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वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम एक अमूर्त रेखा है सीमा पीछे     आगे

एक औसत भारतीय नागरिक के मन में सीमा शब्द को सुनकर कैसे बिंब उभरते हैं? अगर कहें कि सीमा उसके लिए काफी हद तक अमूर्त और मिथकीय प्रसंग है तो इसे अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए। एक ऐसे समाज के लिए जो अभी भी आधुनिक अर्थों में राष्ट्र राज्य बनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है यह बहुत अस्वाभाविक नहीं है कि राष्ट्रवाद के तमाम विमर्शों के बावजूद सीमा को लेकर अधिकांश भारतीय बहुत स्पष्ट नहीं है। हाल में उत्तराखंड में कुछ चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय सीमा के इस पार चले आने पर जो प्रतिक्रियाएँ हुई वे इसी उलझन का प्रमाण हैं। उनकी इस हरकत को विपक्ष ने सीमा का अतिक्रमण कहा तो रक्षा मंत्री के अनुसार यह एक अस्पष्ट सीमा पर अकसर और गलती से हो जाने वाले उल्लंघन से अधिक कुछ नहीं है।

सीमा पर किसी विमर्श की शुरुआत करने से पहले हमें इस तथ्य को भी ध्यान रखना चाहिए कि पड़ोसी राष्ट्रों से लगने वाली हमारी सीमाएँ ब्रिटिश साम्राज्यवाद की निर्मिति हैं। सुगौली संधि (भारत - नेपाल), डूरंड लाइन (भारत - अफगानिस्तान और अब पाकिस्तान - अफगानिस्तान), मैकमोहन लाइन (भारत - चीन) या भारत - पाकिस्तान का बँटवारा करने वाला रेडक्लिफ अवार्ड गौरांग महाप्रभुओं की देन है। सीमा रेखाओं का निर्धारण करते समय अँग्रेज शासकों ने अपने सामरिक और आर्थिक हित ध्यान में रखे थे और जिन सरकारों से उन्होंने ये समझौते किए उनके मुकाबले वे बहुत ताकतवर थे और अक्सर समझौतों पर हस्ताक्षर करने के बाद दूसरा पक्ष असंतुष्ट ही अधिक नजर आता था। मैकमोहन लाइन और डूरंड लाइन इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं जिनके कारण आज तक भारत और चीन तथा पाकिस्तान और अफगानिस्तान के रिश्तों में तनाव बना हुआ है।

भारत की स्थल सीमा चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, भूटान तथा जल सीमा पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव और श्रीलंका से मिलती है। चीन और रूस के बाद यह तीसरी सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय सीमा है। सर क्रीक को छोड़ दे तो मुख्य समस्या स्थल सीमाओं को लेकर है जो पंद्रह हजार किलोमीटर से अधिक है। इनमें सारा कुछ विवादित नहीं है। अधिकांश संबंधित पक्षों द्वारा मान्य है और इसे विश्व राजनय में प्रचलित शब्दावली के अनुसार अंतरराष्ट्रीय सीमा या इंटरनेशनल बार्डर (आम तौर से आई.बी.) कहा जाता है। आई.बी. सीमा पर छोटे-बड़े खंभों या ऐसे ही किसी निशान से निर्धारित की जाती है और उसकी सुरक्षा सेना करती है। उन पर तैनात सेना की नफ़री या अस्त्र शस्त्र स्थानीय संवेदनशीलता पर निर्भर करते हैं। भारत में सीमा प्रबंधन के संदर्भ में आई.बी. बड़ी समस्या नहीं है। युद्धों (1962,65,71) में ही उनका उल्लंघन हुआ है। समस्या उस सीमा की है जिसे लेकर दो पड़ोसियों में सहमति नहीं है।

सबसे पहले मैकमोहन लाइन को ले। 1914 में शिमला में हस्ताक्षरित समझौते के अनुसार पश्चिम में भूटान से पूर्व में ब्रह्म पुत्र नदी को छूने वाली यह रेखा ग्यारह सौ किलोमीटर से अधिक लंबी यह रेखा भारत और तत्कालीन तिब्बत और वर्तमान चीन के बीच सीमा निर्धारण करती है। चीन का मानना है कि कमजोर तिब्बत के प्रतिनिधि को दबा कर और चीनी प्रतिनिधि की आपत्तियों को नजरंदाज कर ब्रिटिश वार्ताकारों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करा लिए थे। भारत और चीनी समझ में बुनियादी फर्क होने के कारण दोनों देश 1962 में युद्ध लड़ चुके हैं और अब इस सीमा को वास्तविक नियंत्रण रेखा या लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एल.ए.सी.) कहते हैं और इस पर अकसर उत्तराखंड जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती रहती हैं जब भारतीय अखबारों की सुर्खियों में चीनी घुसपैठ की ख़बरें दिखने लगती है। इस सीमा पर शांति काल में सुरक्षा का दायित्व इंडो तिब्बत बार्डर पुलिस (आई.टी.बी.पी.) के पास है। 1962 के अनुभवों की देन यह अपेक्षाकृत छोटा अर्ध सैनिक बल मुश्किल परिस्थितियों में अपना काम अंजाम दे रहा है।

