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आलोचना

मिट्टी, फूल और लोहा बनती कविता : केदारनाथ अग्रवाल

सुबोध शुक्ल


कवि समझते हैं कि किसी पहाड़ी ढाल पर घास में लेटे हुए अगर कोई चीज उनके कान में चुभे , तो वे पृथ्वी और स्वर्ग के बीच की दूरी पहचान गए। ( नीत्शे कृत 'दस स्पेक जरथुष्ट्रा' से - यह अंश सिर्फ इसलिए कि कैसे कभी-कभी एक झुँझलाहट से भरा पूर्वाग्रह भी , अनजाने में ही सही , एक समूची संस्कृति को उसका व्याकरण दे जाता है।)

मनुष्य का सत्य और कविता का सत्य, इन धारणाओं का भूखंड आलोचकीय कर्म और विवेक का पैदा किया गया सबसे बड़ा झूठ है। सत्य कहीं से शुरू कर, कहीं खत्म कर देने वाली अवस्था नहीं है। वह जीवन के प्रत्येक क्षण की उपलब्धि है या कहें कि जीवन को चीन्ह लेना ही उसकी उपलब्धि है। जीवन ही है जो अपनी समूची ऐतिहासिक अमरता में मनुष्य और कविता को एक दूसरे की नश्वरता के लिए संस्कारित करता है। आधुनिक दौर में कविता की जरूरत, रूप और रचना-गठन के किसी अवसरवादी समाजशास्त्र के बतौर देखने की नहीं है और न ही नकली कल्पनाओं की बेतुकी संभावनाओं के रोजनामचे की तरह ही। बहीखाता बनती सैद्धांतिकी और लगान बनती संवेदना के सतही बिखरावों के बीच, आज इसका होना अधिक कीमती है - किसी संपदा या खजाने की तरह नहीं वरन जीवन को इतिहास और सभ्यता के बीच, उसके तत्काल में परखने की ऐंद्रिक क्षमता के चलते। इसका आशय यह भी नहीं है कि कविता किसी पुरातात्विक ज्ञान-मीमांसा का उत्खनन है। बल्कि इसे ऐसा समझें कि वह ब्यौरेवार, जीवन के संघर्ष प्रसंगों का एक सहानुभूतिपरक व्याख्यान है। सहानुभूतिपरक इसलिए क्योंकि कविता जीवन की सहचर भी है और आपूर्ति भी। वह सिर्फ जगत के सौंदर्य का ही अनुवाद या संस्करण नहीं है वरन संसार के सभ्यता-प्रश्नों से जुड़े हुए बोध के प्रति, उसका भी अपना एक आलोक स्वप्न है। संसार और कविता की यह सांस्कृतिक सहकारिता ही, उसे अपने निकष में, मनुष्य के प्रति वैज्ञानिक, सहज और बेखौफ करती रहती है।

