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कविता

जिस्म ही नहीं हूँ मैं

संध्या नवोदिता


जिस्म ही नहीं हूँ मैं
कि पिघल जाऊँ
तुम्हारी वासना की आग में
क्षणिक उत्तेजना के लाल डोरे
नहीं तैरते मेरी आँखों में
काव्यात्मक दग्धता ही नहीं मचलती
हर वक्त मेरे होंठों पर
बल्कि मेरे समय की सबसे मज़बूत माँग रहती है

मैं भी वाहक हूँ
उसी संघर्षमयी परंपरा की
जो रचती है इंसानियत की बुनियाद

मुझमें तलाश मत करो
एक आदर्श पत्नी
एक शरीर - बिस्तर के लिए
एक मशीन - वंशवृद्धि के लिए
एक गुलाम - परिवार के लिए

मैं तुम्हारी साथी हूँ
हर मोर्चे पर तुम्हारी संगिनी
शरीर के स्तर से उठकर
वैचारिक भूमि पर एक हों हम
हमारे बीच का मुद्दा हमारा स्पर्श ही नहीं
समाज पर बहस भी होगी

मैं कद्र करती हूँ संघर्ष में
तुम्हारी भागीदारी की
दुनिया के चंद ठेकेदारों को
बनाने वाली व्यवस्था की विद्रोही हूँ मैं
नारीत्व की बंदिशों का
कैदी नहीं व्यक्तित्व मेरा

इसीलिए मेरे दोस्त
खरी नहीं उतरती मैं
इन सामाजिक परिभाषाओं में

मैं आवाज़ हूँ - पीड़कों के खिलाफ़
मैंने पकड़ा है तुम्हारा हाथ
कि और अधिक मज़बूत हों हम

आँखें भावुक प्रेम ही नहीं दर्शातीं
शोषण के विरुद्ध जंग की चिनगारियाँ
भी बरसाती हैं

होंठ प्रेमिका को चूमते ही नहीं
क्रांति गीत भी गाते हैं
युद्ध का बिगुल भी बजाते हैं
बाँहों में आलिंगन ही नहीं होता
दुश्मनों की हड्डियाँ भी चरमराती हैं

सीने में प्रेम का उफ़ान ही नहीं
विद्रोह का तूफ़ान भी उठता है

आओ हम लड़ें एक साथ
अपने दुश्मनों से
कि आगे से कभी लड़ाई न हो
एक साथ बढ़ें अपनी मंज़िल की ओर
जिस्म की शक्ल में नहीं
विचारधारा बनकर


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