अपवादों को छोड़ दिया जाए तो उत्तर भारतीय समाज में यात्रा के दौरान अजनबी लोगों के प्रति हमारा व्यवहार 'साही' (PORQUPINE) की तरह होता है। हम अपने शरीर पर उसी तरह से काँटे लिए घूमते हैं, जो प्रत्येक अनजानी आहट को संकट मानकर खड़े हो जाते हैं। जैसे कि यात्रा में मिलने वाला प्रत्येक आदमी चोर या उचक्का भी हो सकता है, भले ही बाहर से वह आदमी की तरह ही दिखाई देता हो। जैसे कि सामने बैठकर ट्रेन में सफर कर रहा यह आदमी पलक झपकते ही हमारे सामान को लेकर चंपत हो सकता है। जैसे कि स्टेशन पर उतरने के बाद प्रत्येक आटो और टैक्सी वाला हमारी जेब को टटोलने में मुब्तिला है। जैसे कि प्रत्येक होटल चलाने वाला, धोखे का धंधा भी चला रहा है। अब चूँकि यात्रा सामान्यतया अजनबी लोगों के बीच से ही होकर गुजरती है, इसलिए 'साही' की तरह हमारे शरीर पर उगे हुए काँटे भी यात्रा के दौरान हमेशा खड़े और लड़ाई के लिए तैयार रहते हैं।
और हमारा यह 'कायांतरण' हो भी क्यों नहीं...? आस-पास छल और धोखे के इतने सारे किस्से हवा में तैरते रहते हैं कि यात्रा में किसी अजनबी व्यक्ति के प्रति दिखाई गई हमदर्दी, हमारी बेवकूफी साबित हो जाती है। हम भरोसा दिखाते हैं और सामने वाला हमें धोखा दे जाता है। यहाँ सुदर्शन की कहानी 'हार की जीत' के नायक बाबा भारती के ठगे जाने की तरह इकलौती और अपवादमूलक दास्तान नहीं होती, कि हम भी उसे अपने सीने में इसलिए जज्ब कर लें कि समाज में एक-दूसरे पर भरोसा बना रहे। वरन यहाँ तो भरोसे के बीच बचकर निकल गया आदमी ही आपने आपको भाग्यशाली मानता है कि उसने हजार किलोमीटर की यात्रा एक आदमी की तरह की है और यात्रापरांत घर पहुँचने के बाद भी उसका दुनिया पर भरोसा बना हुआ है। जबकि होना तो यह चाहिए था कि 'साही' की तरह यात्रा करने वाला व्यक्ति, सकुशल घर पहुँचने के बाद अजनबी सहयात्रियों से किए गए रूखे व्यवहार या मन में रखे गए अज्ञात भय के कारण अपनी नजरों में थोड़ा लज्जित होता। कि उसे इस बात का अपराध-बोध होना चाहिए था, कि जिस सामने वाली सीट पर यात्रा करने वाले आदमी के ट्रेन में चढ़ने पर वह थोड़ा और चौकन्ना हुआ था, वह पूरी यात्रा में सबका मददगार निकला था। और इस बात के लिए भी, कि उसने अपने मन-मस्तिष्क को इतना दूषित क्यों कर लिया है?
लेकिन सौभाग्य से हमारा पूरा देश हम उत्तर भारतीय मैदानी लोगों जैसा ही 'चालाक' नहीं है। और यही कम चालाकी, जैसे कि उत्तर-भारतीय हिमालयी राज्यों की यात्रा के दौरान इस दुनिया पर भरोसे को स्थापित करती चलती है, उसी तरह से दक्षिणी प्रदेशों की यात्रा में भी हमारे भीतर के आदमी को जिलाए रखती है। ट्रेन जैसे ही मध्य-प्रदेश को पारकर नीचे की तरफ बढ़ने लगती है, सकारात्मक परिवर्तन महसूस होने लगते हैं। अब चूँकि आदत और व्यवहार एक दिन में बदले नहीं जा सकते, इसलिए चाहकर भी हम अपने शरीर के काँटों को हटा नहीं पाते। सामने की दुनिया भरोसे के लिए प्रेरित करती है, और हमारी आदतें संदेह के लिए। इस रस्साकस्सी में उन काँटों का नुकीलापन जरूर कुछ कम होने लगता है। इधर ट्रेन महाराष्ट्र होते हुए आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की तरफ बढ़ती जाती है और उधर उन काँटों की जरूरत कम से कमतर होती चली जाती है। और फिर एक-बारगी जब हम दक्षिणी राज्यों में पहुँच जाते हैं तो अपवादों को छोड़कर इनकी आवश्यकता भी लगभग समाप्त ही हो जाती है। यहाँ पहुँचने के बाद पानीदार आँखों वाला व्यक्ति अपने इन काँटों पर शर्मिंदगी महसूस करता है। ट्रेन में हर समय चौकन्ना खड़ा रहने वाला हमारा एँटीना अब हमें लज्जित करने लगता है। ऑटो वाले से पहले किराया पूछकर बैठने की आदत हमें बौना बनाने लगती है। किसी पतली गली से घुमाकर ले जाते समय ऑटो वाले पर शक करने की हमारी फितरत, हमें अपनी ही नजरों में गिराने लगती है।
केरल राज्य में प्रवेश करते हुए हमारे इस मानसिक परिवर्तन में 'प्रकृति और व्यवस्था' के भौतिक परिवर्तन का सुर भी मिलने लगता है। प्रकृति हमारी अगवानी में हाथ जोड़कर खड़ी दिखाई देती है। हम उसे चलती हुई ट्रेन से भी साफ-साफ पहचान सकते हैं। छोटी-छोटी पहाड़ियों के बीच धान के लहलहाते खेत किसी अच्छे चित्रकार की पेंटिंग सरीखे लगते हैं। केले और नारियल के पेड़ इन पहाड़ियों और खेतों के बीच की प्रत्येक खाली जगह को भरते चलते हैं। घर से आरंभ हुई तीन दिन पहले की यात्रा अब थकान नहीं देती। हम ट्रेन की खिड़की पर थोड़ा और पास आते हैं। और फिर प्रकृति के साथ उस गान में शामिल हो जाते हैं, जिसमें उमंग है, तरंग है, उल्लास है, विश्वास है, सब कुछ भरा-सा है, हर कहीं हरा-सा है और सबसे बढ़कर इस संसार से छीज रही मनुष्यता भी बची हुई है।
केरल उत्तर से दक्षिण तक 580 किलोमीटर लंबी एक पतली पट्टी पर बसा हुआ है, जिसकी अधिकतम चौड़ाई 120 किलोमीटर है। इस पट्टी को पश्चिम में समुद्र घेरे रहता है और पूरब में पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ। हालाँकि 1500 से 2500 मीटर की ऊँचाई वाली पश्चिमी घाट की ये पहाड़ियाँ लद्दाख की 'खारदुंगला टोप' की तरह दुरूह या भयावह नहीं हैं, लेकिन इतिहास में केरल ने इसे अपने लिए हमेशा से दुरूह ही माना है। वह सोचता है कि जैसे उत्तर से चलने वाली सूखी हवाएँ इन पहाड़ियों से टकराकर वापस लौट जाती हैं और केरल की नमी बरकरार रह जाती है, उसी तरह हम केरलवासियों को भी ये पहाड़ियाँ नहीं लाँघनी चाहिए। बजाय इसके उसने लाँघने के लिए सदियों से समुद्र की उस विशाल जलराशि को चुना है, जिसके पार उसका रिश्ता सिंधुघाटी, बेबिलोनियन, सुमेरियन और रोमन सभ्यता से जुड़ता रहा है।
प्रकृति ने केरल के पास भारत के मानसून का दरवाजा भेंट किया है। वहीं से दक्षिणी-पश्चिमी मानसून भारत में प्रवेश करता है और वहीं से वापस लौटकर आराम भी। ऐसे में केरल राज्य की देह हमेशा हरी-भरी बनी रहती है। उसके रसदार होठों पर कभी फेफरी नहीं पड़ती। जून से सितंबर तक इसे दक्षिणी-पश्चिमी मानसून भिगोता है और उसके बाद अक्टूबर से दिसंबर तक के तीन महीनो में उत्तर-पूर्वी मानसून। औसतन 2500 मिलीमीटर की सालाना बारिश का सबसे अधिक लाभ वहाँ की पश्चिमी घाट की पहाड़ियों को होता है, जो प्रकृति की इस नेमत को 40 नदियों की शक्ल में केरल को वापस लौटा देती हैं। इन पहाड़ियों से पश्चिम की तरफ बढ़ते हुए केरल राज्य 'मैदान का सुख' भी उठाता है। यह मैदान उसके खाद्यान्न का कटोरा है, जहाँ से पूरे राज्य का पेट भरता है और फिर ट्रेन या बस की यात्रा करते हुए हम एक झपकी के पूरी होने से पहले ही अरब सागर के मुहाने पर पहुँच जाते हैं, जहाँ केरल पूरी तौर पर दुनिया के लिए खुल जाता है। इसी मुहाने पर विश्व-प्रसिद्ध 'बैकवाटर' का निर्माण होता है। जिसके बाद अरब सागर की विशाल जलराशि केरल के विस्तार को थाम लेती है।
