पहुँचने की कोई जल्दी मुझे नहीं थी लेकिन गाड़ी भागती जा रही थी। गर्मी भयानक
थी। हवा का खूब गर्म बगूला खिड़की से अंदर आता था और आँखों के रास्ते मेरे शरीर
में पहुँच जाता था। मेरा शरीर तप रहा था। मेरा सिर तप रहा था। प्यासे गले को
राहत पहुँचाने के लिए पानी पीता तो प्यास और भी बढ़ जाती थी। बोतल में रखा पानी
चाय की तरह गर्म हो गया था! गर्म पानी-पीने से शरीर की गर्मी भी बढ़ जाती थी।
गाड़ी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी और न ही गाड़ी पर कोई कोल्ड ड्रिंक्स
बेचने वाला आ रहा था। मैं खूब सारा ठंडा पीना चाहता था। करीब दो घंटे इस
बेचैनी में बिताने के बाद स्टेशन आया। मैं भागा-भागा गया, दुकानदार से बोला -
'एक लिमका, खूब ठंडा!' लिमका नहीं था। दुकानदार ने दिया - शिट्रा। खूब ठंडा भी
नहीं था फिर भी पी गया। थोड़ी-सी राहत मिली। ट्रेन पर बैठ गया। सिर में दर्द हो
रहा था। दर्द की वजह गर्मी तो थी ही, भूख भी थी। लेकिन मैं इस स्टेशन पर कुछ
खा नहीं सकता था। पिछली बार कुछ चटपटा खाने का मन होने पर मैंने यहाँ चाट खा
ली थी। खाते ही मिचली आने लगी थी। सिर घूमने लगा था। संयोग था कि घर पहुँचने
पर उल्टी हुई थी। रात-भर उल्टी हुई थी। एक-एक चीज बाहर आ गई थी। सिर में चक्कर
आज भी आने लगा था। उल्टी होने का डर भी बार-बार हो रहा था। बच गया। गाड़ी पहुँच
गई। ऑटो रिक्शा लेकर उसके घर आ गया।
'अरे! आ गए?' दरवाजा खोलते ही वह बोल पड़ी। उसने मुझे गले लगाया और दो बार चूम
लिया।
ड्राईंग रूम में कोई फिल्म चल रही थी। मैं नहाने चला गया। सिर पर खूब पानी
डाला। दर्द कम नहीं हो रहा था। दो बिस्किट खाकर डिस्प्रीन खा ली। लेमन स्क्वैश
पिया। सोने चला गया। उधर फिल्म चल रही थी, इधर नींद आ रही थी...!
दो घंटे सोने के बाद नींद खुली। मैं उठकर ड्राईंग रूम चला गया। उसके पास बैठ
गया। मैंने उसके कंधे पर सिर रख दिया। मेरी आँखें अब भी जल रही थीं। उसने पूछा
-
'कैसा है सिर दर्द?' मैंने कहा -
'थोड़ा ठीक है...।'
'कुछ खाओगे...?
'नहीं, ठंडा पीने का मन है।'...वह फिर से लेमन स्क्वैश ले आई। पीने के बाद मैं
उसी की गोद में सिर रखकर लेट गया। वह मेरे बाल सहलाने लगी। मैं टी.वी. स्क्रीन
की ओर देखने की कोशिश करता, तो मेरी आँखों में पानी भर आता। उसने पूछा -
'फिल्म देखनी है?' मैंने कहा -
'नहीं! आँखें दुखती हैं...।'
'तो जाओ, सो जाओ!' उसने मुझे ठोकते हुए कहा। चाहती तो वह मेरा भला करना ही थी
लेकिन मेरा बुरा हो गया। मैं उसके पास ही रहना चाह रहा था। इतने दिन बाद उससे
मिला था और इतने दिन बाद वह सचमुच मिली थी। ...मुझे उठना ही पड़ा। बेडरूम में
जाकर सोचने लगा -
'बाहर जाने से पहले क्या हो गया था इसे? और मुझे? क्यों हम एक-दूसरे के लिए
कोई नहीं रह गए थे? वह कौन-सी घटना, कौन-सा बिंदु था, जिसने हमें जुदा किया
था? ...उसके बारे में क्या सोचना? आज वह फिर से वही है। मैं भी वही हूँ।'
पौने छह बजे मैं बस स्टॉप पर था। जबकि मैंने सोच लिया था, वहाँ नहीं जाना है,
लेकिन आज उसी स्टॉप पर गया था, जहाँ से वहाँ जाने के लिए बस मिलती है...
