संदर्भ : बाढ़,
बारिश और प्रेम
प्रेम की फितरत भी कुछ-कुछ बाढ़, बारिश जैसी ही होती है। जब प्रेम का ताप
चढ़ता है तो बारिश होती है, और घनघोर बारिश में नदियाँ उफन आती है, जिसे
नियंत्रित न किया जाए तो त्रासदी में बदल जाती है। बाढ़ और प्रेम में हम
तटबंधों को कैसे नियंत्रित करते हैं, ये हमारे प्रबंधन पर निर्भर करता है।
प्रबंधन गड़बड़ तो दहार आना तय है। सबकी अपनी-अपनी बारिशें होती हैं। उनके अलग
मतलब और प्रयोजन होते हैं। दुनिया को हँसाने वाले अभिनेता चार्ली चैपलिन के
लिए बारिश का मतलब अलग। वे कहते हैं कि मैं बारिश में ही टहलने निकलता हूँ
ताकि कोई मुझे रोता न देख सके।
हरेक पीढ़ी से एक कथाकार की एक-एक कहानी पर यहाँ बात होगी।
सबसे पहले वरिष्ठ कथाकार शिव प्रसाद सिंह की सुप्रसिद्ध कहानी 'कर्मनाशा की
हार' की। जो भी कथा साहित्य में जरा भी अभिरुचि रखते हैं, वे इस कहानी को पढ़
चुके हैं और यह कहानी अमर कहानी है।
'दादी माँ', 'धतूरे का फूल', 'नन्हो', 'एक यात्रा सतह के नीचे', 'राग गूजरी',
'मुरदा सराय' आदि कहानियों तथा 'अलग-अलग वैतरिणी' और 'गली आगे मुड़ती है' जैसी
औपन्यासिक कृतियों के लेखक डॉ. शिवप्रसाद सिंह की रचनाएँ उनकी विलक्षण
रचनाधर्मिता और समकालीन वैश्विक-सामाजिक परिदृश्यों के बरक्स उनके समग्र चिंतन
का संपूर्ण दस्तावेज हैं। डॉ. शिवप्रसाद सिंह की कालजयी कहानी 'कर्मनाशा की
हार', आदिम विद्रूपताओं, सामाजिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों के खिलाफ मानवीय
संवेदनाओं, अमर्त्य प्रेम, अनहद जिजीविषाओं और अथक संघर्षों का आख्यान है।
कर्मनाशा त्रिशंकु के पापों की परिणति है और हर साल बाढ़ के रूप में नईडीह
गाँव को आप्लावित कर हाहाकार मचाती है। आकंठ पाप में डूबा गाँव का मुखिया हर
बरस कर्मनाशा को बलि चढ़ाकर नदी के रौद्र रूप को शांत करने की कुटिल चालें
चलता है। फुलमत विधवा है और वो भैरो पांडे के छोटे भाई नौजवान कुलदीप से प्रेम
करती है। उसकी कोख में कुलदीप का बच्चा पल रहा है। पिता तुल्य भैरो पांडे यह
जान जाते हैं और कुलदीप अपराधबोध से ग्रस्त गाँव छोड़कर भाग जाता है। कर्मनाशा
जब उफान पर होती है और गाँव के लोग बाढ़ की आशंका से भयभीत किसी अनहोनी के
कगार पर खड़े होते हैं तब गाँव का मुखिया फुलमत को उसके दुधमुँहे शिशु के साथ
नदी के हवाले करने का फरमान सुनाता है। फुलमत जाति की मल्लाह है और उस पर
विधवा इसलिए कुलदीप के बच्चे को जनकर उसने महापाप किया है लिहाजा उसे जीते जी
नदी के हवाले कर दिया जाए।
भैरो पांडे जिन्होंने माँ-बाप के नहीं रहते अकेले कुलदीप को पाला-पोसा, उन्हें
उसके किए पर झुँझलाहट तो थी पर उसका भाग जाना उन्हें गहरे सालता रहा। एक पैर
से नाकाम भैरो पांडे कर्मनाशा के भीड़ भरे उस कछार पर पहुँचते हैं जहाँ भीड़
के साथ मुखिया फुलमत को नदी में झोकने की उद्घोषणा कर रहा है। भैरो पांडे
ललकारते हैं कि अगर इस गाँव के एक-एक परिवार का पाप गिनाने लगूँगा तो परिवार
समेत पूरे गाँव को नदी में डूब जाना होगा। अंधविश्वासों पर करारी चोट करते हुए
वो कहते हैं कि अबोध बच्चे और किसी युवती की बलि देने से नदी की बाढ़ नहीं
