सहस्रशीर्षा पुरुष:
जननायक स्वामी सहजानन्द सरस्वती
दया-धाम उद्दाम दार्शनिक, आदि अन्त के अन्तर्यामी।
स्वयं स्वयंभू सदा सर्वदा, सेवक सहचर, रहकर स्वामी॥
लाखों भूख-प्यास के मारे, मरी हुई आँखों के पानी।
प्राण पटल पर लिखित अश्रु से, कसक सिसक की करुण कहानी
नमन पुनीत अमल को
नहीं फूलते फूल सिर्फ राजाओं के उपवन में।
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुंज कानन में॥
समझे कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल।
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल॥
'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को।
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को॥
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है।
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है॥
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग।
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग॥
- दिनकर
स्वामी सहजानन्द सरस्वती और किसान
- महापंडित राहुल सांकृत्यायन
होश सँभालते ही जिसे योग, वैराग्य और वेदांत ने अपनी ओर खींचा, जिसे मायामय संसार छोड़ अद्वैत ब्रह्म में लीन होने की एक समय भारी साध थी; किसको पता था कि वह संसार के सबसे उपेक्षित, शिक्षा-संस्कृति में सबसे पिछड़े भारतीय किसानों को अपने पैरों पर खड़ा करने की प्रतिज्ञा लेगा? वह एक मेधावी बालक के तौर पर शिक्षा के जिस रास्ते से जा रहा था, उससे वह विश्वविद्यालय का एक सम्मानित स्नातक बनता, कानूनपेशा वकील, सरकारी नौकर या प्रोफेसर बनता; मगर रास्ता एकाएक मुड़ा, और वह दूसरे - भारतीय प्राचीन विद्या के - रास्ते पर चला गया। वह विद्वान संन्यासी के तौर पर अपनी प्रौढ़ प्रतिभा और व्यापक ज्ञान से एक सर्वमान्य संन्यासी, सैकड़ों छात्रों और शिष्यों का गुरु होता; मगर ब्राह्मणों के मिथ्याभिमान ने व्यक्ति नहीं, एक गौरवपूर्ण जाति को अपमानित करना चाहा और वह उसे बर्दाश्त नहीं कर सका। उसने अपने दंड को उठाया और कुछ ही सालों में भूमिहार ब्राह्मणों में वह भाव भर दिया कि ब्राह्मणों को अपनी शेखी छोड़नी पड़ी। लेकिन समय आया, जब उसकी तीक्ष्ण प्रतिभा ने बतलाया कि उसका कार्यक्षेत्र इतना संकुचित नहीं होना चाहिए, फिर जेल गया। वहाँ पक्के गांधी-शिष्यों की करतूतों को देख कर उसकी देह में आग लग गई। राजनीतिक आंदोलन में उसे कोई भी आशा नहीं रह गई। जिसने योग-साधन, पवित्र जीवन और मोक्ष-प्राप्ति के लिए दर-दर की ठोकर खाई, वर्षों तकलीफें सहीं, उसके मन में इस तरह का भाव आना जरूरी था। वह सबको संत के रूप में देखने की आशा तो नहीं रखता था, मगर यह आशा जरूर रखता था कि गांधी जी के विश्वसनीय भक्त कुछ ज्यादा ईमानदार होंगे। उसने अपने जानते राजनीति से सदा के लिए सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। वह नहीं जानता था कि उसके दिल में एक भारी कमजोरी है - वह गरीबों के ऊपर होते अत्याचार को सहन करने की शक्ति नहीं रखता। हुआ यही और अब वह नाव को डुबो कर परले पार उतर गया। भारत के किसान-आंदोलन को उठाने और आगे बढ़ाने में जो काम उसने किया है, वह सदा स्मरणीय रहेगा। वह व्यक्ति है स्वामी सहजानन्द।
गाजीपुर जिले में दुल्लहपुर स्टेशन के पास देवा एक छोटा-सा गाँव है, यहाँ कुछ घर भूमिहार ब्राह्मणों के हैं। आज ये लोग भूमिहार ब्राह्मण हैं, लेकिन कुछ पीढ़ियों पहले ये बुंदेलखण्ड के जुझौतिया ब्राह्मण थे। दस-बारह शताब्दियों और पहले ये यमुना से पश्चिम हिमालय की तराई से मेवाड़ तक फैले यौधेय गण के नागरिक थे।
1889 ई. की शिवरात्रि को बेनीराय के घर उनका सबसे छोटा पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम नौरंग राय रखा गया। 3 बरस की आयु में ही माँ मर गई और नौरंग को माँ का नाम भी नहीं मालूम हो सका। माँ के मरने की क्षीण स्मृति नौरंग के दिल में सदा के लिए रह गई। लोग रो रहे थे। नौरंग की आँखों से आँसू निकले या नहीं, इसका उसे पता नहीं। लड़कपन से ही नौरंग का स्वास्थ्य अच्छा था; लेकिन उसे खेल से बिलकुल प्रेम न था।
गाँव में स्कूल न था, मगर पास के गाँव जलालाबाद में प्राइमरी स्कूल था। 1899 के शुरू में नौरंग को जलालाबाद के मदरसे में दाखिल कर दिया गया। यद्यपि पढ़ने की अवस्था के 4 साल उसने बरबाद कर दिए थे; लेकिन उसकी बुद्धि बहुत तीव्र थी, गणित से बहुत ही ज्यादा प्रेम था। मरदसे में हर साल वह दो-दो दर्जे पास करता और अपने दर्जे में सदा प्रथम रहता। 1902 तक 3 सालों के भीतर नौरंग ने 6 साल की पढ़ाई खत्म कर दी। अपर प्राइमरी पास लड़कों की जिला-प्रतियोगिता में उसने बीस में से उन्नीस अंक पाए।
अब नौरंग 13 साल का था। रामायण पढ़ने का उसे बहुत शौक था। किसी ने गीता का माहात्म्य बतलाया और उसे भी अपने पाठ में शामिल कर वह अच्छा-खासा पुजारी बन गया। जलालाबाद के एक अध्यापक भी पुजारी थे, नौरंग की पूजा में उनका प्रभाव अवश्य था। पूजा बिना देवता को खुश कैसे किया जा सकता है।
अब मिडिल में पढ़ने के लिए नौरंग गाजीपुर तहसीली स्कूल में दाखिल हुआ। दर्जे में अव्वल तो रहना ही था। सभी विषयों में उसकी गति थी। स्मृति भी तीक्ष्ण थी, 1904 में हिंदी मिडिल पास किया, सारे युक्त प्रांत में नौरंग का नंबर छठा या सातवाँ था। उर्दू को नियमपूर्वक नहीं पढ़ा था; लेकिन उर्दू पढ़नेवाले विद्यार्थियों के साथ बराबर बैठना पड़ता, जिससे सुनते-ही-सुनते नौरंग को उर्दू आने लगी।
गाजीपुर में आ कर नौरंग की आक्रामक प्रवृत्ति और बढ़ गई। यहाँ उसे सनातन धर्म और आर्यसमाज के उपदेशकों के व्याख्यान सुनने को मिलते। धर्म पर श्रद्धा और जमती गई। वह आर्यसमाजी नहीं बना और रोज नियम से स्नान कर शंकर के ऊपर बेलपत्र और गंगाजल चढ़ाता। शिव जी का व्रत बड़े उत्साह के साथ करता। उस वक्त अमृतराय वहीं अध्यापक थे। वे खुद भी प्रतिभाशाली थे; इसलिए प्रतिभाशाली लड़के की कदर करना जानते थे। नौरंग राय भी उन्हीं के साथ में रहता।
हिंदी मिडिल पास करने के बाद फिर नौरंग को छात्रवृत्ति मिली और वह गाजीपुर के जर्मन मिशन हाई स्कूल (आजकल के राजकीय सिटी इंटर कॉलेज, गाजीपुर) में प्रविष्ट हुआ। मारवाड़ियों के टोले में गुणेश्वरनाथ महादेव का मन्दिर है। उसी की एक कोठरी में नौरंग रहा करता था। वहाँ गंगा भी नजदीक थीं और पास में महादेव का मन्दिर भी। नौरंग राय को इन दोनों चीजों की सबसे ज्यादा जरूरत थी। अब नौरंग राय के पाठ्य में संस्कृत भाषा भी थी। अपने रटे महिम्न:स्तोत्र और गीता के श्लोकों का अर्थ समझने की लालसा में वह उसे बहुत ध्यान से पढ़ता था।
नौरंग का पूजा-पाठ घरवालों को पसंद न था। देर करने में हानि समझ 16 वर्ष की अवस्था (1905) में नौरंग की शादी कर दी गई। लेकिन स्त्री एक ही साल बाद परलोक सिधार गई।
मिडिल इंग्लिश में भी नौरंग राय का नंबर अच्छा रहा। 1906 में कुछ संन्यासी घूमते-घामते उसी महादेव के मन्दिर में ठहरे। नौरंग धर्म-प्रेमी तो था ही संन्यासियों का गेरुआ वस्त्र तथा उनके उन्मुक्त जीवन उसे और भी आकर्षक मालूम हुए। एक साल पहले भी नौरंग भागकर बनारस और काकोरी तक गया था; लेकिन बरसात का दिन था और अभी दिल मजबूत नहीं हुआ था, इसलिए वहाँ से लौट आया। इस पहली उड़ान का घरवालों में से किसी को पता नहीं था और यह अच्छा ही हुआ, नहीं तो वे और कड़ी निगाह रखते। अबकी नौरंग ने बनारस के संन्यासियों से उनके मठ का पता पूछ लिया था। वह अपने लिए यही रास्ता पसंद कर चुका था।
अब (1907 में) नौरंग की उम्र 18 साल की थी। वह हाई स्कूल की आखिरी कक्षा का विद्यार्थी और बहुत तेज विद्यार्थी था। मैट्रिक परीक्षा में भी उसे छात्रवृत्ति जरूर मिलती और घर की मदद के बिना भी विश्वविद्यालय की सभी सीढ़ियों को पार कर सकता था। वह जानता था कि वह एक अच्छा वकील बन सकता है, अध्यापक बन सकता है या डिप्टी कलेक्टर हो सकता है। लेकिन नौरंग का मन रह-रह कर कह उठता, 'और पढ़-लिख कर क्या करोगे? तुम्हें कोई दूसरा खिला देगा।' अब वह गीता को कुछ समझ सकता था। उसने लघुकौमुदी पढ़ी। भागवत को भी वह शौक से संस्कृत में पढ़ता। यही नहीं, छोटी-मोटी वेदांत की पुस्तकें भी पढ़ लेता, इससे उसका दिल वेदांत से रँग गया।
शायद घरवालों को कुछ भनक लगती जा रही थी। उन्होंने सोचा - जल्दी ही शादी कर दो, नहीं तो लड़का हाथ से बेहाथ होने जा रहा है। नौरंग को भी पता लग गया; खतरे की घंटी बजी - 'भागो अभी।'
शिवरात्रि (1907) के कुछ ही दिनों पहले नौरंग राय भाग कर बनारस चले आए। सिद्ध अपारनाथ मठ का नाम नोट किया हुआ था। गाजीपुर में पहले के परिचित संन्यासी भी मिल गए। शिवरात्रि जैसे महान पर्व को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। सलाह हुई, शिवरात्रि के दिन ही संन्यास ले लिया जावे। स्वामी अच्युतानन्द गिरि व्याकरण-मीमांसा के एक अच्छे पंडित थे। 18 साल के नौरंग उन्हीं से गिरिनामा संन्यासी बने। जब उनके बालमित्र हरिनारायण पांडेय को पता लगा, तो वे भी आकर संन्यासी हो गए।
चंद ही दिनों बाद-घरवालों को पता लग गया और लोग बनारस पहुँचे। स्वामी सहजानन्द को घर आना पड़ा। सब लोग समझाने लगे। खाकीजी बुला कर लाए गए। तरुण संन्यासी के मुँह से ज्ञान-वैराग्य की बात सुन कर कहने लगे - 'हमारी समझ से बाहर की बात है, हम क्या समझाएँ?' खाकीजी की इस देहात में बड़ी प्रसिद्धि थी। वह सिद्ध पहुँचे हुए महापुरुष समझे जाते थे। अन्त में हार मानकर घरवालों को स्वामी का रास्ता छोड़ना पड़ा। स्वामी फिर दुल्लहपुर स्टेशन से रेल पकड़ बनारस चले आए।
स्वामी और बालसखा हरिनारायण को संन्यास-जीवन और उससे भी ज्यादा योग-समाधि का शौक था। बनारस में कोई योगी नहीं मिला। उन्होंने अब योगी गुरु को ढूँढ़ निकालने का निश्चय किया। दोनों गंगा के किनारे-किनारे पैदल ही पश्चिम की ओर चल पड़े। भोजन के लिए दस घरों से मधुकरी माँग लेते। झूँसी (प्रयाग) तक किसी योगी से भेंट नहीं हुई। झूँसी में मठ की छत पर नंगे सोने से शरीर में दर्द और बुखार हो आया। किसी ने दवा समझ कर चाय पिलाई, मगर बीमार बेहोश हो गया। एक और साधु वैद्यक करने लगे और लोहा पीस कर पिला दिया। किसी समझदार आदमी ने कहा भी - 'जहर पिला रहा है, मर जावेगा'; मगर कई खुराक खा चुकने के बाद सारे शरीर में रोएँ-रोएँ पर फुंसियाँ निकल आयीं। आज इस घटना को हुए सालों बीत गए, और स्वामी खाने-पीने में बड़ा संयम रखते हैं; मगर आज भी लोहे का प्रभाव बिलकुल खत्म नहीं हुआ। महीने-भर झूँसी में बीमार पड़े रहे, बड़ी पीड़ा सहनी पड़ी।
शरीर के सँभलते ही फिर योगी की खोज। किसी ने बतलाया - चित्रकूट में योगी रहते हैं। दोनों ने चित्रकूट का रास्ता पकड़ा पैदल ही। मगर वहाँ भी दूर का ढोल सुहावना। जंगल की ओर बढ़े। अनुसूया के बैरागी बाबा को पीटकर चोर सोलह हजार रुपए ले कर चंपत हो गए थे। कादमगिरि में बैरागियों (वैष्णवों) के स्थान हैं, और शायद ही कोई योगिनी बिना हो। वहाँ रात को रहने के लिए कोई स्थान देने को तैयार न हुआ। चित्रकूट से निराश लौटे। तुलसीदास की जन्मभूमि 'राजापुर' देखी; फिर प्रयाग की सड़क पकड़ी और पश्चिम की ओर मुँह किया। अब अँतरिया बुखार आने लगा था। भादों का दिन था, वर्षा हो रही थी। बुखार के दिन पूड़ी मिली, खा लिया, ऊपर से ठंडी हवा लगी। बुखार और बढ़ा। गाँव में शरण ढूँढ़ने गए, किसी ने बीमार परदेशी संन्यासी को जगह न दी। गाँव में एक टूटी चौपाल थी, जिसमें गोबर का कीचड़ भरा हुआ था, दुर्गंध का ठिकाना नहीं था, वहाँ बैठने के लिए भी स्थान नहीं था। पानी-बूँदी में जाएँ कहाँ? चौपाल में खड़े रहे, जब वर्षा बंद हुई, तो फिर उस गाँव को अभागे संन्यासी तरुणों ने सलाम किया। फतेहपुर के पहले महादेव का मन्दिर मिला था, जिसमें दोनों ठहरे। बुखार जाता रहा। पूड़ी ने बुखार को बढ़ाया, महादेव जी ने छुड़ा दिया। घूमने के अलावा इस वक्त गीता और शिव-महिम्न:स्तोत्र का पाठ होता रहता। साथ में कुछ वेदांत की पुस्तकें थीं, कुछ उन्हें भी किसी-किसी समय देख लेते।
पता लगा, नर्मदा के तट पर योगी रहते हैं। कानपुर से कालपी की ओर मुड़े। उरई, झाँसी, ललितपुर सब पैदल गए। यहाँ 52 घंटे तक अन्न से भेंट नहीं हुई। श्रद्धा सारे भारत में एक-सी तो बँटी नहीं है। भूख ने दूर चले जाने को मजबूर किया। बेटिकट रेल पकड़ी और बीना में उतर पड़े। फिर पैदल। सागर में नर्मदा पार की। नरसिंहपुर होते हुए मानेपुर (जबलपुर जिला) में पहुँचे। यहाँ हरिनारायण जी के परिचित एक राजपूत गृहस्थ रहते थे। वह संन्यासियों के भक्त और वेदांत के शौकीन थे। वेदांत पढ़ते-पढ़ाते तथा कुछ दवा भी करते थे। 15-20 दिन यहीं दोनों जने ठहरे।
पहले भी सुन चुके थे और मानेपुर में भी ओंकारेश्वर के कमलभारती से योग सीखने की लालसा ले खण्डवा होते हुए ओंकार पहुँचे। योगी वहाँ से और उत्तर के जंगल में रहते थे। वहाँ पहुँचने पर मालूम हुआ, वह अनंत समाधि ले चुके हैं। किसी ने कहा - 'योगी-वोगी नहीं थे, कायाकल्प करते थे।' उनके चेले को भी कोई-कोई योगी कहते थे और उनका योग था - द्वार बंद कर दिन-भर सोते रहना।
फिर पैदल। पैसे पास नहीं थे, खाने के लिए भिक्षा 'मधुकरी' माँग लेते, और रसवती मालव-भूमि में उसकी कमी नहीं हुई। हाँ, अब योग से निराश हो चले। 'दूर का ढोल सुहावना' की बात ठीक जँचने लगी। हाँ, वैराग्य पर दृढ़ श्रद्धा थी। भर्तृहरि का 'वैराग्यशतक' बड़ा सुंदर लगता था। इंदौर होते हुए उज्जैन गए। बीस दिन महाकालेश्वर की नगरी में बीता फिर पैदल ही उत्तर का रास्ता लिया। मथुरा, हाथरस, हरिद्वार होते हुए ऋषिकेश पहुँचे।
अब सन 1908 था। योग की आशा जाती रही थी। सोचा, कुछ वेदांत ही पढ़ डालें। कैलाश-आश्रम के किसी संन्यासी के पास 'वेदांत मुक्तावली' पढ़ने लगे। मगर व्याकरण कच्चा था, इसलिए समझने में कठिनाई होने लगी। कुछ यह भी मन में होने लगा, 'संस्कृत की खान बनारस छोड़, यहाँ टक्करें मारने की जरूरत?'
