कवि, कथाकार, उपन्यासकार, आलोचक, अनुवादक, संपादक आदि रूपों में हिंदी साहित्य
को ऊर्जस्वित करने वाले सच्चिदानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' पर बहुत कुछ लिखा गया
है, सोचा कि उनपर नया क्या लिखा जाए, पर वर्तमान परिदृश्य में जेएनयू देशद्रोह
प्रकरण पर जिस प्रकार की पत्रकारिता की जा रही है। ऐसे समय में प्रगतिकामी
मूल्यों के प्रयोगधर्मी अज्ञेय की पत्रकारिता पर विमर्श करना लाजिमी है।
उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में 7 मार्च, 1911 में जन्मे अज्ञेय का गद्य व पद्य
के मामले में कोई जवाब नहीं था। उन्होंने 'शेखर : एक जीवनी', 'नदी के द्वीप'
और 'अपने-अपने अजनबी' जैसे विलक्षण उपन्यास लिखा, जिसे हिंदी साहित्य में
क्लासिक उपन्यासों में गिना जाता है। 'अरे यायावर रहेगा याद' और 'एक बूँद सहसा
उछली' उनके यात्रावृत्तांत भी हिंदी जगत में चर्चित हैं।
अज्ञेय अपनी आजीविका चलाने के लिए कई प्रकार के कार्य किए। वे पत्रकारिता के
क्षेत्र में भी काफी सक्रिय रहे। उन्होंने सैनिक, विशाल भारत, बिजली, वाक,
थॉट, दिनमान, नवभारत टाइम्स सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।
आजादी वर्ष के दौरान 1947 में इलाहाबाद से प्रयोगवादी पत्रिका 'प्रतीक' का
संपादन किया। प्रतीक ने ही हिंदी के आधुनिक साहित्य की नई धारा के
लेखकों-कवियों को सशक्त मंच दिया और साहित्यिक पत्रकारिता का नया इतिहास रचा।
सन 1965 से 1968 तक 'दिनमान' का संपादन किया। 1972 में जयप्रकाश नारायण के
आग्रह पर 'एवरीमैंस' अँग्रेजी साप्ताहिक का संपादन किया, परंतु 1973 में उससे
अलग होकर पुनः प्रतीक को 'नया प्रतीक' नाम देकर निकालना शुरू किया। पत्रकारिता
में उनका सरोकार भारतीय अस्मिता, भारतीय चेतना और भाषा संप्रेषण के उभरते हुए
सवालों से था। सन 1977 में जर्मनी से लौटने के बाद उन्होंने 'नवभारत टाइम्स'
का संपादन किया और सत्ता की राजनीति से अलग रहते हुए मानवीय मूल्यों के प्रति
प्रतिबद्धता का निर्वाह किया। साहित्य की तरह ही वे पत्रकारिता में लीक से
हटकर थे या यों कहें कि उनकी पत्रकारिता अनुशासित, लेकिन मुक्त थी। एक निर्भीक
पत्रकार के रूप में उन्होंने अनेक पत्रों के माध्यम से देश की समस्याओं को बहस
का मुद्दा बनाया। उनकी पत्रकारिता में सामाजिक सरोकारों के दर्शन तो होते ही
हैं, शोषण और अन्याय का विरोध भी दिखाई पड़ता है। साहित्य और पत्रकारिता में
नए प्रयोग और मानवमूल्यों की स्थापना करके भाषा को नया तेवर भी दिया।
अभिव्यक्ति की आजादी और संपादक के स्वाभिमान के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया।
आज अक्सतर नामचीन हस्तियों की रचनाओं को ही प्रकाशित करने की प्रथा चल पड़ी
है, नए रचनाकारों को तो कौरी के भाव में लिया जाता है। ऐसे समय में अज्ञेय एक
आदर्श संपादक के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होते हैं, क्योंकि उनके
संपादकीय कौशल का प्रमाण है कि वे अच्छे लेख मँगवाने के लिए नए लेखकों को
प्रोत्साहित करते, उन्हें बार-बार पत्र लिखते और स्वयं सुधारकर भी छापते थे।
अपने मित्रों और बड़े से बड़े लेखकों की रचनाओं को वे बेझिझक लौटाते थे। अपने
एक लेख 'संपादक अज्ञेय' में उनके सुपरिचित साहित्यकार डॉ. प्रभाकर माचवे ने
लिखा है, 'वे मित्रों की रचनाएँ बेमुरव्वत लौटाते थे और नए-नए लेखकों से
लिखवाते थे।'
हिंदी पत्रकारिता में आज साहित्य को बलाय की चीज समझकर अक्सर नकारने की कोशिश
की जाती है। अज्ञेय उन पत्रकारों में से थे जिन्होंने पत्रकारिता में साहित्य
के कलेवर को स्थान दिया। उन्होंने साहित्यिक और गैर-साहित्यिक पत्रकारिता में
भी सक्रिय महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिंदी पत्रकारिता में साहित्यिक पत्रकारिता
की कम होती भूमिका के प्रति वे सदैव चिंतित रहे। उनको इस बात की पीड़ा थी कि
हिंदी पत्रकारिता में समाचार पत्रकारिता का विस्तार तो हुआ लेकिन साहित्यिक
पत्रकारिता में अधिक प्रगति नहीं हुई। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि
'पत्रकारिता उद्योग बनती जा रही है। उद्योग आदर्शवादी नहीं होते, इसलिए आज ऐसे
