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बाल साहित्य

हमें नहीं जाना

संजीव ठाकुर


बिन्नी और टीनू आज बहुत खुश हैं। स्कूल में छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं और अब बस दो दिन बाद ही दादाजी के घर जाना है। 'कितना मजा आएगा न वहाँ?' दोनों बातें कर रहे हैं।

आखिर दो दिन बाद वे ट्रेन पर चढ़ ही गए। चिप्स, कुरकुरे, कोल्ड ड्रिंक्स खाते-पीते वे दादाजी के घर पहुँच गए। जब दादाजी ने दोनों को नहा लेने को कहा तो बिन्नी बोल पड़ी - "दादाजी! आप हमें नदी में नहाने ले चलिए? ...आपने फोन पर कहा था न?"

दादाजी ने समझाया - "आज नहीं बेटा! कल हम लोग चलेंगे। आज घर पर ही नहा लो - हैंडपंप से!"

दादाजी की बात मानकर दोनों हैंडपंप पर चले गए। बिन्नी को हैंडपंप चलाने में बहुत मजा आ रहा था। टीनू भी कोशिश करता मगर उससे बहुत थोड़ा पानी निकल पाता। वह खीझ जाता।

दादाजी का घर तो जंगल में था। टीनू को डर लगने लगा। दादाजी ने समझाया - "बेटा! यह जंगल नहीं है। यह तो बागीचा है। देखो, यहाँ आम के पेड़ हैं, कटहल के, अमरूद के पेड़ हैं।"

"यहाँ जानवर भी तो होते होंगे दादाजी?" टीनू ने डरते हुए पूछा।

"जानवर तो बस गाय और भैंसें हैं। बाघ, शेर, हाथी यहाँ नहीं रह सकते। वे तो सचमुच के जंगल में रहते हैं।" दादाजी ने समझाया।

दादाजी की बात का थोड़ा असर टीनू पर हुआ। जब दादाजी उसे बागीचा घुमाने ले गए तब उसका डर पूरा गायब हो गया। अब वह बागीचे के बीचोंबीच बने मचान पर बैठ जाता। कभी बिन्नी के साथ आम की किसी झुकी हुई डाली पर बैठकर झूला झूलता। आम को तोड़ने की कोशिश करता। पके हुए आम को गिरता देखता तो दौड़कर उसे उठा लाता। दादाजी ने दोनों बच्चों को चूसकर आम खाना सिखा दिया। दोनों को आम चूसने में बहुत मजा आया।

अगले दिन वे दादाजी, पापा और चाचा के साथ नदी में नहाने को गए। दादाजी ने बताया - "यह गंगा नदी है बेटा!"

किनारे में कम ही पानी था। दोनों पानी में छपाछप करते रहे। दादाजी ने पूछा - "तुम्हारे स्कूल में भी तो स्वीमिंग पूल है?"

"हाँ, दादाजी, मगर यह तो नदी है। कितना पानी है इसमें?" बिन्नी बोल पड़ी थी।

इसी तरह मस्ती करते बच्चों के दिन बीत रहे थे। एक दिन वे ताँगे पर बैठकर बाजार भी हो आए थे। कुरकुरे बिकते देख मचल ही पड़े थे। चाचाजी ने पापा की तरह भाषण पिलाए बिना कोल्ड ड्रिंक्स भी पिला दिया था।

एक दिन चाचाजी दोनों बच्चों को पास की छोटी पहाड़ी पर भी ले गए थे। 'बाप रे! कितना ऊँचा था पहाड़? ...रास्ता भी कितना कठिन था?' लेकिन धीरे-धीरे दोनों पहाड़ी पर चढ़ ही गए थे। ऊपर एक मंदिर भी था। मंदिर का घंटा बजाने में दोनों को कितना मजा आया था? और पहाड़ी पर से देखने पर उनका अपना बागीचा और घर कितना छोटा नजर आया था? ...थोड़ी दूर पर बह रही नदी कितनी सुंदर लगी थी?

लौटते हुए अँधेरा हो गया था। दोनों को डर भी लग रहा था। मगर चाचाजी दोनों को सँभालकर नीचे ले आए थे।

पापा उनके पहाड़ी पर चढ़ने के बारे में जानकर कितने नाराज हुए थे?

पापा तो दिन में भी उनके मचान पर बैठने के खिलाफ थे। कहते थे, "लू लग जाएगी।"

मगर दादाजी उन्हें भेज देते थे। दादाजी के सामने पापा की बोलती क्यों बंद हो जाती थी?

आखिर वह दिन भी आ गया जब बिन्नी और टीनू को मम्मी-पापा के साथ अपने शहर लौट जाना था। दोनों बहुत उदास थे। बात-बात पर रो पड़ते थे। यहाँ दादी माँ बिना डाँटे कितनी कहानियाँ सुनाया करती थीं।

बिन्नी और टीनू यहीं रह जाना चाहते थे। उन्होंने दादाजी से पूछ ही लिया - "दादाजी! हम यहीं रह जाएँ?"

दादाजी उन्हें समझाने लगे - "नहीं बेटे! वहाँ आप लोग स्कूल जाते हो। ठीक से पढ़ाई करते हो। पढ़ाई बहुत जरूरी होती है न? ...फिर से छुट्टियों में आ जाना।"

दादाजी के पास भी अपनी दाल गलती नहीं देख दोनों ने तय किया - "जब सब लोग स्टेशन जाने लगेंगे न, हम लोग मचान के ऊपर छिप जाएँगे।"

और दोनों छिप ही गए। यह तो उस भैंस ने गुड़गोबर कर दिया। पता नहीं क्यों - चीखती-चिल्लाती दौड़ी चली आ रही थी? ...वे डर गए और चिल्लाने लगे। चाचाजी दौड़कर उनके पास पहुँच गए और मचान से उतारकर घर ले आए। नहीं तो वे स्टेशन हरगिज नहीं जाते। वहीं छुपकर बैठे रहते!


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