बचपन की स्मृतियों में अंडमान और लक्ष्यद्वीप की छवि भूगोल की पुस्तकों से
उभरती है। भारत की मुख्यभूमि से अलग दक्षिण पूर्व में स्थित अंडमान और दक्षिण
पश्चिम में स्थित लक्ष्यद्वीप को हम बड़े ही कौतुक भाव से देखा करते थे। समुद्र
की इस विशाल जलराशि के बीच इन द्वीपों पर लोग-बाग कैसे रहते होंगे और
मुख्यभूमि से इतनी अधिक दूरी होने के बावजूद भारत इन पर कैसे अपनी
शासन-व्यवस्था संचालित करता होगा, हमें विशेष रूप से मथता था। और फिर माध्यमिक
कक्षाओं में जब इतिहास की पुस्तकों से सामना हुआ तो यह कौतुहल कम होने के बजाय
और बढ़ता गया। अंडमान के साथ अब ‘काला-पानी’ की कहानी भी हमारे जेहन में दर्ज
होने लगी थी। सोचकर ही मन सिहर उठता था कि किसी भी व्यक्ति को इतनी दूर एकांत
और निर्जन में उठाकर पटक दिया जाए, तो उस पर क्या बीतती होगी? वह तो बिना सजा
के ही टूट जाता होगा... मर-खप जाता होगा। तब के हमारे शिक्षकों के पास
पाठ्य-पुस्तकीय जानकारियों के अलावा कोई सीधा या प्रत्यक्ष अनुभव भी नहीं होता
था, जो हमारी अनगिनत जिज्ञासाओं का समाधान कर पाते। हम बड़े होते रहे और जैसा
कि भारत में लद्दाख, पूर्वोत्तर, अंडमान और लक्ष्यद्वीप के बारे में
सामान्यतया लोगों को होता रहा है, हम भी इसे देश के हिस्से से बाहर का मानकर
भूलते से रहे।
लगभग डेढ़ दशक पहले देशाटन की इच्छा ने हमारे पैरों में चक्कर बाँध दिया। मन
में जिस पहली इच्छा ने कुलाँचे मारने के लिए सिर उठाया था, उसका रुख लद्दाख और
अंडमान की तरफ था। आज इन बातों को शेयर करते हुए अत्यंत गर्व होता है कि जीने
के लिए भले ही हमने इस गाँव की सीमाओं को नहीं लाँघा है, लेकिन देखने के हिसाब
से हमने लद्दाख से लेकर अंडमान तक की दो-चार साँसें अपने दिल में डाल ली है।
दोनों जगहों की यात्रा में हवाई मार्ग कामन है। और दूसरे रास्ते के रूप में
लद्दाख पहुँचने के लिए, जहाँ हम सड़क मार्ग को चुनते हैं, वहीं अंडमान की
यात्रा के लिए अपनाया जाने वाला दूसरा मार्ग जल-मार्ग है। इसकी राजधानी पोर्ट
ब्लेयर ऐसी भौगोलिक रेखा पर स्थित है, जहाँ से कोलकाता और चेन्नई की दूरी लगभग
एक समान, 1200 किलोमीटर के आस-पास है। यहाँ पहुँचने के लिए उत्तर-भारतीय लोग
कोलकाता का चुनाव करते हैं और दक्षिण भारतीय लोग चेन्नई का। दोनों शहरों से की
जानी वाली हवाई यात्रा दो घंटे में पोर्ट ब्लेयर पहुँचा देती है, जबकि पानी के
जहाज से सामान्यतया तीन दिन का समय लगता है।
पोर्ट ब्लेयर जाने के लिए विमान जैसे ही ‘उड़ान भरता’ है, वह हिंद-महासागर की
उस विशाल जलराशि के ऊपर कलाबाजियाँ दिखाने लगता है जो आसमान की तरह अथाह और
अनंत दिखाई देता है। दो घंटे बाद, जब वह नीचे उतरने की शुरुआत करता है और
दूर-दूर तक कहीं किसी जमीन के टुकड़े की आहट नहीं मिलती, तब तमाम जानकारियों को
पढ़कर जाने के बाद भी मन में वही अकुलाहट उभरने लगती है, जो ‘लेह हवाई अड्डे’
पर विमान के उतरते समय होती है। जैसे कि इतने विशाल पहाड़ों के बीच इतनी समतल
जमीन कहाँ से आएगी कि कोई विमान उस पर उतर सके। वैसे ही इतने विशाल महासागर के
बीच जमीन का वह टुकड़ा कहाँ से आएगा कि जिस पर विमान उतर सके। विमान थोड़ा और
नीचे आता है और तब उस नीले समुद्र के बीच से असंख्य हरे टुकड़े उभरने शुरू हो
जाते हैं। जैसे कि समुद्र के नीले खेत में किसी ने इन हरी फसलों के बीज डाल
दिए हों और अब ये पौधों के रूप में अंकुरित हो गए हों। कहीं-कहीं लगता है कि
बीज डालने वाले ने बेहद उदारता दिखाई है तो कहीं-कहीं अतिशय कंजूसी। विमान
थोड़ा और नीचे आता है। और तब लगता है कि इन पौधों की माँ भी वही है, जो हम सबकी
है। यात्रियों को तसल्ली होने लगती है कि इस विमान को भी गोद नसीब हो जाएगी।
पोर्ट ब्लेयर का ‘वीर सावरकर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा’ बेहद छोटा है। इतना कि
इसको यदि आप दिल्ली, मुंबई या कोलकाता हवाई अड्डे के बच्चे के रूप में भी
चित्रित करना चाहें तो इसे अतिरंजनापूर्ण ही माना जाएगा। हवाई अड्डे के ‘निकास
दरवाजे’ पर नामों की तख्तियाँ लिए टूर-आपरेटर्स की कतार खड़ी है। ऐसा लगता है,
जैसे उतरने वाले प्रत्येक व्यक्ति को रिसीव करने के लिए कोई न कोई जरूर आया
है।
“तो क्या हम लोगों ने टूर-आपरेटर की सेवा नहीं लेकर कोई गलती कर दी है?”
जब मैं यह सवाल उस कार वाले से करता हूँ, जो हमें एअरपोर्ट से शहर ले आ रहा है
तो वह हमें चिंताओं के समुंदर के धकेल देता है। “बिना टूर-आपरेटर के आप अंडमान
में नहीं घूम सकते हैं। यहाँ पर ढेर सारे ऐसे द्वीप हैं जहाँ पर जाने के लिए
पानी की जहाजों की आवश्यकता होती है। उनमें अग्रिम-आरक्षण कराना पड़ता है,
जिसके लिए काउंटर पर काफी लंबी लाइन लगती है। तो आप घूमेंगे या आरक्षण कराते
फिरेंगे। कहीं ऐसा न हो कि आपको इसी पोर्ट ब्लेयर से घूम फिरकर वापस लौटना
पड़े।”
“तो क्या अंडमान हमारे लिए भी ‘काला पानी’ ही साबित होने जा रहा है...?”