हिंदी कविता का चरित्र, नैतिक और कल्पनाशील दोनों किस्म के समझौते की संधि से मिला जुला है। कुल मिलाकर यह एक सफल सर्जनात्मक विकास रहा है। युगीन पूर्वाभासों के प्रामाणिक दृष्टि-द्वंद्वों को आत्मसात करके, गतिशील रहने वाली यात्रा रही है इसकी। प्रत्येक समय-परिवेश के आधुनिक उद्यमों और समकालिक बौद्धिक विश्वासों की जिम्मेदारी को समझने-बूझने और आलोचित करने का स्वभाव जहाँ इसे एक ओर लोकपक्ष का आग्रही बनाता है, वहीं दूसरी ओर औपनिवेशिक राज्य व्यवस्थाओं के आरोपित, ऐतिहासिक आघातों से प्रतिरोध लेती सक्रिय विचारधारा का जीवन भी देता है इसे। चूँकि प्रगतिशीलता की अंतर्निहित मनीषा, इसे हिंदी की समग्र जातीयता के संघर्ष-बोध के साथ देखती है इसलिए अपने अनन्यतम साधारणीकरण में यह कविता, भारत के लोक-लय के मिलेजुलेपन को गहरी ऐंद्रिकता के साथ महसूस करती है। प्रगतिशीलता के इस सिलसिले को एक ईमानदार संगीत और सार्वजनिक अकेलेपन की भाषा में माँजने वाले कवियों में, केदार जी स्वयं एक परंपरा की तरह रहे हैं। भाषा और सत्य का अवकाश कैसे मानवीय उपस्थितियों के विश्वास को खोजता और प्रकाशित करता है और फिर कैसे वह विश्वास, अकेलेपन के मिथिकल संसार से, अपने आपको संदेह और प्रश्नों के स्वायत्तशाली प्रति-संसार में खड़ा कर देता है, ये सभी केदार की कविताओं की मुद्रा हैं। 'विश्वास' उनकी कविताओं का परंपरा बोध है और 'हिस्सेदारी' उनका वर्तमान। ये विश्वास उनकी कविताओं की अनुभव-प्रक्रिया से साक्षात्कार जैसा है। सपाट प्रसंगों और सतही संदर्भों के आत्मतुष्ट भोलेपन से किनारा करती ये विश्वास-चेतना, मात्र अनुभूति और ग्राह्यता के सिलसिले में किसी श्रद्धविश्वासरूपिणौ वाला सरलीकृत रूपक नहीं है, न ही यह किसी मूक स्मृति अथवा स्पर्श-पूत अकुलाहट का नतीजा है। केदार के लिए इसके मायने बेहद अलग और ऐच्छिक हैं। विश्वास का वस्तु-संसार, उनके लिए दृष्टि और संवेदना के लिए अधिक महत्वपूर्ण न होकर, जीवन-संघर्ष और उसमें अंतर्निहित रचनाधर्मिता के लिए ज्यादा जरूरी है। केदार की कविता में विश्वास, इसी जीवन-संघर्ष के कारगर दृश्यालेख की भाँति उपस्थित है । यह विश्वास का ही संसार है जो उनकी कविता में परंपरागत बेगानेपन और काव्यानुभव के क्लैसिक अलगाव के बावजूद, बिना किसी कशमकश के कवि को एसर्ट करने का मौका देता है। यह एसर्ट, कविता के प्रचलित विन्यासों से अलग किस्म का एक शिल्प या कहें रचाव है जो कि अंदरूनी और बाहरी, कैसी भी मनचाही भूमिका के परिचित विश्व से हमें जोड़ देता है। यह देशकाल के परिवृत्त में दुनियावी अनकहेपन और स्थानिक हिचकिचाहट के बीच के समय में घट रही कविता है। एक संभ्रमित दौर में 'विश्वास' को अपनी विचारधारा का वर्तमान बनाना दुष्कर कविकर्म है। इसके लिए समकालिकता की सृजनधर्मी मौजूदगी का अहसास बेहद जरूरी है। और यह अहसास, रचनाकार के अपने आंतरिक सुरक्षा-बोध और परिस्थितिजन्य संक्रमण के टकराव से उत्पन्न होता है। उनकी कविता का यह विश्वास ही है कि वे सार्वजनिक आस्वाद का वह आयाम विकसित करते हैं जिसके माध्यम से, सार्वजनिक वस्तुनिष्ठा और कविता की भीतरी लोक संसक्ति के बीच एक अटूट संयोग पैदा हो जाता है। इसलिए केदार के कविता संसार के क्षेत्रफल को चिन्हित कर पाना कठिन होता जाता है। यह एक अंतर्द्वंद्व के आत्मावलोकन से भरा संसार है। नाखुश मर्यादाओं की चापलूसी और व्यक्तिपरक कातरता से दूर है यह सृजन विश्व। केदार की कविताओं में, राष्ट्र और सीमाओं के संकट कहीं से भी किसी किस्म की बौद्धिक बहस नहीं है। देश और क्षेत्र की जिस अंतर्पीड़ा को केदार की कविता सुनाती है वह आगे बढ़कर हमें दखलंदाजी करने को प्रेरित करती है, चेतना की हूक बनकर एक क्रूर, संहारक और आत्महंता उत्सवधर्मिता को नकारती है और साथ ही साथ औपचारिक सैद्धांतिकता के अमूर्त चौखटों में अपने को मिसफिट भी पाती है।

