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कविता

रानी कौआ हँकनी

संध्या नवोदिता


इन साठ दिनों के लिए
मेरे पास साठ कहानियाँ और कविताएँ हैं
कहानी खत्म करने को
जैसा आप सब जानते ही हैं
राजा रानी दोनों मरते हैं
पुरानी कहानी के राजा के पास बड़ी रानी थी
फिर मँझली
फिर कोई छोटी रानी
कोई रानी षड्यंत्र बुनती थी
कोई रानी कौआ हँकनी बनती थी।
इस बार किसी रानी को कौआ नहीं हाँकना
इस बार राज में दखल का मानपत्र लेकर आई है रानियाँ
रानियाँ अब कोप भवन में नहीं जातीं
तिरिया चरित्र नहीं रचतीं
वे अपने लिए महल नहीं चाहतीं
रानियाँ अब खुद भी युद्ध और कूटनीति सीखती हैं
इस बार रानियाँ पुत्र प्रसूताएँ ही नहीं होंगी
वे जनेंगी संतान अपनी
इस बार देखते जाइए
राजा रानी को मरना नहीं होगा
राजा हज़ार बहाने बनाकर हरम नहीं भरेगा
इस बार कोई रानी कौआ हँकनी नहीं बनेगी
इस बार राजा खुद भगाएगा कौए
रानियाँ हँसेंगी राजा की लोलुपता पर
उसके षड्यंत्र खोलेंगी मिलकर
इस बार राज्य षड्यंत्र का नहीं
न्याय का साक्षी बनेगा।


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हिंदी समय में संध्या नवोदिता की रचनाएँ