आज सुबह से मैं तैयार था। चार बजे मुझे इंटरव्यू लेने जाना था। मन था इंटरव्यू
लेने से पहले कहीं चला भी जाऊँ। तैयार भी हो गया। यही दो मिनट पहले तैयार होता
तो निकल गया होता। वह आ गई थी। अप्रत्याशित था उसका आना। उसके आते ही मुझ पर
उदासी भी आ गई। निकलने का विचार त्यागना पड़ा और उसके साथ दो घंटे बिताने पड़े।
उसके साथ रेस्तराँ में खाना खाने गया तो खाना कुछ अधिक ही खराब लग रहा था।
एक-दो बार उसने पूछा भी - 'उदास लगते हो? मैंने कह दिया - थकावट लगती है काम
करते-करते।' उसने अधिक बोझ सिर पर न लेने को कहा और कई बार अपने घर आने को
कहा। जवाब नकारात्मक रहा। 'काहे को जाना?'
उसके साथ ही बस स्टॉप पर आया। मुझे अलग दिशा में जाना था - अलग जगह... अलग
बस... अलग बस स्टॉप! बस स्टॉप पर आधा घंटा अपने-आप से जूझना पड़ा। भूल ही नहीं
पा रहा था उस कड़वेपन का स्वाद! समझ में नहीं आ रहा था, इस मूड में क्या लूँगा
इंटरव्यू? अच्छा होता आज की डेट नहीं ली होती। मैं जानता ही कहाँ था - क्या
होने वाला था? ...मैं इस कोशिश में लग गया कि खुद को उस दुनिया से निकालकर इधर
कर लूँ - इधर उस कलाकार की दुनिया में, जिसका मैं इंटरव्यू लेने जा रहा था।
साढ़े तीन बजे बस आई। पता नहीं कैसे पच्चीस मिनट में ही वहाँ पहुँच गई, जहाँ से
पैदल चलना था। दस मिनट का सफर पाँच मिनट में तय करना था। भागना पड़ा बेतहाशा।
कभी-कभी लगता था, दौड़ पडूँ। सोचता था घड़ी की सुई रुक जाए और जब मैं कलाकार के
घर पहुँचूँ तभी चार बजें! ...घड़ी की सुई तो रुकी नहीं, मैंने चार बजे कलाकार
का कॉलबेल बजा दिया।
और पौने छह बजे मैं बस स्टॉप पर था - वहाँ जाने के लिए जहाँ न जाने का मैंने
निश्चय कर रखा था...!
बस में काफी लोग थे। मेरे लिए नहीं! अगले स्टॉप पर एक लड़की चढ़ी। उसे जगह मिल
गई। दूर से ही देखा, उसकी कनपट्टी पर पसीने की एक मोटी बूँद सरक आई है। मैं उस
बूँद को उसकी आँख के नीचे देखना चाहता था - जो मेरे लिए बही हो! अपने लिए बही
एक भी बूँद और आँख मुझे अच्छी लगती है। ...दो-तीन स्टॉप के बाद वह उतर गई।
पसीने की बूँद सूख गई थी - बस में आने वाली हवा के कारण! ...उसके उतरने पर मैं
उसी जगह बैठ गया। उसकी छुवन वहाँ थी। लेकिन वह...?
