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फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम जाना मुल्ला मंसूर का पीछे     आगे

'उनका विचार है कि समय उनके साथ है', पिछले महीने ही प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के सलाहकार सरताज अजीज ने एक पत्रकार से कहा था पर तालिबानों का यह मानना पूरी तरह से गलत साबित हुआ। 22 मई को ईरान-पाकिस्तान सीमा पर स्थित कोचकी क़स्बे में जिस ड्रोन हमले में अफगान तालिबान का अमीर मुल्ला मंसूर मारा गया वह कई अर्थों में विशिष्ट था। तालिबान को निर्णायक क्षति पहुँचाने के अलावा यह बलूचिस्तान में होने वाला पहला ड्रोन हमला था। इसके पहले के सारे हमले क़बायली इलाकों में हुए थे और पाकिस्तान जाहिरा तौर पर अमेरिका से विरोध जरूर दर्ज कराता था पर दुनिया जानती थी कि यह औपचारिकता मात्र है।

बलूचिस्तान में मुल्ला मंसूर की उपस्थिति पाकिस्तान के उन दावों की धज्जियाँ उड़ाती है जिनमें वह तालिबान की पाकिस्तान में उपस्थिति नकारता रहा है। हमले के समय वह कार में था, इससे यह भी साबित हो गया कि तालिबानी नेतृत्व दुर्गम पहाडियों में छिप कर नहीं रहता बल्कि शहरी इलाकों में उन्हें पनाह मिलती है। मृतक के पास वली मोहम्मद नाम का एक पाकिस्तानी पासपोर्ट भी मिला है जिसमें उसका कराची का पता दर्ज है। पाकिस्तानी अधिकारियों की जानकारी और मदद से ही यह संभव था। खुद पाकिस्तानी अखबारों के दावों के अनुसार दो पासपोर्टों पर वह अकसर उड़ता रहा है और पिछले कुछ वर्षों में उसने दुबई की एक दर्जन से अधिक यात्राएँ की है। इस बार भी वह ईरान से इसी शिनाख्त पर लौट रहा था। उसके साथ मारा गया शख्स भी पाकिस्तानी नागरिक था।

सरताज अजीज ने हाल ही में वाशिंगटन में कहा था कि तालिबानों पर पाकिस्तान का बहुत सीमित प्रभाव है। वे इलाज या परिवारों को रखने जैसे कामों के लिए ही पाकिस्तानी जमीन का उपयोग करते हैं। इसके विपरीत अफगानिस्तान लगातार आरोप लगाता रहा है कि तालिबान न सिर्फ पाकिस्तान में शरण लिए हुए हैं बल्कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. ही उनकी माई-बाप है। पाकिस्तान में अमेरिकी राजदूत के एक खुफिया केबल में कहा गया है कि बलूचिस्तान में घुस कर मुल्ला मंसूर को मारने से वे पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ भी चिंतित हैं जो मन ही मन इन आतंकियों से नफरत करते हैं। दरअसल अभी तक सिर्फ ओसामा बिन लादेन के मामले में ऐसा हुआ था कि वजीरिस्तान के क़बायली इलाकों के बाहर पाकिस्तान में घुसकर अमेरिका ने हवाई हमला किया था। कराची के इतना करीब अमेरिकी हमले से इन राजनीतिज्ञों के मन में भय और चिंता उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।

मुल्ला मंसूर लंबे समय तक पहले तालिबानी अमीर मुल्ला उमर का निकटतम विश्वासपात्र रहा है और भारत तथा अमेरिका विरोधी अड़ियल रवैये के कारण आई.एस.आई. का चहेता था। काबुल में तालिबानी सरकार (1996 - 2001) में वह महत्वपूर्ण पदों पर रहा था और पाठकों को कांधार हवाई अड्डे के वे विजुअल्स याद होंगे जिनमें उसे भारतीय अधिकारियों से अपहृत एयर इंडिया के विमान यात्रियों को छोड़ने के बदले भारतीय जेलों में बंद आतंकियों को छुड़ाने के लिए बातचीत कर रहा था। मुल्ला उमर से उसकी निकटता का अंदाज़ा इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि उमर की मृत्यु के बारे में वर्षों तक आई.एस.आई. के अलावा जिन चंद लोगों को पता था उनमें एक वह भी था। यहाँ तक परिवार वाले भी नहीं जानते थे कि उनके पास आने वाली ईद की मुबारकबाद या तालिबान लड़ाकों के लिए जारी होने हुक्म मुल्ला उमर के नाम पर मंसूर जारी करता है।

