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विमर्श

मिश्र बंधु : आधुनिकता में संक्रमण

मृत्युंजय


"साहित्य का संगठन समय के अनुसार हुआ करता है। उस समय जबके बने वे ग्रंथ हैं, उससे अधिक की लोगों को आवश्यकता न थी। रुचि भी ऐसी अधिकांश लोगों की हो रही थी, विशेषतः हमारे देश के राजा बाबू और अमीरों का श्रृंगार ही से काम था वही उनकी माता थी, उसी की अधिक संख्या कविता में पार्इ जाती है। आज समय दूसरा है, देश की दुर्दशा ने सबकी मुटार्इ झाड़ दी है, अक्ल ठिकाने आ गर्इ है, अब वे बातें नहीं जँचतीं, इसी से आज की आवश्यकता का आजकल के सुलेखकों और ग्रंथकारों को पूरी करनी चाहिए, वे ही उसके उत्तरदाता हैं, उन्हें अब अपने साहित्य के शून्य को भरना चाहिए और लोग इसके लिए सचेष्ट भी हो रहे हैं।" [1]

हमने देखा कि 1857 के जनविद्रोह के बाद अंग्रेज औपनिवेशकों ने भारतीय सामाजिक संरचना में अपना हस्तक्षेप बढ़ा दिया। दूसरी ओर ए.ओ. हयूम के द्वारा कांग्रेस [1885] का गठन हुआ। तीसरी महत्वपूर्ण घटना थी - राष्ट्रवाद का उभार। इन परिस्थितियों में हिंदी में आधुनिक गद्य का प्रादुर्भाव हुआ। इस 'आधुनिकता' के बीज रूप, साहित्येतिहासों में आलोचनात्मक कैनन के रूप में उसकी व्याप्ति, पिछले अध्याय में विश्लेषित किए जा चुके हैं। भारतीय सामाजिक संरचना के इस नए परिदृश्य में हमारी अपनी आलोचना का जन्म होता है।

भारतेंदु हरिश्चंद और उनके मंडल को अन्य विधाओं और आधुनिक काल की तरह हिंदी आलोचना के श्रीगणेश का भी श्रेय जाता है। इस श्रृंखला में पहला ग्रंथ 'शिवसिंह सरोज' है जो अपने साहित्येतिहास वा कविवृत्त के कलेवर में आलोचना के कुछ सूत्र धारण किए हुए है। परंतु ठीक-ठिकाने की आलोचनात्मक रचना 1883 में लिखा भारतेंदु का 'नाटक' शीर्षक निबंध ही है। गौर करने की बात है कि यह प्रारंभिक आलोचनात्मक कृति भी संस्कृत नाटकों और अन्य नाट्य परंपराओं से बहस करती हुर्इ अपनी देशी नाट्य परंपरा के विकास में प्रवृत होती है। पर आलोचना का व्यावहारिक रूप में उदय पुस्तक समीक्षाओं से ही माना जाता है। 'हिंदी प्रदीप' में लाला श्रीनिवास दास के 'संयोगिता स्वयंवर' की बालकृष्ण भट्ट की समीक्षा और 'आनंदकादंबिनी' में प्रेमघन की समीक्षा इस लिहाज से महत्वपूर्ण हैं। ये पुस्तक समीक्षाएँ गुण-दोष का निरूपण करती हैं परंतु कैनन निर्माण की प्रक्रिया को समझने के लिहाज से वे इतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसके उपरांत साहित्य-नियमन का बीड़ा उठाया। यह सर्वविदित ही है कि 'सरस्वती' के मंच को उन्होंने साहित्य के एकमात्र मंच के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कोर्इ व्यवस्थित आलोचना तो न लिखी परंतु उनके द्वारा लिखे गए फुटकर लेखों और संपत्तिशास्त्र जैसी महत्वपूर्ण कई पुस्तकों ने आलोचना को व्यवस्थित आधार अवश्य प्रदान किया। उन्होंने रीतिवाद का विरोध किया, कविता को लक्षण ग्रंथों के आधार पर न समझने की वकालत की, गद्य और पद्य की भाषा को एकरूप करने पर जोर दिया और सबसे बड़ी बात यह कि अपने देश-काल की समकालीन चुनौतियों से साहित्य को जोड़ने में अगुवा की भूमिका निभार्इ। नए पैदा होते मध्यवर्ग और नवजागरण को ध्यान में रखते हुए आचार्य द्विवेदी आदर्शवाद के मानक तो सामने रखते ही हैं, साथ ही परंपरा का मूल्यांकन भी करते हैं। संस्कृत कवियों, खासकर कालिदास पर लिखे गए लेख में उन्होंने यही कार्यभार लिया और कालिदास की निरंकुशता को लक्ष्य किया। अर्थशास्त्र, समाजविज्ञान, कला आदि अन्यान्य और बहुतेरे नए विषयों पर 'सरस्वती' में लिखवाए गए लेखों ने हिंदी के ज्ञान-भंडार को न सिर्फ समृद्ध किया बल्कि हिंदी भाषा की शक्ति भी बढ़ार्इ। इस प्रकार से देखें तो अपने युग में साहित्य के कैनन बनाने में आचार्य द्विवेदी की अन्यतम भूमिका है। जहाँ तक आलोचना का प्रश्न है, इस युग से मैंने मिश्रबंधुओं के 'हिंदी नवरत्न' को विवेचना का आधार बनाया है।

