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विमर्श

विखंडनवाद : पाठ का अतिक्रमण

सुबोध शुक्ल


'मैं कभी सोचता हूँ कि वे लोग जिन्हें यह जानने की बड़ी दिलचस्पी है कि मैं आखिर कर क्या रहा हूँ (या कहें मेरा ' विखंडन ' क्या कर रहा है) वे एक ओर तो संस्कृति के विध्वंस का प्रयास कर रहे हैं और दूसरी ओर उसको बचाने के नकारात्मक प्रस्थान बिंदु बना रहे हैं जो कि उसे मृत्यु की ओर ले जा रहे हैं। विखंडन अवश्यंभावी रूप से विधायी स्थापना है। स्मृतियों के पुनर्विधायन के पक्ष में खड़ा हुआ। किंतु अतीत का पुनर्मूल्यांकन , परंपरा से जुड़े हुए सबसे कठिन और दुस्साहस से भरे प्रश्न भी पूछता है , यह हमें याद रखना चाहिए।' - देरिदा

कभी-कभी शब्दों के अपने बनाए गए संस्कार ही उन्हें संस्कारहीन कर जाते हैं। युगीन संभावनाएँ किसी भी वैचारिक शक्ति-धारा को स्फूर्ति, उसकी अंतःस्थित द्वंद्वात्मकता की ताजगी को देखकर ही देती हैं। जिस विचारगत मनोदशा का साम्य उसके समानांतर चल रहे काल-अनुभवों तथा मूल्य-परंपराओं से जितना दूरस्थ होगा, वह उतना ही समाज-संस्कृति के लिए पूजनीय एवं वंदनीय होकर रूढ़ भी हो जाता है और सहजात अंतःस्फुरण से क्लीव भी। किसी भी युगीन विचारतंत्र की आपूर्ति, उसके काल-सत्य पर जितनी निर्भर करती है उतनी ही उसके अपने बनाए गए काल-विवेक पर भी। परिस्थिति या परिवेश की नाटकीय सक्रियता, किसी भी विचारगत क्षेत्रफल के साम्राज्य को बनाती भी है और उसके निष्प्रभवन उसको बिगाड़ते भी हैं। समकालिक बहस-वार्ताओं के बीच 'विखंडनवाद' रोमांचकारी उतार-चढ़ाव से भरे दृश्य की भाँति लोकप्रिय है। लूकाच ने कथा-तत्व की इच्छा-वृत्ति की बात करते हुए एक जगह कहा भी है कि जनाश्रित स्थितियाँ कई बार धोखे से पैदा कराई जाती हैं और उनके प्रचलन का आधार रहस्यात्मक कम नासमझी अधिक होता है।

'विखंडन' अपने शब्द से कहीं अधिक बोलता है। उसकी वकालत करनेवालों ने स्वयं ऐसी आत्मघाती स्थितियाँ पैदा कर दीं जिसके कारण वह विमर्श कम जादूगरी अधिक लगने लगा है। तमाशे की शौकीन विद्वत्परिषदों ने सामान्यतः विखंडन के जिस नारे को बुलंद किया है वह कुछ ऐसा है कि संकेत-बिंबों की काल कोठरी में डाले जाते गए शब्द, अब अभियोग से बरी हो गए हैं और शब्दों की अर्थ-तकनीक, उसके बोले गए देशकाल से नहीं वरन समझी गई अराजक आत्म-सत्ता से बिद्ध होने लगी है। भाषा तरलतम होती गई है। शब्द गुब्बारे हो गए हैं। 'जो नहीं था वह क्या था' की मनःजात व्याप्ति ने भाषा को पहली दफा एक अव्यवस्थित वस्तु-सत्ता के रूप में गढा है। फ्रांसीसी दार्शनिक कहाए जानेवाले देरिदा ने 'विखंडन' को भाषा सिद्धांत के एक नए उपकरण जैसा आविष्कृत किया। जैसा कि सैद्धांतिक अकेलेपन के शिकार प्रत्येक विचार-पुरुष की शिनाख्त, उस प्रेत की तरह की जाती है, जिसका होना भयोत्पादक है और न होना उससे अधिक भयोत्पादक; 'विखंडन' अमेरिकी शब्द-कोषों एवं दार्शनिक सूत्र-वाक्यों का हिस्सा बनता चला गया। विखंडन के साथ समस्या उसके कर्मधारय की न होकर अव्ययी-भाव की थी। वह अपने एकवचन स्रोत से जितना प्रकट होता था उतना ही बहुवचन से जुड़कर