बस से उतरकर मैंने सड़क पार की। पार्क पार किया-छोटे-छोटे पत्थरों से भरा
पार्क! नेहरू रोड पर आया। मैं चाहता था गुजरने वाली हरेक बस, कार, ऑटो मुझ पर
से गुजर जाए। लेकिन मैं सड़क पार कर गया और तेज चलने लगा। उसके घर आने से पहले
मेरे पैर थक गए थे। उसकी सीढ़ियों की महक एक क्षण को जानी-पहचानी लगी थी, फिर
अजनबी लगने लगी।
मैंने घंटी दो बार बजाई जैसे पहले बजाता था। मुझे पता था, दरवाजा वही खोलेगी।
यह नहीं पता था मेरा माथा चूमेगी। मुझे लगा, यह पहले वाला स्पर्श नहीं है।
ड्राईंग रूम में हल्की हलचल हुई। सामान सरकाकर मेरे लिए जगह बना दी गई। उसने
मेरा हाल पूछा। मेड ने 'ठंडा या गरम?' यह जान कर कि उसने अभी ही चाय पी है,
मैंने अपने लिए कुछ बनाने से मना कर दिया। मैं एक बड़े कलाकार के हाथ की बनी
चाय पीकर आया था...।
वह मेरे बगल में बैठी थी। उसने पूछा - 'इंटरव्यू लिया!' मैंने 'हाँ' कह दिया।
टी.वी. पर फिल्म चल रही थी। वह फिल्म देखने लगी। उसके नाइट गॉन का रिबन मेरी
गोद में पड़ा था। वह मुझे छू भी रहा है, यह मैं महसूस नहीं कर पा रहा था। देखकर
ही जान पाया।
ब्रेक में वह कमरे से बाहर हो गई। मैं गड़ा रहा। वह अंदर आई और मुझसे पूछा -
'रात रुकोगे न?' मुझे अजीब लगा। महीनों हुए यहाँ रात रुके - यदि उस रात को
निकाल दें, जिस रात मैं बाहर से आया था। फिर रुकना कैसा? संक्षिप्त उत्तर दे
दिया -'नहीं!' वह चली गई।
मैंने उन पन्नों को निकाला, जिन पर इंटरव्यू के समय नोट्स लिए थे। मेरी
कनपट्टियों में दर्द हो रहा था। उन्हें दबाए पन्नों पर नजर मार रहा था। वह आई।
पूछा - 'दर्द हो रहा है? ...दवाई ले लो!' मैंने मना कर दिया। मुझे दर्द के साथ
जीने की आदत डालनी है। दवा से मारना नहीं है - एक रोज का दर्द थोड़ी है...?
मैं पढ़ रहा था बहुत तेजी से लिखे गए शब्दों को - 'कई बार हम खुद को नहीं समझ
पाते। हम क्या चाहते हैं, क्या नहीं? हमने क्या खोया है, क्या पाया है? हम
कहाँ होना चाहते हैं, कहाँ नहीं? ...वही हाल रंगों का है, रेखाओं का है। हम
क्या बनाना चाहते हैं और हमसे क्या बन जाता है?'
फिल्म खत्म हुई और डिनर की तैयारी शुरू। उसने पूछा - 'रोटी लोगे?' मैंने कोई
जवाब नहीं दिया। मेड से पूछा - 'मेरे लिए क्या बनाया है? मेड ने कहा - 'चावल!'
मेरा मन खिजा गया। मुझे हरेक चीज में नमक अधिक लगने लगा। मैंने मेड से दही
माँग लिया। दही मिलाए बगैर निगलना मुश्किल था। खाने के बाद सोफे पर बैठना मुझे
मुश्किल लग रहा था। गद्दे चुभ रहे थे। मैं उठा। घड़ी बाँधी। कमरे से निकलने
लगा। वह बोली - 'रात रुक जाओ!' मैं निकल गया।
सड़क मुझे बेमानी लग रही थी। मेरा उस पर चलना उससे अधिक बेमानी था और मेरा होना
उससे भी अधिक...!
कई बसें मैंने छोड़ीं। लोग चढ़ जाते थे मुझे छोड़कर! मैं चाहता था अंतिम बस पकडूँ
या उसे भी छोड़ दूँ और पैदल चलूँ। लेकिन मुझे नहाने का मन था - नंगे नहाने का।
मैं बस पर चढ़ गया। पता नहीं वह अंतिम थी या नहीं, क्योंकि अंतिम की पहचान मुझे
नहीं है। हर अंतिम आरंभिक लगने लगती थी...।