ऐसा कहना गलत होगा कि केदार की कविता में परंपरा का आग्रह नहीं है, गर देखें तो यह आग्रह एक हद तक औसतन आसक्ति तक जा पहुँचता है लेकिन उनके कवि-विवेक में परंपरा के अधुनातन प्रयोग देखे जा सकते हैं। वहाँ परंपरा और अतीत-बोध के बीच स्पष्ट विभाजन है, शृंखलाबद्ध ही नहीं दार्शनिक-चिंतनपरक भी। पुराने को सड़ा-गला और रुग्ण कहने के वे हिमायती नहीं हैं। पुरानापन अपनी उपेक्षा एवं परित्याग के कारण दुरूहता एवं अस्पष्टता का संकेत देने लगे तो कहीं न कहीं यह आधुनिकता बोध के इतिहास-शिल्प की कुंठा का ही परिचय देता है। केदार के कवि-कर्म में परंपरा और आधुनिकता के बीच का यह उपलब्ध स्पंदन ही उनके कवि-विवेक को कविता के कांशस द्वंद्व से जोड़ता है - 'चम्मचों से नहीं / आकंठ डूब कर पिया जाता है / दुख को दुख की नदी में / और तब जिया जाता है / आदमी की तरह आदमी के साथ / आदमी के लिए।' किसी भी और कैसे भी परिवेश को एकदम घरेलू बनाकर संवाद स्थापित करने का लचीलापन, उनमें दृष्टव्य है। स्मृति, धर्म, मिथक, आख्यान, दर्शन भाषा, संस्कृति से किसी चौपाल में बैठे किसान की तरह बतियाते देखते, हम जिंदगी के कथानक और अनुभव के आत्मतोष से जन्मते उस अनिवार्य भोलेपन के साक्षी होते हैं जहाँ तथाकथित दफ्तरी भद्रता और शहरी सभ्यता का शातिरपन नही पहुँच सकता। यह समाज और सभ्यता को किसी दस्तावेज की तरह न पढ़ने-समझने की दृष्टि है। यह दृष्टि या कहें कवि-विवेक, केदार की कविताओं में जबर्दस्त नैरेटिव फॉर्म में संभव होता है। समस्त आनुभूतिक असमंजसों और दुस्साहसिक दोमुँहेपन की संस्कृति के विरोध में इस कविता का प्रोटेस्ट न तो किसी उपदेशप्रधान आश्वासन पर निर्भर रहा है न ही किसी उपार्जित स्थापना पर। यह विशुद्ध 'तत्काल' और उसके दैनंदिन जीवन-दर्शन को हथियार बनाकर प्रस्तुत करता है। एक सांस्कृतिक परिष्कार होते हुए भी, उनकी कविता में जन-भाषा की ही अनुगूँज है। इस परिष्कार और उसके लौकिक बोध के होते हुए कवि, जीवन की प्रौढ़ता, उसकी संसक्ति, आरोह-अवरोह, उसकी नैसर्गिक आभा को व्यक्ति एवं द्वंद्व के पारस्परिक स्तरों में सुलझाता चला जाता है। केदार उन कवियों में से हैं जो कविता के मन और मस्तिष्क दोनों को जाग्रत रखते हैं। ऐसे अवसरों पर परंपरा और आधुनिकता का द्वैत अनौपचारिक हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में यह भी लाजमी है कि किसी निश्चित मत या संप्रदाय से अपनी भौतिक स्थितियों में वह दूर भी होता जाता है। जाहिर है कि केदार के अपने कुछ व्यक्तिवादी और समाजोन्मुख दबाव हैं जो कविता में स्पष्ट दिखाई देते हैं और जिनकी भूमिका उनके रचनाधर्मी वायुमण्डल में खोजी जा सकती है। लेकिन पाठानुभूति के तौर पर केदार की कविता का व्यामोह, इन आस्वादपरक इशारों या एकालापग्रस्त इरादों के कारण नहीं है। इस कविता का सम्मोहन, प्रत्यक्ष घटित होते परिप्रेक्ष्यों की कविगत सदाशयता है जो कि मात्र अनुभव की तटस्थता या विचार के आवेग से संभव नहीं हो सकती। इसके लिए ऐसी उत्तेजना की आवश्यकता है जो सामान्य से दिखते जीवन के अस्त-व्यस्त यथार्थ से रू-ब-रू हो सके। आस पड़ोस के नजरंदाज पहलुओं को, जो कविता की भाषा में जिंदा कर सके, सुरक्षित कर सके।