केरल जानता है कि उसके पास लद्दाख या राजस्थान जैसा क्षेत्रफल-विस्तार नहीं है कि वह अपने आपको थोड़ा व्यवस्थित कर सके। उसे देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग सवा प्रतिशत हिस्सा ही नसीब हुआ है। इसलिए उसे जो भी करना है, तुरत-फुरत ही करना है। पहाड़ियों से उतरकर एक साँस में ही समतल पर दौड़ने लगना है और फिर अरब सागर को सलाम ठोककर लौट आना है। वह हमें निराश भी नहीं करता। पश्चिमी घाट पर वायनाड, मुन्नार और पोनमुदी जैसे 'हिल-स्टेशन' मिलते हैं, तो पेरियार टाइगर रिजर्व और थेकड़ी जैसे पर्यटन स्थल भी। उसके पास 'कोवलम' जैसा विश्व-प्रसिद्ध समुद्री किनारा भी है और अलेप्पी, कुमारकोम, कोट्टायम, कोल्लम, कन्नूर और कोच्चि जैसे बैकवाटर वाले जग-प्रसिद्ध स्थान भी। और फिर पश्चिमी किनारे पर 500 किलोमीटर से अधिक लंबा समुद्र तट तो है ही।
प्रकृति की इस बक्शी हुई नेमत को केरल ने दोनों हाथों से सँजोया है। वह जानता है कि प्रकृति ने उसे विशिष्ट बनाया है, तो उसे मानव निर्मित व्यवस्था में भी विशिष्ट ही बने रहना है। 14 जिले वाले इस राज्य की जनसंख्या लगभग 3 करोड़ 34 लाख है, जिसे केरल ने वितरण के हिसाब से विशिष्ट बना दिया है। मसलन स्त्री-पुरुष अनुपात को लीजिए। भारत के औसत अनुपात 939/1000 को केरल ने स्त्रियों के पक्ष में 1084/1000 से पलट दिया है। देखने में यह बात भले ही सामान्य लगती है, लेकिन जब आप इसे अपने देश पर लागू करने के लिए सोचते हैं, तो कोई भी अन्य भारतीय राज्य इसके सामने टिक नहीं पाता। और फिर जनसंख्या वृद्धि दर के मसले पर भी शेष भारत केरल से काफी कुछ सीख सकता है। जहाँ हमारी राष्ट्रीय वृद्धि दर 17 प्रतिशत के आस-पास है, वहीं केरल ने उसे 4 प्रतिशत पर सीमित करके एक बड़ा उदाहरण प्रस्तुत किया है। यही विशिष्टता केरल में साक्षरता के स्तर पर भी दिखाई देती है। इसने देश को 1990 में पहला पूर्ण साक्षर जिला 'एर्नाकुलम' देने का श्रेय हासिल किया है। और एक साल बाद 1991 में पूरे राज्य को 'पूर्ण साक्षर राज्य' के रूप में प्रस्तुत करने का भी। सन 1956 में गठन के समय जिस राज्य की आधी आबादी निरक्षर रही हो, उस राज्य की यह उपलब्द्धि गर्व करने लायक तो है ही।
ग्रामीण आबादी के हिसाब से भी केरल का प्रदर्शन आदर्श है। यहाँ के गाँव देश के अन्य राज्यों के गाँवों की तरह हाशिए पर छूट गए गाँव नहीं हैं। वरन वे भी राज्य की मुख्य धारा के साथ जुड़े हुए हैं। एक साथ गुच्छ बनाकर बसने की बजाय, उन्होंने पूरी जगह लेकर और पूरी दूरी बनाकर संपूर्ण केरल को ही एक बड़े गाँव में बदल दिया है। इसे मातृसत्तात्मक (मुरुमुक्त्तायम) व्यवस्था का असर कहें या कि आजादी के पूर्व से चलने वाले सामाजिक-सुधार और वाम-आंदोलनों का, केरल संपत्ति के वितरण के हिसाब से भी एक आदर्श प्रस्तुत करता है। यहाँ न तो 'एंटीलिया' जैसी चोटियाँ हैं और न ही धारावी और जोगेश्वरी जैसी खाइयाँ। इस राज्य ने प्रति-व्यक्ति आय और संपत्ति की भारी-भरकम उपलब्द्धता के आधार पर अन्य राज्यों से प्रतियोगिता करने से परहेज किया है। और विकास के वास्तविक पैमाने - 'मानव विकास सूचकांक' को अपने लिए चुना है, जिसके शीर्ष पर वह विराजमान है। बेशक कि यह राज्य धार्मिक आधार पर बहुत गहरे विभाजित है, लेकिन सांप्रदायिक के आधार पर नहीं। जिस राज्य में हिंदू 54 प्रतिशत, मुसलमान 27 प्रतिशत और ईसाई 19 प्रतिशत की संख्या में रहते हों, वहाँ के समाज में सांप्रदायिक विभाजन और तनाव की कहानियाँ बिरले ही सुनाई देती हैं।
केरल उत्तर-भारतीय पर्यटकों के लिए अपने धुर दक्षिणी किनारे तिरुवनंतपुरम से खुलता है। कारण यह कि एक तो उत्तर-भारतीयों के आकर्षण वाले तमिलनाडु के दो बड़े पर्यटक स्थल यथा - रामेश्वरम और कन्याकुमारी! उसे तिरुवनंतपुरम के मुहाने पर पहुँचा देते हैं। और दूसरे ऐसे पर्यटक, जो सिर्फ केरल घूमने के लिए आते हैं, वे भी एक बारगी धुर दक्षिण में तिरुअनंतपुरम पहुँचकर वहाँ से उत्तर की तरफ बढ़ना चाहते हैं। शायद अपने मन को तसल्ली देने के लिए कि अब वे अपने घर की तरफ बढ़ रहे हैं। लेकिन इसका नुकसान केरल के उत्तरी जिलों को होता है। वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते सामान्यतया उत्तर भारतीय पर्यटकों की साँस फूल जाती है। वे या तो कोच्चि से वापसी की ट्रेन पकड़ लेते हैं या वहाँ से तमिलनाडु के पर्यटन स्थलों का रुख कर लेते हैं।
वैसे इसकी एक व्याख्या यह भी है कि इसके लिए केरल की खूबसूरती ही जिम्मेदार है। जब हम तिरुअनंतपुरम से केरल में प्रवेश करते हैं, तो कोच्चि पहुँचते-पहुँचते कोवलम का विश्व-प्रसिद्ध किनारा घूम चुके होते हैं। कोल्लम, कुमारकोम और अलेप्पी का बैकवाटर भी। थेकड़ी और मुन्नार की पहाड़ियाँ भी। पेरियार टाइगर रिजर्व जैसा प्रसिद्ध अभयारण्य भी। और कोच्चि जैसा पुरातन और आधुनिक शहर भी। ऐसे में हमारी यात्रा लंबी दिखाई देने लगती है क्योंकि उसमें वापसी के तीन दिन भी जोड़ने होते हैं। विडंबना यह कि केरल में देखी गई जगहें फिर से सैलानियों को 'एक बार और एक बार और' की हसरत पैदा करते हुए तिरुअनंतपुरम में पटक देती हैं, जहाँ से कोच्चि तक जाते-जाते वह पुनः थक जाता है। वैसे मैं चाहता हूँ कि केरल की अपनी तीन यात्राओं और मित्रों के अनुभवों को आप सुधि पाठक खारिज कर दें। क्योंकि ऐसा होने पर कम से कम मुझे इस बात की प्रसन्नता तो होगी कि जो काम मैं चाहकर भी नहीं कर पाया हूँ, उसे किन्हीं और मित्रों/सैलानियों ने जरूर पूरा किया है।
तिरुअनंतपुरम केरल की राजधानी है और कोच्चि के बाद दूसरा बड़ा शहर भी। लेकिन यह शहर उस खाके में फिट नहीं बैठता, जो किसी राज्य की राजधानी को लेकर हमारे मन में कंक्रीट के जंगलों से निर्मित होता है। लगता है कि यह शहर मुख्य रूप से पेड़ों के झुरमुटे में बसा हुआ शहर है। हालाँकि आज से दो-तीन दशक पहले इस उपमान को आप चाहें तो जंगलों के बीच बसे हुए शहर के रूप में भी लिख/पढ़ सकते थे। अफसोस... कि इन दो-तीन दशकों के विकास ने अब उन उपमानों को हमसे छीन लिया है। फिर भी समुद्र के किनारे पर बसे हुए इस शहर को हरी-भरी राजधानी के रूप में देखने के लिए घूमा जा सकता है। यहाँ दो आकर्षण सामान्यतया पर्यटकों के निशाने पर रहते हैं। एक कोवलम का किनारा और दूसरा हिंदुओं का प्रसिद्ध तीर्थस्थल 'पद्मनाभस्वामी मंदिर'।
