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उपन्यास

शालभंजिका

मनीषा कुलश्रेष्ठ


5

मुझे अब तक नहीं पता कि इस शहर की स्मृतियाँ जाल फैला मुझे फँसा लाई हैं कि कहीं कोई मक़सद है। महज एक पल का तात्कालिक निर्णय मुझे यहाँ ले आया, किसी नींद से जगा तो मैं इस शहर में था। आज सुबह ही तो मैं इस शहर के एयरपोर्ट पर उतरा था, अकेला और बिना किसी उद्देश्य के। शहर का पुरानापन अब भी झाँक रहा था, विकास के सुन्दर पैबन्दों से, बल्कि मुझे इशारों में बुला रहा था। अभी मैं जहाँ खड़ा हूँ वह शहर का पुराना घण्टाघर है। कभी यह शहर का दिल हुआ करता था, इसी से शहर के बाहर जाती गलियाँ, भीतर आती गलियाँ धमनियों और शिराओं की तरह फैली रहती थीं। है यह शहर का दिल तो अब भी, मगर अब बूढ़ा दिल है। अवरुद्ध-सा, पेसमेकर लगा। गहरी उसाँसें भरता हुए पुराने शहर का दिल। मंदिरों, कूड़े के पहाड़ों, चौक और गलियों के बासीपन को कुछ कम करती चटकदार धूप ऊपर चढ़ आई है, बेतरतीब बने घरों की छतों, दीवारों के ऊपर तक और चमकती रही पिछोला झील के हरे–नीले पानी में, रुपहले–सुनहरे रंगों में। उजाला उन गलियों में खेलता है सितौलिया, सूरज की गेंद से... गलियाँ किलकती हैं।

एक आरती की स्वरलहरी के साथ, जगदीश मंदिर के पीछे पिछोला से हवा में घुल कर आई एक जानी हुई महक ने मुझे शुरुआती वसंत की एक पुरानी शाम की याद दिला दी।

जगदीश मंदिर के प्रांगण में जन्माष्टमी का पर्व... जनार्दन काक-सा की मन्द्र-गंभीर, मांसल आवाज़, परिच्छन्न कंठ। केवल हारमोनियम और करताल। जोगिया मालव राग की वह बंदिश आज भी इस मेरे मन के जनशून्य अहाते में गूँज रही है,

“पद्म धर्यो जन ताप निवारण,
चक्र सुदर्शन धर्यो कमल कर भक्तन की रक्षा के कारण।’’

जगदीश मंदिर से उसके साथ खिलखिला कर उतरती उस लड़की की याद। क्या वह अब इस शहर में वापस लौट आई होगी?

शहर बदल चुका था। जब रहते–रहते ही शहर और शहरवासी बदल जाते हैं, मुझे तो सोलह वर्ष हो गए हैं। पता नहीं इतने लम्बे समय बाद मुझे यहाँ आना चाहिए था कि नहीं, जगह-जगह वह रुक कर पूछता रहा एक पुराना घर। “गली के आखिर में सरकारी स्कूल था, पिछोला झील के पक्के किनारे से लगा।” (जिसकी स्फटिक-सी सफेद सीढ़ियाँ उतरती थीं झील में, चौड़ा पक्का किनारा आधी छुट्टी में अचारों–पराठों की महक और मीठे शोर से भर जाता था। उसी गली में, तीसरे नम्बर का मकान हमारा था। हमारे घर के पीछे अनार के पेड़ थे, और एक कुण्ड था। कुण्ड के उधर एक हवेली थी, वहाँ... तीन लड़कियाँ रहती थीं।)

बहुतों से पूछा, सबने यही कहा, “बहुत दिनों बाद आए हो शायद। स्कूल तो कब का बन्द हो गया। दस साल से वहाँ गाएँ बाँधते हैं लोग, दीवारें गिरती रहती हैं स्कूल की झील में छपा-छप, संगमरमर का चौंतरा लोग उखाड़ के पत्थर ले गए, अब कच्चा और ऊबड़-खाबड़ है।”

एक बूढ़े ने पूछा - वो सब तो ठीक है। तुम्हारे पिताजी का नाम?

“रोशन लाल जी भाटी। उस स्कूल के हेडमास्टर थे।”

बूढे का चेहरा रोष से भर आया, “ओह! तो तू है रोशन दादा का सपूत, फिल्म बनाता है न तू। क्यों रे दाग देने नहीं आया अब क्या लेणे आया? जैदाद!”

“क्या बात करते हैं, काक सा... आया था बाद में तो, शूटिंग बन्द करके, विदेश से आणे में जो समय लगा, बस वही लगा। तेरवीं पर तो यहीं था।”

मैंने गौर किया कि मेरा लहजा अचानक बदल गया, बहुत पहले छूट गए लहजे ने उछल कर ज़बान पर सवारी कर ली।

“काक सा सलुम्बर वाले संगीत रत्न जनार्दन प्रसाद मिश्र जी का ठिकाणा था न, गुलाब हवेली जिसके पिछ्ले हिस्से में हम किराए रहते थे।”

बूढा पिघला, “अपनी हवेली तो जीते जी जनार्दन बाव जी ही मंदिर के ट्रस्ट को गिरवी कर गए थे, मंदिर वालों के चलते तो वो रहते रहे। फिर अनिल बख्शी ने अपने नाम करा लिया।”

“कौन अनिल बख्शी? लेकिन वो घर है कहाँ?”

“है एक। पहले वकील था, अब भू माफिया है, हवेलियों को होटल बनाता जा रहा है, कुछ खरीद कर, कुछ फर्जीवाड़े में। अभी आधे में हवेली के फर्जी हकदार, जनार्दन के रिश्तेदार कब्जा करे हुए हैं, ताला है आधे में, जो अनिल बख्शी का है।”

“और पद्मा और मृदुला... कहाँ गए फिर?”

“उन पतिताओं की सबकी गति स्वयं ही हो गई।”

कह कर वह बूढ़ा आगे बढ़ गया।

“सुनो तो काक, गली कौन-सी थी हमारी, समझ नहीं पड़ रही।”

“वो मसीन है न, बैंक की उधर ही।”

गली के मुहाने पर आकर वह ठिठक गया, गुलाबी लहरिया आँचल लहराता दिखा और ओझल हो गया। छत पर आती–जाती माँ का, जो सूखे पापड़ या बड़ियाँ उठाने जाती थी। पिछली गली का अन्दाज़ लगाया जहाँ जनार्दन काक की गुआड़ी थी, छत से छत मिली थी उनकी, उनका आँगन जहाँ कोने में लगे नींबू के सहस्र छोटे गोल पत्तों में छड़ी गौरेय्या शोर मचाती थी और उसके नीचे बर्तन धोती नीलिमा मुझे देख मुस्कुराती थी। काक के गान के साथ तानपूरा बजाती पद्मा पलक उठाती और एक वैराग्यभरा निर्वात अंतरिक्ष तक फैल जाता। वह संगीत के सम्मोहन में डूबे उस निर्वात की प्रतीक्षा करता।

“ध्रुपद की शुद्धता वैराग्य जगाती है, बाऊजी यह अब मैं नहीं सीखूँगी।” कहती हुई पद्मा मुस्कुराती और तानपूरा रख मुझसे पूछती, “हरे चने का पुलाव खाओगे?”

मैं उचक-उचक के दो-दो सीढ़ियाँ चढ़ता और कूद कर दूसरे घर के आँगन में आगल लगा दरवाजा खोल कर अन्दर।

सोचता हुआ मैं गुआड़ी तक चला आया, गुआड़ी छोटे–छोटे टुकड़ों में बँट गई थी, बेतरतीब कंस्ट्रक्शन। एक कमरा इधर, एक बाथरूम, एक दो कमरों का सेट, सब जगह किराएदार। बीच का अहाता जो एक सड़क जितना चौड़ा था, गलियारे में बदल गया था, जहाँ एक पुरानी कार, सात–आठ दुपहिया वाहन अँटे थे। घरों के बाहर बासी मौन पसरा था, कुछ स्कूल से थक कर लौटे बच्चे चुपचाप खेल रहे थे। रसोइयों से शाम के खाने का धुआँ उठ रहा था।

किससे पूछता कि कभी जो यहाँ रहते थे कहाँ चले गए। तभी एक चेहरा ठिठका एक घर की बॉलकनी में, एक माँसल, दोहरे बदन की स्त्री तेजी से सीढ़ियाँ उतरती नीचे आ गई।

“आप… दा!”

“… ”

“अरे… मैं चित्रा।”

“मृदुला की चचेरी बहन, आपकी गली के स्कूल में जाती थी पढ़ने, भूल गए आपकी कितनी तो चिट्ठियाँ पहुँचाई हैं।”

“अ... ओह... चितली... ! पहचाना ही नहीं मैं।”

“आइए न ऊपर... ”

“बाद में... ”

“कहाँ चले गए सब?”