केदार की कविता दिल्लगी की कविता नहीं है। उपस्थित जीवन के स्वाभाविक बोलचाल की कविता है जो संघर्ष को अभ्यस्त संवेगों की जीवषेणा में टटोलती है। केदार का रचना-संसार, अपने आत्यंतिक फलक में सिर्फ इसलिए क्योंकि देशांतर स्थितियाँ हिंसा-प्रतिहिंसा की महामारी का रूप ले चुकी हैं, निहायत भावुक या कुर्बानी वाली क्रांतिकारिता से प्रेरित नहीं होता - 'बाप बेटा बेचता है / भूख से बेहाल होकर, / धर्म, धीरज, प्राण खोकर, / हो रही अनरीति बर्बर राष्ट्र सारा देखता है। / बाप बेटा बेचता है / शर्म से आँखें न उठतीं, / रोष से छाती धधकती, / और अपनी दासता का शूल उर को छेदता है। / बाप बेटा बेचता है।' कविता और अर्थगर्भी शक्तियों की सक्रियता का एक ताकतवर पहलू यह भी है कि समस्त अमानवीकृत कलाधर्मी कर्मकांडों और तनाव की एंबीग्युटी के बीच भी, निर्माण और सृजन की खोज जारी रहती है। इसी के सहारे प्रकृति और जीवन के अंतर्नियम, काव्यगत, काव्येतर सुखों और जोखिमों को नए अछूते संदर्भों की भाषा से जोड़ते हैं। यह सुख और जोखिम दरअसल चिंतन के बुद्धिगत अवमूल्यन और भाषा की असक्रिय व्याप्तियों पर निर्भर करते हैं। केदार के यहाँ इस चिंतन और भाषा के आशय, निहायत ही हार्दिक और जिम्मेदार हैं। अधिकांशतः अपने समय-साक्ष्य को पकड़ना किसी भी कवि के लिए न तो आकस्मिक होता है और न ही संदिग्ध। विचार और भावना को लेकर जैसा तथाकथित बँटवारा हिंदी कविता में हो रखा है, उसने रचना के आंतरिक लोकतंत्र को आरोपित, आत्मप्रतिष्ठ और खींचतान वाला बनाकर रख दिया है। लेकिन यह देखना दिलचस्प है कि केदार की कविता अपनी अनुगूँजों में राजनीतिक होते हुए भी अपने सार्वजनिक वर्तमान में 'भावुक' कविता भी है। हाँ, लेकिन 'भावुकता' के बुनियादी प्रयोग, उनके अपने लोकोन्मुख पैनेपन की चेतना से पैदा होते हैं। वे भावुकता के दैनंदिन घटित होते इतिहास को, एक अलक्षित लोकतंत्र और उसमें अपना पाँव पसार रही एक झगड़ालू आधुनिकता की निपट नाटकीयता में देखने का प्रयास है। संज्ञाओं और क्रियाओं के शहरीबोध से अलग केदार की कविताएँ, मासूम अस्मिता और अल्हड़ मूल्यों के गाँव जैसी हैं। ऐसे गाँव जो समय के निजी और अनवरत संदर्भ में विज्ञापन, नारों, भाषणों और सुभाषितों से के साथ सत्ता, भीड़, अवसरवाद और बड़बोली राजनीति के तमाशे को देखने और समझने का दम रखती है। बेचैन और उद्विग्न सामाजिक-राजनीतिक दौर में उनकी कविता का प्रौढ़ धीरज और समावेशित करता सयानापन, अलग किस्म के औचित्यों को पैदा करता है। प्रतिबद्धता और पक्षधरता की संघर्षशील हिस्सेदारी के साथ न केवल वे राजनीतिक भाषा को जोड़ते हैं वरन एक भलमनसाहत से भरी दुनियावी अंतःअस्मिता को भी।

यह कविता का नायाब होना ही कहलाएगा कि वह एक साथ बहुत सारे प्रभावों और सोपानों की वाहक बने। वह जितने चौकन्नेपन के साथ सरोकारों के वैचारिक सत्य को सामने लाने वाली हो, उतनी ही महत्वाकांक्षा से अप्रासंगिक से लगते कलात्मक आत्मबल एवं चरित्र को लय और अनुभव-संपदा से धनी करे। केदार की कविता को खोलने की यही अनिवार्य वजह है कि साहित्य के पारंपरिक मत और कला के चालू अलंकरणों की आवश्यकता नहीं पड़ती। इन उपकरणों के लिए वह कविता शताब्दियों आगे है। कैसी भी मजबूर करती हुई बिंबगत अथवा कहें संवेदनात्मक तानाशाही किसी कविता को 'टेक्स्ट' तो बना सकती है पर विरासत नहीं। सुराग लेती आलोचनाधर्मी मानसिकता भी ऐसी कविता को अपराधधर्मिता से युक्त तो कर सकती है किंतु जमीनी खुरदुरेपन की मनुष्यता और विपर्युक्त जीवन के आवश्यक मूल्यों को नहीं पकड़ सकती। इसीलिए केदार की कविता के लिए बोध और प्रेम 'पारदर्शी' नही, वरन आड़ से पहचानी जाने वाली बातें हैं। यह आड़ ही वह मोड़ है जहाँ से उनकी कविता का सपना और सच दोनों अपने अनावृत और निश्छल रूप से, समकालीनता के स्वायत्त संसार को पुनर्रचित करते हैं। इस

