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लेख

आचार्य विनोबा भावे की श्रम-दृष्टि

डॉ. शंभू जोशी


आचार्य विनोबा भावे स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेता, विद्वान, शिक्षाविद एवं सर्वोदयी विचारक थे। उनके विचारों की आधारभूमि समृद्ध भारतीय ज्ञान परंपरा के विस्तृत एवं गहन अध्ययन में निहित है। वह हिंदी, मराठी, संस्कृत, गुजराती, बंगाली, अँग्रेजी, फारसी, फ्रेंच आदि भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने गांधीजी द्वारा प्रस्तुत सर्वोदय विचार को एक सुव्यवस्थित दर्शन के रूप में स्थापित किया। समाज, संस्कृति, भाषा, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, राजनीति आदि विषयों पर उन्होंने अधिकारपूर्ण लेखन किया है। गांधी-विचार के व्याख्याता एवं उसे विकसित करने में विनोबा भावे का अद्वितीय स्थान है। उन्हें गांधीजी का 'आध्यात्मिक उत्तराधिकारी'1 भी कहा जाता है। गांधीजी ने एक अहिंसात्मक समाज की रचना के लिए प्रयत्न करते हुए रचनात्मक कार्यक्रमों और विभिन्न संस्थाओं की स्था‍पना की। राजनीतिक आजादी की प्राप्ति के बाद भी सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता की चुनौती सामने थी। विनोबा ने इस शेष काम को पूरा करने का प्रयास किया। जमीन की असमानता दूर करने हेतु भूदान आंदोलन चलाया।2 विनोबा ने एक जातिविहीन, वर्गविहीन और राज्यवि‍हीन समाज - या कहना चाहिए अहिंसक समाज - का स्वप्न देखा और उसे प्राप्त करने के निम्नलिखित तरीके बताए -

1. भूदान

2. संपत्तिदान

3. श्रमदान

4. बुद्धिदान

5. प्रेमदान3

गांधीजी की तरह विनोबा का भी आजीवन लक्ष्य एक अहिंसक समाज की स्थापना और उसके लिए अनवरत प्रयास था। विनोबा अपने गहन अध्ययन एवं नवीन व्याख्या से इसे एक दार्शनिक आधार भी प्रदान करते हैं। उनके समस्त वैचारिक दर्शन की आधारभूमि 'अद्वैत' में है। विनोबा यह मानते हैं कि यह सृष्टि ब्रह्म की अभिव्यक्ति है। ब्रह्म का अर्थ होता है जो निरंतर विकसनशील हो। अतः यह ब्रह्म हर तत्व में उपस्थित है। सभी में विद्यमान इस ब्रह्म तत्व के एकात्म को जानना ही आध्यात्म/आत्मज्ञान है। सृष्टि से एकत्व की अनुभूति ही आत्मज्ञान है। चूँकि सभी में एक ही तत्व विद्यमान है अतः वैयक्तिक मुक्ति व्यर्थ है। अद्वैत की अपनी नवीन व्याख्या करते हुए विनोबा उसे वैयक्तिक दर्शन से सार्विकता का दर्शन बना देते हैं जहाँ अन्य की मुक्ति में ही हमारी मुक्ति संभव हो जाती है। शंकराचार्य के दर्शन पर अपने विचार व्यक्त‍ करते हुए वह अद्वैत की निम्नलिखित व्याख्या करते हैं -

"अद्वैत अर्थात् प्रेम की परिसीमा। यह सारा जगत मेरा ही रूप है, यह अद्वैत की भूमिका है...। इसीलिए अद्वैतानुभूति की साधना प्रेम के और भूतदया के विस्तार की ही साधना रहेगी।"4

यहाँ विनोबा अद्वैत की व्याख्या में प्रेम और भूतदया के विस्तार की बात कहकर एक तरह से अहिंसा को ही स्थापित कर रहे होते हैं। जगत में सभी के लिए प्रेम और इस प्रेम के विस्तार का निरंतर विकास व्यावहारिक तौर पर अहिंसा के माध्यम से ही संभव है। भूतदया के विस्तार का अर्थ 'स्व' का विस्तार और 'पर' का स्वीकार एवं समानुभूति है। एकत्व के सिद्धांत का आचरण में प्रयोग अहिंसा से संभव है अतः एकत्व की अनुभूति ही आध्यात्म की अहिंसक प्रक्रिया हो जाती है। अतः विनोबा सप्रयास धर्म के स्थान पर आध्या‍त्म शब्द का प्रयोग करते हैं।

विनोबा अपने सर्वोदय दर्शन में पाँच प्रकार की निष्ठाओं5 का उल्लेख करते हैं -

क्र.सं.             निष्ठा                                           अर्थ

1. निरपेक्ष नैतिक मूल्यों में निष्ठा - सत्य, प्रेम, करुणा इत्यादि शाश्वत नैतिक तत्वों पर श्रद्धा होनी चाहिए।

2. प्राणिमात्र की एकता और पवित्रता - समस्त प्राणि एक समान और सम्माननीय हैं।

3. मृत्यु के बाद जीवन की अखंडता - मृत्यु से जीवन बाधित नहीं होता, जीवन उसके बाद भी है। जीवन किसी-न-किसी रूप में बना रहेगा। जीवन अखंड है।

4. कर्म-विपाक - जीवन की अखंडता के कारण हर व्यक्ति के कर्म का प्रभाव उससे प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष तौर से जुड़े अन्य व्यक्तियों पर भी अनिवार्य रूप से पड़ेगा। अतः हर व्यक्ति को कर्मशुद्धि का पालन करना चाहिए।