“जाने दीजिए दादा, काक के साथ ही किस्सा हो गए वो दिन। अब कोई नामलेवा नहीं काक का, पहले थूकते तो थे, अब तो याद ही नहीं किसी को, राजगायक जनार्दन प्रसाद मिश्र की। वो विषय न छुएँ तो अच्छा, मेरा-आपका दोनों का मन दुखेगा।”
उसने गलियारे में अपनी बमुश्किल निगाहें अटाईं।

जहाँ लाल कनेर उगता था वहाँ राख थी उपलों की। लाल कनेर जिस पर हवा अपना रथ बाँध जाती और पूरी गली में फरफराती घूमती। जिन्होंने चाव से लाल कनेर लगाया था वे लोग चले गए, अजनबी आ बसे, आँगन पर बन गई मंज़िल-दर-मंज़िल, हवा ने पलट लिया अपना रथ, गौरेयाँ रूठ कर चली गईं। रास्ते नाराज़ हो गए।

“फिल्म बनाने आए थे? आपकी दोनों फिल्में मैंने देखीं, नीला चाँद और सीमांत? फिर नहीं बनाई?’’

“नहीं।”

“कहाँ ठहरे? चलो न ऊपर, चाय तो पी जाओ।”

“बाहर ठहरा हूँ, एक होटल में। बाद में... बाद में। अभी चलूँ बाद में मिलूँगा, अभी महीना भर यहीं हूँ। स्क्रिप्ट पर काम करना है। तुम साथ काम करोगी?”

“मोटी हो गई हूँ। हीरोइन कैसे बनाओगे?” दोनों खिलखिला पड़े, एक पल को मन से कोई गर्दो–गुबार झड़ गया।

“फुरसत से आएँगे तो खोलेंगे पोटली। आप तो जानते ही हो मेरा पहला घर तो वही था, वहीं से टिफिन, वहीं होमवर्क.. अपने घर में तो तीसरी ‘छोरी’... बेज़रूरत की बोझ। बड़े पापा के यहाँ, तीन लक्ष्मियाँ वैसे ही चौथी। बढ़िया खान–पान, पढ़ाई, संगीत का माहौल... ’’ चित्रा में गुम चितली मुस्काई।

अतीत की चितली, “खोलो न दादा चिट्ठी, मेरे सामने खोलो, दीदी पूछेगी, पढ़ कर आपने कैसे मुस्काया था।”

“चल भाग पगली।”

“आपकी सौगन दादा… पद्मा जीजी ऐसैइच पूछती है।”

“मेरी सौगन खाती आई है तो बता, कहाँ है, वो सब?” एकाएक मैं यह क्या बोल पड़ा!

“सौगन कब खाई मैंने ? क्या जानना चाहते चेतन भाई-सा? अच्छा, जानना ही चाहते तो क्या फायदा। दूसरों के मुँह से अफवाहें सुनो और दुखी हो जाओ मेरी तरह, सुनो, लगभग पूरा सच, थोड़े में ज्यादा सुनो, जो मैं जानती हूँ। नीलिमा की मौत का तो पता है न आपको,
(मैंने सर हिलाया) नीलिमा के साथ ही काक-सा ऐश्वर्य चला गया, पद्मा घर पर ही कथक सिखाने लगी थी, मृदुला अच्छा पढ़ रही थी, हॉस्टल में रह कर लॉ किया उसने। अनिल बख्शी के साथ काम कर रही थी तब। एक दिन उसी से भाग कर शादी कर ली, दूसरी शादी। उसके बाद पद्मा को शराब की लत क्या लगी कि वह आए दिन बड़े पापा से झगड़ती, शराब इतना पीने लगी कि उसका डांस स्कूल भी बन्द हो गया, उसके गम में बड़े पापा मर गए। तेरहवीं होते ही वह फिर शो वगैरह करने लगी जगह-जगह, हवेली में अकसर ताला लटका रहता, एक रूसी आदमी के साथ लोग उसे अकसर देखते थे, घूमते हुए, फिर एक दिन पद्मा ताला लगा कर जो गई फिर आई नहीं, शायद उसी रूसी संगीतकार के साथ चली गई। यहाँ बस अब मृदुला बची है, मैं उससे चार साल पहले मिली थी। वह ऑटो में चुपचाप आई थी, अपना हिस्सा देख कर चली गई, मेरी बातों का हाँ–नहीं में उत्तर देकर। मुझे उसका सही–सही पता नहीं मालूम... उसे देखा ही नहीं कभी। ये कहते हैं, एडवोकेट बख्शी अब एक हैरिटेज रिसॉर्ट चलाता है। हम सबका हिस्सा खरीद कर यहाँ भी... हम नहीं खाली करेंगे चेतन भाई-सा, मृदुला से मिलो तो बता देना उसे।”

इतिहास सिर्फ जन्म से मौत तक की तारीख बताता है, इसके बीच जिन्दगी को ही तलाशना मुश्किल है कि दरअसल जीने के सघन पलों में ठीक–ठीक हुआ क्या था?
नए साल की पूर्व संध्या थी, हम दोनों मोटरसाइकिल पर सज्जनगढ़ गए थे, शाम के चार बजे थे, बड़ी छायाओं के पड़ने के दिन थे, धूप चित्रलिखित–सी इस झीलों के शहर पर पड़ रही थी। पूरा दृश्य इतना सुन्दर और अविश्वसनीय तौर पर खूबसूरत लग रहा था, जैसे कि मॉर्फ (कंप्यूटर के फोटोशॉप की सहायता से, फोटो को बदल देना) किया गया हो, धूप को जगह–जगह एक-सा कट–पेस्ट कर दिया हो ऐसा लग रहा था। वे दोनों उपर जाकर एक झरोखे में बैठे ही थे कि शाम ढल गई। वह अपने होंठ मेरे करीब ले आई कि सूरज गड़प से झील में डूब गया... हम दोनों ‘सिलुएट’ बन गए। वाइड एंगल जंगल से घिरा किला, परकोटे, विशाल द्वार, गुम्बद, झरोखा। क्लोज़ अप सिलुएट का... एक मेहराबदार गुम्बद के नीचे, एक लड़का और एक लड़की एक-दूसरे को बेतहाशा चूमते हुए।

“इन खण्डहरों को देखकर बाबू, मुझे कभी रानी होने का चाव न हुआ, मुझे सिटी पैलेस का दरबार हॉल देख कर वहाँ हमेशा नाचने का मन हुआ। पता है क्यों?”

“क्यों?”

“रानी होकर, छोटे गवाक्षों में, गोखड़ों के पीछे घूँघट मार कर अदृश्य होने के लिए मेरा अस्तित्व तब भी तैयार न होता। मैं आज वह सब जीना चाहती हूँ जो बाकी की दुनिया आनेवाले वक्त में जिएगी। खुश होना बहुत आसान है, मैं पुरज़ोर तरीके से जीना चाहती हूँ। उदास और अकेले हो जाना चाहती हूँ प्रेम में। यही वो दरवाज़े हैं जो अंतहीन आनन्द के द्वार पर लगे हैं, इन्हें खोलना चाहती हूँ।” वह उस शाम बस प्रेम पर बात करती रही। प्रेम ही नहीं, अभिसार पर भी। गीतगोविन्दम् – शाकुंतलम्।

रतिसुखसारे गतमभिसारे मदनमनोहरवेशम्
न कुरु नितम्बिनि गमनविलम्बनमनुसर तं हृदयेशम्
धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली।।

उस किले का ‘सिलुएट’ (छाया–चित्र) मेरे मन में सदा रहेगा, एक गुम्बद के नीचे, एक-दूसरे को चूमता एक प्रेमी जोड़ा। उस शाम पहली बार हम दोनों ने बकार्डी पी... पहला चुम्बन लिया, “पद्मा, जो करेंगे अब साथ करेंगे। साथ रहेंगे।”

“बाबू, मुझे शादी नहीं करनी, क्योंकि वह होनी नहीं है, उम्र, जाति सबमें मैं तुमसे बहुत बड़ी हूँ। यह तय है कि हम दोनों साथ रहेंगे, हमेशा, ऐसे ही। जो करेंगे साथ, कहीं भी जाएँगे तो साथ।”

मैंने उस रात पद्मा को नहीं जीवन में हासिल हुई उस पहली औरत की तरह अपनी तरफ खींचा था, उसकी छातियाँ छोटी और सख्त थीं, वे उन परिन्दों के बच्चों के पेट की तरह मुलायम और गुनगुनी भी थीं जो घोंसलों से गिर जाया करते हैं। उसकी पलकें काली तितलियों की तरह सारी रात हैरानी से झपकती रहीं।

“मुझे प्रेम करो, बाबू... मुझे भोगो।”

6

क्यों गया था मैं, पुराने फ्रेम पर चिड़िया की तरह चोंच मारने?