रुकेगी। हमें इसके लिए बाँध बनाने होंगे। तटबंध बनाने होंगे। वो कहते हैं कि
कुलदीप कायर हो सकता है। वो अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर भाग सकता है पर मैं
कायर नहीं। मेरे जीते जी कोई फुलमत और इसके बच्चे को हाथ भी नहीं लगा सकता।
कर्मनाशा की लहरें चट्टान रूपी भैरो पांडे से टकराकर शिथिल होती हैं।
बाढ़, बारिश और प्रेम की ये कालजयी कहानी एक क्रांतिगाथा है। आदिम चोंचलों और
प्रेम के खिलाफ खड़ी उन्मादी भीड़ पर गंभीर सवाल करती कहानी। प्रेम में जाति,
उम्र और वैवाहिक परिस्थितियों से परे दो दिलों के रूमानी साहस को बयाँ करती
कहानी में मानवीय दुरभिसंधियों से लोहा लेने की और कर्मनाशा जैसी नदी की बाढ़
को शिकस्त देने का सहज मनुष्येतर साहस भी है।
वरिष्ठ कथाकार उषा किरण खान की कहानी की चर्चा के बिना यह विषय अधूरा। यूँ तो
उनकी कई कहानियों में बाढ़ की छाया दिखाई देती है। लेकिन एक कहानी 'मौसम का
दर्द' विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
मानवीय संवेदनाओं, यथार्थ और बौद्धिक विमर्श के बारीक तंतुओं से अपनी रचनाओं
को जीवन के कैनवास पर किसी जादुई तस्वीर सी उकेरने वाली मेरी प्रिय कथाकार,
नाटककार, उपन्यासकार और सामाजिक सरोकारों की मुखर साहित्यकार ऊषाकिरण खान की
कहानी 'मौसम का दर्द', बाढ़, बारिश और प्रेम में सीझी किस्सागोई का अप्रतिम
जादुई निरूपण है। नायक का कनिष्ठ अभियंता के तौर पर बाँध के निर्माण के
सिलसिले में कोसी कछार के एक सुदूर गाँव में पहुँचना और ग्रामीण परिवेश की
नैसर्गिकता में रम जाना स्वाभाविक इनसानी रूमानियत और प्रकृति के संग उसके
तादात्म्य की बानगी है। अड़हुल जैसी खूबसूरत और बेहद भोली जनजातीय युवती भी
नायक की ओर आकृष्ट होती है और बाढ़ के दौरान जब पूरे गाँव को सुरक्षित स्थान
पर पहुँचाने के बाद नायक, अड़हुल के साथ उसके घर में अकेला रह जाता है तो जल
आप्लावित उस घर में बारिश की प्रेम तपिश दो दिलों और दो बदनों को एक कर देती
हैं। नायक और अड़हुल की गरम साँसें एक-दूसरे में समाकर बाढ़ और बारिश की उस
रात को मनु और इड़ा की प्रेम नौका पर हिचकोले खाती रहती हैं। नायक के भीतर का
प्रेमी अड़हुल पर फिदा है और उसके भीतर का पुरुष उसे अड़हुल पर अपने अधिकार के
लिए प्रेरित करता है और वह अड़हुल से उसे अपनाने के लिए प्रणय निवेदन करता है
पर अड़हुल का विवाह बचपन में ही हो चुका है और बारिश की रात में हुए प्रणय को
वह सहज इनसानी रूमानियत और नैसर्गिक दैहिक जरूरत मानती है। उसके जनजातीय
संस्कार उसके निर्भर और निश्छल प्रेम को और उदात्त बनाते हैं। वो नायक से कहती
है कि रास्ते में प्यास लगने पर कुएँ का पानी पीकर प्यास बुझाने में क्या हर्ज
है? घर आकर ही प्यास बुझाना कहाँ की समझदारी? बात इतनी आसान भी नहीं। कथा जो
नहीं कहती है वो बात ये है कि नायिका अहसान उतारती है। उसके पास सिर्फ एक देह
है, वही उसकी पूँजी भी। नायक अलग तरह से सोचता है। अहसान उतारने जैसी सोच से
परे वह नायिका के आकर्षण में बंधा है। मौसम का दर्द नायक को सालता है जब उसे
अड़हुल की याद आती है।