कोवलम का किनारा भारत की मुख्यभूमि से लगने वाला सबसे बेहतर समुद्री किनारा है। यहाँ का समुद्र हमें काफी भीतर जाने की इजाजत देता है। किनारे का बालू पैरों में बिलकुल भी नहीं लगता। लहरें सीधे आकर किनारे से टकराती हैं और परिदृश्य की हरियाली इसमें चौथा चाँद भी जोड़ती चलती है। मगर अफसोस कि जो पाँचवी बात इसके बारे में लगभग एक दशक पहले तक बड़े आदर और सम्मान के साथ कही जाती थी, अब उसका जिक्र आते ही हमें शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। बात इसके किनारे की सफाई से जुड़ी हुई है। बेशक कि यदि आपके पास तुलना करने के लिए मुंबई के जुहू और चौपाटी 'बीच' का पैमाना है, तो आज भी आपको कोवलम का किनारा साफ ही लगेगा। लेकिन यदि हम इसकी तुलना दुनिया के प्रसिद्ध किनारों से करने की कोशिश करते हैं या कि इसके स्वयं के एक-दो दशक पुराने मानदंडों पर ही करते हैं, तो आज के दिन में कोवलम का किनारा हमें बेहद निराश करता है। अपने ही देश में हैवलॉक द्वीप (अंडमान) के 'राधानगर बीच' से इसकी तुलना करने पर 'कोवलम बीच' को उत्तीर्ण होने लायक अंक पाने के लाले पड़ जाएँगे। इसका सबसे बड़ा समर्थक भी इन दोनों के बीच उन्नीस-बीस के अंतर वाले मुहावरे को प्रयुक्त नहीं करना चाहेगा, वरन बड़े अंतर को प्रदर्शित करने के लिए कोई अन्य मुहावरा चुनेगा। यह एक तरह की चेतावनी भी है कि आने वाले दिनों में हम समूचे केरल को कैसा बनाने जा रहे हैं। बेशक कि मुख्यभूमि से जुड़ाव और उसकी अपनी पुरानी साख के कारण यहाँ पर देशी और विदेशी सैलानियों का जमघट बना रहता है।
हम तिरुअनंतपुरम शहर की तरफ बढ़ते हैं। यहाँ आने वाला लगभग प्रत्येक हिंदू पर्यटक पद्मनाभस्वामी मंदिर की तरफ मुड़ता है। हमारा 'यात्रा-सहयोगी' भी उस लकीर को सुबह से पकड़ने के लिए बेचैन है। हम चाहते हैं कि इस शहर की प्राकृतिक विरासत को देखें, उसका लुत्फ उठाएँ, लेकिन वह पद्मनाभस्वामी मंदिर को दिखाकर जैसे निश्चिंत हो जाना चाहता है कि तिरुअनंतपुरम के पर्यटन का हमारा-उसका आपसी करार पूरा हो गया। मुख्यतया दक्षिणी भारतीय शैली में बना विष्णु का यह मंदिर काफी पुराना है। मिथकों का सहारा लिया जाए तो उस हिसाब से यह मंदिर इस शहर और इस राज्य की उत्पत्ति से भी पहले का ठहरता है। वैसे इसका प्रामाणिक ज्ञात इतिहास भी कई सदियों का सफर तय करता है। इसके वर्तमान स्वरूप का निर्माण ट्रावनकोर के राजा मार्तंड वर्मा ने सन 1733 में कराया था। मंदिर का गोपुरम कितना बड़ा है, यहाँ कितने लोग प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं और यहाँ कितना चढ़ावा चढ़ता है, जैसे सवालों को दरकिनार करते हुए हम अपने सामने उठने वाले दो बड़े सवालों से टकराने का प्रयास करते हैं। एक कि आखिर इस मंदिर के पास संपत्ति कितनी है और वह आई कहाँ से...? और दूसरा सवाल यह कि इसमें प्रवेश को लेकर अभी भी मध्ययुगीन परंपराएँ क्यों कायम हैं...? जैसे कि यहाँ साफ-साफ लिखा गया है कि इस मंदिर में गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है और यह भी कि इसमें प्रवेश करने के लिए हिंदू पुरुषों को कमर के नीचे धोती पहनना और कमर के ऊपर नंगे बदन रहना अनिवार्य है। जबकि स्त्रियाँ यहाँ पर सिर्फ और सिर्फ साड़ी पहनकर ही प्रवेश कर सकती हैं।
पहले मंदिर की संपत्ति को ही लें। वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इस मंदिर के कुल ज्ञात सात तहखानों में से छह के दरवाजे खोले जा चुके हैं और उनसे कुल मिलाकर लगभग 2 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति का पता चला है। मंदिर से जुड़े जानकार लोग बताते हैं कि उस नहीं खोले गए सातवें तहखाने में अकेले ही इन सभी छहों तहखानों के बराबर की संपत्ति मौजूद है। हालाँकि प्रलय और अनिष्ट का भय दिखाकर अभी तक वह सातवाँ तहखाना नहीं खोला जा सका है। फिर भी एक मोटा-मोटी हिसाब के अनुसार इस मंदिर के तहखानों में लगभग 5 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति मौजूद है। ये पाँच लाख करोड़ रुपये कितने होते हैं, इसको समझने के लिए यह उदाहरण काफी होगा कि यह राशि भारत के कुल रक्षा बजट की लगभग दोगुनी है। और लगे हाथ यह भी कि किसी भी राज्य का बजट इस राशि के बराबर का नहीं है।
मंदिर समर्थक यह तर्क देते हैं कि यह संपत्ति ट्रावनकोर राज-परिवार की है। उसने लुटेरों और आतताइयों से राज्य की संपत्ति को बचाने के लिए इसे मंदिर के नीचे बने तहखानों में छिपा दिया था। लेकिन राज परिवार के पास इतनी बड़ी संपत्ति आखिर आई कहाँ से...? जाहिर है कि संपत्ति का यह विशालकाय संकेद्रण अंततः राज्य की संपत्ति के तौर पर ही हुआ होगा। इतिहास में ऐसे अनाचारी संकेद्रण भरे पड़े हैं, जिसमें एक तरफ राज्य की जनता अभावों और गुरुबतों में जीवन काटती होती है और दूसरी तरफ संपत्ति के विशालकाय केंद्र खड़े होते रहते हैं। लेकिन अब, जबकि इन केंद्रों का रहस्य सामने आ चुका है, तो क्यों नहीं इस पैसे को वापस राज्य को लौटा दिया जाए। प्रलय और अनिष्ट के काल्पनिक खतरों से इस देश और समाज को शताब्दियों तक भरमाया गया है। उसे प्रताड़ित किया गया है, अँधेरे में रखा गया है। लेकिन अब इस वैज्ञानिक चेतना के दौर में हमारे समाज को अनिवार्यतः इन जकड़नों से बाहर निकलना चाहिए। प्रथमतः और अंततः यह पैसा जनता का है और इसे जनता की भलाई में खर्च किया जाना चाहिए। इन खुलासों के चार वर्ष बीत जाने के बाद भी जिस तरह से सरकार और मंदिर प्रशासन इस पर कुंडली मारकर बैठा हुआ है, उससे तो तय है कि उनकी मंशा क्या है? यह ऐसा विवाद है जिसे सुलझाने के लिए अदालती कार्यवाई के साथ-साथ जन-कार्यवाई की भी जरूरत है।
मंदिर से जुड़े दूसरे सवाल पर लौटते हैं। आखिर केरल का जो समाज इतना विकसित है, इतना आधुनिक है, उसके बीचो-बीच बने इन मंदिरों में यह मध्ययुगीन अंधकार क्यों छाया हुआ है...? आखिर यह कौन सा केरल है, जो पद्मनाभस्वामी, गुरुवायुर, कलाडी और सबरीमाला के मंदिरों में दिखाई देता है...? वैज्ञानिक चेतना और सहिष्णुता वाला बाहरी समाज इन मंदिरों के पास आते ही क्यों इतना असहिष्णु और प्रतिगामी होने लगता है...? इनके भीतर इतनी कट्टरता और जाहिलियत आखिर कहाँ से पैदा होती है...? जिस उत्तर भारतीय समाज को हम उसकी दकियानूसी और पिछड़ेपन के लिए कोसते हैं, उसके यहाँ के मंदिरों में तो इतनी प्रतिगामिता नहीं पाई जाती। मतलब आधुनिक समाज वाले केरल के मंदिर, पिछड़े समाज वाले उत्तर भारतीय मंदिरों से भी गई-गुजरी परंपराओं को ढो रहे हैं। लेकिन क्यों...? यह सवाल बार-बार बेचैन करता है। हमारे मन और विवेक को मथता है कि इसकी जड़ों तक पहुँचने का प्रयास किया जाए। यह जो सतह पर तैरती हुई काई दिखाई दे रही है, इतना तो तय है कि इसके भीतर का पानी कहीं न कहीं सड़ा हुआ है। और यह काई उसी सड़न से गंदगी खींच रही है।
