धर्मशाला में पिछले महीने दलाई लामा द्वारा आयोजित बहुधार्मिक सम्मेलन में भाग
लेने के लिए जिंग ज्यांग प्रांत में उइगूर मुस्लिम आबादी के साथ ज्यादती करने
वाली चीनी सरकार के विरोध में सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व करने के कारण जर्मनी
में निर्वासित डोल्कुम इसा का वीज़ा अंतिम समय में भारत सरकार द्वारा रद्द
करने के पीछे क्या वही कारण हैं जो विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप
हमें बता रहे हैं या निहितार्थ कुछ और हैं।
डालकम इसा के अलावा अन्य दो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं - लू जिंग हुआ और रे वांग
के वीज़ा प्रार्थनापत्र भी नामंजूर कर दिए गए। जिस तरह की गोपनीयता की चादर
हमारे सरकारी विभागों ने अपने इर्द-गिर्द ओढ़ रखी है उससे इस बात की संभावना कम
ही है कि सच कभी सामने आएगा पर पूरे घटनाक्रम से यह तो स्पष्ट हो गया कि चीन
को लेकर भारत की विदेश नीति किसी सुचिंतित, वस्तुगत और दीर्घावधि रणनीति पर
आधारित न होकर तात्कालिक और आत्ममुग्ध आकलनों पर अधिक केंद्रित है। डोल्कुम
इसा को वीज़ा देने के फौरन बाद अतिरिक्त उत्साह भरी प्रतिक्रियाएँ आईं कि अब
भारत ने चीन को उसी की भाषा में जवाब देने का फैसला कर लिया है और यह संयुक्त
राष्ट्र संघ में चीन द्वारा मसूद अजहर के विरुद्ध भारतीय प्रयासों को वीटो
करने की उचित प्रतिक्रिया है। इस बार भी लगभग उसी तरह का उत्साह और
आत्मविश्वास छलक रहा था जैसा 2014 में चीनी राष्ट्र राष्ट्रपति शी जिन पिंग की
भारत यात्रा के दौरान दिखा था। जब सरकार देश को यह बताने में व्यस्त थी कि नई
सरकार और नेतृत्व ने चीन को भारत का महत्व समझा दिया है उसी समय चीनी सैनिक
लद्दाख के भारतीय इलाकों में घुसपैठ कर रहे थे। अँग्रेजी की कहावत के अनुसार
उनके लिए यह बिजनेस ऐज यूजुअल था। वे जानते हैं कि विदेश नीति एक लंबी और
सुचिंतित प्रक्रिया की उपज होती है और किसी नए नेतृत्व से फौरन कोई फर्क नहीं
पड़ता। इसलिए दो दिन बाद ही जब असंतुष्ट चीनी नागरिकों के वीज़ा निरस्त करने का
फैसला सामने आया तो यह तय करना बहुत मुश्किल है कि कारण वही हैं जो सरकारी
एजेंसियाँ बता रही हैं या फिर इस बार भी एक आत्ममुग्ध और जल्दबाजी में नीतियाँ
बनाने वाली सरकार किरकिरी से बचने के लिए हड़बड़ाहट में दो कदम पीछे हट रही है।
भारत-चीन के रिश्ते किसी इकहरी समझ से पारिभाषित नहीं किए जा सकते। विश्व की
ये दो प्राचीनतम सभ्यताएँ हजारों साल तक एक-दूसरे से लेन देन करतीं रहीं हैं।
भारत का बौद्ध धर्म चीनी आस्था का केंद्र बना तो चीन की चाय हमारी दिनचर्या का
अंग बन गई। यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1962 के पहले इन दोनों पड़ोसियों के
बीच कभी युद्ध नहीं हुआ।
दोनों पड़ोसियों के बीच संबंधों में बड़ा परिवर्तन तब आया जब 1914 में मैकमोहन
लाइन खीची गई। यह इन दो पड़ोसियों की सीमा निर्धारित करने का पहला गंभीर प्रयास
था। पर इस सीमा रेखा को पवित्र और अनुल्लंघनीय मानने के पहले हमें यह भी समझना
होगा कि इस समझौते पर दस्तखत करने वाला पहला पक्ष ब्रिटिश हुकूमत अपने समय की
वैश्विक ताकत थी, दूसरा पक्ष तिब्बती सरकार बहुत कमजोर थी और तीसरे पक्ष चीन
का प्रतिनिधि समझौते पर हस्ताक्षर किए बिना ही शिमला से भाग गया इसलिए मैकमोहन
लाइन में हमेशा आपसी सहमति से परिवर्तन के गुंजाइश बनी रहनी चाहिए ।
समकालीन संदर्भों में भारत चीन के बीच कोई भी रिश्ता बिना पाकिस्तान को ध्यान