एक निर्वात भी पैदा करने लगा। अमेरिकी एवं यूरोपीय गण-परिषदों ने उसको पर्याप्त देशज करने के प्रयास में किंवदंती बना दिया। भाषिक ऐतिहासिक खोजों के क्रम में जितना माया-जाल विखंडन के साथ लिपटा हुआ है, उतना भाषा-विचार की किसी भी खोज के साथ नहीं।

वस्तु स्थिति को खोजने के अपने कुछ तर्कजनित पारंपरिक व्यक्तिवाचक होते हैं। पक्ष-विपक्ष, वाद-विवाद, संवाद-प्रतिवाद, सकार-नकार ये वे तमाम बुद्धिगत विभक्तियाँ हैं जिन्होंने प्रयोजनमूलक अकादमीयता को विवेकजन्य व्यतिरेक के साथ 'मंचस्थ' करने के इरादे से श्रोता एवं वक्ता के रूढ़ स्तर को जन्म दिया। 'पाठ के साथ (अथवा कृति के साथ) खिलवाड़ का वह बिंदु जहाँ 'निरर्थक' प्रस्तावित होता है। यूरोप की महाद्वीपीय विवेचकीयता एवं एंग्लो-अमेरिकन अकादमीयता ने आपसी वर्चस्व की लड़ाई में (जो सैद्धांतिक शब्द-शास्त्र के 'जोशोखरोश' से भरी थी) उस बंदरबाँट को जन्म दिया जहाँ विधायिकासिक्त सरोकार, सरलीकरण के अपराध बोध से ग्रस्त मान लिए गए और जैसे ही तार्किक अभिनय इस सरलीकरण को निंदित सिद्ध करने लगा वह वैसे ही उसे एक निश्चित ज्ञान-मीमांसा का प्रतिनिधि ग्राहक माना जाने लगा। एक प्रकार का संभाव्य, लकीरों के मानचित्र बनाता है, दूसरे प्रकार का, लकीरों को मिटाने का काम करने लगता है। विचार फिर भी निर्वासित है। इन तमाम लांछनों एवं आरोपों के साथ, विखंडनवाद अधिक देर नहीं है जब अपने अर्थगत बिखराव में खंडित भाषा-संकल्पों की कतार में खड़ा कर दिया जाएगा। आवश्यकता उस सज्जाहीन, धूसर एवं क्लांत मौलिकता को फिर से सजीव करने की है, जहाँ भाषा का जीवन-इतिहास अपनी प्राणसत्ता के साथ समूची नग्नता को लिए, दर्शन की आश्वस्ति परोस सके।

कहा यही जाता है कि देरिदा ने deconstruction शब्द मार्टिन हेडेगर की मान्यताओं के बीच से चुना है जिसे कि १९२७ की गर्मियों में हेडेगर ने एक व्याख्यानमाला के अंतर्गत (जो कि अब पुस्तकाकार रूप में Basic Problems of Phenomenology नाम से प्रकाशित हो चुकी है) दर्शन की प्राक् स्थितियों एवं तत्कालीन यूरोप में जोर-शोर से चर्चा में चल रहे एक दार्शनिक आंदोलन 'फिनामिनॉलाजी' की चर्चा करते हुए कहा था। हेडेगर का कहना रहा कि फिनामिनॉलॉजी मुँदी हुई दार्शनिक दृष्टि का उघड़ जाना है। आगे फिनॉमिना के निर्माण तर्क को संगत बनाते हुए reduction, construction एवं deconstruction (अपकर्षण/सृजन/विध्वंस) इन तीनों प्रक्रियाओं के आपसी गठजोड़ को अनिवार्य बतलाते हुए उसने सृजन में ध्वंस के तत्वों का अनुस्यूत होना निश्चित किया।