उन दिनों वाली, मेरे भीतर की वह विकल चिड़िया... मैं देख पा रहा था, पद्मा, उन दिनों तुम्हारे ऐश्वर्यशाली गुआड़ी की दीवारों में पड़ती दरारें। दिन-रात महकने वाली रसोई के जाले, साटन के परदों के उड़ते रंग। मैं हर शाम अपनी छत पर चढ़ा हुआ देखा करता दिनों का बदलना, गँठिया से बेहाल काक, तुम्हारा और नीलिमा का आए दिन के बाहर के शो। रात को मैं चुपचाप देखता, सुनता मोहल्ले की सरग़ोशी... डरता था। दीप्तिहीन हो गई थी नीलू, तुम जब साथ हाथ पकड़े निकलती थीं शो के लिए दबे पाँव, मोहल्ले के नीम और पीपल की छाया में रोशनी से खुद को और उसे बचा कर। मैं तुरंत अपना लैम्प बुझा देता। मगर कोई था जो समूचे क्षितिज पर बिखेर देता था सितारों का घना झुंड, मैं जान जाता था क्योंकि तुम लौटती थीं अकसर मेरी नींद से उचाट आधी रात बीतने के बाद में और बगल वाले घर में एक उनींदी सुबह चहलकदमी से भर जाती। तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ सब को उबारने की जगह डुबो रही थीं, वह दलदल था... और तुम धँस रही थीं।

“तुम्हारे काक को गाने नहीं बुलाता कोई, मेरा और नीलिमा का भविष्य इन्हीं शोज़ में है बाबू। मैं नहीं जाऊँगी तो... देखो अभी रूसी फेस्टिवल का बुलावा आया है, कल फ्रांस से आएगा। सांस्कृतिक केन्द्र की गगन कौर ने ही सिफारिश की थी, जिससे तुम और बाऊ जी चिढ़ते हो, बताओ बिना जानपहचान यहाँ कौन पूछता है? मुझे अपने नीचे ज़मीन तो बनानी है न, वरना छोटे शहर के आर्टिस्ट की क्या बिसात?”

“छोड़ो कैरियर, हम शादी कर लें।”

“खिलाओगे क्या?”

“मुम्बई जाएँगे, वहाँ फिल्मों में लिखूँगा।”

“सोच लो चार साल छोटे हो... ”

“मर्द औरत से छोटा तब भी नहीं होता जब वह बच्चा होता है।”

“जा-जा बड़ा आया... बाबू”

“कितना कहा अब मत कहा कर बाबू, जीजी भी अब चेतन कहती है।”

“चल हट मैं तो बाबू ही कहूँगी, नंगा घूमता था तू... मेरे आगे।”

“तुझे सजा मिलेगी इस जा–जा की... यहीं अभी...” और मैं उसका गला दबा देता... वह दबा लेने देती, कुछ देर बाद मैं छोड़ देता फिर देर तक गला चूमता। उस पर बने अपनी ही उँगुलियों के निशान।

मैं जानता था, उसे इस पल मेरे प्रेम की कहीं दरकार नहीं थी, उसे नहीं चाहिए थी अतीत की क़ैफियत… न भविष्य का कोई साझा स्वप्न। उसकी पटरियाँ मुझे बदलती दिख रही थीं चलती हुई रेल में से जैसे दिखती हैं। उसे जब मैं समझाता तो वह भीतर तक उदास और नाराज़ हो जाती। घण्टों चुप रहती या तल्ख़-ज़बान हो सब पर चीखा करती। साथ बिताई बरसों–बरस की जिन्दगी यूँ ही तो व्यर्थ नहीं की थी। अलग–अलग तरह के व्यक्तित्व के बावजूद वे बहुत अधिक एक से थे। कम से कम मैं तो यही समझता रहा अंत तक।

मैं दस लोगों की मार्फत टुकड़ा-टुकड़ा मिला, एक पता हाथ में उलटता–पुलटता शहर के अपेक्षाकृत ऊँचे हिस्से में चला आया - ‘भैरव विलास’। यह एक सुन्दर, राजपूताना शैली में बनी विला थी, जिसकी बॉलकनियाँ झील के पानी से बतियाती थीं। बल्कि कोई पुरानी हैरिटेज इमारत थी, दीवारें गेरुए रँग से पुती थीं, प्रवेशद्वार पर बड़ा लकड़ी का गेट, दोनों तरफ ताखों में भैरव की काली मूर्तियाँ डटी थीं, द्वारपाल बन। उन पर पुता सिन्दूर और कौड़ियाली आँखें… बहुत रहस्यमय लग रही थीं। मैंने दरबान को अपना नाम बताया, भैरवद्वय को नहीं, असली दरबान को। थोड़ी देर बाद मैं स्विमिंग पूल के किनारे खड़ा था। मौजैक का बना टैरेस बहुत खूबसूरत था, बड़े-बड़े पेड़ टैरेस पर छाए थे। पहली मंजिल पर स्विमिंग पूल।

वाह! दरबान ने टेबल सजा दी, शराब, बर्फ, स्नैक्स, जूस ला दिया, मैं बैठ गया, पूल में कोई तैर रहा था, शाम ढलने के बाद का अजब संक्रमण काल था, एक लम्बी पुरुष आकृति बाथरोब लपेटती पूल से बाहर आई।

काले-सफेद बाल, सतर देह, तीखी मूँछ, विलासी होंठ और मारक साँवला रंग... नो डाउट, इस कमाल के आकर्षक आदमी की दूसरी पत्नी बनने में मृदुला न झिझकी हो।

“मैं, अनिल बख्शी।”

उसने हाथ बढ़ा दिया, “चेतन भाटी।”

“माफ करें, इंतजार करना पड़ा आपको। मुझे दोनों वक्त मिलने के इन पलों में तैरना बहुत पसन्द है। बहुत तिलिस्म होता है इस समय में, गुलाबी से साँवला होता आकाश जो कि पूरे दृश्य पर पारदर्शी उलटे ढक्कन-सा औंधा पड़ा होता है। अबाबीलों की जगह छोटी चमगादड़ें (फ्रूट बैट्स) ले लेती हैं और आपके बिलकुल ऊपर उड़ती हैं। नीला पानी भी सलेटी होने लगता है, धीरे-धीरे पानी के भीतर कुछ नहीं दिखता। फ़्लड लाइट के चारों तरफ देखो तो भीगी – पानी भरी आँखों से हज़ारों प्रकाश पुंज नाचते दिखते हैं। अलौकिक, एकदम अलौकिक! एक जादू का वक्त होता है यह। बहुत रहस्यमय। एक–एक कर तारे उगने लगते हैं, आकाश की नीली गुफा की कैद से छूटे जुगनुओं-सा। तारों के उगने की सुगबुगाहट, रात किसी नाज़ुकमिजाज़ स्त्री के काले गाउन की सरसराहट की तरह आहिस्ता से आसमान के फलक पर फैल जाती है, रोशन पंखों वाली तितलियाँ कन्धे पर बिठाए चाँद नाटकीय ढंग से अचानक आकर रात की कमर में हाथ डाल देता है और फिर शुरू होता है ‘वाल्ट्ज़’।”

“अरे वाह, आप तो कवि हैं।”

“कोई कवि नहीं हैं, जो हैं वह यह समय बना देता है।” कह कर उसने वेटर को इशारा किया, “जा, भाभी सा ने भेज… तो आप फिल्म बनाते हैं?”