2011 में प्रतिष्ठित पत्रिका फॉरेन पालिसी में प्रकाशित एक लेख के अनुसार दुनिया की सबसे संवेदनशील भारत पाक सीमा को अलग अलग नामों से जाना जाता है। गुजरात, राजस्थान, पंजाब और जम्मू से लगी आई.बी. है। सियाचिन ग्लेशियर में 100 किलोमीटर से कुछ अधिक क्षेत्र को एक्चुअल ग्राउंड लाइन पोजीशन (ए.जी.पी.एल.) कहा जाता है अर्थात् यहाँ सीमा वहाँ है जहाँ भारतीय और पाकिस्तानी जवान समय समय पर बैठ जाते हैं। कश्मीर घाटी और जम्मू अंचल में 1948 में झड़पों के बाद हुए युद्ध विराम ने पहले सीज फायर लाइन बनाई जो 1965 के युद्ध के बाद एल.ए.सी. बनी और शिमला समझौते में इसे भारत ने आई.बी. का दर्जा दिलाने का प्रयास किया पर सहमति हुई एक नए नामकरण एल.ओ.सी. या लाइन ऑफ कंट्रोल (नियंत्रण रेखा) पर। आज पाकिस्तान इसे वर्किंग बाउंडरी और भारत आई.बी. कहता है। इस सीमा का भी जितना भाग अविवादित आई.बी. है उसकी सुरक्षा का दायित्व सीमा सुरक्षा बल का है। यह एक चुनौती पूर्ण दायित्व है क्योंकि यहीं से सबसे अधिक घुसपैठ और तस्करी के प्रयास होते हैं।

इनके अतिरिक्त बांग्लादेश, म्यांमार, भूटान और नेपाल की सीमाओं पर विवाद न होने के कारण वहाँ अपेक्षाकृत शांति है। इन पर सीमा सुरक्षा बल, आसाम राइफल्स और एस.एस.बी. रखवाली करते हैं। इनमें सिर्फ बांग्लादेश के साथ कुछ विवाद थे। मोदी सरकार ने उनमें से अधिकतर सुलझा लिए हैं इसलिए अब वहाँ भी कमोबेश सौहार्द है।

सीमा प्रबंधन एक बहुत ही संवेदनशील, पेशेवर और धैर्य की माँग करने वाला क्षेत्र है जिसमें अंध राष्ट्रवादी पदावलियों से अकसर काम नहीं चलता। मैंने ऊपर जिक्र किया है कि अपने पड़ोसियों से हमारी सभी आधुनिक सीमाएँ ब्रिटिश साम्राज्यवाद, जो अपने समय में विश्व की एक बड़ी ताकत था, की देन है। हम अभी भी एक राष्ट्र राज्य बनने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और इसी लिए सीमा को लेकर हमारा रवैया काफी हद तक मिथकीय है। हमें समझना होगा कि पड़ोसियों से अच्छे संबंध ही सबसे अच्छे सीमा प्रबंधन की गारंटी हैं। ताजा उदाहरण बांग्लादेश का है - हालिया समझौते ने दोनों देशों के बीच रेल, बिजली, सड़क, दूर संचार जैसे अनगिनत सहयोग के क्षेत्र खोल दिए हैं। मैकमोहन लाइन को लेकर हमें इसी तरह का लचीला रुख अपनाना होगा। एक बार चीन से सीमा विवाद समाप्त होने के बाद आर्थिक सहयोग के जो अवसर पैदा होंगे उनकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। पाकिस्तान के साथ भी कम से कम सियाचिन और सर क्रीक जैसे विवाद, दोनों पक्षों के थोड़ी सी जिद छोड़ने से हल हो सकते हैं। इन पर कई बार हल के करीब पहुँच कर बात उलझ गई है। कश्मीर जरूर समय लेगा पर उसमें भी धैर्य से लगे रहने की जरूरत है।


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