हमारे चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगती हैं। कि इतने में वह कार वाला किसी ‘टूर
आपरेटर’ से मिलवा देने का प्रस्ताव ठोकता है।
चेहरे की हवाइयाँ बनारस का एंटिना पकड़ लेती हैं। वहाँ आने वाले पर्यटकों को
रिक्शा वाले, होटल वाले, नाव वाले और पुजारियों की फौज जिस तरह के सत्कार से
नवाजती है। ऐसा लग रहा है कि यह पट्ठा भी हमारा वही सत्कार कर रहा है। कहीं
ऐसा तो नहीं कि इसने भी विश्वनाथ गली और दशाश्वमेध घाट से ही ‘सत्कार’ का यह
प्रशिक्षण लिया हो।”
दिमाग में यह बात कौंधती है, कि देश में इधर प्रचलित हुए ‘फेंकने के चलन’ को
आजमाया जा सकता है।
“यहाँ पर हमारे एक परिचित रहते हैं।”
इस एक छोटे से वाक्य में ही वह ‘पट्ठा’ बोल्ड हो जाता है। “मेरे कहने का मतलब
यह नहीं था कि आप यहाँ अकेले घूम ही नहीं सकते। बल्कि मैं तो यह कह रहा था कि
इस तरह आपको परेशानी होगी। और चूँकि आप यहाँ आनंद लेने के लिए आए हुए हैं,
इसलिए मैं आपको सलाह दे रहा हूँ कि किसी टूर-आपरेटर को ले लेना ठीक होगा।”
‘हूँ-हाँ’ करते हुए हम अबरदीन बाजार के गांधी चौक पर उतर जाते हैं और फिर अपने
अनुभव के आधार पर एक ठिकाना टीप देते हैं। यह सोचते हुए कि ‘फेंकना’ हमेशा एक
नकारात्मक क्रिया ही नहीं होती।
नहा धोकर हम नाश्ते के लिए निकलते हैं। और इस सवाल का पीछा करने के लिए भी, कि
अंडमान में बिना ‘टूर-आपरेटर’ के कैसे घूमा जा सकता है। पता यह चलता है कि
मुख्यभूमि से दूरी और विमान से आने की मजबूरी के कारण यहाँ घूमने में खर्चा
अधिक होता है। इस कारण सामान्य पर्यटकों की संख्या काफी कम आती हैं। सरकारी
कर्मचारी ही अधिकांशतः यहाँ आते हैं, जिनके पास सरकार की तरफ से ‘यात्रा
रियायत अवकाश’ (एल.टी.सी.) की बैशाखी उपलब्ध होती है। 2004 की सुनामी के बाद
यह बैशाखी इतनी मजबूत और अच्छी हो गई है कि उसके सहारे सरपट दौड़ा जा सकता है।
चूँकि ‘टूर-आपरेटरों’ को दिए गए बिल-भुगतान का सारा पैसा सरकार वहन कर देती
है, इसलिए यहाँ आकर हर कोई ‘पैकेज टूर’ की निश्चिंतता भोगना चाहता है। यह
अनायास नहीं है कि 2005 के बाद सरकार द्वारा दी गई इस सुविधा के कारण यहाँ पर
पर्यटकों की संख्या में पाँच गुना तक की वृद्धि दर्ज की गई है। पहले के 30
हजार प्रतिवर्ष के मुकाबले, आजकल डेढ़ लाख प्रतिवर्ष तक।
हमें तसल्ली होती है कि अंडमान को भी देश की तरह ही आर्थिक मितव्ययिता के साथ
घूमा जा सकता है। और इस खुशी के नाम पर चाय के साथ-साथ थोड़ी निश्चिंतता भी
गटकी जा सकती है कि यहाँ पर सामान्यतया प्रचलित एक सप्ताह के ‘टूर-पैकेज’ के
बरक्स, हमारे पास पूरे दस दिन का समय उपलब्ध है। होटल वापस लौटते समय अंडमान
को जानने के लिए एक किताब हमारी तरफ उँगली बढ़ाती है। हम उसे लपककर पकड़ लेते
हैं। और जैसा कि सामान्यतया होता है कि ऐसी किताबों को हाथ में लेते ही नींद
आने लगती है, उसके विपरीत इसको हाथ में लेते ही नींद गायब हो जाती है। बेहद
सरल भाषा में लिखी हुई यह किताब अंडमान के कुछ रास्ते तो दिखा ही देती है।
बंगाल की खाड़ी में स्थित ‘अंडमान और निकोबार’ द्वीप समूह लगभग 780 किलोमीटर
लंबाई में फैला हुआ है। 572 छोटे-बड़े द्वीपों से मिलकर बने इस केंद्रशासित
प्रदेश में 2011 की जनसंख्या के आँकड़ों के अनुसार लगभग 4 लाख की आबादी निवास
करती है। अधिकतर लोग दक्षिणी अंडमान में या कहें तो पोर्ट ब्लेयर के आस-पास ही
रहते हैं। कुछ द्वीप तो इतने छोटे हैं कि उन्हें नजरअंदाज भी किया जा सकता है।
लेकिन ऐसे द्वीपों की संख्या भी लगभग 300 के आस-पास आँकी गई है, जिन्हें कुल
मिलाकर द्वीप कहा जा सकता है। मजे की बात यह है कि इनमें से कुल छत्तीस द्वीप
ही ऐसे हैं, जहाँ पर मानव जीवन निवास करता है। 24 अंडमान में और 12 निकोबार
द्वीप समूह में। प्रशासनिक दृष्टि से पूरे अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को
तीन जिलों में बाँटा गया है। पहला उत्तरी और मध्य अंडमान, जिसका मुख्यालय
‘मायाबंदर’ है। दूसरा दक्षिणी अंडमान, जिसका मुख्यालय ‘पोर्ट ब्लेयर’ है। और
तीसरा निकोबार द्वीप समूह, जिसका मुख्यालय ‘कार’ द्वीप में है। इस द्वीप समूह
का धुर उत्तरी हिस्सा बर्मा से सिर्फ 180 किलोमीटर दक्षिण में है और सबसे
दक्षिणी हिस्सा ‘इंदिरा प्वाईंट’ इंडोनेशिया से सिर्फ 150 किलोमीटर उत्तर में।
‘अमेजन’ के जंगलों की तरह यह द्वीप समूह भी दुनिया की साँस चलाने की
जिम्मेदारी निभाता है। इसका लगभग समूचा हिस्सा (लगभग 86 प्रतिशत) वनों से ढका
हुआ है और वर्ष के आधे दिनों में यहाँ बारिश जरूर होती है। यहाँ का पर्यटन
ले-देकर ‘पोर्ट ब्लेयर’ के आस-पास सात-आठ द्वीपों पर ही सिमटा हुआ है। कारण यह
कि एक तो इस द्वीप समूह का अधिकांश हिस्सा संरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत आता है
और दूसरे यहाँ दो द्वीपों के बीच समुंदर हमेशा खड़ा मिलता है। पर्यटकों के लिए
विशेष अनुमति की दरकार और आवागमन के साधनों की कमी समूचे ‘कार-निकोबार’ को
उनकी पहुँच से दूर कर देती है। मतलब कहने के लिए ही हम लोग अंडमान और निकोबार
आए हुए हैं। वास्तव में हम लोग केवल दक्षिणी अंडमान ही घूमने आए हुए हैं। अब
चाहें तो इस पर आप दुखी हो सकते हैं और चाहें तो इसका जश्न मना सकते हैं कि
इतना तो बिना ‘टूर आपरेटर’ के भी घूमा जा सकता है।
किताब उँगली पकड़कर हमें सेल्युलर जेल का रास्ता दिखाती है। अंडमान की
तीर्थ-स्थल मानी जाने वाली इस जेल को 1969 में ‘राष्ट्रीय स्मारक’ का दर्जा
दिया गया था। इतिहास की तमाम स्मृतियाँ अपनी क्रूरताओं और संघर्षों के साथ
यहाँ दर्ज हैं। देश और समाज को बनाने वाली एक मुकम्मल दास्तान इसकी
काल-कोठरियों में दफन है। यह किसी कल्पना लोक की गवाही नहीं है। यह तो बीती
शताब्दी की जिंदा कहानियों का कोलाज है। जेल का मुख्य द्वार उस प्रशासनिक भवन
से होकर गुजरता है, जिसमें बैठकर कभी उसके भीतर की जाने वाली नृशंसताओं की
पटकथा लिखी जाती थी। हमारा होटल वाला कह रहा था कि “जेल में क्या देखना है। वह
तो एक-आध घंटे में ही हो जाएगा। आपको तीन-चार घंटे पहले जाने की वहाँ कोई
जरूरत नहीं है।” लेकिन यहाँ आकर लगता है कि तीन-चार घंटे का समय कुछ कम ही पड़
गया है। बस तसल्ली इस बात की है कि हम यहाँ अपनी यात्रा के पहले दिन ही आ धमके
हैं। अब आने वाले दस दिनों में समय निकालकर इसे फिर से देखा जा सकता है।
यह स्थान न चाहते हुए भी हमें इतिहास में लेकर चला जाता है। सिर्फ जेल के
इतिहास में ही नहीं, वरन अंडमान के इतिहास में भी। जहाँ इन द्वीपों का जिक्र
पहली शताब्दी के आस-पास बौद्ध-ग्रंथों में मिलता है। और फिर चोलों के इतिहास
में भी, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह मलेशिया तक फैला हुआ था। इनका जिक्र
रोमन और अरबिक ग्रंथों में भी आता है। और फिर यूरोपीय नाविकों के दुनिया भ्रमण
के इतिहास में ये द्वीप दुनिया के नक्शे पर उभरते हैं। 1498 में वास्कोडिगामा
के भारत आने से लेकर सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी तक इन द्वीपों पर कई यूरोपीय
शक्तियों का आगमन होता है। हालाँकि इनमें से कोई भी यूरोपीय ताकत यहाँ स्थायी
रूप से बस नहीं पाती। एक तो इनकी भौगोलिक स्थिति ऐसी रहती है, और दूसरे यहाँ
की जलवायु बाहरी लोगों को यहाँ बसने की इजाजत नहीं देती। यहाँ रहने की सबसे
जरूरी शर्त है, प्रकृति से सामंजस्य और तालमेल। वह पहले आपका परीक्षण करती है
और फिर स्वीकार। जाहिर है, इसमें पीढ़ियाँ लगती हैं। ऐसा नही है कि आप यहाँ आए
और आराम से बस गए। और फिर सामरिक दृष्टि के अलावा इन द्वीपों से बहुत कुछ
मिलने की संभावना भी नहीं थी, जिसकी तलाश में यूरोपीय निकले थे। तो इसलिए जो
भी यूरोपीय शक्तियाँ यहाँ आती रहीं, वे सब के सब, ‘आती के साथ जाती’ भी रहीं।
और जिन्होंने टिकने की धृष्टता दिखाई, उन्होंने कुछ-एक सालों के बाद महसूस
किया कि उनसे गलती हो गई है।
अठारहवीं सदी के मध्य में डेनिश लोगों ने निकोबार में बस्तियाँ बसाने की पहली
कोशिश की थी, जो सफल नहीं हो सकी। फिर अठारहवीं सदी के अवसान से पहले ब्रिटिश
लोगों ने भारत के साथ-साथ इस द्वीप को भी अपने निशाने पर लिया। अंडमान में
बस्ती कहाँ बसाई जाए, इसका सर्वेक्षण करने के लिए वर्ष 1788 में आर.एच.