इनकी जड़ों की तलाश हमें केरल के इतिहास को खँगालने के लिए प्रेरित करती है। इतिहास यह कहता है कि मसालों और व्यापार के लिए प्रसिद्ध इस समाज में जब बाहरी लोगों का हस्तक्षेप हुआ तो उसमें यह नई हलचल शुरू हुई। ये बाहरी लोग 'नंबूदरी ब्राह्मण' के रूप में केरल में आए और मंदिरों को केंद्र बनाकर अपना जाल फैलाया। उन्होंने इस राज्य के मिथकीय उद्गम की कहानी गढ़ी कि महर्षि परशुराम ने अपने 'फरसे' से केरल को समुद्र से अलग किया था। या कहें तो समुद्र को पीछे धकेल दिया था और केरल की यह जमीन अस्तित्व में आई थी। उन्होंने ही इस 'भूभाग' को सँभालने की जिम्मेदारी नंबूदरी ब्राह्मणों के ऊपर आयत की थी। जाहिर है इस मिथकीय व्याख्या की जड़ें उस सूत्र में छिपी हैं, जिसमें मुट्ठी भर 'नंबूदरी ब्राह्मण' केरल के समाज पर कब्जा जमाने का प्रयत्न करते हैं। जैसे वे यह कहना चाहते हैं कि आप जिसे केरल राज्य की जमीन समझते हैं, वह तो परशुराम के 'फरसे' की नेमत है और जब वह जमीन परशुराम ने अपने फरसे से पैदा की है तो उस पर अधिकार भी उनके अनुयाइयों का ही हुआ।
नंबूदरी ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित केरल की उत्पत्ति का यह सिद्धांत चल निकला। पूरे राज्य में उन्होंने 32 जगहों पर मंदिरों की स्थापना की। ये मंदिर धीरे-धीरे धर्म के केंद्र के रूप में उभरने लगे। आठवीं सदी में शंकराचार्य के उदय ने तो जैसे इनके पक्ष में पासा ही पलट दिया। वे भी नंबूदरी ब्राह्मण ही थे। उस दौर में बड़े राज्यों का विघटन हो रहा था, केंदीय शक्तियाँ छीज रही थीं और छोटे राज्य आकार ले रहे थे। इन छोटे राज्यों के शासकों ने दिल खोलकर मंदिरों की सहायता की। बदले में इन नंबूदरी ब्राह्मणों ने इन्हें शासक के रूप में ईश्वरीय इच्छा का परिणाम करार दिया। कुल आबादी के एक प्रतिशत से भी कम हिस्सा होने के कारण नंबूदरी ब्राह्मणों के लिए यह आवश्यक था कि वे समाज में अपनी श्रेष्ठता भी साबित करें और उसे इस तरह से विभक्त भी करें कि वह समाज उनकी व्याख्या को स्वीकार कर ले। वे जानते थे कि यह ताकत धर्म और जाति के भीतर ही संभव दिखाई देती है। उसी के भीतर अत्याचार को झेलने वाला, उसे अपनी नियति मानकर सहन भी करने लगता है। उन्होंने वही किया और पूरा समाज नीचे से ऊपर तक जातियों में विभाजित हो गया। अब मंदिर पूरी व्यवस्था के केंद्र के रूप में उभरकर सामने आए और नंबूदरी ब्राह्मणों की प्रभुसत्ता सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्र में भी स्थापित हो गई।
इस जाति विभक्त सामाजिक संरचना में नंबूदरी ब्राह्मण शीर्ष पर माने गए और उनके नीचे शासक नायर जाति के लोग। बहुसंख्यक थियाज और इझावा जातियाँ इस संरचना में बिलकुल ही अमानवीय स्थिति में धकेल दी गई। पूरा समाज इस तरह से बँटा हुआ था कि हर कोई एक-दूसरे से ऊपर या नीचे हो गया था। कोई बराबर नहीं था। नंबूदरी के नीचे की जाति नायर उससे 16 फीट की दूरी बनाकर चलती। इझावा 32 फीट की और पुलाया 64 की। और ये सभी अपने आपको भाग्यशाली समझते, क्योंकि 'नायड' जाति को तो इनके सामने दिखाई देने की ही मनाही थी। नंबूदरी ब्राह्मण के बड़े लड़के की शादी होती थी और शेष लड़के 'संबंधम' की अराजक व्यवस्था का सुख उठाते थे। इसके अनुसार कोई भी नंबूदरी ब्राह्मण किसी भी गैर नंबूदरी लड़की के साथ बिना शादी के रह सकता था। उन दोनों से पैदा हुई संतान वैध मानी जाती थी, लेकिन उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी से नंबूदरी पुरुष मुक्त हुआ करता था। सारी देखभाल उस गैर-नंबूदरी औरत पर आयत होती थी, जो 'संबंधम' से जुड़ी होती थी। ऐसा लगता है कि केरल में गैर-नंबूदरी जातियों के बीच में प्रचलित 'मातृसत्तात्मक' (मुरुमुक्त्तायम) व्यवस्था के पीछे यह धारणा भी काम करती होगी कि इस अमानवीय व्यवस्था 'संबंधम' के होते हुए स्त्रियों के पास घर का मालिकाना हक होना चाहिए। हालाँकि इसे समाज-वैज्ञानिक बेहतर बताएँगे, लेकिन इस आधार पर जब हम वहाँ प्रचलित 'मातृसत्तात्मक' व्यवस्था को देखते हैं, तो उसके प्रति कोई खास आदर और सम्मान नहीं बचता है।
एक नंबूदरी पुरुष, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, पाँच 'संबंधम' में रह सकता था। आप कल्पना कीजिए कि उस समाज की मानसिक निर्मिती कैसी बनी होगी, जिसमें एक जाति के पास इस तरह का विशेषाधिकार हो और दूसरी तरफ पीड़ित जातियाँ उसे ईश्वरीय आदेश मानकर स्वभावतः पालन करने लगती हों। स्वयं नंबूदरी समाज के भीतर भी महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी। चूँकि नंबूदरी परिवारों में सिर्फ बड़े लड़के की ही शादी होती थी और नंबूदरी लड़की के लिए शेष जातियों में विवाह की मनाही थी, इसलिए काफी बड़ी संख्या में नंबूदरी लड़कियाँ कुँवारी रह जाती थीं। ऐसे समाज में भीतर-भीतर क्या कुछ घटित होता होगा, कल्पना की जा सकती है।
कई बार सवर्ण जातियों की तरफ से अवर्ण जातियों पर यह आरोप लगाया जाता है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इनके नेताओं ने अँग्रेजों के विरुद्ध वैसी मुकम्मल लड़ाई नहीं छेड़ी, जैसी की आवश्यकता थी। उनके अनुसार इन लोगों ने उसमें सामाजिक आंदोलनों को घुसाकर स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर किया। यह आरोप सिर्फ केरल के सामाजिक आंदोलनों पर ही नहीं, वरन पूरे देश के सामाजिक आंदोलनों पर लगाया जाता है। जाहिर है, इसमें अज्ञानता तो है ही, सामाजिक श्रेष्ठता से अभी भी उबर नहीं पाने की मानसिक निर्मिती भी है। दरअसल आजादी के बाद भी देश की मुख्यधारा ने जातिगत मनोभावों को संबोधित करने का कोई खास प्रयास नहीं किया। जैसे हमने पाठ्यक्रमों में स्वतंत्रता आंदोलन को तो जोर-शोर से पढ़ाया, लेकिन सामाजिक आंदोलनों को गौड़ ही रखा और फिर सवर्ण समाज के भीतर तो इन दूषित मनोभावों को लेकर कोई बहस ही नहीं हुई। क्या ही अच्छा होता कि सामाजिक समरसता के लिए दोनों तरफ से प्रयास किया गया होता। जब पिछड़ी और दमित जातियाँ सामाजिक आंदोलन चला रही थीं तो सवर्ण और विशेषाधिकार प्राप्त जातियाँ अपनी ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने का प्रयास करतीं और उस आंदोलन में भागीदार बनती। मगर अफसोस कि उन्होंने भागीदारी के बजाय इन सामाजिक आंदोलनों का सामान्यतया विरोध ही किया। मुझे याद है कि जब उत्तर-प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी उभार ले रही थी और उसने अपने नायकों के रूप में डॉ. अंबेडकर, पेरियार, ज्योतिबा फुले और नारायण गुरु जैसे समाज सुधारकों का नाम लेना आरंभ किया था तो सवर्ण जातियों के मध्य इन समाज-सुधारकों के लिए भी कटुता उत्पन्न हो गई थी। इन्होने इन नायकों के बारे में जानने की कोशिश तक नहीं की, वरन इसके उलट इन नायकों का इसलिए विरोध किया क्योंकि दलित जातियों ने इन्हें अपने 'आइकन' के रूप में चुना था।
