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कविता

उत्तर आदमी और मैं

पंकज चौधरी


आज जब आदमी
रीढ़विहीनता का पर्याय-सा हो गया हो
और मेरी रीढ़ प्रत्‍यंचा की तरह तनी हुई हो
तो क्‍या यह कम है

आज जब आदमी के लिए
झूठ बोलना अनिवार्य-सा हो गया हो
और मुझे बगैर सच बोले खुशी नहीं मिलती हो
तो क्‍या यह कम है

आज जब आदमी
अपनी जमीर को अंग निकाला दे चुका हो
और मेरे लिए अपनी जमीर ही सोना-चाँदी हो
तो क्‍या यह कम है

आज जब आदमी
पहले से ही सर झुकाए खड़े हों
और मेरे सर अभी भी उठे हुए हों
तो क्‍या यह कम है

आज जब आदमी
विचारों को अपने भाषणों तक ही सीमित रखता हो
और मैंने उसे ओढ़ना-बिछौना बना लिया हो
तो क्‍या यह कम है

आज जब आदमी
भीगी बिल्‍ली बन चुका हो
और मैं हूँ कि शेर की तरह दहाड़ रहा हूँ
तो क्‍या यह कम है

आज जब आदमी ने
अपने ईमान को सूली पर टाँग दिया हो
और मैंने अपने ईमान को डंडा बना लिया हो
तो क्‍या यह कम है

और आज जब आदमी
उत्‍तर आदमी हो गया हो
और मैं और आदमी
तो क्‍या यह कम है।


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