यहाँ तक आए तो चलो हिमालय की तीर्थयात्रा ही कर डालें। अभी हिमालय के तीर्थ इतने आबाद नहीं हुए थे। रास्ते कठिन थे। धर्मशालाओं-सदावर्तों की आज की भरमार का नाम तक न था। कभी-कभी, दो-दो दिन तक खाना नहीं मिलता और दोनों पथिक ठिठुर कर लेट जाते। केदारनाथ हो कर जब तुंगनाथ पहुँचे, तो हरिनारायण जी से अलग हो जाना पड़ा। इतने दिनों के तजुर्बे ने बतला दिया कि यहाँ 'मन मिले का मेला' नहीं है। अब बिलकुल एकाकी-अकेले चलना, अकेले भूखे रहना। बदरीनाथ से ऋषिकेश लौट आए, मगर वहाँ कोई आकर्षण न था।
पाँव फट गए थे, इसलिए पैदल का खयाल छोड़ हरिद्वार में रेल पकड़ी। लक्सर में उतार दिया और मुरादाबाद में भी; लेकिन उतरते-चढ़ते आखिर बनारस पहुँच गए। शायद फिर किसी ने योगी की आशा दिलाई। फिर गंगा किनारे पैदल ही चल पड़े - अब की पूरब की ओर। बलिया तक गए, कहीं न योगी, न योगी की पूँछ दिखाई पड़ी। वर्षा आ गई थी, भरौली (उजियार) में चौमासा रहे। सोचा, अब छोड़ो योगियों के परपंच को, जिनको लोग योगी समझते हैं, वह हमारे लिए दिन के सोनेवाले या कायाकल्प करनेवाले से अधिक नहीं होते। अब अच्छा यही है कि चल कर संस्कृत पढ़ो; फिर यदि कोई वास्तविक योगी मिल गया तो देखा जावेगा।
बनारस में विद्याध्ययन - 1909 से बनारस में डटकर संस्कृत पढ़ने लगे। अपारनाथ के मठ में ठहरे। पास ही संन्यासी पाठशाला में अपने समय के प्रसिद्ध व्याकरणी पंडित हरिनारायण तिवारी पढ़ाते थे। उनसे सिद्धांत कौमुदी शुरू की। ढाई वर्ष लगाकर उसे खूब मन से पढ़ा। पढ़ाई आगे जारी ही रही। संस्कृत की जड़ मजबूत हो गई। पाठशाला के दूसरे अध्यापक शंकर भट्टाचार्य से न्याय पढ़ते थे। पं. नित्यानन्द पंजाबी मीमांसा और एक बलियावाले पं. वेदांत पढ़ाते थे। संन्यासी के लिए काशी में दुख क्या? पाँच क्षेत्रों में घूम जाते और भोजन के लिए पर्याप्त मधुकरी मिल जाती। रहते कभी किसी मठ में कभी किसी मठ में। विरक्त संन्यासी थे, इसलिए परीक्षा देने का कभी खयाल नहीं आया।
स्वामी अब (1912 में) 23 साल के थे। अभी भी योग और दिव्य-शक्ति पर से उनका विश्वास उठा नहीं था। टक्कर मार कर असफल होने के बाद वह इतना ही समझ पाए थे कि योगी अब कलियुग में दुर्लभ हैं, भाग्य से ही कहीं मिल जाएँ। एक दिन उन्होंने एक बूढ़े दंडी संन्यासी का पता पा, जाकर उनके दर्शन किए। वहाँ एक चमत्कार देखने में आया - दंडी खर्राटे भरते सो रहे हैं और उनकी अंगुलियाँ माला के मनके गिन रही हैं। स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती - यही दंडी का नाम था - सीधे-सादे साधु थे, कुछ पढ़े-लिखे भी। तरुण संन्यासी ने जिसके लिए घर छोड़ा था, पूरा नहीं तो उसमें से कुछ तो मिला। स्वामी बार-बार जाने लगे। दंडी जी ने दंड ले लेने के लिए कहा। आखिर शंकराचार्य भी तो दंडी थे! अभी तक अपारनाथ के गिरि थे। अब उन्होंने स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती का शिष्य सहजानन्द सरस्वती बन दंड धारण किया। अद्वैतानन्द बड़े पंडित न थे कि सहजानन्द को उनसे ज्यादा ज्ञान प्राप्त होने की आशा होती। वह भक्ति-भाव वाले आदमी थे। भक्तिपूर्ण कथा-प्रसंगों को सुनते वक्त उनकी आँखों से आँसू की धारा बह चलती। उनकी एक मुख्य शिक्षा थी - 'अवगुणग्राही साधु, गुणग्राही असाधु जो कि लोक-प्रसिद्ध कहावत 'गुणग्राही साधु, अवगुणग्राही असाधु' का उलटा है, और जिसका अर्थ है, साधु पराए के गुणों को ग्रहण करते हैं और असाधु पराए के अवगुणों को। अद्वैतानन्द अपने सूत्र का अभिप्राय लेते थे - 'साधु अपने अवगुण को पकड़ते और असाधु अपने गुणों को।'
दंडी होने पर स्वामी सहजानन्द के नियम कुछ कड़े हो गए; लेकिन दंडियों का काशी में (और बाहर भी) बहुत मान है, पढ़ना पहले ही की तरह जारी रहा। व्याकरण में मनोरमा, शेखर और महाभाष्य पढ़ा। वात्स्यायन-भाष्य, न्यायवर्तक, तात्पर्य-टीका, न्याय कुसुमांजलि, आत्मतत्व विवेक जैसे प्राचीन न्याय के प्रौढ़ ग्रन्थों का अध्ययन किया। नैयायिक जीवनाथ मिश्र से पक्षता, सामान्य निरुक्ति, सिद्धांत-लक्षण तथा वाद के ग्रन्थ पढ़े। वेदांत तो अपने घर का जरूरी विषय था, उसके पढ़ानेवालों में बलिया के पं. अच्युतानन्द त्रिपाठी थे। उनसे उन्होंने खण्डनखण्ड खाद्य, संक्षिप्त शारीरिक, अद्वैतसिद्धि आदि ग्रन्थ पढ़े। जब वह मीमांसा में न्याय-रत्नमाला आदि ग्रन्थों को पढ़कर आगे बढ़ना चाहते थे, उस वक्त देखा कि उनके अध्यापकों को कठिनाई हो रही है। संतोष नहीं होता था। खुद सिर पटकने की कोशिश की; मगर उससे काम बनते नहीं दीख पड़ा। अब (1915 में) वह किसी प्रौढ़ मीमांसक गुरु की खोज में थे। साहित्य में नैषध आदि पढ़े थे। मगर योग-वैराग्य के शैदाई सहजानन्द को ये श्रृंगारपूर्ण ग्रन्थ पसंद न आते थे। पुराने युग की पुरानपंथी संस्कृत पुस्तकों तथा योग-वैराग्य के अतिरिक्त और भी दुनिया है, इसका स्वामी को पता न था।
मीमांसा की प्यास बुझी न थी। पता लगा दरभंगा के चित्रधर मिश्र नामक एक बड़े मीमांसक हैं। 1915 में वहाँ पहुँच गए और उन्हीं के पास 7 मास रह कर मीमांसा के कितने ही ग्रन्थ पढ़े। कुमारिल की दुर्लभ पुस्तक टुप्टीका को हाथ से लिख कर पढ़ा। पं. बालकृष्ण मिश्र भी उस वक्त वहीं थे। उन्होंने बड़े स्नेह से स्वामी को वाद (न्याय) तथा काव्यप्रकाश पढ़ाया। चलते वक्त अपने प्रतिभाशाली शिष्य - परंतु धर्म में गुरु को अपने गुरु द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक भेंट की, जिस पर अपने हाथ से यह स्वरचित पद्य लिख दिया :
प्रेमैव माऽस्तु यदि स्यात् सुजनेन नैव,
तेनापि चेद् गुणवता न समं कदाचित्।
तेनापि चेद् भवतु नैव कदापि भङ्गो
भङ्गोऽपि चेद् भवतु वश्यमवश्यमायु:॥
'प्रेम ही मत हो, यदि हो तो सृजन के साथ नहीं, उससे भी हो तो गुणी के साथ कभी न हो। उससे भी हो तो कभी भी (प्रेम का) भंग न हो, भंग भी हो तो आयु अपने वश में जरूर हो।'
एक महायुद्ध हो रहा हो, हो नहीं सकता कि स्वामी सहजानन्द ऐसा तीव्र बुद्धि का व्यक्ति अपनी चिर-समाधि को भंग न करे। 1915 से युद्ध की खबरों के लिए स्वामी को अखबार पढ़ने की चाह लगी। बाहर की दुनिया का ज्ञान जैसे-जैसे बढ़ता ही जा रहा था, वैसे-वैसे राजनीति में भी दिलचस्पी बढ़ चली। समस्तीपुर (दरभंगा) में उन्होंने फीरोजशाह मेहता के मरने की खबर पढ़ी और यह भी समझा कि संसार में देशभक्ति भी कोई चीज है। लखनऊ-कांग्रेस में हिंदू-मुस्लिम समझौता हुआ, उसे भी उन्होंने पढ़ा। वह 'प्रताप' (कानपुर) को नियमपूर्वक पढ़ते थे, जिससे भारत की राजनीतिक अवस्था की झलक थोड़ी-थोड़ी सामने आने लगी। 'प्रताप' में तिलक की मृत्यु के बारे में इस पद्य को पढ़ कर बड़े प्रभावित हुए -
मुद्दतें काट दीं असीरी में, था जवानी का रंग पीरी में।
अब कहाँ मुल्क का फिदाई हाय, मौत उस मौत को न आयी हाय॥
स्वामी ने इसे पढ़कर एक दिन-रात खाना नहीं खाया। अब उनकी नजर गांधी जी की ओर लगी हुई थी। जलियाँवाला बाग कांड सुन कर उन्हें सख्त धक्का लगा। उसके बारे में हंटर की सरकारी रिपोर्ट को उन्होंने खूब अच्छी तरह पढ़ा। उसी वक्त 'खयाली क्रांति और कैसे उसे दबाया गया' नामक एक अंग्रेजी पुस्तक उनके हाथ आई। सुख-दु:ख अनुभव करने का एक नया संसार उनके सामने खड़ा हो गया। संस्कृत साहित्य में गोता लगाना छूट गया। ढूँढ़-ढूँढ़ कर रोज-रोज की ज्ञातव्य राजनीतिक बातें पढ़ते, अब उनके भाव देश के परतन्त्रकारियों के विरुद्ध हो गए। मृत्यु-शय्या पर पड़े तिलक को देखने गांधी जी बंबई के सरदारगृह में गए। तिलक ने कहा - 'Non-co-operation' चुप रहकर फिर 'Very high method ' यह कहते हुए लोकमान्य ने आखिरी साँस ली। स्वामी ने कहीं पर ये बातें पढ़ीं।
1920 में गांधी जी पटना आए। वहाँ मौलाना आज़ाद और कई दूसरे नेताओं के व्याख्यान सुने। आज़ाद के व्याख्यान का बहुत असर पड़ा। 5 दिसंबर को वे मौलाना मजहरुल्हक के मकान पर गांधी जी से बात करने गए। संन्यास पर कुछ बात चली, फिर गांधी जी की राजनीति पर स्वामी ने तर्क करना शुरू किया और कहा कि खिलाफत के सवाल के हल हो जाने के बाद महम्मदअली शौकतअली मुल्क को धोखा तो नहीं देंगे? गांधी जी ने कहा - 'हम तर्क नहीं जानते, धोखा नहीं देंगे।' आरा की सभा में गांधी जी ने संन्यासी के इस वार्तालाप का जिक्र किया था। अब स्वामी ने निश्चय किया - देश की सेवा बड़ी चीज है, मैं मुल्क की सेवा करूँगा।
राजनीतिक क्षेत्र में - स्वामी नागपुर कांग्रेस में गए। लौटकर (1921 में) बक्सर चले गए और वहीं काम शुरू किया। कांग्रेस ने कौंसिलों के बायकाट का निश्चय किया था। हथुआ के महाराजा (जो खुद भूमिहार ब्राह्मण हैं) कौंसिल के लिए खड़े हुए। कांग्रेस के लोगों ने एक अनपढ़ धोबी को उनके खिलाफ खड़ा किया। स्वामी जी ने सभा में बोलते हुए कहा था - 'राजा-महाराजा से हमारा धोबी कहीं अच्छा है।' धोबी जीत गया। वहाँ तिलक स्वराज्य फंड के लिए चंदा जमा करने में सहायता की। कुछ लोगों ने रुपयों में गड़बड़ी की, जिसके कारण स्वामी जी का मन बिदक उठा और वे कांग्रेस का काम करने के लिए गाजीपुर चले गए।
अहमदाबाद कांग्रेस (1921) से लौटने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। सजा पाकर गाजीपुर, बनारस, फैजाबाद, लखनऊ की जेलों की हवा खाते रहे। वहाँ पर भी आदर्शवादी स्वामी के हृदय में गांधी अनुयायियों की कितनी ही बातें खटकती थीं - (1) गांधी-सिद्धांत को वे दिखाने के लिए मानते थे; (2) कृपलानी, संपूर्णानन्द-जैसों का हिंदू-मुस्लिम-एकता में विश्वास नहीं था, तो भी वे उसका अभिनय करते थे; (3) फजूल बात के लिए जेलवालों से झगड़ते रहते; (4) जब राजनीतिक बन्दियों के डिवीजन (विभाग) का सवाल आया, तो लोगों का रुख देखकर पहले तो कह दिया - 'हम हलवा खाने जेल नहीं आए, हम चक्की चलाने आए हैं'; लेकिन जब डिवीजन कर के फैजाबाद भेज दिए गए, तब बाँदा के एक तिलक-भक्त ने रोज आधा-सेर घी पाने के लिए भूख-हड़ताल कर दी। यह गलत बात है - इसे बहुत-से लोग मानते थे, तब भी दूसरों ने साथ दिया। खैर, हड़ताल तो टूटनी ही थी, चार दिन बाद सबने फिर खाना शुरू किया।
जनवरी (1923) में स्वामी जेल से छूट कर गाजीपुर लौट आए और कांग्रेस का काम करते रहे। अब आंदोलन शिथिल हो चला था। शिथिलता का प्रभाव स्वामी पर भी पड़ रहा था। 1924 में वे सेमरी (बिहार) चले गए और वहाँ 'कर्मकलाप' नामक पुस्तक लिखी।
अब बिहार में कांग्रेस ने कितने ही डिस्ट्रिक्ट बोर्डों को दखल कर लिया था। सरकार परस्तों के सिरमौर सर गणेशदत्त सिंह (भूमिहार) मिनिस्टर थे। स्वामी जी का प्रभाव वे जानते थे, इसलिए उनकी बहुत लल्लोचप्पो करते थे। लोग बराबर उनका कान भरा करते थे कि कायस्थ कांग्रेस के नाम पर भूमिहारों के प्रभाव को खत्म कर देना चाहते हैं। बिहार के बड़े जमींदारों में बहुत अधिक संख्या भूमिहारों की है, यह स्वामी जी जानते थे। साथ ही साथ वे यह भी जानते थे कि कांग्रेस कर्मियों में उनकी संख्या कम नहीं है। इसलिए भूमिहारों का अस्तित्व खतरे में, यह बात तो उनके मन में नहीं आती थी; लेकिन तब भी गढ़-गढ़ कर कितने ही उदाहरण उनके सामने पेश किए जाते थे। सर गणेश ने एक बार बड़े तपाक के साथ स्वामी जी के सामने कहा था - 'पहले देश, फिर बिरादरी'; लेकिन जब गया डिस्ट्रिक्ट बोर्ड को उन्होंने कांग्रेसियों के हाथ से निकालने के लिए तोड़ दिया, तो स्वामी जी के मन पर इसका बहुत बुरा असर हुआ। सर गणेश ने बताया कि गवर्नर ने जबरदस्ती ऐसा कराया।
1926 आया। कांग्रेस ने कौंसिलों में जाना तय किया और भिन्न-भिन्न चुनाव-क्षेत्रों के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार खड़े किए जाने लगे। उस वक्त कुछ योग्य कांग्रेस कर्मियों को ठुकरा कर दूसरों को वे स्थान दिए गए। स्वामी जी के आस-पास अब भी जात-पाँत की मनोवृत्तिवाले लोग ज्यादा रहते थे। उन्होंने कायस्थ-पक्षपात, भूमिहार-विद्वेष आदि कह कर भड़काना शुरू किया। स्वामी जी ने अन्याय के खिलाफ गांधी जी को एक लंबा-चौड़ा पत्र लिखा; लेकिन कोई उत्तर नहीं आया। सर गणेश और बाबू रजनधारी सिंह जैसे गणमान्य नेता स्वामी जी का चरणामृत ले रहे थे। अन्त में स्वामी जी को खींचने में वे सफल हुए। एक चुनाव-क्षेत्र में स्वामी जी और इन पंक्तियों के लेखक दो विरोधी उम्मीदवारों के समर्थक थे। यद्यपि लेखक मानता था और जिले के अधिकांश कांग्रेस कर्मी भी समझते थे कि जिस उम्मीदवार का स्वामी जी समर्थन कर रहे हैं, उसने कांग्रेस के लिए ज्यादा काम किया है, वह ज्यादा जनप्रिय है; किंतु जब कांग्रेस ने दूसरे उम्मीदवार को खड़ा कर दिया, तो कांग्रेसियों के लिए उसका समर्थन करने के सिवाय और कोई चारा नहीं था।
धीरे-धीरे स्वामी जी को बिलय्या भक्तों का पता लग गया। भूमिहार ब्राह्मण महासभा के सभापतित्व के लिए जब मेरठ के कांग्रेस-नेता चौधरी रघुवीर नारायण सिंह का नाम आया, तो उन्होंने किसी राजा-महाराजा को उस जगह बैठाना चाहा। खैर, वे इसमें सफल नहीं हुए और चौधरी साहब ही सभापति बने। गया डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के तोड़ने के बारे में स्वामी जी ने सर गणेश को फटकारते हुए कहा - 'अब तुम्हारे यहाँ हम फिर नहीं आएँगे।'