में रखे पारिभाषित नहीं जा सकता। दरअसल चीन, भारत और पाकिस्तान को मिलाकर एक
त्रिकोण बनता है। भारत और चीन के रिश्ते काफी हद तक भारत पाकिस्तान के रिश्तों
और चीन पाकिस्तान के रिश्तों पर निर्भर करते हैं। यह एक तथ्य है कि 1962 के
भारत चीन युद्ध के फौरन बाद जनरल अयूब खान ने 1963 में मैकमोहन लाइन पर चीन का
पक्ष मानते हुए पाकिस्तानी अधिकृत कश्मीर का वो सारा भूभाग चीन को वापस सौंप
दिया जिस पर वह अपना अधिकार जताता रहा था। तब से पाकिस्तान और चीन के बीच एक
खास तरह का रिश्ता बना हुआ है। यह अलग बात है कि न तो 1962 की लड़ाई में
पाकिस्तान ने कोई भारत विरोधी सैन्य कार्यवाही की और न ही 1965 और 1971 में
चीन ने ऐसा कुछ किया। यह तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय दबावों के तहत हुआ था पर
भविष्य में भी दोनों देश मिलकर भारत के विरुद्ध कोई सम्मिलित सैन्य कार्यवाही
नहीं करेंगे इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती।
पाकिस्तान और चीन के बीच दोस्ती का एकमात्र आधार दोनों के भारत से तनावपूर्ण
रिश्ते हैं। दोनों के बीच दोस्ती अंतरराष्ट्रीय राजनीति का सबसे बड़ा अजूबा
है। अपने जन्म के फौरन बाद से पाकिस्तान के अमेरिका से नजदीकी रिश्ते रहें
हैं। इन रिश्तों ने पाकिस्तान को अमेरिका के विस्तारित सैन्य छावनी बनाकर रखा
है और अमेरिका और चीन हमेशा एक-दूसरे के प्रति शंकालु रहे हैं। पाकिस्तान एक
धर्माधारित राज्य है और चीन अनीश्वरवादी साम्यवादी देश। पाकिस्तान खुद को
इस्लाम का किला कहता है और अपने अस्तित्व का तर्क भी इसी में ढूँढ़ता है। चीन
ने अपने इकलौते मुस्लिम बहुल इलाके जिंग-ज्यांग में उइगूर मुसलमानों पर रोजे
रखने, काम के समय नमाज पढ़ने या बुरक़ा पहनने जैसी इस्लामी प्रथाओं पर प्रतिबंध
लगा दिया है। वहाँ के किसी भी इस्लामिक प्रतिरोध के आंदोलन को चीन पूरी
निर्ममता से कुचलता है और पाकिस्तानी सरकार एवं वहाँ के इस्लामी जिहादी संगठन
भी इस बारे में कोई बात नहीं करते। अमेरिका के कहने पर भी हक्कानी नेटवर्क के
खिलाफ कार्यवाही न करने वाला तथा अमेरिकी-अफगान आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए
तालिबानों को प्रश्रय देने वाला पाकिस्तान जो पूरी दुनिया के लिए जिहादी
रंगरूट तैयार करता है इन उइगूर विद्रोहियों को पूरी निर्ममता से कुचल देता है।
डोल्कुम इसा इन्ही उइगूर मुसलमानों का नेता है।
चीन ने पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह के रूप में एक बड़ा निवेश
किया है। यह निवेश सिर्फ आर्थिक महत्व का नहीं है बल्कि इसके बहुत दूरगामी
सामरिक और कूटनीतिक परिणाम निकलेंगे। इस वर्ष ग्वादर बंदरगाह को केंद्र में
रखते हुए एक महत्वाकांक्षी चीन-पाकिस्तान इकनामिक कारीडोर शुरू किया गया है।
सड़कों, रेलवे लाइनों और औद्योगिक इकाइयों की यह परियोजना पाकिस्तानी नीति
निर्धारकों की नजर में गेम चेंजर साबित होने जा रही है।
यह भारत के हित में है कि भारत चीन रिश्ते किसी दीर्घ कालिक और वस्तु परक
तथ्यों के आधार पर निर्धारित किए जाए। हमें मैकमोहन लाइन को लेकर एक लचीला रुख
अपनाना होगा। चीन से दोस्ती भारत के ही हित में है - सिर्फ आर्थिक ही नहीं
सामरिक क्षेत्र में भी। चीन से सैन्य प्रतिस्पर्धा भारत के लिए हर तरह से
आत्मघातक है। उसका मुकाबला करने के चक्कर में हमें जो अकूत कीमत चुकानी पड़ेगी
उससे कहीं बेहतर और राष्ट्र हित में यह होगा कि हम भावुकता और अतिरेकी
राष्ट्रवाद से बचते हुए अपने सीमा विवाद हल करने का प्रयास करें।