कविता कोई आचार-संहिता नहीं है, जिसे एक अवांछित समाज में अभियोग-पत्र की तरह चला दिया जाय या जिसे यह पेशेवर अधिकार मिल गया हो कि जीवन और यथार्थ के आरोपित अंतरालों की, सांस्कृतिक भरपाई करने की क्षमता उसे मिल गयी हो। वह मात्र अपने अर्जित देश-काल का लोक-विवेक है जो जितना अकस्मात है उतना ही पूर्व-निश्चित भी। विकास की तमाम आत्मविश्वस्त जिजीविषाओं और सौन्दर्य के निरंकुश संकल्पों के सत्तासीन दौर में, कविता पर भरोसा प्रतिरोध की उस सहचर भाषा पर भरोसा है जो हताश और सर्द पड़ती संवेदनाओं और जीवन-मूल्यों की बुनियादी संभावना का निर्माण करती है।
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आज़ादी के बाद की हिन्दी कविता अतीतधर्मी मनोवेग से एक पैराडाइम शिफ्ट है। प्रतिक्रियाओं के द्वंद्वात्मक संज्ञान और स्वायत्तता के द्विविधाग्रस्त समाधानों के बीच, अपने जातीय सवालों का सामना करती। स्मृति और स्वप्न के अविकल अंतर्द्वंद्व, परम्पराओं के अस्थिर और बेसुध हस्तांतरण, तात्कालिकता और आधुनिकता-बोध की तिलिस्मी अनुभूति के विवादित मुहावरे एवं व्यक्ति और समय के संघर्षशील तथा प्रश्नवाचक अंतर्संबंध - सब कुछ स्थापित जीवन-सन्दर्भों और सृजनात्मक वैचारिक विश्वासों को नए सिरे से झिंझोड़ रहा था। इस बात में ज़रा भी संदेह नहीं कि विस्थापित आयामों और निर्वासित व्यक्तित्वों के बीच सामूहिक अकेलेपन का अवकाश, वैचारिक अंतर्विरोधों की फांक को और गहराता है। वर्तमान को जीवन-सत्य का अभीष्ट बना डालने का तर्क इसी बीच पनपा और उस वक़्त फ़ैली तमाम तथाकथित तत्वबोधी टीकाओं ने, वर्तमान को संघर्ष के सामयिक प्रतिमानों से अलग, एक भावुक और औपचारिक नियतिबोध से जोड़ने का प्रयास शुरू कर दिया। कविता एक निगेटिव नैरेशन से गुज़र रही थी। घड़ी-घड़ी गिरेबान पकड़ तमाचे लगाती आस्थाएं और भीगी लकड़ियों सी सुलगती आशाएं, जनतंत्र की प्रतिज्ञा का मखौल उड़ा रही थीं। सत्ताओं की दुरभिसंधियों के फलते-फूलते उद्योग, वर्चस्ववादी शक्तियों की भूमिगत सदाशयताएँ, राजनीति के विस्तारवादी स्थापत्य का आत्ममुग्ध नैरेटिव और उसके फलस्वरूप पैदा सांस्कृतिक बहरूपियापन एवं सामाजिक निश्चेष्टता - इन सभी का भारतीयता की जीवन-संपृक्त स्थितियों पर, प्रतिकारात्मक प्रभाव पड़ रहा था। यही वह समय है जब 'डाउट' और डिजास्टर के संभावित वैज्ञानिकवाद ने, कविता की निरुद्देश्यता को समाप्त करने का प्रयास किया। 70 का दशक हिन्दी कविता में एकायामी असंतोष और दिशाहीन सांस्कृतिक मनोदशाओं को रेखांकित करने का काल रहा है। स्वदेशी के उपनिवेशवादी मुलम्मे, सत्ता के बेदखल और दरकिनार शिल्प एवं उनकी एकीकृत निरंकुशता को हिन्दी कविता, अपनी वर्गीय-अस्मिता में चिह्नित करने लग गयी थी। एक दंडाधिकारी राजनीतिक संरचना के सापेक्ष शरणार्थी होते समाज का दर्द, भय और घुटन इन कविताओं का मौलिक स्वर बनने लगा।
(2)