ऊषाकिरण खान की ये कहानी बाढ़ बारिश प्रेम और प्रणय की वो गाथा है जहाँ बेलौस
प्रकृति की गोद में प्यार कुलाँचें मारता रहता है। बारिश और बाढ़ कोसी कछार के
लिए हर बरस का कुदरती त्रास जो अड़हुल जैसी युवती में भय नहीं पैदा करता और जो
बाढ़ जैसी त्रासदी में भी न केवल प्रेम करती है वरन उसे प्रणय जैसे उल्लास और
आनंद में भी घनीभूत कर देती है। बारिश और बाढ़ प्रेम से पराजित होते हैं
क्योंकि प्रेम करने वाली अल्हड़ जनजातीय युवती अपने अथाह हृदय में हजारों
झंझावातों और समंदरों को समाहित करने की क्षमता रखती है। नायक बाँध बनाने वाला
अभियंता है पर प्रेम की बाढ़ को न तो वह खुद रोक सका और ना ही बारिशों के मौसम
में खुद को बरसने से। कहानी के शुरू में ही इसके संकेत मिलते हैं।
'कोसी कछार की लड़कियाँ बड़ी शोख होती हैं, उधर ही कहीं उलझ मत जाना' , नायक
को समझाया जाता है। मगर वह उलझ जाता है। मन कहाँ काबू में। बाढ़ और मन दोनों
बेकाबू प्रवृत्ति के। मन सोचता है, तन नहीं। फ्रेंच फिलॉस्फर देकार्त ने मन को
थिंकिंग और देह को नॉन थिंकिंग थिंग कहा है। नायक तन मन दोनों से उलझ जाता है।
नायिका सिर्फ तन से। इसके कारण हैं। एक तो ये कि नायिका के पास मन नहीं दस
बीस। इसके अलावा हमें स्त्री मनोविज्ञान को ठीक से विश्लेषित करना होगा यहाँ।
प्रख्यात मनोवैज्ञानिक डॉ. विनय कुमार इस तरह के केसेज में जैविक प्रमाण यानी
बायोलॉजिकल इविडेंस देते हुए कहते हैं कि स्त्रियों की यौनिक उत्तेजना का
सबलतम कारक है - पुरुष प्रदत्त देखभाल और सुरक्षा। प्रकाश झा की एक फिल्म की
याद दिलाते हैं - 'दिल क्या करे।' इसमें नायिका चलती ट्रेन में बलात्कार करने
वालों से बचाने वाले अजनबी नायक को थोड़ी देर बाद सहज, निशब्द तरीके से अपनी
देह सौंप देती है। और यात्रा खत्म होने पर नायक के प्रति आँखों से आभार प्रकट
करते हुए विदा हो जाती है। इतना सबकुछ होने के बावजूद अजनबियत बरकरार रहती है।
क्यों... विनय कुमार जवाब ढूँढ़ते हैं कि क्योंकि सिलसिले खतरनाक भी हो सकते
हैं। अजनबियत अपने आप में एक सुरक्षा कवच है। इस प्रसंग को सुरक्षा के प्रति
स्त्री की मनोजौविक यानी साइकोलॉजिकल प्रतिक्रिया के रुप में देख सकते हैं।
अड़हुल भी नायक के प्रति कृतज्ञ है और सिलसिले को आगे नहीं बढ़ाना चाहती। उसके
खतरे वह जानती है। जो दिलों के बीच खड़ी कितनी दीवारें... ये अदृश्य दीवारें
मन में भी और समाज में खींची रहती हैं। और सबसे बड़ा सच कि स्त्रियाँ अपना
कंफर्ट जोन आसानी से नहीं छोड़ना चाहती।
अदम्य मानवीय जिजीविषाओं और तमाम दुरूहताओं के बावजूद अपनी धरती से जुड़े रहकर
अनवरत संघर्षों और मानवीय रिश्तों के अमर्त्य प्रेम और पीड़ा की महान गाथा है
हृषिकेश सुलभ जैसे जादुई कथाकार की कहानी - 'टापूटोल।'
कोसी कछार की त्रासद बाढ़ और वृष्टि को लेकर कितनी ही कहानियाँ लिखी गई हैं पर
'टापूटोल' इस नदी के उदर में अपने अस्तित्व से संघर्ष करते उस लघु भूभाग की
कहानी है जो अपने आश्रयदाताओं की खातिर कोसी की तिरमिश कटानों को झेलता है और
हर बार मिट जाने के बाद भी फिर नमूदार होता है - और गझिन और हरा भरा...
