22 अगस्त की रात कराची में जो कुछ घटा वह कई अर्थों में अभूतपूर्व था। ऊपर से
देखें तो पटकथा में कुछ भी नया नहीं था और सालों से ऐसे ही होता आया था। किसी
खास मौके पर कराची के लोग देर रात खा पीकर एक सार्वजनिक स्थल पर इकट्ठे होते
हैं और लंदन में निर्वासित जिंदगी बिता रहे अल्ताफ़ हुसैन का भाषण सुनते हैं।
यह भाषण उन्हें टेलीफोन से सुनाया जाता। लाउडस्पीकरों के जरिए श्रोताओं तक
पहुँचने वाले भाषण का पहले तो सीधा प्रसारण चैनलों से किया जाता था पर अब फौज
और अदालतों की सख्ती से ऐसा नहीं हो पा रहा है पर भाषण खत्म होने के थोड़ी ही
देर बाद यू ट्यूब पर ये वायरल हो जाते हैं।
उस दिन भी यहीं हुआ। कराची में सिंध रेंजर्स द्वारा एम.क्यू.एम. के खिलाफ़ चलाए
जा रहे अभियान को लेकर पार्टी के कार्यकर्ता कराची प्रेस क्लब के बाहर अनशन पर
बैठे थे और रात में अल्ताफ हुसैन उन्हें संबोधित करने वाले थे। सभी को उम्मीद
थी कि वे अपनी पुरानी आदत के अनुसार सेना, रेंजर्स, नवाज़ शरीफ या आसिफ अली
जरदारी की पार्टियों की लानत मलामत करेंगे पर उनके खास विश्वस्तों को भी पता
नहीं था कि उनके भाषण की शुरुआत ही "पाकिस्तान पूरी दुनिया के लिए एक नासूर है
... पाकिस्तान पूरी दुनिया के लिए एक अज़ाब है ...पाकिस्तान दुनिया के लिए एक
दहशतगर्दी का एपिक सेंटर है" जैसे वाक्यों से होगी। हर बार की तरह अल्ताफ अपने
खास अंदाज में झूम झूम कर चीखते हुए भावुकता पूर्ण तकरीर कर रहे थे और हर बार
की ही तरह उस दिन भी उनके श्रोता जैसे ट्रांस में थे। लय तब टूटी जब उन्होंने
पाकिस्तान मुरदाबाद के नारे लगाने शुरू किए और श्रोताओं को भी इसके लिए
प्रेरित किया। एक हिस्से ने उनका साथ भी दिया पर ज्यादातर की समझ में आ गया कि
लक्ष्मण रेखा पार हो गई है और अब उन्हें पाकिस्तान की सबसे ताकतवर संस्था फौज
की मार झेलनी पड़ेगी। बड़ी मेहनत और कठोर अनुशासन के साए तले खड़े संघटन पर
अल्ताफ की पकड़ का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उनके ललकारने पर भाषण खत्म
होते ही कार्यकर्ताओं की भीड़ प्रेस क्लब से उठी और उसने ए. आर. वाई. चैनल समेत
कई मीडिया घरानों को फूँक डाला।
एम.क्यू.एम. को इस वाचिक दुस्साहस का इस बार कुछ ज्यादा ही खामियाज़ा भुगतना
पड़ा। ऐसा पहले कई बार हुआ था कि अल्ताफ हुसैन ने अपने विरोधियों को ललकारा,
उनके साथ गाली गलौज की और फिर माफी माँग कर बच निकले पर इस बार शायद कुछ अधिक
हो गया था। मैंने ऊपर उल्लेख किया है कि अब उनके भाषणों को सीधे प्रसारित करने
से टी.वी. चैनलों को रोक दिया गया है पर तकनीकी प्रगति के इस युग में इस
प्रतिबंध का कोई अर्थ नहीं है। हर भाषण की सी.डी. यू-ट्यूब पर वायरल हो जाती
है और उनके लाखों समर्थकों में जोशो खरोश भर देती है। इस बार शायद पाकिस्तान
मुर्दाबाद का नारा उन्हें महँगा पड़ा। उसी रात एम.क्यू.एम. के मुख्यालय नाइन
जीरो पर छापा मार कर रेंजर्स उसके नेता फारूक सत्तार को रात भर के लिए उठा ले
गए। अगले दो दिनों में कराची और उसके बाहर पार्टी के लंबे समय से मौजूद एक
दर्जन से अधिक दफ्तर यह कह कर जमींदोज कर दिए गए कि वे ज़मीनों पर अवैध कब्जा
कर के बनाए गए थे। अल्ताफ हुसैन और दूसरे नेताओं के खिलाफ देश द्रोह जैसी
संगीन धाराओं में मुकदमें दर्ज किए गए और महिलाओं समेत कई कार्यकर्ता गिरफ्तार
