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लेख

हिंदी आलोचना का शून्य काल?

अमरनाथ


एक सामान्य मान्यता है कि हिंदी आलोचना का विकास आधुनिक काल में गद्य के विकास के साथ हुआ। हिंदी आलोचना पर केंद्रित जो भी किताबें मौजूद हैं उनमें हिंदी आलोचना का विकास भारतेंदु युग से ही माना गया है। प्रश्न यह है कि हिंदी साहित्य की रचना तो नवीं-दसवीं सदी से ही होने लगी थी। हम उसके इतिहास का अध्ययन नवीं सदी से ही आरंभ कर देते हैं। फिर आलोचना का विकास अठारहवीं सदी से क्यों? क्या हजार साल तक सिर्फ रचनाएँ होती रहीं और उनपर प्रतिक्रयाएँ नहीं होती थी? यदि रचना के साथ-साथ ही आलोचना का विकास भी होता है तो क्या हिंदी साहित्य के आदि काल से आधुनिक काल के भारतेंदु युग तक लोग सिर्फ रचनाएँ पढ़ते और सुनते रहे और उनपर प्रतिक्रियाएँ देने से परहेज करते रहे? भला ऐसा कैसे संभव है?

दरअसल आलोचना का विकास रचना के साथ ही होता है। रचना पर संतुलित प्रतिक्रिया ही आलोचना है। इसलिए जिस समय से हम हिंदी साहित्य का अध्ययन आरंभ करते हैं उसी समय से उसकी आलोचना का अध्ययन भी करना होगा। खेद है कि उसका व्यवस्थित अध्ययन अब तक नहीं हुआ है और हम मानते चले आ रहे है कि हिंदी आलोचना का विकास आधुनिक काल में गद्य के विकास के साथ हुआ। यह गलत धारणा है। सचाई यह है कि हिंदी साहित्य के इतिहास के साथ ही हिंदी आलोचना के विकास का इतिहास भी जुड़ा हुआ है और आलोचना की परंपरा भी हिंदी के रचनात्मक साहित्य की तरह ही समृद्ध है। आज उसके विस्तृत अध्ययन की जरूरत है। इसी परिप्रेक्ष्य में हम यहाँ आलोचना की इन्हीं टूटी कड़ियों को जोड़ने की कोशिश करेंगे।

संस्कृत की सैद्धांतिक आलोचना के साथ ही उसकी व्यावहारिक आलोचना भी बहुत समृद्ध है और सैद्धांतिक मानदंडों पर ही आधारित है। इसकी मुख्यतः तीन पद्धतियाँ हैं पहली, व्याख्यात्मक आलोचना अथवा टीका पद्धति दूसरी, काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में अपनी स्थापनाओं की पुष्टि में आचार्यों द्वारा उद्धृत कवियों की उक्तियाँ और तीसरी, सूक्तियों के रूप में की जाने वाली कवियों पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ।

संस्कृत में ग्रंथों की टीकाएँ अथवा भाष्य लिखने की परंपरा बहुत पुरानी है। संस्कृत के लगभग सभी महान ग्रंथों की कई-कई टीकाएँ उपलब्ध हैं। इन टीकाओं में कविताओं की विद्वत्तापूर्ण व्याख्याएँ तो की ही जाती थीं, इसी बहाने कवि की काव्य-कला के ऊपर भी सटीक और आलोचनात्मक टिप्पणियाँ टीकाकार कर देता था। हकीकत तो यह है कि संस्कृत के कई ऐसे महाकवि या आचार्य हैं जिनके साहित्य का सुफल, सुबुद्ध और सहृदय पाठकों को तभी मिला जब उनके व्याख्याकारों ने उनपर भाष्य लिखे। कालिदास के भाष्यकार मल्लिनाथ ने तो कहा ही है कि कालिदास की वाणी बिना भाष्य के "दुर्व्याख्याविषमूर्छिता" हो गई थी। मल्लिनाथ ने उसका भाष्य लिखकर उसे सहृदय पाठकों के लिए सुगम बनाया। आखिर आलोचक का काम भी तो यही है! किसी भी रचना को पढ़ना, उसके मर्म को समझना, तटस्थ होकर उसके गुण-दोष का विवेचन करना, उसके महत्व का आकलन करना और उसे समझनें में सहृदय पाठकों को मदद पहुँचाना - यही एक आलोचक का प्रमुख दायित्व होता है। मल्लिनाथ ने यही किया। इसी तरह आनंदवर्धन के महान ग्रंथ 'ध्वन्यालोक' की महत्ता से लोग लगभग एक सौ साल तक अपरिचित ही रहे। लोगों को इस ग्रंथ का महत्व तब समझ में आया जब अभिनव गुप्त ने उसकी 'ध्वन्यालोकलोचन' नाम से टीका लिखी। संस्कृत में भाष्य लिखने की परंपरा इतनी समृद्ध है कि एक-एक ग्रंथों के कई-कई भाष्य मिलते हैं।

