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विमर्श

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
प्रथम खंड

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 4. मुसीबतो का सिंहावलोकन-1 नेटाल पीछे     आगे

नेटाल के गोरे मालिकों को सिर्फ गुलामों की जरूरत थी। ऐसे मजदूर उन्हें पुसा नहीं सकते थे, जो गिरमिटकी अवधि पूरी करने के बाद स्वतंत्र हो सकें और कुछ अंश में भी उनके साथ स्पर्धा कर सकें। ये गिरमिटिया मजदूर नेटाल इसलिए गए थे कि हिंदुस्तान में खेती के धंधे में या दूसरे किसी धंधे में वे सफल नहीं हो पाए थे। फिर भी वे ऐसे नहीं थे कि खेती की उन्हें कोई कल्पना ही न हो अथवा जमीन या खेती की कीमत न समझ सकें। उन्होंने देखा कि नेटाल में यदि वे सिर्फ साग-भाजी भी पैदा करें, तो काफी अच्छी कमाई कर सकते हैं; और यदि जमीन का एक छोटासा टुकड़ा भी ले लें, तब तो उससे और ज्यादा कमाई कर सकते हैं। इसलिए बहुत से गिरमिटिया इकरार से मुक्त होने के बाद नेटला में कोई न कोई छोटा-मोटा धंधा करने लगे। इससे सब मिलाकर तो नेटाल जैसे देश के निवासियों को लाभ ही हुआ। अनेक तरह की साग-भाजी पैदा होने लगी, जो योग्य किसानों के अभाव में पहले पैदा नहीं होती थी। जो साग-भाजी कहीं-कहीं थोड़ी मात्रा में पैदा होती थी वह अब बड़ी मात्रा में पैदा होने लगी। इससे साग-भाजी के भाव एकदम उतर गए। लेकिन यह बात धनी गोरों को अच्छी नहीं लगी। उन्हें लगा कि आज तक जिसे वे अपना एकाधिकार मानते थे, उसमें अब हिस्सा बँटाने वाले पैदा हो गए हैं। इस कारण से इन गरीब गिरमिट-मुक्त हिंदुस्तानियों के विरुद्ध एक आंदोलन नेटाल में शुरू हो गया। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि एक ओर तो गोरे लोग अधिकाधिक संख्या में मजदूरों की माँग करते थे, हिंदुस्तान से जितने भी गिरमिटिया आते थे वे सब नेटाल में खप जाते थे; और दूसरी ओर जो हिंदुस्तानी गिरमिट-मुक्त होते थे उन पर अनेक तरह के प्रतिबंध लगाने का आंदोलन चलाते थे। यही था हिंदुस्तानियों की होशियारी और जी-तोड़ मेहनत का बदला!