मैं चाहता था, बस बहुत तेज चले लेकिन हर चढ़ने वाले को चढ़ाते हुए। मैं देख रहा
था, बस बहुत जगह नहीं रोकी जाती थी।
रात के सवा बारह बजे मैं अपने बाथरूम में था। मग से पानी शरीर पर डालते हुए
कुछ भी नहीं सोच रहा था। बस महसूस कर रहा था उस शीतलता को, जो उस समय मेरे लिए
नितांत आवश्यक थी। मैं आधा घंटा नहाता रहा। बार-बार बाल्टी में मग डुबाना और
उसे शरीर पर डालना... अच्छा खेल लगा। हाथ भी दुखाया। दुख भी हुआ - किस
कबाड़खाने में रहता हूँ - बाथरूम में शॉवर तक नहीं...! लेकिन फिर भी नहाता रहा
- यह भूलकर कि लोग अभी सो रहे होंगे गहरी नींद में।
'बस, मैं नहीं जाना चाहता। 'क्यों' का कोई जवाब नहीं है मेरे पास। और अगर है
भी तो मेरे भीतर! तुम्हें कैसे दिखा दूँ?' उसकी सहेली मेरी अंतिम बात मान गई,
पहली नहीं। वह बोली -
'फॉर्मल रिलेशन तो रख सकते हो?' मैंने कहा -
'नहीं! कई बार कोशिश की, हो नहीं पाता।'
उसकी सहेली अभी-अभी वहाँ से आई थी। मैं कुछ पढ़ना चाह रहा था लेकिन वह अपनी बात
मनवाना चाह रही थी। उसे लगा कि मैं गलत कर रहा हूँ, मेरा व्यवहार ठीक नहीं है।
मुझे इसका कोई दुख नहीं हुआ। लेकिन जब उसने कहा कि वह शनिवार को यहाँ आ रही
है, तो मैंने इसका अनौचित्य जताया। उसकी सहेली मुझसे उलझ पड़ी - 'क्यों? मिलना
भी नहीं चाहते? आ रही है वह - तुम्हारी अपनी है।' वह यह नहीं समझती कि उसका
आना नितांत औपचारिक है? मैंने पूछा और उसके आने को लगातार बेतुका ठहराता रहा।
वह बोल पड़ी - 'ठीक है, मैं कह दूँगी, तुम उससे संबंध नहीं रखना चाहते।'
उसकी सहेली के लिए इतनी सहज बात कितनी असहज है - यह उसे कहाँ पता? उसे तो यह
भी नहीं पता कि संबंध रखने की चीज नहीं, होने की चीज है। रखना चाहें या नहीं,
संबंध होता है और उसे छोड़ा नहीं जा सकता।
शनिवार को मुझे उधर जाना था, मैंने सोचा - उसके घर चला जाऊँगा और उसकी मेड को
बता दूँगा - आज और कल के अपने व्यस्त कार्यक्रम के बारे में। मेरे पैर बढ़ रहे
थे, उधर...
दरवाजा खोलते ही मेड ने कहा - 'दीदी अभी नहीं आई हैं।'
मेरे लिए पानी लाकर मेड कहने लगी - 'दीदी आजकल बहुत दुखी रहती है। ...जिस रात
आप बिना खाए चले गए थे, उस रात दीदी ने ठीक से खाया नहीं था। ...आजकल उनका मूड
हमेशा चढ़ा ही रहता है... ऑफिस जाते समय ड्रेस ठीक करती हैं... आज ही प्रेस
करते समय साड़ी जल गई। मैं खाना बना रही थी, वह खुद प्रेस करने लगीं। ...आज तो
आपको कहीं नहीं जाना है न? ...चाय बना दूँ?'
मेरे लिए इन बातों का कोई अर्थ नहीं था। मैं वहाँ बैठा था बस...!
मैंने कहा कि 'अब मैं जाऊँगा।'
मेड बोली - 'थोड़ी देर रुक जाइए, वह आती होंगी।'
मैंने कहा, 'नहीं, मैं जाऊँगा।'
मेड मुझे चाय पीने के लिए कहने लगी। वह किचन चली भी गई लेकिन मैं नहीं रुका।
कमरे से निकल गया। गेट खोलकर बाहर आ गया।
एक बोझ लेकर बढ़ा जा रहा था। खुद को इसके लिए भी तैयार कर रहा था कि सामने से
वह आ जाए तो कैसे मिलूँगा? ...आजकल वह बड़ी अच्छी हो गई है, कोई सवाल नहीं
करती। मिल भी जाएगी तो कोई खतरा नहीं...!
वह नहीं मिली। मैं बढ़ गया - तेजी से, ताकि मेरे पैर उसके दफ्तर की ओर न मुड़
जाएँ...
