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कविता

चौड़ी होती लकीरें

राहुल कुमार ‘देवव्रत’


यही ज्यादा सही होगा
कि काल को दो भागों में बाँटा जाए

तुमसे पहले...
तुम्हारे बाद...

दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है
भाग्य की खींची ये बँटवारे की लकीर
जैसे फैलकर निगल जाना चाहती है दोनों छोर

कि उसे एक यात्रा पूरी करनी है
उतरती नदी का नाद सुनना है

सारे रंग उतार वैधव्य स्वीकारा है लकीरों ने
कि इस वैधव्य को अचल अहिवात का शाप लगा है

फिर कोई दिन ढलने लायक न बचेगा
और मुझे इस शाप के साथ जीना होगा


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