कर लिए गए। भाषण के दूसरे दिन कराची के मेंयर के चुनाव में एम.क्यू.एम. के जेल
में बंद वसीम अख्तर तो चुनाव जीत गए पर कराची के ही एक-दूसरे उप जिले के चुनाव
में पार्टी के विजयी उम्मीदवार के वोटों को धांधली से अवैध घोषित कर उसे हरा
दिया गया।
दूसरे दिन अल्ताफ हुसैन ने यह कह कर डैमेंज कंट्रोल करने की कोशिश की कि बहुत
अधिक भावनात्मक दबाव के कारण भावुकता में वे बहक गए थे और भविष्य में ऐसी गलती
नहीं करेंगे। फारूक सत्तार ने भी रेंजर्स के चंगुल से छूटने के बाद अगले ही
दिन प्रेस कांफ्रेंस में अल्ताफ हुसैन से पार्टी के संबंध विच्छेद की घोषणा कर
दी। वहाँ मौजूद दूसरे नेताओं ने भी कहा कि अब पार्टी संबंधी सारे फैसले
पाकिस्तान में ही लिए जाएँगे और लंदन की राबिता कमेटी का उनसे कोई वास्ता नहीं
होगा। पर क्या यह सब इतना आसान है?
पाकिस्तानी मीडिया, चैनलों और अखबारों दोनों में, ऐसे भविष्य वक्ताओं की कमी
नहीं है जो अल्ताफ हुसैन और उनके बहाने एम.क्यू.एम. के अंत की घोषणा कर रहे
हैं। सबसे महत्वपूर्ण है दैनिक डान के पूर्व संपादक अब्बास नासिर की यह
टिप्पणी कि अब इसमें कोई शक नहीं रह गया है इस आत्मघाती बयान के बाद यह
व्यक्ति, जिसका हर शब्द कराची की सड़कों पर कानून था तथा जिसके इशारों पर लोग
जीते और मरते थे, अब पहले जैसा नहीं रह गया है। देखना यह है कि उसके साथ कितने
और लोग डूबते हैं।
1978 में आल पाकिस्तान मुहाजिर स्टूडेंट आर्गेनाईजेशन से शुरू हुआ सफर 1984
में मुहाजिर कौमी मूवमेंट से होता हुआ 1997 में मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट तक
पहुँचा। चार दशकों में फैला यह सफर पाकिस्तान में शिनाख्त की एक दिलचस्प
यात्रा है जिसमें पाकिस्तान बनाने के आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेने वाले मुख्य
रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार के उर्दू भाषी मुसलमान छह दशकों के बाद भी
मुहाजिर (शरणार्थी) कहे जाते हैं। पंजाबी, सिंधी या पश्तून राष्ट्रीयताओं से
जूझते हुए ये उर्दू भाषी आज भी अपनी पहचान के लिए लड़ रहे हैं। अल्ताफ हुसैन ने
अपनी जबर्दस्त नेतृत्व क्षमता, कठोर और क्रूर अनुशासन तथा कुशल सौदेबाजी के बल
पर एम.क्यू.एम. को एक ऐसी मशीन में तबदील कर दिया है जिसकी उपेक्षा कर के
सिंध, खासतौर से कराची और हैदराबाद में कोई राजनीति नहीं कर सकता। अल्ताफ ने
पार्टी आदर से अधिक आतंक से चलाई है। हफ्ता, अपहरण और हत्याओं के भरोसे चलने
वाला दल क्या फौज के बल पर आसानी से खत्म किया जा सकता है? तब जब कि मुहाजिर
पहचान के सवाल पर अभी भी इसी की तरफ देखते हैं। यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण
है कि फौज ने समय समय पर इसका उपयोग मुख्य धारा की पार्टियों की बाँह मरोड़ने
के लिए किया है। कुछ ही दिनों बाद जब जनरल राहिल शरीफ रिटायर हो जाएँगे तब फौज
के नए नेतृत्व का एम.क्यू.एम. को लेकर क्या रुख होगा? यह भी देखना रोचक होगा
कि बलूचिस्तान पर हालिया बयानों के बाद बैकफुट पर आया पाकिस्तानी सुरक्षा
तंत्र क्या मुहाजिरों के साथ उसी तरह से निपटने की गलती करेगा जो 1971 में
उसने बंगालियों के साथ की थी? इन सारे प्रश्नों का उत्तर तलाशने के लिए हमें
कुछ दिन और इंतजार करना पड़ेगा।