5. विश्व में व्यवस्था है अर्थात रचना है, बुद्धि है - इस विश्व, में एक सुनिश्चित, विवेकपूर्ण व्यवस्था है। इसी व्यवस्था के नियम को जानना विज्ञान है।

विनोबा के अनुसार सर्वोदय के लिए इन पाँच निष्ठाओं में विश्वास जरूरी है। वह सर्वोदय दर्शन के जरिए समाज में अभेदपरक क्रांति की उद्घोषणा करते हैं। विनोबा के अनुसार सर्वोदय का उद्देश्य है - "अहिंसा और सत्य के आधार पर ऐसे वर्ग विहीन और जातिविहीन समाज की स्थापना करना, जिसमें कोई भी किसी का शोषण नहीं कर सकेगा और जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास के अवसर तथा साधन उपलब्ध होगें।"6 स्वयं विनोबा ने अपनी विचारधारा के चार मुख्ये अंग बताए हैं7 -

1. साम्ययोग (उद्देश्य)

2. समन्वय (तत्वज्ञान)

3. सर्वोदय (सामाजिक और आर्थिक ध्येय)

4. सत्याग्रह (पद्धति)

यह उनके समस्त विचारों को जानने की मूल कुंजी है जिसमें सत्याग्रह समस्त विरोधों में समन्वय कराकर व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समता स्थापित कर सकेगा जिससे साम्ययोग की स्थापना होगी। एक समाज विज्ञानी की तरह वह समाज परिवर्तन की चार प्रक्रियाएँ बताते हैं8 -

1. हृदय-परिवर्तन

2. परिस्थिति परिवर्तन

3. विचार-परिवर्तन

4. सेवा-कार्य

उनके अनुसार हृदय-परिवर्तन ईश्वर करता है। परिस्थिति-परिवर्तन समाज करता है। विचार-परिवर्तन चिंतक और विचारक करते हैं और सेवा-कार्य सेवक करते हैं। सर्वोदय दर्शन की प्रविधि को स्पष्ट करते हुए वह व्यक्ति के हृदय-परिवर्तन और समाज के ढाँचे को एक साथ बदलने की बात कहते हैं क्योंकि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से अविभाज्य हैं। इस परिवर्तन में वह 'शरीर-श्रम' की महत्वपूर्ण भूमिका बताते हैं।

महात्‍मा गांधी की तरह विनोबा को भी शरीर-श्रम में अटूट श्रद्धा थी। विनोबा के लिए अध्यात्म महत्वपूर्ण है परंतु शरीर-श्रम से छुटकारा उन्हें स्वीकार्य नहीं है -

"मैं केवल वैचारिक या आध्यात्मिक श्रम से संतुष्ट नहीं हो सकता। आध्यात्मिक के साथ ही शारीरिक श्रम भी चाहिए।"9

"अध्यात्म विद्या के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल और सबसे ज्यादा नजदीक अगर कोई चीज है तो वह है उत्पादक शरीर परिश्रम, ऐसा मैं अपने अनुभव से जाहिर करना चाहता हूँ।"10

इसे स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं कि शरीर-श्रम के जरिए हम प्रकृति एवं समाज से जुड़ते हैं इन सबकी सेवा करते हैं और जो परिणाम मिलता है उसे समाज को अर्पित करते हैं और समाज से जो फल मिलता है उसे ग्रहण करते हैं। यह प्रक्रिया आध्यात्म के लिए साधक है और आसन-प्राणायाम की तुलना में ज्यादा मददगार है। विनोबा की यह व्याख्या क्रांतिकारी इसलिए है कि उनके लिए आध्यात्म की साधना समाज से पलायन या एकांत में स्वयं सिद्धी की साधना नहीं बल्कि शरीर-श्रम के माध्यम से दैनंदिन जीवन की समस्या‍ओं का निवारण कर समन्वय स्थापित करते हुए एकात्म की साधना है। अद्वैत और जनसेवा को एक साथ शामिल कर वह कहते हैं -

"अद्वैत और जनसेवा दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। अद्वैत का प्रकाश जनसेवा के रूप में भलीभाँति प्रकट होता है। जनसेवा से अद्वैत का प्रकाश फैलता है, तो अद्वैत से जनसेवा को आधार मिलता है।"11

यही दृष्टि विनोबा को विशिष्टता एवं मौलिकता प्रदान करती है। वह आध्यात्मिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक आदि आवश्यकताओं और उन्नयन के लिए इन सभी की आपसी अंतक्रिया को संगठित करते हैं। इन्हें एक-दूसरे से विभाजित नहीं करते अपितु एक-दूसरे को साध्यि प्राप्त (उन्न‍यन) का साधन बनाते हैं - "सामाजिक योगक्षेम के लिए श्रम जरूरी है और अपनी साधना के लिए भी जरूरी है। उत्पादक शरीर-श्रम का अर्थ है सृष्टि के साथ एक रूप होना। ...तत्व सिद्धांत के तौर पर शरीर-श्रम यानि कुदरत के साथ पूरा-पूरा संपर्क, एक रूप होने की शक्ति और जनता के जीवन के साथ समरस होने की, सहृदय होने की कोशिश।"12

