अभी पिछले ही हफ़्ते पाकिस्तान की नेशनल असेंबली ने राज्य के मामलों में फ़ौजी
दखल को लेकर गरमागरम बहस की थी और इस पूरी बहस में सबसे दिलचस्प हस्तक्षेप
इमरान खान की पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी के एक सदस्य का यह बयान था कि सभी
सीनेटरों को अपने राजनैतिक मतभेद भुलाकर इस पर एकमत हो जाना चाहिए कि
पाकिस्तानी विदेश नीति पर अंतिम फैसला करने का हक़ जनता द्वारा चुनी विधायिका
का ही है। पी.टी.आई. के किसी सदस्य का इतने बेबाकी से बोलना इसलिए भी चकित
करता है कि यह कोई छिपी ढकी जानकारी नहीं है कि इमरान खान फ़ौजी इदारों की ही
निर्मिति हैं।
ऐसी किसी गलतफहमी, जिससे यह आभास होता हो कि पाकिस्तान का राजनैतिक प्रतिष्ठान
विदेश और रक्षा नीति के मामलों में फ़ौजी हस्तक्षेप के बाहर फैसले ले सकता है,
को दूर करने के लिए एक सप्ताह के अंदर ही पूरे मंत्रिमंडल को पाकिस्तानी सेना
के मुख्यालय या जी.एच.क्यू. तलब कर लिया गया। मजेदार बात यह है कि जी.एच.क्यू.
में आयोजित बैठक विदेश नीति के संबंध में ही बुलाई गई थी और उसका एक विजुअल
पाकिस्तानी मीडिया पर खूब वायरल हुआ है जिसमें सेनाध्यक्ष जनरल राहिल शरीफ़ का
एक स्टाफ आफिसर सामने सर झुकाए बैठे कैबिनेट मंत्रियों को विदेश नीति पर भाषण
देते दिखाया जा रहा है। असेंबली की बहस के बाद अगर किसी के मन में शंका रही भी
होगी तो इस विजुअल से स्पष्ट हो गया कि विदेश और रक्षा नीति से संबंधित
महत्वपूर्ण फैसले इस्लामाबाद के प्रधानमंत्री कार्यालय में नहीं रावलपिंडी
स्थित जी.एच.क्यू. में लिए जाते हैं।
प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ पिछले कुछ दिनों से लंदन में अपने दिल का इलाज करा
रहें हैं इसलिए जी.एच.क्यू. की इस बैठक में वे शरीक नहीं थे पर स्वाभाविक है
कि उनके मंत्रियों की सैन्य अधिकारियों के सामने पेशी बिना उनकी इजाजत के नहीं
हुई होगी। बैठक के फौरन बाद प्रधानमंत्री के सलाहकार सरताज अजीज का बयान आया
कि अफगानिस्तान की लड़ाई पाकिस्तान अपनी धरती पर नहीं लड़ सकता। मतलब साफ कि
अमेरिका और अफ़गानिस्तान के दबाव के बावजूद पाकिस्तान अपने इलाके में पनाह पाए
हुए तालिबानों और हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करेगा। दरअसल
ये वे तत्व हैं जिन्हें पाकिस्तानी सेना अपना रणनीतिक भागीदार मानती है और
जिनके दम पर अफगानिस्तान तथा कश्मीर में वह अपना एजेंडा आगे बढ़ाती है। दिसंबर
2015 में नवाज़ की इस घोषणा के बावजूद कि अब अच्छे और बुरे तालिबानों में कोई
फर्क नहीं किया जाएगा सेना ने आपरेशन जर्बे अज्ब के तहत इनके खिलाफ अभियान कभी
नहीं छेड़ा।
दिल के आपरेशन से अधिक पनामा लीक में बेटे और बेटी का नाम आने के बाद से नवाज
शरीफ परेशानियों में है। सेना से उनके रिश्ते हमेशा प्रेम और घृणा के रहे हैं।
सभी जानते हैं कि जनरल ज़िया उल हक़ ने उन्हें ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के खिलाफ़
खड़ा किया था पर जब उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपने लिए स्वतंत्र भूमिका
तलाशनी शुरू की उन्ही के सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने उनका तख्ता पलट
दिया। इस बार वे फूँक-फूँक कर कदम उठा रहे है और लगभग हर मौके पर जब सेना से
किसी मसले पर मतभेद की नौबत आई है, समर्पण चुनी हुई सरकार ने ही किया है। दो
साल पहले जब सेना को लगा कि प्रधानमंत्री भारत से दोस्ती के कुछ ज्यादा ही
इच्छुक नजर आ रहे हैं तो उसने कादरी और इमरान खान की जोड़ी से इस्लामाबाद पर
चढाई करा दी। क्रिकेट के हरफन मौला इमरान को पूरा विश्वास था कि सेना नवाज को
हटाकर उनके हाथ में सत्ता सौप देगी और वे लगातार अपने समर्थकों को आश्वस्त
करते रहे कि अंपायर की उँगली बस उठने ही वाली है। सेना ने नवाज शरीफ को आउट
करार तो नहीं दिया पर इतना जख्मी जरूर कर दिया है कि अब वे पिच पर लँगड़ाते हुए
ही खेल सकते हैं। सेना ने नेशनल ऐक्शन प्लान के तहत अपने लिए राष्ट्रीय
परिदृश्य में ज्यादा स्पेस हासिल कर लिया है। विदेश नीति को लेकर जी.एच.क्यू.
