घर से यहाँ तक के सारे सफर और यहाँ बस से उतरकर नाना के गाँव की पगडंडी पर
पैदल चलते हुए लगातार यही लगता कि अभी कहीं से कोई परिचित व्यक्ति निकलेगा और
मेरे कंधे पर पीछे से हाथ रख देगा। सड़क से नाना के गाँव तक चार किलोमीटर की यह
दूरी मैंने कई बार तय की थी पर आज तो जैसे यह सड़क इलास्टिक की तरह लंबी और
लंबी होती जा रही है। क्या कभी सड़क भी इलास्टिक की तरह लंबी-छोटी हो सकती है।
पगडंडी पर चलते हुए पैर इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं। मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूँ
कि ऐसा क्यों हो रहा है? कलकलाती धूप में आम के बाग की घनी छाँव देखकर मन हुआ
कि थोड़ी देर सुस्ता लूँ, पर कदम नहीं रुके। मैं इस पूरे वक्फे में एक भयातुर
इंतजार से गुजरता रहा। एक अजीब किस्म का भय और एक तयशुदा मनहूस खबर का इंतजार।
रात को मामा से टेलिफोन पर जो बात हुई थी, उससे तो यही लगता था कि नाना ने रात
भी नहीं गुजारी होगी।
रिस्ट वाच के काँटे साढ़े ग्यारह के आस-पास टहल रहे थे। तभी गाँव की ओर से खाद
की बैलगाड़ी लादे सुभाष मामा दिखे। थोड़ा हालचाल पूछते हुए वे आगे निकल गए। मुझे
कुछ संतुष्टि हुई कि चलो अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं हुआ है। सुबह घर से जल्दी
भागना कुछ तो सार्थक हुआ। सुभाष मामा हालाँकि सगे मामा नहीं हैं, पर हैं तो
मामा के गाँव के। गाँव नाते मामा की उमर के सब मामा और सब बूढ़े नाना।
नाना के घर जाकर देखा तो तमाम रिश्तेदार इकट्ठे होना शुरू हो चुके थे। न केवल
रिश्तेदार बल्कि रिश्तेदारों का पूरा परिवार यहाँ डटा हुआ था। उनकी ब्याही हुई
बेटियाँ और दामाद भी। कोई भी अंतिम समय की सेवा के पुण्य और हाथ लगने के
सौभाग्य से वंचित होना नहीं चाहता। इसलिए सभी फेविकोल के जोड़ की तरह डटे हुए
थे। वे सब उनकी मृत्यु को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगा रहे थे। सभी अपने-अपने
काम-धंधे छोड़कर यहाँ पड़े थे। लिहाजा वे सब कुछ निपट-निपटा कर लौट जाने की
जल्दबाजी में थे। वे उनकी मृत्यु को लेकर इतने बेताब थे मानो सारा धैर्य किसी
पोटली में बाँधकर घर की किसी खूँटी पर टाँग आए हों।
उनके मृत्यु के बाद की सारी तैयारियाँ भी मुक्कमिल कर ली गई थी। उस सारे
षड्यंत्र में उनके अपने बेटे बड़े मामा और छोटे मामा, उनकी अपनी बेटियाँ,
मौसियाँ और माँ तथा बाकि सारे रिश्तेदार सब कोई बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे।
सारी तैयारियाँ हो चुकी थी बस देर थी तो उनके प्राण निकलने की। इधर उनके प्राण
निकले और उधर सब कुछ एक पूर्व नियोजित प्रक्रिया की तरह शुरू हो जाएगा। सब लोग