इस आंदोलन ने अनेक रूप ग्रहण किए थे। गोरों के एक वर्ग ने यह माँग की कि गिरमिट से मुक्त होने वाले मजदूरों को वापस हिंदुस्तान भेज देना चाहिए और इसलिए पुराने इकरारनामे को बदल कर नए इकरारनामे में नए आने वाले मजदूरों से यह शर्त लिखवानी चाहिए कि या तो गिरमिटकी अवधि पूरी हो जाने पर वे हिंदुस्तान लौट जाएँगे या फिर से गिरमिट में दाखिल हो जाएँगे। दूसरे वर्ग ने यह विचार प्रकट किया कि गिरमिट से मुक्त होने पर हिंदुस्तानी मजदूर अगर फिर से गिरमिट में दाखिल न होना चाहें, तो उनसे भारी वार्षिक मुंड-कर लिया जाए। इन दोनों वर्गों का उद्देश्य तो एक ही था : यह कि किसी भी युक्ति से गिरमिट-मुक्त वर्ग के लिए नेटाल में स्वतंत्रता से रहना सर्वथा असंभव कर दिया जाए। आंदोलनकारियों ने इतना होहल्ला मचाया कि अंत में नेटाल सरकार ने एक कमीशन नियुक्त कर दिया। दोनों वर्गों की माँग बिलकुल अनुचित थी; और गिरमिट-मुक्त मजदूरों का अस्तित्व आर्थिक दृष्टि से नेटाल की समस्त प्रजा के लिए पूर्णतया लाभदाई था। इसलिए कमीशन के समक्ष जो भी स्वतंत्र प्रमाण आए, वे सब उपरोक्त दोनों वर्गों के विरूद्ध थे। इसके फलस्वरूप तत्काल तो विरूद्ध पक्षों की दृष्टि से इस आंदोलन का कोई परिणाम नहीं आया; परंतु जैसे आग बुझने के बाद भी अपनी थोड़ी-बहुत निशानी छोड़ जाती है उसी तरह इस आंदोलन ने भी अपनी थोड़ी-बहुत छाप नेटाल सरकार पर अवश्य डाली। दूसरा कुछ हो भी कैसे सकता था? नेटाल की गोरी सरकार गोरों के धनिक वर्ग की हिमायती थी। उसने भारत सरकार के साथ इस संबंध में पत्र-व्यवहार आरंभ किया और आंदोलनकारियों के दोनों पक्षों की सूचनाएँ उसके सामने रखीं। लेकिन भारत सरकार एकदम ऐसी सूचनाएँ कैसे स्वीकार करती, जिनके फलस्वरूप गिरमिटिया मजदूर नेटाल में हमेशा के लिए गुलामी में फँसे रहें? गिरमिट के मातहत हिंदुस्ता‍नियों को इतनी दूर भेजने का एक कारण या बहाना यह था कि गिरमिट पूरी होने पर गिरमिटिया लोग स्वतंत्र बनकर अपनी शक्तियों का वहाँ पूरा विकास करेंगे और उसके फलस्वरूप अपनी आर्थिक स्थिति सुधारेंगे। नेटाल उस समय तक क्राउन कॉलोनी ही था, इसलिए कॉलोनियल ऑफिस उसके शासन के लिए पूरी तरह जिम्मेदार माना जाता था। अतः नेटाल उस ऑफिस से भी अपनी अन्यायपूर्ण इच्छाएँ और माँगें पूरी करने में मदद पाने की आशा नहीं रख सकता था। इस कारण से और ऐसे अन्य कारणों से नेटाल में उत्तरदाई शासन का अधिकार प्राप्तम करने का आंदोलन आरंभ हुआ। उत्तरदाई शासन की यह सत्ता नेटाल को सन्‍ 1893 में मिली। अब नेटाल को अपनी ताकत का अनुभव होने लगा। कॉलोनियल ऑफिस को भी नेटाल की चाहे जैसी माँगें स्वीकार करने में अब अधिक कठिनाई नहीं मालूम हुई। नेटाल की इस नई अर्थात उत्तरदाई सरकार ने भारत सरकार से सलाह-मशविरा करने के लिए अपने प्रतिनिधि हिंदुस्तान में भेजे। उनकी माँग यह थी कि प्रत्येक गिरमिट मुक्त हिंदुस्तानी पर 25 पौंड अर्थात रू. 