अपनी दार्शनिक अर्थवत्ता में व्यापकत्व की स्थिति संदर्शित करते हुए उसने deconstruction को 'अनिर्मित' (unbuild) की संज्ञा दी है। असल में ध्वंस, निर्माण की उस इकाई का आयाम है जो अपने बनाव को प्रकट नहीं करता। वे (ध्वंस और निर्माण) अलग-अलग कर दी गईं दो विलग द्वंद्वात्मकताएँ नहीं हैं। दरअसल वे परंपरा के किसी एक क्षण की दो समानांतरताएँ हैं जो समय-समय पर मात्र उभरती-डूबती रहती हैं। कहीं से शुरू करके कहीं पर समाप्त करने जैसी यात्रा-अवस्था नहीं है। हेडेगर के लिए विखंडन कभी भी दार्शनिक मीमांसा जैसी बड़ी घटना नहीं रही। वे उसे अंत तक 'प्रक्रियात्मक सहिष्णुता' मानते रहे। उनका मानना रहा कि सभी दार्शनिक बहसें अपनी परंपरागत विधिगत स्थितियों से युक्त होती है। इसी कारण उनकी चिंतन-पद्धतियाँ उन्हीं बीती हुए पारंपरिक-क्षितिजों एवं अवधारणात्मक दृष्टिकोणों से बँधी होती है। हमारा जिज्ञासा-बोध इस दृश्यगत प्रत्यक्ष से अपने तार्किक सीमांकनों को भाषिक मूल्यवत्ताओं से जोड़कर देखने का आदी है; जिसने सभी को उस छद्म आश्वस्ति से संपन्न कर दिया कि हमारी तमाम वैश्विक परिभाषाएँ और समझ इस भाषा की पैदाइश हैं। अगर अपने संशयों को हेडेगर के 'भाषा की ऐतिहासिक विक्षिप्ति के निषेध' के समानांतर रखें कि हमारी सकार अवस्था कुछ ऐसी परायी अवधारणाओं तथा ऐच्छिक अलगाव से बँधे शब्दों की देन है जो स्वयं अपनी भाषिक अनुमिति में ऐसे ही अनेक परायेपन जैसी परिस्थितियों की परजीवी है तो हम कुछ ऐसे प्रश्नों के इर्द-गिर्द अपने को खड़ा पाएँगे -

* तब फिर इस विश्व को मौलिक तथा उर्वर अभिव्यक्ति के साथ कैसे देखा जाय?

* हम उस समझ से अपना बचाव कैसे करें जो कि किसी भाषा और इतिहास के अनुभव का विस्तार है?

१९वीं एवं २०वीं सदी के दूसरे दार्शनिकों की भाँति ही हेडेगर को इस बात से सरोकार ही नहीं था कि किसी भाषा/स्थान/परिस्थिति एवं रुचियों की समन्वित भित्ति का 'मैकेनिज्म' वह आदिम प्रश्नाकुलता है जो कि 'विचार' को वर्ग स्थिति की चेतना प्रदान करती है और अगर कारण-विचार के इस दोहरे स्तंभन को उसकी पार्श्वभूमि से अलग करते हैं तो हमारी नई (या कहें गरीब) शुरुआत उस बुद्धिगत शून्य से होगी जो कि प्रदत्त अवधारणाओं/वाचकों एवं विन्यासों से मुक्त (या कहें स्वेच्छाचारी) होकर अपने व्यतीत से ही हाथापाई करने लगेगी। नूतन के निर्धारण की यौक्तिक संगतियाँ बरबाद होती जाएँगी। हम अपने बीते हुए समय की भूलों से सीखना नहीं वरन भूलों (या चूकों) का एक घातक और विकृत सा शास्त्र रचने लगेंगे सांस्कृतिक सापेक्षिकता एवं इतिहासवाद सरीखे ये शब्द कितने झूठे होते चले जाएँगे। या कि हम दार्शनिक जाँच पड़ताल के कौतूहल में अरस्तूवादी पहेली की उस माथापच्ची से युक्त संगठन (रूप एवं वस्तु) को मानने की दिल्लगी करें जहाँ प्रत्येक वस्तुगत बिंब के प्रश्न का उत्तर स्वयं एक वस्तुगत बिंब है। यह प्रश्नोत्तर की अबूझ शृंखला उस अस्वास्थ्यपरक, उन्मादित दर्शन अवस्था में ले जाती है जहाँ जो जितना असंगठित है वह उतना ही प्रेरणास्पद है। देरिदा के लिए अरस्तू के ये समस्त तत्व-मीमांसक पहाड़े दार्शनिक सहभागिता के फीके आग्रह हैं। उनके लिए 'वियोजन' (deconstruction) किसी संकेत-बिंब का संवेदनशून्य प्राणायाम नहीं है। वे प्रक्रियांतर्गत भाषागत मुआयने को शब्दगत करते हैं और वहीं से उसका इंगित सार्वत्रिक होता है। और यहीं से पाठ का स्वरूप अपने नियंत्रित आयु काल से (अर्थ/प्रकृति/समन्वय/वाचक को साथ लेते हुए) अस्त-व्यस्त सा होता अपनी संभावना में नास्तिक होता जाता है। यहीं देरिदा (हेडेगर के विपरीत) भाषिक-सभ्यता को विचार सभ्यता के समानांतर ला खड़ा कर देते हैं। अतीत और परंपरा उनके लिए कुहरे में ढकी कोई खोखली खलबली नहीं है। पाठ का समर्थ और भाषा का विभव देरिदा के लिए वह पुरातन एवं अपरिष्कृत व्यवसाय रहा है जहाँ दर्शन, इतिहास और भाषा की युक्ति उलझी हुई है।