वास्तव में टीका, रचना को सहृदय पाठक के लिए बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से ही लिखी जाती थी। इतना ही नहीं, टीकाकार काव्य की टीका करते-करते कवियों के विषय में भी आलोचनात्मक उक्तियाँ कह दिया करते थे। मेरी दृष्टि में टीकाओं को व्यावहारिक आलोचना का उत्कृष्ट रूप कहा जा सकता है। एक आदर्श टीका लिखने के लिए टीकाकार को इतिहास, दर्शन, धर्म, नीति, काव्यशास्त्र, लोक-रीति, काव्य-रूढ़ि, भाषा विज्ञान आदि की समुचित जानकारी के अलावा विषय के विश्लेषण की गहरी समक्ष और रसग्राहिका शक्ति भी होनी चाहिए, असाधारण प्रतिभा तो जरूरी है ही।

संस्कृत में टीकाओं के अनेक नाम और रूप प्रचलित थे जैसे - तिलक, लोचन, भाष्य, कारिका, फक्किका आदि। टीकाओं में काव्य विषय की व्याख्या के साथ ही काव्य सौंदर्य का उद्घाटन भी किया जाता था और दोष का निरूपण भी। टीकाएँ गद्य और पद्य दोनों में की जाती थीं। संस्कृत की तरह ही हिंदी में भी लगातार टीकाएँ लिखी जाती रहीं। 'रामचरितमानस', 'रामचंद्रिका', 'कविप्रिया' और 'बिहारी सतसई' पर सर्वाधिक टीकाएँ लिखी गईं। स्वयं भारतेंदु ने 'बिहारी सतसई' और सूर के कूट पदों की टीकाएँ लिखी थीं। लाला भगवानदीन ने 'केशव कौमुदी', 'प्रिया प्रकाश', 'मानस की टीका', 'बिहारी बोधिनी', 'दोहावली', 'कवितावली', और 'छत्रसाल दशक' आदि टीका ग्रंथों की रचना करके मध्यकालीन कवियों के काव्य की व्याख्या की और उनके काव्य सौंदर्य का उद्घाटन किया। हिंदी की टीकाओं के क्षेत्र में दो नाम विशेष महत्वपूर्ण हैं। सरदार कवि जिन्होंने केशव की 'रसिकप्रिया' और 'कविप्रिया' की टीकाएँ लिखी तथा लल्लूलाल, जिन्होंने बिहारी सतसई की टीका 'लाल चंद्रिका' नाम से लिखी। यह टीका भारतेंदु काल से कुछ पूर्व लिखी गई थी किंतु भारतेंदु युग में इसका पुनः परिष्कार हुआ और यह परिष्कार पंडित सुधाकर द्विवेदी और जार्ज ग्रियर्सन ने मिलकर किया। बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर ने 'बिहारी रत्नाकर' नाम से 'बिहारी सतसई' की मार्मिक टीका लिखी। बियोगी हरि ने 'विनयपत्रिका' की टीका लिखी जो अपनी विशद व्याख्या और पांडित्यपूर्ण विवेचन के लिए विख्यात है। प्रसाद की कामायनी पर शैदा की लिखी गई टीका का भी विशिष्ट स्थान है।