375 का वार्षिक मुंड-कर लगाया जाए। इसका अर्थ यही हुआ कि कोई भी हिंदुस्तानी मजदूर इतना भारी कर भर नहीं सकता था और इसलिए स्वतंत्र मनुष्य के नाते नेटाल में रह नहीं सकता था। हिंदुस्तान के तत्कालीन वाइसरॉय लॉर्ड एल्गिन को 25 पौंड की रकम बहुत ज्यादा भारी लगी और अंत में उन्होंने 3 पौंड का वार्षिक मुड़-कर स्वीकार कर लिया। गिरमिटिया की कमाई के हिसाब से यह 3 पौंड का कर उसकी 6 महीने की कमाई के बराबर होता था! यह मुड़-कर केवल मजदूर पर ही नहीं लगाया गया, परंतु उसकी पत्नी, तेरह वर्ष या इससे अधिक उमर की लड़की और सोलह वर्ष या इससे अधिक उमर के लड़कों पर भी लगाया गया था। शायद ही कोई मजदूर ऐसा होता था, जिसकी पत्नी और दो बच्चे न हों। इसका अर्थ यह हुआ कि सामान्यतः हर एक मजदूर को 12 पौंड का वार्षिक कर भरना था। यह कर मजदूरों के लिए कितना दुखदाई हो गया था, इसका वर्णन करना असंभव है। केवल अनुभवी व्यक्ति ही इसका दुख जान सकता है अथवा जिसने मजदूरों के दुख को अपनी आँखों से देखा हो वह कुछ हद तक उसे समझ सकता है। नेटाल सरकार के इस कदम के खिलाफ हिंदुस्तापनी कौम खूब लड़ी थी। ब्रिटिश सरकार और भारत सरकार को अरजिया भेजी गईं। परंतु उनका परिणाम 25 पौंड के 3 पौंड होने से अधिक कुछ नहीं आया। गिरमिटिया मजदूर स्वयं तो इस बात को क्या समझ सकते थे अथवा इस बारे में क्या कर सकते थे? आंदोलन तो केवल हिंदुस्तानी व्यापारी-वर्ग ने ही देश प्रेम से कहिए या परमार्थ की दृष्टि से प्रेरित होकर चलाया था।

जो व्यवहार गिरमिटिया मजदूरों के साथ किया गया वही स्वतंत्र हिंदुस्तानियों के साथ भी किया गया। नेटाल के गोरे व्यापारियों ने स्वतंत्र हिंदुस्तानियों के खिलाफ भी मुख्यतः ऐसे ही कारणों से आंदोलन शुरू किया। हिंदुस्तानी व्यापारी नेटाल में अच्छी तरह जम गए थे। उन्होंने शहर के अच्छे-अच्छे हिस्‍सों में जमीनें खरीद लीं। जैसे-जैसे गिरमिट-मुक्त हिंदुस्तानियों की आबादी बढ़ती गई, वैसे-वैसे उनकी जरूरत की चीजों की खपत भी बढ़ती गई। हजारों बोरी चावल हिंदुस्तान से मँगाया जाता था और उसकी बिक्री से हिंदुस्तानी व्यापारियों को अच्छा मुनाफा होता था। यह व्यापार अधिकतर और स्वाभाविक रूप में हिंदुस्तानी व्यापारियों के हाथ में ही रहा। इसके सिवा, हबशियों के साथ के व्यापार में भी वे काफी हिस्सा बँटाने लगे। यह बात छोटे गोरे व्यापारियों को सहन नहीं हुई। फिर, इन हिंदुस्तानी व्यापारियों को कुछ अँग्रेजों ने ही बताया कि कानून के अनुसार उन्हें भी नेटाल की धारा सभा के सदस्य बनने का और सदस्य चुनने का अधिकार है। अतः कुछ हिंदुस्तानी व्यापारियों ने अपने नाम भी मतदाताओं की सूची में दर्ज कराए। इस स्थिति को नेटाल के राजनीतिक क्षेत्र के गोरे बर्दाश्त नहीं कर सके; क्योंकि उन्हें यह चिंता होने लगी कि यदि इस प्रकार हिंदुस्तानियों की