आचार्य शुक्ल के पहले कैनन के लिहाज से मिश्र-बंधुओं की पुस्तक 'हिंदी नवरत्न' महत्वपूर्ण है, जिसे हिंदी की आधुनिक आलोचना की पहली किताब होने का गौरव प्राप्त है। यह किताब पहले-पहल 1910 में छपी। बाद इसके, मिश्रबंधुओं के जीवनकाल में संक्षिप्त नवरत्न को मिलाकर इस पुस्तक के दस संस्करण निकले, और हर संस्करण में मिश्रबंधु कुछ न कुछ जोड़ते-घटाते रहे। मूल नवरत्न के छह संस्करण क्रमशः सन 1910, 1924, 1928, 1937 और 1941 में निकले और नवरत्न का संक्षिप्त संस्करण पहली बार 1934 में निकला। संक्षिप्त नवरत्न के भी पीछे 1940, 1943 और 1944 में संस्करण हुए। इन संस्करणों में होने वाले परिवर्तन भी कम रोचक नहीं हैं। मिश्रबंधु ने नवरत्नों को तीन त्रयियों में बाँटा। प्रथम संस्करण में वृहत्त्रयी में तुलसी, सूर और देव रखे गए। मध्यत्रयी में बिहारी, भूषण और केशव थे और लघुत्रयी में मतिराम, चंद [चंदबरदार्इ] और भारतेंदु हरिश्चंद। इनका श्रेष्ठताक्रम भी लगभग इसी प्रकार मिश्रबंधुओं ने माना। मूल नवरत्न के 1924 वाले संस्करण में कबीर उनके कैनन में प्रवेश पाते हैं। संख्या नौ ही रहे, इस कारण दस कविरत्नों में भूषण और मतिराम को 'त्रिपाठी बंधु' नाम दिया गया। कबीर कैनन का हिस्सा कैसे बनते हैं, यह हम आगे देखेंगे।

द्विवेदीयुगीन आलोचना के कैननों पर बहस के लिए 'हिंदी नवरत्न' एक प्रातिनिधिक पुस्तक मानी जा सकती है। इसलिए नहीं कि यह पुस्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की साहित्यिक दृष्टि का प्रतिनिधित्व करती थी, वरन इससे अलग इस किताब में पारंपरिक काव्यशास्त्रीय समझ और 'आधुनिकता' के प्रतिमानों का एक द्वंद्व दिखता है। इस किताब में जहाँ एक तरफ आधुनिक, नए प्रतिमान हैं, वहीं रुचियों के स्तर पर लेखकों की रीतिकालीन समझ भी उनके आलोचनात्मक कैननों में रची-बसी है। भारतेंदु के समय से चली आ रही आलोचना में आधुनिक का पुट तो था पर तब भी कविता की भाषा ब्रज ही रही आर्इ थी। समालोचना का अर्थ मिश्रबंधु के लिए वही था जो लाला भगवानदीन ने अपनी पुस्तक 'बिहारी और देव' के मुखपृष्ठ पर अंकित किया था -

"सांची बात 'दीन' कवि कहैं, कोउ सिराय सुनि कोउ दहै।
सांची समालोचना वही, पक्षपात से दूरि जु रहै।।

आलोचना में 'सच्चार्इ' और पक्षपातहीनता की यह माँग प्रारंभिक हिंदी साहित्य की मूल्य-व्यवस्था की ओर संकेत करती है। 'देव-बिहारी विवाद' में खोजा गया यह मूल्य मिश्रबंधुओं के यहाँ भी मौजूद है। यहीं ध्यान देने की बात है कि भारतेंदु काल में पाश्चात्य समीक्षा प्रणाली का भी काफी असर भारतीय आधुनिक आलोचना को बनाने वाला साबित हुआ। उस समय में पाश्चात्य सैद्धांतिकी का काफी प्रभाव देखा जा सकता है। 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' में पोप के 'एसे आन क्रिटिसिज़्म' का अनुवाद 'समालोचनादर्श' के नाम से जगन्नाथ दास रत्नाकर ने किया। तत्कालीन प्रायः सभी पत्रिकाओं में 'बुक रिव्यू' के कालम छपने लगे। 'एसेंस', 'स्पिरिट ऑफ द टाइम', 'क्लासिक', 'पोएट ऑफ जनरल विजन' जैसी अवधारणाओं का प्रयोग होने लगा। यह बात आगे भी जारी रही। सूर की प्रशंसा करते मिश्रबंधु उन्हें 'पोएट ऑफ जनरल विजन' [2] से व्याख्यायित करते हैं। तुलसी का विश्लेषण करते हुए मिश्रबंधुओं ने आधुनिक मीमांसा का सहारा लिया। पहले अध्याय में हम देख आए हैं कि गियर्सन आदि तुलसी को किन आधारों पर विश्लेषित करते हैं। मिश्रबंधु के शब्द हैं - "...गोस्वामी जी ने सर्वसाधारण के समझने योग्य सरल हिंदी में उपदेश दिए। ...रामचंद्र का वर्णन बहुत सजीव एवं मर्यादापूर्ण किया, जिससे आपके उपदेशों का प्रभाव बहुत भारी पड़ा और सरल भाषा के कवि होने से आप उत्तर भारत के सबसे बड़े उपदेशक और चरित संशोधक हुए।" [3] ऊपर के उद्धरण में खटकने वाली पहली बात है तुलसी की भाषा के बारे में विचार। विडंबनात्मक रूप से हिंदी में बोलियों के साहित्य को अपना साहित्य कहा जाता रहा है और यहाँ तो मिश्रबंधु अवधी का नाम तक नहीं ले रहे। यह सिर्फ लिपि का मामला नहीं है क्योंकि इस तर्क के अनुसार मराठी की लिपि भी नागरी ही है। तब निश्चय ही बोलियों के ऊपर की गर्इ इन अधिकारवादी टिप्पणियों की सांस्कृतिक जड़ें नवजागरण में हैं, जहाँ समुदाय अपने आप को मजबूत बनाने के लिए बहुतेरी अलग अस्मिताओं को अपने में समाहित करने का यत्न कर रहे थे। ऐसा ही आचार्य शुक्ल ने भाषा के संदर्भ में किया। उपरोक्त उद्धरण में 'मर्यादा' शब्द भी विशेष ध्यान आकृष्ट कराता है। यह शब्द तत्कालीन भारतीय मनीषा और पश्चिमी विद्वानों को समान रूप से प्रिय है। भक्तिकाल की रीतिकाल पर श्रेष्ठता इसी शब्द की छाया में निर्मित हुर्इ। पीछे हमने देखा कि ग्रियर्सन ने भी तुलसी को कैनन में शामिल करते हुए इसी 'मर्यादा' का सहारा लिया। इस मर्यादा के अक्षांश और देशांतर क्या हैं? क्या यह प्रस्तावित किया जा सकता है कि यह मर्यादा गुलाम देश के चिंतकों की अस्मिता प्राप्त करने की छटपटाहट है? यदि यह सच हो तो भी ग्रियर्सन का प्रयोग इससे व्याख्यायित नहीं होता। तब क्या यह संभव है कि मर्यादा का गियर्सन वाला प्रयोग ही भेष बदलकर आगे तक आया हो? यही हुआ, धर्म के रास्ते बनते कैननों में शुचिताबोध से शुरू कहानी आगे बढ़ते हुए देशी अस्मिता में मर्यादा को केंद्रीय बनाने तक ले गर्इ। प्रसंगतः अंग्रेजी प्रभाव से भारतीय आलोचनात्मक कैनन प्रभावित और विकसित होने लगे। उदाहरण के लिए बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन', जोकि अपनी भाषा में पर्याप्त संस्कृतानुगामी थे, और उस लिहाज से भारतीय परंपरा के उन्नायक भी, उनकी टिप्पणी ध्यान आकृष्ट कराती है - "रिव्यू अर्थात समालोचना का अर्थ है पक्षपातरहित होकर न्यायपूर्वक किसी पुस्तक के यथार्थ गुण-दोष की विवेचना करना और उसके ग्रंथकर्ता को विज्ञप्ति देना।" [4] यहाँ आलोचना के मान के रूप में 'गुण-दोष विवेचन' को प्रतिष्ठित किया गया है। हिंदी आलोचना के लिए यह नर्इ बात थी। भले ही आचार्य शुक्ल ने 'अंतःवृत्तियों की छानबीन' के बरक्स 'गुण-दोष विवेचन' को हीन ठहराया परंतु उनका रोष मिश्रबंधुओं की नंबर गिनाने वाली पद्धति से है, रचनाकार की कमी-कमजोरी उद्घाटित करने वाली दृष्टि से कम। क्योंकि अलग-अलग पद्धतियों के बावजूद मिश्रबंधुओं के बहुतेरे विश्लेषण शुक्ल जी में मौजूद हैं। उदाहरण के लिए भक्ति आंदोलन के कारण खोजते हुए दोनों आलोचकों की स्थिति समान है। मिश्रबंधुओं ने लिखा - "धर्म पर बल प्रयोग होने से हिंदुओं को समाज संरक्षण बहुत आवश्यक समझ पड़ा, जिससे हमारी धर्म की तार्किक प्रगति भक्ति की ओर चलने लगी।" [5] अब शुक्ल जी द्वारा चिन्हित कारण से इसका मिलान कीजिए - "...जब मुस्लिम समुदाय दूर तक स्थापित हो गया ...पीछे हिंदू समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छार्इ रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?" [6]