इधर टीका लिखने की प्रवृत्ति तेजी से घटी है क्योंकि इसमें श्रम अधिक लगता है और उसकी तुलना में प्रतिष्ठा कम मिलती है। अब आलोचकों को कम समय में आलोचना लिखकर रचनाकार को प्रतिष्ठित करने और उसके हृदय में जगह बनाने की जल्दी भी रहती है।

व्यावहारिक आलोचना की दूसरी परंपरा काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में लक्षणों की पुष्टि के लिए प्रमाण स्वरूप कवियों की उक्तियों को उद्धृत करने की है। संस्कृत में काव्य शास्त्रीय ग्रंथ खूब लिखे गए। इन ग्रंथों में रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति आदि के भेदों-उपभेदों के लक्षण दिए जाते रहे और उनकी पुष्टि में कविताओं या साहित्य की अन्य विधाओं से भरपूर उद्धरण दिए गए। इन उद्धरणों में कभी-कभी तो काव्य-शास्त्रीय ग्रंथ के प्रणेताओं द्वारा स्वरचित उद्धरण दिए गए और कभी-कभी उन्होंने अन्य रचनाकारों की कृतियों से उद्धरण चयनित करके दिए। जहाँ आचार्यों ने अन्य रचनाकारों की कृतियों से चयनित करके उद्धरण दिए हैं वहाँ सहज ही रचना के बारे में उनकी टिप्पणियाँ अभिव्यक्त हुई हैं। ये टिप्पणियाँ वस्तुतः रचना का मूल्यांकन करने वाली आलोचनात्मक टिप्पणियाँ ही हैं।

संस्कृत की भाँति हिंदी साहित्य के मध्यकाल में लक्षण ग्रंथों के प्रणयन की एक समृद्ध परंपरा मिलती है जिसका क्रम संस्कृत साहित्य से ही चला आ रहा था। इन लक्षण ग्रंथों के माध्यम से अलंकारों आदि का लक्षण और उनका उदाहरण प्रस्तुत करना कवि-आचार्यों का प्रमुख उद्देश्य रहता था। लक्षण ग्रंथों का यह रूप सैद्धांतिक था। उस काल की यह एक अत्यंत परिपुष्ट पद्धति बन चुकी थी। इस परंपरा में कृपाराम, ब्रह्म, गंग, बलभद्र मिश्र, केशवदास, रहीम, मुबारक आदि का नाम लिया जा सकता है जिनका काल, भक्तिकाल में पड़ता है और वे संस्कृत के काव्यशास्त्र की परंपरा को ही हिंदी में आगे बढ़ाने वाले आचार्य हैं।