स्थिति नेटाल में मजबूत हो जाए और उनकी प्रतिष्ठा बढ़े, तो उनकी स्पर्धा में गोरे यहाँ टिक नहीं सकेंगे। इससे नेटाल की उत्तरदाई सरकार का पहला कदम स्वतंत्र हिंदुस्तानियों के बारे में ऐसा कानून बनाना था, जिससे एक भी नया हिंदुस्तानी नेटाल में मतदाता न बन सके। सन्‍ 1894 में इस विषय का पहला बिल नेटाल की धारा सभा में आया। इस बिल में हिंदुस्तानियों को हिंदुस्तानियों के नाते ही मतदान के अधिकार से वंचित रखने का सिद्धांत स्वीकार किया गया था। नेटाल में रंगभेद के आधार पर हिंदुस्तानियों के बारे में बनाया गया यह पहला कानून था। हिंदुस्तानी जनता ने इसका विरोध किया। एक रात में अर्जी तैयार हुई। उस पर चार सौ आदमियों के हस्ताक्षर लिए गए। यह अर्जी पहुँचते ही नेटाल की धारासभा चौंक उठी। लेकिन बिल तो पास हुआ ही। उस समय लॉर्ड रिपन उपनिवेशों के मंत्री थे। उनके पास हिंदुस्तानियों की जो अर्जी गई, उसमें दस हजार लोगों के हस्ताक्षर थे। दस हजार हस्ताक्षरों का अर्थ था नेटाल के लगभग सारे स्वतंत्र हिंदुस्तानियों के हस्ताक्षर। लॉर्ड रिपन ने नेटाल धारा सभा के बिल को अस्वीकार कर दिया और कहा कि ब्रिटिश साम्राज्य कानून में रंगभेद को स्वीकार नहीं कर सकता। हिंदुस्तानियों की यह विजय कितनी महत्त्वपूर्ण थी, इसकी कल्पना पाठकों को आगे चलकर अधिक हो सकेगी। इसके उत्तर में नेटाल सरकार ने धारा सभा में एक नया बिल पेश किया। उसमें से रंगभेद तो निकल गया, किंतु परोक्ष रूप से आक्रमण उसमें भी हिंदुस्तानियों पर ही किया गया था। हिंदुस्तानी कौम उसके खिलाफ भी लड़ी, परंतु उसे सफलता नहीं मिली। यह नया बिल द्वि-अर्थी था। उसका अर्थ स्पष्ट कराने के लिए कौम यदि चाहती तो अंतिम अदालत तक अर्थात प्रिवी कौंसिल तक लड़ सकती थी; परंतु ऐसा करना उसने उचित नहीं समझा। मुझे आज भी लगता है कि प्रिवी कौंसिल तक उसका न लड़ना उचित ही था। कानून में रंगभेद को नहीं घुसने दिया गया, यह कोई मामूली बात नहीं थी।

परंतु नेटाल के गोरे मालिकों या नेटाल सरकार को इतने से संतोष नहीं हुआ। हिंदुस्तानियों की राजनीतिक सत्ता को नेटाल में जमने से रोकना उनके लिए एक आवश्यक कदम था। लेकिन उनकी नजर असल में तो हिंदुस्तानियों के व्यापार पर और स्वतंत्र हिंदुस्तानियों के आगमन पर ही थी। 30 करोड़ लोगों की आबादी वाला हिंदुस्तान अगर नेटाल की दिशा में उलट पड़े, तो नेटाल के गोरों का क्या होगा - वे तो समुद्र में ही बह जाएँगे! इस भय से वहाँ के गोरे बेचैन हो उठे थे। उस समय नेटाल की आबादी का अनुपात लगभग इस प्रकार था : 4 लाख हबशी, 40 हजार गोरे, 60 हजार गिरमिटिया मजदूर, 10 हजार गिरमिट-मुक्तर हिंदुस्तानी और 10 हजार स्वतंत्र हिंदुस्तानी। गोरों के भय के लिए कोई ठोस कारण तो नहीं थे, लेकिन डरे हुए मनुष्यों को उदाहरणों या दलीलों से कभी समझाया ही नहीं जा सकता। हिंदुस्तान की लाचार हालात का