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कविता

जिस दिन युद्ध आया

निकोला डेविस

अनुवाद - सविता पाठक


उस वक्त खिड़की के ताखे पर खिले थे फूल
और मेरे अप्पा ने छोटे भाई को लोरी की थपकी दे सुलाया था
मेरी अम्मा ने बनाया था मेरा नाश्ता, मेरी नक्कु पर प्यारी की थी
और साथ मेरे स्कूल तक आई थी
उस सुबह मैंने ज्वालामुखी के बारे में सीखा,
कैसे टैडपोल बन जाते हैं मेंढक मैंने वो गीत भी गाया
और बनाई अपनी पंखों वाली तस्वीर
फिर, दोपहर के खाने के तुरंत बाद,
जब मैं डाल्फिन के जैसे बादल के टुकड़े में खोया था तभी युद्ध आ गया
पहले तो लगा जैसे ओलों की पटपटाहट हो
फिर गड़गड़ाहट की आवाज...
फिर धुआँ और आग और शोर, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा
युद्ध खेल के मैदान को लाँघ कर
मेरे शिक्षक के चेहरे पर छा गया।
फिर उसने छत को नीचे ला पटका
और मेरे शहर को मलबे में बदल दिया।
ये सब मैं तुम्हें वैसे नहीं बता सकता जैसे तुम उस ब्लैकहोल को समझते हो
वो काला अंधा-भँवर मेरा घर था
सिर्फ यही कह सकता हूँ
युद्ध ने मुझसे सब कुछ छीन लिया
युद्ध ने मेरे सब लोग ले लिए
मैं चीथड़ों और खून में लथपथ बिल्कुल अकेला था
मैं भागने लगा बसों में, ट्रकों के पीछे लटकता;
खेतों, सड़कों और पहाड़ों को लाँघते
ठंड, कीचड़ और बारिश से उलझते
बैठा उन नावों में जिनमें रिस रहा था पानी और जो तकरीबन डूबने को थीं
उस किनारे तक भी गया जहाँ बच्चों के चेहरे बालू में धँसे थे।
मैं तब तलक भटकता रहा जब तक मेरे पैरों ने दौड़ने से नहीं कर दिया इनकार
मैं जा पहुँचा था कतारों में लगी झोंपड़ियों की दुनिया में
और वहाँ नसीब हुआ एक कोना और एक गंदा कंबल
और एक दरवाजा जो हवा में झूलता है
लेकिन युद्ध ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा
यह मेरी त्वचा में घुस चुका था,
मेरी आँखों के भीतर,
और मेरे सपनों से लेकर
उसने मेरे दिल का कब्जा कर लिया।
मैं भटकता रहा और भटकता रहा अपने भीतर से युद्ध खींच निकालने के लिए
ढ़ूँढ़ता रहा वो जगह जहाँ तक नहीं है इसकी पहुँच।
गलियों में भटकते मैंने समझा
युद्ध कुछ था ही ऐसा जिसने दरवाजों को बंद रहना सिखा दिया
युद्ध कुछ था ही ऐसा जिसने लोगों की मुस्कुराहट सोख ली
वे बदल चुके थे

...

मैं एक स्कूल में पहुँचा
मैंने खिड़की से झाँका
बच्चे ज्वालामुखी के बारे में कुछ सीख रहे थे
और चिड़िया का चित्र बनाते गीत गा रहे थे
मैं अंदर गया
मेरे पैर की आवाज गूँज उठी हॉल में
मैंने दरवाजे को ठेल के खोला और सबकी नजर मुझ पर आ पड़ी
लेकिन शिक्षिका नहीं मुस्कुराई।
बोली, तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है,
आप देखो, बैठने के लिए कोई भी कुर्सी नहीं है,
आपको कक्षा में नहीं मिल सकती जगह
और फिर मैं समझ गया कि युद्ध यहाँ भी आ पहुँचा है।
मैं लौट पड़ा
अपनी झोपड़ी में, कोने और कंबल में
लिपट गया
यूँ लगा कि युद्ध ने सारी दुनिया और उसके सारे लोगों को ले लिया।
तभी, दरवाजे पर एक दस्तक हुई
मुझे लगा हवा होगी
लेकिन वो एक बच्चे की आवाज थी
"मैं तुम्हारे लिए यह लाया हूँ, तो आप स्कूल आ सकते हैं।"
यह एक कुर्सी थी।
मेरे लिए एक कुर्सी जिस पर बैठकर मैं ज्वालामुखी, मेंढकों की दुनिया और गीत
सीख सकूँ
ताकि युद्ध को अपने दिल से खींच सकूँ
वह मुस्कुराई और बोली "मेरे दोस्त भी अपनी कुर्सियाँ लाए हैं, ताकि यहाँ के
सभी बच्चे स्कूल में आ सकें"
हर झोपड़ी में से एक बच्चा आया और हम एक साथ चले,
सड़क पर कुर्सियाँ एक लाईन में लगी थीं
हर कदम के साथ हम युद्ध पीछे ढकेल रहे थे।


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