अहसास और सामयिकता तक इसी वजह से केदार की कविता सीधे रास्ते नहीं पहुँचती। क्योंकि यदि उनका रास्ता सरल और सीधा होता तो उनके संस्कार की पहचान अलग से करना कठिन होता।

हर सजग कवि अपनी कविता के बीच स्वयं से मिलने को लौटता है। इसे कविता के रचनात्मक आयाम में, किसी सही-गलत या सफल-असफल के बाजारी नियम से न देखा जाए। दरअसल कविता के अभिव्यक्त जुझारूपन और साहस की संभाव्य चौकसी का जिम्मेदार सबसे पहले कवि स्वयं है। कविता में अपनी हिस्सेदारी को खुद के खिलाफ भी वह आजमाता है। अपनी ही कविता में उसकी लिप्ति या कहें आसक्ति का कारण मात्र इतना ही है। यदि कविता की संस्कृति में जन्म लेती जीवन और समाज की भाषा, उसके अपने संसार के काव्यशास्त्र पर इस्तेमाल नहीं होती तो यह दो-टूक बात है कि कविता के संघर्ष और युद्ध किसी पंचतंत्र से ज्यादा नहीं हैं। जहाँ आजादी, संस्कार, ज्ञान और जागरूकता की बातें सिर्फ हितोपदेश बनकर खत्म हो जाती हैं। केदार की कविता सबसे पहले उन्हें ही कटहरे में खड़ा करती है। ये उनकी कविता का अपने कवि पर मलिकाना हक जैसा है। किसी भी कर्महीन भावुकता से परे अपने पूरे मुमकिन अस्तित्व से वह अपने कवि को उसके चरित्र पर फैसले सुनाती है। ध्यान रहे कि यह चरित्र घट रहे यथार्थ-बोध के उपस्थित मुहावरों को संसार की आदत और अकेलेपन की जरूरत से जोड़ता है। इसीलिए केदार की कविताएँ भाषा के इच्छित संसार में, उसके बुनियादी मुहावरों को छेड़े बिना एक रंगमंच की गपशप की तरह है। अपनी रिदम में एक हद तक गजब लोकप्रिय होने के बावजूद उनका स्वर किसी 'खिलवाड़' से प्रेरित शोर-शराबे जैसा नहीं है। एक ऐसे समय में जब संवाद की संभावनाएँ प्रतिकूलधर्मी और नाटकीय समझी जाने लगी हैं, वहाँ केदार उसे सृजनात्मकता का सहज धर्म बनाते रचनाकार हैं। उनकी कविताएँ लोकधुन और लोकजीवन के पास बैठ सांस्कृतिक आस्था को युगीन संदर्भों में आत्मन्वेषित करती है। इसी के सहारे वे अपनी आत्मीयता और जीवनानुभूति के टकराव से उत्पन्न यथार्थबोध को समयबद्ध और संकल्पबद्ध करते हैं। इसलिए इन कविताओं में हम सभी के आसपास घटते-बढ़ते जीवन-व्यापार और लोक-व्यवहार की प्रतिछवियाँ हैं जो भले ही किसी भौतिक समानता या समकक्षता की जिम्मेदार विश्वसनीयता की कसौटी पर खरी न उतरती हों किंतु कविता की आंतरिक भित्ति में जिनकी अंतःकथा, प्रत्येक मुद्रा, संरचना और संवेदना में टूटते-बनते इतिहास की धरोहर हैं - 'जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है, / तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है, / जिसने सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है, / जो रवि के रथ का घोड़ा है, / वह जन मारे नहीं मरेगा, / नहीं मरेगा।' ये कविताएँ इतनी सतर्क, स्थायी, सामान्य और कविता के चिर-परिचित लटकों-झटकों से अलग है कि कवि को कहीं-कहीं सिर्फ सौंदर्य एवं आत्मानुभूति के स्तर पर देखने का आग्रह जबरन करना पड़ता है। केदार की कविताओं का यह एक किस्म का आसंग सत्य है। असंगत एवं खुरदुरे आक्रोश तथा खीझ के भाव-रूपकों वाली कविता केदार की नहीं है जो तनाव और टकराव का कारण, व्यक्ति की निजता और उसकी सामाजिकता के द्वैत से उत्पन्न कुंठा को माने। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि केदार अपनी जीवन की मान्यताओं को, कविता के वस्तुनिष्ठ आकलन से पहचानते हैं। इस पद्धति का खतरा यह है कि समाज और जीवन की सीमाओं का विस्तार, कविता के अंतर्निहित प्रतिपक्षता से न होकर सामाजिक अभीप्साओं की क्षतिपूर्ति के लिए होने लगता है। वस्तुनिष्ठता एक मध्यवर्गीय अनासक्ति की समाजगामी उपेक्षा है और मध्यवर्ग एक असफल और शहीद आभिजात्य। इसलिए अभिजात के वजनी और उबाऊ अभीष्ट, जीवन और समाज की अंतर्मुखी जमीन को तलाशने में लग जाते हैं। किंतु केदार में यही खतरा दृढ़ व्यक्तिगत जीवन और सामूहिक सामाजिक चेतना के नायाब, अविचलित परिप्रेक्ष्य की सचाई की तरह उपस्थित होता है।