कोलब्रुक के साथ ‘आर्किबाल्ड ब्लेयर’ वहाँ पहुँचे। बाद में इसी ‘ब्लेयर’ के
नाम पर अंडमान के मुख्य नगर ‘पोर्ट ब्लेयर’ का नामकरण हुआ। हालाँकि 1857 के
गदर होने तक यह द्वीप उपेक्षित ही रहा। लेकिन जब उस गदर के बाद आबाद होना शुरू
हुआ तो यह आबाद होना एक ‘दंड भोगने’ के रूप में था। औपनिवेशिक शक्तियों ने
इसका इस्तेमाल एक ‘दंड द्वीप’ के रूप में किया। ऐसे नुस्खे वे इतिहास में पहले
भी आजमा चुके थे। तो 1857 के गदर के बाद लगभग 500 क्रांतिकारियों को लेकर
कोलकाता से पहला जहाज 10 मार्च 1858 को पोर्ट ब्लेयर पहुँचा। और फिर एक ऐसा
सिलसिला शुरू हो गया, जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण तक जारी रहा।
लोग आते रहे, दंड भोगते रहे, मरते रहे और खपते रहे। किसी को प्रकृति लील गई तो
किसी को परिस्थितियाँ। और जिसने इन दोनों को चुनौती दी, उनको हुक्मरानों की
क्रूरताएँ।
इन्ही बंदियों से अंडमान की जमीन साफ कराई गई और उन द्वीपों को नियंत्रण लायक
बनाया गया। उष्ण जलवायु, नौ महीने की भीषण बारिश, घने और बियाबान जंगलों के
गगनचुंबी वृक्ष, और सूर्य का प्रकाश पाने के लिए उन पर लिपटी असंख्य
बेलों-पौधों को साफकर बस्तियाँ बसाना कितना श्रमसाध्य और दुष्कर रहा होगा,
इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। और फिर यह काम उन लोगों से कराया गया,
जिनके जीवन की सारी उम्मीदें इस समुंदर के रास्ते में दफन हो गई थी। जिनके लिए
सारे परिजन रिश्तेदार हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ गए थे। यह अनायास नहीं था कि
यहाँ आने वाले कैदियों में से 20 प्रतिशत का जीवन संघर्ष प्रतिवर्ष असमय ही
समाप्त हो जाता था। फिर कुछ समय बाद यहाँ महिला कैदियों को ले आने की शुरुआत
हुई। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि 1901 के आस-पास यहाँ पर लगभग बीस हजार
बंदियों को बसा दिया गया था। उनके बीच वैवाहिक संबंध भी बनने दिए गए, जिससे कि
ये लोग मुख्यभूमि पर वापस लौटने का ख्याल सदा-सदा के लिए छोड़ दें। ये बंदी
सिर्फ भारत से ही नहीं आए थे, वरन बर्मा और श्रीलंका से भी उन्हें यहाँ लाया
गया था।
उन्नीसवीं सदी के आते-आते ब्रिटिश शासन को यह महसूस होने लगा कि बंदियों को
यहाँ पर ले आकर छोड़ना ही पर्याप्त नहीं है, वरन अधिक कठोर दंड देने के लिए या
कहें तो सबक सिखाने के लिए एक स्थायी और तनहाई वाली जेल की भी जरूरत है। 1890
में जेल का ब्लूप्रिंट तैयार हुआ, और 1896 से 1906 के मध्य यह विशालकाय जेल
तैयार होकर खड़ी हो गई, जिसे ‘सेल्युलर जेल’ के नाम से जाना जाता है। इस जेल को
वास्तुकला के एक उत्कृष्ट नमूने के रूप में भी देखा जा सकता है, जिसे बनाने के
लिए अबरदीन समुद्र तल से लगभग सत्तर फीट ऊँचाई वाली किनारे की जगह को चुना गया
था। कारण यह कि यहाँ से मिट्टी को निकालने और भरने की कम से कम जरूरत थी और
दूसरा कि यह जगह उस किनारे पर थी, जहाँ से रास द्वीप सीधे दिखाई देता है। 696
कोठरियों वाली यह जेल सात बड़े स्कंधों के रूप में बनाई गई थी, जो एक सिरे पर
सबसे अलग और दूर होती जाती थीं और दूसरे सिरे पर एक केंद्रीय मीनार से जुड़ती
थी। इस केंद्रीय मीनार के उपरी हिस्से से एक व्यक्ति द्वारा भी इसकी निगरानी
की जा सकती थी। तीन मंजिला बनी इस जेल की सभी 696 कोठरियाँ एक दूसरे से पृथक
थीं। इनका आकार 13.5 गुणा 7.5 फीट का था, जिनमें पीछे की तरफ केवल एक रोशनदान
खुलता था। प्रत्येक स्कंध में एक बड़ा गलियारा इन कोठरियों को एक-दूसरे के साथ
जोड़ता था। लेकिन इस तरह कि कोई भी कैदी यहाँ एक-दूसरे को देख नहीं सके। मतलब
हर ‘सेल’ यहाँ पृथक रूप से स्वतंत्र थी और कहें तो किसी भी आदमी को तोड़ देने
के लिए काफी।
काला-पानी का मतलब होता है मृत्यु का जल। काला मतलब ‘काल’ और पानी मतलब ‘जल’।
एक ऐसी सजा, जिसमें आपके जीवन की हर उम्मीद टूट जाए, उसे जीने की हर संभावना
छूट जाए। यदि आप विवेकशील हैं और अपने मन को थोड़ा भी इतिहास में ले जा सकने की
क्षमता रखते हैं तो आपका दिल यहाँ आकर जरूर रोता है। इन बर्बरताओं के बीच भी
देश के लिए, समाज के लिए और अपनी पीढ़ियों के भविष्य के लिए संघर्ष जारी रखने
वाले लोग आखिर किस मिट्टी के बने होंगे...? नहीं-नहीं... ऐसे समझना मुश्किल
है। आप एक बार यहाँ जरूर आइए। इन काल-कोठरियों में अपने को दस मिनट बंद कीजिए।
और महसूस कीजिए कि उन्हें कैसा लगता होगा, जिनके जीवन में यहाँ से निकलने की
दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं बचती होगी। यहाँ हर एक बंदी को दिन भर में 30 पौंड
नारियल का तेल या फिर 10 पौंड सरसों का तेल निकालना होता था। एक सामान्य आदमी
के लिए यह लगभग असंभव था। और फिर पूरा नहीं होने पर ‘दंड’ के अनगिनत रास्तों
से होकर गुजरना होता था। इस जेल में ऐसी तिरष्कृत कोठरियाँ भी थीं, जो
सीधे-सीधे फाँसी घर का दर्शन कराती रहती थीं।
प्रत्येक शाम इस जेल के भीतर ‘लाइट एंड साउंड शो’ का कार्यक्रम होता है। लगभग
एक घंटे के इस कार्यक्रम में ओम पुरी, मनोहर सिंह और टाम आल्टर जैसे
चिर-परिचित कलाकारों की आवाज में यह जेल अपनी दास्तान बाँचती है। दास्तान उस
क्रूर आयरिश जेलर ‘डेविड बेरी’ को भी याद करती है, जो कहता था कि दुनिया में
तो सिर्फ एक ईश्वर है, लेकिन अंडमान में दो ईश्वर हैं। एक ऊपरवाला और दूसरा
मैं। इस दास्तान में क्रूरताओं की अनेक कहानियाँ दर्ज हैं। सजा देने के लिए
बीच की खुली जगह चुनी जाती थी, जो उस पूरे स्कंध के कैदियों को दिखाई दे। डर
और आतंक को गहरे बैठा देने के लिए यह तरीका भी इतिहास में आजमाया गया नुस्खा
था। इसमें कई लोगों ने आत्महत्याएँ कर लीं, कई फाँसी पर चढ़ा दिए गए, कई पागल
और विक्षिप्त हो गए। लेकिन इन्हीं क्रूरताओं के मध्य क्रांतिकारियों के संघर्ष
और प्रतिरोध की चमकती दास्तानें भी दर्ज हैं। ऐसी दास्तानें, जिनमें अनगिनत
जुल्मों को सहते हुए भी उम्मीद और संघर्ष का दामन थामे रहने जज्बा हमेशा बना
रहा।
मुख्यभूमि पर जहाँ-जहाँ से विद्रोह की आवाज तेज होती रही, ‘सेल्युलर जेल’ की
कोठरियाँ उस जगह के क्रांतिकारियों से भरती रही। इस भरने में व्यक्तिगत अपराध
में संलग्न कैदियों की संख्या भी काफी थी। व्यवस्था चाहती थी कि यहाँ आने वाले
बंदियों के मन में ब्रिटिश शासन के प्रति समर्पण और निष्ठा का भाव उत्पन्न हो
जाए। इसलिए आरंभ में कैदियों को छह महीने तक तनहाई वाली कोठरी में रखा जाता
था। और फिर तमाम चरणों में दी जाने वाली प्रताड़ना के बाद, जब वे मानसिक रूप से
टूट जाते थे, तब उन्हें धीरे-धीरे सामान्य कैदी की सुविधाएँ मिलने लगती थीं।
जो कैदी मानसिक रूप से नहीं टूटते थे, वे शारीरिक रूप से टूट जाते थे और
मृत्यु को प्राप्त होते थे। और जो कैदी मानसिक रूप से टूट जाते थे, उन्हें कई
चरणों में अपने समर्पण और निष्ठा को प्रमाणित करने के बाद एक स्वावलंबी कैदी
का दर्जा मिलता था, जिसके अंत में वे ‘टिकट आफ लीव’ के हकदार हो जाते थे।
हालाँकि बाद में औपनिवेशिक व्यवस्था यह चाहने लगी कि ये कैदी सजा पूरी करने के
बाद भी अंडमान में ही रहने लगें। आरंभ में संयुक्त प्रांत, मध्य प्रदेश और
महाराष्ट्र से कैदियों को यहाँ लाया गया, लेकिन जैसे-जैसे देश के अन्य हिस्सों
में स्वतंत्रता आंदोलन फैलता गया, इन कोठरियों का भूगोल भी फैलता गया। बहाबी
आंदोलनकारी, कूका आंदोलनकारी, मोपला और रंपा विद्रोही तो यहाँ आए ही, गदर
आंदोलनकारी, मानिकतला षड्यंत्र केस, खुलना षड्यंत्र केस और ढाका षड्यंत्र केस
के आरोपी भी यहाँ आए।
जेल बंदियों की आत्मकथाएँ उन नृशंसताओं को बाँचती हैं, जिन्हें आज के कथित