“जी, स्क्रिप्ट राइटिंग की है, बहुत फिल्मों की, फिर तीन फिल्में बनाईं भी… ”

“आपका परिवार नहीं आया? उदयपुर देखने लायक जगह है।”

“आय एम डिवोर्सी।”

“ओह… मेट्रो कल्चर।”

“उसे दोष क्यों दें, मैं कलाकार हूँ, शायद कलाकार शादी के लिए नहीं बने होते। वैसे भी उदयपुर नया नहीं है मेरे लिए, गोगुन्दा अपना ठिकाना है।”

“यहाँ आप रहे हैं? यह मृदुला ने नहीं बताया।” वह बुरी तरह से चौंका - यह जानकारी नितांत नई थी उसके लिए।

“दरअसल, बहुत पहले चला गया था मुम्बई, कॉलेज खत्म करके ही।” वह हँसा… अजीब-सी हँसी। मेरे साथ-साथ, उन तीनों बहनों के अतीत की राख को उड़ाती-सी।

“भाभी सा ने आपको और मेहमान को कमरे में बुलवा भेजा है।”

“आप चलिए, मैं आपको डिनर पर मिलता हूँ, कुछ फॉरेनर गेस्ट एक्स्पेक्टेड हैं।” वह अदब से झुका, और घमण्ड से मुड़ा और चला गया। करेक्टर है ये तो पूरा, आएगा बच्चू तो इसमें नहीं तो अगली फिल्म में आएगा, राजस्थान की हवेलियों के भू माफिया के हेड की तरह, अदब और ठसकदार विलेन की तरह। मैंने तय कर लिया।

गलियारे... कमरे.. गलियारे.. फव्वारे, गलियारों की दीवारों पर पुरानी श्वेत श्याम तस्वीरें लगी थीं। दावतों की, शिकार की, शादियों की, परिवार की सामूहिक। रंगीन काँच के झरोखे, झूमर। मृदुला के कमरे पर वेटर ने बहुत हल्का-सा खटखटाया, “भाभी सा।”

वही सुन्दर, सफेद सादा मगर ज़हीन चेहरा मेरे सामने था।
“भाई सा!” एक सच्ची खुशी, सच्चा उत्साह उसके चेहरे पर था। मैंने उसे कन्धों से थाम लिया। “मृदुला तुम... मेरे मीठे अतीत की इकलौती ज़िन्दा चीज।”

मेरी बात सुनते ही हंसिनी ने उड़ान को फैलते पर समेट लिए, वह कुण्ठित हो गई।

उसकी आँखों ने सहम कर कहा , “श्शश... ”

“चेतन भाई सा, अन्दर आइए ना!” उसका सहमापन, सिमटा हुआ अस्तित्व पढ़ रहा था।

“खुश हो न... ”

“देख तो रहे हैं ना, मुझे ऐश्वर्य की कमी है कोई?”

“मैं सुख की बात करूँ तो... ”

उसके चेहरे पर पसीना आ गया ठंड में भी।

“अच्छा जाने दो, मैं फिल्म बना रहा हूँ, क्या सहायता करोगी?

“शायद नहीं, पद्मा जीजी का नाम यहाँ निषेध है।”

“तुम्हें कैसे पता कि... ”

“मैं नहीं जानूँगी क्या ... कि बरसों बाद क्या आपको लौटा कर लाया है, अतीत जो अब अतीत नहीं किस्सा-कहानी रह गया, एक नॉस्टेल्जिया।”

“पद्मा आखिरी दिनों जहाँ रही, वो घर किसके नाम है?”
“वो कोने वाला हिस्सा अब भी है, बाकि पापा के चचेरे भाइयों के पास है। नाम-वाम क्या है? बस चाभी मेरे पास है।”

वह शर्मिंन्दा लगी।

“क्या मैं वहाँ ठहर सकता हूँ?”

“वहाँ क्यों? यहाँ ठहरो न, हवेली का आधा हिस्सा होटल है।”

“पागल हो, तुम्हारी ससुराल है... तुम्हारा पति, उसका दूसरा परिवार... ”

“मैं इनको मना लूँगी। आप यहीं रहो। बस पद्मा का नाम मत लीजिएगा कहीं भी।”

“फिर बेकार है यह ज़िद, मेरी तो फिल्म का टाइटल ही है - शालभंजिका।”

“अरे! जीजी का वो फोटो मेरे पास भी था बहुत दिन तक। गुलाबी कनेर की डाल वाला।”

पद्मा से अपनी स्कूल की चोटियाँ बनवाती, टिफिन बनवाती मृदुला के चेहरे के भाव देख कर मुझे लगा कि उसके जीवन में अतीत से आती सारी गलियाँ निषेध हैं। बन्द किताब की तरह था उसका चेहरा, जिसके टाइटल से भीतर का कुछ पता नहीं चलता था… क्याप-सा।

“मैं वहीं ठहरूँ तो तुम्हें एतराज़ तो नहीं?”

“नहीं, मैं वहाँ ठीक-ठाक तो करवा दूँ। जीजी गई तब से बस एक बार खोला, सब वैसा का वैसा ही पड़ा है।”

“मृदुला, उसे वैसा ही रहने देना प्लीज़, कुछ मत बदलवाना।”

“साफ-सफाई की तो दरकार है, बहुत जाले हैं वहाँ।”

“बस सफाई।”

“ठीक है।”

“खुद जाना, देखना कोई चीज हिले भी ना… मुझे वहाँ रहना ही नहीं शूट करना है।”

“क्यों गड़े मुरदे उखाड़ते हो भाई सा,” मृदुला सिसकने लगी।

“अरे! पगली, जिसे प्रेम किया, क्या उसे बुरी छवि में पेश करूँगा? तू देखना तो… एक मास्टरपीस बनेगा, अमर हो जाएगी ‘शालभंजिका’।”

“… ”

“अभी सफाई की जल्दी नहीं है, फिलहाल कल मैं कुंभलगढ़ जाऊँगा, वहाँ जाकर जम कर स्क्रिप्ट पर काम करूँगा, जब तुम बता दोगी कि साफ हो गया तो मैं लौट आऊँगा। जब सारा काम हो जाएगा, फिल्म क्रू के लिए वहीं लॉजिंग बुक करके, जीजी के पास गोगुन्दा जाऊँगा, उन्हें उदयपुर ले आऊँगा। शूटिंग से पहले।

 

7

कुंभलगढ़ का यह जंगल ठीक उसी की तरह रहस्यमय है। यहाँ की सुबहों और शामों में घनेरा अन्तर है। सुबह पंछियों की काकली में गूँजता है यह जंगल, तो दोपहर में यही जंगल सुस्ता रहे तेन्दुए-सा लगता है। शाम घर लौटने की विविध गतिविधियों से प्रतिध्वनित-सी और रात विकल कर देने वाली उदास शान्ति में डूबी-डूबी। यहाँ जैसी व्याकुल कर देने वाली शान्ति मैंने कहीं नहीं देखी और ये सौन्दर्य तो किसी कुशल चितेरे की कल्पना में भी नहीं समा सकता, यह सौन्दर्य तो अद्भुत है, नितान्त अद्भुत! यह स्वप्न किसी और का था और इस स्वप्न में भटक मैं रहा हूँ, एक शापित यक्ष की तरह। पेड़ों ही पेड़ों से होकर गुजर जाते उच्छृंखल बन्दरों के झुण्ड। मोड़ से घूमते ही अचानक सामने आकर चौंका देने वाला नित नवीन दृश्य। यही तो था उस वनकन्या का स्वप्न। पद्मा चाहती थी, यहाँ बसना कुम्भलगढ़ के इन्हीं रास्तों में। जब हम दोनों मोटरसायकिल पर शहर के बाहर निकल आते तो वह रास्तों में बार-बार उतरती।

“किसे चाहिए घर–बंगला। ऐसी एक झोंपड़ी डाल लेंगे, लीपा आँगन। छप्पर पर चढ़ी तोरई की बेल, आँगन में महकता मोगरा, तुलसी... एक खाट... ”

“खाट ज़रूर चाहिए.. हाँ... ”

“हाँ नहीं तो क्या, जो ऊपर उसके घुटने छिलें, जो नीचे उसकी पीठ।”

“लफंगी!”

वह स्वयं तो किसी कोहरे में छिप गई है, जहाँ से बस कभी–कभी उसकी आवाज़ गूँजा करती है। वह कहा करती थी – हम–तुम इसी ज़मीन के तो मौसम हैं, कहाँ जाएँगे? लौट आएँगे यहीं, मैं भी, तुम भी!

