढली'। ऐसा नहीं था कि भारतेंदु की उद्घोषणा के साथ ही हिंदी 1873 ई. में बिल्कुल बदल गई बल्कि धीरे-धीरे उसमें परिवर्तन होना शुरू हुआ। स्वयं भारतेंदु ने कुछ कविताएँ खड़ी बोली हिंदी में लिखकर इस परिवर्तन की नींव रखी।
उन्नीसवीं सदी की हिंदी कविता के विकास को रेखांकित करते हुए सत्यदेव मिश्र लिखते हैं कि "हिंदी खड़ी बोली काव्य रचना भारतेंदु युग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस भाषागत उपलब्धि के संदर्भ में हिंदी कविता की गतिविधि लगभग बीस वर्षों तक अवरुद्ध-सी हो गई थी। कारण स्पष्ट था, हिंदी खड़ी बोली रचना प्रायोगिक स्तर पर थी। शैलीगत एकरूपता एवं रचना के एकरूप मानदंड की स्थिरता का इस समय सर्वथा अभाव था। इस समय के नवीन प्रयोग कवि शिवप्रसाद सितारेहिंद, बाबू हरिश्चंद्र, बाबू लक्ष्मी प्रसाद, श्रीधर पाठक, नाथूराम शर्मा 'शंकर', आदि नवीन शैली की खोज में भटकते हुए दृष्टिगत हो रहे थे। इस प्रकार भारतेंदुयुगीन खड़ीबोली काव्य रचना विशेष प्रकार की संक्रांति में दबी हुई अपना मार्ग बना रही थी।"2 सत्यदेव मिश्र ने उन्नीसवीं सदी की हिंदी कविता की भाषा-शैली की दुविधा और इसके प्रयोग की पूरी रूप-रेखा प्रस्तुत उद्धरण में उद्धृत की है। ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसायटी तथा विवेकानंद के विचारों आदि का प्रभाव उन्नीसवीं सदी की कविता को पल्लवित और पुष्पित करने में अहम भूमिका का निर्वाह करता है।
आधुनिक हिंदी कविता की मजबूत नींव रखने का उत्तरदायित्व उन्नीसवीं सदी के अंत की हिंदी कविता ने बखूबी निभाया है। इस युग में जन सामान्य में पुनर्जागरण का बीजारोपण एक बार फिर से हुआ। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में परिवर्तन की एक लहर दौड़ गई। इस युग का परिवर्तन शृंगारिक रसिकता, अलंकार का मोह, रीति का निरूपण, प्रकृति का उद्दीपन के रूप में चित्रण आदि रीतिकालीन रीतिबद्धता पर अंकुश लगाता है। भक्ति और नीति के प्रति लोगों की भावनाएँ थोड़ी बदली-बदली सी नजर आने लगी। इस युग ने जनता को सचेत करने के लिए जातीय संगीत जैसे लोकगीत की शैली पर समाज को संबोधित कविताओं की रचना की। मातृभूमि से प्रेम, बाल-विवाह का निषेध, भ्रूण-हत्या की निंदा जैसे विषयों का वर्णन कविताओं में देखा जाने लगा। राष्ट्रीय भावना का प्रबल उद्गार इस काल की अन्यतम विशेषता थी।
ठाकुर जगमोहन सिंह की स्वच्छंदवृत्ति :
जिस स्वच्छंदतावाद का प्रर्वतक आधुनिककालीन कविता में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने श्रीधर पाठक को माना है उस स्वच्छंदतावाद का प्रथम लक्षण ठाकुर जगमोहन सिंह के काव्य में दिखलाई पड़ता है। ठाकुर जगमोहन सिंह भारतेंदु युग के स्वच्छंद कवि माने जाते हैं। उनकी इस प्रकृति के विषय में डॉ. बच्चन सिंह ने लिखा है कि "इस काल में जगमोहन सिंह अपनी स्वच्छंदतावादी रचनाओं के लिए जो घन आनंद की परंपरा में पड़ती है, स्मरणीय रहेंगे। उन्होंने अपनी प्रेयसी 'श्यामा' के विरह में 'श्यामास्वप्न', 'श्यामविनय', 'श्यामलता', 'श्यामसरोजनी' आदि की सर्जना की। इनमें उनके अकृत्रिम हृदय का उद्गार है।"