यहाँ शरीर-श्रम के संबंध में विनोबा उसे एकत्व की साधना का पर्याय बना देते हैं। जहाँ गांधीजी बोंडारेफ, टॉलस्टॉकय, रस्किन, गीता के जरिए शरीर-श्रम की अवधारणा को परिपुष्ट करते हैं; वहीं विनोबा अपने देशज साहित्य के अध्ययन एवं उसकी नवीन व्याख्या के जरिए उसे परिपुष्ट करते हैं। इसके साथ ही वह अद्वैत की दार्शनिक परंपरा का समन्वय समाज की समस्याओं के निराकरण के प्रमुख उपाय शरीर-श्रम से कराते हैं। एक ऐसे समाज में जहाँ धर्म जीवन की प्रमुख प्रेरणा के रूप में अपनी उपस्थिति रखता हो वहाँ उसका रूपांतरण शरीर-श्रम की अवधारणा में करना और उसे अद्वैत रूपी साध्य की प्राप्त के साधन के रूप में आम जनता की भाषा में समझाना, विनोबा की अद्वितीय देन कही जा सकती है। यह देन वैचारिकी स्तर के साथ-साथ व्यावहारिक जीवन में प्रयोग रूप में भी उपस्थित रही है।

विनोबा इस श्रम-निष्ठा को न केवल भारत अपितु समस्त विश्व के लिए अनिवार्य मानते हैं।13 उनके अनुसार शरीर-श्रम से ही एक नवीन समाज की स्थापना मुमकिन हो सकती है - "मेरी पक्की राय है कि भावी जगत के धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक विचारों की ओर जीवन की बुनियाद शरीर परिश्रम व्रत ही हो सकता है। मैं शरीर परिश्रम नहीं कह रहा लेकिन शरीर परिश्रम व्रत कह रहा हूँ। दुनिया में आज भी सर्वसाधारण जनता प्रायः शरीर परिश्रमी ही है लेकिन वह स्वेच्छा से नहीं, विचार से नहीं, अगतिक होने से है। …मैं मानता हूँ ग्राम सेवा का, अर्थशुचित्व का, ब्रह्मचर्यादि ब्रतों का सामाजिक आधार इसी पर है।" 14

उनके अनुसार शरीर-श्रम विचार में यह संभावना निहित है कि वह एक समतामूलक समाज की आधारशिला के रूप में प्रतिष्ठित हो सके। उसके जरिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक जीवन के साथ-साथ धार्मिक जीवन का रूपांतरण भी संभव है। भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में वह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि शरीर-श्रम समाज में विद्यमान विभिन्न भेदों को समाप्त करने का सशक्त उपाय है। वह स्पष्ट करते हैं कि दुनिया के दुखों का मूल कारण स्वयं शरीर परिश्रम टालना और दूसरे के श्रम का लाभ उठाने की प्रवृत्ति है। मनुष्य मालिकी इसलिए चाहता है कि वह दूसरों के परिश्रम से जीना चाहता है। दूसरे श्रम करे और उस श्रम का ज्यादा-से-ज्यादा लाभ मालिक को मिले। वह स्वयं शरीर परिश्रम टालना चाहता है और दूसरों के श्रम का लाभ उठाना चाहता है। समस्त मानवता के दुखों का मूल कारण यही है - "दुनिया में आज जो झगड़े हैं, उनका कारण यही है कि हम बिना परिश्रम किए अधिक-से-अधिक लाभ उठाने का सोचते हैं। इसी को 'चोरी' कहते हैं। हम बहुत बड़े चोर हैं, जो कम श्रम करते हैं और दूसरे के श्रम का बेजा लाभ उठाना चाहते हैं। अगर हम यह पहचानें, तो सारी दुनिया की सूरत ही बदल जाए।"15

शरीर-श्रम के नियम से च्युत होना ही व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की विभिन्न समस्याओं का मूल कारण है। इस नियम का पालन न करने से व्यक्ति अपने सहयोग से तो समाज को वंचित करके हिंसा तो करता ही है अपितु दूसरों के श्रम का शोषण कर उस हिंसा को घनीभूत करने में योगदान भी देता है। अतः शरीर-श्रम का अस्वीकार व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही तरह की हिंसा का कारण बनता है। वह स्पष्ट करते हैं - "शरीर-श्रम को हम नहीं अपनाएँगे, तो उत्पादक और अनुत्पादक वर्ग बने रहने का खतरा है। …संसार में फैली हुई विषमता, ऊँच-नीच के विचार, गुलामी और हिंसा, ये सब विशेष कर उस आर्थिक पाप के परिणाम है, जो शारीरिक श्रम से बचने के प्रयत्न में हम अब तक करते आए हैं।"16

वह स्पष्ट करते हैं कि शरीर-श्रम की उपासना इस भावना के साथ की जानी चाहिए कि सबसे नीचे के पायदान पर रह रहे लोगों के साथ एकरूप हों सके।17 इस एकरूप होने की प्रक्रिया में वह दो प्रमेय मानने की बात करते हैं -

1. बिना शरीर-श्रम के खाना पाप है।

2. अपने लिए ही परिश्रम करना पाप है।

हमारा परिश्रम समाज को अर्पित हो, समाज की तरफ से जो मिलेगा, वह प्रसाद स्वरूप ग्रहण करें।18 अतः विनोबा सामाजिक विषमता को दूर करने के उपाय के रूप में शरीर-श्रम को प्रधानता देने की बात करते हैं। समाज से गरीबी हटाने के लिए वह जिन चार उपायों का उल्लेख करते हैं उसमें एक श्रम निष्ठा भी है। 19 समता प्राप्त के लिए श्रमनिष्ठ होना जरूरी है। हर एक को उत्पादक श्रम करना चाहिए। शरीर-श्रम के बिना अहिंसा सिद्ध नहीं हो सकती। श्रम में ही मानव की मानवता है।20 वह मानते हैं कि हम सभी उपभोग करते हैं अतएव सभी को उत्पादन में भी सहभागी होना चाहिए। सभी को शरीर-श्रम के व्रत को 'राष्ट्रीय व्रत' और 'मानवता का व्रत' समझना चाहिए।21 अपने मंतव्य को सर्वोदय विचार से संयुक्त करते हुए वह साफ कहते हैं - "उसका (सर्वोदय) कम-से-कम और स्पष्ट अर्थ यह है कि और इससे यह प्रेरणा मिलती है कि हमें दूसरों की कमाई का नहीं खाना चाहिए। दूसरे का धन किसी तरह हम ले लें इसे अपनी कमाई नहीं कहा जा सकता। कमाई का अर्थ है प्रत्यक्ष पैदाइश करें। ये दो नियम हम ले लें तो सर्वोदय-समाज का प्रचार दुनिया में हो सकेगा।"22