ऐसा नहीं है कि केदार के यहाँ दूरदराज संसारों के अप्रासंगिक बिंब, कल्पना के जिद्दी हालातों की चमकीली उड़ानें, जो कि कविता के परंपरागत संस्करणों की ऐश्वर्यशाली अतिरंजना हैं, अनुपस्थित हैं। किंतु उनका हस्तक्षेप मात्र कामचलाऊ और शुद्ध व्यावहारिक मूल्यों जैसा ही है। अपने सचेत मिजाज और अप्रत्यशित नाटकीयता का 'शिल्प' की तरह प्रयोग, वे अपनी कविता के लिए परिवर्तनकामी अर्जित माध्यमों और काव्य-प्रक्रियाओं के सामान्यीकरण के नाकाफीकन से करते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एक परिपक्व ऐंद्रिक स्वच्छता तथा संवेदी नैतिक स्थायित्व, केदार ने अपनी कविता और वैचारिकता का नियमित तथा सांसारिक विस्तार करके ही प्राप्त किया। इनसे किसी आतंक या सम्मोहन की तरह न तो खुशफहमी का शिकार हुआ गया है और न ही केदार के लिए इसमें किसी अशक्यता या थकावट का बेचारगी से भरा लघुता-बोध है। अपने संस्कार और आत्मालोचन में एक सरल काव्य-रूपक को, अपनी कविता के अनिवार्य काव्य-संवेदना की शर्त की तरह पकड़ना, केदार की कविता को सशर्त एक समूचे एकाग्र और पारदर्शी अर्थों में कारगर बनाता है। जिस समाज में संवेदना और भावुकता की पहचान ही अविश्वसनीय और भ्रम से भरी हो, वहाँ कविता एक बेहतरीन झूठ और अनिश्चित सदाशयता के स्पर्श का छलावा भी रच सकती है, इसमें दो राय नहीं। केदार की कविता भले ही प्रश्नवाचक न हो किंतु उसमें पहल करने का साहस है। उसके प्रयास, इतिहास और समाजशास्त्र के आधुनिक फलितार्थों के सौभाग्य-दुर्भाग्य का आकलन भरे ही न कर पाएँ किंतु उसमें अमूर्त होते सजीव क्षणों को, गुमनामी की कतार में खड़ा होने से रोकने का बल है। वर्तमान अपने संवाद, संकल्प या साहसिकता में इन कविताओं में नही आता और न ही किसी यथार्थवाद बिरादरी के रूप में ही। उसका होना सहानुभूति के उस ऐतिहासिक संदर्भ को इस्तेमाल करना है जहाँ असंभावित से मान लिए गए काव्य-व्यवहार के द्वंद्व, बिना शोरगुल किए एक संभावनापूर्ण जिम्मेदारी के अचूक रूपक में बदल जाते हैं। कविता में ऐसे वर्तमानकालिक प्रभाव गुपचुप पैदा नहीं कराए जा सकते हैं। इसके लिए प्रकृति और यथार्थ की वृहत्तर उपस्थिति को, मानवकेंद्रित विविध आयामों में देखने की जरूरत रहती है। केदार के लिए प्रकृति, आदमियत के प्रति गहरी आस्था का आदर्श है। केदार प्रकृति को तरतीब से देखने वाले कवि रहे हैं। वे हमेशा प्रतिरोधों में सक्रिय विट को, अपनी पूरी ताकत के साथ कविता में संभव अंतिम द्वंद्वात्मकता के संतुलन के साथ बाँधने का प्रयास करते हैं और यही कारण है कि उनकी कविता, आपस में सक्रिय विचारणीय सृजन-बोध और अंतर्निहित कालबद्ध चुनौतियों के जातीय संघर्ष और प्रतिरोधों को, भागीदारी के एक सार्वजनिक संगठित चेतना के रूप में देखती है - 'हे मेरी तुम ! / दहका खड़ा है / सेमल का पुरनिया पेड़ / टपाटप टपकाता जमीन पर / लाल-लाल फूली आग, / कचहरी के सामने / क्रांति का माहौल बनाए, / राजनीति से तालमेल बैठाए।' कविता को प्रतिकूल और असुरक्षित समय में समकालिक विवेक और नएपन से भरे अनुशासन-बोध के प्रति सतर्क करने में केदार की कविता की सहकारिता, सक्षम एवं सशक्त रही है। इसका एक आदर्श कारण उनकी कविता में मौजूद एक बुनियादी जीवषेणा है। अगर उनकी कविताओं में सावधानी से गुजरें तो हम महसूस कर सकेंगे कि वे सभी कविताएँ, भली भाँति दीक्षित, स्वतंत्र एवं अपनी सादगी तथा वैचारिक आत्मसजगता में इतनी अनौपचारिक तथा उद्देश्यहीन हैं कि कई बार अपने न्यूनतम आलोचकीय विवेक में, वे उपभोगपरक एवं रोमैंटिक लगने लगती हैं। इस उलझन को केदार की कविता के केंद्रीय आग्रहों और चिंतन के वस्तु संसार को समझ कर सुलझाया जा सकता है।