3 बच्चन सिंह के कथन से यह प्रतीत होता है कि ठाकुर जगमोहन सिंह का कृतित्व और व्यक्तित्व रीतिमुक्त कवियों से बहुत मेल खाता है। जिस तरह से रीतिमुक्त कवि घनानंद, बोधा, आलम आदि ने अपनी प्रेमिकाओं को अपने काव्य का विषय बनाया उसी प्रकार से जगमोहन सिंह ने भी अपनी प्रेमिका को अपने काव्य की प्रेरणा का स्रोत बनाया।
आदिकाल और मध्यकाल में जो प्रकृति, कवियों की लेखनी से बहुत दूर हो चुकी थी, जो केवल कहीं-कहीं पर उद्दीपक का कार्य करती हुई दिखाई देती थी उस प्राकृतिक छटा को आधुनिक काल में जगमोहन सिंह की कविता में एक आलंबन प्राप्त हुआ। इनकी इस विशेषता का पल्लवन आगे चलकर श्रीधर पाठक और छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत के काव्य में अपने चरम पर दिखाई पड़ता है। इस विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन है कि "यद्यपि जगमोहन सिंह जी अपनी कविता को नए विषयों की ओर नहीं ले गए, पर प्राचीन संस्कृत काव्यों के प्राकृतिक वर्णनों का संस्कार मन में लिए हुए, अपनी प्रेमचर्या की मधुरस्मृति से समन्वित विंध्यप्रदेश के रमणीय स्थलों को जिस सच्चे अनुराग की दृष्टि उन्होंने देखा है, वह ध्यान देने योग्य है। उसके द्वारा उन्होंने हिंदी काव्य में एक नूतन विधान का आभास दिया था।" 4 ठाकुर जगमोहन सिंह की कविताई में प्राचीन संस्कृत महाकाव्यों का प्रभाव है वे अपनी प्राचीन प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत को पोषित करना चाहते थे परंतु उनके पश्चात अन्य किसी कवि ने प्राचीनता के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई। आचार्य शुक्ल का यह उद्धरण उनके प्रकृति विषयक अनुराग को उद्धृत करता है। भारतेंदु और प्रतापनारायण मिश्र के बाद ये तीसरे भारतेंदुयुगीन कवि हैं जिन्हें अल्पायु मिली थी परंतु इन दोनों साहित्यकारों की तरह ठाकुर साहब ने भी हिंदी साहित्य जगत में उल्लेखनीय कार्य किया। इनका जन्म जबलपुर के निकट मध्य-प्रदेश में हुआ था किंतु शिक्षा हेतु इन्हें काशी ले जाया गया और यहीं पर इनका संपर्क भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र से हुआ। भारतेंदु से प्रभावित होकर ये भी साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हुए। ठाकुर साहब कई भाषाओं के जानकार थे। इन्होंने गद्य और पद्य, दोनों में समान अधिकार से लेखन कार्य किया है।
ठाकुर जगमोहन सिंह को हिंदी के साथ अँग्रेजी और संस्कृत भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों विधाओं में साहित्य सृजन किया। इनकी उपर्युक्त रचनाओं से ज्ञात होता है कि इन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन कार्य किया है। ठाकुर साहब आधुनिक काल के पहले ऐसे कवि हैं जिन्होंने मानवीय सुंदरता को प्राकृतिक सौंदर्य के साथ समन्वित करके प्रस्तुत किया है। ठाकुर साहब राजवंश से संबद्ध होने के बावजूद देशभक्ति और राष्ट्रीयता के पोषक थे। उन्होंने अन्य समकालीन कवियों की तरह देशदशा का वर्णन किया तथा अपनी कविताओं के द्वारा देशवासियों को प्रेरित करने का प्रयास किया।