विनोबा शरीर-श्रम के अंतर्गत समान मजदूरी दिए जाने के पक्षधर है। स्वयं गांधीजी ने प्रारंभ से ही इस विचार को प्राथमिकता दी तथा सर्वोदय के विचार में स्थान प्रदान किया। विनोबा मानते हैं कि शरीर-परिश्रम-व्रत में सभी श्रमों की समान मजदूरी निहित है। वह कहते हैं कि - "शरीर-श्रम परिश्रम चाहे जिस प्रकार का हो, कातने का हो, बढ़ई का हो, रसोई बनाने का हो, सबका मूल्यो एक ही है। …हर एक उपयुक्त परिश्रम का नैतिक, सामाजिक और आर्थिक मूल्य एक ही है।" 23

इसके साथ ही विनोबा शरीर-श्रम के माध्यम/साधन के रूप में खेती को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं। वह कहते हैं कि खेती करना हर एक का धर्म है। उनके अनुसार हर एक को खेती में हिस्सा लेना चाहिए। चार घंटे खेती व चार घंटे अन्य धंधे पर लगाना चाहिए। खेती के जरिए व्यक्ति सृष्टि से सीधे संबंध रखता है।24 उनके अनुसार खेती के जरिए व्यक्ति प्रकृति के साथ सीधा साक्षात्कार करता है। सृष्टि के अज्ञात रहस्यों से परिचित होता है। यह एकात्म की अनुभूति में भी सहायक होती है। उनके अनुसार - "हर एक का संबंध सृष्टि के साथ होना चाहिए। यही आदर्श समाज रचना है। ...खेती करना हर एक का धर्म है।"25

हम देख सकते हैं कि अद्वैत की अपनी व्याख्या में विनोबा जिस भूतदया के विस्तार की बात कहते हैं, वह शरीर-श्रम की अवधारणा में खेती की प्रधानता के अंतर्गत व्यक्ति से आगे बढ़कर सृष्टि को भी अपने में समाहित कर लेती है।

शारीरिक और मानसिक श्रम में भेद के स्थान पर विनोबा दोनों के मध्य समन्व्य पर जोर देते हैं। वह भी गांधीजी की तरह इस तर्क को अस्वीकार करते हैं कि शरीर-श्रम के कारण मानसिक विकास बाधित या अवरुद्ध होता है। वह मानते हैं कि शारीरिक श्रम से मानसिक विकास को गति एवं तीक्ष्णता मिलती है। स्वयं अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वह कहते हैं कि - "मैंने सालों तक जितना अध्ययन किया, उससे कम शरीर-श्रम नहीं किया। मैंने प्रतिदिन छह-सात घंटे विविध प्रकार के परिश्रम में बिताए हैं। उससे मेरी बुद्धि की तेजस्विता कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी है।"26

विनोबा शरीर-श्रम की अवधारणा से सहमत होते हैं और इसे व्यापक परिवर्तन का माध्यम भी मानते हैं। इसके साथ ही वह महात्मा गांधी से अपनी भिन्नता को भी अभिव्यक्त करते हैं। यह भिन्नता मा‍नसिक श्रम को लेकर है। गांधीजी बौद्धिक वर्ग के श्रम को महत्व प्रदान करते हैं परंतु शरीर-श्रम से अवकाश की बात नहीं स्वीकार करते और न ही इसे शरीर-श्रम का स्थानापन्न मानते हैं। दूसरी ओर विनोबा अपनी भिन्नता को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं कि - "मैं केवल ब्रेड लेबर (उत्पादक श्रम) को आधार नहीं मानता। यह मुझमें और गांधीजी में अंतर है।" 27

इसके लिए वह श्री अरविंद और महर्षि वाल्मीकि का उदाहरण देते हैं कि वाल्मीकि की 'रामायण' आज भी जनता को स्फूर्ति प्रदान कर रही है। इसका यह अर्थ है कि उनका हृदय सृष्टि के साथ एकरूप हो गया था। उनके काव्य सत्य का स्रोत ही सृष्टि थी। अतः शरीर-श्रम का मुख्य हेतु सृष्टि के साथ एकरूप होना है तो वह ऐसा कर पा रहे थे। वह अरविंद की चर्चा करते हुए बताते हैं कि अरविंद को भी 'सावित्री' महाकाव्य लिखने में ब्रेड लेबर से अधिक परिश्रम करना पड़ा मगर वह गीता की भाषा में 'चोर' नहीं कहलाएँगे। वह स्पष्ट करते हैं कि हमें एक प्रोफेसर के आठ घंटे अध्यापन और बढ़ई को बढ़ईगिरी के आठ घंटों के लिए समान मजदूरी देनी होगी। यह मानना होगा कि दोनों ने समान श्रम किया है। उन दोनों के बीच ऊँच-नीच का भेद नहीं होना चाहिए। वह मानते हैं कि बौद्धिक श्रम वाले शारीरिक श्रम अवश्य करें। अपनी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए वह इंगित करते हैं कि जैसे ही मानसिक/बौद्धिक श्रम की प्रतिष्ठा कम मानी जाएगी तो सामाजिक विषमता दूर होगी और पारिश्रमिक समान प्रदान किया जाएगा तो आर्थिक विषमता दूर हो जाएगी। वह मानते हैं कि 'शरीर-श्रम और बौद्धिक श्रम दोनों की जरूरत है और दोनों ही प्रतिष्ठा साथ है।'28