संपादक तो हैं जो प्रशासन की दृष्टि से अधिक कुशल हैं लेकिन निष्ठावाले संपादक
शायद दुर्लभ हैं। ऐसा सूचना अब संभव नहीं रहा कि अमुक संपादक ने यह कहा है और
वह खरा और निष्ठावान आदमी है, इसलिए हम मान लें कि बात सच होगी।'
हिंदी पत्रकारिता में अज्ञेय द्वारा संपादित साप्ताहिक 'दिनमान' का प्रकाशन
बिलकुल नया, साहसिक, सार्थक और अद्वितीय प्रयोग था। बेनट एंड कोलमन ग्रुप का
दिनमान नाम अज्ञेय का ही दिया हुआ है। अभिधा में इसका अर्थ हुआ - सूर्य और
व्यंजना में दिन का मान यानी गौरव। संपादक के रूप में अज्ञेय के जुड़ने से
'दिनमान' का ग्राफ बड़ी तेजी से बढ़ा। उन्होंने हिंदी के बुद्धिजीवियों,
परिवर्तनगामी नौजवानों, अपनी पहचान बनाने की तलाश में लगे लोगों को एक साथ
जोड़ा था। भवानी प्रसाद मिश्र, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय,
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रभाकर माचवे, मनोहर श्याम जोशी, प्रयाग शुक्ल जैसे
नक्षत्रों को अपनी पत्रकारीय पाठशाला में शिक्षित व संस्कारित करके उन्होंने
नई सोच के प्रयोगधर्मी और प्रगतिशील पत्रकारों की जमात तैयार की। पत्रकार आलोक
पांडे कहते हैं कि, 'अज्ञेय ने दिनमान में मानवीय मूल्यों को स्थान देते हुए
सदैव नयापन की तलाश की, उसमें गंभीर वैचारिकता तो थी पर पांडित्य प्रदर्शन
नहीं था, चमत्कृत कर देने वाली सर्जनात्मक भाषा तो थी पर भाषा का मदारीपन नहीं
था। पूरी दुनिया से पूरेपन में सरोकारों के साथ, समाचार हो या लेख सभी मानवीय
प्रगति और भारतीय आत्मा की परिधि में रहती थी। यह दिनमान अज्ञेय ने बनाया था।'
स्वतंत्रता संग्राम से तपकर निकले सेनानियों के अलावा राजनीति, शिक्षा,
प्रशासन, साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े लाखों ऐसे लोग थे, जिनका सत्ता की
राजनीति और व्यवस्था से मोहभंग तेजी से हो रहा था। उनमें माखनलाल चतुर्वेदी,
मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', शिवपूजन सहाय सरीखे लोग भी थे जो
राजनीति, साहित्य और पत्रकारिता में मूल्यों, सरोकारों, संवेदनाओं और ईमानदारी
के क्षरण से बेहद व्यथित थे। 'दिनमान' उनके लिए एक नई ऊर्जा और ताजी बयार की
तरह थी। 'राष्ट्र की भाषा में राष्ट्र का आह्वान' के सूत्र वाक्य ने सबको मोह
लिया था और इस आदर्श को 'दिनमान' ने अक्षरशः चरितार्थ किया था। नामकरण से लेकर
दिनमान के कलेवर, सामग्री चयन, पाठक वर्ग और उनकी भागीदारी पर अज्ञेय ने गंभीर
विमर्श किया था। वे स्वयं समस्याओं की तह तक जाते, साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु
के साथ बिहार के सूखाग्रस्त इलाकों की यात्रा कर रिपोर्टिंग की। उनकी
सृजनात्मक उपलब्धि से 1968 में उन्हें हिंदी साहित्य सम्मेलन में 'साहित्य
वाचस्पति' की मानद उपाधि से विभूषित किया। 'आँगन के पार द्वार' कृति के लिए
'साहित्य अकादमी' पुरस्कार मिला और 'कितनी नावों में कितनी बार' नामक कृति पर
ज्ञानपीठ पुरस्कार भी। 4 अप्रैल, 1987 में हिंदी साहित्य की प्रयोगवादी
काव्यधारा का यह दीप्तिमान नक्षत्र सदा के लिए अस्त हो गया।
समकालीनता में रोहित बेमुला आत्मलहत्या प्रकरण, जेएनयू देशद्रोह प्रकरण, 'बीफ
पॉलिटिक्स', लव जेहाद आदि मुद्दों पर पत्रकारिता के आत्मावलोकन का मुद्दा एक
बार फिर खड़ा हो गया है, ऐसे समय में अज्ञेय की पत्रकारिता और उनके मूल्य
पत्रकारिता को नैतिक राह दिखाने का कार्य करते हैं। अज्ञेय के रचनाकर्म को
देखकर कहा जा सकता है कि वे संभवतः समूची हिंदी भाषा के पहले ऐसे व्यक्ति थे
जिन्होंने कविता, पत्रकारिता और आख्यान- इन सभी विधाओं में जो विभाजक परिवर्तन
था, प्रस्थान की जो नई दिशा थी, उसे पहचाना और चिंहित किया। आज जब हम तमाम लघु
अस्मिताओं का सर्वव्यापी उत्थान और आक्रमण देख रहे हैं। धर्म, जाति, नस्ल,
समूहगत हित, मूल्यों का क्षरण, सत्तालोलुपता और भ्रष्ट अतिचार आदि ने एक भयानक
डरावना अँधेरा निर्मित किया है। ऐसे समय में अज्ञेय का व्यक्तित्व और उनका
सृजन मुझे अँधेरे में जलती कंदील की तरह दिखाई देता है, इसलिए उनकी पत्रकारिता
का पुनर्पाठ किया जाना चाहिए और व्यापक दृष्टिकोण से शोध करने की जरूरत है।