'रिव्यू' और समालोचना के परस्पर संबंधों की छानबीन करने से पता चलता है कि नर्इ गद्य विधाओं के उपजने के साथ ही आलोचना की आवश्यकता आन पड़ी। नर्इ गद्य विधाएँ नवजागरण से उपजी थीं। नवजागरण के आने में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का हाथ था। या कहें तो ब्रिटिश उपनिवेशवाद नवजागरण के लिए अचेतन औजार था। इसी से लड़ार्इ के दौरान 'राष्ट्र' की आधुनिक संकल्पना आर्इ। पर पिछले अध्याय में हमने देखा कि कैसे 1857 के समय बना यह राष्ट्रीय बोध खंडित हुआ और हिंदी आलोचना ने एक दूसरी राह पकड़ी, जिसपर औपनिवेशिक प्रभाव भी थे। रिव्यू के ढर्रे पर समालोचना का विकास हिंदी में हुआ, ऊपर उद्धृत प्रेमघन की टिप्पणी इस ओर इशारा करती है। दूसरी बात है 'सच्चार्इ' की। तत्कालीन कर्इ आलोचकों ने इस बिंदु से आलोचना को देखने की हिमायत की है। स्वयं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के विचार इस विषय में प्रेमघन से मिलते-जुलते हैं, हालाँकि वे प्राचीन कवियों के बारे में कह रहे हैं - "प्राचीन कवियों की समालोचना करना और नेकनीयती से उसमें यथार्थ दोषों को दिखाना बुरा नहीं। इस तरह की समालोचना से कोर्इ हानि नहीं, प्रत्युत लाभ है।" [7]

मिश्रबंधुओं ने भी इसी समय-सरगम में अपनी टिप्पणी जोड़ी - "जो लोग इस विषय में अधिक समय लगा सकते हैं, उनका कर्त्तव्य है कि वे ग्रंथों के ठीक-ठीक गुण-दोष बताकर मनुष्यों की रुचियों की भी उन्नति करें।" [8] गुण-दोष विवेचन, रुचियों का परिष्कार और कर्त्तव्य, ये तीन केंद्रीय शब्द हमें तत्कालीन आलोचना के स्वरूप को समझने में मदद करते हैं। आचार्य शुक्ल ने आलोचना के संदर्भ में उपरोक्त तीनों में से मात्रा गुण-दोष विवेचन को ही चिन्हित किया, अन्य दो को अन्य साहित्यिक विधाओं पर लागू किया। प्रसंगतः मिश्रबंधुओं के कैनन के आधार उन्हीं के शब्दों में निम्नांकित थे - "कवि को कुछ कहना था या नहीं, और उसने उसे कैसा कहा है? संक्षिप्त रीति से कहने में पहला प्रश्न यों भी कहा जा सकता है कि उसका क्या संदेश है? ...यदि संदेश सबल होगा तो साहित्य गौण होकर फीका पड़ जाएगा, और यदि साहित्य सबल रक्खा जाय, तो संदेश डूब जाएगा..." [9] हिंदी की संपूर्ण साहित्यराशि में से उत्कृष्ट का चुनाव करना ही मिश्रबंधुओं का लक्ष्य था। मिश्रबंधुओं ने ये प्रतिमान स्थापित तो किए, पर समस्या क्या और कैसे के बीच तादात्म्य की थी। क्या और कैसे अर्थात विषय और कथनशैली की उत्कृष्टता का तादात्म्य कहीं वे बैठा पाते हैं और कहीं नहीं। कथ्य और शिल्प या रूप और अंतर्वस्तु के पारस्परिक संबंध मिश्रबंधुओं के लिए अव्याख्येय थे। मिश्रबंधुओं के कैनन निर्माण की प्रक्रिया में रूप और अंतर्वस्तु का यही असमाधेय द्वंद्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसे उनके पूरे 'नवरत्न' में देखा जा सकता है।