विनोबा शरीर-श्रम की अवधारणा में एक अन्य महत्वपूर्ण विचार 'काँचन-मुक्ति' को भी अभिव्यक्ति करते हैं। अक्टूबर, 1949 को उन्होंने इसके अनुसार जीवन व्यतीत करने का मानस बनाया। आश्रम की चीजें बाजार से न खरीदने को 'काँचन-मुक्ति' का नाम दिया। इसका उद्देश्य जीवन में मुद्रा की दासता से मुक्ति तथा उत्पादक शारीरिक श्रम को बुद्धिपूर्वक प्रयोग किए जाने पर उससे जुड़ी सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक एवं नैतिक क्षमताओं को प्रस्तुत करना था।29 उन्होंने इसे स्वावलंबी के प्रयोग के तौर पर देखा और शारीरिक श्रम से जुड़ी आशंकाओं को गलत सिद्ध किया - "आज समाज में विषमता और उत्पांत का एक मुख्य कारण है पैसा। पैसा हमारे जीवन को दूषित करता है। इसलिए जीवन में से पैसे का उच्छेद आवश्यक है। हम यहाँ स्वालंबन का प्रयोग करने वाले है। हमारा काँचन मुक्ति का प्रयोग शुरू हुआ। प्रारंभ के तौर पर 01 जनवरी 1950 से आश्रम में सब्जी बाजार से न खरीदने का तय हुआ। ...परंधाम (आश्रम) की इस 'ऋषि-खेती' ने सबका ध्यान खींचा। लोगों को शंका थी कि बिना बैलों की मदद के, हाथों के बल से खेती करने में बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। ...दूसरी शंका थी उपज के बारे में। लेकिन दो साल प्रयोग करके जो परिणाम निकला, उसने इन दोनों शंकाओं को गलत ठहराया।"30

काँचन मुक्ति के प्रयोग को एक अनैतिक व्यवस्था के प्रति असहकार के रूप में देखा जाना चाहिए। अगर हम यह अनुभव करते हैं कि अर्थव्यवस्था अनैतिक है तो हम इतना तो अवश्य कर सकते हैं कि इस अनैतिक व्यवस्था से अपना सहयोग खींच ले। इतना करना ही एक नैतिक व्यवस्था की स्थापना में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होता है। विनोबा का काँचन मुक्ति का प्रयोग एक नैतिक व परस्परालंबी व्यवस्था की स्थापना में महत्वपूर्ण प्रयोग था। वह बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि 'शरीर-श्रम का व्रत लेना चाहिए और पैसे से मुक्त होना चाहिए इसके बगैर शक्तिशाली अहिंसा प्रकट नहीं होगी।'31 अपनी अवधारणा को और स्पष्ट करते हुए वह बताते हैं कि वर्तमान समाज रचना गलत की गई है क्योंकि पैसे को कारोबारी बना दिया है, स्पर्धा के आधार पर समाज खड़ा किया गया है इसलिए परिश्रम के बदले गलत मूल्य मान्य हो गए है अतः समाज में नैतिक पतन हो रहा है। अतः समाज की पुनर्रचना श्रम के आधार पर ही की जानी चाहिए - "सत्य निष्ठा निर्माण करनी हो, तो समाज की रचना पैसे के बदले श्रम के आधार पर की जानी चाहिए। ...मुझे तो आज काँचमोह-मुक्ति और शरीर-परिश्रम, इसमें ही भारत का उद्धार दिखाई देता है।"32

श्री विश्वनाथ टंडन ने लिखा कि काँचन-मुक्ति का विनोबा का प्रयोग इस संकल्प के साथ शुरू हुआ कि आश्रम अपनी जरूरत की चीजें बाहर से नहीं लेगा और सब्जी से इसकी शुरुआत की। इस विचार की जड़ 1935-36 से देखी जा सकती है। अहिंसक समाज की स्थापना के लिए उन्होंने महसूस किया कि गांधीवादी संस्थाओं को अपरिग्रह के सिद्धांत को अपनाना चाहिए। बाद में 'ऋषि खेती' का प्रयोग किया जिसमें मामूली औजारों और मानवीय श्रम का इस्तेमाल किया गया।33 विनोबा ने इस विचार के जरिए एक समतामूलक एवं प्रेममूलक व्यवस्था का प्रयास किया - "दुनिया में दो तत्वों की प्रतिष्ठा बढ़नी चाहिए - श्रम और प्रेम। इन दोनों के बढ़ने से कांचन मुक्ति होगी। श्रम नहीं होगा तो अन्नोत्पादन पूरा नहीं होगा। कुछ लोग ज्यादा छीन लेने की कोशिश करेंगे और अगड़ा चलता ही रहेगा। इसलिए श्रम निष्ठा की जरूरत है। साथ ही प्रेम भी चाहिए ताकि जो पैदा हुआ है, उसे बाँट कर खाएँ। इन दोनों चीजों के बढ़ने से पैसे का जोर नहीं चलेगा और समाज काँचन-मुक्त होगा।" 34

इसी संदर्भ में विनोबा कहते हैं कि ऐसी व्यवस्था तभी संभव हो पाएगी जब आम जनता का जीवन स्वावलंबी होगा। इसके लिए वह मानते हैं कि ग्रामोद्योग इत्यादि की योजना राष्ट्रीय पैमाने पर की जानी चाहिए। वह ग्रामीण पुनरुद्धार पर जोर देते हैं। वह ग्रामोद्योग को अहिंसा के साध्य को पाने का रास्ता बताते हैं और कहते हैं कि 'रचनात्मक कार्यों में मानवता का विकास करने वाली सेवा में तन्मय हो जाना ही अहिंसा का मुख्य रूप है।'35 ग्रामोद्योग आधारित एक अर्थव्यवस्था की कल्पना विनोबा ने की थी जिसमें शरीर-श्रम को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया।