‘सभ्य लोगों’ ने रसीद किया था। ‘बारिंद्र नाथ घोष’ की आत्मकथा कहती है कि
नहाने के बाद कैदियों को बदलने के लिए कोई कपड़ा उपलब्ध नहीं होता था। उन्हें
नंगे होकर ही कपड़ा बदलना होता था, या फिर स्नान नहीं करने के विकल्प को चुनने
का। ‘शचींद्रनाथ सान्याल’ ने लिखा है कि एक बंदी उल्हास्कर को तीन दिन तक खड़ी
हथकड़ी में बाँधकर रखा गया, जिससे कि वे पागल हो गए। ‘सावरकर’ ने लिखा है कि
राजनीतिक बंदियों ने ऐसी ढेर सारी हड़तालें की, जिसमें उनके साथ मुख्यभूमि के
कैदियों जैसा व्यवहार करने की माँग की गई थी। ‘पृथ्वी सिंह आजाद’ ने भान सिंह
और रामरखा बाली की शहादत को याद करते हुए जेल के जीवन पर बहुत कुछ प्रकाश डाला
है। आज इस जेल की तीन ‘स्कंधें’ ही खड़ी हैं। बाकी चार ढहा दी गई हैं। दो को
जापानी सेना ने बंकर बनाने के लिए गिरा दिया था और दो को बाद में गिराकर सरकार
ने उनकी जमीन पर अंडमान का केंद्रीय अस्पताल बना दिया।
जेल के भीतर और बाहर अनगिनत संघर्षों, स्वतंत्रता आंदोलन की बढ़ती हलचलों और
दुनिया के स्तर पर हो रहे बदलावों का परिणाम यह हुआ कि 1937 के आस-पास अंडमान
में राजनैतिक बंदियों का आना रुक गया। जो पहले से बंदी थे, उन्हें मुख्यभूमि
की जेलों में स्थानांतरित कर दिया गया। इसे आप औपनिवेशिक ताकतों के भीतर आ रहे
हृदय परिवर्तन के रूप में देखने की गलती न करें, वरन संपूर्ण स्वतंत्रता
आंदोलन के आधार पर ही समझने का प्रयास करें कि ऐसा परिवर्तन क्यों हो रहा था।
दरअसल पूरे देश में इस तरह की परिस्थिति निर्मित होने लगी थी कि देर-सबेर
अँग्रेज यहाँ से चले जाएँगे। और कई संकेत तो अँग्रेजी हुकूमत के भीतर से आते
हुए भी दिखाई देने लगे थे। इन्हीं परिस्थितियों में विश्व-युद्ध आरंभ हुआ था
और अँग्रेजी हुकूमत के लिए भारत का सहयोग लेना बेहद महत्वपूर्ण और आवश्यक हो
गया था।
द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान एक समय ऐसा भी आया, जब मित्र राष्ट्रों की
स्थिति बेहद खराब हो गई। न सिर्फ यूरोप में उनके पाँव उखड़ने लगे, वरन
औपनिवेशिक इलाकों से भी उन्हें भागना पड़ा। जिनका सूरज कभी अस्त नहीं होता था
और जिनका दावा था कि ईश्वर ने उन्हें उपनिवेशों में इसलिए भेजा है कि वे वहाँ
की जनता को सभ्य बना सकें, जब दबाव पड़ा तो भाग खड़े हुए। लगभग पूरा यूरोप
जर्मनी के साए में आ गया और पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्से पर जापानियों का
दबदबा दिखाई देने लगा। भारत की मुख्यभूमि तो जापान के नियंत्रण में नही आई,
लेकिन उनकी धमक बर्मा तक स्पष्टतया सुनाई देने लगी थी। ऐसे में अँग्रेजों को
यह आभास होने लगा कि वे अंडमान में घिर जाएँगे। वे इस ‘द्वीप-समूह’ को छोड़कर
भाग खड़े हुए। और इस तरह बिना किसी प्रतिरोध के, 23 मार्च 1942 को इस पर जापान
का कब्जा हो गया।
समझ में नहीं आता कि ‘इतिहास अपने आपको दोहराता है’ वाली कहावत ‘क्रूरताओं पर
क्यों लागू होती है? कहीं इसलिए तो नहीं कि आरंभिक यातनाओं के बाद इतिहास,
जीवन संघर्षों को पुनः देखना-परखना चाहता है...? या इसलिए कि ऐसा होने से पहली
वाली क्रूरताएँ भुलाई जा सकती हैं...? खैर... जब यह द्वीप-समूह जापानी
प्रभुत्व में आ गया, तो प्राथमिक रूप से लोगों के जीवन में सार्थक बदलाव हुआ।
लेकिन सुख की यह घड़ी विश्व-युद्ध में जापान की स्थिति अच्छी बनी रहने तक ही रह
चल सकी। जैसे-जैसे मित्र-राष्ट्रों का युद्ध पर नियंत्रण बढ़ने लगा और जर्मनी,
इटली, जापान का पराभव होने लगा, अंडमान के लोगों के ऊपर क्रूरताओं का पहाड़
टूटने लगा। अपनी हार से बौखलाए जापानी अधिकारी यहाँ की जनता पर अपना गुस्सा
उतारने लगे। इस द्वीप के इतिहास में यह दौर बेहद कठिन और भयानक माना जाता है।
जब 7 अक्टूबर 1945 को यहाँ पर जापानी प्रभुत्व का अंत हुआ, उस समय तक
सैकड़ों-हजारों लोगों को मौत के घाट उतारा जा चुका था।
यह बड़ा आश्चर्यजनक लगता है कि 1943 के अंत में यहाँ नेताजी सुभाषचंद्र बोस का
आगमन हुआ था, लेकिन उन्हें वहाँ की जमीनी परिस्थितियों की जानकारी नहीं हो
सकी। एक तरफ आम जनता मर रही थी और दूसरी तरफ वे आजादी के सपने दिखा रहे थे।
खैर... जापानी शासन का अंत होते ही, हमें सभ्य बनाने वाली औपनिवेशिक ताकतें
पुनः अपनी जिम्मेदारी सँभालने के लिए लौट आईं। उन्हें इस जिम्मेदारी से इतना
मोह रहता था कि देश की आजादी के समय भी वे अंडमान को अपने प्रभुत्व में रखने
की तमाम नाकाम कोशिशें करती रहीं। अत्यंत कठिनाईपूर्ण और मुश्किल हालत से
गुजरते हुए यह ‘द्वीप-समूह’ सन 1950 में भारत का अंग बन गया।
यहाँ कुछ सवाल पैदा होते हैं। मसलन क्या यदि अँग्रेज भारत नहीं आए होते तो भी
अंडमान भारत का ही हिस्सा होता? या फिर यदि अंडमान के संघर्ष में दूसरी
यूरोपीय शक्तियों ने विजय हासिल कर ली होती, तो क्या होता? और यदि अँग्रेजों
ने भारतीयों को ‘दंड देने’ के लिए इन द्वीपों का चुनाव नहीं किया होता, तो
क्या होता...? यदि भारतीय बंदियों की जगह वहाँ केवल बर्मी या दक्षिण पूर्व
एशियाई बंदी ही लाए गए होते, तो क्या स्वाभाविक रूप से ये द्वीप भारत में
शामिल हो पाते...? हालाँकि इतिहास ऐसे सवालों को काल्पनिक कहकर नजरअंदाज कर
देता है। लेकिन इस कल्पना के आधार पर एक निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि
अँग्रेजों द्वारा भारतीय बंदियों के लिए इन द्वीपों को चुनने के कारण ही इन
द्वीपों पर भारत का स्वाभाविक दावा बना। अन्यथा भौगोलिक दृष्टि के आधार पर
अंडमान को बर्मा और निकोबार को इंडोनेशिया के पास होना चाहिए था। मतलब उन
बंदियों की शहादत ही इन द्वीपों पर भारतीय अधिकार का स्वाभाविक आधार बनी। हम
लोग, जो आज यहाँ आकर इतराते हुए घूम रहे हैं तो सिर्फ इसलिए हमारे उन अनगिनत
पूर्वजों ने अपनी शहादत से हमें यह अवसर उपलब्ध कराया है।
अंडमान का पहला दिन अत्यंत यादगार गुजरता है। अब लगता है कि यदि परिस्थितियों
ने हमें यहाँ घूमने से वंचित भी किया तो भी हमने इस ‘तीर्थ-स्थल’ पर याद रखने
लायक बहुत कुछ देख सुन लिया है। हम वापस होटल लौटते हैं और सरकार के उन नियमों
को अत्यंत आभारपूर्वक याद करते हैं जिसने हमारा यहाँ आना संभव बनाया। अगली
सुबह हम कुछ ‘अँखफोर’ हो जाते हैं। लगता है कि यह दुनिया भी हमारी अपनी दुनिया
की तरह ही है। यहाँ भी हमारे ही तरह के लोग-बाग हैं, उनके आचार व्यवहार हैं,
नियम कानून हैं। और जो कुछ हमारे से अलग है, वह भी इतना अलग नहीं है कि हम उसे
पकड़ न सकें कि छिटककर व हमसे दूर चला जाए। देशाटन का एक लाभ यह भी है कि हमें
अपने अवचेतन को साफ करने का अवसर मिलता है। हम जिस दुनिया को देख रहे हैं, जिस
दुनिया की चाहरदीवारी में जी रहे हैं, उसके बाहर की दुनिया खासी अलग होगी और
हम उससे तादाम्य स्थापित नहीं कर पाएँगे, जैसी मन में पलने वाली अनेकानेक
भ्रांतियों को दूर करने का अवसर मिलता है। जब हम उस अनजानी दुनिया को अपनी
आँखों से देख लेते हैं, उसमें कुछ पल बिता लेते हैं, तो ऐसा लगता है कि सारे
मनुष्य लगभग एक ही तरह से बने हुए हैं। बतौर इंसान उसमें प्रेम, दया, क्षमा,
करुणा और बंधुत्व जैसी भावनाएँ ही मिलती हैं। उनका ‘सामूहिक विवेक’ रूसो की उस
‘सामान्य इच्छा’ से अलग नहीं हो सकता है जो सामान्यतया सही होता है, जो
सामान्यतया सबके हित में होता है। और यदि उसमें कोई विभाजन या अलगाव है भी, तो
वह बेहद कृत्रिम और बाह्य आरोपित है।
अंडमान में पूरे देश के बंदियों के आने और यहाँ आकर एक पूरा भारत बनाने के
कारण देश की लगभग सभी विविधताएँ महसूस की जा सकती हैं। चूँकि यहाँ आने के दो
बड़े केंद्र कोलकाता और चेन्नई रहे हैं और जो आज भी है, इसलिए स्वाभाविक रूप से