मैं पैदल ही चलता रहा। चलते-चलते पार्क तक पहुँच गया। पार्क की सुंदर घास पर
पालथी मारकर बैठ गया। आस-पास की घास को सहलाते हुए मुझे अपने रूखड़ेपन का एहसास
हुआ। मेरा मन किया कि लौट जाऊँ और उसके साथ कुछ पल बिताकर ही आऊँ। लेकिन
नहीं... मैं वहाँ से चलकर बस स्टॉप पर आ गया। उस बस स्टॉप पर, जहाँ से बस मुझे
अपने घर ले जाने वाली थी।
सुबह अच्छी बारिश हुई थी। वातावरण की सारी गर्मी सोख ली गई थी। मौसम में हल्का
ठंडापन आ गया था। ऐसे मौसम में मुझे नींद अच्छी आती है। मैं सो रहा था। कमरे
के पंखे की हवा बाहर की ठंड से मिलकर खूब ठंडी हो गई थी। मैं सिकुड़ आया था।
कैलेंडर के फड़फड़ाने की आवाज लगातार आ रही थी।
खुले दरवाजे से उसकी सहेली अंदर आ गई थी। मैं उठकर बैठ गया था। उसने बताया कि
वह भी आई है। मैंने सोचा, वह सीधे मेरे पास आएगी, मेरी छाती से लग जाएगी।
...वह आई। उसने एक क्षण को मुझे देखा और कुर्सी पर बैठने चली गई।
उसके चहकने से आभास हुआ कि मेरा दोस्त आ गया है। मुझे राहत मिली। मेरा दोस्त
उसी के पास बैठ गया। उसकी सहेली भी उसके पास थी। तीनों बातें कर रहे थे। हँस
भी रहे थे। उसकी हँसी उस बीच गूँज-गूँज जाती थी। 'वह हँसना भूली नहीं है? मैं
तो समझ रहा था...!' मुझे उसकी हँसी न अच्छी लग रही थी, न बुरी। मैं सोच रहा था
- 'मैंने गलत समझा था खुद को। अपनी कीमत कुछ अधिक ही आँक ली थी मैंने। मैं
नहीं हँसूँगा तो कोई नहीं हँसेगा?'
मेरा दोस्त कुछ करने बाहर चला गया। उसकी सहेली भी निकल गई। बाकी बची वह और
मैं। कहीं यह साजिश तो नहीं मेरे विरुद्ध? मेरी छाती धक-धक करने लगी थी। पता
नहीं क्या पूछ लिया जाऊँ? ...लेकिन नहीं... कुछ नहीं हुआ। वह छत देखती रही,
मैं सिर झुकाए अपनी चादर पर छपे फूल पर उँगली घुमाता रहा।
चाय पीने का मन नहीं रह गया था जबकि नींद से जगने पर चाय मुझे चाहिए ही! अपने
दोस्त को स्टोव जलाने को बोलकर मैं बर्तन धोने चला गया। वह मदद को आई। मैंने
उसे नहीं धोने दिया। मेरे दोस्त ने चाय के लिए काफी दूध रख दिय था। वह बोल रही
थी, 'बहुत हो जाएगा दूध!' उसे अजीब भी लगा होगा - 'मैं इतने दूध की चाय कैसे
पीने लगा हूँ?' मुझे अजीब नहीं लगता अब कुछ भी।
चाय लेकर हम ऊपर छत पर आ गए। वह दीवार पर बैठ गई। मेरा दोस्त खड़ा था दीवार से
सटकर। उसकी सहेली और मैं खाट पर बैठे थे। मेरा दोस्त मजाक कर रहा था। बीच-बीच
में मुझे भी शामिल करना चाहता था। लेकिन मैं कुछ नहीं बोल रहा था। मैंने उसकी
सहेली से पूछा कि उसे और चीनी चाहिए क्या? ...मैं खाट से उठकर थोड़ी दूर जाकर
दीवार पर बैठ गया। सड़क पर चलने वाले लोगों को देखने लगा। किसिम-किसिम के लोग
थे! कुछ शाम की खरीदारी कर वापस लौटते, तो कुछ दूध का डब्बा लटकाए जाते! कुछ
यूँ ही इधर-उधर डोलते।
चाय खत्म कर सब नीचे आए। पार्क तक पैदल घूमने का सबका मन था। मेरा नहीं। फिर
भी साथ चला। उसकी सहेली मेरे साथ चल रही थी। मेरा दोस्त उसके साथ आगे-आगे चल
रहा था। मुझे चुपचाप चलते रहने का मन था लेकिन उसकी सहेली कुछ-कुछ पूछती जाती
थी, कहती जाती थी। उसकी सहेली ने कहा - 'कोई बात हो तो बताया करो। दुखी नहीं
रहो। मैं चुप रहा।' उसकी सहेली बोली - 'आज तो तुमने कुछ भी बात नहीं की?'
...कोई और भी यह बात सुन रहा है, यह मुझे अच्छा नहीं लगा। कोई इन मुद्दों पर
मुझसे बात करे, यह भी मुझे पसंद नहीं। फिर बात भी करूँ तो किससे? उसकी सहेली
से? कौन सहेली? किसकी सहेली? उसकी सहेली? ...कौन वह? ...मेरी...! कौन मैं?