विनोबा ने गांधीजी की न्यासिता (ट्रस्टीशिप) की अवधारणा को भी नवीन रूप से व्याख्यायित किया तथा उससे अपनी भिन्नता को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया। यह भिन्नता उसका नकार नहीं है बल्कि उसकी नवीन व्याख्या है। वह समाज में अर्थशुचिता की बात करते हुए अस्तेय‍ और अपरिग्रह पर जोर देते हैं। उनके अनुसार इनके माध्यम से सत्य व अहिंसा का आर्थिक क्षेत्र में अविर्भाव हो सकता है - "अस्तेय और अपरिग्रह दोनों मिलकर अर्थशुचित्व पूर्ण होता है, जिसके बगैर व्यक्ति और समाज के जीवन में धर्म की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। सत्य और अहिंसा का आर्थिक क्षेत्र में आर्विभाव अस्तेय और अपरिग्रह से ही हो सकता है।" 36

इन दोनों - अस्तेय और अपरिग्रह - विचारों की व्याख्या करते हुए वह कहते हैं कि अस्तेय का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि दूसरों द्वारा न दी हुई चीज लेना, बल्कि यह भी है कि दूसरों को कुछ भी न देते हुए उनसे लेना। बिना त्याग के भोग का नाम चोरी है।37

वह अपनी शब्दावली में एक समीकरण प्रदान करते हैं - "अर्थप्राप्ति की पद्धति का नियमन अस्तेय करता है और उसकी मात्रा का नियमन अपरिग्रह करता है।" 38

विनोबा अस्तेय में शरीर-श्रम की महत्वपूर्ण भूमिका स्वीकार करते हुए बताते हैं कि अस्तेय कहता है कि शरीर का निर्वाह मुख्यतया शरीर-श्रम से यानि उत्पादक परिश्रम से होना चाहिए। दुनिया की बहुत-सी विषमताएँ, दुख और पाप शरीर-श्रम टालने की नीयत से पैदा हुए हैं। शरीर परिश्रम से जो उत्पन्न होगा उसी का उपभोग करेंगे, ऐसा मानने से अपरिग्रह की (बहुत-सी) सिद्धि हो जाती है।39

वह अपरिग्रह को समाज में एक शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहते है। अपरिग्रह की नवीन परिभाषा करते हुए वह कहते हैं - "अपरिग्रह का अर्थ है बँटा हुआ महान परिग्रह। अपरिग्रह यानि अत्यंत। परिग्रह। 'अ' शब्द‍ का अर्थ है अत्यंत।" 40

विनोबा ने परस्पर विश्वास आधारित समाज-रचना हेतु विविध शक्तियों के सुसंवादी संयोजन की आवश्यकता पर बल दिया।41

विनोबा गांधीजी के शिक्षा दर्शन को स्वीकारते हैं और 'नई तालीम' की अवधारणा को महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक बताते हैं।42 'नई तालीम' के शिक्षा संबंधी दार्शनिक आधारों से वह सहमति प्रकट करते हैं। वह स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जीवन में और शिक्षा में भी वह शरीर-श्रम को प्रथम स्थान देते हैं। शिक्षा के प्रति अपने मंतव्य को प्रकट करते हुए वह कहते हैं - "शरीर के हर अवयव की पूर्ण और व्यवस्थित वृद्धि होना, इंद्रियों का कार्यकुशल बनना, विभिन्न मनोवृत्तियों का सर्वांगीण विकास होना, बौद्धिक शक्तियों का प्रगल्भ और प्रखर बनना, इन सब नैसर्गिक या प्राकृतिक प्रवृत्तियों का विकास ही शिक्षण है अर्थात् 'जीवन प्राप्त कर लेने की कला ही शिक्षण है'।"43

शिक्षा संबंधी अपनी इसी व्यापक एवं सर्वांगीण दृष्टि के कारण वह मानते हैं कि शिक्षा प्रणाली को श्रम के प्रति प्रेम और आदर उत्पन्न करने वाली होना चाहिए। 44 उनके अनुसार ज्ञान और कर्म, विद्या और परिश्रम दोनों अगर जुड़ जाएँगे तो देश की उन्नति होगी और देश एकरस हो सकेगा।45 अपनी इन्हीं कसौटियों के आधार पर वह अँग्रेजी शिक्षा पद्धति को कसते हैं और उसके विविध दोष बताते हैं -

1. अँग्रेजी तालीम के कारण समाज में विद्वान और अविद्वान दो वर्ग बन गए।

2. अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जीवनमान ऊँचा बनाया जो देश की सभ्यता के विरुद्ध था।

3. शिक्षा को काम के साथ नहीं जोड़ा गया।46

ऐसी स्थिति में वह शिक्षण में क्रांति हेतु सुझाव देते हैं -

1. शिक्षण को सरकारी तंत्र से स्वतंत्र बनाना चाहिए।

2. उसका माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए।

3. उसमें दूसरी भाषा का स्थान हो, परंतु वह लाजिमी तौर पर न हो।

4. उसमें आध्यात्मिक शिक्षण का स्थान हो।

5. उसमें उद्योग का स्थान हो।

6. शिक्षक वानप्रस्थाकश्रमी हो।47

इसी संदर्भ में वह नई तालीम की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए उसे एक जीवन-दर्शन बताते हैं और एक नवीन समाज के निर्माण का माध्यम भी। इस तालीम में शरीर-श्रम और साम्य योग्य दोनों को ही प्रतिष्ठा होगी जिससे नवीन मूल्यों का विकास होगा - "नई तालीम एक जीवन-दर्शन है। …नई तालीम तो नए समाज का ही निर्माण करेगी। नई तालीम के लिए मूल उद्योग का जरिया आदि तंत्र है, मंत्र यह है कि वह 'शरीर परिश्रमनिष्ठ और साम्य योगी' होती है। नई तालीम यानि नए मूल्यों की स्थापना।"48