रीतिकाल में लक्षण ग्रंथों की रचना की परिपाटी जग जाहिर है। आचार्य शुक्ल ने इसी आधार पर इस काल का नामकरण 'रीतिकाल' किया। इसमें कवियों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। सेनापति का प्रसिद्ध ग्रंथ 'कवित्त रत्नाकर' (1649 ई.) इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस ग्रंथ से रीतिकालीन कवि आचार्यों को बहुत प्रेरणा मिली थी। बिहारी, मतिराम, भूषण, देव आदि रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि हैं जिनकी कृतियों में रीति-निरूपण की परंपरा का अनुपालन किया गया है। रीतिकाल में पहला लक्षण ग्रंथ संभवतः कृपाराम का 'हित तरंगिणी' (1541ई.) है। भरत मुनि के 'नाट्य शास्त्र' को आधार बनाकर लिखा गया यह ग्रंथ पाँच तरंगों में विभक्त है। इसके पश्चात मोहनलाल मिश्र के 'श्रृंगार सागर'(1549 ई.) का नाम लिया जा सकता है जिसमें नायिका भेद का विस्तृत वर्णन है। इसी के समकालीन नंद दास की कृति 'रस मंजरी' भी है। केशवदास (1550 -1610 ई.) के प्रसिद्ध लक्षण ग्रंथ हैं 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया'। केशव मूलतः अलंकारवादी थे। महाकाव्य होने के बावजूद उनकी 'रामचंद्रिका' में विविध छंदो का जो प्रयोग हुआ है उससे एक लक्षण ग्रंथ के रूप में भी उसका उल्लेख किया जा सकता है। चिंतामणि त्रिपाठी की गणना रीति काल के श्रेष्ठ आचार्य के रूप में की जाती हैं। उनके द्वारा प्रणीत काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में 'पिंगल' 'श्रृंगारमंजरी' और 'कवि-कुल-कल्पतरु' विशेष उल्लेखनीय है। 'कवि-कुल-कल्पतरु' में संस्कृत के 'दशरूपक', 'काव्य प्रकाश' और 'साहित्य दर्पण' आदि ग्रंथों के आधार पर रस, अलंकार, गुण, दोष आदि का विवेचन किया गया है। इसके अलावा रीतिकाल के प्रमुख लक्षण ग्रंथों में जसवंत सिंह का 'भाषाभूषण', मतिराम का 'अलंकारपंचाशिका' (1690 ई.) और 'ललितललाम', भूषण कृत 'शिवराजभूषण' (1653 ई.) आदि का उल्लेख किया जा सकता है। अन्य रीतिग्रंथकारों में गोप, दूलह, रसिक, सुमति, गोविंद, बैरीसाल, गोकुलनाथ आदि का नाम लिया जा सकता है। पद्माकर रीतिकाल के अंतिम अलंकारवादी आचार्य हैं जिनकी ख्याति कवि के रूप में अधिक है। रीतिकाल के रसवादी आचार्यों में तोष तथा मतिराम विशेष उल्लेखनीय हैं। तोष का ग्रंथ 'सुधानिधि'(1637 ई.) है, जिसे उन्होंने रस के लिए प्रचुर मात्रा में उपयुक्त उदाहरणों से समृद्ध किया है। मतिराम की पुस्तक 'रसराज'( 1617) है जिसमें नायक-नायिका भेद खास तौर पर वर्णित है, इस ग्रंथ को भी प्रचुर मात्रा में सरस उदाहरणों से समृद्ध किया गया है। देव (1673 - 1768 ई.) के रस केंद्रित कई काव्यशास्त्रीय ग्रंथ हैं जिनमें 'भाव विलास', 'भवानीविलास' तथा 'काव्य रसायन' प्रमुख है। देव के परवर्ती काल में कालिदास, कृष्ण भट्ट, कुमारमणि, श्रीपति, सोमनाथ, उदयनाथ, कवींद्र, रसलीन, दास, रूपसाहि, बेनी प्रवीन, ग्वाल आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है।

ध्वनिवादी आचार्यों में कुलपति मिश्र का नाम पहले स्थान पर रखा जा सकता है। उनकी कृति 'रस रहस्य' (1670 ई.) है। भिखारीदास भी रीतिकाल के श्रेष्ठ आचार्य हैं। इनका रचनाकाल अठारहवीं सदी का तीसरा चौथा और पाचवाँ दशक है। उन्होंने ध्वनि, रस, अलंकार आदि सभी पर लक्षण ग्रंथ लिखे। उनके ग्रंथों में 'रससारांश', 'छंदोंर्णवपिंगल', 'काव्यनिर्णय' और 'श्रृंगारनिर्णय' प्रमुख है।

डॉ. भगीरथ मिश्र ने 'हिंदी काव्य शास्त्र का इतिहास' में आधुनिक काल के प्रारंभिक चरण में निर्मित परंपरागत काव्यशास्त्रीय ग्रंथों की एक सूची दी है जो इस प्रकार है - रामदास कृत 'कविकल्पद्रुम'(सं. 1901), चंद्रशेखर बाजपेयी कृत 'रसिक विनोद' (सं. 1903), ग्वाल कवि कृत 'रसिकानंद' (सं. 1879), 'रसरंग' (सं.1904), सेवक कृत 'वाग्विलास', लछिराम कृत 'महेश्वर विलास', 'रामचंद्र भूषण', 'रावणेश्वर कल्पतरु', कविराय राजा मुरारिदान कृत 'जसवंतभूषण' (सं. 1905), महाराज प्रतापनारायण सिंह कृत 'रस कुसुमाकर' (सं. 19512), कन्हैयालाल पोद्दार कृत 'रसमंजरी', 'अलंकारमंजरी', 'काव्यकल्पद्रुम' (सं. 1883), जगन्नाथ प्रासाद भानु कृत 'काव्य प्रभाकर' (सं. 1967), लाला भगवानदीन कृत 'अलंकार मंजूषा' (सं. 1973), रामाशंकर शुक्ल रसाल कृत 'अलंकार पियूष', सीताराम शास्त्री कृत 'साहित्य सिद्धांत' (सं. 1980), अर्जुन दास केडिया कृत 'भारती भूषण', हरिऔध कृत 'रसकलश' (सं. 1989), बिहारी लाल भट्ट कृत 'साहित्य सागर' (सं. 1994), मिश्रबंधु कृत 'साहित्य पारिजात' (सं. 1993), बृजेश कृत 'रसरसांग निर्णय' (सं. 1993) और पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र कृत 'काव्यांग कौमुदी'।