इस टापू पर न सिर्फ नेपाली रहते हैं वरन पूर्वी बंगाल के उजड़े मुसलमान और
यहाँ के मूल बाशिंदे भी, पर प्रकृति का रौद्र रूप उनमें कोई भेदभाव नहीं करता।
सब पर कोसी की गाज एक-सी गिरती है और बारिश के ओझल होते ही हरियाली बयारों की
पुरवा प्रेम बरसाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। कहानी का नायक आरिफ अपनी
प्रेमिका को कोसी की तिरमिश चालों में गँवा चुका है पर उसका जुनूनी प्रेम
जमीला को खोजने के लिए अपनी छोटी-सी डोंगी में बैठ कोसी की अथाह जलराशि को
चुनौती देता उसके सीने को चीरता रहता है जब तक कि उसकी मुश्कें जवाब ना देने
लगें... मानवीय प्रेम कैसे त्रासदियों और मौत के उपहास के बीच भी आशान्वित
रहता है, इसका जीवंत उपाख्यान है टापूटोल।
बाढ़ की विभीषिका टोलों को निगल लेती है और मानव निर्मित विपदाओं के साथ तबाही
का वो मंजर लेकर आती है कि रूह काँप उठे पर हर बार इस महाप्रलय के बाद प्रकृति
सब कुछ नए सिरे से रचती है... टापू, टोले, घाट, हरियाली और प्रेम... बारिश और
बाढ़ के फिर से आने तक...
कथाकार-रंगकर्मी विभा रानी की कहानी 'शिविर' में कहानीपन कम है, लेकिन एक अलग
ओझल दुनिया का खुलासा जरूर है। बाढ़ के दौरान जो सहायता कार्य होते हैं, जो
शरणार्थियों के शिविर होते हैं, उस दौरान क्या गुजरती है, भुक्तभोगियों पर,
उसकी भयावह दास्तान है प्रसिद्ध रंगकर्मी विभा रानी की एक कहानी - शिविर में।
हालाँकि यह कहानी नहीं बन पाई है, कहानी बनने की राह पर थी कि शिविर में ही
उलझ कर रह गई। मैं इसे कहानी कम, शिविर की अंदरुनी हालात पर सटीक टिप्पणी की
तरह देखती हूँ। बिहार की अलग अलग नदियों कोसी, गंगा, बागमती, कमला बलान
इत्यादि के बेकाबू होने के बाद जो तबाही होती है, उसका जैसे कथाकार आँखों देखा
हाल सुना रही हों। हम रपट की तरह पढ़ते हैं और दहल जाते हैं। राहत कार्यों में
जो बेइमानी होती है, घपले होते हैं, उस पर विस्तार से बात की गई है। इस मायने
में ये सफल कहानी है कि आपके भीतर बाढ़ का दर्द जगा देती है। वो बाढ़ जो हर
साल आती है और अपने साथ सबकुछ बहा ले जाती है।
युवा कथाकार-आलोचक-संपादक अनुज की एक कहानी का उद्धरण देना समीचीन समझती हूँ।
उनकी एक कहानी है - 'फैसला सुरक्षित है।' 'हंस' के मार्च, 2010 अंक में छपी
थी। यद्यपि कहानी का मूल कथ्य बाढ़ नहीं है, लेकिन एक बिहार का कथाकार जब लिख
रहा होता है तो उसके अंतर्मन में बाढ़ की विभीषिका किस तरह से समाई रहती है और
कहानीकार बाढ़ को लेकर अनायास ही उस मर्म को किस तरह कुरेद जाता है, अनुज की यह
कहानी इसी का एक उदाहरण प्रस्तुत करती है। इस कहानी में अदालत का एक दृश्य है।
एक बूढ़ा मास्टर कठघरे में खड़ा है, और उससे जज एवं वकील सवाल कर रहे होते हैं।
जज पूछता है, 'ऊसर सिंह जी, आप मास्टर थे ना... क्या पढ़ाते थे...?' ऊसर सिंह
मायूस होकर बोलता है, 'मेरी पोस्टिंग तो संस्कृत में हुई थी सर, लेकिन चूँकि
संस्कृत में बच्चे आते नहीं थे, इसीलिए मुझे हिंदी पढ़ाने की जिम्मेवारी दे दी