ठाकुर साहब ने विंध्य प्रदेश के सुरम्य स्थलों का अत्यंत सूक्ष्म निरीक्षण किया है। यह इनका सूक्ष्म अवलोकन हिंदी आधुनिक कविता को एक नई दृष्टि, एक नई विचारधारा का मार्ग प्रशस्त करने में सहायक सिद्ध हुआ है। हिंदी साहित्य के आदिकाल से ही यह देखा गया है कि संस्कृत काव्य की विशेषताएँ लुप्त हो चुकी थी, प्रकृति का जो सूक्ष्म वर्णन वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति के महाकाव्य में पाई जाती थी वह उच्चता बाद के संस्कृत कवियों के यहाँ भी अप्राप्य है, हिंदी कवियों की तो बात ही क्या है। हिंदी साहित्य में प्रकृति का वर्णन मात्र नायक-नायिका के भावों को प्रकाशित कराने का एक माध्यम बन गया था। ठाकुर साहब ने प्रकृति का वर्णन स्वच्छंद रूप से संस्कृत कवियों की भाँति किया। इनके काव्य में शृंगार-वर्णन और प्रकृति-वर्णन की प्रमुखता है। ये दोनों प्रवृत्तियाँ 'श्यामास्वप्न' उपन्यास में देखी जा सकती हैं, जिसमें कुछ कविताओं का स्वाभाविक प्रयोग किया गया है। इनके काव्य में संवेदना और भावुकता का प्रमुख स्थान है -
कुलकानि तजी गुरु लोगन में बसि कै सब बैन कुबैन सहा।
परलोक नसाय सबै विधि सों उनमत्त को मारग जान गहा॥
जगमोहन धोय हया निज हाथन या तन पाल्यो है प्रेम महा।
सब छोड़ि तुम्हें हम पायो अहो तुम छोड़ि हमैं अहो पायो कहा॥5
ठाकुर जगमोहन सिंह के विषय में कुमुद शर्मा लिखती हैं कि "भारतेंदु-मंडल के रचनाकारों में एक 'प्रेम पथिक' कवि के रूप में पहचान बनाने वाले ठाकुर जगमोहन सिंह उन आधुनिक हिंदी निर्माताओं में से एक हैं जिन्होंने आधुनिक साहित्य को नए रूप-रंग के ढर्रे पर आगे बढ़ाया और उसकी पुरानी चाल-ढाल को भी सुरक्षित रखा। प्रेमभाव की सरस और कोमलतम अनुभूतियों तथा प्रकृति के ताजा टटके रंगों से कविता में जीवंतता भरी। कवि के रूप में उन्होंने प्रकृति और जीवन के रिश्तों की बारीक बुनावट को कविता में उतारकर आधुनिक हिंदी कविता को एक नया विधान दिया तो गद्यकार के रूप में प्रारंभिक गद्य को साहित्यिक स्वरूप प्रदान करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।"6 आचार्य शुक्ल ने जहाँ रीतिकालीन कवि घनानंद को 'प्रेम का पथिक' करार दिया वहीं कुमुद शर्मा ने ठाकुर जगमोहन सिंह को आधुनिककालीन 'प्रेम-पथिक' माना है और ऐसा उनका मानना स्वाभाविक ही है चूँकि जगमोहन सिंह ने घनानंद की काव्य प्रवृत्ति को पल्लवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