हेडेगर और देरिदा के आपसी अभियोजन को (वियोजन) के संदर्भ में एक उदाहरण देकर दिखाया जा सकता है। जैसे फूलों पर एक किताब लिखी जा रही है। दुहराई गई गति से किया गया काम तब तक समाप्त नहीं होता जब तक कि कार्य से संतुष्ट नहीं हो जाया जाता पर काम समाप्त कर लिया गया से क्या अर्थ है? क्या इसका मतलब है कि वह सब कुछ कहा जा चुका जो कि कहा जाना था? या कि उतना ही कहा जा सकता था जितना कहा गया? या कि किसी विस्तार, कथा का यह नींव, विचार है या कि जितना कुछ कह दिया उसने फिर उतने ही न कहे गए को निर्मित कर दिया? सार्वत्रिक एवं सर्वव्यापी कहलाए जा सकने वाले तमाम भाषागत धर्मोपदेश अनिर्मित, विभक्त और तिरस्कारयुक्त अव्यवस्था को पैदा करते हुए उनके भूमिगत को गढ़ते जाते हैं। पाठ के रूप विस्तार की द्वंद्वबद्धता उसे जिस लापरवाह भाग्यवाद से जोड़ती है वह उसके आंतरिक स्व-नियंत्रण की स्थिति को नपुंसक करती जाती है। और यही शैथिल्य उसे देशकाल की आधिकारिकता से विद्रोह करने का साहस देता है। प्रतिशोध से भरे सृजन। अलिखित, अमौखिक, असंप्रेषणीय तथा अभासी चीत्कार से भरा वस्तु-अर्थ। समूल वाचिकता की यह अक्षमता भाषा को पराजित नहीं करती है जबकि उसे कुछ अर्जित करते रहने की अंतर्शक्ति देती रहती है। अब न तो यह नए दौर की भाषागत आत्मनिद्रा है और न ही पुराने जमाने की भाषा का 'एकोऽहं' सर्ववाद। यह विभिन्न स्थिति-रसायनों का एक-दूसरे से पृथक्कृत मेल-मिलाप है। चीजों के बीच अधिकार आवंटन के नए-नए नियम। वस्तु की स्वानुभूत सत्ता स्वयं अनन्तता को पैदा करती रहती है जो कि उसके प्रति दूसरी वस्तु के ज्ञान के सापेक्ष समानांतर एक अबूझ निर्वात पैदा करती जाती है। प्रत्येक वस्तुगत भौतिकता स्वयं से जुड़ते संभाव्य को प्रकाशित करती है, अंत को या उपसंहार को नहीं। किसी वस्तु का प्रकाश्यज्ञान उसके ही द्वारा पैदा किए गए संभावितों से युक्त होता है। यही वैकल्पिक स्थितियाँ उसको 'तत्काल' की कल्पनाशीलता से हटाकर 'इच्छित' के चिरकालिक यूटोपिया से जोड़ती हैं। कांट ने इसी साम्य को 'प्रत्यक्षानुभूति का अतिरिक्त चरित्र' कहा होगा।