यद्यपि इन काव्यशास्त्रीय ग्रंथों के प्रणयन में परंपरागत रीतिकालीन दृष्टि केंद्र में है और उनमें रचनात्मकता एवं सैद्धांतिकता दोनों दृष्टियों से शास्त्रीयता का प्रबल आग्रह है, किंतु इनकी दृष्टि में नयापन अवश्य है। इनकी समसामयिक आधुनिकता ने रचनात्मक साहित्य की दिशा को तेजी से प्रभावित किया। राष्ट्रीय जागरण, रेल तथा संचार के साधनों के विकास और पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से परंपरागत शास्त्रीयता के स्थान पर व्यावहारिक समीक्षा की नवीन परंपरा का सूत्रपात हो चुका था। इस अवधि की बदलती मानसिकता को लक्षिक करते हुए डॉ. भगवत्स्वरूप मिश्र लिखते हैं, "भारतीय साहित्य में नवीनता का आग्रह कितनी त्वरा से हुआ और देखते-देखते जीवन के विविध पक्षों पर उनके घातों प्रतिघातों का प्रभाव इतनी शीघ्रता से पड़ना प्रारंभ हुआ कि पुरातन शास्त्रीयता प्रायः विस्मृत सी होने लगी। मुश्किल से तीस वर्षों के अंतर्गत दृष्टिकोण में इतना क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ कि संपूर्ण शास्त्रीयता ऐतिहासिक अवधारणा के रूप में स्वीकार की जाने लगी।" (हिंदी साहित्य, प्रथम खंड, पृष्ठ - 559)

तीसरी परंपरा सूक्तियों की है। सूक्तियों के रूप में भी आलोचना की एक समृद्ध परंपरा संस्कृत में प्रचलित रही है। कहने के लिए तो कवियों के ऊपर कही गई ये सामान्य सूक्तियाँ लगती हैं। किंतु इन एक-एक पंक्तियों की सूक्तियों के पीछे संबंधित रचना और रचनाकार के विषय में सूक्तिकार की कितनी गहन साधना शामिल है इसका अनुमान सहज ही किया जा सकता है। "उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थ गौरवम् / दंडिनः पदलालित्यं माघे संति त्रयो गुणा:", "मेघे माघे गंतं वयः", "श्लेषेकेचनशब्दगुंफविषये केचिद् रसे चापरेsलंकारे कदिचित् सदर्थ विषये चान्ये कथावर्णने, / आसर्वत्रगंभीरधीर कविताविन्ध्याटवीचातुरी संचारी कविकुंभिकुंभभिदुरो वाणस्तु पंचाननः।" आदि सूक्तियों अथवा सूक्तियों जैसे आलोचनात्मक श्लोकों में सूक्तिकार के अध्ययन-विश्लेषण और उसके बाद की उसकी निर्णयात्मक आलोचना दृष्टि की पूरी मीमांसा देखी जा सकती है। संस्कृत साहित्य में आलोचना की यह अत्यंत समृद्ध परंपरा रही है जिसका अभी तक ठीक से अध्ययन नहीं हुआ है।