ठाकुर जगमोहन सिंह के काव्य में भारतेंदुयुगीन कवियों के समान परंपरा के प्रति आदर भाव था परंतु आसक्ति नहीं थी जिसके कारण वे अपने समकालीन कवियों से भिन्न दिखाई देते हैं। प्रकृति और प्रेम को आधार बनाकर उन्होंने काव्य के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किए। उनके काव्य में अपने समकालिकों से अधिक व्यावहारिकता और लोकरूपता विद्यमान है। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा के उपरांत ठाकुर साहब मध्यप्रदेश सरकार में तहसीलदार के महत्वपूर्ण पद को आदि से अंत तक सुशोभित किया। इस संदर्भ में 'द्विवेदी-अभिनंदन-ग्रंथ' (नागरी प्रचारिणी सभा, काशी) में रायबहादुर हीरालाल बी.ए. ने लिखा है कि "विद्याध्ययन पूरा करने पर सरकार ने आपको तहसीलदार के पद पर नियुक्त किया, जिससे आपको मध्यप्रदेश के अनेक भागों में भ्रमण करने और वनश्री का प्रकृत-सौंदर्य देखने का अवसर मिला। ...आप सरकारी नौकरी में आदि से अंत तक तहसीलदार ही बने रहे, क्योंकि आप बड़े स्वतंत्र प्रकृति के व्यक्ति थे - डिप्टी कमिश्नरों अथवा कमिश्नरों की भी कुछ परवा न करते थे।"7 जिस तरह का यायावरी जीवन श्रीधर पाठक का था ठीक उसी तरह का जीवन ठाकुर साहब का भी व्यतीत हुआ। इसी कारण इन दोनों कवियों की कविताओं में प्रकृति के स्वच्छंद रूप का वर्णन सर्वाधिक दिखाई पड़ता है।
संस्कृत साहित्य से चली आ रही काव्य परंपरा को आधुनिक काल में ठाकुर जगमोहन सिंह ने सहारा दिया। इस संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं कि "संस्कृत के प्राचीन कवियों की प्रणाली पर हिंदी काव्य के संस्कार का जो संकेत ठाकुर साहब ने दिया, खेद है कि उसकी ओर किसी ने ध्यान न दिया। प्राकृतिक वर्णन की इस प्राचीन भारतीय प्रणाली के संबंध में थोड़ा विचार करके हम आगे बढ़ते हैं। प्राकृतिक दृश्यों की ओर यह प्यार भरी सूक्ष्म दृष्टि प्राचीन संस्कृत काव्य की एक ऐसी विशेषता है जो फारसी या अरबी के काव्यक्षेत्र में नहीं पाई जाती। यूरोप के कवियों में जाकर ही यह मिलती है। अंग्रेजी साहित्य में वर्ड्सवर्थ, शेली, मेरेडिथ (wordsworth, shelly, Meredith) आदि में उसी ढंग का सूक्ष्म प्रतिनिरीक्षण और मनोरम रूप विधान पाया जाता है जैसा प्राचीन संस्कृत साहित्य में। प्राचीन भारतीय और नवीन यूरोपीय दृश्यविधान में पीछे थोड़ा लक्ष्य भेद हो गया। भारतीय प्रणाली में कवि भाव का आलंबन प्रकृति ही रही है, अतः उसके रूप का प्रत्यक्षीकरण ही काव्य का एक स्वतंत्र लक्ष्य दिखाई पड़ता है।"8 आचार्य शुक्ल ने उपर्युक्त उद्धरण में संस्कृत साहित्य से लेकर पाश्चात्य विद्वानों तक की काव्य शैली को ठाकुर जगमोहन सिंह के प्रसंग में संक्षिप्त वर्णन कर दिया है।
ठाकुर जगमोहन सिंह अपनी नौकरी के दौरान सोहागपुर में बहुत दिन तक रहे वहाँ पर अपने मित्र मुंशी कृष्ण कुमार के साथ स्वच्छंद रूप से जीवन यापन करते रहे। वहाँ दोनों मित्रों की प्रेमिकाएँ भी इनके साथ रहती थीं। ठाकुर साहब की प्रेमिका 'श्यामा', जाति की सुनारिन थी, जिसकी वजह से उसके हाथ का भोजन नहीं करते थे परंतु प्रेम अगाध करते थे। उनके इस तरह के अजीब व्यवहार और आचरण से उनके स्वच्छंद मनोवृत्ति का पता चलता है। उनके इस व्यक्तित्व का वर्णन रामचंद्र मिश्र ने अपने ग्रंथ में इस तरह से किया है, वे लिखते हैं कि "ठाकुर साहब श्यामा के हाथ का बना हुआ भोजन न करते थे। बालाराम ब्राह्मण उनका चपरासी था और एक भोले नाम का ब्राह्मण उनकी रसोई बनाता था। कृष्ण कुमार भी राजपूतिन के हाथ का भोजन नहीं करते थे। उन दिनों अक्सर कृष्ण कुमार और ठाकुर साहब भोले के हाथ का पका हुआ भोजन साथ-साथ ही करते थे।"