...बहुत दूर का रिश्ता हो जाता है।
पार्क की घास पर पत्थर बिछा दिए गए थे। अच्छा नहीं लगा। कहाँ गई वह
मुलायम-नर्म घास? ...और यह मौसम गुलाबों के खिलने का नहीं है क्या? गुलाब है
भी तो दो-चार, सूखे से।
मुझे अच्छा लग रहा था कि थोड़ी ही देर में बस आ जाएगी और मैं अकेला रह जाऊँगा।
कुछ मिनट बहुत कठिन थे - बस की प्रतीक्षा के। बस आई। मैंने उसकी सहेली को चढ़ा
दिया। वह पीछे से चढ़ी। मेरा दोस्त भी चढ़ गया - पता नहीं, कहाँ जाने के लिए?
मैंने देखा, वह मुझे भी चढ़ जाने का इशारा कर रही है। मैं नीचे खड़ा रह गया। बस
जब थोड़ी दूर जाकर मुड़ गई, मैंने एक बार देखा, फिर चल पड़ा।
सड़क पर मैं अकेला था। धीरे-धीरे चलना मुझे अच्छा लग रहा था। इच्छा हो रही थी
एक बार फिर उसी रास्ते पर चलूँ जिस पर अभी-अभी चल कर आया था। लेकिन मैंने
दूसरा रास्ता ही लिया। कमरा आया। मेरा अकेलापन अब भी मेरे साथ था।
मेरा मन कर रहा था, चित्र बनाऊँ। पहली बार ऐसा हुआ था कि चित्र बनाने का मन
किया था। मैं कागज, कलम लेकर बैठ गया। कागज पर एक लंबी सी नाक बनाई। नाक से
निकलता पीपल का पेड़ बनाया। पेड़ पर चिड़िया। नीचे बैठा एक आदमी। चिड़िया की बीट
उस आदमी के ऊपर गिरती हुई। उसे देखकर हँस रहा बंदर! बंदर को लीलने को बढ़ रहा
एक अजगर! अजगर के डर से सहमी हुई चिड़िया! ...मुझे लगा, मैं अपनी ही कहानी का
इलस्ट्रेशन करने लगा हूँ। मैंने चित्र बनाना बंद कर दिया। कागज को टुकड़ों में
बाँटने लगा। बाँटता गया, बाँटता गया...!
मैं खाना खा चुका था। अब सोना ही बाकी था। और बाकी था वह समय, जो सोने से पहले
मुझे बिताना होता है। उस समय एक से एक असंगत चीजें सामने आती रहती हैं। रोज
कुछ न कुछ नया...।
उसकी गर्दन। उसके नीचे चंद्राकार फ्रॉक! फ्रॉक के ऊपर पीठ का बाकी हिस्सा। रंग
जैसा चमड़े का होता है लेकिन पॉलिश्ड! रीढ़ की हड्डी की गाँठें इस तरह झाँकती
हुईं कि उन्हें गिना जा सके। छोटा-सा तिल। उसकी उँगलियाँ। बढ़े और रँगे नाखून।
उसने अपना हाथ पीछे कर मध्यमा से ठीक तिल को छुआ था - मुझे ही बताने के लिए कि
'देखो, यह है, यहीं है!'...आज ही तो, पार्क में! क्या नाम है उस लड़की का?
सब कुछ वैसा ही चलता रहे जैसा हम चाहते हैं, अच्छा लगता है। इसकी विपरीत
स्थिति में निराशा होने लगती है, अंधकार दिखने लगता है। इस अंधकारमय स्थिति को
न आने देने के लिए जरूरी है कि हम अपनी अपेक्षाओं में कटौती कर दें। ...मैंने
कर दी कटौती। मुझे बहुत कम लोगों से अपेक्षा रह गई है। इन लोगों में कम-अज-कम
वह तो नहीं ही है। वह बुलाती है, मैं नहीं जाना चाहता हूँ। फिर चला भी जाता
हूँ और उसी तरह वापस आ जाता हूँ। यह सब एक यांत्रिक प्रक्रिया हो गई है।
इस प्रक्रिया में कितना पिसता हूँ - समय इसका लेखा-जोखा लेने का नहीं है। समय
है वहाँ फिर से जाने का। आज मुझे यह भी छूट नहीं कि मैं सोचूँ जाने या न जाने
के सवाल पर। आज उसका जन्म दिन है। मैं गया। जन्म-दिन की औपचारिकताओं के बाद
खाना खाया। खाने के बाद से ही छटपटाहट थी आने की। मैं निकल पड़ा। घर आकर देखा,
मेरा दोस्त आ गया था। चाभी रखने का गुप्त स्थान उसे मालूम था। ताला खोलकर वह
आराम फरमा रहा था। मुझे देखते ही उठ बैठा।
'कैसा रहा आज का दिन? 'उसने पूछा। बाकी दिनों की तरह ही। मैंने जवाब दिया।
'रात वहीं क्यों नहीं रुक गए? 'उसने पूछा।
'क्योंकि रात तुम्हारे साथ रहना था!' मैंने जवाब दिया।
मैंने पूछा - 'सुनो! हरिद्वार चलते हो?'
