क्रिकेट का मौसम है और इसका जादू भारत पाकिस्तान दोनों के सर चढ़ कर बोल रहा
है। फर्क इतना है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सेमी फायनल में पहुँचने में
नाकामयाब पाकिस्तानी टीम लानत मलामत के बीच देश वापस लौट चुकी है और भारतीय
दर्शक अपने खिलाडियों को विश्व विजेता बनाने के सपने देख रहे हैं। क्रिकेट
पागल मुल्क पाकिस्तान की हालिया राजनीति पर अगर क्रिकेट शब्दावली में बात की
जाए तो यह कहा जा सकता है कि अंपायर ने उँगली उठा दी है।
याद कीजिए 14 अगस्त से 17 दिसंबर 2014 तक इस्लामाबाद को घेरे हुए इमरान खान और
मो. ताहिरुल कादरी के हजारों उत्तेजित समर्थकों के विजुअल्स, जिसमें समय बीतने
के साथ पस्त हिम्मत होते जा रहे अपने समर्थकों का हौसला बढ़ाने के लिए पुराने
क्रिकेटर इमरान बार बार यह विश्वास दिला रहे हैं कि बस अब अंपायर की उँगली
उठने ही वाली है। यह अलग बात है कि तत्कालीन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय
परिस्थितियों ने अंपायर को उँगली उठाने से रोक दिया और आर्मी पब्लिक स्कूल,
पेशावर पर हुए आतंकी हमले का बहाना लेकर उन्हें आंदोलन वापस लेना पड़ा।
कौन है यह अंपायर जिसकी उँगली उठते ही पाकिस्तानी समाज की प्रतिनिधि संस्थाएँ
- कार्य पालिका, न्यायपालिका, विधायिका, मीडिया, मंत्रिमंडल अथवा सत्ता या
विरोधी दल सभी हरकत में आ जाते हैं और वह सब करने लगते हैं जो उन्हें नहीं
करना चाहिए या वह सब नहीं करते हैं जो उन्हें करना चाहिए।
पाकिस्तानी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले इस अंपायर को जानते हैं। अंपायर
पाकिस्तानी फौज है। आज के हालात समझने के लिए थोड़ा इतिहास खँगालना होगा। अलग
देश बनने के बाद लगभग आधा समय फौज ने शासन किया है और कुछ एकदम शुरुआती वर्षों
को अपवाद मान लें तो शेष अवधि की सरकारें भी उसकी मर्जी के मुताबिक ही बनी
बिगड़ी हैं। नवाज शरीफ की मौजूदा सरकार पहली है जिसने पाँच साल की पूरी अवधि
बिताने वाली एक निर्वाचित सरकार को चुनावों में हरा कर सत्ता हासिल की है। पर
इससे किसी के मन में गलत फहमी नहीं पैदा होनी चाहिए। आसिफ अली जरदारी के
नेतृत्व वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की पिछली सरकार भी फौज के मामले में
उतनी ही असहाय थी जितनी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) की वर्तमान सरकार। पिछली
सरकार की बेचारगी राजदूत हक्कानी से जुड़े मेंमोगेट मामले में साफ दिखाई दी जब
सेनाध्यक्ष जनरल कियानी को संतुष्ट करने के लिए जरदारी को अपने विश्वास पात्र
हक्कानी को वाशिंगटन से वापस बुलाना पड़ा।
नवाज़ शरीफ का फौज से रिश्ता उतार-चढाव वाला रहा है। सभी जानते हैं कि नवाज़ फौज
की निर्मिति हैं। जनरलों ने एक मझोले दर्जे का कारोबारी पारंपरिक राजनैतिक
नेतृत्व के खिलाफ खड़ा किया था और उसने उनकी उम्मीद से बढ़कर प्रदर्शन भी किया।
शुरु में नवाज़ भारत के खिलाफ बोलते थे और शरिया हुकूमत के पक्ष में थे। इस तरह
वे फौज और मुल्ला दोनों को भाते थे पर जल्द ही जमीनी यथार्थ से उनका साबका पड़ा
और उनकी समझ में आ गया कि किसी भी मुख्य धारा के राजनेता का साथ इस तरह की
पक्षधरता दूर तक नहीं देगी। उन्होंने धीरे-धीरे सेना को उसकी हैसियत बतानी