गई थी। ...पिछले साल जब बाढ़ आई थी तो विज्ञान पढ़ाने वाले ठाकुर जी उसी बाढ़ में
बह गए थे, बहुत खोजा गया, लेकिन मिले ही नहीं, तभी से हमको विज्ञान भी पढ़ाना
पड़ता है...।' इस बात पर जज हँसता है और कहता है, 'क्या, बह गए और मिले ही
नहीं! अपने देश की भी जो हालत है ना, बस पूछिए मत...।'
यहाँ इस उद्धरण के माध्यम से जो बात मैं कहना चाहती हूँ, वह यह कि बाढ़ की
विभीषिका और उस बाढ़ में किसी का बह जाना किस तरह बिहार के लिए, बिहार के समाज
के लिए मानो एक रोजमर्रे की बात जैसी हो गई है, मसलन, सरकारें भी उस पर कोई
विशेष तवज्जो नहीं देती दिखाई देती। अनुज की यह कहानी 'फैसला सुरक्षित है' इस
अर्थ में भी बहुत उल्लेखनीय है, क्योंकि यह कहानी सरकारी तंत्र की विफलता का
भी एक खुला बयान जैसी है। अनुज की इस कहानी में एक किरदार ऊसर सिंह ने जिस
लापरवाही से मास्टर के बाढ़ में बह जाने और खोजे जाने पर उनके नहीं मिलने की
बात कहता है, वह लापरवाही वाला अंदाज बिहार और बाढ़ के अटूट रिश्ते की आयरनी को
उजागर कर देता है। इस अर्थ में मुझे अनुज की 'फैसला सुरक्षित है' कहानी
कम-से-कम बिहार की साहित्यिक मिट्टी की थाती की तरह दिखती है।
युवा कथाकार मनोज कुमार पांडेय की लंबी कहानी 'पानी'। बाढ़ की विभीषिका पर
लिखी गई अनूठी कहानी।
'इस छ्त पर शरण लिए हुए हमें आज पाँचवाँ दिन है। हम जो इस गाँव के थोड़े-से बचे
हुए लोग हैं - उन लोगों में से जो गाँव छोड़ कर भाग गए - जो भूख प्यास से मर गए
- जो बीमारियों की चपेट में आए - जो जेल गए - जिन्हें कीड़े मकोड़ों और जीव
जंतुओं ने काट खाया या फिर जिन्होंने एक-दूसरे को मार डाला। इन तमाम चीजों से
बचे हुए हम बहुत ही कठकरेज लोग हैं। जिन्होंनें तमाम अपनों को फूँका है। यहीं
अपने ही घरों में, यहीं अपने आस-पास। अगल बगल के गड़हों में - पानी की तलाश में
खोदे जा रहे गड्ढों में हमने न जाने कितने ही अपनों को दबा दिया। उन्हें सूखने
के लिए छोड़ दिया। उन्हें कीड़े मकोड़ों के लिए छोड़ दिया। फिर भी ये हमारी ही
आँखें हैं जो यह सब कुछ देख रही हैं और अभी भी उनमें पानी बचा हुआ है।'
नाउम्मीदी पर उम्मीद की स्थापना की कहानी। नाउम्मीदी की जमीन पर उम्मीद की फसल
की तरह लहलहाती हुई कहानी है। एक हरे भरे, खुशहाल गाँव की कहानी, जहाँ बाढ़ के
बाद सात सौ लोगो में से सिर्फ बहत्तर लोग बचते हैं। बचे हुए लोगों यानी
सरवाइवर्स की आँखों में एक जैसे सवाल हैं, सभी के कानों में एक जैसा सन्नाटा
बजता है, चारों तरफ पानी ही पानी है पर उनकी आँखों में जैसे अभी भी सूखा ही
पसरा हुआ है। दुखद स्थिति ये कि प्रकृतिक आपदा के बाद भी इतनी भयंकर रंजिशें।
यहाँ दुख उनको जोड़ता नहीं, अमानवीय बना देता है। कहानी लंबी है सो वो बाढ़ के
बाद के हालात का भी सही सही जायजा लेती है। सिर्फ बाढ़ की भयावहता पर विचार
नहीं करती, दूर तक मार करती है। कहानी पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि जैसे एक
गाँव सी.सी.टी.वी. के घेरे में हैं और सबकुछ सही सही घटित होता दिखाई दे रहा