विनोबा मानते हैं कि इस शिक्षण में काम से ज्ञान अर्जित होता है और ज्ञान से उपयोगी काम और दोनों के संयोजन से बुद्धि का विकास होता है। विद्यार्थी समाज के लिए एक उपयोगी सदस्य के रूप में काम कर सके इसके लिए आवश्यक है कि बाह्य और व्यावहारिक वातावरण से भी उनका साक्षात्कार कराया जाए।49 अतएव वह शिक्षा को उद्योग आधारित किए जाने के पक्षधर है। वह मानते हैं कि शिक्षण में तीन चीजें सीखनी चाहिए -

1. योग - प्रज्ञा स्थिर करना।

2. उद्योग - गुण विकास, उद्योग सीखना (कृषि भी शामिल)

3. सहयोग - सहजीवन जीने का ज्ञान। इसमें समस्त समाजशास्त्र समाहित है।50

वह बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि जहाँ ज्ञान और कर्म का भेद समाप्त हो जाता है, वहीं नई तालीम उपस्थित होती है। इसमें उद्योग के जरिए ही ज्ञान का विकास किया जाएगा और ज्ञान के माध्यम से उद्योग का। ज्ञान और कर्म एक-दूसरे में ओत-प्रोत रहेंगे।51

विनोबा एक नवीन पद्धति - समवाय पद्धति - को श्रेष्ठा बताते हैं। इस पद्धति में कोई एक जीवनव्यापी और विविध अंगयुक्त मूल उद्योग शिक्षण के माध्यम के तौर पर लिया जाता है। उद्योग शिक्षण का माध्यम एवं अनिवार्य अंग होता है। इस उद्योग के जरिए तीन उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है -

1. बच्चे की सर्वांगीण शक्तियों का विकास करना।

2. उन्हें जीवनोपयोगी विविध ज्ञान देना।

3. उन्हें आजीविका का एक समर्थ साधन प्राप्त करा देना।52

हम सभी वाकिफ हैं कि यह समवाय पद्धति ही नई तालीम है। वह नई तालीम की विशिष्टता को बताने के लिए पुरानी तालीम से उसकी तुलना करते हुए लिखते हैं - "नई तालीम में शरीर परिश्रम और मानसिक परिश्रम की नैतिक और आर्थिक योग्यता समान मानी जाएगी... नई तालीम यानी नए मूल्यों की स्थापना। पुरानी तालीम चोरी करने को पाप समझती थी। नई तालीम न सिर्फ चोरी को बल्कि अधिक संग्रह को भी पाप समझती है। पुरानी तालीम शारीरिक और मानसिक परिश्रमों के मूल्यों में फर्क करती थी। नई तालीम दोनों का मूल्य समान समझती है। इतना ही नहीं, दोनों का समन्वय करती है, दोनों का 'समवाय' साधती है। पुरानी तालीम 'क्षमता' की इज्जत करती थी। नई तालीम 'क्षमता' को 'समता' की दासी समझती है। पुरानी तालीम लक्ष्मी, शक्ति, सरस्वती को स्वतंत्र देवता रूप में पूजती थी। नई तालीम मानवता को पूजती है और इन तीनों को उसकी सेवा का साधन समझती है।"53

हम देख सकते हैं कि विनोबा के नजरिए में नई तालीम एक शिक्षण पद्धति मात्र नहीं है। वह नवीन मूल्य निर्मात्री भी है। यह मूल्य समाज में नवीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, शैक्षिक व्यवस्था की आधारशिला होंगे। अपने आप में यह शिक्षा पद्धति अहिंसक क्रांति की परिचायक है। विनोबा नई तालीम को 'नित्य नई तालीम' कहते हैं और स्पष्ट करते हैं कि यदि उसे टिकना है तो नित्य नूतन बनना होगा।54 नई तालीम ब्रेड लेबर के सिद्धांत पर आधार रखती है, श्रद्धा रखती है।55

विनोबा ने अपने विचारों में जिस व्यवस्था की कल्पना की वह एक अहिंसक समाज था। उस अमूर्त समाज की कल्पना को व्यावहारिक रूप में किस तरह से प्रकट किया जाए इसके लिए वह चार अनिवार्य तत्व स्पष्ट करते हैं जो हर एक समाज में होने चाहिए -