किसानों के नेता - भूमिहार सामंतों और जमींदारों की मनोवृत्ति को भीतर से देखकर स्वामी जी की आँखें खुलने लगीं। वह समझने लगे कि मुट्ठी-भर जमींदारों, राजा-महाराजाओं के सिवाय सबकी-सब भूमिहार जनता किसान है और इन दोनों के हित एक-दूसरे के खिलाफ हैं। भूमिहार किसानों और गरीबों के वही हित हैं, जो कि भारत के सभी किसानों और गरीबों के। इसलिए सबका उद्धार भारत के सारे किसान-वर्ग के उद्धार में ही है। अब वह पटना जिले में ज्यादा रहते थे। वहीं उन्होंने पहले-पहल भूमिहार किसानों से भूमिहार जमींदारों के अत्याचार सुने। इसके लिए 1927 के अन्त में उन्होंने पश्चिम पटना किसान-सभा बनाई। अभी भी उनका विश्वास था कि परस्पर सहयोग से किसान और जमींदार का भला हो सकता है; लेकिन साथ ही वह समझते थे कि किसानों के मजबूत हुए बिना जमींदार सहयोग नहीं करेंगे। 4 मार्च, 1928 को स्वामी जी ने पश्चिम पटना किसान सभा का बाकायदा संगठन किया। एक पैसा मेम्बरी फीस रखी गई। घूम-घूम कर गाँवों में किसानों के हित पर स्वामी जी व्याख्यान देने लगे - भरतपुरा के भूमिहार जमींदार की जमींदारी के गाँवों में सभाएँ खासतौर से ज्यादा हुईं।
अगले साल तथा 1929 का भी बहुत-समय बीत गया, स्वामी जी उसी तरह अपनी धुन में लगे हुए थे। उसी साल बिहार में काश्तकारी कानून में सुधार करने की बात जोर-शोर से चलने लगी। सरकार किसानों के रुख को समझ रही थी और चाहती थी कि जिन अत्याचारों के बोझ से - नाजायज नजरानों और करों के बोझ से किसान जनता पिसी जा रही है, उन्हें कुछ कम करना चाहिए, नहीं तो यह मवाद भयंकर हो उठेगा। जमींदारों को भी अभी किसी कांग्रेसी मिनिस्टरी का तजुर्बा न था। वे समझते थे कि कांग्रेसी नेता जिन लंबी-लंबी बातों को कहते हैं, मिनिस्टर बन कर वैसा कर बैठेंगे; इसलिए चाहते थे कि सौदा सस्ते में इसी समय पटा लिया जावे। उधर किसानों के भी कुछ नामधारी प्रतिनिधि थे, जो कि कुछ मामूली सुधार कराकर अगले चुनाव के लिए अपने वास्ते रास्ता साफ करना चाहते थे। लेकिन, सरकार ने कह दिया कि जमींदारों और किसानों के समझौते से जो बिल पेश होगा, सरकार उसी का समर्थन करेगी। उस समय एक जमींदार मुखिया ने जमींदारों की ओर से एक बिल पेश किया था और कांग्रेस के भगोड़े एक दूसरे सज्जन ने किसानों की ओर से एक दूसरा बिल रखा था। मिनिस्ट्री के रस से अनभिज्ञ कांग्रेसी नेता घबड़ा रहे थे कि कहीं दोनों समझौता कर के कोई कानून न पास कर दें और श्रेय उनको मिल जावे। कांग्रेस नेता बाबू रामदयालु सिंह (पीछे असेंबली के स्पीकर) ने स्वामी जी के पास आकर कहा कि किसान-सभा का काम जोर से होना चाहिए और सारे प्रांत के किसानों का संगठन करना चाहिए। इससे 8 साल पहले 1921 में सोनपुर-मेला के समय इन पंक्तियों के लेखक ने भी कुछ कांग्रेसकर्मियों को मिलाकर एक बिहार प्रान्तीय किसान-सभा कायम की थी; मगर यह बात समय से बहुत पहले की गई; इसलिए वह सिर्फ कागजी रह गई। अब स्वामी जी के किसानों में ठोस प्रचार तथा कांग्रेस-विरोधियों की चाल से भयभीत कांग्रेस-नेताओं के सहयोग से उसी सोनपुर मेले में 17 नवंबर (1929) को प्रान्तीय किसान-कॉन्फ्रेंस हुई। कॉन्फ्रेंस के सभापति थे स्वामी सहजानन्द सरस्वती। उन्होंने काश्तकारी बिल के षडयंत्र की पोल खोली और उसका खूब विरोध किया। प्रांत के कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता वहाँ मौजूद थे। प्रस्ताव आया, सारे प्रांत की एक किसान-सभा बनाई जावे। बेनीपुरी ने कांग्रेस के कमजोर हो जाने की बात कह कर उसका विरोध किया, स्वामी जी ने समर्थन किया। प्रस्ताव पास हुआ। बिहार प्रान्तीय किसान-सभा का पहला चुनाव हुआ :
- सभापति - स्वामी सहजानन्द सरस्वती
- मन्त्री - बाबू श्रीकृष्ण सिंह (पीछे बिहार के मुख्यमन्त्री)
मेम्बरों में बाबू राजेंद्र प्रसाद, बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, बाबू रामदयालु सिंह (पीछे असेंबली के स्पीकर), बाबू अनुग्रहनारायण सिंह (पीछे बिहार के अर्थ-सचिव) आदि सभी कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। ब्रजकिशोर बाबू ने यह कहकर उसमें रहना पसंद नहीं किया कि यह बहुत खतरनाक काम हो रहा है। पीछे ब्रजकिशोर बाबू की बात सच निकली, या यों कहिए दूसरे नेताओं ने अपनी क्षमता को जाने बिना ही इतना भारी जोखिम अपने सिर पर लेना चाहा।
लाहौर कांग्रेस (1930) के पहले बिहार में वल्लभ भाई पटेल आए। जगह-जगह बड़ी-बड़ी सभाएँ हुईं। स्वामी जी अपने व्याख्यानों से किसानों में नया जोश भर रहे थे। वल्लभभाई भी उसी सभा में किसानों को उत्साहित कर रहे थे। सीतामढ़ी में वल्लभ भाई ने कहा - जमींदारों की क्या जरूरत? पकड़ कर दबा दूँ तो चूर-चूर हो जाएँ। अभी बात बनाने का समय था, काम करने का नहीं, वह तो सात वर्ष बाद आनेवाला था, फिर 'वचने का दरिद्रता' मुंगेर में प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन हुआ। वहीं प्रान्तीय किसान-कॉन्फ्रेंस भी हुई। कॉन्फ्रेंस ने प्रस्ताव पास किया कि राजनीतिक मामलों में किसान-सभा कांग्रेस के विरुद्ध नहीं जावेगी; किसान-सभा सरकारी काश्तकारी बिल का विरोध करती है और गवर्नमेंट को चाहिए कि उस बिल को उठा ले। पीछे सरकारी मेम्बर ने कौंसिल में यह बात कहते हुए बिल को वापस ले लिया कि किसान-सभा इसका विरोध कर रही है। किसानों के कौंसिली स्वयंभू नेता उस वक्त मुँह ताकते रह गए।
लाहौर कांग्रेस के बाद स्वतन्त्रता दिवस (26 जनवरी, 1930) आया। नमक-सत्याग्रह छिड़ा। स्वामी जी पकड़कर छह महीने के लिए हजारीबाग जेल में बंद कर दिए गए। गांधी-भक्त नेताओं की कमजोरियाँ पहली जेलयात्रा की तरह अब अभी दिखलाई पड़ने लगीं। जरा-जरा-सी सुविधा के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते थे। स्वामी जी को बहुत शोक हुआ। अभी भी राजनीति में स्वामी जी गांधीवादी थे। उनको घोर निराशा हुई - ऐसे चरित्रहीन लोग कैसे स्वराज्य लेंगे? राजनीति से वे अब उदास हो चले। सन 1931 आया। स्वामी जी अब 42 साल के थे। अब उनका ज्ञान और तजुर्बा बहुत विस्तृत था। घर छोड़ते समय उनके सामने जो आदर्श थे, उनका स्थान एक दूसरे उच्चतर आदर्श ने ले लिया था। वैयक्तिक मोक्ष की जगह वे अब सारी जनता को मुक्त देखना चाहते थे। जनता में भी गरीबी और अत्याचार से अत्यन्त पीड़ित किसान ही उनके हृदय में सबसे अधिक स्थान रखते थे। वे किसानों से अलग शहरों के मुहल्लों में बैठकर किसानों का हित-चिंतन नहीं करते थे। वे गाँवों में घूमते, जहाँ कोई किसान आकर कहता - 'स्वामी जी, हमारे जुतते खेत में से छीनकर हमारे हल-बैलों को जमींदार के आदमी ने जिरात (सीर) जोतने में लगा दिया।' कोई कहता - 'हम नाजायज नजराना और रसूमों के साथ मालगुजारी हर साल बेबाक करते रहते हैं; लेकिन जमींदार रसीद नहीं देता, हमारे ऊपर सूद और तावान के साथ 4-4 साल की बाकी मालगुजारी की डिग्री करवाकर हमको तबाह कर रहा है।' कहीं वे सुनते कि गाय-भैंस न रहने से मुफ्त दूध न दे सकने पर जमींदार ने अपने आदमी से किसान की स्त्री का दूध निकलवाया। कहीं वे देखते, किसानों की बहू-बेटियों की इज्जत जमींदारों के हाथ लुटते देखकर भी कानून कुछ भी मदद करने में असमर्थ है। वे संसार को सुखी देखना चाहते थे और देख रहे थे जनता की सबसे अधिक संख्या - सबसे मेहनती-समुदाय किसानों की नरक की जिंदगी भोगती। यह भावनाएँ थीं, जिन्होंने स्वामी जी को किसान-सभा तक पहुँचाया। लेकिन, वेदांती, आदर्शवाद, संन्यासियों का एकांती जीवन और उच्च सदाचार के हाथ में तराजू - ये बातें अब भी उनके दिमाग पर जबर्दस्त प्रभाव रखती थीं। इसीलिए जब उनकी अपनी पुरानी भावुक वृत्तियों पर किसी ओर से चोट पहुँचती, तो उनका कोमल भावुक हृदय तिलमिला उठता। इस तिलमिलाहट में उनका हृदय जनता की व्यथावाले भाग को भूल जाता और सिर्फ अपनी तत्कालीन चोट को लेकर पुन: 18 साल की उम्र में गाजीपुर से भागने का अभिनय करता।
1931 में बिहार में किसानों की दुर्दशा की कांग्रेस की ओर से जाँच हुई। नेताओं ने लंबे-लंबे व्याख्यान दिए। लेकिन उसके परिणामस्वरूप जो परिवर्तन करने पड़ते, उन पर बिहारी कांग्रेस-नेता जो कि खुद जमींदार थे, अभी दूर तक सोच नहीं सके थे। 1932 के आंदोलन में स्वामी जी शामिल नहीं हुए। दोस्तों ने बहुत कहा, मगर उनका भावुक हृदय हजारीबाग के जेल के दृश्य को भूल नहीं सकता था। लेकिन इसी वक्त दूसरी परिस्थितियाँ उपस्थित हुईं और अपने हृदय के गहन कोने में छिपे स्वामी को फिर बाहर आने के लिए मजबूर होना पड़ा। कुछ अवसरवादी लोगों ने एक और किसान-सभा बनाई। किसानों के कुछ स्वयंभू नेता कौंसिल में इस नकली किसान-सभा की मदद से फिर कोई कानून पास करवा लेना चाहते थे। इस समय कौंसिल के कांग्रेसी मेम्बर जेलों में बंद थे, यह उनके लिए सुनहरा अवसर था। इन स्वयंभू किसान-नेताओं ने - जो कि सरकार और जमींदारों के हाथ में खेल रहे थे - जमींदारों के साथ चुपके-चुपके एक समझौता भी कर डाला था और चाहते थे कि उसे उस नकली किसान-सभा से मंजूर करा लिया जावे। 1933 की जनवरी के मध्य में उक्त किसान-सभा को बुलाने का दिन भी निश्चित कर लिया गया। स्वामी जी ने बहुत आश्चर्य से पत्रों में इस समाचार को पढ़ा। कुछ क्षोभ भी हुआ, मगर उन्होंने अपने को दबाया। एक किसान कार्यकर्ता स्वामी जी के पास दौड़े-दौड़े पहुँचे और खतरे की खबर देकर आगे आने के लिए कहा - 'स्वामी जी आइए, नहीं तो सारा काम चौपट हो जावेगा।' स्वामी जी ने दृढ़तापूर्वक 'नहीं' कहा। कार्यकर्ता ने बहुत तरह से समझाया, रात को देर तक गिड़गिड़ाते रहे; मगर स्वामी जी की 'नहीं' को नहीं बदल सके। किसान कार्यकर्ता को एक सख्त फोड़ा निकला हुआ था और उस पर से बुखार भी था, जिसके दर्द के मारे उनके मुँह से आह निकलती रहती थी। बीच-बीच में स्वामी जी के पास लेटे उस निस्तब्ध रात्रि में उनके मुँह से शब्द निकल आते - 'स्वामी जी नहीं चलेंगे?... चलते तो... क्या करें!' कार्यकर्ता के इन आह भरे शब्दों ने स्वामी जी को सोचने के लिए मजबूर किया। धीरे-धीरे उन्हें मालूम होने लगा कि यह आह एक किसान कार्यकर्ता की नहीं है, यह है करोड़-करोड़ पीड़ित किसानों के दिल की आह।
सवेरे बिना पूछे ही स्वामी जी ने कार्यकर्ता से कह दिया - 'मैं चलूँगा।'
गुलाब बाग (पटना) में उक्त सभा की तैयारी थी। किसानों की सभा में राजा सूरुजपुरा और मिस्टर सच्चिदानन्द सिंह जैसों को भी बैठे देखकर स्वामी जी का माथा ठनका। सभा के संयोजकों में से एक ने बाबू गुरुसहाय लाल ने पूछा - 'यह क्या?' गुरुसहाय लाल ने जमींदारों के साथ हुए समझौते को स्वामी जी के सामने रखकर कहा - 'इसे पास हो जाना चाहिए।' स्वामी जी ने समझाना शुरू किया कि पास कराना है तो उसे चोरी-चोरी पास नहीं कराना चाहिए। प्रान्तीय किसान-सभा मौजूद है, उससे पास कराओ, दूसरी तारीख मुकर्रर करो। फिर समझौते की बात छेड़ी गई। स्वामी जी ने कहा - 'समझौता किसने किया है?' राजा साहब बोल उठे - 'यह तो कुछ दो और कुछ लो का सवाल है।' स्वामी जी ने सीधा जवाब दिया - 'हाथी के लिए एक चावल देना कुछ भी नहीं है; किंतु चींटी के लिए वह जीने-मरने का सवाल है।' गुरुसहाय लाल को स्वामी के सामने दबते देख कर मिलीभगतवाले लोगों को असंतोष हुआ। नामधारी किसान-सभा के एक नामधारी मन्त्री ने मिस्टर सिंह को धन्यवाद देने के लिए प्रस्ताव रखना चाहा। उस समय पता लगा कि सभा बुलाने में मिस्टर सिंह की उदारता सहायक हुई है। खैर, चाहे जैसे भी हो, लुक-छिप कर किसानों की सभा बुलवाई जावे, लोग स्वामी के प्रभाव, उनके तर्क और भाषण-शक्ति को जानते थे, और यह भी जानते थे कि स्वामी के विरोध करने पर कोई प्रस्ताव पास नहीं हो सकता। सिंह साहब को धन्यवाद नहीं मिला, उसका कितनों को खेद रहा। सभा में प्रस्ताव पास हुआ कि समझौते के मसौदे को छापकर बाँटा जावे और 30 मार्च को किसान-सभा की बैठक की जाय। उसी समय कौंसिल का भी अधिवेशन होनेवाला था। किसान-सभा 30 मार्च को तीसरे पहर से 10 बजे रात तक समझौते के हर पहलू पर विचार करती रही और सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास हुआ शिवशंकर झा किसानों के प्रतिनिधि नहीं हैं, गुरुसहाय लाल कौंसिल में जाकर बिल का विरोध करें, कोई इस तरह का कानून पास होना चाहिए। पीछे गुरुसहाय लाल को हिम्मत न हुई।
अब उस काश्तकारी बिल को लेकर सारे बिहार में वह स्मरणीय आँधी चली, जिसने सदियों से सोए किसानों की आँखों को खोल दिया। जमींदारों और सरकार के स्नेहभाजन गुरुसहाय लाल और शिवशंकर झा सभा कर के किसानों को समझाने की कोशिश करते; मगर स्वामी की सभाओं और उनके प्रचार के सामने कौन टिकता? स्वामी जी बवंडर की तरह बिहार में घूमते हुए किसानों के दिलों में आग लगा रहे थे और बतला रहे थे कि कैसे पीठ पीछे गला काटने की कोशिश की जा रही है। जमींदार उस कानून को पास कराने के लिए बहुत उत्सुक थे; क्योंकि उसमें जमींदारी में 100 एकड़ पर 10 एकड़ अपनी खास जिरात (सीर) में लाने का अधिकार दिया गया था। आंदोलन का यह फल हुआ कि उस 10 सैकड़ा जिरात वाली बात को निकाल देना पड़ा। कानून पास कर दिया गया और कुछ छोटे-मोटे अधिकार किसानों को मिले। सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि किसानों को भ्रम में नहीं डाला जा सका, स्वामी और किसान-सभा की यह पहली सफलता थी।