इतनी तन्मयता से तैयारियों में जुटे थे मानो घर में कोई शादी-ब्याह जैसा आयोजन
होने वाला हो।
नजदीकी कस्बे के बाजे वालों को एडवांस दिया जा चुका था और सख्त ताकीद भी कि
खबर मिलते ही तुरंत चले आएँ। बा का आखरी काम धूम-धड़ाके से होना चाहिए। उनकी
अर्थी पर डालने के लिए चिल्लर की पोटली बना ली गई थी। कितने गाँवों को न्यौता
भेजना है...? किन-किन रिश्तेदारों को कैसे खबर लगेगी...? मृत्यु-भोज कहाँ
होगा...? भोज में क्या बनेगा...? हलवाई कौन होगा...? लाईन (प्रतीक चिह्न) में
क्या बँटेगा...? दशा का काम करने शिप्रा के घाट पर उज्जैन कौन जाएगा...? जैसे
मुद्दों पर आम सहमति बन चुकी है और बड़े मामा हर आगंतुक रिश्तेदार को पूरा
विवरण सगर्व सुना रहे हैं। भोज में लगने वाली सामग्री भी बीन-चुनकर पीपों में
भरकर स्लिपें चिपका दी गई हैं।
आखरी समय में कराए जाने वाले सारे दान-पुण्य उनके हाथ से कराये जा चुके हैं।
आखरी वक्त उनके मुँह में डालने के लिए गंगाजली भी उनकी ओलडी (कोठरी) में उनसे
छुपाकर रख दी गई है। सब कुछ इतनी संजीदगी से किया जा रहा है कि उन्हें साजिश
का पता न चल सके। गौ-दान, शैया-दान, स्वर्ण-दान, यथा शक्ति ब्राह्मण भोजन सभी
का संकल्प छुड़वाया जा चुका है। चंदन की सूखी लकड़ियाँ, तुलसी के झाँकरे, कंडे,
शुद्ध घी, गुलाल आदि की व्यवस्था कर ली गई है। बड़े मामा के ससुराल वाले पड़ोस
के कस्बे से आखरी बखत में शव पर डालने के लिए शाल भी खरीद लाए हैं। उनका तर्क
था कि एन टेम पर कहाँ भागते फिरेंगे। वे वहाँ उपस्थित रिश्तेदारों को शाल ऐसे
दिखा रहे हैं मानो मामेरे के कपड़े हों। पूरे ढाई सौ की है, का तुर्रा भी वे
जोड़ देते।
नाना दिनभर अपनी खोली में पड़े रहते। टट्टी, पेशाब और उल्टियों की लिजलिजी गंध
के बीच। रिश्तेदार आते और जैसे-तैसे उन्हें देखने की औपचारिकता पूरी कर लेते।
चेहरे पर फोड़े से रिसता मवाद और उस पर भिनभिनाती मक्खियाँ और भी वीभत्स लगती
थी। उन्हें यदि एक लौटे पानी या एक कप चाय की जरूरत होती तो वे चिल्लाकर बोलते
ताकि आवाज गाय के ग्वाडे से होती हुई वहाँ उस जगह तक पहुँच जाए जहाँ बाकी सारे
घर वाले और रिश्तेदार हैं। तब कोई जलता-भुनता हुआ आकर नाक दबाए हुए अपेक्षित
चीज दे जाता। वे अपनी मृत्यु की लोगों द्वारा किए जा रहे इंतजार से हाँलाकि
बेखबर थे किंतु लोगों की उपेक्षा और उनकी आँखों में तैरती जल्दबाजी को वे जरूर
ताडने लगे थे। वे सभी से बार-बार यही कहते - तम सगला याँ कयं करो, अपणा-अपणा
काम सँभालों। म्हारे तो ई दो-तीन गुम्डी हुए गी है। धीरे-धीरे ठीक हुए जाएगा।