कबीर को उन्होंने नवरत्न के दूसरे संस्करण में शामिल किया। शामिल करने की वजह कबीर के कवि से अधिक उनका 'महात्मापन' था। लेकिन यही प्रतिमान तुलसी के लिए न थे। यहाँ प्रतिमान निर्धारण में कविता तत्व का भी योग था। उनके सामने प्रस्तुत प्रश्न यह था कि अच्छा धर्मोपदेश करने के बावजूद कबीर बड़े कवि क्यों नहीं हैं? उन्हीं की भाषा में इस प्रश्न को प्रस्तुत करना वरेण्य होगा - "ब्रहमानंदी एक कवि भी होता है या नहीं? ...ब्रहमानंद का उद्गार कविता में अच्छा होगा क्योंकि यह उसका माध्यम है... हिंदी नवरत्न में र्इश्वरी विचार से आप सबसे ऊँचे मनुष्य हैं, इसमें हमें संदेह नहीं। संभव है, कोर्इ अन्य महाशय गोस्वामी तुलसीदास और सूरदास को बढ़कर या इनके बराबर बतलावें। हमारी समझ में ये महात्मा लोग कबीरदास की र्इश्वर संबंधी धार्मिक उच्चता को नहीं पहुँचे।" [10] इन्हीं कबीर को 1910 वाले नवरत्न के संस्करण में सूचीबद्ध नहीं किया गया था। मिश्रबंधु अपनी तरफ से कारण देते लगते हैं कि कबीर भक्त अधिक हैं, कवि कम। और चूँकि नवरत्न काव्य में कैनन बनाने का ग्रंथ है, इसलिए महात्मापने के बावजूद कबीर कैनन में शामिल नहीं किए गए। बाद में इसी महात्मापने के कारण कबीर कैनन में शामिल हुए। ध्यान देने की बात यह है कि मिश्रबंधुओं के नवरत्न की आलोचना अन्यान्य बिंदुओं से तो की गर्इ थी पर कबीर के शामिल न होने पर किसी ने अँगुली न उठार्इ। मिश्रबंधुओं के कैनन में कबीर उनकी अपनी ही आलोचनात्मक दुविधा के कारण शामिल हुए। संदर्भतः जो बात विश्वनाथ त्रिपाठी ने नवरत्न के संदर्भ में तुलसी-सूर पर लिखी, वह उनपर तो नहीं, कबीर पर अवश्य लागू होती है - "यहाँ [नवरत्न में] तुलसी और सूर की रक्षा उनके 'महात्मापन' ने की है, कविता ने नहीं।" [11]

संदर्भतः हिंदी आलोचना और उसमें बन रहे कैननों का दिलचस्प दृश्य हम एक लोकोक्ति के माध्यम से भी देख सकते हैं। साहित्यिक कृतियों और लोक में समान रूप से दुहराया जाने वाला एक दोहा हिंदी आलोचना में प्रारंभिक कैनन निर्माण की बानगी पेश करता है -

"सूर-सूर, तुलसी शशि, उडुगन केशवदास।
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकाश ।।

यह दोहा किसके द्वारा लिखा गया, बहुउद्धृत होने के बावजूद इसके साक्ष्य मुझे नहीं मिले। जो हो, दोहे के समय के बारे में निश्चित रूप से हम यह कह सकते हैं कि यह केशवदास के समय या उनके बाद ही लिखा/कहा गया होगा क्योंकि केशव स्वयं दोहे में कवि के रूप में उद्धृत हैं। केशव का काल 1555 से 1617 तक माना जाता है। वाचिक आलोचना में स्थापित इस दोहे के काव्यात्मक कैनन में सूर प्रथम स्थान के भागीदार हैं - श्रेष्ठतम कवि। तुलसीदास, सूर के बाद आते हैं, और वरीयताक्रम में केशव का स्थान तीसरा है। आश्चर्यजनक रूप से हम हिंदी आलोचना को, प्रारंभ से ही इस दोहे में अभिव्यक्त कैनन के विरुद्ध पाते हैं। वे चाहे ग्रियर्सन हों, तासी हों, मिश्रबंधु हों या फिर आचार्य शुक्ल, यहाँ तुलसी सूर्य हैं और सूर चंद्रमा। तुलसी को कैनन में शीर्ष स्थान देने के प्रयत्न ग्रियर्सन के पहले से भी प्रारंभ हो गए थे। ऐसा क्यों हुआ? इस प्रश्न का उत्तर तो मिलता है कि तुलसी कैनन में अव्वल क्यों बनाए गए, पर सूर के पहले स्थान से अपदस्थ होने के कारण सीधे ज्ञात नहीं होते। इस के लिए हमें तुलसी को कैनन में सर्वश्रेष्ठ बनाने वाली आलोचना और उन आलोचकों के सूर संबंधी विचार देखने होंगे। पर इससे यह तो अवश्य पता चलता है कि रीतिकाल में बने कैननों से आधुनिक काल के कैनन अलग आधार पर खड़े थे।

अब फिर नवरत्न की ओर लौटें। नवजागरण संबंधी आधुनिक चिंतन पर ध्यान दें तो हम देखते हैं कि आचार्य शुक्ल का इसे गद्य काल कहना नितांत प्रासंगिक था। निश्चय ही गद्य काल कहने का तात्पर्य कविता से गद्य के परिमाण का बढ़ना न था, वरन गद्य काल एक विशिष्ट सांस्कृतिक बदलाव को भी अभिव्यक्त करता था। तात्पर्य यह कि काव्य आधारित मानक और कैननों के स्थान पर गद्य आधारित आलोचना का विकास होने लगा। साहित्य-रूपों में भारी परिवर्तन हुए। यहाँ तक कि कविता ने भी ब्रज का दामन छोड़ा और टूटी-फूटी चाल में ही सही, खड़ी बोली का रास्ता किया। गद्य के ही नहीं, कविता के समझने के मानदंड भी बदले। मिश्रबंधु कैननों में परिवर्तन के इसी संधिबिंदु पर खड़े आलोचक हैं।