1934 में बिहार में भूकंप आया। कांग्रेस-नेता जेलों से छूट कर बाहर चले आए। सभी पीड़ित-सहायता के काम में लग गए। गांधी जी भी पटना आए थे। स्वामी जी ने फिर उनसे राजनीति-संबंधी कुछ सवाल पूछे, जिनका जवाब स्वामी जी को इतना असंतोषजनक मालूम हुआ कि उन्होंने वहीं गांधी जी के सामने गांधीवाद को आखिरी सलाम किया।
1927 में किसान-सभा गुमनाम तौर पर पैदा हुई। 1929 में प्रांत के बड़े-बड़े कांग्रेस-नेताओं का उसे सहयोग और आशीर्वाद मिला। अब वह 7 साल की थी। इस बीच उसका जो रूप स्पष्ट होता जा रहा था, उससे जमींदार, कांग्रेसी नेता शंकित होने लगे। तत्कालीन डिक्टेटर सत्यनारायण सिंह ने नोटिस निकाली कि किसान-आंदोलन में किसी कांग्रेसी को भाग नहीं लेना चाहिए। यह भी पता लगा कि जिस समझौते के विरोध में बिहारी किसानों की इतनी जबर्दस्त राय है, कितने ही कांग्रेसी नेता उसके पक्ष में हैं। उनकी ओर से स्वामी जी के दिल पर यह दूसरा सख्त धक्का लगा। किसान भूकंप के सर्वनाशकारी प्रभाव से एक ओर त्राहि-त्राहि कर रहे हैं और एक ओर बिहार के एक जमींदार साहब अपने आदमियों के नाम से सर्कुलर निकाल रहे हैं कि जहाँ-जहाँ रिलीफ (सहायता) बँटे, वहाँ-वहाँ पहुँचे रहो और उसी वक्त मालगुजारी वसूल कर लो। बिहार के कमिश्नरों की बैठक में तय किया गया कि जब तक कोई भीषण अवस्था नहीं दीख पड़े तब तक किसानों को छूट-छाट देने की जरूरत नहीं। दरभंगा की जमींदारी की कितनी ही शिकायतें भेजी गईं, जिस पर गांधी जी कहते थे - गिरींद्र मोहन मिश्र (दरभंगा राज्य के सहायक मैनेजर) अच्छा आदमी है, उससे कहो, वह सभी शिकायतें दूर कर देगा। गिरींद्र मोहन कांग्रेसी माने जाते थे। गांधी जी ने यह भी कहा कि हर एक किसान अपनी शिकायतों को अलग-अलग लिख कर दे। स्वामी जी को बहुत निराशा हुई, किसानों की सभी तकलीफों के बारे में कांग्रेसी नेताओं को टालमटोल करते देखा। यहीं से उनके प्रति स्वामी जी का भाव बदल गया।
1935 में किसान-सभा-कौंसिल में जमींदारी प्रथा को उठा देने का प्रस्ताव रखा गया। स्वामी जी ने विरोध किया - अभी भी उनके दिल में जमींदारों के लिए कुछ कोमल स्थान था। स्वामी जी के विरोध करने पर भी कौंसिल ने प्रस्ताव पास कर दिया; लेकिन जब स्वामी जी हटने लगे तो लोग घबड़ा गए और प्रस्ताव को लौटा लिया गया।
इसके बाद ही अमाँवा राज्य की जमींदारी के पचास गाँवों में किसानों पर होते अत्याचारों की स्वामी जी ने जाँच की, उन्हें उन्होंने अमाँवा के राजा के सामने रखा। हटा देने का वचन मिला। मैनेजर से 3.30 घण्टा बात करने के बाद भी जवाब गोलमटोल रहा। स्वामी अनुभव को अपना गुरु मानते हैं। इन पचास गाँवों के किसानों के ऊपर होते अत्याचारों को आँख से देखकर और सुलह-समझौते के साथ उसके हटाने के लिए विफलप्रयत्न होने के बाद उनकी समझ में आ गया कि जमींदारी प्रथा को हटाना होगा। नवंबर में हाजीपुर की प्रान्तीय कॉन्फ्रेंस में उन्होंने खुद जमींदारी प्रथा हटा देने के लिए प्रस्ताव पास कराया।
1936 में लखनऊ कांग्रेस के वक्त पहला अखिल भारतीय किसान-सम्मेलन हुआ और स्वामी जी उसके पहले सभापति थे। यहीं किसानों का चार्टर तैयार हुआ, जिसके कारण अगले साल फैजपुर-कांग्रेस को कितनी ही बातें स्वीकार करनी पड़ीं। किसानों की जाँच का सवाल भी स्वामी जी कांग्रेस के सामने लाए। कितने ही लोग विरोध कर रहे थे। जवाहरलाल ने कहा - 'जरूर लाना चाहिए, हम इसके लिए स्वामी जी को धन्यवाद देते हैं।' लखनऊ में किसान-जाँच-कमेटी का प्रस्ताव पास हुआ। उसके अनुसार कितने ही प्रांतों में जाँच हुई। रिपोर्ट भी तैयार हुई। मगर बिहार के कांग्रेस-नेता किसान-आंदोलन को कुछ नजदीक से देख चुके थे, इसलिए वे कान में तेल डाल लेना चाहते थे। फैजापुर में फिर पूछताछ हुई, अब क्या करते? जाँच कमेटी के लिए जब स्वामी जी का भी नाम पेश किया गया, तो प्रान्तीय कार्यकारिणी के दूसरे मेम्बरों ने यह कह कर विरोध किया कि रिपोर्ट में हम एकमत चाहते हैं।
कौंसिल के नए चुनाव के लिए कांग्रेस उम्मीदवार नामजद करने लगी। प्रान्तीय नेता इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि कोई किसान-पक्षी नेता न आ जावे। किशोरी प्रसन्न सिंह (हमारे कामरेड) जैसे जबर्दस्त जनप्रिय तथा कांग्रेसकर्मी के लिए कोई स्थान नहीं और उनकी जगह एक ऐसे आदमी को स्थान दिया गया, जिसने कांग्रेस में कभी कुछ नहीं किया और स्वयं जमींदार होते हुए एक बड़ी जमींदारी का मैनेजर रहा। इस अन्धे खाते को देख कर स्वामी जी ने प्रान्तीय कांग्रेस कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया। लेकिन, कांग्रेस चुनाव में सरकारपरस्तों से लोहा लेने जा रही थी, यह समझ कर उन्होंने अपना इस्तीफा लौटा लिया। स्वामी जी ने चुनाव के लिए खूब परिश्रम किया। कौंसिल के पुराने प्रेसीडेंट और एक बड़े जमींदार बाबू रजनधारी सिंह (भूमिहार) एक साधारण कांग्रेसकर्मी के सामने चारों खाने चित्त हो गए। ऐसे ही और भी कितने ही उदाहरण मौजूद हुए।
फैजापुर कांग्रेस के समय (1936) भारतीय किसान सभा की दूसरी कॉन्फ्रेंस हुई। अब की स्वामी जी जनरल सेक्रेटरी हुए। तब से स्वामी जी (जब कभी भारतीय किसान-सभा के सभापति नहीं हुए) जनरल सेक्रेटरी बराबर बने रहे। भारत में किसान-आंदोलन अब स्वामी जी के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया। तीसरी कॉन्फ्रेंस (कुमिल्ला) के स्वामी जी सभापति हुए।
किसानों की जिन-जिन लड़ाइयों में स्वामी जी ने भाग लेकर नेतृत्व किया, उनमें से एक-एक के लिए एक-एक पोथी लिखी जा सकती है, (और वह इस लेख का विषय नहीं है) बड़हियाटाल (मुंगेर) के किसान-संघर्ष में स्वामी जी साथी कार्यानन्द की सहायता में पहुँचे रहते। दरमपुर (बिहार शरीफ) के किसानों के संकट में स्वामी जी साथ थे। सोलहंडा को लीजिए या रेवड़ा को, मझियावाँ को लीजिए या अमवारी को; सभी जगह स्वामी जी किसानों का उत्साह बढ़ाते थे। यह लड़ाइयाँ अब कांग्रेस-मिनिस्टरी के जमाने में हो रही थीं। कांग्रेस-मिनिस्टरी और कांग्रेसी बड़े नेता अब अपने असली रूप में सामने आ रहे थे। उन्होंने स्वामी जी को गिरफ्तार करा के अपने को बदनाम करना पसंद नहीं किया, लेकिन और तरह से स्वामी जी को नीचा दिखाने में कोई कसर उठा नहीं रखी। उन्हें अनुशासन के नाम पर कांग्रेस से सालों के लिए बाहर कर दिया गया। कांग्रेसी अखबार स्वामी जी के खिलाफ कुछ भी अनाप-शनाप बोलने के लिए स्वतन्त्र थे; लेकिन स्वामी जी ने कभी इसकी परवाह न की। उन्होंने किसानों के लिए (मजदूरों के लिए) अपना जीवन अर्पण किया है। उनकी रण-गर्जना को सुन कर किसानों के दिल बल्लियों उछलने लगते और जालिम-जमींदारों के प्राण सूखने लगते हैं। वे कर्ममय हैं। साक्षात देखने पर चुप रहते समय पर उनकी आँखें बोलती मालूम होती है, गालों पर उछलती हँसी अत्याचारियों का परिहास करती है, रोएँ-रोएँ सजग हो कुछ आवाज-सी निकालते दिखाई पड़ते हैं।
महायुद्ध आया। स्वामी जी ने साम्राज्यवादी युद्ध के बारे में हर तरह के समझौते का विरोध किया। रामगढ़ में (अप्रैल 1940) दिए हुए व्याख्यान के लिए उन पर मुकदमा चलाया गया और 3 साल की सजा हुई। जिस वक्त हिटलर ने सोवियत रूस पर हमला किया, उसी वक्त हर एक चीज को किसान और शोषित वर्ग के हित की दृष्टि से देखनेवाले स्वामी जी को यह समझने में देर नहीं हुई कि अब युद्ध का स्वरूप बदल गया; आज फासिस्टवाद के विजयी होने पर किसानों के लिए कोई आशा नहीं, मजदूरों के लिए कोई आशा नहीं, भारत जैसे परतन्त्र देश की स्वतन्त्रता चाहनेवाली जनता को कोई आशा नहीं। स्वामी जी ने अपने सहकर्मियों को बुला कर और दूसरे जरिए से इसे समझाया।
(मार्च 1942) में समय से कुछ पहले स्वामी जी जेल से छोड़ दिए गए। कांग्रेस के कितने ही विरोधी भाइयों ने कहना शुरू किया कि स्वामी जी सरकार को वचन दे कर छूटे हैं। स्वामी जी किसी को वचन नहीं देते - उन्होंने अपना वचन सिर्फ किसानों और भारत की शोषित जनता को दिया है, और उसे वे आखिर तक निबाहेंगे। 9 अगस्त के (1942) स्वतन्त्रता युद्ध के नाम पर जो आत्महत्या-कांड शुरू हुआ, स्वामी जी ने उसका सख्त विरोध किया; यद्यपि इसके लिए भी विरोधियों ने तिल का ताड़ बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखी। किसान जानते हैं - उनका स्वामी निर्भय है, जेल क्या, मृत्यु भी उसे डरा नहीं सकती। किसान जानते हैं, उनका स्वामी निर्लोभ है, उसने चरणामृत पीनेवाले सरों और महाराजाओं को दुत्कार दिया। किसान जानते हैं, उनका स्वामी उनकी आवाज को दुनिया के सामने रखने में गजब की शक्ति रखता है। फिर वे स्वामी पर क्यों न विश्वास करें, क्यों न न्योछावर हों? हाँ, स्वामी में दोष भी हैं - कौन नहीं जानता कि गुस्सा में वे द्वितीय दुर्वासा हैं; लेकिन दिल कितना मधुर, कितना सरल है! बिलैया दंडवतवाले कभी-कभी उसे धोखे में डाल देते हैं; लेकिन महान उद्देश्य से उसे जरा भी विचलित नहीं कर सकते। और सभी दंडौतियों को पहचानने की उसके पास एक जबर्दस्त कसौटी है। किसान और शोषित जनता के लिए जो वस्तुत: मरने-जीनेवाला है; बस वही उसका अपना रहेगा। उसका पढ़ा वेदांत और बाल की खाल निकालनेवाली पुरानी पोथियाँ अब बहुत कुछ भूल-सी गई है; मगर कभी-कभी वह अनजाने में धर दबाने का प्रयास करती है, और उस समय स्वामी जी कुछ विचलित-से दीख पड़ते हैं। लेकिन अब वह उन पोथियों के हाथ में नहीं रह गए हैं, अब वह हैं साधारण जनता के हितों के हाथ में।
प्रस्तुति - रामचन्द्र वर्मा
प्रकाशिका
- स्व. आचार्य कुबेरनाथ राय
'झूठा भय और मिथ्या अभिमान' शीर्षक पुस्तिका में स्वामी जी ने भूमिहार ब्राह्मण समाज को पुरोहिती पेशे को ग्रहण करने की प्रेरणा दी है। भूमिहार ब्राह्मण पुरोहिती नहीं करते क्योंकि उनके मन में कुशिक्षा और अंधा संस्कार के कारण एक धार्मिक 'भय' है कि जिस काम को बाप-दादों ने कभी नहीं किया उसे करने में कोई क्षति न हो जावे, अथवा उनके मन में मिथ्या अभिमान है कि हम तो भू-स्वामी या उच्च पदस्थ हैं, हम ऐसे पेशे को क्यों ग्रहण करें जिसकी प्रथम शर्त ही दान लेना है और शास्त्र भी कहता है 'पुरोहिती कर्म अति मंदा!' स्वामी जी ने इस पुस्तिका में दोनों प्रकार की मनोवृत्तियों की असारता को बताते हुए भूमिहार ब्राह्मण युवावर्ग का आवाहन किया है कि वे निर्भीक हो कर पूरे स्वाभिमान के साथ पुरोहिती करें और इसकी तैयारी के रूप में संस्कृत भाषा और संस्कृत-शास्त्र का अध्ययन करें! तर्क और शास्त्र प्रमाण जो कहें परंतु शेष जनसामान्य के मन में यह समीकरण दृढ़तापूर्वक बैठ गया है कि ब्राह्मण वही है जो पूजा-पाठ करे और पुरोहिती करावे। अत: आवश्यकता है अपने को भी उसी जनविश्वास के अनुकूल बनाने की। 'झूठा भय और मिथ्या अभिमान' की संक्षेप में यही 'थीम' है। इसी बात को स्वामी जी ने अपने भाषण में जो 'महासभा के कर्तव्य' शीर्षक से छपा है, पुन: दोहराया है : 'कोई समय था, जब पुरोहिती न करने में गर्व था - इसे न करने की महत्ता हिंदू समाज सामान्यत: और ब्राह्मण मात्र विशेषत: समझते थे। साथ ही, पुरोहिती को निंदित समझ त्याग करनेवाले नौकरी, सूदखोरी, जालसाजी, चापलूसी, वकालत, मुखतारी, मुकदमे की पैरवी आदि घृणित उपायों द्वारा धन-संग्रह का नाम भी लेना महापाप समझते थे। इसके साथ ही उन्हें वेदशास्त्र पढ़ाने और पढ़ने एवं शिल, उछ, कृषि आदि का गर्व था। एक बात और भी थी। वह यह कि पुरोहिती ब्राह्मणता के गले में बाँध कर लटकाई नहीं गई थी। यह नहीं था कि जो पुरोहिती न करे वह ब्राह्मण ही नहीं। मगर आज यह सब बातें उलटी हैं। आज ब्राह्मणों का जो समाज पुरोहिती से शून्य हो वह ब्राह्मण माना ही नहीं जा सकता। ब्राह्मणता का एकमात्र चिह्न यही रह गया है। चाहे कोई ब्राह्मण ऐसा न भी करता हो, परंतु यदि समय पर ऐसा न कर ले या करने को तैयार न हो जावे तो वह ब्राह्मणता से अलग कर दिया जावेगा। यही हिंदू-समाज की आज धारणा है और आप में शक्ति नहीं कि इसे बदल सकें-कम से कम तब तक जब तक कि आप स्वयं पुरोहिती न कर लें। साथ ही, पूर्व सैकड़ों पतित और घृणित उपायों से जब आप धनार्जन करने में जरा भी नहीं हिचकते जो ब्राह्मणों के लिए कभी भी उचित नहीं है, तो फिर आपको यह कहने का मुख नहीं हो सकता कि हम पुरोहिती नहीं कर सकते, वह नीच कर्म है। क्योंकि पुरोहिती तो अन्ततोगत्वा ब्राह्मण का ही धर्म है, फिर वह चाहे आपत्तिकाल के ही लिए क्यों न हो ओर इससे बढ़ कर आपत्तिकाल और क्या हो सकता है? यहाँ आपकी जाति की रक्षा ही इसी से हो सकेगी। आपको शास्त्र के पढ़ने-पढ़ाने का गर्व भी अब कहाँ है? वह भी तो इसी पुरोहिती के साथ चला गया। यदि आप फिर उस अभिमान को लाना चाहते हैं, तो अपने समाज में पुरोहिती को स्थान दीजिए।'
स जातो येन जातेन
याति वंश: समुन्नतिम्।
परिवर्तिनि संसारे
मृत: को वा न जायते॥
पूर्व वक्तव्य