सोलह वर्ष बीत गए, और आज अतीत दुहराता इस जंगल में बैठा हूँ। झिंगुरों की आवाज़ों और बढ़ती स्याही से बेखबर-सा। अब तुम अदृश्य हो पद्मा, किसी पराए देश में, तुम्हारी जीजिविषा खुलती क्यों नहीं, तुम चीख कर बाहर क्यों नहीं आ जाती हो।

वन विभाग की एक गेस्टहाउसनुमा कॉटेज में मेरे रहने का इंतजाम हो गया है। बचपन के एक सहपाठी के सौजन्य से। यहाँ जीने के मूलभूत साधनों में मेरे बिस्तर, कपड़ों से भरी अलमारी, किताबें, एक छोटा म्यूजिक़ सिस्टम, एक पोर्टेबल टीवी रखे हैं बस। वैसे इस रिसोर्टनुमा कॉटेज में एक और बेडरूम, एक लिविंगरूम, किचन तो है ही। पर मैं इसी कमरे में रहना पसंद करता हूँ, इसके पीछे एक छोटा-सा स्क्वॉश कोर्ट है जो लगभग जंगली झाड़-झंखाड़ से ढक गया था। मैंने इसे अपने खेलने लायक बना लिया है। इस कमरे में एक बहुमूल्य-सी चीज है जिसे मेरा एकमात्र ऐश्वर्य कहा जा सकता है, एक खुशनुमा तितली की तस्वीर है, ग्रेशल की रंगीन तस्वीर।

यहाँ मेरा एक सहचर भी है। मेरा यह सहचर एकदम अनोखा है। पूरी लगन से सेवा करता है। बोलता कम है, आदिवासी गीत गुनगुनाता रहता है। मेरा हर क्रियाकलाप बड़े ध्यान से देखा करता है। खाना ऐसा बनाता है कि मेरा प्रयास रहता है कि खाना जिव्हा पर कम से कम रहे, सीधे गले में उतर जाए। कभी-कभी मूड में होता है तो अहाते से ख़रगोश या तीतर–बटेर पकड़ कर अपनी पारम्परिक रेसिपी से उसे पकाता है। आज ऐसा ही हुआ था, बस खाना खाकर लेट गया था। सालों बाद दोपहर में यूँ लेट पाने की फुरसत नसीब हुई थी। आदत नहीं थी सो नींद ही नहीं आई। उठा और चला आया इस ओर भटकने और खो गया अतीत के बीहड़ में, जिसका भी इस जंगल की भाँति कोई ओर-छोर नहीं। बहुत उलझ कर लौट जाता हूँ। लौट कर घने शीरीष की डालों से ढकी बॉलकनी में, इज़ी चेयर पर जा बैठता हूँ। शाम होते ही जंगल का कलरव नीरवता में बदलता जा रहा है। रात ढलने तक यहीं बैठूँगा और बस पद्मा के बारे में सोचूँगा और लिखूँगा। यहाँ आकर नम हवाओं और सीली हुई स्मृतियों के असर ने उस काष्ठ को जीवन और स्पंदन दे दिया है, जिसमें पद्मा की स्मृतियों के नये, रक्तिम किसलय फूट पड़े हैं।

पद्मा तो एक बरसाती नदी थी, जब-तब मुझमें बहती-सूखती रहती। अब तो वह एक आभास मात्र है, कच्चे ग्राम्य-गीतों की तरह दूर से महसूस भर होती है। उसी की तरह उसका स्नेह भी अनोखा था। प्रेम में अगाध विश्वास था उसे, कोई फिल्मी या आकर्षण जनित प्रेम नहीं सहज मौलिक प्रेम जिसकी परिभाषाएँ भी मौलिक हुआ करती थीं। उसके शब्दों में प्रेम की सराहना कभी आम संवादों में नहीं होती थी, जैसे आत्माओं का सहस्पंदन ही प्रेम है। उतना ही अनश्वर, देह से परे होकर सोचें तो वह कभी भी, किसी से भी हो सकता है। उसे गुनाह, समर्पण, शील-संकोच जैसे शब्दों से चिढ़ थी, उसके अनुसार प्रेम तो प्रकृति सा निर्बन्ध होता है, वैसे ही जैसे दो फूल साथ खिलें, आपस में टकराएँ, अपना पराग बाँटे फिर मुरझा कर पांखुरी-पांखुरी हो बिखर जाएँ। वह बहुत उलझाती थी और मैं बहुत समय तक तो जान ही न सका कि वह मेरे लिए क्या सोचती है। उसकी उन मौलिक परिभाषाओं ने खूब छला इतना कि आज तक ठगा-सा बैठा हूँ।

“पद्मा, ये जन्म किसी तरह बिता लो। अगर पुर्नजन्म होता होगा तो उस जन्म में फिर मिट्टी में साथ खेलेंगे और उसी पेड़ की डालें हिला-हिला कर भीगा करेंगे। उस दिन वह मेरे वक्ष से लग फूट-फूट कर रोई थी। जब दो व्यक्ति प्रेम में डूबे होते हैं तो वे सोचते हैं उनका प्रेम छिपा है बस उनके दिलों में, उन्हें कोई नहीं देख रहा। उनके प्रेम का बिरवा उनकी गुँथी हुई हथेलियों में छिप कर बढ़ रहा है। किन्तु पता नहीं कब इस पौधे के बड़े-बड़े सब्ज हरे पत्ते हथेलियों से बाहर आ दुनिया को चौंका जाते हैं। हमारे साथ ऐसा ही कुछ हो रहा था।
वह मुझसे चार साल बड़ी थी, और मैं होश सँभालते ही उससे प्रेम करने लगा था। ओह! उसकी स्पंदनों से भरी लहर-लहर देह की याद इस कुहासे से भरी सुबह में मुझे कँपा गई। कॉफी के घूँट भरते ही ढेर सी कडवाहट सीने में उतर गई। हवा में शीतलता बढ रही है। दूर किसी पेड़ से आई बंदर की चीख क्षणिक रूप से सिहरा जाती है। सुबह बस होने को है पर उजाला नहीं धुंधलका बढ रहा है। ढेर से अंगारों-से विचार और सवाल कोहरे के अस्पष्ट पर्दे पर खिल रहे हैं। हर सवाल में, हर विचार में वही साफ-धुली तस्वीर। इतने बड़े अरसे बाद अतीत टूटती दीवार-सा मुझ पर ढह गया है, मैं अचेत पडा हूँ और वह तमाम गुनाहों से परे हो गई है। मैं पूरी रात स्क्रिप्ट पर काम करता रहा हूँ... मगर इस हहराती नदी-सी गाथा के खुले किनारे बहुत हैं, बाँधू कैसे?

पूरी नोटबुक के की बोर्ड पर खट–खट करते बीत गई, चलो एक लम्बा दृश्य तो बना
बहुत कुछ वह कहती रही, बहुत कुछ मैंने कहा। इतने अलौकिक सम्बन्ध का कटु अंत मुझे तोड़ गया। फिर भी कार लेकर उसके घर पहुँचा था। न जाने क्यों गेट की आवाज सुन वह नीचे चली आई थी -- ''कौन है चौकीदार जी?”

मुझे उसका यूँ मेरे आने की उम्मीद करना भला लगा और फिर से लगने लगा कि इस संबंध की अलौकिकता हमेशा रहेगी।

''तो तुम्हें हमेशा की तरह पता था कि मैं आऊँगा?” वह चुप रही।

“इतने लम्बे बाल क्यों कटा लिए?” वह चुप रही। दीवार में बने एक छेद की मिट्टी कुरेदती रही। उसने लम्बी नारंगी स्कर्ट पहनी थी और गुलाबी टी शर्ट जिस पर लिखा था, “आय’म नॉट सेल्फिश, बट आय नीड एवरीथिंग।”

“अपना खयाल रखने का आश्वासन दोगी तो मैं भी जी सकूँगा।”

मेरे लिए वे बहुत कठिन पल थे, पीड़ा से घनीभूत मगर वह बोली, “चलो लाँग ड्राईव पर चलें।”

“कहाँ?”

“शहर से बाहर, उन्हीं रास्तों में जहाँ शिरीष के जँगलों में पीले फूल खिले होंगे। उसी दिन उसने कोहरे में डूबे रास्तों पर धीरे-धीरे चलती हुई कार के भीतर मुझसे लिपटते हुए कहा था, कि – “आज बता दूँ… जो मैं बुदबुदाती थी वह डायनिसस के मंत्र थे – जो शराब, पुनर्जन्म और प्रजनन का देवता है। मैंने कहीं पढ़े थे, किसी पुरानी किताब में ग्रीक मायथॉलोजी की।” कहते हुए वह किसी बेहद गोरी गेइशा औरत की तरह दिख रही थी।

“ऐईईईई रोको… भूल गए आगे खुली रेल्वे क्रॉसिंग है। और देखो उधर… ” एक इकलौता इंजन हमारे आगे से गुज़र गया।

“उफ्फ! कोहरे में सच में कुछ नहीं दिखा था… ” “अभी वो मंत्र सच हो जाते, साथ मर कर साथ जन्म लेते… आगे के जन्म में साथ प्रजनन करने को।” खिलखिलाती वह उतर गई कार से। भग्न मंदिर के अहाते में था उसका प्रिय शिरीष… उसके सारे फूल रात हुई बरसात में झरे पड़े थे, पेड़ नंगा था। कोहरे में किसी प्रेत–सा खड़ा, बस महक ही महक फैली थी और कोहरा… उसी में से आवाज़ आई।

“अच्छा सुनो एक बात बताओ क्या तुम ऐसे बच्चे के पिता बनना चाहोगे जो तुम्हारा न हो?”