में मंत्रियों की तलबी को इसी रूप में देखना चाहिए।
पिछले कुछ दिनों में पाकिस्तान अपने पड़ोसियों के बीच अलग-थलग पड़ गया है। भारत
तो उसका पारंपरिक शत्रु रहा ही है पर अफगानिस्तान और ईरान जैसे मुस्लिम पड़ोसी
देशों के साथ भी उसके संबंध बिगड़े हैं और अफगानिस्तान के साथ तो युद्ध जैसे
हालात बन गए हैं। पिछले ही हफ़्ते तोरखम सीमा पर दोनों के बीच गोलाबारी हुई है
जिसमें एक पाकिस्तानी मेंजर और दो अफगान जवान मारे गए हैं। पुराना खैरख्वाह
अमेरिका भी धीरे-धीरे धैर्य खोता जा रहा है और मुल्ला मंसूर को मारने के लिए
बलूचिस्तान तक घुस कर ड्रोन हमला करने या एफ-16 लड़ाकू विमानों की बिक्री पर
रोक समेत उसके तमाम हालिया फैसले पाकिस्तान के लिए सुखद नहीं रहे हैं।
पाकिस्तानी मीडिया और राष्ट्रीय असेंबली की बहसों में इसे पाकिस्तानी विदेश
नीति की असफलता के रूप में देखा जा रहा है और इसका ठीकरा किसी न किसी के सर पर
तो फूटना ही है। भला फौज इस असफलता की जिम्मेदारी क्यों लेगी? उससे पंगा लेकर
मीडिया भी कई बार अपने हाथ जला चुका है इसलिए उम्मीद करना कि वह फ़ौजी नीतियों
को कटघरे में खड़ा करेगा, व्यर्थ है। निर्वाचित सरकार को ही इसका जिम्मेदार
ठहराया जाएगा। जो नवाज पर सीधा हमला नहीं करना चाहते वे भी कहने लगे हैं कि
असफल विदेश नीति के पीछे पूर्ण कालिक विदेश मंत्री का न होना एक बड़ा कारण है।
नवाज शरीफ खुद ही विदेश मंत्रालय संभालते हैं और उनकी मदद के लिए एक सलाहकार
सरताज़ अज़ीज़ हैं जो अस्सी साल से अधिक के हो गए है। उनकी बढ़ती उम्र को भी
असफलता का कारण बताया जा रहा है।
पर ये सब कारण तो सतही हैं, पाकिस्तानी जनता और मीडिया को यह समझना होगा कि
किसी देश की विदेश नीति तभी सफल मानी जाएगी जब अधिक से अधिक पड़ोसी देशों से
उसके संबंध दोस्ताना हों और फौज अपनी नीतियों से ऐसा होने नहीं दे रही है।
स्ट्रेटिजिक डेफ्थ की अवास्तविक फ़ौजी जिद के कारण अफगानिस्तान को पाकिस्तान
अपने उपनिवेश से अधिक मानने के लिए तैयार नहीं है। इसी चक्कर में उसने हक्कानी
नेटवर्क और तालिबान जैसी आतंकी तंजीमें अपनी जमीन पर पाल-पोस रखी हैं और वे जब
भी अफगान ठिकानों पर हमला करती हैं, पाकिस्तान विरोधी भावनाओं को भड़काने का ही
काम करती हैं। ये सभी सुन्नी संगठन हैं और शिया ईरान भी इन्हें लेकर हमेशा
सशंकित रहता है। भारत के खिलाफ सक्रिय जैशे मोहम्मद और लश्कर ए तायबा भी इसी
फौज की निर्मिति हैं। एक दुश्चक्र है - नवाज़ शरीफ की सरकार चाह कर भी इन के
खिलाफ कार्यवाही नहीं कर सकती और जब तक ये संगठन सक्रिय रहेंगे पड़ोसियों से
उसके संबंध खराब ही रहेंगे, खराब संबंधों को असफल विदेश नीति माना जाएगा और
फौज इसके लिए चुनी हुई सरकार को कटघरे में खड़ा करती रहेगी।