आज तक पश्चिमा, भूमिहार, जमींदार, त्यागी, महियाल आदि नामधारी ब्राह्मणों के सम्बन्ध में जितने आक्षेप-कटाक्ष हुए हैं उनका सारांश यही है कि इन लोगों में ब्राह्मणों के यजन यजनादि, अर्थात पुरोहिती का नितान्त अभाव है। यद्यपि यह कथन सर्वांश में सत्य नहीं है, कारण, गजरौला-बिजनौर वगैरह स्थानों के त्यागी और हजारीबाग के इटखोरी और चौपारन थानों के भूमिहार वंशपरम्परा से पुरोहिती पेशावाले हैं और गया के देवों का सूर्यमन्दिर भी भूमिहार-सोनभदरियों के ही हाथ बराबर रहा है और वही उसके पुजारी रहे हैं। प्रयाग-त्रिवेणी के पण्डे भी भूमिहार या जमींदार ही हैं और तिरहुत के मुजफ्फरपुर, दरभंगा आदि जिलों में जैथरिया, दोनवार, दिघवैत आदि मूल के भूमिहार या पश्चिमा लोग ही महापात्र का काम करते हैं। फिर भी, भूमिहार, त्यागी, जमींदार या पश्चिमा लोग उसे अच्छा नहीं समझते रहे हैं और उनका यह बराबर यत्न रहा है कि पुरोहिती का नाम भी समाज में न रह जावे, जिसका भयंकर दुष्परिणाम आज आँखों के सामने है। प्रस्तुत पुस्तिका में यही दिखलाया गया है कि भूमिहारों या त्यागियों वगैरह की यह धारणा नितान्त भ्रान्त है। इसलिए अपने समाज में पुरोहिती को निर्मूल करने की उनकी प्रवृत्ति सर्वथा और सर्वदा हानिकर अतएव हेय है। फलत: इस प्रवृत्ति का जितनी जल्दी अन्त हो के समाज समष्टि रूप से यजन-याजनादि षट कर्मों को अपनावे उतना ही श्रेयस्कर है। इसी से समाज की लुप्तप्राय प्रतिष्ठा की पुन: प्राप्ति एवं अन्यान्य ब्राह्मण समाजों की समकक्षता में गणना हो सकेगी।
- स्वामी सहजानन्द सरस्वती
झूठा भय और मिथ्या अभिमान
कालचक्र ने पलटा खाया है। इसीलिए इस समय भूमिहार, पश्चिम आदि ब्राह्मण समाज में, जिसे पुरोहिती छोड़ने का झूठा या सच्चा गर्व था, उसी पुरोहिती के प्रचार की विशेष चर्चा हो रही है। केवल चर्चा ही नहीं; किंतु कम से कम सैकड़ों स्थानों में ये लोग पुरोहिती करने लग गए हैं और पुराने पुरोहितों को निकाल बाहर किया है और कर रहे हैं। सैकड़ों कर्मकांडी तैयार हो गए और हजारों हो रहे हैं। फिर भी यह संख्या इतने बड़े समाज के लिए पर्याप्त नहीं है। जब तक 10-20 हजार अच्छे-अच्छे कर्मकांड के ज्ञाता ओर कर्ता पुरोहित इस समाज-भर में न हो जावें तब तक काम नहीं चलने का। मगर इस काम में अभी अड़चन पड़ रही है और वह यों है कि सैकड़ों बरस का अभ्यास, भ्रान्त धारणा कि हमें पुरोहिती करना न चाहिए, मूर्खता, स्वरूप-विस्मृति और सबके ऊपर बबुआई का झूठा-सच्चा गर्व, इन्हीं के कारण लोग इस काम में आगे आने से हिचकते हैं। कई पुश्त की रूढ़ि के विपरीत चलना इस समय भारत के लिए, और विशेषत: अवनति-गर्त-पतित ब्राह्मण समाज के लिए आसान काम नहीं है। यह तो एक प्रकार से नक्कू बनने का साहस है। मगर कालगति ऐसी है कि अब रुकने का नहीं। फिर भी लोगों को जो इस विषय में झूठा भय और मिथ्या अभिमान हो रहा है उसे दूर कर देना उचित है।
यह कहना कि पुरोहिती करना उचित नहीं है, क्योंकि इससे हमारी अयाचकता जाती रहेगी, वास्तविक स्थिति के अज्ञान का सूचक है। ब्राह्मणों की याचकता या अयाचकता कोई सामूहिक या सामुदायिक धर्म नहीं है। ब्राह्मणों में कोई दल ऐसा नहीं हो सकता जो सर्वात्मना पुरोहिती से अलग हो, जिसमें पुरोहिती की गंध भी न हो। ऐसा होने से उस ब्राह्मण समाज और क्षत्रिय आदि में देखने के लिए क्या अन्तर होगा? शास्त्र कौन देखने जाता है? सर्व साधारण तो पोथीपत्रा पढ़ते नहीं कि उससे किसी बात का निश्चय करें और न उनके लिए यह संभव ही है। वह तो सिर्फ बाहरी व्यवहार-आचार को देखते और पढ़ते हैं और उसी से ही फैसला किया करते हैं। यही कारण है कि 25-30 वर्ष से महासभा करते ही रह गए परंतु अभी तक जनता इस समाज को साफ तौर से ब्राह्मण कहने और मानने को तैयार नहीं है। यह कोई छिपी बात नहीं है। यह तो अप्रिय सत्य है। क्या इतने पर भी आँखें नहीं खुलतीं? वह अयाचकता का मिथ्या अभिमान किस कौड़ी का जिसके करते वर्णसंकर, पतित, नीच, क्षत्रिय, बनिया और शूद्र बनने तक की नौबत आ पहुँची थी? जिस अयाचकता के जाने का झूठा भय इस तरह बेकार कर देता है क्या वह जाति और धर्म से प्यारी है? तो क्या उसके करते अभी तक जाति बनी ही है? क्या ब्राह्मणों के जितने भी सर्यूपारी, कनौजिया, गौड़ आदि दल हैं उनमें से किसी को इस अयाचकता या पुरोहिती त्याग का अभिमान है? तो क्या वह ब्राह्मण ही नहीं? या आप लोगों से किसी भी बात में नीचे हैं? कनौजिया तो हर बातों में बढ़े-चढ़े हैं। तो फिर अकेले आप लोगों का ही यह 'मुरारेस्तृतीय: पंथ:' क्यों? इस तरह तो आप अपनी ही मिट्टी पलीद कर रहे हैं। पुरोहिती का करना, न करना व्यक्तिगत धर्म है। समाज का कोई व्यक्ति चाहे तो उसे करे और दूसरा न चाहे तो न करे। आज करे और कल छोड़ दे, परसों फिर भी करे। इसके लिए कोई नियम तो हो ही नहीं सकता। ब्राह्मणों के किसी भी समाज को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने समाज में किसी भी पुरोहिती करनेवाले को 'स्थान नहीं है' ─ No admission कह सके। ब्राह्मण तो सदा से ही स्वावलंबी और स्वाधीन होते आए हैं। उन्हें औरों के बल और विद्या का कभी भी भरोसा नहीं रहा है। ब्राह्मणों के लिए तो मनु जी कहते हैं कि क्षत्रियादि के बल की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य ठीक है ─ 'स्ववीर्याद्राजवीर्याच्च स्ववीर्यं बलवत्तारम' (11/32)। फिर भी होम और संस्कार या यज्ञ-यागादि के लिए कभी मैथिल, कभी सर्यूपारी, कभी गौड़ और कभी कनौजिया पुरोहित सामने दीनता और साष्टांग प्रणिपात करनेवाले ब्राह्मणों के किसी भी समाज को चिल्लू-भर पानी में डूब मरने के लिए भी जगह नहीं है। इस प्रकार मँगनी, उधार, भाड़े के, अथवा खरीदे हुए धर्म के ठेकेदारों से ब्राह्मणों का धर्म कैसे निभ सकता है? क्या केवल पम्प या नली की बाहरी हवा से शरीर रह सकता है, जबकि भीतर स्वयमेव वह शक्ति न हो, प्राणवायु न हो? क्या आजकल कोई भी ब्राह्मण समाज ऐसा करता है कि दूसरे समाज के आचार्य या पुरोहितों पर ही निर्भर रहे? वही खा-पी कर उसे और उसके पूर्वजों को तारें, नहीं तो नरक में ही सड़ना होगा? फिर या तो ब्राह्मण कहना छोड़ना होगा, या अन्यान्य ब्राह्मण दलों की जो परिपाटी है, अपने ही दल के आचार्य, गुरु, पुरोहित रखना, वही करना होगा, दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। ब्राह्मणों में इस समय जितने राजे, महाराजे या बाबुआन हैं, उनमें सब नहीं तो अधिकांश के इतिहास से पता चलता है कि उनके पूर्वजों ने इसी पुरोहिती, बल्कि प्रतिग्रह के बल से ही यह राज्य और ठाटबाट संपादन किया है। फिर वंशपरम्परागत अयाचकता की दुहाई कैसी? यदि व्यास, वसिष्ठ और पराशर आदि के ही वंश में अपने आपको मानते हैं और उन्होंने न तो पुरोहिती छोड़ी ही थी और न ऐसा आदेश ही दिया था कि कोई भी उसे न करे, तो फिर उन्हीं के वंशधारों का यह मिथ्या गर्व नहीं तो और क्या है? बाप-दादों ने नहीं किया है, इसलिए हम भी न करेंगे, इस कथन का अर्थ क्या है? क्या बाप-दादों के भीतर व्यास, वसिष्ठ आदि नहीं आते, किंतु सिर्फ दो ही चार पुश्त के लोग?
यदि कहा जावे कि वसिष्ठ ने तो अवश्यमेव पुरोहिती की शिकायत की है, 'उपरोहिती कर्म अतिमंदा' - 'पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम' (अधया. 2/2/28), तो फिर उन्होंने स्वयं क्यों दशरथ के वंश की - रघुवंश की - पुरोहिती स्वीकार की? यदि उन्हें रामचंद्र के गुरु होने का लोभ था तो क्या आपको जाति की रक्षा नहीं करनी है? तो क्या पुरोहिती के बिना जाति को बचा सके या बचा सकते हैं? क्या समाज के लोगों को यह नहीं मालूम कि थोड़े दिनों में ही कम से कम सैकड़ों जगह पुरोहितों ने सिर्फ इसलिए क्रियाकर्म करना छोड़ दिया या छोड़ देने की धमकी दी है कि आप लोग यदि ब्राह्मण हैं तो जाइए पिंड-पानी लीजिए? मैं तो ऐसे कितने स्थान जानता हूँ जहाँ सिर्फ ब्राह्मण कहने के महान अपराध के कारण ही द्वादशाह का पिंडदान कराना उन्होंने ऐन मौके पर छोड़ दिया! मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि पुरोहित समाज को आज मालूम हो जावे कि आपके समाज भर में कोई भी पिंड-पानी कराने योग्य है ही नहीं तो कल ही आपके बड़े-बड़े लोगों को यह साफ धमकी दे देंगे कि 'खबरदार, यदि आप लोगों ने अपने को ब्राह्मण कहा तो ठीक नहीं, आपकी कर्म-क्रिया ऐसी ही पड़ी रह जावेगी।' क्या आप लोग कलेजे पर हाथ दे कर कह सकते हैं कि आप लोगों की ब्राह्मणत पुरोहित समाज को तीर की तरह चुभ नहीं रही है? स्मरण रहे, इसके लिए उसी समाज से आपकी प्रधान लड़ाई है। और जिससे लड़ना हो उसी के हाथ की सामग्री पर निर्भर रह कर लड़ाई या उसमें विजय की आशा केवल मनमोहक है। एतदर्थ तो उस समाज से निरपेक्ष होना ही होगा। दूसरा चारा ही नहीं।
यह भी तो विचारना चाहिए कि वसिष्ठ आदि ने जो पुरोहती की निंदा की उसका नाम लेना आप लोगों के लिए शोभा देता है या नहीं। यदि उन्होंने उसकी शिकायत की तो उनका जीवन बड़ा उच्च था। वह दीनता, गुलामी, सूदखोरी, चोरी, झूठ-सच, धोखेबाजी से और भी दूर रहते थे। नौकरी से अर्थ-संपादन में उन्हें घोर घृणा थी। उन्होंने कहा था कि नौकरी श्वानवृत्ति है, उसे किसी भी दशा में ब्राह्मण कर ही नहीं सकता। 'सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्ता परिवर्जयेत्' (मनु. 4/6)। वकालत, मुख्तारी और पुलिस की घूसखोरी को वे पतित काम समझते थे। वे किसी की नौकरी लगने पर उससे यह प्रश्न नहीं करते थे कि वेतन के सिवाय ऊपर की आमदनी भी कुछ है या नहीं? इजलास पर जा कर जर-जमीन के लिए गंगा-तुलसी उठाना घोर पाप समझते थे। ओर हम लोग? हमने तो इन सबों को सहर्ष पावन-शिरोधार्य कर लिया है! इन बातों में व्यास-वसिष्ठ का नाम भी लेना अपना कर्तव्य नहीं समझते - उनका उदाहरण पेश करना नहीं चाहते। मगर, पुरोहिती के बारे में? उसके लिए तो दिन-रात उनके वाक्य हमारी जबान पर ही हैं! इसे ही कहते हैं, 'मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू।' इसे ही कहते हैं, 'उत्तरदायित्व-ज्ञान शून्यता।' मगर इससे भला न होगा। किसी भी प्रकार विचारा जावे, तो यही मानना होगा कि व्यास-वसिष्ठ की कसौटी बहुत ही ऊँचे दर्जे की है। वह हमारे लिए आदर्श भले ही हो, पर व्यवहार में कम से कम इस समय उस कसौटी पर जाँच नहीं की जा सकती। जो यह भय दिखलाता है कि पुरोहिती करने से समाज में गरीबी और भिक्षावृत्ति बढ़ेगी, वह भी निर्मूल ही है। काशी, बेतिया, नरहन, सुरसंड, शिवहर आदि के राजे-महाराजे और एकसरिया, जैथरिया, दंसवार, गौतम, दोनवार वगैरह वंशों के जितने बाबुआन हैं उनकी वर्तमान संपत्ति और महाराजा दरभंगा का राज्य भी उसी पुरोहिती, दक्षिणा या प्रतिग्रह वृत्ति के फल हैं। शायद इनमें एकाध ही न हों तो न हों। इनके इतिहास के मूल में यही मिलेगा कि इनके पूर्वजों ने इसी तरह भूमि प्राप्त की। इस प्रकार जब वे लोग गरीब और भिक्षुक न हुए तो समझ में नहीं आता कि किस बुद्धि से यह कल्पना की जा सकती है कि भविष्य में ऐसे हो जाएँगे! साधारणतया तो त्यागी, जमींदार, भूमिहार या पश्चिम नामधारी समाज का इतिहास ही इस बात का साक्षी है कि पुरोहिती वृत्ति से ही यह समाज बना है, या इसकी भूसंपत्ति और धनवृद्धि हुई है। फिर कैसे कहें कि जिस रास्ते से, जिस काम से इस उच्च सिंहासन पर आसीन हुए उसी से नीचे गिर जाएँगे? यह तो समझ से बाहर की बात है। यह भी समझ में नहीं आता है कि प्रतिवर्ष समाज का जो करोड़ों रुपया दूसरे समाज में जा रहा है और उसके जाने का द्वार यही गुरुवाई और पुरोहिती है, यदि वह समाज में ही उसी के द्वारा रख लिया जावे तो कैसे समाज गरीब और भिक्षुक हो जावेगा? मैं तो सैकड़ों नहीं, हजारों दृष्टांत ऐसे बता सकता हूँ जहाँ पर इस समाज की पुरोहिती करनेवाले दूसरे लोग धनी हो कर इन्हीं की भूमि को खरीद रहे हैं और ये लोग गरीब हो रहे हैं! पुरोहित दल को जो आजकल बड़ा भारी भय है वह यही है कि इस समाज की पुरोहिती और गुरुवाई तो सोने की चिड़िया है, कहीं ऐसा न हो कि हाथ से ही निकल जावे।
यह भी तो देखना चाहिए कि मनु आदि, चाहे किसी भी दशा में सही, जब ब्राह्मण के लिए यह कर्तव्य बताया है कि पुरोहिती करे, तो फिर हम नहीं कह सकते कि अपने को ब्राह्मण कहने और माननेवाला समाज ही उससे इनकार कैसे कर सकता है। यह भी नहीं कि उन ऋषियों का यह अभिप्राय रहा हो कि ब्राह्मण भिक्षुक ही हो जाएँ। क्योंकि वह लोग तो ब्राह्मणों की भिक्षावृत्ति के कट्टर विरोधी थे। पराशर ने तो यहाँ तक कह डाला है कि जिस गाँव में क्रिया, कर्म और संस्कार से रहित ब्राह्मण केवल भिक्षावृत्ति से जीविका करते हों; राजा उस गाँव को दंड दे। क्योंकि वह तो चोरों का पालनेवाला है : 'अव्रता ह्यनधायान यत्रा भैक्ष्यचरा द्विजा:। तं ग्रामं दंडयेद्राजा चौरभक्तप्रदो हि स:' (1/66)। यही श्लोक वसिष्ठस्मृति के तीसरे अध्याय में और अत्रिस्मृति का 22वाँ है। उन्होंने तो ऐसों को चोर ही बना डाला! फिर कैसे कहा जा सकता है कि जिस पुरोहिती से वह भिक्षावृत्ति और गरीबी अनिवार्य है उसके ही करने की आज्ञा वे लोग दे सकते हैं? वे इस बात का विचार तक भी कैसे कर सकते हैं? यह भी तो सोचना चाहिए कि ब्राह्मण कहना न कहना घर की बात या लबेद नहीं है। यह तो हमारे धर्म-ग्रन्थों और ऋषियों का बनाया मार्ग है और उसमें पुरोहिती रूप काँटा - क्योंकि बहुतों की दृष्टि ही ऐसी है - जान-बूझ कर उन्होंने रख छोड़ा है। यदि आप उस मार्ग से जाना चाहते हैं, अपने को ब्राह्मण कहना चाहते हैं, तब तो आपके लिए वह काँटा अनिवार्य है। आप उससे बच ही नहीं सकते। और यदि खामखाह बचने की ही मर्जी है तो फिर उस मार्ग को छोड़िए, अपने को ब्राह्मण कहना बंद कीजिए। दूसरा उपाय ही नहीं। दोनों बातें तो साथ चल नहीं सकतीं कि ब्राह्मण भी कहें और समाज भर को उस पुरोहिती से अलग भी रखना चाहे। यहाँ तो 'दुइ कि होंहिं एक संग भुवालू' वाली बात है।