उल्लेखनीय बात यह है कि यहाँ से कविता में, व्यवस्था की अतिरंजित शुचिता और आभासी पवित्रता के वास्तविक चेहरे, सरोकार, उदासीनता, दिखावे और रोमानी प्रतिकृतियों की शारीरिक जांच-पड़ताल का प्रारम्भ होता है। यही कारण है कि यह दौर कविता के जन-आंदोलनों का भी है। जहां पहली बार, मौजूदा सत्ता, बिना किसी याचक मुद्रा अथवा विनत भाव-दशा के, समूचे लोक-आवेग के साथ टार्गेट होती है। इन कविताओं ने एक कल्पित शून्य और दकियानूसी अलौकिकता से घिरे समकाल की अवधारणा को, संवादधर्मी यथार्थ और लोक-संवेदना के केन्द्रीय तनाव के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। इस दौर में लिखी अधिकांश कविताओं का स्वर इसीलिए प्रत्याक्रमण का स्वर है क्योंकि यह कविता, विस्मित नहीं खबरदार करने की कविता है और सत्तागत उत्सवधर्मी रेटौरिक के विरुद्ध, खोखली और पराजित की जा चुकी बेनाम भारतीयता की गवाही भी है। खामोश शहंशाही का, हथियारबंद मुखर जन-चेतना द्वारा प्रतिकार इस दौर में लिखी गई कविताओं का प्रतिनिधि स्वर रहा है
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श्रीकांत की हिन्दी कविता में उपस्थिति और विख्याति साधारणतः एक एंग्री पोएट के रूप में है। सामाजिक भयावहता की अन्तर्निहित ऐंद्रिकता का एक्सपोज़र और उसके लिए उठाये गये भाषा के नग्न अस्त्र, उनकी कविता की प्रौढ़ और प्रबुद्ध कंडीशनिंग के गवाह हैं। भाषा में सभ्यता के परम्परागत प्रजातंत्र को खारिज करती श्रीकांत की कविता, एक रेडिकल आवेग को हिन्दी कविता का मूल स्वर बनाने में कितनी समर्थ रही, इसमें मतान्तर हो सकता है पर निश्चय ही वह इतिहास से अनुपस्थित उस एकान्तिक बुदबुदाहट की वह चौकन्नी और सचेष्ट गुर्राहट है जो अपने दौर के अप्रत्याशित और अवसाद से भरी सपाटबयानी में, बौखलाए हुए अनुभवों और त्रासद बौद्धिकता की भागीदारी बनाती है।
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'मगध' ऐसी ही गुमनाम और धुंधलके में डूबे जन-मानस के दैनंदिन आत्मसंघर्ष का समाजशास्त्र है - बिना किसी चारित्रिक फिकरेबाजी, लुभावने बड़बोलेपन और लाचार अपराध-बोध के। ''मगध'' की कविताएँ एक ईमानदार क्रोध को दुस्साहसिक कटाक्ष में तब्दील करती हैं। यह क्रोध सामाजिक-राजनीतिक अंतर्वस्तु के परिचित और स्वभावजन्य अनुभव-बोध से पैदा हैं। चूंकि 'मगध' भारतीय राजनीतिक दुर्घटना के महावृत्तान्त को इतिहास और सभ्यता के आपसी आलोचनात्मक आग्रहों में देखता है इसलिए वह अनुभवों का मात्र निजी या वर्गीय बयान भर नहीं है बल्कि वहाँ दृश्यों के अनायास संयोजन में, जीवन-मर्म की उपेक्षा और प्रतिरोध के संत्रस्त स्वरों का एकाकीपन भी छलकता है। 'मगध' का अनुभव-बोध उस काल की अन्य कविताओं के अनुभव-बोध से अलग इस रूप में है कि इतिहास में मौजूद लगभग अप्रासंगिक यथार्थ-बोध और विस्मृत विसंगतियों से बिंधे चरित्रगत धूसरपन को वह समकालीन युग-बोध में एक प्रतिनिधि विमर्श के तौर पर सामने लाता है। इस मायने में 'मगध' हिन्दी में एक्टिविस्ट कविता के बतौर, प्रचलित सन्दर्भों में सत्ताधर्मी शोषण के सरलीकृत रूपक को, उसके पेचीदा मैकेनिज्म के साथ तो उजागर करता ही है, साथ ही जन-चेतना के अंतर्जगत में उबलती, एक बेलौस असंतुष्टि को खंगालने का काम भी करता है। यही वजह है कि कि 'मगध' की कविताएँ न तो किसी स्वप्निल रोमैंटिक भविष्य की आड़ में, अतिरंजित जूझ की नारेबाजी हैं