यहाँ की आबादी भी उन दो केंद्रों से अधिक प्रभावित दिखाई देती है। सबसे अधिक
संख्या यहाँ बंगाली भाषा-भाषी लोगों की है। लगभग 25 प्रतिशत। उसके बाद उत्तर
भारत से 18 प्रतिशत, तमिल 17 प्रतिशत, तेलुगु 12 प्रतिशत, मलयाली 8 प्रतिशत और
अंत में निकोबारी लोगों की संख्या आती है, जो यहाँ की कुल आबादी की लगभग 8
प्रतिशत है। इस द्वीप समूह की यह सबसे बड़ी जनजाति भी है। जहाँ तक धर्म का सवाल
है, तो इसमें हिंदुओं का प्रतिशत काफी आगे है और दूसरे नंबर पर ईसाई धर्म (21
प्रतिशत) को मानने वाले लोग निवास करते हैं।
अगली सुबह हमें थोड़ी और ठीक से ठोक-पीटकर तैयार कर देती है। ऐसा लगता है कि
अंडमान ने हमें स्वीकार कर लिया है। या कहें तो हमने अंडमान से नाता जोड़ लिया
है। सेल्युलर जेल के पास ही राजीव गांधी वाटर पार्क है और सामान्यतया लोग बाग
यहीं से अंडमान को घूमने के लिए अपने दूसरे दिन की शुरुआत करते हैं। हम लोग भी
‘तीन द्वीपों’ की सैर के लिए अपना हाँका जोड़ लेते हैं। थोड़ी देर में ‘स्टीमर’
हमें ‘रास द्वीप’ पहुँचा देता है। यह द्वीप सेल्युलर जेल से अधिकतम एक-दो
किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यहीं से अँग्रेज अपना प्रशासन चलाते थे। आम जनता
से अलग, श्रेष्ठ और विशिष्ट होने के एहसास को अर्जित करने का एक यह भी तरीका
होता है। मतलब देखभाल भी होती रहे और अलग होने का श्रेष्ठताबोध भी अक्षुण रहे।
हमारे यहाँ ‘लुटियन जोन’ से देश को चलाने वालों ने इतिहास के ऐसे सबक खूब सीखे
हैं। लगभग सात-आठ दशकों तक शासन-स्थली के रूप में गुलजार रहे इस ‘रास-द्वीप’
को आज प्राकृतिक आपदाओं ने लगभग नेस्तनाबूत कर दिया है। चीफ कमिश्नर का बँगला,
अस्पताल, क्लब, स्वीमिंग पूल, चर्च और कब्रिस्तान के खंडहर उस दौर की गवाही
देनें के लिए बस किसी तरह लड़खड़ाते हुए खड़े हैं।
यहाँ पर एक सवाल मन में यह पैदा होता है कि यदि यहाँ आने वाले बंदियों को
प्राकृतिक विभीषिकाओं ने हमेशा परेशान किया और वे इसकी चपेट में आकर मरते रहे,
तो उनके आकाओं का क्या हुआ होगा...? जवाब कोई सुखद संकेत नहीं उपलब्ध कराता।
बेशक कि वे शासक थे, बेशक कि उन्हें मानसिक और शारीरिक पीड़ा नहीं झेलनी पड़ती
थी। लेकिन थे तो वे भी आदमी ही। प्रकृति की परीक्षा में उन्हें भी बैठना होता
था। अकेलेपन का पेपर उन्हें भी देना होता था। यदि वे किसी को मारते-पीटते हुए
जी रहे थे, तो ऊपर से देखने में यह जरूर कठोर लगता है। लेकिन अंदर से टूट-फूट
तो उनके यहाँ भी चल रही होगी। अपने देश से इतनी दूर, अपने परिवार और
रिश्तेदारों से इतनी दूर आखिर वे किस चीज को पाने के लिए लड़ रहे थे। किस चीज
को बचाने और बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। बेशक उन्होंने पोर्ट ब्लेयर से
बाहर ‘रास द्वीप’ पर अपना आशियाना बसाया, लेकिन थे तो वे भी अंततः काले पानी
में ही। तमाम सुविधाओं और संसाधनों से दूर, एक आदिम जीवन को झेलते हुए।
तो क्या उनकी स्थिति उस ‘गुल्ली-डंडे’ के खेल की तरह ही नहीं थी, जिसमें हारने
वाला तो दौड़ता ही है, उसे हराने वाला भी उसके साथ-साथ यह देखने के लिए दौड़ता
है कि यह हमारे द्वारा दिए हुए दंड को पूरा कर रहा है या नहीं...? आप जरा इस
खेल से बाहर निकलकर सोचिए कि जो लोग दंड भोग रहे होते हैं, वे तो इस तथ्य से
परिचित भी होते हैं कि इस ‘दंड’ के कारण वे कष्ट पा रहे हैं। लेकिन जो लोग
उनके साथ-साथ ‘दंड देने’ के लिए भाग रहे होते हैं, वे तो जान भी नहीं पाते कि
अंततः वे भी एक तरह का दंड ही भोग रहे हैं। अंडमान में जाने वाले बंदी यदि उस
पीड़ा को उठा रहे थे, मर-खप रहे थे, तो उन पर शासन करने वाले अँग्रेज या जापानी
कारिंदों की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं थी। वे लोग भी प्रकृति के कोप के खूब
शिकार हुए। अकेलेपन और अवसाद के भँवर में खूब डूबे। अफसोस...! कि शासकों के
द्वारा अपने कारिंदों की ऐसी मानसिकता तैयार कर दी जाती है कि उन्हें न तो
अपने ऊपर होने वाले अन्याय का पता होता है और न ही अपने द्वारा किए जाने वाले
अन्याय पर कोई पछतावा। और यदि होता भी है तो उस प्रक्रिया से गुजर जाने के बाद
ही। उस अन्याय को कर जाने के बाद ही। तब, जबकि उनके पास उसे नहीं करने का कोई
विकल्प नहीं होता। कभी उन्हें प्रेरित करने के लिए धर्मादेश रास्ता दिखाते हैं
तो कभी जातीय और नस्ली श्रेष्ठता। भारत में जाति-प्रथा के अत्याचार इसके
ज्वलंत उदाहरण हैं, जिसे करने वाले यह तक समझ ही पाते कि वे कौन सा
अत्याचार-अनाचार कर रहे हैं। बेशक कि आधुनिक काल में इसमें एक बड़ा बदलाव आया
है। अब अत्याचार सहने वाले लोग कम से कम यह समझने लगे हैं कि उन पर अत्याचार
किया जा रहा है, और इसके खिलाफ उन्हें आवाज उठानी चाहिए। अब इसे सहन नहीं किया
जाना चाहिए। उस मानसिकता से अलग, जिसमें एक लंबे दौर तक वे भी यही मानते आए थे
कि वे अत्याचार सहने के लिए ही पैदा हुए हैं।
अंडमान की कहानियाँ इतनी त्रासदपूर्ण हैं कि वे बार-बार हमको अपने भीतर खींच
लेती हैं। राहत की बात यह है कि हर उठे हुए कदम के बाद, प्रकृति की नेमतों का
आकर्षण भी हमें अपने भीतर बुला लेता है। जैसे ही हम ‘रास द्वीप’ से निकलते हैं
और नार्थ बे (कोरल द्वीप) की तरफ पहुँचते हैं, सारा माहौल चहल-पहल और उत्सव का
हो जाता है। यहाँ पर समुद्री जीव-जंतुओं द्वारा बनाए गए घर, अर्थात ‘कोरल्स’
खूब पाए जाते हैं। हर कोई समुद्र में भीतर उतरकर उन्हें देखने की इच्छा रखता
है। इनमें से कुछ लोग डर रहे हैं तो कुछ लोग पैसे की चिंता में कतरा रहे हैं।
स्टीमर वाले इन दोनों ही तरह के लोगों के द्वंद्वों को जानते हैं। प्रतिदिन
इससे उनका पाला पड़ता है। पहले तो वे इसके हर तरह से सुरक्षित होने की बात
समझाते हैं, जिसे कुछ लोग उत्साह में समझ भी जाते हैं। और फिर जब इन नाविकों
को यह लगता है कि बात पैसे की भी है, तो वे उसकी काट में नाव पर बैठाकर ही
‘कोरल्स’ दिखाने का आफर पेश करते हैं। यह सस्ता भी है और सुविधाजनक भी। कहें
तो कामचलाऊ भी। अंतिम पड़ाव के रूप में हमे घुमाने के लिए स्टीमर उस दिन वाइपर
द्वीप भी जाता है। इसका महत्व अंडमान की उन त्रासद स्मृतियों से जुड़ता है,
जिसमें पोर्ट ब्लेयर में सेल्युलर जेल के बनने से पहले यहाँ पर एक कामचलाऊ जेल
और ‘फाँसी घर’ होने का जिक्र आता है।
दूसरे दिन की शाम हम अंडमान में कबड्डी खेलने लायक हो जाते हैं। उसके इतिहास
और भूगोल से परिचित होने के बाद, उसके जीवन को देखने समझने की हमारी आँखें और
अधिक खुल जाती हैं। ‘रास, कोरल और वाइपर’ द्वीपों ने पोर्ट ब्लेयर को तटस्थ
होकर देखने की नेमतें बख्श दी हैं। इस राजधानी वाले शहर में काफी बड़ी आबादी
रहती है। लेकिन बाहर से यह शहर भी पेड़-पौधों वाला एक बड़ा द्वीप ही लगता है,
जिसके आस-पास ऐसे ही कई और द्वीप भी उगे हुए हैं। कोई पचीस-पचास मीटर ऊँचाई
वाला तो कोई सौ-दो सौ मीटर की ऊँचाई लिए। इसके नजदीक में सबसे ऊँची चोटी
‘माउंट हेरिएट’ है जहाँ जाने के पानी की बड़ी जहाज लेनी पड़ती है। ऐसी जहाज, जिस
पर मोटरसाइकिल, जीप और कार के साथ-साथ बस भी चढ़ा ली जाती है। वहाँ की जेट्टी
पर ‘अंडमान’ के खान-पान को जानने वाली एक महत्वपूर्ण घटना घटती है। हम माउंट
हेरिएट के तट पर उतरते हैं और जब तक हमारी कार उस जहाज से उतर कर सड़क पर नहीं
आ जाती, सामने एक खाने-पीने की दुकान की तरफ हम लपकते हैं। वहाँ गरमागरम समोसे
निकल रहे हैं। सबकी जीभ उस समोसे के स्वाद को सोचकर लटपटाने लगती है।
दुकान वाला समोसे पर हाथ रखते हुए पूछता है कि “आलू वाला या अंडे वाला...?”