यह भी समझ में नहीं आता कि जब तक भूमिहार, त्यागी या पश्चिमा ब्राह्मण समाज सभी ब्राह्मण दलों की विवेक बुद्धि का ठेकेदार न हो जावे, अपने हाथ में उसका एकाधिपत्य मान कर 'सर्वाधिकार संरक्षित' का दावा न कर ले, तब तक पुरोहिती के सम्बन्ध में इतने गहरे पानी में उतरने का उसे अधिकार ही क्या है? पुरोहिती के सिर इतनी बड़ी बला लादने का हक ही उसे क्या है? सभी ब्राह्मण दल, जो इस समय सैकड़ों हैं, पुरोहिती से सम्बन्ध रखते हैं और यह भी नहीं कि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और भूमि, धन, संपत्ति का खयाल ही न हो, या उनमें राजा, महाराजा और जमींदार, बाबुआन ही न हों। फिर भी, आज तक किसी ने इस पुरोहिती बेचारी को इतनी अस्पृश्य और ग्रहित मानने का विचार तक न किया! हालाँकि उनमें सहस्रों धुरंधर विद्वान पड़े हैं। विपरीत इसके, उनने, उनकी सभाओं ने और उनके राजे-महाराजे और धनिकों ने इसकी वृद्धि में ही सहायता की है और अपने समाज को संस्कृत पढ़ाने में विशेष उद्योग किया है और करते हैं। हालाँकि, वे ही जानते हैं कि इसके पढ़नेवाले सब नहीं तो अधिकांश पुरोहिती या दक्षिणावृत्ति अवश्य करते हैं और करेंगे। फिर ब्राह्मण नामधारी एक समाज की पुरोहिती को इस तरह बदनाम करना अनधिकार चेष्टा नहीं तो और क्या है? क्या किसी भी ब्राह्मण समाज में आपकी अपेक्षा प्रतिष्ठा या धन-संपत्ति कम है? और पुरोहिती भी हरेक समाज में है ही। तो क्या किसी गौड़ या मैथिल वगैरह को गौड़ या मैथिल स्वीकार करने में गर्व के सिवाय हीनता या लज्जा भी प्रतीत होती है? क्या महाराज दरभंगा को मैथिल और राजा फतेह सिंह को गौड़ बनने में कोई आनाकानी है? तो क्या उनकी प्रतिष्ठा या संपत्ति आपसे कम हो गई है? प्रत्युत गौड़ या मैथिल कहने में उनका सिर और समाजों के सामने ऊँचा और आपके भूमिहारादि का नीचा रहता है। यह स्वयं सिद्ध बात है। क्या इस कलंक कालिमा को दूर करना समाज का कर्तव्य नहीं? क्या इस रोग के निदान का विचार किया गया है? तो क्या केवल पुरोहिती के बायकाट-बहिष्कार-(No admission) को छोड़ कर और भी कोई कारण इस सामाजिक अप्रतिष्ठा का है? क्या अब भी आँखें न खुलीं? तो फिर कब खुलेंगी? संसार में धन, जन, जमींदारी या पदवी वगैरह की चाह लोगों को सिर्फ इसीलिए होती है कि उससे संसार में प्रतिष्ठा ओर समाज के सामने मुख उज्ज्वल रहेगा। मगर यदि इन सभी कुछ के रहते भी केवल पुरोहिती के न रहने से ही समाज में लज्जित और बदनाम होना पड़ता है और यह मान भी लें कि पुरोहिती के करने से जर-जमीन कुछ भी न रह जावेगी, तो भी जिनके दिलों में आत्मसम्मान है और जो सम्मान मनुष्यमात्र का जन्मसिद्ध साथी है, वे सबको लात मार कर भी उस प्यारी पुरोहिती को क्यों न शिरोधार्य करेंगे? क्योंकि आत्मसम्मानी तो इसके सामने मरना ही पसंद करता है ─ 'संभावितस्य चाकीतिर्मरणादतिरिच्यते' (गीता, 2/34)।
ब्राह्मणों में जो समाजपार्थक्य या दलबंदी हुई है उसका आधार यही सर्वात्मना स्वतन्त्रता और स्वावलंबन ही है। हम देख रहे हैं कि आप लोगों को छोड़ कर शेष जितने ब्राह्मण समाज हैं वह हर बात में और खास कर धार्मिक कामों में सर्वात्मना एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं, स्वावलंबी हैं। इसीलिए जब चाहें दूसरे को ललकार या दबा सकते हैं। इसीलिए किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ती कि उनकी ओर उँगली उठावे या उनके हक को हड़पने का यत्न भी करे। मगर आप लोगों की क्या दशा है? कम से कम जातीय और धार्मिक मामलों में तो आप लोग 'जुलाहे की बकरी' हो रहे हैं। जो ही चाहता है दो बात सुना देता और समूचे समाज को नीच, वर्णसंकर बना डालता है। कभी दीवान जी और मुंशी जी के भाई सिर उठाते हैं, कभी साहू जी त्यौरी बदलते और आप विधाता बन बैठते हैं और कभी पुरोहितों और गुरुओं की करारी डाँट आती है कि खबरदार हमारे सामने ब्राह्मण होने का नाम भी मत लेना, नहीं तो सात पुश्तों तक नरक में ही सड़ते रह जाओगे, सब कर्म-धर्म और पिंड-पानी यों ही रह जावेगा! इतने पर भी खूबी यह है कि आप लोग अपना एक अलग ब्राह्मण दल बनाते हैं और उसे कायम रखना भी चाहते हैं। यह कब संभव है? या तो धर्म-कर्म के मामलों में भी अपने को अन्यान्य ब्राह्मण दलों की तरह स्वतन्त्रता बनाइए, नहीं तो वर्तमान गौड़ आदि ब्राह्मणदलों में जहाँ के तहाँ मिल जाइए। और अगर यह दोनों नहीं कर सकते, तो अपने को ब्राह्मण कहना छोड़िए। और कर ही क्या सकते हैं? चौथा रास्ता तो कोई भी हई नहीं। यदि गौड़, मैथिल आदि में मिल जाएँगे तब तो उन्हीं के पुरोहितों से आप का काम चल जावेगा। यद्यपि यह बात अभी तुच्छ मालूम होती है, तथापि यदि अब भी इस बदनाम पुरोहिती के बारे में समाज की यही मनोवृत्ति रही, तो फिर यह छिन्न-भिन्नता अनिवार्य है और लोग अब इस पर विचार करने भी लग गए हैं। जो हो, अभी भी अवसर हाथ से चूका नहीं है। बुद्धि से काम लेने से सब ठीक हो सकता है।
हम खूब जानते हैं कि इस काम में सबसे बड़े बाधक बड़े-बड़े राजे-महाराजे और बाबू लोग हैं। उन्हें क्या है? उनके सामने तो बड़े-बड़े साहू जी, दीवान जी, और पंडित जी दूर से ही झुकते और हाथ जोड़ते हैं। साथ-साथ, थोड़ी सी बड़ाई भी कर देते हैं और यदि ऐसा ही मौका आ गया तो कभी-कभी ऊपरी दिल से 'आप तो ब्राह्मण ही हैं' भी कह देते हैं। बस वे लोग तो इतने से ही फूल कर कुप्पा हो जाते हैं और इतने से ही पंडित जी वगैरह का तो काम ही बन जाता है। वह बाबू साहब तो समझते हैं कि ऐसी दशा सर्वत्र है और पंडित जी लोग या इनके भाई-बंधु समाज-भर में सर्वत्र ऐसा ही करते होंगे। क्योंकि जिसके पाँव में जूता होता है उसके लिए तो सारी भूमि पर चमड़े बिछे हैं। मगर इधर तो गरीबों या मध्यम श्रेणी के ऊपर जो बीतती है सो वही जानते हैं। पत्रों, पुस्तकों, सभाओं में और जनसाधारण के सामने उनकी जो दुर्दशा और अवमानना की जाती है उसे उनका छिन्न-भिन्न और विदीर्ण दिल ही जानता है। ऐसी विषमता के रहते हुए यदि बाबू, राजे पुरोहिती को न चाहें और समाज के शेष लोग चाहें, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? क्योंकि उस आदमी को छाया के सुख का क्या अनुभव होगा और उसे दिल से क्यों चाहेगा जिसने कड़ी धूप की ज्वाला का सामना नहीं किया है? गरीब लोग क्या दूसरों की बबुआई और राज्य को ले कर चाटेंगे, जब उनकी जातीय दुर्दशा होती ही रहेगी, उनके लिए 'वही कद्दू की तरकारी जो पहले थी सो अब भी है' ही सदा चरितार्थ होने को है और उनके साथ पुरोहितों और गुरुओं की 'वही रफ्तार बेढंगी जो पहले थी सो अब भी है।' वे बेचारे तो दुविधा में दोनों ओर से गए, न तो माया ही मिली और न राम ही मिले-न तो बबुआई के आनन्द की झलक ही मिली और न जाति या समाज में प्रतिष्ठा ही।
यह कहना तो कि पुरोहिती खराब है, इसलिए उसे नहीं करते, केवल आत्मप्रवंचना मात्र दुनिया को उल्लू समझना है। इतने ही से संसार यह न समझ लेगा और न समझ ही रहा है कि वास्तव में आप पुरोहिती को नीच समझ कर ही नहीं करते इसलिए आप उच्च कोटि के ब्राह्मण हैं। वह तो आपके उसी व्यवहार से आपको नीच समझता हुआ इस कथन को ढोंग मानता है, जिस व्यवहार के करने से आपकी आत्मप्रवंचना - Self deception - सिद्ध होती है। यदि आप और आपका समाज वस्तुत: पुरोहिती को हीन समझते हैं तो उसके करनेवालों को राह चलते क्यों साष्टांग करते फिरते और सिर पर उनके चरण-रज चढ़ा कर पवित्र होते हैं? क्या इसमें कोई दूसरा रहस्य है? क्या यही बात नहीं है कि 'हाथी का दाँत दिखलाने का और होता है और खाने का और' यदि सचमुच आप उसे नीच कर्म समझते हैं तो उसको प्रणाम करें, न कि उलटा आप ही उनके पाँव पर सिर रगड़ते फिरें! यह दोनों बातें तो एक साथ असंभव हैं। इससे तो यह प्रतीत होता है कि आप जो कुछ एक कहते हैं, माने बैठे हैं, ठीक उसका उलटा। यह आत्मप्रवंचना नहीं तो और क्या है? इससे काम नहीं चलने का। सत्य को स्वीकार करने की हिम्मत होनी चाहिए। सिर्फ इस झूठे भय और मिथ्या अभिमान से - 'अपने मुँह मियाँ मिट्ठू' बनने से काम न चलेगा।
इस बात का भी विचार करना चाहिए कि जो इस समाज में आधे पुरुष बिना ब्याहे रह जाते हैं और यह संख्या क्रमश: उन्नति ही करती जाती है, इसका कारण क्या है। निस्संदेह यदि अविवाहितों की संख्या-वृद्धि का यही स्रोत रहा और वह किसी प्रकार बंद न किया गया तो अतिनिकट भविष्य में समाज का उच्छेद अनिवार्य है। जिन स्थानों में संख्यावली का कार्य हो रहा है वहाँ के कार्यकर्ता ही मेरे इस कथन की पुष्टि अपने अनुभव से करेंगे। मैं तो यह बात सभी प्रांतों के ग्रामों में भ्रमण कर अनुभव प्राप्त करने के कारण कह रहा हूँ। निस्संदेह बिहार के पूर्वीय जिलों में, युक्त प्रांत या बिहार के ही पश्चिमी जिलों की अपेक्षा यह अविवाह रोग कम भीषण है। मगर अन्यत्र इसकी भीषणता विचार मात्र से ही आतंक उत्पन्न करनेवाली है। निस्संदेह इस विनाशोन्मुख प्रवाह में वैवाहिक कुरीतियाँ भी कारण हैं और उनमें भी तिलक, दहेज की प्रथा उतना नहीं जितना कि असमान विवाह प्रथा। मगर यदि केवल यही कारण होता तो पुरोहिती प्रधान समाज में भी उन ब्राह्मणों में भी जिनमें अभी पुरोहिती मौजूद है - यह दशा उतनी ही भीषण होती। मगर बात यह नहीं है। पुरोहितों में शायद ही कोई मिलेगा जिसका विवाह न हुआ हो। उसकी जमींदारी और रुपए के लेन-देन का कारोबार कोई भी देखने नहीं जाता। खाने-पीने भर की सामर्थ्य रहने से ही विवाह हो जाता है। पर, आपके समाज में राजपूतों या बनिए की तरह रुपए का लेन-देन और भारी जमींदारी देख कर ही विवाह किया जाता है! जिसके खानदान में दो ही चार आदमी हैं और 15-20 बीघा जमींदारी या शरहमुअय्यन काश्तकारी है उसकी भी शादी नहीं हो रही है, जैसे राजपूतों की नहीं होती। सारांश, ब्राह्मणता का भाव चले जाने और राजपूती एवं बनिए का भाव आ जाने से ही अविवाहितों की संख्यावृद्धि विशेष रूप से हो रही है और पुरोहितों में इसके विपरीत भाव रहने से यह बात नहीं है। उनमें भी जो आपकी ही तरह राजपूती या बनिएपन के भाव के हैं और पुरोहिती नहीं करते और न संस्कृत ही पढ़ते या ब्राह्मणों का आचार ही रखते, किंतु धान या जमींदारी की झूठी गरमी से फूले हैं, उनकी दशा आप सरीखी ही है! क्या आप लोगों ने इस पर कभी विचार किया है? यदि किया है तो क्या मेरी बातें वहाँ नजर आई हैं? यदि न भी आई हों तो पुनरपि विचार कर देखिए और पता चलेगा कि मेरा कथन अक्षरश: ठीक है। तो फिर इस भीषण महामारी को समाज से दूर करने का उपाय क्या है? बेशक समान विवाह प्रथा कुछ अंश में इसे दूर कर सकती है। पर उसको जारी करने के लिए समाज में जीवन और जीवित संगठन लाने की जरूरत होगी। यह आसान बात नहीं है। आपकी सभा में अभी तक कोई बल ही नहीं कि समाज में समान विवाह प्रथा ला दे, जबकि तिलक, दहेज को सिर्फ रोक देना असंभव हो रहा है। इसके सिवाय वर विक्रय की ही तरह यदि कन्या विक्रय की प्रथा मैथिलों की तरह सर्वत्र आपके समाज में जारी कर दी जावे तो शायद वह भी कुछ अंश में कुछ समय तक काम करे और तिरहुत की ही तरह अन्यत्र भी अविवाहितों की कुछ कमी हो जावे। पर एक तो यह स्थायी औषधि नहीं हो सकती; क्योंकि 'बुराई से बुराई को दूर करने' का सिद्धांत ठीक नहीं। तीसरी और सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि धर्मशास्त्रों द्वारा सहस्रश: निंदित इस दुष्कर्म के प्रचार का नाम कौन ले सकता है? इसलिए हार कर यही मानना होगा कि समाज में से राजपूती भाव और बनिएपन की प्रधानता हटा कर ब्राह्मण भाव एवं आचरण की प्रधानता की स्थापना हो। मगर यह बात संस्कृत पठन और धर्मग्रन्थों के यथार्थ ज्ञान के बिना हो सकती नहीं और पुरोहिती के प्रचार बिना-क्योंकि पुरोहिती और गुरुवाई लौकिक मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा और अर्थार्जन का साधन हैं - यह दोनों बातें असंभव हैं। केवल ज्ञान और मुक्ति के लिए संस्कृत पढ़ने की फुर्सत किसे है? सबसे बड़ी बात यह है कि जब तक ब्राह्मण और जगत्-पूज्य होने का अभिमान समाज में न आवेगा तब तक संस्कृत, ब्रह्मज्ञान और ब्राह्मणों के आचार के पीछे माथापच्ची कौन करेगा? और वह अभिमान इस समय सिवाय पुरोहिती के अन्य उपायों से आ ही नहीं सकता। पुरोहितों के 5 वर्ष के बच्चे बेखटके अपने को ब्राह्मण मानते, आपके 60 वर्ष के बूढ़ों को आशीर्वाद देते और जगत के सामने अपना पाँव 'पखारने' के लिए फैला देते हैं। मगर आपके 60 और 80 वर्ष के बूढ़े भी ऐसा नहीं कर सकते! उनमें यह हिम्मत ही नहीं होती! इसके नाम पर ही गोया उन्हें मिर्गी आ जाती है! यह क्यों होता है? क्या आप लोगों ने इस पर ध्यान दिया है? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि इस गए-गुजरे जमाने में ब्राह्मणता और पूज्यता का स्वाभिमान दिलानेवाली एकमात्र पुरोहिती ही है और उसी के बिना आपका समाज सुप्त या मृत सिंहवत पड़ा है, जिसके ऊपर आज गीदड़ अपने पाँव की रौंद लगा कर किलकारें करते हैं? तो क्या आपका या महासभा का यह पवित्रतम कर्तव्य नहीं है कि पुरोहिती के मन्त्र का शंख फूँक उसे जगावें, या इसी अमृत-बिंदु से उसे जीवित कर इस घोर अपमान का प्रतिकार करें?