और न ही किसी असंयत सामाजिक की नियति-संचालित हड़बड़ाहट। वह एक संदेहास्पद और अवमूल्यित तंत्र में तब्दील हो चुकी राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था पर, अपने विस्मृत होते जाते मानवीय अस्तित्व और पहचान के लिए अपनायी गयी एक हठमुद्रा है। इस मुद्रा में आक्रोश और चिढ़ की नाटकीय टकराहटों से अलग, गुस्से और भय की मिलीजुली उपस्थितियाँ हैं (कभी-कभी / मगध को न जाने क्या हो जाता है / सब कुछ सामान्य होने के बावजूद / न कोई बोलता है / न मुंह खोलता है)। इस उपस्थिति के सन्दर्भ, मनुष्य, समाज और इतिहास की विवादास्पद पड़ चुकी पारस्परिकताओं में गंभीर आशयों से जुड़ते हैं और रचना की भीतरी-बाहरी प्रकृतियों के साथ-साथ, जीवन में कमज़ोर और हतोत्साहित होती स्वायत्तता की, निराडम्बर चेतना के साथ खड़े होते हैं। यथार्थ के उपलब्ध ढाँचे, अभिव्यक्ति के दफ्तरी व्याकरण और सृजन की मध्यवर्गीय संकुचित सीमाओं से परे 'मगध' की कविताएँ, सामाजिक संघर्ष के ध्रुवीकरण का, बारीक मगर कारगर मानचित्र गढ़ती हैं। दीगर बात यहाँ यह है कि ये मानचित्र, किसी भाषा-संस्कृति को न तो किसी असंयमित आयुध की तरह इस्तेमाल करते हैं, न ही उत्तेजना के इन्द्रजाली उन्माद की तरह। असल में कविताओं का समूचा परिप्रेक्ष्य, सत्ता और समाज के अटपटे और अपरिचित होते जाते रिश्ते की, तमाम नैसर्गिक संगतियों को व्यक्त करता है और साथ ही सामूहिक आकांक्षाओं की सामुदायिक संस्कृति को, समवेत देखने की आँख पैदा करता है।
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'मगध' का प्रारम्भ उन सभी इशारों के साथ होता है, जो उसके मोटिफ और इंटेंशन को, सामाजिक मन और जन-मानस के नियत उत्पीड़न के साथ आबद्ध करते हैं और यहीं से संस्कृति की वर्चस्ववादी त्रासदियों की उस दमनकारी चेतना का खाका तैयार होने लगता है जहां मूल्यों की सहज और साहसिक व्यवस्थाएं, यातनाओं के आदिम उपनिवेश में तब्दील होती चली जा रही हैं। (बंधुओ / यह वह मगध नहीं,/ तुमने जिसे पढ़ा है / किताबों में, / यह वह मगध है / जिसे तुम / मेरी तरह गँवा / चुके हो) संग्रह की यह पहली कविता समूचे संग्रह के बीज-वक्तव्य की तरह है। अन्य सभी कविताएँ इसी अतृप्ति और वंचित हो जाने के अमूर्त संवेगों तथा संभावनाओं के अनियंत्रित मर्म को टटोलने और ठिठक कर देखने का प्रयास हैं - एक धुंधुआए भाग्नावशेषी लैंडस्केप की तरह। यह भड़कीले सवालों और रोमांच पैदा कर देने वाले नायकत्व की कविता नहीं है बल्कि उस सत्तारूढ़ चालबाज़ संस्कृति की फैंटेसी है जो चेतना और तर्क को एक आत्मवंचित और आत्ममुग्ध संस्कृति का पर्याय बना देने पर उतारू है। 'मगध' में राजनीति और सत्ताओं के अंतर्गठन सिर्फ व्यंजक ही नहीं हैं वरन अभिव्यक्ति के स्तर पर मानवीय प्रतिरोध के बरक्स एक सामंती अन्तःचेतना के धोखेबाज़ अवचेतन को भी सामने रख रहे होते हैं ( बरसों बाद पता चला / जो / साथ थी, / छाया नहीं थी / सभा / उठ चुकी / मंडलियाँ / कूच कर चुकी हैं / अब भी जो साथ है / छाया नहीं हो सकती) एक आक्रान्त राजनीतिकता हमेशा एक संशयधर्मी सार्वजनिकता को ही जन्म देती है। 