केरल में नंबूदरी ब्राह्मण पुजारी, कवि, भाषाविद, ज्योतिषी, व्यापारी और मध्यस्थ तो हुए, लेकिन उनके बीच से कोई सामाजिक सुधारक पैदा नहीं हुआ। किसी ने आगे बढ़कर यह नहीं कहा कि 'संबंधम' की यह अमानवीय प्रथा क्यों है...? देवदासी जैसी घृणित परंपरा क्यों चल रही है...? अवर्ण जातियों को चप्पल, छाता, अच्छे कपड़े और आभूषण पहनने की क्यों मनाही है...? उनके मंदिर में प्रवेश करने से ईश्वर पर कौन सी आफत टूट पड़ती है...? उनकी परछाईं पड़ने पर नंबूदरी का दिन क्यों खराब हो जाता है...? उनके लिए दंड के अलग से कठोर प्रावधान क्यों है...? उनकी स्त्रियाँ कमर से ऊपर कपड़ा क्यों नहीं पहन सकती हैं...? यह आश्चर्यजनक लगता है कि एक नंबूदरी ब्राह्मण अद्वैतवाद जैसी गूढ़-गंभीर चीज को तो डि-कोड कर सकता था लेकिन वह मनुष्य बनने की न्यूनतम आवश्यकताओं को समझने में नाकाम रहा...। अफसोस... कि केरल में नंबूदरी ब्राह्मणों को 'आदमी' बनाए जाने का आंदोलन बहुत देर से हुआ और वह भी बहुत सीमित पैमाने पर। शायद इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने 'केरल के समाज को एक पागलखाने' की संज्ञा दी थी।
सदियों तक केरल के समाज में यह व्यवस्था कायम रही, जब तक कि 19वीं सदी के उत्तरार्ध में समाज सुधारकों ने इसका प्रतिरोध नहीं किया। पहले नारायण गुरु और फिर अय्यनकली और अयप्पन जैसे अन्य समाज सुधारकों ने मुट्ठी भर लोगों के इस विशेषाधिकार को चुनौती दी। उन्होंने स्पष्टतया कहा कि 'संबंधम' की व्यवस्था बिना किसी सामाजिक जिम्मेदारी की यौन विलासिता है। इन आंदोलनों ने अपने लोगों को संघर्ष के लिए संगठित किया और समाज में समान अधिकार के लिए लड़ाई शुरू हुई। मंदिर प्रवेश आंदोलन इस लड़ाई का एक महत्वपूर्ण सिंबल बना। मोपला विद्रोह और वायकाम सत्याग्रह भी मुख्यतया विशेषाधिकारों की समाप्ति और समानता की प्राप्ति के लिए चलाए जाने वाले आंदोलन ही थे। अंततः 1930 के दशक में मंदिर सबके लिए खुले। सबके लिए मतलब प्रत्येक हिंदू के लिए। समय के साथ सामाजिक आंदोलनों ने अवर्ण जातियों के भीतर वह आत्मविश्वास पैदा किया, जिसमें न सिर्फ उन्होंने अमानवीय प्रथाओं को चुनौती दी, वरन उससे आगे बढ़कर प्रगतिशील और वैज्ञानिक चेतना से लैस समाज की नींव भी रखी। समता, बंधुता, सह-अस्तित्व जैसे सार्वभौमिक और साक्षरता तथा मानव विकास सूचकांक जैसे आधुनिक मूल्यों पर आधारित समाज आज के केरल की विरासत है और यह विरासत एक अमानवीय अतीत को पीछे छोड़कर तैयार हुई है। समय और समाज ने नंबूदरी ब्राह्मणों के अस्तित्व को केरल के समाज में नगण्य बना दिया है। मगर अफसोस... कि आज भी मंदिरों में उनकी मूर्खताएँ कायम हैं।
दरअसल यह जो केरल के समाज में समरसता और प्रगति दिखाई देती है और वहाँ के मंदिरों में संकीर्णता और पिछड़ापन, तो यह उस मरती हुई व्यवस्था को नंबूदरी ब्राह्मणों द्वारा वेंटिलेटर पर जिलाए रखने की एक नाकाम कोशिश है। ऐसे में केरल को प्रचारित करने के लिए जिस टैग लाइन 'GOD,S OWN COUNTRY' (ईश्वर का अपना देश) का उपयोग किया जाता है, उसे सुधारने की जरूरत है। जिस समाज में ईश्वर का उपयोग समाज को पीछे धकेलने के लिए हुआ हो, उसकी टैग लाइन 'ईश्वर का अपना देश' कैसे हो सकती है। यह तो आदमी है जिसने ईश्वर को पीछे धकेलकर इस समाज को आगे किया है। ऐसे में इस राज्य की टैग लाइन 'आदमी का अपना देश' होनी चाहिए। आप चाहें तो आदमी के साथ-साथ 'प्रकृति' शब्द को भी इस टैग लाइन में जोड़ सकते हैं।
बहरहाल इस यात्रा में जब हम लोग तिरुअनंतपुरम के होटल से निकल रहे थे तो एक ग्रुप बेहद दुखी मन से पद्मनाभस्वामी मंदिर से लौटा था। उसका दुख यह था कि उनके साथ एक अंग्रेज महिला थी, जिसे मंदिर प्रशासन ने 'गैर-हिंदू' होने के कारण मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया था। मेरी इच्छा थी कि मैं उन्हें इस पूरे मसले को विस्तार में समझाऊँ। लेकिन अलेप्पी के लिए ट्रेन पकड़ने की मजबूरी ने यह अवसर नहीं दिया। फिर भी चलते-चलते उनसे इतना तो कह ही दिया, कि "आप नाहक दुखी हैं। हम तीनों (मैं, पत्नी और बेटा) तो अंदर जा सकते थे, लेकिन यहाँ के अतीत और ड्रामे को देखकर हमने एकमत से इसके विरुद्ध गवाही दी है। और अब हम लोग खुशी-खुशी अलेप्पी जा रहे हैं।"
अब हम केरल के उस चेहरे के नजदीक पहुँचना चाहते हैं जिसके लिए वह दुनिया भर में प्रसिद्ध है। जी हाँ... मैं 'बैकवाटर' की बात कर रहा हूँ। केरल में उत्तर से दक्षिण तक इसके कई गुच्छ पाए जाते हैं। लगभग 1500 किलोमीटर का इसका फैलाव पूरे समुद्री किनारे को समृद्ध करता है। हम भी 'सर्वोत्तम के विकल्प' का दरवाजा खटखटाते हैं, और 'केरल के वेनिस' के रूप में विख्यात 'अलेप्पी' (नया नाम अलपुझा) शहर में प्रवेश करते हैं। हाँ... नाम पर ध्यान आया कि हमने मद्रास को चेन्नई, बंबई को मुंबई और कलकत्ता को कोलकाता में बदलते हुए देखा है तो उसकी जड़ें भी केरल से ही जुड़ती हैं। सन 1990 में इस राज्य ने अपने कई शहरों के नामों को बिना किसी शोरगुल के परिवर्तित कर दिया था। अलेप्पी उस समय से अलपुझा कहलाने लगा।
पहली नजर में अलेप्पी एक शांत और अलसाया हुआ शहर लगता है। लेकिन बैकवाटर के मुहाने पर जाकर यह दुनिया के लिए खुल जाता है। निशानात बताते हैं कि कभी अलेप्पी शहर भी 'बैकवाटर' से जवान रहा होगा। मगर आज बस उसकी सड़न ही बाकी रह गई है। हम उस सरकारी 'नाव स्टेशन' की तरफ बढ़ते हैं जहाँ से बैकवाटर की सैर के लिए 'केट्टूवलम' (नावें) खुलती हैं। यहाँ अपनी जेब के अनुसार चुनाव किया जा सकता है। यदि आप पैसे वाले हैं तो कश्मीर की 'डल झील' की तरह यहाँ भी आप शिकारे का लुत्फ उठा सकते हैं। सैकड़ों या कहें तो हजारों की संख्या में तैरते हुए ये शिकारे अलेप्पी के 'बैकवाटर' को जवान किए रहते हैं। बस शर्त यह है कि इनमें घूमने के लिए आपकी जेब भी जवान होनी चाहिए। 24 घंटे के लिए लगभग 5 से 7 हजार तक। लेकिन यदि आप एक सामान्य पर्यटक हैं तो सरकारी 'केट्टूवलम' पर अस्सी रुपये देकर दो घंटे तक 'बैकवाटर' का नजारा ले सकते हैं। और यदि आप मितव्ययी पर्यटक हैं तो यहाँ के बैकवाटर के किनारों पर बसे हुए गाँवों के लिए चलने वाले 'केट्टूवलम' में सात रुपये का टिकट कटाकर बैठ जाइए। वह आपको अपने रूट के गाँवों की सैर कराता हुआ दो घंटे में वापस उसी 'केट्टूवलम' स्टेशन पर छोड़ देगा।
