अब हमें चलना चाहिए
कहा होता...
कोई अनापेक्षित आया सघन मोड़
माँगता है हमसे हमारा कवच
कि अब हमें व्यक्तिगत अभिलाषाओं के पंख उतार लेने चाहिए
मगर उससे पहले
हमें बैठना चाहिए था आखरी दफे
आखरी दफे...
कि लौटकर न आने के शाश्वत नियम के अधीन
कोई प्राण निकल जाता है देह से
तुम बेहतर जानते तो थे
कि हमें स्वार्थी जीव-सा
पानी को दूषित करना स्वीकार न था कभी
फिर ये वंचना ?
महज एक प्रश्न ही तो है तुम्हारे तईं
पर समाहित है इसमें युगों की प्यास
कि कोई अशेष जलराशि इसे तृप्त कर दे ...मुश्किल है
काल बीत चुका है
अब तुम्हारे प्रत्युत्तर की गूँज तुम ही सुन पाओ शायद
कि कोई कैसे करे हमारा तर्पण
यह भी एक प्रश्न बाकी रहेगा तुमसे