मैं अचकचा गया था।

आय एम इंटरेस्टेड इन कनक्लूज़न... , मैं चुप रहा।

आई हैव कनक्लूडेड,

बस वही आखिरी दिन था जब मैं पद्मा से मिला था।”

मुझे इसे फिल्म में बड़ी ट्रिक से लेना था।

मन को अन्यमनस्कता से बचाने के लिए एक पेग व्हिस्की ले लेता हूँ। सुबह चार बजे सो जाता हूँ, नींद के घेरों में भी वही सब पद्मा, उसकी बातें, उसकी हँसी तो कभी रुदन। नींद से अचानक जाग कर अपने चतुर्दिक को पहचानने की कोशिश करता हूँ। एक परछाईं लगातार साथ रह रही है इस बार। बहुत कुछ अनजाना–सा जो अपनी चुप्पी में खुद को व्याख्यायित कर रहा है। पद्मा समेत, मेरे दूसरे पात्र भी चुपचाप आकर मेरी गुमी हुई नींद से खेलते हुए अनमने से मेरे सिरहाने खड़े रहते हैं, अपना अतीत, अपना दर्शन, अपना–अपना तुर्श व्यक्तित्व लिए।

सन्नाटा अपने पंखों की फड़फड़ाहट से अपने ही अहसास को कम कर रहा है। सन्नाटा चीरती हुई आवाजें मेरे भीतर से उभरती हैं या वातावरण से बता नहीं सकता। खिड़की खुली रह गई है। शीशम, चीड़ और कई लम्बे पेड़ों से टकरा कर सन्नाटा चमगादड़ की तरह फड़फड़ाए जा रहा है। बाहर अँधेरा है; पर यही अँधेरा प्रकृति की हसीन एक अदा है। किन्तु भीतर का अँधेरा?

आते समय एक मोटा बन्द लिफाफा मुझे मृदुला ने दिया था - “चेतन भाई सा, यह अब नहीं सँभलता मुझसे। आप ले लो काम आए तो... नहीं तो फेंक देना बाहर कहीं। मैं तो घर से बाहर बहुत ही कम निकलती, जाती हूँ, अलबत्ता शहर से बाहर ज़रूर जाना हो जाता है।”

यह एक खत क्या था किसी नोटबुक के पन्ने थे, खुद पद्मा के हाथ के लिखे पन्ने, उस पते पर मिला था जहाँ वह रूस जाने से पहले रहती आई थी। इसे शायद डर कर मृदुला ने खोला भी नहीं था, यह खतनुमा एकालाप न जाने किसके नाम था। उस पर मेरा नाम तो नहीं था, मगर मैं सिहरता रहा कि किसके नाम था वह आखिर?

यह एक आखिरी खत किसी के नाम नहीं था, न खत पर किसी का नाम था... न सम्बोधन, “मैं थक गई हूँ अपनी सच्ची भावनाएँ छिपाते–छिपाते। मुझे अपने चेहरे पर झूठी मुस्कान क्यों चस्पाँ रखनी होती है? मैं हमेशा बुद्धू या सीधी या पगली क्यों समझी जाती रहूँ, जबकि मैं जानती हूँ कि सामने वाला लगातार बहला रहा है, बेजा अधिकार जता रहा है। मैं क्यों नहीं दिखा सकती कि मैं नाराज़ हूँ या बहुत अच्छी तरह समझ रही हूँ उनकी छिपी मंशा। मुझे नहीं पता, मैं जिसे आकाशगंगा समझ कर चलती आई वह जलती चिता थी मेरी, मुझे आग महसूस क्यों नहीं हुई? ये कैसा पुरज़ोर जोश था? मैं लौट जाना चाहती हूँ, मगर कहाँ? जहाँ से भाग आई थी, वहाँ तो लौटने के सारे निशान मिटा आई हूँ।

मैं जान गई हूँ कि मैं यहाँ अजनबी हूँ। मैं इस भाषा को बोलते में अटकती हूँ। मैं वो शब्द सही नहीं उच्चार पाती जो मेरे नहीं हैं, मेरा उच्चारण मुझे मेरे देश की याद में ले जाता है। मुझे अपने सारे संदर्भ कटे–कटे नजर आते हैं। मैं सोचती थी देश छोड़ कर, मुखौटा ओढ़ कर गुम होकर मैं अपने अतीत को छका लूँगी, अगर यह छकाना है तो औरों के लिए होगा, खुद को कोई कैसे छका सकता है? हमारी अंतश्चेतना मूर्ख नहीं बन सकती।
मैं थक गई हूँ वह दिखाते हुए जो कि मैं हूँ नहीं। मैं संसार को अपना सही आकलन करने के लिए अपना सही कोण दिखाना चाहती हूँ। मगर मैं डरती हूँ कि पता नहीं सब क्या सोचेंगे... वास्तविक में मैं ऐसी हूँ, मैं खुद नहीं जानती कि कैसी? मैं भूल ही गई हूँ कि मैं वास्तव में कैसी हूँ... मुखौटा पहनने की आदत जो हो गई है। काश मुझे पता होता कि दरअसल मैं हूँ कैसी? मेरी मौलिकता क्या है? मैं कैसी दिखूँगी जब मैं, नितांत मैं होऊँगी। मैं थक गई हिदायतों से... ऐसे चलो, यह मत करो वह करो, यह मत पहनो... वह पहनो... यह मत कहो। कहना भी है तो ऐसे नहीं जरा बदल कर, डिप्लोमेटिक बनो। लड़खड़ाओ मत, लड़खड़ा ही गई हो तो गिरो मत, गिर गई मूर्ख... तो अब उठ जा, चोट लग गई तो लगने दो... गलती की है तो दर्द से चीखो मत... संभ्रांत हो... गुस्सा पी जाओ। गाली मत दो पलट कर। हे ईश्वर, रोक ले मुझे, मैं किसी को चाँटा न मार दूँ प्रतिक्रिया में। अरे! जो कहा गया उसकी चीर–फाड़ मत करो। छिपे अर्थ मत निकालो द्विअर्थी बात के। बात मत पकड़ो, मर्द तो होते ही हैं ऐसे। चुप रहो... ज़बानदराज़ी मत करो।

काश मुझे याद होता कि दरअसल मैं दिखती कैसी थी? मैं क्या महसूस किया करती थी, मैं क्या सोचा करती थी? मैं कैसा व्यवहार किया करती थी... या मुखौटा न लगा होता तो आज मैं कैसी दिखती, महसूस करती, सोचती और व्यवहार करती? अपनों से ही खुद को छिपाते हुए बीमार हो गई हूँ। बल्कि खुद को धोखा देते हुए। काश मैं दुबारा शुरू कर पाती... और अपनी नितांत अपनी तरह हो कर। जो मैं हूँ रह पाती। मैं अपनी ही बनाई कैद में हूँ। माफ करना! तुम जानती थीं तुम कौन हो... और फिर भी तुम कभी देख–बूझ नहीं पाई।

वैसे अब तक तो मैंने जो चाहा वही पाया है, शायद मुखोटों की बदौलत। पर अब नहीं सह सकती, अब जब मुझे अपने सामने सड़क दिखती है और अतीत परछाइयों के पीछे दुबका है। क्यों नहीं मैं बाहर निकल कर अपने डर से लड़ती हूँ? क्यों मैं इन जिन्नों को अपने भीतर की बोतलों में बन्द रखे हूँ? जानती हूँ मैं आदर्श व्यक्ति नहीं, जानती हूँ लोग मुझसे कैसे व्यवहार की उम्मीद करते हैं। मैं यह भी जानती हूँ कि वे सब हँसते हैं सच पर। लोगों के खिसके हुए मुखौटों पर... और अपना कस कर थामे रहते हैं।

स्मृतियों के चीरे बड़े गहरे लगे होते हैं त्वचा में, यहाँ आप उससे कहीं ज्यादा सज़ा पाकर भी बरी नहीं होते जितना कि जुर्म आपने किया होता है। खून टपकता है और कालीन पर दाग़ बना जाता है। क्यों उतरी थी बियाबाँ में माज़ी के। मुखौटा चीख़ता हुआ हाथ थाम के पट्टी करता है। मैं हाथ छुड़ा लेना चाहती हूँ। मगर ऐसा नहीं करती। क्या मैं डरती हूँ यह जानने से कि मुझे किस–किस से घृणा है? या मुझे मीठी पीड़ा मिलती है डर कर। जैसा भी हो पर एक बात तो तय है कि डर और आँसू का भी एक समय होता है।

मैंने खुशबू से बहक कर मुलायम पंखुरी वाले, सफेद गुलाब निगल लिए थे, काँटों ने गला काट दिया है। लाल रंग प्रेम, आवेग पीड़ा का रंग है... वे गुलाब सुर्ख हो गए हैं। रक्त सने सफेद गुलाब कभी नहीं जान पाएँगे इस रंग की क्रूरता। मुझे अब कुछ आहत नहीं करता सिवाय मेरे नाखूनों के, मुझे अब कोई चोट नहीं पहुँचाता सिवाय मेरे अपने।