शुरू कर दी पर यहीं वे मात खा गए। यहाँ इतिहास को दोहराने की ज़रूरत नहीं है
कि कैसे कारगिल हुआ और कैसे जनरल मुशर्रफ को हटाने के चक्कर में खुद नवाज शरीफ
हट गए।
लंबे निर्वासन के बाद इस बार जब शरीफ फिर सत्ता में आए तो बहुत फूँक-फूँक कर
कदम रख रहे थे। सैनिक और असैनिक नेतृत्व एक ही सफे पर रहें इसकी पूरी कोशिश
उनकी तरफ से हुई पर एक मानवीय कमजोरी की वजह से वे चूक ही गए।यह एक आम जानकारी
है कि 1999 में न सिर्फ चुनी हुई सरकार का तख्ता पलटा गया बल्कि अपदस्थ
प्रधानमंत्री के साथ हिरासत में बदसलूकी भी हुई और यहाँ तक कि अदालतों से
उन्हें फाँसी की सज़ा दिलवाने की कोशिशें की गई। लगभग जुल्फिकार अली भुट्टो
की कहानी दोहराई जा रही थी, यह अलग बात है कि सउदी अरब के शाही परिवार के
हस्तक्षेप ने उन्हें फाँसी और पाकिस्तानी जेलों - दोनों से बचा दिया। पर एक आम
मनुष्य के रूप में वे इस अपमान को भूले नहीं और जैसे ही उन्हें मौका मिला
उन्होंने परवेज मुशर्रफ को गिरफ्तार कर लिया। चीफ जस्टिस इफ्तखार चौधरी के
नेतृत्व में न्यायपालिका ने उनका साथ दिया। चौधरी को भी अपनी बर्खास्तगी का
बदला मुशर्रफ से लेना था।
पाकिस्तान के लिए यह एक असाधारण स्थिति थी। आप एक भूतपूर्व सेनाध्यक्ष को कैसे
गिरफ्तार कर सकते हैं? किसी के गले यह बात नहीं उतर रही थी खासतौर से सेना के
लिए तो यह अकल्पनीय था। नवाज़ को हासिल जन समर्थन और काफी हद तक लड़ाकू
न्यायपालिका ने कुछ दिनों के लिए तो सेना को खामोश रहने पर मजबूर कर दिया पर
जैसा कि फ्राईडे टाइम्स के संपादक नज़म सेठी ने जियो टी.वी.
को दिए अपने एक इंटरव्यू में कहा कि सेना को कई तरह से कान पकड़ना आता है। नवाज
की सरकार को उनकी औकात बताने के लिए इमरान खान की पार्टी पी.टी.आई. से
इस्लामाबाद पर चढ़ाई कराई गई। यह एक खुला रहस्य है कि नवाज शरीफ़ की ही तरह
इमरान भी सेना की ही निर्मिति है। पाँच महीने तक इस्लामाबाद शहर पर कब्जा किए
इमरान अपने समर्थकों का हौसला बढ़ाने के लिए बीच-बीच में घोषित करते रहे कि बस
अब अंपायर की उँगली उठने ही वाली है। अंपायर की उँगली तो नहीं उठी पर उसका काम
हो गया और नागरिक प्रशासन ने घुटने टेक दिए। पेशावर आर्मी स्कूल पर हुए हमले
के बाद जो नेशनल ऐक्शन प्लान बना उसमें फौज को न्यायपालिका, कार्यपालिका और
विधायिका के बहुत सारे अधिकार मिल गए।
नज़म सेठी पिछले साल भर से अपने कालमों में लिखते आ रहे थे कि मुशर्रफ के
मुक़दमों में कुछ नहीं होना। सब कुछ केवल नाटक है और जल्दी ही मुशर्रफ देश
छोड़ कर बाहर चले जाएँगे। मुक़दमों के दौरान भी अदालत में पेश होने या न होने
का फैसला वे खुद ही लेते थे। नज़म सेठी पाकिस्तानी तंत्र के एक दिलचस्प प्राणी
हैं। सत्ता से नजदीकियों और दूरियों का एक अद्भुत सामंजस्य उन्होंने बना रखा
है। एक तरफ वे कठमुल्लों और सैनिक नियंत्रण के खिलाफ बोलते हैं तो दूसरी तरफ
उनके रसूख वाले संपर्क उन्हें सबसे अधिक सूचित कालमिस्ट भी बनाए रखते हैं।
इसलिए जब वे कह रहे थे कि मुशर्रफ देश छोड़कर चले जाएँगे और अदालत या सरकार
इसमें उनकी मदद करेंगे तो लोग उसे गंभीरता से ले रहे थे।
इंतजार सिर्फ अंपायर की उँगली उठने का था और जैसे ही उँगली उठी मुशर्रफ फुर्र
से उड़ गए।