मिश्रबंधुओं को एक तरफ देव की कविता में मुग्धा के भेद प्रिय हैं, कोमलता, रसिकता, सुंदरता पसंद है, वे अन्योक्ति, लोकोक्ति, स्वभावोक्ति पर निछावर हैं। अर्थात नवरत्न के कैनन में देव का स्थान पुरानी चली आ रही काव्यशास्त्रीय परंपरा के कारण है, जहाँ काव्य के रूप पक्ष के सहारे मिश्रबंधुओं ने देव आदि की कविता का विश्लेषण किया और उन्हें उच्च स्थान दिया। दूसरी तरफ उनकी दुविधा के सर्वोत्तम उदाहरण कबीर हैं जो काव्य के नाते नहीं वरन अपने महात्मापन के कारण नवरत्न में स्थान बना पाते हैं। पर ध्यान रहे, बावजूद इसके कबीर का स्थान सातवाँ ही रहा। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस द्वंद्व पर अँगुली रखी और 'सरस्वती' में नवरत्न की समीक्षा करते हुए पूछा - "...कैसी और कितनी उत्तमता के कारण आपने मतिराम को भी रत्न समझा और हरिश्चंद को भी।" [12] इस प्रश्न का एक उत्तर परोक्ष रूप से रामविलास शर्मा ने दिया। अपने रीतिवाद विरोध के एजेंडे को लागू करते हुए रामविलास जी ने अपनी किताब 'महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' में महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रशंसा करते हुए मिश्रबंधुओं के बारे में लिखा - "...उन्होंने तुलसीदास ही नहीं, सूरदास को भी रीतिवादी कवियों से अलग किया और देव, बिहारी, मतिराम आदि की तुलना में न केवल तुलसीदास, सूरदास को श्रेष्ठ बताया वरन हिंदी प्रदेश में नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद को भी उनसे ऊँचा स्थान दिया। आधुनिक हिंदी साहित्य रीतिवादी परंपरा के विरोध में, साहित्य में उसे निर्मूल करके ही विकसित हो सकता था। ...जो लोग बीसवीं सदी में रीतिवाद का विरोध कर रहे थे, उनके लिए स्वाभाविक था कि वे संत कवियों और भारतेंदु हरिश्चंद से अपना संबंध जोड़ें।" [13] यहाँ रामविलास जी परोक्ष रूप से मिश्रबंधुओें और आचार्य द्विवेदी को आमने-सामने रख अपने रीतिवादविरोध के एजेंडे को लागू कर रहे हैं। इस संदर्भ में रामविलास जी की 1943 में लिखी टिप्पणी, जो कि उनकी पुस्तक 'विरामचिह्न' के 'मिश्रबंधु और नायिका भेद' से ली गर्इ है, स्मरणीय है। यहाँ भी रामविलास जी का एजेंडा वही है, पर भाव बदले हुए हैं। अब मिश्रबंधु रीतिवाद समर्थन में उद्धृत हैं - "पल्लव की भूमिका से पहले मिश्रबंधुओं ने नायिका भेद वाले कवियों के दुर्ग पर भरपूर आक्रमण किया था। इनमें पहले लक्षण ग्रंथ रचने वालों को लीजिए। रीतिकाल में ऐसे कवियों की भरमार थी जो काव्य रचना सिखाते अवश्य थे, परंतु स्वयं किसी कारणवश अच्छी कविता न लिख पाते थे। मिश्रबंधु कहते हैं 'आँख एक भी नहीं, और कजरौटे नौ-नौ।' काव्य रीति के शिक्षक हजारों हैं लेकिन काव्य लिखने वाले ढू़ँढ़े नहीं मिलते।" [14]

यहाँ हम देख सकते हैं कि रामविलास जी ने अपने एजेंडे के लिए मिश्रबंधुओं को दो तरह से उद्धृत किया। एक जगह महावीर प्रसाद द्विवेदी की नवजागरण पुरोधा की छवि को चमकाने के लिए तो दूसरी जगह नायिका भेद के खिलाफ। कुल मिलाकर दोनों उद्धरणों को सामने रखकर देखा जाए तो स्पष्ट है कि 'अंतःवृत्तियों की छानबीन' से अधिक रामविलास जी रीतिवाद विरोध से संचालित हैं। यहाँ उस प्रश्न पर फिर लौटें जहाँ महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मिश्रबंधुओं से हरिश्चंद और मतिराम को एक ही कैनन में रखने के पीछे के तर्क कर प्रश्न उठाया था। द्विवेदी जी के प्रश्न से एक और प्रश्न उभरता है। वह यह कि क्या हिंदी काव्य का कोर्इ कैनन रीतिकाल को बाहर रखकर बनाया जा सकता है। कविता का एक युग उत्कृष्ट काव्य की श्रेणी से क्या बाहर निकाला जा सकता है? क्या यह इतिहास में 'बहिष्करण' की उस बहस की याद नहीं दिलाता, जिसमें समूचे मध्यकाल को 'अंधकार युग' कह कर बहिष्कृत किया गया। तर्कशः इसका उत्तर नवजागरण के कारण बदली हुर्इ चेतना को जिम्मेदार मानना है, पर इस चेतना का अपना स्वरूप क्या इतना विकसित था कि वह भारतीय साहित्य का कैनन बना सके? यह एक बढ़ा हुआ प्रश्न लग सकता है पर हमने देखा कि औपनिवेशिक ज्ञान ने हमारी अपनी मेधा में सत्तातंत्र के सहारे घुसपैठ की थी। दूसरी तरफ रीतिकाल कोर्इ एकआयामी परिघटना नहीं है। वहाँ यदि 'छाती छैल छुवाइ' वाली कविता है तो 'देखि दुपहरी जेठ की' भी है। ऐसा कैसे संभव है कि एक-ब-एक कोई साहित्यिक परंपरा पूरी तरह नष्ट बता दी जाए और विदेशी आक्रमण के फलस्वरूप 'आधुनिकता' का प्रणयन हो जाए? इस तर्क विन्यास से भक्तिकाल के उदय का शुक्ल जी द्वारा दिया गया तर्क अधिक संगत होगा कि परंपरा से अधिक प्रभाव आक्रमण डालते हैं। आश्चर्यजनक रूप से शुक्ल जी के इस तर्क के खारिज होने के बावजूद महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रखर रीतिवाद विरोध को आधुनिकता की कसौटी के रूप में आज भी देखा जाता है।