‘मान लीजिए... यदि उसने यह सवाल नहीं पूछा होता तो...?’ उस पूरे दिन यही जुमला
हमारे बीच उछलता रहता है।
‘माउंट हेरिएट’ की ऊँचाई समुद्र तल से 365 मीटर है। इसकी चोटी से पोर्ट ब्लेयर
और उसके आस-पास का दृश्य किसी भी अच्छी फिल्म की फोटोग्राफी को मात करता है।
प्रकृति यहाँ इतने रूपों में मेहरबान है कि एक पल के लिए भी उससे नजर नहीं
हटती। यहाँ से ‘नार्थ बे’ का जो दृश्य दिखाई देता है, उसी को भारतीय सरकार ने
बीस रुपये की नोट के पीछे चित्रित किया है। हम सबका हाथ बीस रुपये की नोट
तलाशने के लिए अपनी जेब की तरफ बढ़ता है। और जैसा कि आजकल अक्सर होता है, वह
खाली ही लौट आता है। हमारे गाइड का यह रोज का काम है। इस तथ्य को बताने का और
फिर नोट निकालकर उसे दिखाने का। जिस भी सलाहकार ने इस दृश्य को यहाँ अंकित
करने की सलाह दी होगी, वह बेहद कल्पनाशील और प्रकृतिप्रेमी रहा होगा। लेकिन
नोट पर छपे दृश्य को देखकर यह लगता है कि जिस भी चित्रकार ने इसे अपने कैमरे
में कैद किया होगा और जिस किसी ने उसे चयनित किया होगा, उन दोनों के पास न तो
कैमरा पकड़ने की तमीज रही होगी और न ही प्रकृति को समझने का कोई विजन। उस चोटी
से इतना खराब दृश्य कैसे लिया जा सकता है, अलबत्ता उन्हें इस बात के लिए जरूर
शाबासी मिलनी चाहिए।
हम अंडमान के पास वाले एक और नगीने ‘चिड़िया टापू’ की ओर बढ़ते हैं। दक्षिणी
अंडमान के इस सुदूर दक्षिणी हिस्से पर स्थित ‘चिड़िया टापू’ की पोर्ट ब्लेयर से
दूरी लगभग 25 किलोमीटर है। और जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यहाँ पर अंडमान में
पाई जाने वाली चिड़ियों की लगभग सभी प्रजातियाँ निवास करती हैं। मगर वे आपको
सर्वसुलभ तरीके से देखने को मिल जाएँ या आपके दो-चार घंटे के प्रवास के दौरान
सामने आकर अपनी चहचहाहट दिखाने के लिए राजी हो जाएँ, तो फिर वे चिड़िया कैसे
कहलाएँगी। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है, भारत सरकार ने आपको
‘एल.टी.सी.’ की सुविधा प्रदान की है और आप उन्हें देखने के लिए यहाँ पर हजारों
किलोमीटर दूर से चलकर आए हैं। जाहिर है, सड़क पर चलते हुए न तो उन्हें दिखाई
देना चाहिए और न ही वे दिखाई देती हैं। अलबत्ता सड़क के समानांतर जंगलों में
उनकी अपनी दुनिया है और वे उस दुनिया को गुलजार करने में लगी हुई जरूर सुनी जा
सकती हैं। वैसे ‘चिड़िया टापू’ के रास्ते में जंगलों के बीच से निकलती हुई सड़क
पर छाए अँधेरे को देखने के लिए भी आया जा सकता है। और सड़क के समानांतर चलने
वाले समुद्र के साथ चलने के लिए भी। इसका रास्ता इतना खूबसूरत है कि यदि आप
‘फेरारी’ में भी सफर कर रहे होंगे, तब भी यही चाहेंगे कि उसकी गति हमारे अपने
बलिया में चलने वाली ‘खजड़हिया ऑटो’ से अधिक न हो।
और बात जब रास्ते की खूबसूरती की आती है तो फिर पोर्ट ब्लेयर के ‘कार्बन केव
बीच’ की तरफ जाने वाले रास्ते को भी जरूर याद किया जाना चाहिए। समुद्र के
समानांतर लगभग दस बारह किलोमीटर तक चलते हुए आप यह भूल ही जाते हैं कि हम भारत
में ही हैं। प्रकृति के साथ व्यवस्था की समझदारी भी यहाँ खूब दिखाई देती है।
और फिर देखने के हिसाब से पोर्ट ब्लेयर में कई संग्रहालय और बीच भी हैं,
जिन्हें हर होटल वाला, हर गाइड आप से शेयर करता है। और ‘लार्ड मेयो’ की हत्या
की उस रोमांचक कहानी को भी, जो फरवरी 1872 में भारत के गर्वनर जनरल के रूप में
यहाँ आया था और जिसे ‘शेर खान’ नामक कैदी ने ‘माउंट हेरिएट’ से लौटते समय
‘चेथम द्वीप’ पर छुरा घोंपकर मार डाला था। कहने की जरूरत नहीं है कि ‘शेर खान’
को फाँसी दे दी गई थी।
‘पोर्ट ब्लेयर’ अब हमें कुछ-कुछ याद होने लगा है। यहाँ ‘गांधी चौक’ से एक
रास्ता जहाज घाट की ओर जाता है और दाहिनी ओर समकोण पर जाने वाला दूसरा रास्ता,
थोड़ी सी चढ़ाई के बाद पोर्ट ब्लेयर के मुख्य बाजार अबरदीन तिराहे की तरफ। इस
तिराहे से दो रास्ते और फूटते हैं। बाएँ जाने वाला सेल्युलर जेल की तरफ। और
उसके ठीक विपरीत में दाहिने जाने वाला रास्ता आगे चलकर इस केंद्रशासित प्रदेश
के सचिवालय और ‘राजभवन’ होते हुए हवाई अड्डे को निकल जाता है। राजभवन का एरिया
पोर्ट ब्लेयर की पहाड़ी का शीर्ष है, जहाँ से इस शहर का एक यादगार नजारा लिया
जा सकता है। इसी रास्ते में ‘अबरदीन’ तिराहे से लगभग 200 मीटर की दूरी पर
शाकाहारी लोगों का तीर्थस्थल ‘अन्नपूर्ण होटल’ भी है। मजे कि बात यह है कि
‘अन्नपूर्णा’ वाला भी इस बात से आश्वस्त है कि पोर्ट ब्लेयर में आने वाले
शाकाहारी भक्त यहाँ माथा टेकने जरूर आएँगे। तभी तो वह अपने फुल प्लेट में चावल
के इतने ही दाने ही परोसता है, जितने को खाने के दौरान गिना भी जा सके।
‘पोर्ट ब्लेयर’ के आस-पास तीन-चार दिन बिताने के बाद अब यहाँ से उत्तर-पूर्व
दिशा में स्थित दो द्वीपों ‘हैवलाक’ और ‘नील’ की तरफ रुख करने का समय आता है।
समुद्री जहाज यहाँ के लिए प्रतिदिन सुबह जाते हैं। इनका अग्रिम टिकट लेना पड़ता
है, जो तीन दिन पहले बुक किया जा सकता है। जाहिर है, हमारे शहर बलिया के
रेल-आरक्षण काउंटर की तरह यहाँ भी दलालों का दबदबा देखा जा सकता है। वे उसी
प्रकार की कृत्रिम भीड़ पैदा करते हैं, जैसे कि पाकेटमारों का समूह ट्रेन या बस
में चढ़ते समय पाकेट मारने के लिए किया करते हैं। बात यदि अश्लील न लगे तो यह
भी कि जैसे दक्षिणी भारत के मंदिरों में व्यस्थापकों द्वारा हर घंटे आरती और
भोग के नाम पर कृत्रिम भीड़ इकट्ठा करने का ड्रामा खेला जाता है। यात्रा के
अनुभव ने मेरी पत्नी रीना को भी अब यह सिखा दिया है कि किस परिस्थिति में
किनारे खड़े होकर आनंद लिया जाना चाहिए और किस परिस्थिति में कमर कसकर मैदान
