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कविता

जाति के जूते

लीना मल्होत्रा राव


जाति
तट पर छोड़ दिए गए उन जूतों की तरह होती है
जो डूब कर मरने वाला
अपनी सहूलियत के लिए पीछे छोड़ जाता है

इन्हें देख कर ही पहले होता है अंदेशा कि कोई मर गया है
फिर खोजबीन
जाँच-पड़ताल
और निशानदेही

'अच्छा !
मल्होत्रा जी कानपुर वाले'
बहुत से लोग जानते हैं श्री मल्होत्रा को और कानपुर में किए गए उनके कारोबार को

मैं नहीं जानती उनका ये रूप
मैं फिर भी इसे ढोती हूँ...

धीरे धीरे यह जाति एक पुराने वस्त्र की तरह मेरे नाम की देह से लिपटी रहती है

इसे पहन कर मेरा नाम
सुख की नींद सो जाता है

इसकी उधडी हुई सीवन में उॅंगली डाल कर खुजली करना आसान है
यह खुजली मेरी देह को और मेरी आत्मा की साँकलों को खड़काती है

इसके रंगों पर
मेरे पसीने और देह ने अपनी गंध छोड़ी है

कहीं से गाढ़े, तो कहीं फीके रंगों में स्मृतियों की घनी आबादी है
मैं
इसे फेंक देने की सोचती हूँ
कि
इसके लश्कारे में एक विलाप गूँजता है
एक बूढ़ा
मेरे गले लग कर रोने लगता है
उसके साथ मिलकर
रात भर न जाने कितनी मौतों का स्यापा करती हूँ
सुबह
अँधेरों को समर्पित मेरे पुरखों की आत्माएँ
मेरे हाथ में एक कफन छोड़ कर चली जाती हैं

मेरा हाथ
हाँ! मेरा ही हाथ, उसे कफन में लपेट रहा है
मेरी आँखें देख रही हैं

कि मेरी बेटी का रंग मेरी माँ जितना गोरा है
और मेरे बेटे के घुँघराले बाल बिलकुल उसके दादा जैसे हैं...
कि मेरे पिता की नाक से ही टूट कर गिरा था गुस्सा जिसे मैं सम्हाले रखती हूँ...

डर कर मेरी देह की साँस रुक गई है
अब
मेरे शव को निशानदेही के लिए
जाति के जूते की दरकार है


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