केदार भाषा के बड़बोले सवालों और उसके तमाशाई आयाम को आधुनिक रचना बोध से संस्कारित करते हैं। इस क्रम में उनका सामना बहुत से लापरवाह और काहिली से भरे परिवेश से होता है। इन परिवेशों की स्थिति, कविता के अवचेतन को उसके स्वप्न-जगत और वास्तविक संसार के स्वतःस्फूर्त अवसान और उद्घाटन के बीच, सहज और स्वचालित प्रक्रिया को आघात पहुँचाने जैसा होता है। केदार की कविता में कई स्थानों पर अपने सृजन-शिल्प को तलाशती संवेदना के लिए हठ जैसा है और यही उनकी कविता में अनुभव के व्यापक आयतन के बीच, मूर्त होते आदमी की तलाश भी है - 'देवताओं के देश में / देवता, अब / यहाँ-वहाँ / कहीं नहीं / दिखते / देवता, अब / आदमियों के बनाए / देवता- / केवल कलाकृतियों में दिखते हैं / सर्वांग, सुंदर- / स्वस्थ और प्रसन्न- / पुण्यात्मा / जरा-मरणहीन- / पावन-प्रवीण- / आदमियों को दासानुदास / बनाए / स्वयं से संतुष्ट।' कविता को सपाबयानी की मुद्राओं और एकालाप के आत्म-प्रदर्शन की कसौटी पर कसने वाले तथा ऐसी कविता को भाववादी या रोमैंटिक कहलाने वाले, कविता के चरित्र को अर्थहीन रहस्यमयता और कुंठित सहानुभूतियों के विशेषण से जोड़ते हैं। केदार कविता को संयोजित करने का काम, देशकाल के संदर्भ और उसके तात्कालिक जातीय-बोध पर छोड देते हैं। इससे कविता समय के सिलसिले में अपने को सामाजिकता के बियाबान में खड़ी देखती है। यह समय-बोध, कवि की अनुभवजन्य अपरिहार्यता है और बियाबान उस अनिवार्य घटना का पूर्वस्थापित मौन। केदार की अधिकांश कविताएँ ऐसी ही अनावृत परिपूरकता से पैदा होती हैं। यह एक किस्म का कवि को अपने को पुनराविष्कृत करने जैसा है। अब चूँकि इस समूचे आयोजन की विचारशीलता का परिवृत्त, इतना रागात्मक और कामनापरक है कि बिना किसी मुक्तिकामी रचनात्मक अभेद और बहुदिशात्मक गतिशील विवेक के ये कविताएँ, अपने अतिपरिचित स्वरूप में भी अदृष्ट, संभ्रमित और विचलन से भरे अर्थ देती हैं। यही एक वजह है कि केदार की कविता, अपने बनाए विश्व में उतर कर अपनी शर्तों पर संवाद नहीं बनातीं, वह मौजूद विश्व के गहरे और कट्टर हो चुके दिशाहीन प्रश्नों से टकराती है और उन प्रश्नों के आत्मविश्वस्त यथार्थ को, संघर्ष तथा प्रतिरोध की उस ऐतिहासिकता से जोड़ती हैं जिनका संबंध मानव-सभ्यता की गहरी प्रज्ञा और सर्जना की अंतर्यात्रा से है - 'लघुत्तम है उसका अस्तित्व, / जिसे कोई नहीं जानता / महत्तम है उसकी गरीबी, / क्षितिज तक फैली छायाओं के समान / जिसे सब जानते हैं / चलते और कुचलते।' कदाचित चालू सरोकारों के मतलबपरस्त मुहावरों से भी उसकी लड़ाई है जिनमें न तो संयमित तर्क का साक्षी भाव है और न ही ऐच्छिक शुरुआत का साहस। ये कविताएँ इसीलिए उत्तेजित करती हुईं भी, अपनी भीतर संरचना में बेहद शांत और स्थिर हैं।