मुल्ला मंसूर के मरने पर हमें किसी फौरी राहत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस मौत का एक नतीजा तो यह होगा कि अफगानिस्तान सरकार और तालिबानों के बीच पिछले कुछ दिनों से टल रही बातचीत और टल जाएगी। इस बात की भी पूरी संभावना है कि अफगान तालिबानों का अगला नेतृत्व आई.एस.आई. सिराजुद्दीन हक्कानी के हाथों सौंप दे। कुख्यात हक्कानी नेटवर्क का प्रतिनिधि सिराजुद्दीन मंसूर से भी अधिक कट्टर माना जाता है। उसका बाप जलालुद्दीन हक्कानी सोवियत रूस के विरुद्ध अमेरिका पोषित जिहाद का महत्वपूर्ण पात्र और एक दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन का सबसे विश्वास पात्र था। विडंबना है कि अमेरिका द्वारा निर्मित यह भस्मासुर हक्कानी नेटवर्क काबुल और उसके आस-पास अमेरिकन और भारतीय हितों पर किए जाने वाले सबसे खूंखार हमलों का जनक है। अमेरिका पिछले कई वर्षों से इसके खिलाफ कार्यवाही करने की माँग करता रहा है। उसने पाकिस्तान को मिलने वाली सैनिक और असैनिक सहायता के लिए कई बार हक्कानी नेटवर्क पर शिकंजा कसने की शर्त भी लगाई है, यह अलग बात है कि पाकिस्तानी राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाली आई.एस.आई. कभी भी इसके लिए तैयार नहीं होगी क्योंकि उसे हमेशा लगता है कि हक्कानी नेटवर्क जैसे संगठन काबुल में भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक सरकार बनाने और फिर उसे बनाए रखने के लिए आवश्यक होंगे। हाल में पाकिस्तान और अमेरिका के संबंधों में खटास पैदा करने वाला एफ-16 विमानों का सौदा इसका बड़ा उदाहरण है। अमेरिकी सीनेट ने इस शर्त के साथ पाकिस्तान को विमान खरीदने के लिए आर्थिक मदद देने की पेशकश की है कि वह हक्कानी नेटवर्क पर लगाम कसे। स्वाभाविक है कि इस माँग को मानने की जगह फ़ौजी नेतृत्व ने सरकार को एफ-16 विमान हासिल करने के लिए तुर्की समेत दूसरे विकल्प तलाशने के लिए कहा है। पनामा लीक के मामले में अपनी संतानों के कारण बुरी तरह उलझे प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ चाहते हुए भी सेना के निर्देशों का उल्लंघन नहीं कर सकते।

जल्द ही मुल्ला मंसूर का उत्तराधिकारी घोषित हो जाएगा और हमें अफगानिस्तान में अधिक हिंसक वारदातों के लिए तैयार रहना चाहिए। यह इसलिए भी अपेक्षित है कि नए नेतृत्व के समक्ष तालिबान काडरों के सामने स्वयं को साबित करने की चुनौती होगी। चाबहार बंदरगाह को लेकर भारत, अफगानिस्तान और ईरान के बीच जिस तरह की समझ विकसित हो रही है उससे भी पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठानों में बेचैनी है। वे लगातार कोशिश करेंगे कि नई दिल्ली और काबुल के बीच रिश्ते दोस्ताना न बने और इसके लिए उन्‍हें स्वाभाविक रूप से तालिबान याद आयेंगे। यह अलग बात है कि तालिबान जितने हमलावर होंगे वर्तमान अफ़ग़ानी सत्ता प्रतिष्ठान का रवैया उतना ही उनके विरोध में कठोर होता जाएगा।

भारत के लिए यह देखो और इंतजार करो का समय है। हमें सावधानी से अफगानिस्तान में आई.एस.आई. की अगली चाल का इंतजार करना चाहिए। यह हमारे हित में है कि न सिर्फ विश्व जनमत तालिबानी हिंसा के खिलाफ है बल्कि खुद पाकिस्तानी नागरिक समुदाय अपने अखबारों में मुल्ला मंसूर की मौत पर खुशी जाहिर कर रहा है। कम से कम पाकिस्तान के सबसे प्रतिष्ठित अख़बार

डान

में छपी पाठकीय प्रतिक्रियाएँ तो इसी का द्योतक हैं।


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