एक उपक्रम
कि टायर के नीचे न दबे ...बच जाए वह जीव
कुछ यूँ महँगा पड़ा
कि चोटें आई ...और मैं सरेराह गिर पड़ा
झल्लाहट कुछ और ज्यादा
कि सड़क पर चक्कर काटता वह जीव ...गलीज
...छछूंदर जाना!!
छिः...
रात का समय
खैर! उठा... सँभला ...बाईक स्टार्ट की...
अरे यह क्या...? रोशनी में देखा ...ठिठका
थोड़ी दूर पर पड़ी है एक अन्य लाश
सखा हो शायद
कि कोई अभी ही कुचल गया है जाने... अनजाने
और शायद तब से ही जारी है सिलसिला
शव के इर्द गिर्द अंधाधुंध चक्करों का
पता नहीं...
मेरी नींद क्यों खामोश खड़ी है आज
जबकि मैं मनुष्य हूँ