'मगध' आस्वाद और आत्मीयता के किसी भी व्यंग्य का इस्तेमाल, मात्र कुछ अपरीक्षित व्यवस्थाओं की परिभाषाओं की नैतिक जड़ों को रोपने में नहीं करता बल्कि उसका मंतव्य, मनुष्य के खिलाफ तैयार किये जा रहे, एक आपराधिक संगठन के विस्तृत भूखंड का ब्लू-प्रिंट तैयार करना है। राजनीतिक सभ्यताओं की बहुरूपी बिरादरी का एक स्याह कोलाज तैयार करती कविता। इसलिए यह प्रश्न, किसी संदिग्ध मानस की अंदरूनी अभावग्रस्तता की उठा-पटक भर ही नहीं है बल्कि अपने रचनात्मक अधूरेपन के सापेक्ष, एक आंतरिक अकुलाहट की वैचारिक उदग्रता भी है।
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मगध किधर है / मगध से / आया हूँ / मगध / मुझे जाना है
एक जड़ और प्रतिकूल यथास्थिति के आत्ममुग्ध विचार, समझदारी के सामान्य से दिखते निर्णयों को सरलीकृत कर छूमंतर कर देते हैं और संरचनाओं के स्पष्ट और अर्जित प्रतिमान, दुष्चक्र से भरी शंकाओं और सुविधाजीवी संतापों में स्थानांतरित होने लगते हैं। इतिहास की किसी भी संगठित सदाशयता का प्रतितर्क, समय और भूगोल के दीर्घकालिक विश्वासों और उनके आपसी सामंजस्य के बुनियादी तेवरों में निश्चित होता है। 'मगध', इतिहास और परम्परा के इसी रैखिक मिश्रण का प्रयोग, वर्तमान के एक 'परिकल्पनात्मक यथार्थ' को बुनने में करता है। यह यथार्थ, समाज के आधारभूत आचरण के प्रति-उत्पाद की तरह हासिल होने वाला संकेत है जो कि प्रभुत्व के पूंजीवादी विन्यास और राजनीतिक शक्तियों के सामंतधर्मी अवबोध की अस्मिता का क्रिटीक तैयार करता है। 'मगध' ऐसे भौतिक संबंधों की ज़िम्मेदार लालसा पर कटाक्ष भी है और नकार भी (कपिलवस्तु में वृद्ध नहीं हैं / सिर्फ / वृद्ध होने का भय है / कपिलवस्तु में कोई वृद्ध न हो / युवा होने का / इतना ही आशय है। ) राष्ट्रीय यथार्थ और उसके जीवन में अंकित आतंक के नक्शे किस प्रकार तक्षशिला, पाटलिपुत्र, कोसाम्बी और कपिलवस्तु के वृहत्तर सभ्यता-सूत्रों को एक औचक स्वप्नहीनता और गर्व की यूटोपिया में बदल देते हैं। एक ऐसे काल-बोध में जहां दमन और यंत्रणा की प्रायोजित और नियोजित परम्पराएं, समाज की जैविक संसक्ति को न सिर्फ भरमाती हैं बल्कि लोकचेतना के सहायक जीवनानुभवों के, विकासधर्मी तर्क को भी विश्रृंखलित करती हैं। यही संज्ञाओं के व्यक्तित्वहीन होने का समय भी होता है।
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सत्ताकेंद्रित संसारों की परिक्रमा लगाने वाली आराधना शक्तियां, यथार्थ को एक बेपरवाह उत्कंठा और सामाजिक मूल्यों को, निजी साज-सज्जा में रूपांतरित करने का काम करती हैं। ऐसी आत्मकेंद्रित और सर्वग्रासी राजनीतिक अभीप्साओं के विभिन्न अप्रकट पाठ, 'मगध' अपनी समग्र प्रिमिटिव हठधर्मिता में खोलता है। श्रीकांत की कविता का बुनियादी टोन 'लाउड' है। वे अपने वक़्त के 'बोल्ड' कवि हैं। पर 'मगध' को उन्होंने, एक अभिशप्त वर्तमान और निर्जीव इतिहास के मुहाने पर खडी मंद्र प्रत्याशा के रूप में रचा है जो कातर तो है पर सुर में है। यह आवाज़ निराशा के अलिखित और अराजक असलियत पर सिर्फ सर धुन कर रोती ही नहीं है, हताश और विफल सत्ताओं के सामने चुनौती और मुठभेड़ की मुद्रा