'संन्यास लेने?' उसने पूछा।
'जो समझ लो!'
'कब चलना है?'
'अभी!' मैंने दृढ़ता से कहा।
'पागल हो क्या?'
'जो समझ लो!'
'वहाँ जाकर करोगे क्या?'
'अपने-आप को ढूँढ़ूँगा!'
'तुम जाओ, जाकर ढूँढ़ो! मैं यहीं सोता हूँ। सुबह चला जाऊँगा।'
मैं निकल पड़ा। हैंड बैग में कुर्ता-पाजामा, तौलिया, ब्रश बगैरह लेकर। बारह बजे
की बस में बैठ गया। प्यास से कंठ सूख रहा था। बॉर्डर पर बस रुकी तो कोल्ड
ड्रिंक ले लिया। बस खुलने पर मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं बाहर झाँक रहा था।
पीछे बहुत कुछ छूटता जा रहा था। मैं सोचना नहीं चाह रहा था कि पीछे क्या छोड़कर
आया हूँ? मैं देखना चाह रहा था आगे आने वाली सड़क को, जो हरिद्वार को जाती है।
मैंने देखा, आकाश में चाँद अकेला था। गुमसुम था। उससे थोड़ी ही दूरी पर एक तारा
भी था - उसी तरह अकेला, उसी तरह गुमसुम! चाँद धीरे-धीरे उस तारे से दूर जा रहा
था...!
सुबह चार बजे मैं हरिद्वार पहुँचा। सार्वजनिक शौचालय जल में डुबकी लगाई,
मन-मस्तिष्क शीतल हो गया। निकलकर कपड़े बदले और चाय पीने चला गया। चाय वाले से
धर्मशाला का पता पूछा। धर्मशाला में कमरा लेकर सो गया। जब नींद खुली, दिल के
दो बज रहे थे। खाने का बिल्कुल मन नहीं था। बाहर निकलकर चाय ही पी ली और घाट
के पासक बैठकर गंगा-भक्तों को देखने लगा। वे स्नान कर रहे थे, पूजा-अर्चना कर
रहे थे। प्रसन्न मन बाहर आ रहे थे। मैं शाम तक वहीं बैठा रह गया। गंगा की भव्य
आरती देखकर ही उठा। गंगा की उस भव्य आरती और वहाँ उमड़े असंख्य लोगों के बीच
अपनी लघुता का एहसास बड़े जोरों से मुझे होने लगा... दिन भर का उपवास हो ही गया
था, मन में आया रात को भी न खाऊँ। देखूँ तो बिना खाए रहा जा सकता है या नहीं?
सिर्फ एक गिलास दूध पीकर रह गया। धर्मशाला में सोने चला गया। सोने की कोशिश की
लेकिन नींद नहीं आई। बाहर निकल गया। गंगा के एक एकांत घाट में जाकर लेट गया।
ठंडी हवा बह रही थी। वहाँ नींद आ गई। नींद लगते ही मैंने देखा कि 'गंगा का जल
बढ़ता आ रहा है - बढ़ता आ रहा है और मुझे लेकर लौट गया है। मैं बह रहा हूँ - बहा
चला जा रहा हूँ, उधर पुल पर खड़ी वह हँस रही है।' मेरी नींद खुल गई। मैंने पुल
की ओर नजर दौड़ाई। वह वहाँ नहीं थी। मैं फिर सो गया।
इस बार मेरी नींद साधु-संतों की चहल-पहल से टूटी। ब्रह्म मुहूर्त था। वे स्नान
करने आए थे एक बाबा स्नान के बाद ध्यान कर रहे थे मुझसे थोड़ी ही दूरी पर। मैं
उनकी ओर ही देख रहा था। उनका ध्यान टूटा। उन्होंने मुझे अपनी ओर देखते देखा।
उन्होंने आँखों से ही मुझसे प्रश्न किया। मैं उनके पास गया। उन्होंने मुझसे
पूछा - 'कहाँ से आए हो? क्यों आए हो? 'मैंने उन्हें बताया।
'मैं यहीं रहना चाहता हूँ। आपके आश्रम में रह सकता हूँ? 'मैंने उन्हें बताया
भी और पूछा भी।
उन्होंने कहा - 'चलो मेरे साथ। लेकिन पहले स्नान कर लो!'