संस्कृत साहित्य में प्रचलित सूक्तियों के आधार पर ही हिंदी में भी "सूर सूर तुलसी ससी उड्गन केसवदास/अबके कवि खद्योत सम जहँ-तहँ करत प्रकास", "तुलसी गंग दुओ भए सुकविन के सरदार, उनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार", "और कवि गढ़िया नंददास जड़िया।" आदि सूक्तियाँ भक्तिकालीन आलोचना का एक रूप प्रस्तुत करती हैं। इन सूक्तियों में कवियों के काव्य सौंदर्य का शास्त्रीय तत्वों की दृष्टि से निर्देश मात्र अधिक मिलता है। ये प्रायः तुलनात्मक समीक्षा के उदाहरण हैं। इनमें वैयक्तिक रुचि का ही प्राधान्य अधिक है। डॉ. भगवत्स्वरूप मिश्र के शब्दों में, "इन उक्तियों में वक्ता की वैयक्तिक रुचि का ही प्राधान्य है। आधुनिक काल में ऐसी समीक्षा उक्तियों के विकास की कोई संभावना नहीं। इनका कोई ठोस आधार तो होता नहीं है। इसलिए आज के बुद्धि प्रधान युग में इन उक्तियों के लिए कहाँ स्थान है?" (हिंदी साहित्य, प्रथम खंड, पृष्ठ - 590)।

इस प्रकार भारतेंदु काल के आरंभ में हमें हिंदी आलोचना के तीन रूप प्राप्त होते हैं। पहला, टीका पद्धति और उसमें कवि के विषय में प्रशंसात्मक उक्तियाँ, दूसरा, लक्षण ग्रंथों की रचना और उनके आधार पर अलंकार आदि का उदाहरण प्रस्तुत करना और तीसरा, सूक्तियों के रूप में कवियों से संबंधित उक्तियाँ।

ये तीनों रूप हिंदी को संस्कृत से विरासत में मिले हैं और हिंदी साहित्य के आँरंभिक समय से ही प्राप्त होते हैं।

निस्संदेह हिंदी में शुद्ध व्यावहारिक आलोचना या आधुनिक आलोचना का सूत्रपात भारतेंदु युग में गद्य के विकास के साथ प्राप्त होता है। इसका कारण भी यह है कि भारतेंदु के आगमन से हिंदी में जो नवयुग का सूत्रपात हुआ, उसमें पाश्चात्य शिक्षा संस्कृति के संपर्क से नवीन विचारों का अभ्युदय और उसके प्रकाशन के माध्यम के रूप में गद्य का आविर्भाव हुआ। वैज्ञानिक अनुसंधान, औद्योगिक क्रांति, राष्ट्रीय चेतना, जनतांत्रिक मूल्य, जीवन के प्रति बौद्धिक एवं उपयोगितावादी दृष्टि, विचार स्वातंत्र्य आदि नए मूल्यों से हिंदी के साहित्यकार परिचित और प्रभावित हुए। हमारे पुराने साहित्यिक संस्कार बदलने लगे। भारतेंदु हरिश्चंद्र इस नवजागरण के केंद्रीय व्यक्तित्व के रूप में उभरे। हिंदी आलोचना भी इससे गहरे प्रभावित हुई. इसीलिए भारतेंदु युग में आलोचना के दो नए रूप सामने आए, पहला पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा के रूप में की जाने वाली आलोचना। और दूसरा, इतिहास ग्रंथों में कवि-परिचय के साथ उनके महत्व का प्रतिपादन करने वाली आलोचना।

किंतु इसी आधार पर भारतेंदु से पहले लगभग एक हजार साल तक की हिंदी आलोचना की कोई चर्चा न करना और इस काल-खंड को आलोचना विहीन मान लेना उचित नहीं है। मैंने भी इस काल-खंड की आलोचना पर किसी तरह का शोध नहीं किया है। मैने केवल संकेत भर किया है और उम्मीद करता हूँ कि यदि इस लगभग एक हजार साल तक की आलोचना-परंपरा की खोज की जाए तो आलोचना की टूटी कड़ियाँ अवश्य जुड़ेंगी और भाष्यकारों आदि के रूप में आलोचकों की एक समृद्ध परंपरा का पता चलेगा।


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