खय रियो हूँ दवा-गोली। ऐसा कहकर वे रहस्य की तह में जाने की कोशिश करते किंतु
रिश्तेदार इधर-उधर की बात करते हुए बात को मोड़ देते।
उन बेचारे को क्या पता था कि ये खाली दो-तीन गुम्डीयाँ ही नहीं हैं बल्कि उनके
लास्ट स्टेज के कैंसर की निशानी है और वे जो गोलियाँ खा रहे हैं वे महज बी
कांप्लेक्स की हैं। ताकि उन्हें दवा-गोली का भरम बना रहे। असल में तो इंदौर के
कैंसर स्पेशलिस्ट डॉक्टर ने उनकी सारी दवाइयाँ बंद करके उन्हें एक हफ्ते का
टाइम दिया है। एक हफ्ते में मौत... और आज सात दिन बीत चुके हैं पर वे जिंदा
हैं।
सुबह जब उठा तो बड़े मामा रसोई में थे। बड़ी मामी और मौसियों को समझा रहे थे -
देखो आज ग्यारस को दिन है। ग्यारस का दन मरे ऊ सीधो सरगलोक में जाय है। भगवान
को बेवाण (विमान) उखे लेणा आय है। बा ने जिनगीभर पूजा-पाठ करी वा अकारथ नी
जाएगा। उनखे आज को ई दन मिलेगा। तम सगली झट न्हय-धोय ने फरियाल को इंतजाम कर
लो। जल्दी खय-पी ने रेट (रेडी) हुय जावाँ नी तो आखो दन निरजला (बिना पानी के)
एकादशी हुय जाएगा।
बड़े मामा अब गीता का पाठ कर रहे हैं। ऊँची आवाज में इतनी ऊँची आवाज कि नाना के
बहरे कान भी सुन सके। मामा बड़े कर्मकांडी हैं। दूर-दूर तक हवन-पूजन कराने जाते
रहे हैं। जानते हैं कि आखरी बखत में गीता सुनने-सुनाने से दुगना फल मिलता है।
उधर मामी ने फरियाल के लिए आलू चूल्हे पर चढ़ा दिए हैं। देवास वाली मौसी
मूँगफली के दाने छील रही है। बड़े मामा खुश हैं कि उमके कहे अनुसार फरियाल की
मुहिम शुरू हो गई है। छोटे मामा शहर की आदत के मुताबिक अभी बिस्तर से उठे हैं।
छोटी मामी उनके टूथ ब्रश पर पेस्ट चिपका रही है।
बड़े मामा गीता पढ़ रहे हैं - वासांसि जीर्णानि यथा विहाय...
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे
ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।
मैं कच्ची भीत से पीठ टिकाये सोच रहा हूँ कि क्या इतनी सरल है मृत्यु। पुराने
कपड़े उतारकर नए कपड़े पहन लेने जितनी आसान...। तो फिर क्यों व्यक्ति इतना खौफ
खाता है मृत्यु के नाम से। नाना भी तो डर रहे हैं। बार-बार डर जाते हैं कि ये
लोग कहीं मेरी मृत्यु का इंतजार तो नहीं कर रहे। फिर जल्दी ही मोह-माया के जाल
में पड़ जाते हैं। नहीं-नहीं ये सब तो मेरे अपने हैं। मेरे ही बेटे, मेरी ही
बेटियाँ, मेरा ही घर, मेरे ही रिश्तेदार। ये मेरे की मृग-मरीचिका उन्हें
क्षणभर ही सही, आश्वस्त जरूर करती।
बड़े मामा पढ़े जा रहे हैं। पढ़ते-पढ़ते वे एक-दो पल के लिए आँखें घुमाकर देखते भी
हैं कि उनके पांडित्य का श्रोताओं पर क्या असर हो रहा है।
यदा सत्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं...