तुम मैं नहीं... हो भी नहीं सकते।

मैं गहरी रातों का सन्नाटा हूँ। मैं तुम्हारी त्वचा को सिहराता भय हूँ। मैं वो बाज़ हूँ जो तुम्हारे निशान पकड़ता हुआ पीछा करता है। मैं एक खुली, खाली कब्र हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा में। मैं तुम्हारा अंत हूँ... मैं वह हूँ जहाँ तक तुम्हें तुम्हारा हर कदम ले आएगा। मैं तुम्हारे लिए मृत हूँ, फिर भी मैं बँधी हूँ अभिमंत्रित तुम्हारी खुशी के लिए। अगर मैं कोई नहीं, कुछ भी नहीं तो समय आएगा जब तुम मेरे जैसे कुछ नहीं होगे... कोई नहीं किसी के।

मैं तुम्हारे लिए नाची हूँ, बेहद कसे हुए धागों में, तुमने मुझे नंगा घुटनों के बल चलाया, यहाँ तक कि धागे गहरे मज्जा में धँस गए मगर टूटे नहीं। मैं बार-बार लटका दी गई। मैं तुम्हारी मुस्कान की शिकार थी और सोचती रही सब ठीक है, कनपटी पर रखी रिवॉल्वर के डर से मैं चलती रही भरी सड़क पर और किसी का ध्यान कैसे नहीं गया? कैसे? मगर आवाजों को क्या हुआ है? भ्रम में लिपट कर लौट-लौट कर आ रही हैं। जो एक साल पहले निकली थीं गलों से। वे फीकी और हल्की क्यों नहीं हुईं... शब्दश: पिघलती हैं शीशे-सी... कानों में। टूटे पंख, टूटे मन और आत्मा।

प्रेम बर्फीला सफेद सन्नाटा है, कभी सुना नहीं गया। सुन्दरता खून से रँगे सफेद गुलाब हैं, कभी देखे नहीं गए। पीड़ा तुम्हारे सपनों का लिया गया बदला है, जो कभी पूरा नहीं होता। न होगा। मन करता है मैं अपने हाथ तुम्हारे खून से भर कर दीवारें चित्रित करूँ, अपनी ग्लानि, आत्मसम्मान और सम्मान दिखाती हुई कोई तसवीर। भले ही मेरी आत्मा नर्क की भट्टियों में जलती रहे निरंतर। तुम तो यही चाहोगे। एक और मौत मैं अपने कन्धे पर लिए चलूँ।
फ्रीक --- सनकी तुमने मुझे कहा। क्योंकि मैं बिन्दास नाचती हूँ। क्योंकि आग से खेलती हूँ, क्योंकि कसे और फैशनेबल कपड़े पहनती हूँ। क्योंकि मेकअप करती हूँ। क्योंकि अकेले दुनिया घूमती हूँ।

मैं डरपोक हूँ। बहुत पहले जंगल में खो गए एक बच्चे की तरह, जो रोने से डरता है, प्रेम से डरता है, किसी पर विश्वास करते हुए डरता है। मैं पका हुआ घाव हूँ, भरना नहीं चाहता।।दर्द मुझे राहत देता है, अहसास देता है कि मैं अभी ज़िन्दा हूँ। अपने भीतर तालाबन्द, अपने उस मुखौटे में फिट जो सदा मुस्कुराता है। भीतर मेरा चेहरा टेढ़ा है, आईने में देख मैं इसे ठीक कर देना चाहती हूँ। मैं तुम्हें सपनों में देखना बन्द कर देना चाहती हूँ। तुम होना बन्द कर देना चाहती हूँ। मगर बातों में तुम्हारा नाम है कि गीली, ज़िन्दा मछली-सा मुट्ठी से फिसल जाता है।

सुबह जागते ही मैं खुद के चेहरे को आईने में देखती हूँ। इसे ताज़ा और दिन भर के लिए सजग होना चाहिए। ताकि कोई दर्द और संघर्ष के चिह्न न देख ले। कोई भी राह चलता, बस में मिलता... शॉवर, साबुन और झाग... और हाथ से मलती हूँ इसे ताकि दुख की जर्दी मिट जाए। कभी इतना रगड़ देती हूँ कि खून निकल आता है। चेहरा बूढ़ा होने लगा है, झुर्रियाँ दिखने लगी हैं माथे पर। दुबारा देखती हूँ तो रोने का मन हो आता है। कोई खटखटा रहा है, जल्दी से बगल में रखा ठहाका ओढ़ लेती हूँ। या फिर लम्बी सहज मुस्कान। जो बस टेलरमेड हैं और मेरे लिए ही बने हैं। काम पर जाती हूँ... क्लास लेती हूँ। जो जो मिलता है उसके हिसाब से मुखौटा कसती – ढीला करती हूँ। बहुत अपने, अपने, पुराने परिचित, नए परिचित, अपरिचित और विरोधी, उदासीन लोग या फिर काम के लोग। कोई नहीं जान पाता कि हर मुखौटा फिसल जाता है कभी – कभी तो... ऐसे में जल्दी से वॉशरूम में आकर जूतों, ऊपर चढ़ गई ब्रा या खिसकती जींस से और बालों में बँधे स्कार्फ से पहले मुखौटा ठीक करती हूँ।

घर आकर जब भी इसे उतारती हूँ बस थका पाती हूँ। हँसती या रोती चली जाती हूँ राहत से। ये हँसी और रोना कोई नहीं देखता सिवाय भगवान के या उसके खुद के। मास्क मुस्कुराता हुआ रात भर जगता है, मैं वेलियम लेकर सो जाती हूँ। बचपन का खेल याद आता है आई स्पाइस...बढ़िया थी मैं उस खेल में... कोई नहीं ढूँढ़ पाता था।

कभी कभी तो सब भूल कर मुझे घर चले जाते और फिर मैं खुद को भी नहीं ढूँढ पाती थी। मैं खिड़्की के बाहर झाँकती हूँ... एक लड़कीनुमा युवा स्त्री मुँह धोए चले जा रही है, दूसरी तरफ... बॉलकनी में खड़ी स्त्री पति से बात करते हुए लगातार मुस्कुराए चली जा रही है... लगातार... मुझे आश्चर्य हुआ, “क्या मैं अकेली ही हूँ जो मास्क पहनती है? क्या और भी हैं जो बिना खुद को जाने एक ही तरह से मुस्कुराए हुए जीते चले जाते हैं? हमेशा बढ़िया, बिना बीमार हुए...मजबूत दिखते हुए।

बरस हुए, अब भी हर रोज़ मैं एक नया दिन देखती हूँ, बरसाती, धूप भरा, ठण्डा कोहरीला... सुनहरा, सफेद, गुलाबी, पीला, सलेटी... मगर आईने में चेहरा वही... अब फर्क नहीं कर पाती, यह चेहरा है कि मास्क... क्योंकि अब आलस में इसे अकसर रात में उतारना भूल जाती हूँ।

मैंने लिफाफे पर मुहर देखी, यह एकालाप दो साल पुराना था, मैं फूट-फूट कर रो पड़ा... पद्मा, मैं यह फिल्म दो भाषाओं में बनाऊँगा, इसे संसार भर के फिल्म फेस्टिवल में ले जाऊँगा... तुम कभी तो देखोगी, शायद खोज लो फिर से लौटने के रास्ते... विशफुल थॉट!

कुंभलगढ़ से लौटकर जीजी से मिलना हुआ, एक बरस बाद हुआ, एक बरस में ही बूढ़ी से बहुत बूढ़ी हो गई हैं मेरी माँ। मुझे देख माचे से उतर आई और जोश में भर गई।

“कब से राह देख रही थी, तू है कि फोन भी नहीं। महीना हुआ उदयपुर आए तुझे।”

मैं जानता था, इनका अब यहाँ रहना व्यर्थ है। गोगुन्दे की हवेली अब खण्डहर होने लगी है माँ की तरह, गाँव भी बेतरतीब हो चला है, खेत बंजर पानी की कमी से जूझते हैं... और राजनैतिक माहौल ने समीकरण उलझा दिए हैं।

“माँ, फिल्म बना रहा हूँ।”

“ फिर नया जुआ...”

“ क्या करूँ...यही आता है... अब।”

“यही आता है तो ठीक से बनाना... पैसे लगाने वाला मिला?”

” हाँ...”