में चिल्लाती भी है। किसी भी सरलीकृत हीरोइक्स के अकड़े और ऐंठे हुए औदात्य से दूर श्रीकांत का 'मगध', जन-बोध को विवेक के भावनात्मक मनोद्वंद्व और बोलचाल की सांसारिक जीवेषणा के साथ, अपने पाँव पर खड़ा करता है (चाहता तो बच सकता था / मगर कैसे बच सकता था / जो बचेगा / कैसे रचेगा / न यह शहादत थी / न यह उत्सर्ग था / न यह आत्मपीड़न था / न यह सज़ा थी / तब / क्या था यह / किसी के मत्थे मढ़ सकता था / मगर कैसे मढ़ सकता था / जो मढ़ेगा / कैसे गढ़ेगा) आत्मविश्वास की जीवन्तता और आत्मसजगता का अभय - ये दोनों बातें किसी तमाशबीन के हाथों की सफाई नहीं है जो सनसनाहट में जन्म लेकर, अपनी ही चौंध की आहुति चढ़ जाती है। रचना का स्वत्व, जीवन-विवेक से गहरे अर्थों में बिंधा रहता है। इसीलिए समकालिकता की पड़ताल न तो आधुनिकता के किसी गर्म-ठंडे टुकड़े की पैमाइश है और न ही अनुभव के किसी रोजनामची आवेग का हलफिया बयान। समकाल, असल में समय के ऐन्द्रिक अमूर्तन को, जीवन के रागात्मक संवेदन में प्रवृत्त करता है। 'जो बचेगा कैसे रचेगा', यह पंक्ति मनोदशाओं की व्यक्तिगत अंतरंगता में जितनी त्रासद है, एक सामूहिक अनुभूति और विचार के सम्मुख वह उतने ही अनूठेपन के साथ प्रतीकधर्मी भी है।
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'मगध' अपने समकाल को इतिहास की विक्षुब्ध आकांक्षाओं के बीच जितना उपस्थित करता है, उतना ही संस्कृतियों के बीच रचे-बसे संघर्ष के, निरंकुश ध्रुवीकरण को भी छिन्न-भिन्न करता है क्योंकि साम्राज्य और सत्ताओं के तर्क, गुणात्मक रूप से किसी काव्य-विवेक की विश्वसनीयता के अभिव्यक्त प्रलोभनों तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि सामाजिक असमंजस का व्यापक और नृशंस आख्यान भी बनाते हैं (मगध में लोग / मृतकों की हड्डियाँ चुन रहे हैं / जिसने किसी को जीवित देखा हो / वही उसे / मृत देखता है / जिसने जीवित नहीं देखा / मृत क्या देखेगा ?), (जिन्हें प्रेम है कन्नौज से / कन्नौज जा रहे हैं / जिन्हें द्वेष है कन्नौज से / कन्नौज जा रहे हैं। ) कविता का मूलभूत विन्यास, संघर्षों के दुहरे सामंजस्य और मानवीय भाव-बोध के इच्छित संवेदनों का प्रामाणिक सरोकार है। कविता में संवेदनों का विकास किसी अस्मिताधार्मी प्रत्युत्तर या सामूहिक विवेक की आत्मनिर्भर संकल्प-विकल्प की उठापटक भर नहीं है। यहाँ यह देखना आवश्यक है कि कविता किसी अदूरदर्शी जीवन-सभ्यता की मनमानी बौद्धिकता का रंग-रोगन मात्र ही तो नहीं है जहां भावुकता के स्थानीय और बेचैन करने वाले एहसासों का प्रस्तुतीकरण, संस्कारों और दर्शन के बेमेल तथा बचकानी हाय-तौबा में होता रहता है। जीवन का होना, वृहत्तर सन्दर्भों में यथार्थ का जागरूक सामर्थ्य है और उसे मृत देखना, एक समूची स्वीकृत चेतना के समाजशास्त्र का सबसे व्यर्थ बना डाले जाने वाला आग्रह। आज जब एक निपट षडयंत्र में समूची मानव कल्पनाशीलता को, कामचलाऊ छवियों के सहारे, रणनीतिक हाशिये पर ढकेला जा रहा हो और साथ ही जहां विचार का मतलब केवल मुनाफे और सनसनी के घालमेल से पैदा, एक दिलचस्प खबर हो कर रह गया हो; वहाँ इस कविता के मायने अधिक सुसंगत और कारगर रूप में खुलते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि इतिहास के गर्भ में भविष्य के तनाव और विभ्रम भी छिपे होते हैं।