है। बाढ़ के बाद जब बौखलाई हुई नदियाँ अपना सारा पानी निकाल ले जाती हैं तो
क्या होता है...? कहानी वहाँ तक जाती है जहाँ फसलें नहीं, लोगों के हृदय सूख
जाते हैं, रगों में बहने वाला खून सूख जाता है। बारिश के सारे रूमानी खयाल एक
किसान के किसी काम के नहीं होते। फिर भी कहानीकार नाउममीद नहीं है...। अंतिम
अंश सुनाना चाहती हूँ - 'प्यास बहुत बढ़ जाती है तो वही बारिश का सड़ा हुआ एक
चुल्लू पानी डाल लेते हैं भीतर। कुछ भी हो अब हमें उसकी परवाह नहीं है। पर अब
हमें कुछ नहीं होगा, हम जानते हैं। हमारे भीतर जीवन पनप रहा है फिर से। उन
ठूँठ पेड़ों के साथ जिनमें नई कोंपलें इतनी दूर से भी दिखाई देने लगी हैं। हमें
अभी से वो हरियाली दिखाई देने लगी है जो हमारी आँखों का सूखा खत्म करेगी। हम
जानते हैं कि जब पानी सूखेगा तो एक नई धरती हमारा इंतजार कर रही होगी। घास और
नमी और जीवन से भरी। इस पर हम बहत्तर लोगों में कोई बहस नहीं है कि हम इस
हरियाली को कायम रखेंगे।'
अब थोड़ी रूमानियत की बातें, बारिश में भीगी कहानियों के साथ, यह कहते हुए
कि...
मगर मुझको लौटा दो
बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी...
पृथ्वी इतनी गरम हो चुकी है, उसका रूप, मिजाज इतना बदल चुका है कि सावन अब वो
सावन न रहा... न मोहल्ले रहे, न गलियाँ... न वो बच्चे जो बारिश में घर से निकल
कर छपाक-छई करते फिरते थे...
कैसे कहें कि धूप में निकलो, घटाओं में नहा कर देखो... अब तो बारिश से हमें डर
लगता है, जाने क्या बीमारी धर ले? बारिश की रात तो वैसे भी फिल्मों में जितनी
रूमानी रही है, जीवन में इसके उलट। नायक भले कहे कि जिंदगी भर न भूलेगी, वो
बरसात की रात... एक अनजान हसीना से मुलाकात की रात...
साठोत्तरी कहानी के प्रमुख कथाकार मिथिलेश्वर की कहानी 'बरसात की रात' संशय और
भय की रात साबित होती है। वह अनजाना भय जो निर्मूल है लेकिन हम मनुष्य एक
दूसरे के प्रति भरोसा निर्ममता की हद तक खो चुके हैं। बारिश की अँधेरी रात में
कोई मुसीबत का मारा दरवाजा खटखटा दे तो हम भयभीत हो जाते हैं और मुसीबत के
मारों के प्रति निर्मम है, इस कहानी में हुआ। एक मिस्त्री, जिसने वो घर बनाया
था, खून पसीना बहा के, वो मदद की आस में उसी घर के मालिक के पास पहुँचता है तो
चोर समझ लिया जाता है, पुलिस के हवाले कर दिया जाता है, ये जानते हुए कि वह
चोर नहीं है। यह वर्गभेद की कहानी है, जहाँ सवर्णों को लगता है, फुटपाथ पर
जीने वाले, मेहनतकश मजदूर चोर और लुटेरे होते हैं।
यही बरसात समकालीन कथाकार-उपन्यासकार पंकज सुबीर की कहानी में आती है। 'अकाल
में उत्सव' जैसा शानदार उपन्यास लिखने वाले पंकज सुबीर की एक प्रेम कहानी 'उसी
मोड़ पर' की बात करें। कहानी में बारिश का माहौल है। जिंदगी भर न भूलेगी वो
बरसात की रात... वाली रूमानियत है और विछोह का अनकहा, अव्यक्त दर्द भी। बाहर
बारिश हो रही है, अंदर संगीत बज रहा है -
आपकी आँखों में कुछ महके हुए-से राज है...।
यह गाना कहानी के प्रोटागोनिस्ट की आँखों के राज के बारे में संकेत करता है।