जो बाप-दादों की दुहाई दे कर रूढ़ि के उपासक बनने में सभी अपमान को मृतक की तरह बर्दाश्त करने और विचार को ताक पर रख देने को तैयार हैं और जिनके बाप-दादों की सीमा भी दो-चार या छह पुश्तों तक है, जो व्यास, वसिष्ठ, मनु या पराशर तक अपने बाप-दादों की परम्परा ले जाना नहीं चाहते या ले जाने में असमर्थ हैं, क्योंकि रूढ़ि की उपासना की लगन ने विचार शक्ति का दीवाला निकाल दिया है, उनसे भी हमें दो-एक बातें कहनी हैं। हम यह जानना चाहते हैं कि आखिर उनकी बाप-दादा वाली इस अनन्य भक्ति का कारण क्या है? क्या वे लोग कोई ऐसा वसीयतनामा लिख गए हैं कि हमने जो किया है तुम लोग उसे बिना सोच-विचार के करना? और उस वसीयतनामे को मानना क्या लोगों का कर्तव्य हो गया है? मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह बात नहीं है न तो ऐसा वसीयतनामा ही है और न उसकी मानना लोग अपना धर्म ही समझते हैं। इसका पता तो तब लगता है जब हम देखते हैं कि बाप-दादों द्वारा किए गए कमालों की मंसूखी उनके बेटे-पोते धाड़ाधड़ करते हैं और बाप-दादों को नालायक पागल और बदचलन तक बना डालते हैं! इसके विपरीत यदि किसी सत्कार्य के लिए कुछ जायदाद की वसीयत बाप-दादे कर गए हैं तो उसके मानने में कमर टूटती है और सैकड़ों बहाने निकाले जाते हैं। पर, यहाँ अपनी पतिता और नीचता की-कमजोरी को छिपाने के लिए उन्हीं बाप-दादों के कामों की ओट ढूँढ़ी जाती है! यह सब क्यों होता है? इसीलिए न, कि हमारी दृष्टि में एक इंच भूमि और एक कौड़ी की भी कीमत है? अतएव उसको बचाने के लिए बाप-दादों क्या परमेश्वर तक को भूल जाते हैं। मगर जाति, धर्म और स्वाभिमान तो हमारे लिए कौड़ी का भी नहीं है!!
ऐसे महापुरुषों से हम पूछना चाहते हैं कि आज से 40, 50 या 100 वर्ष पूर्व आपके ही बाप-दादे आवश्यकता पड़ने पर हजारों रुपए बिना दस्तावेज, रेहन या हैंडनोट के ही लोगों को देते थे। तो क्या आप भी अब ऐसा ही करेंगे? यदि नहीं तो क्यों? इसीलिए न, कि तब और अबके समय में फर्क हो गया है? तब लोग सच्ची बातों को मानते, पाप से डरते और बेईमानी नहीं करते थे। कोई भी किसी का रुपया, धर्म या इज्जत डकार जाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। मगर अब सभी ऐसा करते हैं। अब सच्चों का गुजारा नहीं है। फूँक-फँक कर पाँव डालना पड़ता है। तो फिर यही नियम जाति और धर्म के बारे में भी क्यों नहीं लगा लेते? जैसे समय देख कर रुपए-पैसे के बारे में लोगों ने बाप-दादों का नियम और व्यवहार बदल दिया है, ठीक वैसे ही प्रणाम, नमस्कार या पुरोहिती आदि के बारे में भी क्यों न अब किया जावे? देख ही तो रहे हैं इधर 25-30 वर्षों के ही भीतर आपकी जाति और धर्म को सीधे डकार जाने के लिए कितने ही षडयंत्र रचे गए हैं, बीसियों पुस्तकें और लेख लिखे गए हैं, जब कि पहले एक का भी नाम न था। अब आपकी सच्चाई और सिधाई का उलटा अर्थ लगाया जा रहा है। इसी से सजग हो जाना चाहिए। फूँक-फँक कर पाँव देना चाहिए।
सौ बातों की एक बात तो यह है कि न तो बाप-दादे सब बातों में अच्छे ही थे और न बुरे ही। इसलिए जो काम उन्होंने बुद्धिमानी के किए उनके लिए वे अच्छे और चतुर कहे जाएँगे और हमें भी उसका गर्व होगा। मगर जो काम उनसे गलती से हो गए उनके लिए वे अवश्य बुरे या मूर्ख हैं, चाहे हम उनका जिक्र भले ही न करें। इसीलिए हमें उन कामों का गर्व हो ही नहीं सकता, चाहे कोई लाख कहे। यह तो कोई बुद्धिमानी नहीं कि जिसके वंश में कई पुश्तों से चोरी या शराबखोरी चली आती हो वह सिर्फ यह कह कर उसके विरुद्ध उपदेश को न माने कि हमारे बाप-दादों ने ऐसा किया था, हम कैसे छोड़ें? या बाप-दादों की उस काली करतूत का उसे गर्व हो। यदि हम लोगों के पूर्वजों के रहते ही भारत का राज्य दूसरों के हाथ गया और चरखे का नाश हो कर यह पराधीनता और कपड़े की महँगी रूपिणी चंडी भारत में नंगी नाच रही है तो इन बातों के लिए किसे गर्व होगा, या कौन अपने पूर्वजों की दुहाई दे कर चरखे और स्वराज्य प्राप्ति का उपदेश न सुनेगा? यह तो कोई कह ही नहीं सकता कि हमारे बाप-दादे सारी बुद्धिमानी और सच्चाई के ठेकेदार थे, इसी से गलती तो कभी कर ही नहीं सकते थे। जब व्यास, वसिष्ठ, विश्वामित्र, पराशर और सौभरि आदि, यहाँ तक कि ब्रह्मा और शिव आदि भी गलतियों से न बच सके। हाँ, यह दूसरी बात है कि अपनी सामर्थ्य और तपोबल से उसका पाप उन्हें न लगा। तो फिर हमारी या बाप-दादों की क्या गिनती है? यह भी तो नहीं कि व्यास-वसिष्ठादि ने जो मार्ग बताया या बनाया था उसकी सीमा और रक्षाबंदी किसी ऐसे पदार्थ से कर दी हो कि कभी भी उसमें बुराई आ ही न सके। यदि ऐसा हो तो फिर यह संसार ही न कहावे और न समय-समय पर ऋषि-मुनियों या अवतारों की आवश्यकता ही रह जावे। तो फिर क्या अब हमारा कर्तव्य नहीं हो जाता कि जब-जब हम व्यास-वसिष्ठादि के मार्गों की तरफ चलें तब-तब यह सोच लें कि इसमें कोई काँटे, कीड़े, साँप या रोड़े तो नहीं आ गए हैं, या बीच में कोई उपद्रव तो नहीं हो गया है? और फिर उस काँटे, कीड़े, रोड़े या उपद्रव को छोड़ कर ही हमें चलना चाहिए। हमें बाप-दादों या व्यास-वसिष्ठ की बुद्धि से नहीं चलना है और न उनके कामों का फल हमें मिलना है। हम तो अपने काम के जिम्मेदार हैं और उसका फल हमें भोगना ही होगा। ऐसी दशा में किसी की दोहाई देने का क्या काम? हमें तो अपने ही विचार से काम करना होगा; क्योंकि उसका फल हमें भोगना है, न कि बाप-दादों को। जंगल से जो गाँव का रास्ता है उस पर हम इसीलिए आँखें मूँद कर न चलेंगे कि हमारे बाप-दादे बराबर इस रास्ते से गए हैं। बल्कि उनके लाख जाने पर भी हम अपनी आँखें खोल कर रास्ता देखते चलेंगे। नहीं तो ठोकर खा कर गढ़े में पड़ेंगे और मरेंगे। फिर हमारी समझ में नहीं आता कि कर्तव्य निर्धारण में सब अक्ल, विचार और तर्क को ताक पर रख सिर्फ बाप-दादों की दुहाई का क्या मतलब है। जब नए अवतार, धर्माचार्य या ऋषि-मुनि आ कर सुधार या चलते धर्म में कुछ परिवर्तन करना चाहते हैं तो क्या केवल यही कह कर उनकी बातों पर विचार ही न किया जावे कि हमारे बाप-दादे क्यों ऐसा करते थे? तब तो अवतारों और सुधारकों को खासा उल्लू बनना होगा और वे निरर्थक सिद्ध होंगे। बाप-दादों को धर्म के साक्षात् अवतार मान लेने की यह अनधिकार चेष्टा अच्छी नहीं। उनके मार्ग से जरा भी हटने का नाम लेते ही काँप उठना या उनके कामों की डींगें मारना केवल झूठे भय और मिथ्या अभिमान का फल है। 'हमारे पूर्वजों ने संकल्पपूर्वक पुरोहिती का त्याग किया है। उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि हम या हमारे वंशज भविष्य में
कभी पुरोहिती न करेंगे, अत: पुरोहिती करने पर हमें प्रतिज्ञाभंग का दोषभागी होना पड़ेगा' यह कथन सोलहों आना निर्मूल एवं कपोलकल्पित है। बाप-दादों को न तो ऐसा करने का अधिकार ही था और न वे इतने उल्लू ही थे कि हमारी ओर से भी किसी अशास्त्रीय और धर्मविरुद्ध बात की प्रतिज्ञा करें। उन्हें क्या हक था कि हमारे धर्म को बिना कारण और बिना पैसे-कौड़ी के दूसरों को सौंप दें और हमारी तरफ से उससे बाजीदावा (तिलकनामा) लिख दें? यदि वे जानकार थे तब तो ऐसा कर ही न सकते थे। और यदि मूर्ख थे तो फिर उनकी मूर्खता को हम क्यों ढोते फिरें? इसलिए अपनी आत्मदुर्बलता को इस प्रकार बाप-दादों के सिर लादने का बहाना करना और उसके द्वारा समाज को एक अंग रहित करने का यत्न महाकुत्सित और निंदित है।
अब केवल एक शंका रह जाती है जिसका निराकरण जरूरी है। वह यह कि आखिर आजकल भीख माँगनेवालों की जो संख्या है उनमें अधिकांश वर्तमान पुरोहित समाज के लोगों की है और शेष भी अन्य समाजवाले उन्हीं के अनुकरण से ऐसा कर रहे हैं। इसका क्या प्रतीकार है? निस्संदेह यह बात है - वर्तमान पुरोहित समाज भिक्षावृत्ति प्रधान प्रतीत होता है और देखा जाता है कि ब्रह्मभोजादि के अवसर पर पाँच के बुलाने से पचीस दौड़े आते हैं, आदि-आदि। पर, इसे देख कर भी मैं इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि आपके समाज को पुरोहिती अवश्य करना चाहिए जिससे यह भयंकर बुराई दूर हो। क्योंकि यह पुरोहिती का परिणाम नहीं है। देखने से साफ मालूम होगा कि इन भिक्षावृत्तिजीवी और पाँच की जगह पचीस आनेवालों में अधिकांश वही हैं जिनकी जीविका और इस समय पुरोहिती नहीं है। हाँ, यह ठीक है कि कुछ पुरोहिती करनेवाले भी ऐसा कहीं करते हैं और यह भी संभव है कि जो ऐसे अधिकांश हैं वह भी कभी पुरोहिती करते रहे हों या पुरोहिती कभी न भी करने पर पुरोहितों के सम्बन्ध से ही उनमें यह आदत आ गई हो। क्योंकि एक बार परान्न भोजन की आदत पड़ने पर उसका छूटना कठिन हो जाता है। मगर विचारना तो यह है कि यह जो कुछ भी हुआ वह सिर्फ इसीलिए कि अब सच्चे पुरोहित रह नहीं गए। अब तो आप लोगों ने और आपके ही साथ औरों ने भी पुरोहिती और गुरुवाई को बना दिया है! फल यह हुआ कि गुरु पुरोहित लोग मूर्ख, दुराचारी, दुश्चरित्र, केवल पेट पूजक और परद्रव्यापहारी हो गए! क्योंकि मौरूसी जायदाद के लिए माथा मारने का कौन काम? 'जो पढ़तव्यं तो पूजतव्यं, न पढ़तव्यं तो पूजतव्यं, माथापच्ची क्यों करतव्यं'? वे लोग तो जानते ही हैं कि पढ़े या न पढ़ें, हम तो पूजे जाएँगे ही, हमारा 'पाँव तो पखारा' जावेगा ही, हमारे खुरनारविंद की पूजा तो होगी ही और हमें भरपूर दक्षिणा और पूड़ी तो मिलेगी ही। फिर क्यों 10-12 वर्ष शास्त्रों के अध्य्यन में मगज मारें? और जब इस प्रकार शास्त्रों का पढ़ना गया तो उसमें सच्चा स्वाभिमान, आत्मगौरव, कर्तव्य बुद्धि, प्रतिष्ठा और लज्जा का भाव कैसे आ सकता है? वह कैसे समझ सकते हैं कि अमुक काम हमारी प्रतिष्ठा, धर्म या गौरव के विपरीत अतएव अपमानजनक है? क्योंकि 'श्रुतिस्मृती च विप्राणां चक्षुषी देवनिख्रमते। काणस्तत्रौकया हीनो द्वाभ्यामंध: प्रकीत्तात:' (हारीत 1/25) 'वेद और धर्मशास्त्र यही दो आँखें ब्राह्मणों की हैं। इनमें एक के बिना काने और दोनों के बिना अंधे होते हैं' के अनुसार वे तो अंधे ठहरे। फिर उन्हें सच्चा मार्ग सूझे कैसे? वह कैसे जानें कि यह पूड़ी की हायधुन और भिक्षावृत्ति पाप कर्म है, नीच काम है? फिर उसमें क्यों न सहर्ष प्रवृत्त हों? साथ ही, खिलानेवालों को भी यह नशा बना रहता है कि ब्राह्मण नामधारी ज्यादा खिलाए जाएँ। फिर तो पतितों को छोड़ और मिलेगा ही कौन? इस अन्ध ब्राह्मणभक्ति ने तो और भी नाश किया है। यजमानों की मूर्खता ने पुरोहितों को और भी चौपट बना दिया है। पर, यदि गुरुवाई, पुरोहिती मौरूसी न हो कर योग्यता पर ही रहे, तो फिर यह अनर्थ और अंधाधुंध अपने आप मिट जावे। पुरोहित लोग शास्त्रज्ञ, सच्चरित्र, आत्मगौरव संपन्न होने लग जाएँ। वे नीच कर्मों से दूर रहें जैसे कि वसिष्ठ, गर्ग और विश्वरूप आदि रहते थे। जैसे उन्होंने विवश हो कर पुरोहिती स्वीकार की थी, उसी प्रकार जब केवल जाति और धर्म की रक्षाबुद्धि से यह पुरोहिती की जावेगी तो संसार मंगलमय होगा और भिक्षुकों एवं पेटुओं का नामोनिशान भी न रह जावेगा, जिससे पुरोहिती कलंकित की जा सके। विशेष कर आपका समाज तो इस कड़वे अनुभव के बाद जब पुरोहिती में प्रवृत्त होगा तो फिर यथार्थ और उज्ज्वल पुरोहिती होगी, न कि कलंक कालिमा कलुषिता। यदि आप शुरू से ही इस बात का ध्यान रखेंगे कि यह वृत्ति कलुषित हो कर भिक्षावृत्ति के विस्तार का कारण न हो जावे और इसकी ताकीद समय-समय पर करते रहेंगे तो सब ठीक ही होगा। जैसे फेफड़ों की लापरवाही के कारण दमा आदि रोग होने पर जब किसी प्रकार आदमी नीरोग हो कर सजग हो जाता है तो फिर फेफड़ों को बिगड़ने नहीं देता। यही बात यहाँ भी लागू होगी। इस पुरोहिती में जो विकार इस समय आ गया है वह भी वर्तमान पुरोहितों के करते दूर नहीं हो सकता। कारण, वे पतित हो चुके हैं। उनकी दशा तब तक निराशापूर्ण ही रहेगी जब तक दूसरे लोग आदर्श पुरोहिती का चमत्कार उनकी आँखों के सामने पेश न करें, जिससे लालच में आ कर वे भी उसके लिए यत्नशील हों। सारांश, उनका भी उद्धार आपके ही भावी पुरोहितों के हाथ है, जिन्हें आपका समाज और सभा आप में से ही तैयार करे और जिनके सामने केवल जाति, धर्म और मानव समाज का उद्धार ही एकमात्र लक्ष्य हो। वैसे ही पुरोहितों से आपका और देश का मुख उज्ज्वल होगा, आपकी ब्राह्मणता की रक्षा होगी। उन्हीं के द्वारा आप इन आक्षेपों का सच्चा उत्तर देने में समर्थ होंगे कि 'आप में ब्राह्मणों के यजन, याजनादि का नितान्त अभाव है' न कि लेखों, प्रस्तावों और व्याख्यानों द्वारा।' क्योंकि आत्मगौरव संपन्नों की ओर से तो 'क्रिया केवलमुत्तरम' 'जो मैं राम तो कुल सहित, कहहि दशानन जावे'। न कि पुरोहिती के वर्तमान दोषों को देख कर उसका बहिष्कार कथमपि उचित है। यह तो ऐसा ही है जैसा कि ऊपर भूसी देख कर धन को फेंक देना और भूखों मरना, या भिखमंगों के भय से रसोई ही न बनाना! दुनिया में कौन-कौन चीज़ें निर्दोष हैं? 'सर्वारम्भा हि दोषेण धमेनाग्निरिवावृता:' (गीता,18/48)। इसलिए दोष से बचने की फिक्र करते हुए अपने स्वाभाविक कर्मों को कभी न छोड़ना चाहिए, चाहे उनमें दोष भी क्यों न प्रतीत होते हों - 'सहज कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्' (गीता 18/48)। अत: इस सिद्धांत का पुरोहिती का-समाज में प्रचार कर के समाज को स्वावलंबी, आत्मगौरव संपन्न और जीवित बनाने का संकल्प कर तदनुसार काम करने में प्रवृत्त हो जाना प्रत्येक समाजहितेच्छु का पवित्र कर्तव्य है। इसमें अब आना-कानी की गुंजाइश है ही नहीं। नहीं तो 'फिर पछितैहसि अन्त अभागी'। इस काम में ईश्वर आपका साथ देगा।