सँभाल लेना चाहिए। उसके पराक्रम से पंद्रह मिनट के भीतर हम भी टिकट वाले हो
जाते हैं।
अगली सुबह हम ‘हैवलाक’ द्वीप के लिए निकलते हैं। लगभग सौ-डेढ़ सौ लोगों की
क्षमता वाले उस जहाज में आरंभिक दस मिनट, अपनी सीटों की छेंकाई और बिछाई में
बीतती है। लेकिन जैसे ही ग्यारहवाँ मिनट आता है, पूरी जनता जहाज के सिर पर
सवार हो जाती है। सारी सीटें जीवन की तरह ही अंततः खाली हो जाती हैं कि जिसे
भरने के लिए हम अभी तक बेचैन और आतुर रहते हैं। जहाज के डेक से यह दुनिया
बिलकुल स्वप्निल नजर आती है। दूर तक फैला हुआ नीला समुद्र और उस पर सूरज की
चमकती किरणें वह दृश्य पैदा करती हैं, जिसको व्यक्त करने के लिए भाषाओं ने अभी
तक ठीक-ठीक शब्द नहीं गढ़े। कि जैसे मैं सुंदर, बेहतरीन, अद्भुत या मोहक कह दूँ
और वह दृश्य आपके भीतर उतर जाए। लगभग दो घंटे डेक पर बिताने के बाद हैवलाक की
आहट मिलने लगती है। यहाँ की ‘जेट्टी’ पर उतरने के बाद ऐसा महसूस होता है कि
पोर्ट ब्लेयर में चार दिन बिताने के बाद भी मछलियों की इस तीखी गंध से हम अभी
महरूम ही रहे हैं।
भारत की मुख्यभूमि से पोर्ट ब्लेयर पहुँचकर जैसे हम प्रकृति का घना साहचर्य
महसूस करते हैं, पोर्ट ब्लेयर से हैवलाक आने पर वही एहसास अपने को दुहराता है।
वैसे तो यह पूरा द्वीप ही खूबसूरत है, लेकिन इसके ‘राधानगर बीच’ की बात ही कुछ
और है। यह किनारा संपूर्ण एशिया में अपनी विशिष्टता के लिए जाना जाता है। भारत
के पूर्वी तट के बंजर किनारों से तो इसकी तुलना ही बेमानी है। हाँ... पश्चिमी
तट के किनारों को यदि एक साथ जोड़ दिया जाय, तो इससे मुकाबले लायक एक रेखा बनाई
जा सकती है। गोवा के तीनों महत्वपूर्ण किनारों - कलिंगुट, कोलावा और पालवोलिम
- और केरल के कोवलम किनारे को एक साथ मिलाने पर जो तस्वीर बनती है, उसमें
समुद्र का अपने भीतर तक प्रवेश करने देना, पृष्ठभूमि की निखरी खूबसूरती, लहरों
का सीधे उठना-गिरना और बालू का पैरों में कम लगना शामिल होता है। आप इस सबमें
‘सुपरलेटिव डिग्री’ को जोड़कर ‘पानी की सफाई’ और ‘किनारे के एकांत’ से मिला
दीजिए और फिर जो तस्वीर बनती है, उसे राधानगर का ‘किनारा’ समझिए। संभव है आप
उसके कुछ करीब पहुँच पाएँ। हम यहाँ एक दिन के लिए आते हैं और दो दिन रुक जाते
हैं। और तीसरे दिन जब यहाँ से नील द्वीप के लिए रवाना होते हैं तो जहाज के समय
को ध्यान में रखते हुए एक बार पुनः यहाँ डुबकी लगाने चले आते हैं।
जहाज नील द्वीप की तरफ बढ़ता है और हम एक विस्मय की तरफ। लगभग डेढ़ घंटे बाद इस
द्वीप की आहट मिलने लगती है। इस अत्यंत छोटे द्वीप को नजर की एक फ्रेम में भी
समेटा जा सकता है। यहाँ ‘ज्वार’ के समय स्नान करने का सुख उठाया जा सकता है और
‘भाटा’ के समय समुद्र के भीतरी घर को खुले आकाश के नीचे निहारने का। जिस
कोरल्स को देखने के लिए पोर्ट ब्लयेर के नजदीक इतनी गहमा-गहमी और अफरा-तफरी
मची रहती है, वह यहाँ पर ‘यत्र-तत्र-सर्वत्र’ बिखरा पड़ा है। मतलब इस द्वीप को
ज्वार-भाटा, कोरल्स और साफ नीले-हरे पानी को देखने के लिए जरूर आना चाहिए।
लेकिन ये दोनों द्वीप शाकाहारियों के लिए शामत भी लेकर आते हैं। यदि आपके पास
अफरात का समय हो और उसे बर्बाद करने का मन भी तो यहाँ पर ‘शाकाहारी भोजनालय’
ढूँढने निकल सकते हैं। अन्यथा नारियल पानी, ब्रेड और नमकीन से तो आप परिचित ही
हैं।
एक रात नील में गुजारने के बाद हम पोर्ट ब्लेयर वापस लौटते हैं। यह शहर
गहमा-गहमी से भरा हुआ शहर लगता है। प्रकृति से थोड़ा दूर और थोड़ा जबरदस्ती का
व्यस्थित। जाहिर है, अब हमारे पास नापने के लिए ‘हैवलाक और नील’ वाला पैमाना
जो आ गया है। अगले दिन हमें ‘बाराताँग’ के लिए निकलना है जो पोर्ट ब्लेयर से
105 किलोमीटर उत्तर की तरफ है। इसके रास्ते में लगभग 50 किलोमीटर के संरक्षित
क्षेत्र में ‘जारवा जानजाति’ निवास करती है। इस बात को लेकर हम उत्सुक हैं कि
इस यात्रा में पहली बार हम दक्षिणी अंडमान से बाहर निकल रहे हैं। सब जानते हैं
कि आज की यात्रा भले ही बाराताँग के नाम पर हो रही है, लेकिन असली मकसद तो
‘जारवा जनजाति’ वाले क्षेत्र से गुजरना है या कहें तो उन्हें देखना है। लगभग
एक घंटे की यात्रा के बाद हम उस चेक पोस्ट पर पहुँच जाते हैं, जहाँ से ‘जारवा
जनजाति’ के लिए सुरक्षित क्षेत्र आरंभ होता है।
चूँकि यह जनजातीय क्षेत्र आम जनता के लिए प्रतिबंधित है, इसलिये पर्यटन उद्योग
ने यहाँ जाने का रास्ता बाराताँग दिखाने के बहाने चुन लिया है। यहाँ का भूगोल
कुछ ऐसा है कि सड़क मार्ग से बाराताँग जाने के लिए आपको ‘जारवा क्षेत्र’ से
होकर ही गुजरना पड़ता है। इस जनजाति के बारे में सर्वविदित तथ्य यह है कि ये
लोग कपड़े नहीं पहनते। तो क्या इन सैकड़ों गाड़ियों की लगी हुई कतार में बैठे
हजारों लोग आज की यात्रा इसलिए कर रहे हैं कि उन्हें ‘नंगे’ लोगों को देखना है
? नहीं-नहीं... यह सवाल यदि आप इन लोगों से पूछ देंगे तो वे उसे गोल-गोल बनाकर
चबा जाएँगे और फिर हजम भी कर जाएँगे। जैसे कहने लगेंगे कि “हम तो साहेब...
यहाँ की संस्कृति को देखने आए हैं।’ जैसे कि ‘हम तो साहेब... इस रास्ते को
देखने के लिए आए हैं।’ जैसे कि ‘हम तो साहेब लाइमस्टोन गुफा और सुप्त
ज्वालामुखी को देखने आए हैं।’ और यह भी कि ‘हम तो साहेब इसलिए आए हैं कि सभी
लोग यहाँ आ रहे थे।” ...अच्छा है। जैसे कि टूर आपरेटर हमें बाराताँग दिखाने के
लिए लाए हैं और सरकार भी इसीलिए हमें यहाँ आने की इजाजत दे रही है कि हम
बाराताँग को देख सकें। तो ऐसे में पर्यटकों का इतना ‘हिपोक्रेट’ होना तो चल ही
सकता है। क्यों...?
