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कविता

स्त्री

लीना मल्होत्रा राव


क्यों नहीं रख कर गई तुम घर पर ही देह
क्या दफ्तर के लिए दिमाग काफी नहीं था

बच्चे को स्कूल छोड़ने के लिए क्या पर्याप्त न थी वह उँगली जिसे वह पकड़े था
अधिक से अधिक अपना कंधा भेज देती जिस पर टँगा सकती उसका बस्ता

तुमने तो शहर के ललाट पर यूँ कदम रखा
जैसे
तुम इस शहर की मालकिन हो
और बाशिंदों को खड़े रहना चाहिए नजरें झुकाए

अब वह आग की लपट की तरह तुम्हें निगल जाएँगे
उन्हें क्या मालूम तुम्हारे सीने में रखा है एक बम
जो फटेगा एक दिन
उन्हें ध्वस्त करता हुआ

वे तो ये भी नहीं जानते
तुम भी
उस बम के फटने से डरती हो।


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