और हिंदुस्तानियों के रीति-रिवाजों का ज्ञान उन्हेंर नहीं था, इसलिए उनके मन में यह भ्रम था कि जैसे साहसी और जैसे शक्तिशाली हम स्वयं हैं वैसे ही हिंदुस्तानी भी होने चाहिए। अतः उन्होंने केवल त्रैराशिक का हिसाब लगा लिया था। इसमें उन्हें दोषी कैसे माना जाए? हिंदुस्तान की करोड़ों की आबादी की तुलना में अपनी छोटी संख्या को देखकर उनका इस प्रकार भयभीत होना स्वाभाविक ही था। जो भी हो, परंतु इसका परिणाम यह आया कि नेटाल की धारा सभा ने दूसरे जो दो कानून पास किए, उनमें भी मतदान-संबंधी हिंदुस्तानियों की लड़ाई में मिली विजय के फलस्वरूप रंगभेद को उसे दूर रखना पड़ा; और गर्भित भाषा का उपयोग करके उसे अपना ध्येंय सिद्ध करना पड़ा। इसके फलस्वरूप विरोध करने वाले हिंदुस्तानियों की इज्जत कुछ हद तक बनी रही। हिंदुस्तानी कौम इस बार भी डट कर लड़ी, परंतु कानून तो दोनों ही धारा सभा में पास हुए। एक कानून से तो हिंदुस्तानियों के व्यापार पर कड़ा अंकुश लगा दिया गया और दूसरे कानून से नेटाल में हिंदुस्तानियों के प्रवेश पर। पहले कानून का आशय यह था कि कानून के अनुसार नियुक्त किए गए अधिकारी की इजाजत के बिना किसी को व्यापार का परवाना नहीं मिल सकता। परंतु व्यवहार में चाहे जो गोरा जाकर अधिकारी से परवाना प्राप्त कर सकता था, जब कि हिंदुस्तानी को वह बड़ी मुसीबतों के बाद मिलता था; इसके लिए हिंदुस्तानी को वकील करना होता था और दूसरा खर्च भी करना पड़ता था। इसलिए ढीले-पोचे हिंदुस्ता‍नी तो व्यापार के परवाने के बिना ही रह जाते थे। दूसरे कानून की मुख्य। शर्त यह थी कि जो हिंदुस्ता‍नी यूरोप की किसी भी भाषा में नेटाल में प्रवेश करने की अर्जी लिख सके, वही नेटाल में प्रवेश पा सकता है। इसलिए इस कानून ने करोड़ों हिंदुस्तानियों के लिए नेटाल का दरवाजा बिलकुल बंद कर दिया। मैं जाने-अनजाने नेटाल सरकार के साथ अन्याय न कर बैठूँ, इसलिए मुझे यह बता देना चाहिए कि जो हिंदुस्तानी इस कानून के पास होने से पूर्व तीन वर्ष तक नेटाल में रह चुका हो, वह अगर नेटाल छोड़कर हिंदुस्तान या दूसरे स्थान में जाता और वहाँ से नेटाल लौटता, तो यूरोप की कोई भाषा जाने बिना भी अपनी पत्नी और नाबालिग बच्चों के साथ वह नेटाल में प्रवेश कर सकता था।

इसके सिवा, नेटाल में गिरमिटिया हिंदुस्तानियों तथा स्वतंत्र हिंदुस्तानियों पर दूसरे भी कानूनी और कानून से बाहर के प्रतिबंध लगे हुए थे। लेकिन उनमें पाठकों को उतारना मैं जरूरी नहीं मानता। इस पुस्ताक के विषय को समझने के लिए जितनी बातें आवश्यक मालूम होती हैं उतनी ही यहाँ देने का मेरा विचार है। दक्षिण अफ्रीका के प्रत्येक उपनिवेश में बसने वाले हिंदुस्तानियों की स्थिति का इतिहास बहुत विस्तार से दिया जा सकता है; परंतु ऐसा इतिहास देना इस पुस्तक का उद्देश्य नहीं है।


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