जारवा जनजाति के उद्भव को नीग्रो जनजाति से जोड़कर देखा जाता है। सभ्यता के
विकास से कोसों दूर, अपने में रहने वाली यह जनजाति आज अपने अस्तित्व की लड़ाई
लड़ रही है। सैकड़ों-हजारों साल तक प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाने के बाद आज
उनकी जनसंख्या 250 के आस-पास सिमट कर रह गई है। यह तथ्य कितना सालने वाला है
कि ‘बाराताँग’ का पर्यटन उनके ‘नंगे रहने’ को दिखाने के नाम पर चल रहा है।
उनके बारे में उपलब्ध जानकारियों को किताबों के हवाले या फिर संग्रहालयों के
भरोसे छोड़ दिया गया है। तो क्या यह इतना कठिन काम है कि इनकी विशिष्टताओं को
आम पर्यटकों के साथ शेयर नहीं किया जा सकता है...? वहाँ जाने वाले सभी
पर्यटकों को दो पन्ने की एक छोटी सी बुकलेट के सहारे ये सूचनाएँ तो उपलब्ध
कराई ही जा सकती हैं कि सभ्यता से दूर उनका जीवन किस तरह से चलता है। मसलन
उनकी रोटी, जो आज भी प्रकृति के साथ ही चलती है। बीच में सरकार ने उसमें कुछ
हस्तक्षेप किया था और उनके खाने-पीने के लिए कुछ बाहर की चीजें मुहैया कराई थी
तो कैसे हालात बिगड़ गए। पता चला कि उनमें मृत्यु दर अचानक बढ़ गई। इस बाहर के
खाने ने उनकी प्रतिरोधी क्षमता घटा दी और वे सामान्य बीमारियों में भी मरने
लगे। कपड़े वाली जरूरत भी उनकी प्रकृति ही पूरा करती है। मन किया तो पेड़ की छाल
और पत्तियाँ लपेट ली और मन नहीं किया तो वह भी नहीं। अलबत्ता आवास को लेकर हाल
के दिनों में कुछ अवश्य परिवर्तन आया है। सरकार ने घने जंगलों के बीच उनके लिए
कुछ ‘सेल्टर’ बना दिए हैं, जिसमें वे रहने लगे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य की
बुनियादी जरूरतों से अभी भी वे कोसों दूर हैं। सिवाय इस बात के, कि इधर के
वर्षों में जब उनका कोई साथी गंभीर रूप से बीमार पड़ता है तो वे उसे सड़क के
किनारे लिटा जाते हैं, ताकि सरकार उनकी मदद कर सके।
ढेर सारे कौतुहल को लिए हमारा कारवाँ उस ‘संरक्षित क्षेत्र’ में प्रवेश करता
है। आगे-आगे वहाँ की स्थानीय पुलिस की गाड़ी है और पीछे-पीछे सैकड़ों गाड़ियों का
लंबा काफिला। ‘जारवा लोग’ भी काफिले के लिए नियत समय को पहचानते हैं। उनके कुछ
सदस्य, जिनमें अधिकतर छोटे-छोटे बच्चे होते हैं, किनारे आकर खड़े रहते हैं। वे
बिलकुल नंग-धड़ंग होते हैं। यदा-कदा युवक युवतियाँ भी उसी साहकार में दिखाई दे
देती हैं। किसी भी प्रकार की खाद्य सामग्री उन्हें देने की मनाही है। और फोटो
लेना तो सख्त रूप से प्रतिबंधित। बावजूद इसके, यहाँ जाने वाली गाड़ियों के भीतर
से चमकते कैमरों को प्रतिदिन देखा जा सकता है। अधिकतर पुरुष उचक रहे होते हैं
और अधिकतर महिलाएँ मुँह फेर शर्मिंदा। और फिर वर्ष 2011 में वह वीडिओ भी वाइरल
हो ही गया था, जिसमें उन्हें खाद्य पदार्थ देने के एवज में नाचने के लिए बाध्य
करते हुए दिखाया गया था। हंगामा संसद तक पहुँचा था और कुछ दिनों के लिए
बाराताँग की यात्रा स्थगित भी रही थी। लेकिन जैसा कि भारत में होता रहा है,
बाद में पर्यटन लाबी ने दबाव डालकर उसके भीतर से रास्ता खोज लिया। और वह
रास्ता अब ‘बाराताँग’ दिखाने के नाम पर चल रहा है। पहली बार जब हम 2010 में
यहाँ पहुँचे थे, तो उनकी बड़ी संख्या सड़कों के किनारे दिखाई दी थी। लेकिन
पिछले साल की यात्रा का अनुभव कहता है कि अब उन लोगों का सड़कों के किनारे आना
कम हो गया है। और जहाँ कहीं वे दिखाई भी देते हैं तो उनके साथ वहाँ की स्थानीय
पुलिस होती है।
हालाँकि बाराताँग पहुँचकर लगता है कि ‘मैंग्रूव’ के जंगलों के बीच से स्पीड
बोट पर यात्रा करना भी कोई कम रोमांचकारी अनुभव नहीं है। फिर उस सुप्त
ज्वालामुखी को देखना भी, जिसमें अभी भी हलके-हलके बुलबुले फूट रहे हैं। और जब
हम ‘लाइमस्टोन गुफा’ को देखकर लौटते हैं, तो उस दुर्भाग्य को कोसने की इच्छा
होती है जिसमें यहाँ के पर्यटन उद्योग ने इस पूरे दिन के भ्रमण को ‘जारवा
जनजाति’ के कपड़ों से जोड़ दिया है। वैसे अंडमान की यात्रा उन तमाम जनजातियों की
बात के बिना अधूरी ही मानी जाएगी, जिनका यह आदिम घर रहा है और जो आज विलुप्त
होती जा रही हैं। ‘ओंगी’ से लेकर ‘सेंटेनली’ तक और ‘ग्रेट अंडमानी’ से लेकर
‘सोम्पेन’ जैसी जनजातियों तक। ले देकर यहाँ पर निकोबारी जनजाति ही बची है,
जिसकी उपस्थिति महसूस की जा सकती है। इनकी आबादी लगभग तीस हजार के आस-पास है
और यहाँ पर जनजातियों के अधिकारों के लिए चलाए जाने वाले आंदोलनों में इनकी
भूमिका को रेखांकित किया जा सकता है।
तो यह द्वीप-समूह समूह आखिर किसका है और आज इस पर कौन काबिज है, यह सवाल तो
खड़ा होता ही है। और इसी के साथ-साथ नत्थी होकर यह सवाल भी कि हम इसे परखने के
लिए इतिहास में कितना पीछे जाना चाहते हैं। यदि हम 1947 से 100 वर्ष और पीछे
देखने की कूबत रखते हैं तो फिर आज के अंडमान पर बाहरी लोगों का वर्चस्व ही
दिखाई देता है। वहाँ पर सदियों से रह रहे भूमिपुत्रों के हाथों से यह समूचा
‘द्वीप समूह’ निकल गया है। यदि अँग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने के
लिए इसे ‘दंड द्वीप’ के रूप में नहीं बसाया होता तो इस द्वीप समूह की कहानी
कुछ और ही होती। हालाँकि यह बात भी उतनी ही सच है कि देश और दुनिया इसी तरह से
बनती रहती है, विकसित होती रहती है। लोग एक जगह से उखड़ते हैं, और उनकी पीढ़ियाँ
दूसरी जगह से उग जाती हैं। जाहिर है, इतिहास को वापस तो नहीं लौटाया जा सकता
लेकिन उसे न्यायपूर्ण जरूर बनाया जा सकता है। आज हमारे सामने यह सबसे बड़ी
चुनौती है कि वहाँ के मूल बाशिंदों को मुख्यधारा के साथ कैसे जोड़ा जाए और कैसे
उन्हें अधिकार संपन्न बनाया जाए।
यह अंडमान से वापसी का समय है। इन दस दिनों में जितना देखा सुना है, जीवन की
तरह ही हिसाब लगाने पर लगता है कि उससे कई गुना अधिक छूट गया है। 572 दीपों
में से सात-आठ द्वीपों को देखने के हिसाब से तो बहुत कुछ। लेकिन यह सोचकर कि
यहाँ सिर्फ 34 द्वीपों पर ही जीवन है और उसमें से पाँच-सात को देखने का अवसर
मिल ही गया, थोड़ी तसल्ली होती है। मुख्यभूमि के हिसाब से सात सौ किलोमीटर का
बिखराव बहुत अधिक नहीं कहा जा सकता है, जिसमें कि यह पूरा अंडमान और निकोबार
द्वीप-समूह बसता है। लेकिन जहाँ हर एक-आध किलोमीटर के बाद समुद्र आपकी अगवानी
में खड़ा हो, वहाँ पर यह कोई छोटी दूरी भी नहीं है। दरअसल मुख्यभूमि पर होते
हुए हम उस भूगोल को समझ भी नहीं सकते हैं, जो इस ‘द्वीप समूह’ पर बिखरा हुआ
है। उसे समझने के लिए उसे देखना भी होगा। और बजाय इसके कि वहाँ जाकर हम अपने
अदेखे पर दुखी हों, इस बात की तसल्ली की जा सकती है कि यह ‘द्वीप-समूह’ भारत
का हिस्सा है और हम उस हिस्से के छोटे से ही सही, लेकिन भाग बन आए हैं, उसे
आँखों में बसा आ आए हैं। दो वर्ष के अंतराल में, दो बार अंडमान घूम आने के बाद
जीवन से इतना आशावादी तो हुआ ही जा सकता है कि अभी कई और बार इसे देखने का
अवसर मिलेगा। और यह भी कि तब हम शायद दक्षिणी अंडमान से बाहर निकलकर मध्य
अंडमान, उत्तरी अंडमान, लिटिल अंडमान और कार द्वीप होते हुए निकोबार द्वीप की
सैर भी कर पाएँगे।
वैसे भी... ‘उम्मीद एक जिंदा शब्द है।’ ...अलविदा अंडमान...।
(यात्रा वर्ष -
2010
और
2013
)