भारत में 'बैकवाटर' सिर्फ केरल में ही आकार लेता है। दरअसल यहाँ की सारी महत्वपूर्ण नदियाँ इस राज्य के पूर्वी छोर पर स्थित पश्चिमी घाट की पहाड़ियों से निकलती है और पश्चिम की तरफ बढ़ते हुए अरब सागर में मिलती हैं। जब ये नदियाँ पचास-सौ किलोमीटर की यात्रा करके अरब सागर के मुहाने पर पहुँचती हैं तो वहाँ के किनारे इतने तीखे नहीं होते कि ये आसानी से अरब सागर में समाँ जाएँ। इस संगम का उथलापन पानी को रोकता है। वहाँ एक ऐसा संतुलन बनता है कि ज्वार के समय समुद्र का पानी इन नदियों में आता है और 'भाटा' के समय इन नदियों का पानी समुद्र में। पेरार, पेरियार, पंपा, कुंथिपुझा, चंद्रगिरीपुझा, कोरापुझा और चेलियार जैसी नदियाँ इन मुहानों पर झील और लैगून का निर्माण करती हैं। यही पानी पीछे हटते हुए वापस केरल की मुख्य भूमि की तरफ फैलने लगता है, जिसे हम 'बैकवाटर' के नाम से जानते हैं। कहते हैं कि यूरोपीय देश हालैंड में ही केरल जितना खूबसूरत 'बैकवाटर' मौजूद है, अन्यत्र कहीं नहीं।
प्रकृति की इस नेमत को केरल के समाज ने दोनों हाथों से थामा है। मानव निर्मित नहरों के सहारे 'बैकवाटर' के जाल को गाँवों तक फैला दिया गया है। मछली पालन और संपर्क मार्ग के अलावा इस राज्य के पर्यटन का एक बड़ा हिस्सा इनसे आकार लेता है। दक्षिणी केरल में 'अष्टमुदी' और मध्य केरल में सबसे बड़ी झील 'वेंबनाड' इसे थामे रहती है। इसमें केट्टूवलम पर यात्रा करते हुए आपको एक दूसरी दुनिया दिखाई देती है। बिना हलचल के शांत लेकिन साफ पानी की इन नहरों के दोनों किनारों पर नारियल के पेड़ कतार बाँधे खड़े हैं। इनके पीछे के झुटपुटे में गाँव बसे हुए हैं। और उनके पीछे खेतों में धान की फसल लहलहा रही है। बीच-बीच में केले की खेती प्रकृति की आरोह-अवरोह को भर रही है। एक तरफ जमीन पर प्रकृति द्वारा बिखेरी गई हरियाली है तो दूसरी तरफ पानी में घोला गया नीला रंग। और फिर इन दोनों के ऊपर आसमान की अपनी तासीर तो है ही। तीनों एक दूसरे पर अपने रंगों को छिड़कते हैं। और फिर वह दृश्य उपस्थित होता है जिसके लिए भाषाओं ने ठीक-ठीक शब्द नहीं गढ़े। कि जैसे मैं बेहतरीन, अद्भुत या अति-सुंदर कह दूँ और वह मंजर संप्रेषित हो जाए। मगर त्रासदी देखिए कि जिस बैकवाटर ने यहाँ के पर्यटन को इतना समृद्ध किया है, उसी पर्यटन के कारण इस बैकवाटर की साँसें भी फूल रही हैं। इनमें हजारों की संख्या में चलने वाले शिकारे सिर्फ पर्यटन ही नहीं पैदा करते। वे बैकवाटर के पर्यावरण को जहर भी रसीद करते हैं। अब देखना यह है कि प्रकृति के सिखलाए गए 'संतुलन के सिद्धांत' को हमारी मानव जाति याद रख पाती है या उसे भूलकर अपने भविष्य को भी भूल जाती है।
केरल की खूबसूरती यह है कि यहाँ देखने के लिए बहुत सारी जगहें हैं। लेकिन त्रासदी यह कि बतौर पर्यटक आप देखने से अधिक छोड़ते हुए चलते हैं। जैसे कि अलेप्पी छोड़ते समय यह टीस उभरती है कि इस यात्रा में कोल्लम, थेकड़ी और पेरियार टाइगर रिजर्व पीछे छूट रहे हैं। बस खुशी की बात यह है कि पिछली दो यात्राओं के विपरीत इस बार हमने मुन्नार की राह नहीं छोड़ी है। यह राह कोच्चि को छूते हुए मुन्नार की तरफ निकलती है। और हिमालय के पहाड़ी रास्ते से डरने वाले उन लोगों के लिए बिलकुल मुफीद है, जो वहाँ की यात्रा में न चैन से आँखें खोल पाते हैं और न ही बंद कर पाते हैं। कोडईकनाल, ऊटी और माउंट आबू की तरह मुन्नार का रास्ता भी हिमालय के रास्तों पर चढ़ाई का पूर्वाभ्यास कहा जा सकता है। जहाँ कहने के लिए आप पहाड़ी रास्ते की यात्रा भी कर रहे हैं और समझने के लिए आपके पास डर भी नहीं फटकता। इन रास्तों पर हिमालय की तरह एक तरफ पहाड़ी तो है लेकिन दूसरी तरफ यहाँ तुरत ही खाईं नहीं शुरू हो जाती। वह इतनी दूरी बरतती है कि यात्रियों के मन में चलने वाला लुढ़कने का अज्ञात भय भी थोड़ा दूर ही चलने लगता है।
कानन-देवन पहाड़ियों पर स्थित मुन्नार शहर अपने चाय-बागानों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ पहुँचकर लगता है कि इसी जगह ने केरल को 'हरे जादू की जमीन' (बकौल मधुकर उपाध्याय) वाली संज्ञा बख्शी होगी। अभी तक हम तिरुअनंतपुरम, कोवलम और अलेप्पी की जिस हरियाली पर मुग्ध हुए जा रहे थे, मुन्नार देखने के बाद उस पर पुनर्विचार करने की इच्छा होती है। इस शहर के आस-पास चाय-बागानों का एक बड़ा और सघन घेरा है। या आप इसे इस तरह से भी समझ सकते हैं कि पूरा मुन्नार शहर ही चाय-बागानों की गोद में बसा हुआ है। ये पहाड़ियाँ चाय की खेती के लिए बिलकुल मुफीद है। 5 से 7 हजार फीट की ऊँचाई वाली, जहाँ पर औसतन 150 से 250 सेमी की सालाना बारिश होती है। इनकी ढलान भी 30 से 45 डिग्री वाली है, जिसमें पानी एक जगह नहीं ठहरता और फिर 20 से 30 डिग्री तापमान के बीच भरपूर आर्द्रता वाली हवा चाय के लिए आवश्यक गर्मी और नमी उपलब्द्ध कराती है।
यहाँ पर चाय बागान उगाने का फैसला अंग्रेजी हुकूमत ने लिया था। पहले-पहल जब वे लोग ट्रावनकोर और मद्रास रियासत के बीच उठे जमीन विवाद को सुलझाने के लिए यहाँ पहुँचे थे तो उनको यह जगह इसके लिए उपयुक्त लगी थी। उन्नीसवीं के सदी उत्तरार्ध आते-आते यहाँ पर चाय-बागाने अस्तित्व में आ गईं और फिर आजादी के बाद साठ के दशक में टाटा का यहाँ पर पदार्पण हुआ। लगभग दो दशक बाद उसका इन चाय बागानों पर नियंत्रण हो गया। अगले दो दशकों की कहानी उसके अधिकार के खत्म हो जाने की कहानी बनी। वजह यह कि अब ये बागाने टाटा के लिए उतनी मुफीद नहीं रह गई थीं। इस सदी के आरंभ में चाय-बागान उद्योग में मंदी आ गई थी और उसी के हिसाब से टाटा अपना गणित देखकर चाय के 'ब्रांड-बाजार' की तरफ बढ़ गया। बाद में यहाँ पर काम कर रहे लगभग 12000 कर्मचारियों की शेयर वाली एक कंपनी "कानन देवन हिल्स प्लांटेशन कंपनी प्राइवेट लिमिटेड" अस्तित्व में आई, जो आज भी चल रही है। यह कंपनी दक्षिणी भारत में रोजगार देने वाली सबसे बड़ी निजी कंपनी भी मानी जाती है। इसमें कर्मचारियों का शेयर लगभग 70 प्रतिशत के आस-पास है जबकि टाटा की हिस्सेदारी 18 प्रतिशत पर सिमट गई है।