भारतेंदु और भूषण एकदम अलग कारणों से नवरत्न में शामिल हैं। सर्वाधिक 'आधुनिक' कारणों से। इनको नवरत्न में शामिल करने का आधार इनके द्वारा किया गया 'जातीय गौरव का वर्णन' है। निष्कर्षतः हम देख सकते हैं कि 'क्या कहा' और 'कैसे कहा' के द्वंद्व के आधार हैं जो कि कैनन निर्माण की प्रक्रिया में भूमिका निभाते हैं। यहाँ हम रीतिकालीन काव्यशास्त्रीय दृष्टि और नवजागरण के द्वंद्व को भी लक्षित कर सकते हैं। विश्लेषण से हमने देखा कि मिश्रबंधु तीन आधारों पर अपने कैनन बनाते हैं - क. क्या कहा गया है ख. कैसे कहा गया है ग. कब कहा गया है। वे कवि जो इन तीनों प्रतिमानों पर खरे उतरते हैं नवरत्न में ऊपर हैं। यहाँ तीसरा आधार एकदम नया है। नवजागरण काल के आधुनिक कैननों को ध्यान में रखा जाय तो हम पाएँगे कि अंतर्वस्तु की प्राथमिकता ही नए रूप लेकर आ रही थी। देश की अवधारणा और स्वाधीनता आंदोलन के कारण आलोचना के कैननों में अंतर्वस्तु और जोर पकड़ रही थी। यह अंतर्वस्तु निश्चय ही अपने समय से निर्धारित थी जिसके कारण 'जातीयता' जैसे मूल्य केंद्र में आए।

ऐतिहासिक रूप से मिश्रबंधु जिस युगसंधि पर खड़े थे, वहाँ से मुसलमान और मुस्लिम राज के बारे में उनके विचार ध्यान देने लायक हैं। तुलसी के प्रकरण में मिश्रबंधु लिखते हैं कि - "ऐसा कौन हिंदी अक्षरों का ज्ञान एवं हिंदी, हिंदू, हिंद से कुछ भी संबंध रखने वाला हतभाग्य पुरुष होगा जो महात्मा तुलसीदास जी महाराज के नाम, यश और पीयूषवर्षिणी कविता से थोड़ा बहुत परिचित न हो?" [15] इस उद्धरण से पता चलता है कि कविता पढ़ने के पीछे मिश्रबंधुओं के समय तक 'जातीयता' एक आधार की तरह काम करने लगी थी। भारतेंदु ने 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' शीर्षक बलिया वाले भाषण में जो सूत्र छोडे़ थे और जिसमें उपनिवेशवादविरोध विन्यस्त है, को आगे बढ़ाते हुए मिश्रबंधुओं ने आलोचना में वही 'धर्म, भाषा और राष्ट्र' का त्रिक स्थापित किया। ऐतिहासिक विकासक्रम में हमने देखा कि कैसे 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों' ने इस त्रिक का उपयोग किया। कहने का तात्पर्य यह तो कतर्इ नहीं है कि इसी पुरानी सांस्कृतिक परंपरा का बढ़ाव 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' है, वरन प्रयत्न यह है कि नवजागरण के मुख्य चरित्र की तथ्यात्मक पड़ताल की जाए, जिससे आलोचना के प्रारंभिक कैननों का आधार स्पष्ट हो सके।

राष्ट्रीय जागरण या 'राष्ट्र' बनने की परिघटना में धर्म का तत्व भी प्रभावी था। निश्चय ही यह 'धर्म' मध्यकालीन धर्म की अवधारणा से अलग था। मध्यकाल में धर्म और राज्य का हमारे अपने देश में एक हद तक अलगाव दिखार्इ देता है। जबकि 'राष्ट्र' निर्माण के बाद यह सरणि और मजबूत होनी चाहिए थी, इसका उल्टा हुआ। हमारे देश में आने वाली पूँजी बरास्ते उपनिवेशवाद आ रही थी, ऐसी पूँजी से यह आशा करना कि वह उत्पादन के संबंधों या साधनों में आमूल बदलाव का कार्यभार लेगी, असंभव था। इस पूँजी ने पुराने उत्पादन संबंधों से लड़ने की बजाय उनसे समझौता कर लिया। तब इस तालमेल के सांस्कृतिक निहितार्थ भी सामने आए। धर्म की यह बदली हुर्इ भूमिका थी, जो मध्ययुग के धर्म के बरक्स अपने को व्याख्यायित-संगठित कर रही थी। इस सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी आलोचना की पहली किताब के लेखकों के विचार ध्यान देने योग्य हैं, जो उन्होंने 'हिंदी नवरत्न' में तुलसीदास के आविर्भाव वाले प्रकरण पर लिखे हैं - "...उस समय भारतीय धार्मिक विश्वासों की दशा कुछ अवांछनीय थी। मुसलमानों ने एकेश्वरवाद पर पूर्ण श्रद्धा प्रकट करके भारतीय दार्शनिक विचारों में कुछ नवीनता-सी उपस्थित कर दी थी। प्राचीनकाल में हमारे यहाँ एकेश्वरवाद पूर्णरूप से दृढ़ था, किंतु पीछे से बौद्ध-त्रिरत्न के जोड़ पर हमारे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के विचारों ने इसमें कुछ गड़बड़ कर दी थी। इन्हीं बातों से राह भूलकर इन्हें तीन देवता मानने लगी और आदि शक्ति को भी पृथक देवी समझ बैठी। इस प्रकार हिंदू-मुसलमानों का एक धार्मिक विभ्राट था। ...इसे मिटाने को महात्मा कबीरदास का प्रादुर्भाव, जिन्होंने एकेश्वरवाद का सच्चा उपदेश दिया और हिंदू-मुसलमानों की एकता दिखलार्इ। यदयपि महात्मा कबीरदास ने पूरे तौर पर निर्गुण ब्रह्म का कथन न करके प्रेम भाजन तथा पुकार सुनने वाले र्इश्वर का उपदेश दिया, तथापि उनके र्इश्वर में निर्गुणता का अंश विशेष था, और सगुणोपासना का थोड़ा या कुछ भी नहीं। अतएव परमोच्च एवं परमोपयोगी होने पर भी महात्मा कबीरदास की शिक्षा जनता के लिए वैसी लाभदायक नहीं हुर्इ। महात्मा तुलसीदास कबीर साहब से प्रायः पचास वर्ष पीछे हुए। आपने हिंदू-मुसलमानों के मतों में ऐक्य पैदा करने का विचार छोड़कर केवल हिंदुओं की सब शाखाओं के एकीकरण का प्रयत्न किया।" [16]