9 राजपूतिन, ठाकुर साहब के अभिन्न मित्र कृष्ण कुमार की प्रेमिका थी। इस अवतरण से यह स्पष्ट होता है कि ठाकुर साहब स्वच्छंद प्रकृति के होकर भी कहीं न कहीं अपनी परंपरा से आबद्ध रहे।
ठाकुर जगमोहन सिंह की रचनाएँ प्रकृति के साथ-साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध को भी एक विशिष्टता के साथ व्याख्यायित करती हैं। उनकी कविताओं में प्रकृति और मनुष्य का गहरा रागात्मक संबंध दिखाई पड़ता है। प्रकृति के नैसर्गिक और सूक्ष्म चित्रण में कवि की सृजनात्मकता व कल्पनाशीलता अपने विशिष्ट रूप में दिखलाई पड़ती है। प्राकृतिक सौंदर्य के अद्भुत वर्णन का एक बहुत बड़ा कारण इनका पद था, तहसीलदार व डिप्टी कलक्टर के गौरवशाली पद पर रहते हुए इन्हें कई बार प्रकृति की गोद में जाने का अवसर मिलता रहता था। इन्होंने प्राकृतिक छटाओं को एक कवि की आँखों से देखा तथा अंतर्मन की गहराई से उसका चित्रण किया है। प्रकृति के साथ शृंगार वर्णन में भी इनका मन बहुत रमा है। 'प्रेमसंपत्तिलता' में शृंगार का बहुत मनोहारी चित्रण किया गया है -
अब यों उर आवत है सजनी, मिलि जाऊँ गरे लगिकै छतियाँ।
मन की करि भाँति अनेकन औ मिलि कीजिय री रस की बतियाँ।।
हम हारी अरी करि कोटि उपाय लिखी बहु नेहभरी पतियाँ।
जगमोहन मोहनि मूरति के बिना कैसे कटे दुख की रतियाँ।।10
अंतिम की पंक्तियाँ आदिकालीन कवि अमीर खुसरो की गजल की याद को ताजा कर देती हैं। ठाकुर साहब का प्राकृतिक सौंदर्य और शृंगार वर्णन मन की गहराई तक उतर जाता है। भारतीय ग्रामीण जीवन की मधुरता व सरसता उनकी रचनाओं में अपनी जीवंतता के साथ व्यक्त हुई है। हिंदी साहित्य में प्रकृति और शृंगार का अभूतपूर्व चित्रण करने वाले ठाकुर जगमोहन सिंह आधुनिक हिंदी कविता और उपन्यास को एक नया आयाम देते हैं।
संदर्भ :
1 . आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, पृ. 414
2 . सत्यदेव मिश्र, आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 35
3 . डॉ. बच्चन सिंह, आधुनिक हिंदी का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 95
4. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, पृ. 418
5 . डॉ. नगेंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा, पृ. 453
6 . कुमुद शर्मा, हिंदी के निर्माता, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 43
7 . रायबहादुर हीरालाल बी.ए., कविवर ठाकुर जगमोहन सिंह, द्विवेदी अभिनंदन-ग्रंथ, पृ. 146
8 . आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, पृ. 419
9 . रामचंद्र मिश्र, श्रीधर पाठक तथा हिंदी का पूर्व-स्वच्छंदतावादी काव्य, रणजीत प्रिंटर्स एण्ड पब्लिशर्स, पृ. 115
10 . आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, पृ. 410