1. समर्थों की सामर्थ्य जन सेवा के लिए समर्पित हो।

2. जनता पूरी तरह स्वावलंबी और परस्पर सहयोग करने वाली हो।

3. नित्य के सहयोग और प्रासंगिक असहयोग या प्रतिकार का अधिष्ठान अहिंसा ही हो।

4. सबके प्रामाणिक परिश्रम की कीमत (नैतिक और आर्थिक) समान हो।56

सारतः यह कहा जा सकता है कि विनोबा ने जिस सर्वोदय समाज की रचना का खाका प्रस्तुत किया, उसका उद्देश्य सत्य और अहिंसा की नींव पर एक ऐसा समाज बनाने की कोशिश करना था जिसमें जात-पाँत न हो, जिसमें किसी का शोषण न हो और समूह और व्यक्ति को सर्वांगीण विकास करने का अबाधित अवसर मिले। उन्होंने समाज के वंचित वर्गों की उन्नति के लिए बहुत प्रयास किए। भूदान आंदोलन के प्रणेता के रूप में उन्होंने भूमिहीनों को भूमि प्रदान करने का महत्‍वपूर्ण काम किया। 57 उन्होंने अपने समय में प्रस्तुत समस्याओं के अहिंसक समाधान प्रस्तुत करने एवं क्रियान्वित करने का प्रयास किया। 'जय-जगत' का नारा उनकी विश्व-बंधुत्व की धारणा का परिचायक है। वह कभी संकीर्णता में नहीं बँधे, उनकी दृष्टि में मानव की (सर्वांगीण) उन्नति ही ध्येय था बिना किसी भेदभाव के। विनोबा सच्चे अर्थों में क्रांति परायण विश्व मानव है। उनकी विभूति उनके प्रयोग की सफलता या असफलता पर निर्भर नहीं है, उनके प्रयोगों में जो आध्यात्मिक लोकनिष्ठ क्रांतिकारी भावना अभिव्यक्त होती है, वही उनके व्यक्तित्व का सत्व है।58

संदर्भ

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2. पांडेय, जनार्दन, सर्वोदय का राजनीति दर्शन, जानकी प्रकाशन, पटना, 1986, पृ.11

3. श्रीवास्‍तव, जी.पी., द पॉलिटिकल एंड इकानॉमिक फिलासफी ऑफ विनोबा भावे, विनोबा भावे : द बायोग्राफी ऑफ हिज विजन एंड आइडियाज, (सं. ग्रोवर, विरेंदर), दीप एंडज दीप पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 1998, पृ.547

4. विनोबा साहित्य, खंड-6, परंधाम प्रकाशन, पवनार एवं लक्ष्मीनारायण देवस्थान, वर्धा, 1995, पृ.7

5. चोलकर, पराग (सं.), विनोबा-विचार-दोहन, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 2002, पृ.22-24

6. देव, शंकरराव, सर्वोदय का इतिहास और शास्त्र, अखिल भारतीय सर्वसेवा संघ प्रकाशन, काशी, 1955, पृ.36

7. विनोबा-विचार-दोहन, पृ.1

8. वही, पृ. 15-16

9. विनोबा साहित्य, खंड-7, पृ.125

10. वही, पृ. 384

11. विनोबा साहित्य, खंड-15, पृ.43

12. विनोबा साहित्य, खंड-17, पृ.345

13. विनोबा साहित्य, खंड-14, पृ.384

14. विनोबा विचार-दोहन, पृ.65-66

15. विनोबा साहित्य, खंड-14, पृ.456

16. वही, पृ.461

17. वही, पृ.329

18. विनोबा साहित्य, खंड-13, पृ.220

19. "गरीबी हटाने के लिए चार चीजें चाहिए 1. ब्रह्मचर्य 2. श्रमनिष्ठा 3. दान 4. शिक्षण में सुधार" देखें, विनोबा, शिक्षा विचार (सं. भट्ट, मीरा), सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी, 1991, पृ.44

20. विनोबा के विचार (भाग 1-3), सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007, पृ.374-75

21. विनोबा साहित्य, खंड-1, पृ.225-26

22. विनोबा, सर्वोदय संदेश, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1960, पृ.6

23. विनोबा के विचार (भाग 1-3), सस्‍ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007, पृ.79

24. विनोबा, सर्वोदय के आधार, अखिल भारतीय सर्वसेवा संघ प्रकाशन, काशी, 1956, पृ.35-36

25. विनोबा साहित्य, खंड-14, पृ.459

26. विनोबा साहित्य, खंड-14, पृ.455

27. विनोबा साहित्य, खंड-17, पृ.345-346

28. वही

29. राम, सुरेश, विनोबा : मैन एंड - मैसेज, विनोबा भावे : ए बायोग्राफी ऑफ हिज विजन एंड आइडियाज (सं. ग्रोवर, विरेंदर), दीप एंड दीप पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 1998, पृ.581

30. विनोबा साहित्य, खंड-15, पृ.24-25

31. विनोबा साहित्य, खंड-8, पृ.193

32. विनोबा-विचार-दोहन, पृ.87

33. टंडन, विश्वनाथ, वही, पृ.49-50

34. विनोबा साहित्य, खंड-14, पृ.177

35. वही, पृ.412-414

36. वही, पृ.74

37. वही,पृ.63

38. वही

39. वही, पृ.65

40. वही, पृ.76

41. विनोबा, सर्वोदय और स्वराज्य शास्त्र , पृ.134

42. विनोबा साहित्य, खंड-12, पृ.368

43. वही,खंड-17, पृ.75

44. वही, खंड-12, पृ.368

45. वही, खंड-17, पृ.69

46. विनोबा-विचार-दोहन, पृ.107

47. वही, पृ.108

48. वही, पृ.115

49. पांडेय, जनार्दन, वही, पृ.31-32

50. विनोबा-विचार-दोहन, पृ.109-110

51. वही, पृ.112

52. वही, पृ.113

53. विनोबा साहित्य,खंड-17, पृ.112-113

54. विनोबा, शिक्षा विचार (सं. भट्ट, मीरा), सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी, 1991, पृ.110

55. वही, पृ.114

56. विनोबा-विचार-दोहन, पृ.131

57. बक्शी, एस.आर., विनोबा भावे : सोशियो पॉलिटिकल आइडियोलॉजी, अनमोल पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 1993, पृ.220

58. भट्ट, कृष्णिदत्त, विनोबा, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, काशी, 1974, पृ.129


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हिंदी समय में डॉ. शंभू जोशी की रचनाएँ