इस किंचित लंबे उद्धरण में मिश्रबंधु के उलझे हुए ख्याल साफ-साफ दिखते हैं। अपनी सांस्कृतिक जड़ों को अपने वर्तमान के दबावों में परिभाषित करने की मंशा भी यहाँ रेखांकित की जा सकती है। मिश्रबंधुओं की विचार प्रक्रिया देखिए - हमारे यहाँ पहले एकेश्वरवाद था, बौद्धों ने इसे बिगाड़ा, अर्थात जनता को गुमराह किया। और आगे इसी एकेश्वरवाद के जरिए मुसलमान आए। उन्होंने भी एकेश्वरवाद के जरिए हिंदूपन को नुकसान पहुँचाया। पीछे हम देख आए हैं कि तासी इसी एकेश्वरवाद के नुक्ते से हिंदुओं के खिलाफ मुसलमानों और र्इसार्इयों की दोस्ती का फार्मूला दे रहे थे। यह एकेश्वरवाद ही मुश्किल गुत्थी है जिसे मिश्रबंधु, कबीर के जरिए हल करने की कोशिश करते हैं पर कबीर उनके कैनन में नहीं हैं। उनके कैनन में हैं तुलसी। यहाँ कबीर किन गुणों के लिए प्रशंसित हैं? वे मिश्रबंधुओं के कैनन में हिंदू धर्म के सामने आर्इ नर्इ एकेश्वरवादी चुनौती से लड़ने के लिए उपस्थित हैं। यह वे नहीं कर पाते हैं। उनकी असफलता बताते हुए मिश्रबंधु अपने ही तर्कों में उलझ जाते हैं। उनके अनुसार कबीर इसलिए 'जनता के लिए लाभदायक' न हो पाए क्योंकि उनके 'र्इश्वर में निर्गुणता का अंश विशेष' था। जबकि प्राचीन हिंदुस्तानी गौरव के वर्णन के क्रम में पहले वे एकेश्वरवाद को इसी जमीन की उपज बता चुके हैं और बौद्धों को इस गौरवशाली एकेश्वरवाद के विनाश के लिए कोस चुके हैं। अपना एकेश्वरवाद अच्छा था और मुसलमानों का बुरा, यही वदतोव्याघाती ध्वनि इस उद्धरण से निकलती है। अब मिश्रबंधुओं के अनुसार सगुणोपासना, जिसके कारण तुलसी प्रिय कवि बनते हैं, की ऐतिहासिक जड़ बौद्ध हैं, तो उनसे विरोध कैसे संभव है। कुल मिलाकर मिश्रबंधु मानते हैं कि चली आ रही महान भारतीय परंपरा में मुसलमानों ने आकर गड़बड़ी पैदा की और तुलसी ने ऐसे समाज को पुनर्मयादित और व्यवस्थित किया।

इसी प्रकरण में मिश्रबंधुओं ने आगे लिखा - "...मुसलमान काल में वह समय बहुत ही अच्छा और शांतिपूर्ण माना जाता है किंतु उसमें भी गोस्वामी जी भूप को 'न कृपालु चित' तथा 'भूमिचोर' कहते हैं जिससे समझ पड़ता है कि हिंदू प्रजा को उस समय भी सुख न था।" [17]

यहाँ यह उद्धरण नवजागरण की सारी शक्ति और सीमा लिए खड़ा है। राजा को भूमिचोर और अकृपालु चित कहने के पीछे का क्या पाठ होगा? मिश्रबंधु तुलसी की इस व्यथा को भिन्न सामाजिक आधार पर खड़े होकर समझ रहे थे। उभरते मध्यवर्गीय मन, जिसमें अस्मिताएँ ही पहचान का मुख्य रूपक थीं, के आधार पर मिश्रबंधुओं ने तुलसी का पाठ प्रस्तुत किया न कि किसान और भूमि के सवाल पर त्रस्त जनता के दृष्टिकोण से। मुगल राजशाही के समय किसान जीवन के एक बड़े कवि की रचना में आया दुख तो मिश्रबंधु समझ लेते हैं पर उसे धर्म के उनके समकालिक विमर्श में संकुचित भी कर देते हैं। इस तरह तुलसी के काव्य में व्यक्त किसान का दुख हिंदू प्रजा का दुख बनकर रह जाता है। यह पाठ मिश्रबंधुओं के बाद आचार्य शुक्ल द्वारा किए गए जायसी के पाठ की याद दिलाता है। आचार्य शुक्ल ने भी पद्मावत का पाठ करते हुए जायसी के सामान्य जीवन के कवि होने को रेखांकित किया है। 'हौं बिन नाह, मंदिर को छावा' की व्याख्या में नागमती के रानीपने को भूल जाने को वे चिन्हित करते हैं और निष्कर्ष निकालते हैं कि जायसी सामान्य हिंदू स्त्री के दुख को व्यक्त कर रहे हैं। यह 'हिंदू स्त्री', आम औरत नहीं है, इसमें धर्म आधारित बँटवारा है। मिश्रबंधुओं के विचार इस संदर्भ में शुक्ल जी को प्रभावित करते हैं। प्रसंगतः उपनिवेशवादविरोध और राष्ट्र की सचमुच गहरी चिंताओं के बीच उस दौर में अस्मिताओं की भी रचना हो रही थी। अस्मिताओं का वाहक यही मध्यवर्गीय मन हमारे नवजागरण के केंद्र में स्थित है।