यह बाहल भीतर दोनों का संगीत है... बारिश में सफर होता है, तीन मुख्य पात्र
कार में बैठे हैं। संवाद कम है, दृश्यों में कहानी चलती है... दृश्य-कथा जैसी
मालूम पड़ती है। यहाँ प्रेम बहुत सुरीला नगमा है जो दुख की छाती पर बज रहा है।
एक अधूरा प्रेम, एक पूरी बारिश और और एक मुकम्मल गाना - आपकी आँखों में...।
एक असफल प्रेमी, अनजाने में ही अपनी प्रेमिका और उसके पति को बारिश में लिफ्ट
देता है अपनी कार में। उन्हें उनकी मंजिल तक पहुँचाता है। कहानी की सबसे सुंदर
ध्वनि है जो बार-बार पीछे की सीट पर चूड़ियाँ खनकती हैं। बार-बार खनकने का
जिक्र है। जैसे चूड़ियाँ इश्क संवादी हों जो दास्ताँ सुना रही हों अपने विफल
इश्क की।
चूड़ियों की भाषा पर अनूठा काम हुआ है इस कहानी में। चूड़ियाँ आजकल वैसे भी
कलाइयों से गायब हैं और कहानी में कहाँ मिलेंगी। सावन का चूड़ियों से गहरा
रिश्ता है। कहानी फिर से सावन को चूड़ियों की याद दिलाती है।
पंकज का शेर है मौजूँ -
खलाओं पर बरसती हैं न जाने कब से बरसातें
मगर फिर भी खलाओं का अँधेरा है कि प्यासा है...।
बारिशों की किस्मत देखिए... गीली है, पर भिगोती है, ठंडी है, पर ताप देती है,
पानी है, प्यास जगाती है, बुझाती नहीं।
रूमानी सफर पर एक और कहानी की तरफ चलते हैं -
पत्रकार-कथाकार प्रियदर्शन की कहानी 'बारिश, धुआँ और दोस्त।' इसी नाम से कहानी
संग्रह भी आया है। दो पात्रों की कहानी है। 42 का नायक, 24 की नायिका। उम्र के
फासले, कई बार विचारों के, सोच के फासले भी होते हैं। उसका एक अंश - 'बाहर
धारासार बारिश हो रही है। आसमान में जैसे काले हाथी दौड़ रहे हैं। एक छोर से
दूसरे छोर तक कड़कती बिजलियों के पीछे। धरती से आकाश तक मोटी-मोटी बूँदों की
एक तूफानी झालर टँगी हुई है।
यह झालर कभी-कभी हमारे चेहरों तक चली आती है। हमारी उँगलियाँ कभी-कभी उस झालर
को छू लेती है। हमारी निगाह आसमान पर है। खिड़की से दिखते छोटे से आसमान पर।
'जानती हो, जब अचानक इस तरह मौसम खराब होता है तो मुझे लगता है, किसी के घर
कोई बडा़ दुख घटा है।'
'अरे आप तो बड़े 'रेशनलिस्ट' हैं? ऐसी बातों पर कब से भरोसा करने लगे।'
'भरोसा नहीं करता। बस सोचता हूँ। शायद मेरी कई तकलीफों की याद जुड़ी है ऐसी
घनघोर बारिश से।'
कहानी में जीवन आधा जी चुका अधेड़ नायक है जो अपने विचार बदलने से डरता है और
नए विचार को अचरज की तरह देखता है। युवा होती लड़की हर रोज नए रुप में मिलती
है उसे, नए-नए विचारों के साथ, वर्जनामुक्त जीवन दर्शन के साथ। अधेड़ होता हुआ
पुरुष भावुक किस्म की हैरानी से गुजरता है, अपने विचारों में बेहद ठस्स होता
हुआ, पीढ़ियों का अंतराल साफ दिखाई देता है यहाँ। बकौल कथाकार - यह लड़की हर
रोज जैसे कुछ नई हो जाती है...।
और सबसे आखिर में युवा कवयित्री-कथाकार रश्मि भारद्वाज की पहली कहानी 'जलदेवी'
की चर्चा। इसलिए जरूरी है कि वह तीस साल पहले लिखी गई किसी कहानी का विस्तार
लगती है या कहे स्त्रियों की बदलती दुनिया का लेखा जोखा, स्त्री की निगाह से
प्रस्तुत करती है।
इस कहानी में बाढ़ है, और इश्क वाली बारिशें भी। चर्चा के अंत में मैं आपको