केदार जी लोक-संवेग को उसके पूरे अल्हड़पन और घरेलू आत्मीयता में रचते हैं। जीवन और उसके संवेग को बाँधते, स्मृति के सहारे जूझते-लड़ते आदमी को वे अपनी कविता में पहचानते हैं। उसके विलाप और प्रतिक्षण होते उसके दमन और शोषण को खँगालते है और लगभग एक पक्ष में ठप्प पड़ती, हारी जाती हुई लड़ाई को, क्रूरता और त्रासदी के अमानवीय संसार के बीच जगाने की चेष्टा करते हैं। यह एक आसंग नृशंसता के विरोध में सावधानी से अपनी जीवेषणा को अविष्कृत करने की उत्कट एवं अदम्य मनोवांछा है केदार की कविता की। वे आज के मध्यवर्गीय बोध का स्वाभाविक और सहज रूपायन हैं। इस मध्यवर्ग की टीस उसके खुद को बचाए जाने की जद्दोजहद से पैदा है। अपने आप से मुँह चुराते और जिंदगी के अकेले पड़ते जाते अनुभवों से पलायन करते, वह कविता के निर्दोषपन में अपने को खोज निकालने की कोशिश है। हर कवि का अपना एक अनगढ़ ही सही पर मेहनतकश संगीत होता है, जिसको वह जीवनपर्यन्त अंतरंग ईमानदारी से साधता है। अपने समय के आलाप और यथार्थ के नाद के बीच उसका सुर, असंभव से लगते आवेग और आक्रोश को, एक जागरूक समाज संस्कृति का मुहावरा बना देता है। बदले हुए मूल्यों और अंतर्वर्ती विडंबना के रूपक से, एक वस्तुपरक साफ सुथरा या कहें धुला हुआ निषेध का अहसास केदार की कविताओं में है। इन कविताओं के ध्रुव किसी लीक पर न होकर, समूचे विश्वास को इतिहास और परंपरा की थाती बनाने में संलग्न हैं। सुरक्षित बचा लिए जा सके विधायक मन की उपस्थिति उनकी कविता की विलक्षणता है। एक स्वाशायी और परिपक्व मनोदशाओं के उत्तरोत्तर सचेष्ट होते जाने पर हालाँकि कविता के अंतर्अनुशासन ताकतवर होते हैं और जितने सर्जक अनुकूलन में यह घटना घटती है उतने ही नवीनतम संदर्भों में कविता, व्यवस्था और मनुष्य के बीच अपनी उपादेयता को, बार-बार सुसंस्कारित और सिद्ध करती है। केदार की कविता जीवन की संघर्षशील नैसर्गिकता है। ठुकराए हुए परंपरा बोध और मिथ्या धारणाओं से निपटे आधुनिक लोक जीवन को, वे जातीय चेतना एवं जन-संसक्ति के राग बोध से जोड़ते हैं। खास सौंदर्यशास्त्रीय आग्रहों के वस्तुपरक स्वीकार के दौर में या कहें लूट खसोट के बीच से, क्षेत्रीय संसक्तियों और निजी लोकेषणा को, संघर्ष के इतिहास में तमाम अवधारणाओं, सिद्धांतों एवं अध्ययनों के मानवीकरण के तौर पर देखते हैं। यही इन कविताओं के भीतरी उद्वेलनों का अंतर्साक्ष्य है। अपनी समूची प्रगतिशीलता के खुशफहम मूल्यों और खामखयाल अनास्था के बीच केदार की कविता देश और लोक को उम्मीद और आस्था के खलिहान से जोड़ने का प्रयास करती है। संघर्ष के कच्चे हो-हल्ले और निराशा के पक्के आलस्य को रेखांकित करते हुए एवं हर बेचैन बौद्धिकता की चोट खाई हुई खामोशी को भाषा देती हुए केदार की कविता, सच्चे मायनों में कविता को समालोचना का न्यायिक धर्म बनाती कविता है।


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हिंदी समय में सुबोध शुक्ल की रचनाएँ



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