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'मगध' में भोग के निरपेक्ष मानव-शास्त्र और उसके फलस्वरूप जन्म लेने वाली वर्चस्व की आत्मकेंद्रित स्थितियों की समानांतरता भी है। असल में यह तरीका वर्तमान के अंदरूनी मिजाज़ को इतिहास की जिद्दी तार्किकता में देखने और समझने का इरादा पैदा करता है (फैसला हमने नहीं लिया - / सर हिलाने का मतलब फैसला लेना नहीं होता / हमने तो सोच-विचार तक नहीं किया / हमारा क्या दोष? / न हम सभा बुलाते हैं / न फैसला सुनाते हैं / वर्ष में एक बार / काशी आते हैं - / सिर्फ यह कहने के लिए / कि सभा बुलाने की भी आवश्यकता नहीं / हर व्यक्ति का फैसला / जन्म के पहले हो चुका है) राजनीतिक वस्तु-सत्ता के शक्ति-शिल्प यहाँ से बहुआयामी होते हैं। पाठ अपनी सन्दर्भ-इयत्ता को सर्वसमावेशी करने के लिए सक्रिय होता है और इतिहास स्वयं में निहित संदेहों और विश्वासघातों का आलोचनात्मक निर्णय लेने के लिए बाध्य। अपनी आत्मसत्ता के दोहरेपन के साथ धर्म का प्रवेश, सत्ता-संस्कृति की उस पुरोहित परम्परा को भी उपस्थित करता है जो प्राकृतिक नियमों की क्लासिकल बुर्जुआ हिस्सेदारी की आरोपित परिणिति है। 'मगध', शासन की उसी अभिजात औद्योगिकता की केन्द्रीय ताकतों के बीच उभरते-डूबते जन-बोध का निर्मम संदर्श है। शायद इसीलिए 'मगध' कहीं भी खुद को पोजीशन नहीं करता है। नैतिकता, युद्ध, प्रेम, धर्म, मृत्यु, शासन, ताकत आदि किसी भी सामाजिक गुत्थी को, न तो वह विमर्श या अकादमिक बहस की भूलभुलैया में फंसाता है न ही इतिहास के किसी सत-असत के नमूने के तौर पर, अवधारणाओं को किसी सुधारवादी अस्त्र की तरह चलाता है। लेकिन संस्कृतियों के जातीय बिम्ब, सामाजिक संघर्षों और वैचारिक द्वंद्वों में कितनी सक्रिय भूमिका निभाते हैं, इसका परिचय और प्रमाण वह अनेक स्थलों पर देता चलता है (यहाँ समकालीनता का वह मुहावरा याद रहे कि ऐतिहासिक प्रगति की केन्द्रीय विचारधारा, एक सम्पूर्ण मनुष्य से अधिक एक ज़िम्मेदार मनुष्य बनाने की रही है)। इसलिए 'मगध' का जीवन अपनी विभाजित अस्मिताओं में भी निरंतर गतिशील है क्योंकि ये सभी विभक्त चेतनाएं, अपने वैयक्तिक देशकाल और विस्थापित सामाजिक आख्यान को, किसी सम्मोहक और आमोदप्रिय सरलीकरण का शिकार नहीं होने देतीं और साथ ही स्मृति और स्वप्न के त्रासद सिलसिले में, एक बेक़सूर और बेबस वर्तमान को रेखांकित भी करती हैं।
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(काशी में / शवों का हिसाब हो रहा है / किसी को / जीवितों के लिए फुर्सत नहीं / जिन्हें है / उन्हें जीवित और मृत की पहचान नहीं) सिर्फ इतना भर ही नहीं - ( क्या इससे कुछ फर्क पड़ेगा / अगर मैं कहूं / मैं मगध का नहीं अवन्ती का हूँ? / और कोई फर्क नहीं पड़ेगा / मगध के / माने नहीं जाओगे / अवन्ती में पहचाने नहीं जाओगे। ) अस्मिताओं के नैतिक स्खलन, स्मृतियों की चारित्रिक समीक्षाएं और एक जिंदादिल विवेक का आक्रामक मेटाफर - 'मगध' का समूचा स्वर, हस्तक्षेप की प्रतिबद्ध और बेबाक मौजूदगियों का एक उदास पर्यावरण है। भटकाव से भरी अंतर्विसंगतियाँ, मनोदशाओं के नाकाम निशान, कामनाओं की निर्मम वर्जनाएं, सत्ता और लोक के प्रतिक्रियात्मक संवेग, उनके अनौपचारिक जीवन-सत्य और उन सत्यों की अंतःप्रकृति का सामाजिक विकास; ये सभी 'मगध' की रचना-प्रक्रिया में गहरे गुंथे हैं। ये कविताएँ लाभ-लोभग्रस्त व्यवस्था तंत्र के अराजक आयामों के सूत्र पकड़ती हैं जिनमें उनकी अंधेरगर्द तिकड़मों की सामाजिक भूमिकाएँ निर्वासित होती हैं और उनको उनकी नाशकारी अधिनायकवादी तृप्तियों से अपदस्थ करती हैं। इन कविताओं का एक लक्षण यह भी है के ये हिन्दी कविता में सांकेतिक प्रयोगधर्मिता की एक पाठकीय नम्रता को भी विकसित करती हैं। वह पाठकीयता जो विरोध और विद्रोह को या तो व्यक्तिनिष्ठ अस्वीकार के दुर्बल मौन में अभिव्यक्त करती रही थी या विध्वंस की कड़वी अनास्था की और प्रेरित हो जाती थी
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'मगध' तिरस्कार की सुस्त और सुप्त राजनीति के बरक्स, अभिव्यक्ति का एक अंतःसंघर्ष सामने लाता है और अमूर्तन के सम्प्रेषणगत लाक्षणिक खिलवाड़ को, यथार्थ-संवाद में एक टूल की तरह प्रयुक्त करता है। जीवन के आहत और थके हारे बिम्बों के नवोन्मेष के साथ, 'मगध' की कवितायें 70 के दशक के सर्व निषेध और प्रतिलोमी राजनीतिक समझ की एंटीथीसिस बनाती हैं। बोध की वांछित पीड़ाएं और सरोकारों के असमंजस, रचना और समाज के अनुकूलन में एक प्रतिकारक की तरह मौजूद रहते हैं। 'मगध' मसलों और मंजरों के अंदरूनी आत्मीय रचावों में उपस्थित, उस निष्क्रिय सच्चाई को भी उधेड़ने का काम करता है जो साम्राज्यों के कुलीन आपातकाल की वजह से, एक असहिष्णु और अधीर भावोद्रेक में तब्दील होती जाती है। और इसी कारण से आधुनिकता के सुनिश्चित संशय और युगीन यथार्थ की रचनाधर्मी सार्वजनिकता, रचना में भाषा के सामाजिक दाय और संकल्पों की सहानुभूति को भी परोसते हैं (वैशाली के निवासियो! आम्रपाली / सिर्फ एक प्रसंग है - / जो दूसरों को जानते हैं / आम्रपाली, आम्रपाली रहते हुए / वैशाली आयेंगे / जिन्हें दूसरों को जानने की इच्छा नहीं / आम्रपाली की आड़ में / वैशाली से आँख बचाकर / निकल जायेंगे) श्रीकांत ने 'मगध' के सृजनात्मक शिल्प को, परम्परा से इस्तेमाल हो रहे सामुदायिक आवेग के शास्त्रीय आचार के विपरीत, लोक-आवेग के कच्चेपन के साथ साधा है। इसके कारण नागरिकता बोध के रचनागत भावानुशासन, बेहद साधारण और सामान्य अनुभवों के अपनेपन के बीच प्रासंगिक और पक्षधर बनते चले जाते हैं। प्रतीक और चिह्न केवल उस संरचनात्मक उत्सुकता को आधार देते हैं जो संस्कृतियों और सभ्यताओं की अंतर्धारा में मौजूद, बेबस तिलमिलाहटों को उनके पूरे विचलन और प्रौढ़ असफल प्रतिमानों के साथ उद्घाटित कर दे - जहां प्रश्नों के अपने ऑब्सेशन हैं और विरोधाभासों की चहुंमुखी गूँज है (न सीढ़ियां / चढ़ना /आसान है / न / सीढ़ियां उतरना / जिन सीढ़ियों पर / चढ़ते हैं / हम / उन्हीं सीढ़ियों से / उतरते हैं हम / निर्लिप्त हैं सीढ़ियां)