वहा लिए चलती हूँ जहाँ से शुरु किया था। 'कर्मनाशा की हार' कहानी तक। बहुत हद
तक साम्यता है। दोनों कहानियों के बीच तीस वर्षो का अंतराल है। समय और समाज के
बदलावों को रश्मि की कहानी पकड़ती है। गैर बराबरी के मुहाने पर ठिठके समाज की
अच्छे से खबर लेती है।
जलदेवी सिर्फ प्रेम कथा नहीं, यह स्त्रियों के जीवट और फैसले की कहानी भी है।
एक स्त्री है जो सामंती रूढ़ियों में बंधी पूरी दुनिया को भी उसी नजरिए से
देखती है, एक स्त्री है जो मानसिक विक्षिप्त है लेकिन निर्णय लेने का हौसला
रखती है। बाढ़ के पानी में भी बहती, बहाती अपने प्रेमी को खोजती उसके गाँव आ
जाती है लेकिन वहाँ रुकती नहीं, उसका वरण नहीं करती बल्कि उसे हमेशा के लिए
पछतावे में जलता हुआ छोड़ कर चली जाती है। जमींदार की पत्नी जो अब तक कभी
विरोध की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी, अंत में ऐसा निर्णय लेती है जो उसे जाति,
ऊँच नीच हर बंधन से निकाल ले जाता है। गाँव का विशाल बरगद का वृक्ष जो गाँव का
बुजुर्ग है, बाढ़ की विभीषिका में बह जाता है, अंत में काकी द्वारा उसी स्थान
पर एक पौधा लगाना टूटती रूढ़ियों का प्रतीक है, यह नए पनपते प्रेम का प्रतीक
भी है।
एक तरफ प्रकृति का प्रकोप है तो दूसरी और इनसानी विश्वास और साहस जो उनके आपसी
प्रेम और साहचर्य की वजह से ही टिका है। गाँव के दो परिवारों की कथा है,
जिसमें से एक अपनी जाति और वर्ग की दीवारों में गुम हो चुके हैं। सिर्फ बाहरी
दुनिया से ही नहीं, आपस में भी उनको जोड़ने वाली कोई कड़ी नहीं बची। दूसरी ओर
एक परिवार है जो विपरीत परिस्थियों में संघर्ष कर एक सम्मानित जीवन बिता रहा
लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह उनका आपसी प्रेम और मानव मात्र के लिए उनकी करुणा और
उदार हृदय है।
ऐसे परिदृश्य में जब पानी हर ओर हाहाकार मचा रहा, एक लड़की बहती आती है, वह हर
भय से ऊपर उठ चुकी है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका मानसिक संतुलन बिगड़ा हुआ
लेकिन अंत में उसका निर्णय, उसका अचानक चले जाना स्त्री स्वतंत्रता, स्वनिर्णय
लेने की क्षमता का प्रतीक है। कहानी में एक रहस्यात्मकता है, कई सवाल यूँ ही
छोड़ दिए गए हैं लेकिन अंततः यह मनुष्य के विजय, उसकी आशा, उसके प्रेम और जीवट
की कहानी है। वृक्ष के प्रतीक के बहाने प्रकृति की संपदा को बचाने, सँजोने का
उल्लेख है।
कहानी एक ऐसे इलाके की है जो हर साल बाढ़ के प्रकोप से जूझता लेकिन उनका राग,
उल्लास, जीवन के लिए सकारात्मकता कभी नहीं मरती। विपरीत हालातों में भी उनका
संघर्ष करने का माद्दा जीवित रहता है।
जैसा कि मनोज पांडेय ने पानी कहानी के अंत में एक वाक्य कहा है, वही सुलभ जी,
उषा दी से लेकर रश्मि तक की कहानी कहती है, विपरीत हालातों में संघर्ष करने का
माद्दा, जीवन के उल्लास को बचाए रखने का माद्दा, प्रेम की खोज, उसे बचाए रखने
की इच्छा, बची रहनी चाहिए।
वह वाक्य है - 'हम जो बचे हैं इसे हमारा सामूहिक बयान माना जाए।'