अगर कहा जाए कि शरीफ के आने के बाद घरेलू आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान की लड़ाई
में गुणात्मक परिवर्तन आया है तो किसी को ताज्जुब नहीं होगा पर इस वक्तव्य में
एक पेच है। जिस शरीफ की वजह से यह फर्क आया है वह प्रधानमंत्री नवाज शरीफ नहीं
बल्कि सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ हैं। नामों की समानता से यह भ्रम नहीं होना चाहिए
कि दोनों आपस में रिश्तेदार हैं और न ही इस कारण से नवाज ने राहिल को दो
वरिष्ठ जनरलों की अनदेखी कर के चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ नियुक्त किया था। एक
सामान्य प्रक्रिया के तहत जिसमें प्रधानमंत्री उम्मीदवारों में से ठोक बजाकर
अपना वफादार चुनने का निर्णय लेता है, नवाज शरीफ ने भी वरिष्ठता नजरंदाज कर
राहिल शरीफ को जी.एच.क्यू. का मुखिया बनाया था।
पाकिस्तान में यह सामान्य ज्ञान है कि विदेश और रक्षा संबंधी मामलों में,
खासतौर से जिनका ताल्लुक भारत या अमेरिका से हो, अंतिम फैसला नेशनल असेंबली
नहीं जी.एच.क्यू. या सेना मुख्यालय करता है। अकसर कैबिनेट के घोषित फैसले कोर
कमांडरों के सम्मेलन में उलट दिए जाते हैं। व्यापार में भारत को मोस्ट फेवरिट
नेशन का दर्जा देने का फैसला एक उदाहरण है जिसे जरदारी और नवाज शरीफ दोनों की
सरकारें चाहते हुए भी नहीं ले पायीं क्योंकि हर बार जी.एच.क्यू. ने लाल झंडी
दिखा दी। भारतीय पाठकों को अजीब लग सकता है पर पाकिस्तान में कोई भी इसे
असामान्य नहीं मानता कि बाहर से आने वाले सारे विदेशी नेता राष्ट्रपति,
प्रधानमंत्री या मंत्रियों से मिलने के अलावा आर्मी चीफ से भी मुलाकात का समय
माँगते हैं।
सेनाध्यक्ष बनने के पहले राहिल शरीफ एक लो प्रोफायल जनरल समझे जाते थे। वे
पाकिस्तानी सेना के प्रशिक्षण कमान के मुखिया थे और इसके पहले वरिष्ठ फ़ौजी
अफसरों को ट्रेनिंग देने वाली मिलिट्री अकादमी के कमांडेंट रह चुके थे। इन
दोनों नियुक्तियों के दौरान उन्हें सेना की वार डाक्ट्रिन में बुनियादी बदलाव
लाने का मौका मिला। राष्ट्र बनने के बाद से ही सेना का मुख्य जोर भारत से
मिलने वाली चुनौतियों पर था और सारे वार गेम्स पूरब को ध्यान में रख कर बनाए
गए थे। अफगानिस्तान से लगी पश्चिमी सीमा को लेकर पाकिस्तान के फ़ौजी रणनीतिकार
खास तरह की रूमानियत के शिकार रहे हैं जिनके लिए अफगानिस्तानी धरती भारत से
जंग के समय स्ट्रेटिजिक डेफ्थ का काम करेगी अर्थात् हवाई हमलों के दौरान बचाव
के लिए उसके जहाज़ों और दूसरे युद्ध उपकरणों को वहाँ छिपा कर रखा जा सकता है।
इसी चक्कर में पाकिस्तानी फौज और उसकी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. हमेशा वहाँ
अपनी कठपुतली सरकार बनाने और विरोधियों को अस्थिर करने में लगी रहती हैं। जनरल
राहिल शरीफ ने पहली बार सेना के नेतृत्व को समझाने की कोशिश की कि बड़ा खतरा
भारत नहीं है बल्कि ज्यादा बड़ी चुनौती वे इस्लामी आतंकी संगठन हैं जिन्हें
पाकिस्तानी प्रतिष्ठानों ने ही पाल-पोस कर बड़ा किया था। प्रशिक्षण कमान के
मुखिया की हैसियत से उन्होंने घरेलू चुनौतियों से निपटने के लिए फौज के
विभिन्न रैंकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार कराये और मिलिट्री अकादमी का
कमांडेंट रहते हुए वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों को घरेलू आतंकियो से लड़ने के लिए
प्रशिक्षित किया।
भारत की बाँहें मरोड़कर पूरा कश्मीर हासिल करने और अफगानिस्तान को अपने प्रभाव
क्षेत्र में रखने के लिए जिन आतंकी संगठनों को फ़ौजी इदारों ने खड़ा बड़ा किया था
उनके खिलाफ अपने सैनिकों को लड़ने के लिए तैयार करना इतना आसान भी नहीं था। आम
जनता के अलावा फ़ौजी क़तारों में कट्टरपंथ की घुसपैठ कितनी जबरदस्त है इसका
अंदाजा सिर्फ दो तथ्यों से लगाया जा सकता है - एक दर्जन से अधिक फ़ौजी ठिकानों
पर हुए आत्मघाती हमलों में पूर्व या वर्तमान फ़ौजी ही शामिल थे और अनगिनत बार
ऐसा हुआ कि इस्लामी आतंकियों से लड़ते हुए शहीद जवान की लाश लेने और दफनाने से
उसके परिवारी जनों ने इंकार कर दिया क्योंकि उनके अनुसार इन आतंकियों से लड़ना
कुफ्र था। इस पृष्ठभूमि में कराची हवाई अड्डे पर जून 2014 में हुए हमले के बाद
जो कुछ हुआ उसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। इसने पाकिस्तान का पूरा रक्षा
परिदृश्य बदल दिया। उन दिनों सरकार तालिबानों से मुज़ाकरात यानी वार्तालाप में
व्यस्त थी। इसकी पूरी तरह से उपेक्षा करते हुए जनरल शरीफ ने 30 हजार से अधिक
सैनिकों को आपरेशन ज़र्बे अज्ब के तहत उत्तरी वजीरिस्तान जैसे इलाकों में उतार
दिया जो इस्लामी कट्टरपंथी जमातों के शरणगाह थे। अपने सैकड़ों सिपाहियों को
खोकर सही पर शरीफ ने काफी हद तक आतंकियों की कमर तोड़ दी है। अब देखना है कि कब
तक पाकिस्तानी सेना और धार्मिक कट्टरपंथी दल जनरल शरीफ को खुल कर अपना अभियान
चलाने की इजाजत देते हैं क्योंकि जिन के खिलाफ जनरल लड़ रहे हैं उन्हें बनाया
तो इन्होंने ही है। दिसंबर 2014 में पेशावर आर्मी पब्लिक स्कूल के बच्चों के
कत्लेआम से जरूर आतंकियों के समर्थन में कमी आई है और सेना तथा जनता में शरीफ
का समर्थन बढ़ा है।
ऐसा नहीं है कि इस बीच फौज और नागरिक सरकार के संबंध बहुत आदर्श रहे हैं। उनके
बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रही है और अभी तक तो यह लड़ाई दोनों के लिए एक कदम
आगे दो कदम पीछे जैसी ही है। देखना है भविष्य में ऊँट किस करवट बैठता है।