एक बात और रह जाती है जिस पर प्रकाश डालना अत्यावश्यक है। ब्रह्मर्षि वंशविस्तर' तथा 'ब्राह्मण समाज की स्थिति' में और इस पुस्तिका के आरंभ में भी हजारीबाग के चौपारन और इटखोरी थाने के कुछ भूमिहार ब्राह्मणों का बार-बार वर्णन आया है कि वे पुरोहिती पहले से ही करते आए हैं और यह काम अब तक उनमें जारी है। परंतु इस बात का विशेष विवरण नहीं दिया जा सका है। एतदर्थ वहाँ स्वयं जा के हमें इसकी जाँच करनी पड़ी है। उसके फलस्वरूप उनका और उनकी पुरोहिती का संक्षिप्त विवरण देते हैं जो बड़ा मनोरंजक, उपदेशपूर्ण और काम का है।
गया जिले की सीमा से मिला हुआ हजारीबाग का जो सब-डिवीजन चतरा कहलाता है उसी के उत्तरी भाग में दो थाने चौपारन और इटखोरी नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हीं दोनों में पुरोहिती को अब तक बराबर करनेवाले ये भूमिहार ब्राह्मण प्राय: बीस ग्रामों में बसते हैं। जो बादशाही सड़क या ग्रैंड ट्रंक रोड गया से होती हजारीबाग जिले में प्रवेश करती और इसरी, नीमिया घाट होती हुई पारसनाथ पहाड़ के पास से ही कलकत्ता चली जाती है उसी पर चौपारन थाना है और उसी से दक्षिण इटखोरी। ये दोनों ही चय परगने में हैं और इनकी सीमा लेढ़िया नाम का नाला या नदी है जिसके दक्षिण इटखोरी और उत्तर चौपारन का इलाका है। दोनों जगह डाकखाने भी हैं। इटखोरी के पोस्ट मास्टर पं. खेमनारायण पांडे हैं जिनका घर वहीं है और यह भी उन्हीं पुरोहित भूमिहार ब्राह्मणों में एक हैं। इटखोरी में साल वगैरह लकड़ी का जंगल प्रसिद्ध है और दूर-दूर के व्यापारी कटवा के ले जाते हैं। गया और हजारीबाग के बीच जो लारियाँ चला करती है वे प्राय: एक रुपए में गया से चौपारन पहुँचा देती हैं। हजारीबाग से भी प्राय: यही किराया लगता है। परंतु चौपारन जाने के लिए कोडरमा स्टेशन भी ठीक है, जहाँ से चौपारन होती हुई इटखोरी तक लारियाँ जाया करती है। कोडरमा से 11 कोस चौपारन और वहाँ से 4 कोस इटखोरी है। चौपारन से ही एक सड़क इटखोरी, चतरा को चली जाती है। इटखोरी से दक्षिण 11 कोस चतरा है। कोडरमा से दक्षिण 14 मील तक एक छोटी सड़क जा के ग्रैंड ट्रंक रोड में मिलती है जहाँ से 4 कोस पश्चिम चौपारन है। कोडरमा और हजारीबाग रोड इन दोनों स्टेशनों से हजारीबाग शहर 42 मील है और कोडरमा से प्राय: 8-10 कोस पूर्व हजारीबाग रोड स्टेशन सरिया ग्राम में है।
यह तो हुई प्रासंगिक बात। कहते हैं कि गया से पूर्व उसी जिले के फतेहपुर थानांतर्गत पहाड़पुर स्टेशन से प्राय: एक कोस पर जयपुर में किसी गौड़ ब्राह्मण राजा का पुराना गढ़ अब भी धवस्त दशा में है। उसका नाम कोई-कोई जंगरेस बहादुर कहते हैं। उसी गढ़ से मिला हुआ पूर्व और पांडेगढ़ नाम का दूसरा धवस्त गढ़ है जो राजा के आचार्य और पुरोहित ब्राह्मणों का है। किंवदंती है कि चौपारन, इटखोरी के इन पुरोहित भूमिहार ब्राह्मणों के मूल पुरुष ही उस पांडे गढ़ के मालिक एवं राजा के सर्वमान्य थे। कहा जाता है कि पश्चिम बक्सर की ओर से कौशिक गोत्र दो ब्राह्मण जगन्नाथ की यात्रा करने को जयपुर आए और अपने विद्या एवं तप के बल से राजा के परम मान्य हो गए। इनके नाम कोई सागर पांडे और वसंत पांडे या राय कहते हैं और कोई कुछ और बताते हैं। वहाँ से पुरी की यात्रा के बाद एक भाई तो घर गए, पर दूसरे सागर पांडे जयपुर ही रह गए। फिर काल पा के राजा के वंश का लोप हो गया। उसके प्रिय पात्र मन्त्री और वीर दो बन्दौत क्षत्रिय जागो खाँ तथा ताज खाँ थे। राजा ने उन्हें अपना राज्य इसी शर्त पर सौंप दिया कि हमारे आचार्य एवं पुरोहित सागर पांडे के ही वंशजों को आचार्य पुरोहित बनाना होगा और जो तुम्हारे उत्तराधिकारी होंगे वह भी यही करेंगे। इसके बाद वे दोनो बन्दौत क्षत्रिय हजारीबाग के ताजपुर और जागोडीह में बसे और उनके ही नामों से वे दोनों नाम पड़े। इनने या इनके वंशधरों ने पीछे से रामगढ़ के खैरवारों से विवाह सम्बन्ध कर लिया। इस समय जागोडीह पद्मा के ही अधीन है।
सागर पांडे के वंशज जयपुर के पांडे गढ़ से आ के चौपारन से एक मील पूर्व बारा में पहले पहल बसे और वहीं से धीरे-धीरे (1) बारा, (2) कुबरी, (3) दैहर, (4) इंगुनियाँ, (5) पूड़ो, (6) बनौ, (7) फुलवरिया, (8) ककरौला, (9) ठुट्ठी, (10) बड़ागाँव, (11) गंभरिया, (12) बेलखोरी, (13) नरियाही, (14) सदाफर, (15) इटखोरी, (16) सौनियाँ, (17) बलिया, (18) तिलरा, (19) पण्डरिया आदि गाँवों में जा बसे। इनमें प्रथम के नौ गाँव चौपारन में और शेष इटखोरी में हैं। इन सभी गाँवों के प्रधान तथा मूल निवासी कौशिक गोत्र ब्राह्मण ही हैं, जिनका सम्बन्ध गया जिले के नवादा सब-डिवीजन में विशेष रूप से पाया जाता है। परंतु इनके सिवाय कहीं-कहीं इनके नातेदार भी धीरे-धीरे उत्तराधिकारी हो के आ बसे हैं, जो हरितकिया, , दुमटिकार, गौतम, सोनभदरिया, किनवार, मौआर, दिघवैत कहाते हैं। ये सभी बनौ ग्राम में हैं, सिर्फ दिघवैत पंडरिया में बारा में हैं। यद्यपि पुरोहिती प्रधानतया कौशिक गोत्रियों के ही हाथ में है, फिर भी कहीं-कहीं किनवार वगैरह भी पुरोहित हैं। जैसे बेलखोरी के पं. हरिलाल पांडे, खीरू पांडे। इनके प्रधान यजमान बन्दौत हैं। मगर खैरवार भी कहीं-कहीं हैं और बढ़ई तथा कोइरी भी। माहुरी वैश्य यजमान बताए जाते हैं। परंतु बंदौतों के बाद स्थान कायस्थों का है जो इनके यजमान विशेष रूप से हैं। यद्यपि इटखोरी से मिले हुए परौका ग्राम के मुंशी जगन्नाथ सहाय बी.ए. वगैरह इनके यजमान हैं तथा और भी बहुतेरे गाँवों के कायस्थ हैं जो चौपारन तथा इटखोरी में ही हैं। लेकिन हजारीबाग से एक कोस दक्षिण असधिर के कायस्थ और गया के फतेहपुर थाना परगना महेर के कवला के भी कायस्थ यजमान हैं। वहाँ के मुंशी टीकमलाल गया में मुखतार हैं। ठुट्ठी के मुंशी देवकी प्रसाद लाल वगैरह भी यजमान हैं। बंदौतों के तो ग्राम पचासों-सैकड़ों हैं। मगर फुलांग के बाबू गौरी सिंह अच्छे जमींदार हैं और वे बारा के पं. लालधारी पांडे, पं. गोवर्धन पांडे, पं. मखौली पांडे वगैरह के यजमान हैं। हरपुर, कसियाँडीह, करमा, एकतारा, पननी, ढोंढी, मेन्हैनियाँ और हजारीबाग थाने के धावैया के बन्दौत तथा बोंगा, सिंहपुर, चपटी, केन्दुवा, महुदी, तेतरिया, रानिक, कोल्हुवा, अमझर, मोंगला, बानाजान, गणेशपुर, देवसर, कुम्हारी, जोकट, परसावा, कोइली, नरचाही, थवई, पकरिया, बेला, चोरकारी, हड़ाही, खरहुआँ, हारपुर, पथरियाँ, सिरमा, केदली, पुरैनी, करनी, घूमना, तेंदर आदि गाँव बन्दौतों के प्रसिद्ध हैं। महथा तेजो सिंह, महज्जर सिंह, रूप लाल सिंह, नूनू सिंह, जीवलाल सिंह, ज्ञान सिंह वगैरह अच्छे बन्दौत हैं। कुबरी के भीखन पांडे के यजमान हजारीबाग से पच्छिम एक मील मण्डई घुघुरिया के मुंशी ठाकुर प्रसाद वगैरह कायस्थ, बन्दौत; घुघुरिया, सेलहरा के कोइरी, सिरवा के बढ़ई और पंडरिया वगैरह के खैरवार भी हैं।
इन ब्राह्मणों को जागोडीह, रामपुर और पद्मा के राजाओं की ओर से पाँच गाँव ब्रह्मोत्तर में मिले हैं जिनकी मालगुजारी नहीं लगती। ये पाँच गाँव हैं बारा, बनो, पूड़ो, फुलवरिया और इंगुनियाँ। कहते हैं कि इयुनियाँवालों के पूर्वज रामपुर रसोइयादारी करते थे। अत: उस गाँव के दानपत्र में 'रसोइयाँ ब्राह्मण' और शेष चार गाँव के दानपत्र में 'पुरोहित ब्राह्मण' कर के लिखा गया है। अब भी इनके यजमान बन्दौत वगैरह जब पत्र लिखते हैं तो 'पुरोहित जी या पांडे जी प्रणाम' यही लिखते हैं। हालाँकि ये लोग अब अपने को कहीं-कहीं पांडे की जगह 'सिंह' कहने लगे हैं, यद्यपि पुराने कागजों में 'पांडे' ही लिखा है। बन्दौत लोग इनके घर जाने पर इनकी हाँड़ी का भात बलात माँग के खाया करते थे और अब भी करते हैं, हालाँकि अब कहीं-कहीं श्रोत्रियों और शाकद्वीपियों के बहकाने से इनकार करने लगे हैं। इसी तरह इस इलाके के शाकद्वीपी, श्रोत्रिय और जोशी लोग इनके घरों की कच्ची रोटी बराबर खाते चले आते हैं, यद्यपि अब पक्की रोटी खाने का प्रश्न वे लोग भी पैदा करना चाहते हैं।
गया जिले के भूमिहार ब्राह्मणों के साथ ही इन लोगों का विवाहादि होने के कारण उन्हीं के दबाव से धीरे-धीरे पांडे की जगह सिंह कहने और पुरोहिती छोड़ने की प्रवृत्ति इनमें भी हो रही थी। मगर अब रुक गई है। इनमें संस्कृत तथा अन्य विद्या का वैसा ही अभाव है जैसा कि अन्य पुरोहितों में। फिर भी ये लोग अपने यजमानों का काम स्वयं कराते हैं। सिर्फ दो-चार लोगों की ओर से (गुरु) बारा के मीना गुरु शाकद्वीपी और एकाध श्रोत्रिय भी गुमाश्ते का काम करते हैं और पुरोहिती करवाने के नाते चौथाई दक्षिणा भी लेते हैं। दो-एक ने अपने यजमान इन्हीं मीना गुरु और रनजीता के गिरधारी पांडे श्रोत्रिय को दान कर दिया है। परंतु अब भविष्य में कोई ऐसा न करेगा। अब ये तैयार हैं। पुरोहिती के आंदोलन ने उन्हें भी उत्साहित और दृढ़ कर दिया। जहाँ पहले वे लोग इसमें अपमान समझ गैरों के सामने छिपाना चाहते थे, तहाँ अब प्रतिष्ठा समझने लगे हैं। जिन भूमिहार ब्राह्मणों के अधिक यजमान हैं उनमें इंगुनियाँ के पं. सीबी पांडे, बनौ के पं. चेतलाल पांडे, बलिया के पं. बैजू पांडे, इटखोरी के पं. निरंजन पांडे, पं. भूहिल पांडे, कुबरी के पं. भीखन पांडे, बड़गाँव के पं. झनकू-पांडे, वगैरह गंभरिया के पं. लट्टू पांडे, बेलखोरी के पं. भरथू पांडे, तिलरा के पं. निरपू पांडे और इटखोरी के पं खेमनारायण पांडे वगैरह हैं। इनमें किसी-किसी के 100 से ज्यादा और अधिकांश के 50-60 घर तक यजमान हैं। कुछ के 25-30 घर भी हैं। ये सभी स्वयं पुरोहिती सिर्फ सीबी पांडे और झनकू के दायादा जोबा पांडे के गुमाश्ता कराते हैं। सीबी के मीना और जोबा के कोई श्रोत्रिय हैं। भीखन पांडे बड़े उत्साही और तत्पर हैं।
ये लोग यद्यपि साधारण और गरीब हैं, जैसे कि प्राय: अन्य पुरोहित भी हुआ करते हैं, फिर भी खाने के लिए दुखिया नहीं हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि साधारण और गरीब होते हुए भी शायद ही कोई अविवाहित हो, जहाँ कि मगध, तिरहुत और युक्त प्रांत में अविवाहित भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या 30 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक पहुँच गई है। पुरोहिती के विरोधियों को इसका भी ध्यान रहना चाहिए। फुलवरिया के वृद्ध पं. त्रिलोकी पांडे साधारणतया संपन्न और इन सबों के नेता हैं। वे बड़े उत्साही हैं। इसी प्रकार (महुदो) बारा के पं रामधन पांडे भी बड़े तत्पर हैं। बारा ग्राम ग्रैंड ट्रंक रोड पर चौपारन से दो मील पूर्व है।
अन्त में इस पुरोहिती प्रकरण को पूरा करने से पूर्व हमें एक बात और कहनी है और वह है भी नितान्त आवश्यक। अभी तक इसका आंदोलन अपने ही समाज तक प्राय: सीमाबद्ध है। जो नए पुरोहित हुए और हो रहे हैं वह अपने ही समाज की पुरोहिती करते हैं और कहीं कभी शायद ही ऐसा मौका आता है कि क्षत्रियादि की पुरोहिती करें। इसकी कोई ऐसी आवश्यकता भी नहीं है कि खामख्वाह इस पुरोहिती को एकमात्र धन और पूड़ी का साधन बना के वर्तमान पुरोहितों की तरह नए पुरोहित भी उसी के पीछे परेशान रहें। नए पुरोहितों में अनेकानेक की यह धारणा भी है कि जब तक अन्य समाज की पुरोहिती न की जावेगी और जब तक क्षत्रियादि भूमिहारों को कान्यकुब्जादि को तरह न पूजेंगे और मानेंगे तब तक समाज का निस्तार न होगा। यद्यपि इस बात की कोई मनाही नहीं है कि क्षत्रियादि की पुरोहिती न की जावे, प्रत्युत समयानुसार और आवश्यकतानुसार वह की ही जाती है जैसा कि हजारीबागवाले करते ही हैं और जैसा कि 'पुरोहिती पर काशी राजकुमार' में महाराज कुमार काशी का यह वाक्य है कि 'चाहे स्वजाति की करें, चाहे अन्य जाति की। यह ब्राह्मण का कर्म है। इसमें कोई क्षति नहीं।' फिर भी इसका लक्ष्य सदा यही होना चाहिए कि समाज में स्वाभिमान आवे। क्योंकि जब तक समाज में ब्राह्मणत्व का सच्चा अभिमान न होगा तब तक किसी के भी द्वारा पूजे जाने से निस्तार नहीं हो सकता। जब भूमिहारों में स्वाभिमान की मात्रा इतनी हो जावेगी कि वे किसी के भी सामने न झुकेंगे और जब कान्यकुब्ज मैथिलादि विवश हो के इन्हें सिर नवावेंगे एवं पूजेंगे तभी सच्चा निस्तार होगा इस पुरोहिती आंदोलन का यही सच्चा रहस्य है और इसी के लिए सदा प्रयत्न होना चाहिए।
प्राणनागांकचंद्राख्ये वैक्रमेऽब्देऽसिते दले।
चतुर्दश्यां बुधो पौषे ग्रन्थोऽसौ पूर्णतामगात्॥1॥
रचित: सहजानन्दसरस्वत्याख्यदंडिना।
अमुना पार्वतीजानि: प्रीयतां पृथिवीपति:॥2॥
इति वाराणसेयदशाश्वमेधाघट्टस्थमठभूतपूर्वालङ्कारश्रीमद्विश्वरूपसरस्वतीपूज्यपादविनेयपरम्पराप्रविष्ट
श्रीमत्स्वामिवर्याद्वैतानन्दसरस्वतीपूज्यचरणाम्बुजभृयमाणस्वामि-सहजानन्दसरस्वतीविरचियोऽयं ग्रन्थ:।