जब मनुष्य सत्व गुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है तब निर्मल दिव्य
स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है। रजो गुण के बढ़ने से पुनः मनुष्यों में
पैदा होता है तथा तमो गुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु-पक्षियों आदि
मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है।
...तो नाना कौन-सी मृत्यु प्राप्त करेंगे? कौन-सी...? नाना कहाँ-कहाँ
मरते-खपते रहे जिंदगीभर। एक ही जिंदगी में आदमी कितनी बार मरता है। जब नाना के
पिता मरे तब उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी। घर की जिम्मेदारियाँ सिर पर आते
ही खेलने-खाने के दिन वाला बचपन मर गया। जमीन-जायदाद जब काका-बाबाओं ने दबा ली
तो खून के रिश्तों से उनका जी भर गया। नानी जब आधे रास्ते ही उनका साथ छोड़कर
चल बसी तो गृहस्थी ही उनके लिए वानप्रस्थ बन गया। जब लकवा हुआ तो आधे अंग मर
गए। दायाँ भाग चेतन तो बायाँ अचेतन और अब... अब उनके ही रिश्तेदार उनकी मृत्यु
का इंतजार कर रहे हैं।
दोपहर और साँझ को पार करती हुई रात आ गई। गाँव की रातें भी तो कितनी ठंडी,
निस्पंद और रहस्यमयी हुआ करती है। कुत्तों के भौंकने की आवाज और कभी-कभार
गुजरने वाली मालगाड़ी जरूर कुछ देर के लिए माहौल बदल देते... फिर वही सन्नाटा।
नींद खुल जाए तो यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि हम सतपुड़ा के घने जंगल के
बीच हैं या ऊँघते-अनमने गाँव की रात में। घुप्प अँधेरा और दूर-दूर तक कोई आवाज
नहीं। नाना का जो कुछ भी हो, कल सुबह मैं यहाँ से निकल लूँगा। अब यहाँ और नहीं
रुक सकता मैं। मैंने निश्चय कर लिया।
सब लोग परेशान हो रहे हैं। किसी को अपने बिजनेस की चिंता है तो किसी को अपनी
ड्यूटी से छुट्टियों की। सबसे अधिक मुसीबत छोटी मामी और दामादों की है। वे कभी
इतने दिन किसी गाँव में नहीं रहे थे। इसलिए उन्हें बिलकुल सूट नहीं हो रहा था।
सुबह-सबेरे शौच के लिए लौटा उठाये आधा गाँव पार कर खेतों की ओर जाना। खुले में
धूल-कीचड़ के बीच होल की मोटर पर नहाना। गर्मी से निपटने के लिए एक ही टेबल
फैन, जिस पर सभी आगंतुकों और मेहमानों को हवा खिलाने का दायित्व था।
रात में नींद खुली तो पड़ोस वाले कमरे से आवाजें आ रही थी। छोटे मामा कह रहे थे
- सारे रिश्तेदार परेशान हो रहे हैं। मैं खुद कितनी मुश्किल से छुट्टियों का
जुगाड़ कर आया हूँ। आखिर और कब तक दम भरेंगे ये...? बच्चों की पढ़ाई का भी
नुकसान हो रहा है। क्या कहा था डॉक्टर ने...?
सारी रिपोर्ट देखकर उन्होंने ही सात दिन का टाइम दिया था। आज ग्यारहवाँ दिन
है। ऐसा कैसे हो रहा है... समझ में नहीं आ रहा है। अब क्या करें...? परेशान कर
दिया है इन्होंने तो... सारे जजमानी के काम रुके पड़े हैं। सुशीला की बात पक्की
हुए डेढ़ महीना हो गया है। वे लोग सगाई की रस्म के लिए बार-बार खबर भेज रहे
हैं। अब इनका कुछ हो तो आगे का समझ पड़े...। बड़े मामा की खिन्नता उनके स्वर में
साफ सुनाई दे रही थी।
अरे हाँ, याद आया। उनके नाम का ओटला तथा शिवपिंडी की भी गोट बिठा दी है
मैंने... - बड़े मामा ने सगर्व कहा।
...कैसी गोट...?