विखंडन इस रूप में अपनी भौतिक आलोचकीयता को नहीं गढ़ता कि रचना अथवा भाषा के किसी विशेष स्वरूप की तुलना उसके नैतिक अथवा आदर्शपरक अंतःसाक्ष्य से हो (जैसे - कि रचना बेहतर है और इन कारणों से वह और बेहतर हो सकती थी)। वह मात्र रचना की आंतरिक संगति से कृति के उदासीन मुख्यार्थ को चिन्हित करता जाता है। इन्हीं कृतिगत रूप-रूढ़ियों की पहचान के नाते ही देरिदा ने 'विखंडन' को 'आसन्न आलोचना' (imminent criticism) कहा है। विखंडन किसी अदृश्य या अनिश्चित आग्रह को सिद्धांतीकृत नही करता। वह स्वयं को भी किसी विचारधारा से नहीं, विचार-प्रक्रिया के तहत जोड़ कर देखता है। वह कृति की शत्रुता नहीं वरन प्रतिपक्षी स्थितियाँ निर्मित करता है। कृति अंतर्गत 'अपाठ्य' को पाठ की सामान्य धार्मिकता से जोड़ते हुए, उसकी व्याख्या रही है कि पाठांतर्गत कुछ भी असंगत या अपुष्ट नहीं होता वह मात्र 'प्रतिकूल या असंभावित' होता है। ऐसा नहीं कि कृतिकार नासमझ हैं या समीक्षक अधिक फुर्तीले, बस इतना ही कि (कृति) उस देश काल में होने का खामियाजा भुगत रही है जिसके लिए उसकी तैयारी नहीं है। देरिदा पाठ के इस बुनियादी अनाहूत से मोहित होते हैं (noknowledge)। हमारा अध्ययन-विषय, वक्तृ-विषय और लेखन-विषय पवित्र और वंदनीय हो सकता है। कृति किसी देवत्व से मंडित हो सकती है। लेकिन उसे पवित्र/वंदनीय/ एवं दैवीय आश्वस्ति को देने वाले तत्व पाठेतर है। पाठ का दैवीय होना उसके समानांतर, विस्तीर्ण विभिन्न भौतिक रूपांतरणों के आपसी मेल-जोल से बनता है। देरिदा की पाठ संबंधित निष्पत्तियाँ जितनी भी आगंतुक सी हों पर उनकी भाषागत सन्निधि पर्याप्त वफादार है। क्योंकि देरिदा का प्रयास पाठांतर्गत उक्ति एवं पाठेतर इशारों की सावधानी को बनाना रहा है। लेकिन इसे किसी भी तौर पर कैसा भी नकारात्मक भाषाशास्त्र कहकर अक्रियात्मक नहीं किया जा सकता। प्रारंभिक स्वाभाविक अवरोधों को समझते-बूझते स्वयं पाठ के सर्व विभुत्व और भाषा के दूरतम बनते जाते समीकरणों के बीच एक साझा, अनुशासन का निर्माण और फिर उसे निषेधात्मक नियंत्रणवाद का शिकार सिद्धांत कहना असंशासित होगा। क्योंकि नकारात्मक भाषा-विज्ञानों की दो प्रतिश्रुतियाँ होती हैं - पहली, एक खोज और उसके विषय में की गई एक शिष्ट एवं भद्र संभावना जो कि दैवीय आभा एवं अपरिमितवाद की शिकार है। और विरोधाभासी तौर पर दूसरी, जो स्वयं दिव्य आवृत्ति को अपर्याप्त घोषित करती है। एक सामान्य एवं ऐकिक मिलन-बिंदु, विखंडन एवं नकारवादियों में यही है कि दोनों भाषा के सर्वास्तिवाद को अप्रतीतिकर मानते हैं। विखंडन इस रूप में नैसर्गिक नहीं है कि वह हमसे छिपाता क्या है पर इसलिए कि वह किस भूली हुई प्रत्याशा को संचित करता है। देरिदा ने पाठ के अंदरूनी एकांत को अनगिनत धृष्टताओं से युक्त माना है। यह वही स्थिति है जहाँ कृति-कृतिकार की जाँच पड़ताल से उस नग्न स्वाभाविकता के व्यूह बनते हैं जो पुनः उस कृति (पाठ) को प्रबंध-प्रभार से मुक्त कर देते हैं।