इन पहाड़ियों में सूरज की माँ प्रतिदिन उसे नहला धुलाकर तैयार करती है और हौसला देती है कि 'जाओ ...आज धरती के इस हिस्से को चूमने की तुम्हारी इच्छा जरूर पूरी होगी'। पिछले दिनों की नाकामयाबी को भूलकर वह उठ खड़ा होता है। धरती को चूमने के लिए पहले बादलों से अनुनय-विनय करता है और चूँकि वे सुबह शुरू होने से कुछ समय पहले ही धरती पर अपना राग बजाकर सोने गए रहते हैं तो उन्हें सूरज की विनती स्वीकार करने में कोई खास दिक्कत नहीं होती। वे उसे रास्ता दे देते हैं। लेकिन असली खेल यहाँ से शुरू होता है। सूरज को पहले लंबे-लंबे पेड़ों के बीच से निकलना होता है, जहाँ उसकी आधी साँस खर्च हो जाती है। फिर गझिन होती जा रही झाड़ियों से नीचे आने में उसकी बची हुई साँस भी टूटने लगती है और जो कुछ किरणें अपनी साँस बचाकर उन झाड़ियों को पार करने में कामयाब होती हैं, उनका सामना जब चटाई की तरह जमी और बिछी हुई घासों से होता है, तो उनके पास मुँह 'बा' देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। अब सूरज आड़े तिरछे की बजाय सीधा खड़ा होकर हमला बोलता है कि इतने में बादलों की नींद टूट जाती है। वे अगले आधे घंटे में सूरज को उसकी औकात बता देते हैं।
बेचारा थका-हारा सूरज शाम को अपनी माँ की गोदी में पहुँचकर सो जाता है।
हम उस सूरज को 'मुन्नार' में अनुनय-विनय करते हुए छोड़कर कोच्चि की तरफ बढ़ जाते हैं...।
उत्तर-प्रदेश और बिहार के विपरीत केरल में किसी शहर को छोड़ने के बाद यह अहसास नहीं होता कि हम किसी दूसरी दुनिया में आ गए हैं। यहाँ के गाँवों में बेबसी और दयनीयता वाले दृश्य दिखाई नहीं देते। वरन इसके उलट यहाँ के गाँव भी भरे-पूरे नजर आते हैं। उन्हें भी वे सारी न्यूनतम सुविधाएँ हासिल हैं जो किसी आम भारतीय को हासिल होनी चाहिए। मसला चाहें शिक्षा और स्वास्थ्य को हो या फिर बिजली, सड़क और रोजगार का। खुशी की बात यह भी है कि सतह पर दिखाई देने वाली यह समृद्धि चकाचौंध नहीं, वरन सुकून पैदा करती है। कृषि और पर्यटन ने इस राज्य को अपने पैरों पर तो खड़ा किया ही है, आप्रवासन से आने वाली कमाई ने भी इस समृद्धि में एक बड़ी भूमिका निभाई है। धन उपार्जन के जो साधन केरल के समाज में दिखाई पड़ते हैं, वे सारे के सारे वितरण के साधन है। वे समाज को समृद्ध भी करते हैं और समान-समरस भी। मसलन केरल के आप्रवासन को ही लीजिए। सामान्यतया जो आप्रवासन धन का संकेंद्रण पैदा करता है, केरल में वह विकेंद्रित तरीके से लौटता है।
केरल से लगभग 24 लाख लोग खाड़ी के देशों में नौकरी-मजदूरी करते हैं। इसमें मुसलमानों का हिस्सा लगभग आधे का है। एक अनुमान के अनुसार लगभग दो में एक मुस्लिम परिवारों के लोग या तो खाड़ी के देशों में काम करते हैं या काम करके लौटे होते हैं। मुस्लिम बहुल जिले 'मालपुरम' की तो लगभग 20 प्रतिशत आबादी आप्रवासन में है। जबकि हिंदुओं में यह तादाद पाँच परिवारों में से एक की है। आप्रवासन की इस तस्वीर को चित्रित करने में साक्षरता ने एक बड़ी भूमिका निभाई है। उसी के कारण बड़ी संख्या में महिलाएँ भी यहाँ आप्रवासन में शामिल हैं और उन स्त्रियों की संख्या भी काफी है, जो अपने देश के विभिन स्कूलों और अस्पतालों में काम कर रही हैं। यहाँ के आप्रवासी लगभग 12000 हजार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष बाहर से अपने राज्य में भेजते हैं।
हम कोच्चि पहुँचते हैं। यहीं से हमने अपनी तीनों केरल यात्राओं में घर-वापसी की ट्रेन पकड़ी है। सिवाय अपनी पहली यात्रा के, जब हम थोड़ा अधिक भक्ति-भाव से लहालोट प्राणी हुआ करते थे और उस यात्रा में हमने कोच्चि के उत्तर में स्थित 'गुरुवायुर मंदिर' की कान पकड़ने वाली यात्रा की थी। भीड़ को इकट्ठा करके कैसे मंदिर प्रशासन एक ग्लेयर और ग्लैमर पैदा करता है, गुरुवायुर का मंदिर इसका क्लासिक उदाहरण है। दिन में तेरह बार पूजा और भोग लगाने के नाम पर मंदिर को बंद किया जाता है और एक सामान्य सी भीड़ को भारी-भरकम हुजूम में बदल दिया जाता है। फिर बाद में वही भीड़ अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर यह प्रचार करती है कि गुरुवायुर का मंदिर भी बहुत बड़ा है और वहाँ भी बहुत भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं।
कोच्चि शहर का यह स्वरूप उस समय अस्तित्व में आया था, जब सन 1341 में आई पेरियार नदी की महान बाढ़ ने इसे दो भागों में विभक्त कर दिया था। वेंबनाड झील उसके बीचो-बीच स्थापित हुई जिसने इस शहर को प्रकृति की यह विरासत सौंपी। हालाँकि आज की व्यवस्था ने उस विभाजन को दूसरा आकार दे दिया है। अब नए शहर कोच्चि को पुराने शहर कोच्चि से साफ-साफ अलगाया जा सकता है। पुराना शहर कोच्चि केरल के पर्यटन मानचित्र का एक प्रमुख सितारा है और ऐतिहासिक धरोहर का केंद्र-स्थल भी। लेकिन नया शहर कोच्चि यहाँ आने वाले पर्यटकों की सारी मलाई मार लेता है। क्योंकि वह आज के आधुनिक सुख-सुविधा वाले सारे केंद्रों का स्वामी है।
नए शहर से चलने वाली फेरी आधे घंटे में पुराने कोच्चि में पहुँचा देती है। इतिहास की अत्यंत समृद्धशाली विरासत वाला यह सहर 'फोर्ट कोच्चि' के नाम से भी जाना जाता है। जब आधुनिक काल में यूरोपीय ताकतों ने भारत की तरफ रुख किया था तो उनमें से लगभग प्रत्येक के कदम यहाँ पड़े थे। पहले पुर्तगालियों ने इस शहर पर अड्डा जमाया और फिर कालांतर में डच यहाँ आकर बसे। बाद में जब पूरे देश पर अँग्रेजों का कब्जा होने लगा और शेष यूरोपीय ताकतें भारत से अपना बोरिया-बिस्तर समेटने लगीं तो इस शहर पर भी उनका परचम लहरा गया। हालाँकि यह बात भी उल्लेखनीय है कि इस यूरोपीय प्रादुर्भाव से काफी पहले भी कोच्चीन देश-दुनिया से परिचित हो चुका था। व्यापारिक साझेदारी ने उसे चीन, अरब और जापान से जोड़ा था। चीनी उपस्थिति की छाप वहाँ पर संरक्षित 'चाइनीज नेट' या 'चीन की जाल' के रूप में आज भी दिखाई देती है। बेशक कि आज के आधुनिक समय में मछली पकड़ने का वह परंपरागत चीनी तरीका चलन से बाहर हो चुका है। लेकिन आधुनिक सभ्यता से काफी पहले 14वीं शताब्दी में उपयोग की जाने वाली इन 'जालों' के ऐतिहासिक महत्व को नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
और नजरअंदाज तो यह भी नहीं किया जा सकता कि 14वीं सदी से काफी पहले भी कोच्चीन शेष दुनिया से जुड़ा हुआ था। धर्म-युद्ध (CRUSADE) के कारण 7वीं सदी में कुछ यहूदी भागकर यहाँ पहुँचे थे। उनकी उपस्थिति को इस शहर की एक गली आज भी रोशन करती है। इस गली में तमाम झंझावातों को झेलता हुआ उनका पूजा स्थल 'सायिनागाग' 15वीं शताब्दी से लेकर आज तक खड़ा है और इसी शहर की मिट्टी में आधुनिक यूरोप को भारत से परिचित कराने वाले शख्स 'वास्कोडिगामा' की रूह भी बसी हुई है। बेशक कि बाद में उसके बेटे ने उसकी अस्थियों को कब्र से निकालकर लिस्बन (पुर्तगाल) ले जाने का फैसला किया था और इस कारण से आज 'सेंट फ्रांसिस चर्च' में बनी वह कब्र केवल नाम की बची हुई है। लेकिन मृत्यु के बाद यादों के सिवाय और बचा भी क्या रह जाता है। वे बची हुई यादें उस महान खोजी नाविक को कोच्चि से भरपूर जोड़ती हैं।