आज रामसिंह पटेल ने बुलवाया था। बा की तबीयत का पूछते हुए कह रहे थे कि मेरे
लायक कोई काम बताओ। मैंने फट से जड़ दिया कि बा साहब सब कुछ तो हो गया है। गरीब
ब्राह्मण के लिए ओटला और शिवपिंडी लगवा दो तो... और उन्होंने भी झट से हाँ भिड़
दी।
वह तो ठीक है पर समाधि का ओटला बनेगा कहाँ...? छोटे मामा ने चिंता जताई।
और कहाँ बनेगा, अड़ान के पास वाली आम की बगीची में। वही जमीन उन्होंने सबसे
पहले खरीदी थी। बहुत मोह रहा है इस जमीन से उनका। - बड़े मामा का प्रस्ताव था।
नहीं, नहीं वह जमीन तो मेरे हिस्से में आई है। ओटला बनाने में दो-तीन चांस की
जगह खाली चली जाएगी। सड़क किनारे वाले तुम्हारे हिस्से में क्यों नहीं बनवा
लेते? सड़क से आते-जाते लोग दर्शन करेंगे। - छोटे मामा ने ईंट का जवाब पत्थर से
दिया।
वाह-वाह ये भी खूब रही। मैं अपने ही जजमान से ओटला भी बनवाऊँ और अपने ही खेत
में। क्या मुझे पागल कुत्ते ने काटा है? अस्पतालों में महीनों तक दौड़ता रहा और
अब ग्यारह दिनों से सबका खर्चा उठा रहा हूँ। - बड़े मामा तैश में थे।
खर्चे की बात तो करो मत। मैं क्या नहीं जानता? सबसे ज्यादा माल-मलाई भी तो
तुमने ही काटी है। फिर मृत्यु भोज के लिए तो दस हजार दे ही रहा हूँ। कोई एहसान
नहीं कर रहे हो तुम-छोटे मामा भी कहाँ चूकने वाले थे।
अब वहाँ दोनों मामियाँ भी आ गई हैं। दूसरे रिश्तेदार भी। मामियाँ भी एक दूसरे
को कोस रही हैं। दोनों मामा जोर-जोर से बोले जा रहे हैं। वे बहुत तैश में हैं।
दोनों इस डोकरे (बूढ़े) को दोषी मान रहे हैं कि जमीन और घर का बँटवारा तो कर
दिया पर असली माल-मलाई एक को ही दे दी। बड़े मामा का आरोप है कि असली माल-मलाई
छोटे मामा को दे दी और छोटे मामा का आरोप है कि डोकरे ने बड़े को दिया है।
मामियों की गरम बातचीत अब हाथापाई पर पहुँच आई है। रिश्तेदार मूक दर्शक की तरह
देख रहे हैं। अड़ोसी-पड़ोसी भी जुट रहे हैं।
तभी नाना की ओलड़ी से अचानक बरतनों के गिरने की आवाज आई। सभी लोग नाना की ओलड़ी
की ओर भागे। वहाँ लट्टू जलाकर देखा तो सभी की आँखें फटी की फटी रह गई। उनके
सिरहाने रखा स्टूल उलट गया था और उस पर रखे जूठे बर्तन, कप-बशी और पानी का
लौटा पूरी ओलडी में बिखर गए हैं। यहाँ-वहाँ फर्श पर जूठन ही जूठन बिखर गई है।
नाना अपने हाथ उठाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उठा नहीं पा रहे हैं। उनके
पाँव भी नहीं उठ रहे हैं। उनके हाथ-पाँवों में कोई हरकत नहीं हो पा रही। जीभ
का अगला हिस्सा उनके होंठों के बीच आ गया है, वह अब पीछे नहीं जा रहा। मुँह से
लार बह रही है। उनकी आँखें लगातार सबको देख रही है। उनकी आँखों में डर है और
दया की याचना भी। वे सबकी ओर ऐसे देख रहे हैं मानों चोरी करते हुए पकड़े गए
हों। मानो उनके आसपास रिश्तेदार नहीं पुलिस वाले खड़े हों। मामा ने उन्हें आवाज
लगाई। वे और ज्यादा डर गए। मामा ने उनके पास जाकर उनका हाथ देखा तो लगा कि वे
अभी रो देंगे। उनके मुँह से शब्द नहीं फूट रहे हैं। केवल गों...गों...गों...
की फुसफुसाहट निकल रही है।
सब लोग उनकी ओर दम साधे देखे जा रहे हैं। उनकी गों...गों...गों... की आवाज
बढ़ती ही जा रही है। सब चुप हैं केवल एक ही आवाज गूँज रही है -
गों...गों...गों...।