व्याख्या की सर्वांगीणता असंभव है कुछ वैसे ही जैसे पाठ की सार्वभौमिक संदर्भयुक्ति असंभव है। क्योंकि वस्तुतः सर्वान्तरवाद न्यायिक कम, निर्णयात्मक अधिक होता है और उसकी प्रदर्शन सीमाएँ उसकी 'विचित्रता' से युक्त होती हैं। पाठालोचन विभेद, सत्कार एवं नैतिक मानदंडों की लाभवृत्ति से युक्त होता है। विषय यह नहीं है कि पाठ से छूटा क्या है? या भुलाया क्या जा चुका है पर यह है कि पाठ से जुड़ा हमारा वैचारिक मत क्या है? अनुक्रमिकता उस कृत्य की है जहाँ हम चूके हुए संबंधों एवं छूटे हुए सारांशों का सामना करते हैं और सामना करके इस पुनर्विचार से भरे होते हैं कि कृति का विषय किस अमूर्त मीमांसा को संधि युक्त कर रहा है। किंतु देरिदा को ऐसा भोला भी न माना जाय कि प्रत्येक पुनःविचार तमाम प्रकार के पाठेतर बहिष्कारों को उनकी अंतिम परिणति में ला सकता है। वह हीगेल या मार्क्स नहीं हैं। भाषा अपने चरम उद्देश्यों के लिए कैदखाने नहीं बनाती है। किसी भी स्तर का 'दृश्य' अथवा 'आभासी', समग्र युक्तिसंगतता के साथ व्यवहृत नहीं होता है। और यह सोचना कि संदर्भ-संस्कृति की अपनी समग्र प्रसरणशीलता है इस व्यवस्था को मजबूती प्रदान करता है कि भाषा की समूची स्थलाकृति जड़ है - बिना किसी संभावना के साथ और मृत है - अपने किस्म के क्रूर वास्तुशास्त्र में। 'विखंडन' एक अलग तरीके के भाषिक समीक्षा दर्शन की नींव तैयार करता है। उसका संभ्रांत आलोचन पाठ की सीमाओं से निपुण होता है और यही संचयन पाठ पर उसकी ही बनाई हुई चौहद्दी के प्रभावांकन को परीक्षित करता है। हाँ, ये भी सही है कि पाठ-शोधन की इस प्रक्रिया में अर्थ की कालाबाजारी के लिए भी पर्याप्त आकाश उपलब्ध है। देरिदा अपेक्षाओं के भाषा-अलंकार के साथ खेलते हैं। किंतु अपेक्षाओं के वे विचार जो अभियोग रहित हैं। देरिदा ने पश्चिमी विज्ञान-शास्त्र एवं दर्शन के नव-अनुभूतिवाद को चुनौती दी। ऐसा नहीं था कि इसके पहले संरचना एवं प्रतीक के स्तर पर बीसवीं सदी की इन दो आभिजात्य संस्कारों के अनुमान बनते जाने पर आपत्तियाँ दर्ज नहीं कराई गईं। किंतु देरिदा ने इन दोनों संकल्पनाओं के द्वंद्वपरक नखरों के बीच की उस समझौतावादी संगति को पकड़ा जो कि विज्ञान की तरफ से भौतिकता के नकारात्मक गुणनखंड पर और दर्शन के सकारात्मक 'केंद्रीकरण' की पद्धति से परिचालित था। यह बहुत कुछ १९वीं-२०वीं शती में पल रहे चर्च और राज्य के झगड़े की तरह था। जहाँ राज्य अपने विलग 'शब्दांकन' को बनाए हुए भी चर्च की प्रभुता पर पल रहा था। देरिदा का प्रहार इसी 'केंद्र' पर था जो कि उत्पत्ति, सार्वभौमिकता, उपस्थिति, अंत, और अस्तित्व का पूर्णांक रच रहा था। देरिदा का कहना रहा कि केंद्र एक संस्थागत संरचना को जन्म तो दे रहा है किंतु वह फिर भी उस संरचनात्मक पड़ताल और खोज-खबर से अतीत है। पार है। ऊँचा है। अछूता है। सत्य/चेतना एवं अस्तित्व के तत्वमीमांसीय आज्ञावाचक सभी समाज चेतनाओं के लिए प्रेतबाधा की तरह है। किसी भी भाषागत प्रतीक अवस्था का एकीकृत अनुकूलन ही देरिदा की भाषा में 'लोगोसेन्ट्रिज्म' है। इसी क्रम में किसी एक पद-सत्ता का उसकी प्रतिगामी या कहें (परस्पर समक्ष की विरोधी गुण प्रकृति) को दर्शाता ओछापन उस भाषिक मूल्यवत्ता को समाप्त कर देता है जहाँ प्रत्येक 'वाचक' अपने संस्कार/इतिहास/सभ्यता का संवेदनशीलता गढ़ रहा है। केंद्रीय सम्मोहन से जुड़ा हुआ भाषा-समाज (या कहें भाषा-संस्कृति) का समर्पणवाद पाठ या कृति की उस आंतरिक हार्मनी से पलायन है जो यथार्थ/ तक और विधिक तंत्रानुशासनों को निर्देशित करता है।


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