मैंने स्नान किया और गीले वस्त्रों में ही उनके साथ चल पड़ा। कोई मील भर चलने
के बाद उनका आश्रम आया। हरा-भरा, पेड़ों, लताओं, फूलों से भरा। मुग्ध कर देने
वाला वातावरण! मुझे शांति का एहसास हुआ। बाबा ने गेरुए वस्त्र का एक टुकड़ा
मँगवाकर मुझे दिया। गीले वस्त्र उतारकर मैंने उसे पहन लिया। आगंतुकों के बैठने
के लिए बने चबूतरे पर मुझे बिठाकर बाबा अंदर चले गए। पूजा-पाठ निबटाकर बाहर
आए। मुझे फल खाने को दिया और पूछा - 'अब बताओ! तुम यहाँ क्यों रहना चाहते हो?'
'मानसिक शांति के लिए! 'मैंने जवाब दिया।
'तुम्हें यहाँ मानसिक शांति मिल ही जाएगी, यह तो जरूरी नहीं!' बाबा ने कहा।
मैं चुप रहा।
बाबा ने फिर पूछा - 'विवाह हो गया?'
'नहीं! करना नहीं चाहता।' मैंने जवाब दिया।
'फिर?'
'मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या चाहता हूँ?'
'तुम्हारे जीवन में कोई है? 'बाबा ने कहा।
'हाँ!'
'तो, उसके साथ रहो!'
'डर लगता है!'
'किस बात का?'
'मैं उसे खोना नहीं चाहता। साथ रहने से...!'
'इसीलिए उससे भागते रहते हो?'
'हाँ!'
'क्या उसके मन में भी वही डर है?'
'शायद! मैं उसे अभी तक ठीक से जान कहाँ पाया हूँ?'
'कोई किसी को नहीं जान पाता!' कहकर बाबा मौन हो गए। मेरा हाथ लेकर देखने लगे।
हथेली की रेखाएँ देखकर बोले - 'तुम्हारी रेखाएँ भी मेरे ही जैसी हैं। तुम्हें
संन्यास-मार्ग में आने में समय लगेगा। विवाह के बाद ही तुम इस मार्ग में आ
सकते हो। और अगर इस मार्ग में न आना चाहो तो विवाह मत करो!'
'तो मैं क्या करूँ?' मैंने पूछा।
'वापस लौट जाओ!' बाबा ने कहा।
'वापस लौटकर?'
'अपने हिस्से की पीड़ा को भोगो!'
मैंने बाबा को प्रणाम किया और वापस गंगा-तट पर लौट आया। वहाँ फिर से स्नान
किया और ऋषिकेश की बस पर बैठ गया। ऋषिकेश पहुँचकर मैं ऊपर पहाड़ पर चढ़ गया। मैं
इस सच को भी जान लेना चाहता था कि अपने घर-परिवार से दूर, अपने प्रेम और विवाह
से दूर जटा बढ़ाकर इस बीहड़ में रहना आसान है या नहीं?
ऊपर मैंने एक साफ-सुथरी जगह ढूँढ़ ली। पेड़ के नीचे की उस जगह पर मैं बैठ गया।
मैं आँखे मूँदकर ध्यान करने लगा। आँखें बंद करते ही मुझे वह पार्क नजर आया। उस
पार्क में घूमती उसकी पीठ नजर आई। उसके बढ़े और रंगे नाखून नजर आए। वह तिल नजर
आया। मेरा ध्यान टूट गया। मैं नीचे उतरने लगा। उतरकर उस बस पर बैठ गया, जो उस
शहर को जाती है, जहाँ वह तिल रहता है।
अपने घर पहुँचने में रात हो गई। जीने के नीचे मकान मालिक का हुक्का मेरी
प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने लात मारकर उसे गिरा दिया और जीना चढ़कर अपने कमरे
में आ गया। फिर बाथरूम जाकर खूब नहाया। भूख तो मैं भूल ही चुका था, नींद मुझे
याद थी। मैं सो गया। घनघोर नींद में मैंने देखा कि मैं हरिद्वार के उसी आश्रम
में हूँ। वह भी उसी आश्रम में आ गई है। साधु उसका हाथ देखने लगा है। उससे भी
वही सब बातें करने लगा है। जवाब भी वही सब दे रही है। हाथ देखते-देखते बाबा ने
उसका हाथ चूम लिया है। फिर उसे आलिंगन में ले लिया है। मैंने बाबा का कमंडल
उठा लिया है और उसी से उस बाबा की कपाल-क्रिया कर दी है।