जातीय अस्मिता की खोज अपने सर्वांग रूप में मिश्रबंधुओं के समय की प्रमुख खोज है। इस लिहाज से अपने साहित्य की पड़ताल लगभग सभी तत्कालीन लेखकों ने की। इसी पड़ताल की उपज हैं भूषण। भूषण की कविता लोकप्रिय तो थी, पर भूषण साहित्यिक कैनन के भीतर इस खोज के रूप में ही आए। मिश्रबंधुओं के शब्दों में - "भूषण में जातीयता का एक भारी गुण है। इन्हें हिंदू जाति का जितना ध्यान और अभिमान था, उतना हमने भारतेंदु के अतिरिक्त हिंदी के किसी भी दूसरे महाकवि में नहीं पाया। ...वास्तव में इनकी कविता के नायक एक प्रकार से न शिवाजी हैं, न राव बुद्ध हैं, न अवधूतसिंह, न शंभाजी हैं, न साहू जी : इनके सच्चे नायक हैं हिंदू। ...भारत में उस काल स्वराज स्थापना का प्रचुर प्रयत्न हो रहा था। आपने उमंग वृद्धि द्वारा उस कार्य में अनमोल सहायता पहुँचार्इ। ...संयत कथन करके भी आप जातीयता के विवर्धक हुए।" [18] भूषण के संदर्भ में राजा वाले, भूमिचोर और अकृपालु चित वाले गुण मिश्रबंधुओं को नहीं दिखार्इ देते हैं क्योंकि भूषण उनके यहाँ राजा नहीं वरन मुस्लिम राज के विदेशी वर्चस्व के खिलाफ लड़ने वाले जातीय नेता हैं। और यह जातीयता भारतेंदु को जातीय नेता के बतौर भी स्थापित कर रही थी।

इस आलोक में हम देखते हैं कि मिश्रबंधु हिदी आलोचना में कैनन निर्माण की एक ऐसी प्रक्रिया के बीचोबीच खड़े हैं, जहाँ आलोचना का सारतत्व उपनिवेशवादविरोध है। मिश्रबंधु हिंदी आलोचना और काव्यशास्त्र के उस पहलू में प्रशिक्षित हैं जहाँ काव्य रीति और काव्य गुणों की चर्चा है। इसलिए वे अपने कैनन का निर्माण करते हुए रीतिकाल के कवियों को उसमें शामिल करते हैं। दूसरी तरफ चूँकि आधुनिकता और नवजागरण के आगमन से ही आलोचना का जन्म हुआ, इसलिए वे चिंताएँ, राष्ट्र की चिंताएँ भी उनकी आलोचना-दृष्टि का अभिन्न हिस्सा हैं। आगे हम देखते हैं कि यह उपनिवेशवादविरोध भी अलग-अलग धाराओं में बँटा हुआ है, सो मिश्रबंधु भी विशिष्ट वर्गीय दृष्टि से उपनिवेशवादविरोधी हैं। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सुधारपरक राजनीति ही तत्कालीन उपनिवेशवादविरोध की मुख्यधारा है। हिंदी आलोचना के इस शैशवकाल में हम देखते हैं कि कैनन निर्माण की प्रक्रिया में राष्ट्र एक महत्वपूर्ण आधार है।

संदर्भ :

1. बदरी नारायण चौधरी का लेख, हिंदी आलोचना का विकास, नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, 1981, पृष्ठ 16 से उद्धृत

2. देखें - हिंदीनवरत्न : हिंदी आलोचना की पहली किताब, गोपाल प्रधान, स्वराज प्रकाशन, 2009 का प्रथम अध्याय, पृष्ठ : 8-11

3. वही, पृष्ठ : 16

4. हिंदी आलोचना का विकास, नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, 1981, पृष्ठ : 26

5. संक्षिप्त नवरत्न, मिश्रबंधु, गंगा ग्रंथागार, दसवाँ संस्करण, 1965, पृष्ठ : 5

6. हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, सं. 2050, पृष्ठ : 34

7. द्विवेदीयुगीन हिंदी आलोचना, हिंदी साहित्य का वृहद् इतिहास, नवाँ भाग, विष्णुकांत शास्त्री, पृष्ठ : 134

8. संक्षिप्त नवरत्न, मिश्रबंधु, गंगा ग्रंथागार, दसवाँ संस्करण, 1965, पृष्ठ : 17-18

9. हिंदी-नवरत्न अर्थात् हिंदी के नव सर्वोत्कृष्ट कवि, मिश्रबंधु, गंगा पुस्तकमाला, 1987, पृष्ठ : 31

10. वही, पृष्ठ : 420

11. हिंदी आलोचना, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, 2010, पृष्ठ : 33

12. सरस्वती, भाग 13, संख्या 1, जनवरी-फरवरी, 1912, पृष्ठ : 74

13. महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, 1977, पृष्ठ : 275

14. हिंदी-नवरत्न : हिंदी आलोचना की पहली किताब, गोपाल प्रधान, स्वराज प्रकाशन, 2009, पृष्ठ : 100

15. हिंदी-नवरत्न अर्थात् हिंदी के नव सर्वोत्कृष्ट कवि, मिश्रबंधु, गंगा पुस्तकमाला, 1987, पृष्ठ : 36

16. वही, पृष्ठ : 56-57

17. वही, पृष्ठ : 42-43

18. वही, पृष्ठ : 287-288


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हिंदी समय में मृत्युंजय की रचनाएँ