इस पुराने कोच्चि शहर को सबसे खास नेमत पुर्तगालियों ने बक्शी थी। उन्होंने सन 1568 में मटनचेरी इलाके में एक भव्य पैलेस का निर्माण कराया था और उसे उपहार-स्वरूप तत्कालीन राजा 'वीर केरला वर्मा' को भेंट किया था। लगभग एक शताब्दी के अंतराल के बाद डच लोगों ने इसका पुनरुद्धार कराया और तब से इस पैलेस को 'डच पैलेस' के नाम से भी जाना जाता है। इस पैलेस की 'वाल पेंटिंग' इसे खास बनाती है। रामायण, महाभारत और पुराणों की कथाएँ चित्रात्मक शैली में यहाँ की दीवालों पर दर्ज हैं। खुशी की बात है कि आजकल भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसे अपने संरक्षण में ले लिया है। फिर कालांतर में पूरे देश की तरह अंग्रेजों का इस शहर पर भी कब्जा हुआ और उन्होंने इसे नौ-परिवहन और नौ-सैनिक उपयोग का शहर बना दिया। आज का कोच्चीन उसी अंग्रेजी सोच और समझ के विस्तार का शहर दिखाई देता है। यह भारतीय नौ-परिवहन का एक बड़ा केंद्र है और भारतीय नौ-सेना के दक्षिणी नेवल बेस का कमांड मुख्यालय भी इसी शहर में स्थित है।
लेकिन पुराने कोच्चि के विपरीत नया कोच्चि किसी आम भारतीय आधुनिक शहर की तरह ही दिखाई देता है। इसमें केरल की छवि बहुत कम बची है। हमारी व्यवस्था एक आधुनिक शहर को बनाने की प्रक्रिया में जितना कुछ नष्ट कर सकती है, कोच्चि में उसने सूत भर भी नहीं छोड़ा है। पेड़ों की जगह कंक्रीट के जंगल खड़े हैं और हरियाली की जगह वातानुकूलित माल और बाजार। नदी, झील और समुद्र जितनी तरह से कोच्चि को गुच्छ में पिरोते हैं, उसमें यथासंभव सेंध लगा दी गई है। केरल के किसी तट पर इतना गंदा पानी नहीं दिखाई देता। इस राज्य का बड़ा से बड़ा समर्थक भी यहाँ पर चुप्पी साध लेता है। इसका भूभाग आधुनिकता की भेंट चढ़ गया है और समुद्री किनारा नौ-परिवहन तथा नौ-सेना की जरूरतों का। बेशक कि यह शहर केरल की वित्तीय राजधानी है। यहाँ केरल का उच्च न्यायालय है, स्टाक मार्केट है, साइबर सिटी है और प्रकृति की नेमतों के कारण इसे 'क्वीन ऑफ अरेबियन सी' का तमगा भी हासिल है लेकिन आज का कोच्चि केरल नहीं है। हम जिस केरल की कल्पना में कोच्चि पहुँचते हैं, अपने मानदंडों को कितना भी शिथिल करने के बावजूद यह केरल के भीतर नहीं समा पाता। वैसे वर्तमान विकास की हमारी राह किस दिशा में हमारे समाज को लेकर जा रही है, यह जानने के लिए नए कोच्चि शहर को घूमने का प्रोग्राम जरूर बनाया जा सकता है।
महँगाई ने पर्यटन को महँगा बना दिया है लेकिन केरल में वह काफी हद तक हमारे चुनाव पर निर्भर दिखाई देता है। सार्वजनिक परिवहन का उपयोग कर और ठहरने के लिए साधारण जगहों का चुनाव कर हम उसे नियंत्रित कर सकते है। इसमें सबसे खास बात यह है कि इस राज्य में बतौर पर्यटक हमें हर कदम पर अपना एंटीना खड़ा नहीं रखना पड़ता। हर अजनबी से मिलते समय 'लुट जाने' का भय नही रखना होता। कोच्चि का ऑटो-चालक स्टेशन से मरीन ड्राइव जाने के लिए चालीस रुपये ही लेता है, चाहे हमने पहले से किराया तय किया हो या नहीं। तिरुअनंतपुरम स्टेशन के बाहर खड़े ऑटो-चालक, ऑटो-चालक की तरह से ही मिलते हैं, किसी दलाल की तरह से नहीं। और मुन्नार की सैर कराने वाला टैक्सी चालक बेशक किराए और होटल की महँगाई से सहमत होता है लेकिन हम उस पर यह तोहमत नहीं लगा सकते कि उसने हमें धोखे से किसी महँगे होटल में टिका दिया है या किसी सड़ियल दुकान में घुसाकर फँसा दिया है। ये छोटी-छोटी बाते यदि आपको कम उल्लेखनीय लगती हैं तो दिल्ली के किसी रेलवे स्टेशन पर एक बार अजनबी की तरह उतरकर देखिए। प्लेटफार्म संख्या 1 से 14 तक पहुँचने में यदि 28 दलाल आपका साक्षात्कार न ले लें, तब कहिएगा। और उस पर भी त्रासदी यह कि जिस 28वें व्यक्ति को आप थोड़ा सभ्य मानकर भरोसा करते हैं, वह स्टेशन से बाहर आते ही आपको किसी अन्य ऑटो वाले को थमा देता है। और तब पता चलता है कि यह भी एक साक्षात्कार लेने वाला ही था। इस अविश्वसनीय दुनिया में केरल उस भरोसे को वापस लौटाता है, जो आदमी होने के नाते हमारे पास अनिवार्यतः बचा रहना चाहिए।
केरल और तमिलनाडु में पर्यटन को लेकर भारी प्रतिद्वंद्विता पाई जाती है। तमिलनाडु को लगता है कि उसका क्षेत्रफल केरल से काफी बड़ा है। उसके पास धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से रामेश्वरम और मदुरै के दो बड़े मंदिर हैं। वह तंजावुर और महाबलीपुरम जैसे ऐतिहासिक तीर्थस्थलों का स्वामी है। कन्याकुमारी जैसा राष्ट्र-प्रसिद्ध पर्यटक स्थल भी उसी के खाते में है और फिर दक्षिणी भारत के तीन में से दो बड़े हिल-स्टेशन भी तमिलनाडु के ही नगीने हैं। जबकि इसके बरक्स केरल के पास पद्मनाभस्वामी, गुरुवायुर, कलाडी और सबरीमाला जैसे धार्मिक पर्यटक स्थल तो हैं लेकिन इन सबकी अपील दक्षिणी भारत तक ही सिमटी हुई है। और 'हिल-स्टेशन' के नाम पर मुन्नार ही एक मात्र पहुँच वाली जगह है। लेकिन इतने पर भी केरल पर्यटन में तमिलनाडु से बाजी मार लेता है और सिर्फ बाजी ही नहीं मारता, वरन केरल में तमिलनाडु से दो-गुना अधिक पैसा खर्च करने वाला पर्यटक भी खुशी-खुशी ही वापस लौटता है।
ऐसे में, बकौल मधुकर उपाध्याय (पत्रकार) तमिलनाडु द्वारा की गई यह आलोचना जायज ही लगती है कि "केरल कुछ अधिक ही हरा है।" मुन्नार को देखने के बाद तमिलनाडु की आलोचना समझ में आती है और उसकी तिलमिलाहट भी।
आज केरल छोड़ते हुए ऐसा लग रहा है कि इन पंद्रह दिनों में मेरे भीतर का आदमी थोड़ा बेहतर हुआ है। हालाँकि कल मुंबई पहुँचने के बाद नहीं कह सकता हूँ कि इसमें से कितना आदमी बचा रहेगा और कितना बिला जाएगा। और फिर उसके बाद बलिया जाने के लिए ट्रेन पकड़ते समय तो बिलकुल भी नहीं कि मैं किसी अजनबी से मिलते समय 'आदमी' की तरह से ही मिलूँगा, किसी 'साही' की तरह से नहीं। वैसे कोई भी यात्रा आदमी बने रहने के लिए यदि इतनी भी प्रेरणा दे रही है तो उस पर गर्व ही किया जा सकता है। केरल कुछ दूर तक हमारे साथ बना रहे, इस उम्मीद में हम मालाबार और कोंकण तट होते हुए मुंबई तक पहुँचने का रास्ता चुनते हैं।
अलविदा केरल... इसलिए कि यहाँ पर इतना कुछ देखने को नसीब हुआ और इसलिए भी कि इसके बाद भी इतना कुछ देखने के लिए बचा रह गया। यही बचा रह जाना केरल की एक और एक और... एक और यात्रा को प्रेरित करता रहेगा।
(यात्रा वर्ष - 2003, 2006 और 2014)