माँ रही है मुम्बई, मेरे सफल दिनों में, मेरे पास जानती है, फिल्म बनाने की दुश्वारियाँ।

“लो बजट फिल्म है, उदयपुर में ही बनाएँगे। एक हवेली में, पिछोला के आस-पास। तुम साथ रहोगी मेरे, ऐ जीजी, वो लोकगीत था न जो तू गुनगुनाती थी। “कुरजाँ ए म्हारा...” वो मुझे चाहिए फिल्म में। तेरी आवाज़ में। कल रिकॉर्ड करेंगे।”

“गैला हो गया क्या चेतन, आवाज़ अब काँपती है।”

“अरे वही इफेक्ट चाहि,ए जीजी। काँपता हुआ... कुरज़ाँ ए म्हारा भँवर मिला दे नी।”

जीजी तगारी में रखे कोयले उकेरने लगी... चिनगारियों से दालान का माहौल रहस्यमय हो गया, गेरुआ दीवारों पर ब्रह्माण्ड बनने–मिटने लगा। कान में आवाज़ गूँजी, “ चेतन, पद्मा को देखा क्या?” काक सा छ्ड़ी टेकते हुए आए।

“सुबह से नहीं देखा, काक सा, कार्यक्रम था न लोक कला मण्डल में।”

बाऊजी और मैं दोनों ही ऐसे खाना खा रहे थे... जीजी सिगड़ी पर फुलके सेंक रही थी।
“कार्यक्रम को खत्म हुए घण्टा हो गया, जगीस्वर के भी गया मैं, उसने कहा कि वो और नीलिमा, गगन कौर बहनजी के साथ थीं, कार में।”

“जा तो चेतन सायकिल पे देख आ, या मेरा स्कूटर ले जा... हाथीपोल तक जा

आ...पता नहीं सवारी की राह देखती हों लड़कियाँ।” मेरे पिता बोले।

काक सा का तो जैसे मगज ठिकाणे कहाँ था।

“गगन कौर राँड है, मुझे पसन्द नहीं वो औरत, इस बाबत पद्मा को इशारा किया था एक

दिन माट्साब मैंने, पद्मा आजकल अपने आपको इस घर की मुखिया समझने लगी है।”

“सांस्कृतिक केन्द्र के भीतर की कारगुज़ारियाँ क्या मेरे लिए नई हैं? ”

बाऊजी अवाक हो गए, उस आशंका को उन तीन बेटियों के पिता के चेहरे पर देख कर।

मैं पूरे शहर में फिर लिया, कहीं नहीं दिखीं वो दोनों।

मैं लौट कर घर नहीं गया, गली के मुहाने पे एक बन्द दुकान की सीढ़ी पर बैठा रहा, क्या उत्तर दूँ उस बूढे को जाकर? काक सा की आवाज़ मेरे कान में हथौड़े बजा रही थी कि मैंने नीलिमा को गली में मुड़ते देखा... पीछे–पीछे पद्मा। कोई कार लहराती हुई मुड़ गई।

मेरी जलती आँखों से बचा लिया खुद को पद्मा ने। अनदेखा करके।

“प्रायवेट पार्टीज़ में नाचोगी अब तुम दोनों?” मैंने नीलिमा का हाथ मोड़ दिया...

“चेतन, तुम हमारे मामलों में मत बोलो।”

“बोलूँगा, पद्मा, बचपन से आज तक मैं इस्तेमाल हुआ हूँ एक मोहरे की तरह तुम्हारी ज़रूरतों में हरदम... इतना अधिकार बनता है मेरा...”

“कोई अधिकार नहीं है चेतन, तुम कौन हो हमारे? किरायेदार हो... तुम हमारे कितना काम आओगे? घर का खर्च चला दोगे या... और हम कथक नाचती हैं, कैबरे नहीं, वो बड़ी सभ्य पार्टीज़ होती हैं, या टूरिस्ट्स लीगेट्स के लिए। बहुत सम्मान होता है, गगन दीदी...”

“भगवान के लिए इस नाम को मत लो, वैसे ही इस नाम से काक सा बहुत खफा हैं।”

“कहाँ हैं?”

“हमारे घर में बैठे हैं, तुम बहनों का इंतजार करते। उन्होंने मुझे भेजा था, वरना पद्मा, सच्ची मैं नहीं आता। आगे से काक सा से कह के रखना कि मुझे बख्शें। “

“तुम तो वैसे भी जा ही रहे हो पूना।”

पूना फिल्म इंस्टीट्यूट के कोर्स के दूसरे साल मुझे खबर मिली कि नीलिमा ने आत्महत्या कर ली। खबर ने राज्य भर को हिला कर रख दिया था, बड़ी का तालाब में उसकी लाश मिली थी। सौभाग्य के दुर्भाग्य पता नहीं, पद्मा शो के लिए रूस गई हुई थी, उलटे पाँव लौटी तब तक अखबारों में गगन कौर – नीलिमा के नाम – फोटो... मय किस्साबयानी छ्प चुके थे।

मैं बहुत आशंकित मन लिए पूना से उदयपुर लौटा, बाऊ जी रिटायर हो गए थे और किराए का घर छोड़ गोगुन्दा चले गए थे। मैं सीधे गुआड़ी पहुँचा। पद्मा दिन में भी नशे में थी।

“मुझसे कुछ मत पूछ्ना, चेतन।”

“क्या पूछूँगा पद्मा? मैं जानता हूँ समय चीज़ों की शक्ल बदल देता है। जो वो होती हैं उन्हें वैसा रहने नहीं देता। उनके अंतरंग–बहिरंग पर असर करता है। सम्बन्धों पर भी। पूछने का हक ही क्या बनता है मेरा? हम दोनों प्रेम करते रहे, विवाह तुम्हें असंभव लगा क्योंकि मैं तुमसे चार साल छोटा था, जाति की समस्या जाने दो। तुमने एक मेरे समानांतर एक विवाहित व्यक्ति से सम्बन्ध बनाए, मैं जानते हुए चुप रहा, जब मुझे इस गुंजलक से उलझन हुई तो तुमने सम्बन्ध तोड़ लिए। मनमानी करती रही, नीलिमा को कठपुतली बना कर गगन कौर को सौंप गईं...”

“चुप हो जाओ चेतन...”

“अब प्लीज़ मृदुला को विक्टिम मत बना देना।।”

“चेतन...” पद्मा ने नशे में मेरे हाथ की उठी ऊँगली बुरी तरह मरोड़ दी।

“ पद्मा... हैवलॉक एलिस या फ्रॉयड के पास भी तुम्हारी अतृप्ति और महत्वाकांक्षाओं का उत्तर नहीं होगा,” मैं कराहते हुए बोला।

पद्मा ने अपनी पुरानी कबर्ड खोल हम दोनों का ड्रिंक खुद बना लिया। जमाने भर की, कला की, कलाकारों की बातों का अन्त हो चुका था पर अकुलाहट कहीं शेष थी। उदासी किसी- किसी की आँखों में जँचती है। उदासी उसकी आँखों में झलमल जगमगाती थी। सुखी होने का नाटक कौन नहीं करता? पर दुखी होने के लिए नाटक की क्या ज़रूरत। वह तो छलक जाता है हँसी में भी। उसकी आँखों का गीलापन जिन्दा मछली की देह पर तिरता गीलापन था। कभी न कभी तो काठ का कलेजा भी फटता है न! मेरे आगे कभी-कभी वह मोमबत्ती की तरह पिघलती रही बूँद-बूँद। उस दिन भी बहुत देर बाद सिगरेट के धुएँ के गुबार से मेरे मुँह से कुछ बेचैन शब्द निकले... ”

“तुम मुझे प्रेम करती थी कि बस बचपन के रिश्ते का मोह...”

“पता नहीं, तब तो प्रेम ही समझती थी... दो किनारे नहर के जिनके बीच बहता ज़रूर था एक रिश्ता पर उस रिश्ते का नाम नहीं था, कोई पहचान नहीं थी। तुम आधार बने, तुम साथी बने, तुम प्रेरणा बने तो मन के उस नितान्त खाली गर्भगृह में स्थान कैसे न पाते?”

”तुम्हें उसकी ज़रूरत भी नहीं थी। लेकिन तुमने मुझसे भी नहीं पूछा कि मुझे इस पारदर्शी रिश्ते को कोई रंग देने का मन करता है क्या? जिस दिन दुनिया के बीचो-बीच तुम मुझसे अनजान बन कर कतरा जाती थे, उसी शाम हम साथ अदरक की चाय पीते, रात को सिगरेट और बकार्डी के साथ नूडल्स खाते। फिर दो मर्द दोस्तों की तरह इधर-उधर मुँह करके सो जाते। उस जमाने में लिविंग-इन रिलेशन दुर्लभ था, लेकिन हम साथ रहते थे स्वच्छन्द हो कर। शायद वह लिविंग-इन रिलेशन ही था, बिना किसी जिम्मेदारी, बिना किसी बन्धन के जहाँ देह के होने न होने का अर्थ नहीं था। “


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