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'मगध' अपनी इस इकहरी वैचारिक मुद्रा में अकेलेपन के सत्ताभिमुख त्रास का भी स्पष्ट रेखांकन करता चलता है। संवादधर्मिता के कांशस संक्रमणों और वैचारिक चिंतनपरकता से डरे-सहमे समाजवाद में ये कविताएँ, समय और जीवन के दुस्साहसिक बयान से लबरेज़ कविताएँ हैं। दासता की अभ्यस्त भूमिकाओं के प्रचलित संसारों से आड़ बनाती हुई, 'मगध' की कविताएँ एक आरोपित और आत्मग्रस्त जनतंत्र से मोहभंग की कविताएँ हैं। एक ऐसा मोहभंग, जो समानांतर गतिशील अनुमानों और इच्छाओं को किसी भी अनिश्चित बिंदु पर काटने के बाद पैदा होता है। और यह बिंदु अपने फॉर्म और कंटेंट में किसी भी इतिहास-वस्तु की मीमांसा हो सकता है। इस बिंदु के अपने समाजवैज्ञानिक समीकरण भी हैं और उनके चारों ओर गढ़े गए राजनीतिक अस्मिताओं के बहुपरती टेक्स्ट भी। इन परतों में तमाम उद्विग्न करने वाले वृत्तांतों के सामंती अलंकरण और अनुत्तरित विरासत के अवसरवादी गठजोड़ भी शामिल हैं ( मित्रो! / यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता / कि मैं घर आ पहुंचा / सवाल यह है / इसके बाद कहाँ जाओगे?) विचारों के अप्रतिहत वर्ग-संसार में, रचनात्मक आयामों की शारीरिक चौकसी का महत्वपूर्ण अभिलेख है 'मगध'। एक बात और, श्रीकांत की 'निषेध' को समझने और विश्लेषित करने की अपनी तकनीक है। पहली बात तो यह कि जन-व्यवहार के समयबद्ध टकरावों को वे सांस्कृतिक जीवन की कसौटी पर कसते हैं जिससे कि शासन, क़ानून, व्यवस्था, समाज, धर्म और व्यक्ति के वस्तुनिष्ठ आकलनों का संयोजन हो जाता है। इन संयोजनों का ही आत्म-निरीक्षण, कविता की भाषा में निषेध को लोकेट करता है(मित्रो - / दो ही / रास्ते हैं : / दुर्नीति पर चलें / नीति पर बहस / बनाए रखें / दुराचरण करें / सदाचार की चर्चा चलाये रखें )
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कोई भी ज़रूरी और असली कविता समाज और व्यक्ति के विडंबना से भरे स्थापत्य और रचनात्मक खोखलेपन की क्षतिपूर्ति की तरह सामने आती है। एकालाप में बदलते विवेक के जातीय-बोध को, आश्वस्ति के सजग मानदंडों से बांधती है, अतीत से जवाब-तलब करती है, भविष्य को सावधान करती है और वर्तमान से उलझती है और समय के जिस भूगोल के साथ, वह जीवन-संवेद और सभ्यता के यथार्थ में अपने को ज़ाहिर कर रही होती है, उसको पूरी चतुराई के साथ परखती है।
'मगध' इस सन्दर्भ में अपने समय के बीत चुके और घट रहे वर्तमान में लिया गया एक खबरदार अवकाश है। यह अवकाश एक अदम्य नृशंसता की बेशर्म मनोवांछाओं का बियावान है। यह अवकाश एक मेहनतकश इतिहास का उसकी गुमराह परम्परा में अनुसंधान है। यह अवकाश एक पिटे हुए मोहरे की तरह खारिज कर दी गयी लोक-चेतना का अपने ठिकाने की ओर प्रत्यागमन है। यह अवकाश शोषण की सत्ताधारी राहजनी से चोट खाई संवेदना के हक में वसूली है। यह अवकाश नज़रबंद स्मृतियों और नकली दस्तखतों की तरह देखे जा रहे सपनों की जमानत है।
'मगध' रोजमर्रा की खामोश आस्थाओं की वैचारिक संसक्ति है- जो किसी भी सभ्यता की दीवार पर जनतंत्र के बड़े प्रश्नवाचक की तरह टंगी है क्योंकि -
कोसल में विचारों की कमी है