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कविता

पृथ्वी से रिश्ते तोड़ना

संध्या नवोदिता


यही सही समय है
और पृथ्वी मैं तुमसे अपने सारे रिश्ते तोड़ती हूँ
मैं हवाओं से भी कहती हूँ अलविदा
और तुम्हारी मिट्टी से भी
झरती पानी की बूँदों
आग और झंझाओं से
मैं रिश्ते तोड़ती हूँ तुमसे
कि मैं तोड़ती हूँ खुद को
खुद से निकालती हूँ जल, मिट्टी, अग्नि, आकाश और हवा को
सारी शांति निकाल के फेंकती हूँ
सारी बेचैनी नोच देती हूँ
सारे सुखों को पाताल कुएँ में फेंकती हूँ
और इस तरह पृथ्वी मैं होती हूँ तुमसे अलग


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